क्या एक अच्छा मित्र समस्याओं की अनदेखी करता है?
बहन बारबरा और मैं एक-दूसरे को दो साल से जानती थीं, हमारे बीच बहुत अच्छा तालमेल था, हम जब भी बातें करतीं, लगता कि हमारी बातें चलती ही रहेंगी। हम अक्सर अपने हरेक अनुभव और उससे हासिल लाभ के बारे में बातें करतीं। उसके साथ जब भी कुछ घटता, वह मेरे पास आ जाती, और मुझे कोई समस्या होती, तो मैं उसके साथ संगति करना चाहती। वह हमेशा मेरे साथ बड़े सब्र से संगति करती थी, हमारे इस नजदीकी रिश्ते को मैं संजोए रहती थी। मुझे लगता कि मेरे साथ एक मददगार और साथ देने वाली बहन का होना बहुत बढ़िया था।
पिछले साल, मैंने अनजाने में बारबरा को कुछ बहनों से यह कहते सुन लिया था कि हाल में उसके सुसमाचार काम के बढ़िया नतीजे आ रहे थे, उससे उपदेश सुन रहे लोगों में से कितने ही लोग धार्मिक धारणाओं में डूबे हुए थे, फिर प्रार्थना करके और परमेश्वर पर भरोसा रखकर, उनके साथ सब्र से संगति कर उन्हें परमेश्वर के वचन सुनाने से, उन लोगों ने फौरन परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। मैंने देखा कि यह सुनकर बहनें उसे प्रशंसा-भरी नजरों से देख रही थीं, उसके चारों ओर घेरा बनाकर, तरह-तरह के सवाल पूछ कर, अभ्यास के अच्छे मार्ग खोज रही थीं। मुझे थोड़ी फिक्र हुई, मैंने सोचा, “अच्छी बात है कि उसका सुसमाचार कार्य बहुत बढ़िया चल रहा है, लेकिन उसने अपने बढ़िया नतीजों के बारे में ही बताया, खुद अपनाए खास मार्ग के बारे में तो बताया ही नहीं, न ही उसने यह गवाही दी कि इस दौरान परमेश्वर ने उसे रास्ता कैसे दिखाया। क्या यूँ बातें करके वह बस दिखावा नहीं कर रही थी?” कुछ दिन बाद, बहन फाए ने मुझसे कहा, “बारबरा बहुत प्रतिभाशाली है, वह अपने सुसमाचार कार्य में ऐसे बढ़िया नतीजे हासिल कर चुकी है। उसने बताया कि एक अगुआ ने तो उसे एक सभा में अपने अनुभवों के बारे में संगति करने के लिए बुलाया भी है।” यह सुनकर मेरे दिल को झटका लगा : बारबरा ऐसी बातें क्यों कह रही है? फाए अब उसकी इतनी सराहना करती है, मगर यह उसके लिए फायदेमंद नहीं है। मुझे एहसास हुआ कि बारबरा हमेशा अपने कर्तव्य में हासिल अच्छे नतीजों का दिखावा कर रही थी, और मैं थोड़ी बेचैन हो गई। परमेश्वर ने संगति की है कि दिखावा करना और खुद की बड़ाई करना शैतानी स्वभाव दिखाना है, ऐसा करते रहना खतरनाक होगा। मैं ऐसा नहीं चलने दे सकती। मुझे बारबरा को इस बारे में बताने का मौका ढूँढ़ना ही होगा। लेकिन जब भी मैं इस समस्या के बारे में उसे बताने की सोचती, झिझक जाती। मुझे कुछ साल पहले के कुछ अनुभव याद आए। मेरी साथी जेनी ऊँचे ओहदे से दूसरों को फटकारते हुए अक्सर सिद्धांत बताने लगती थी, लेकिन वह कभी विश्लेषण कर खुद को जानने की कोशिश नहीं करती थी। मैंने उसे उसकी यह समस्या बताई, तो न सिर्फ उसने नहीं माना, बल्कि मेरी पुरानी नाकामियों और अपराधों के बारे में बताकर मुझ पर उल्टा हमला किया। बाद में, वह मुझे देखने से भी बचने लगी। इससे मेरे लिए चीजें बुरी और दर्दनाक हो गईं। एक और मौके पर, बहन रोक्साना एक सभा के दौरान विषय से भटक गई, तो मैंने उसे इस बारे में बताया। बाद में, उसने मुझसे खुलकर कहा कि जब मैंने उसे उसकी समस्या के बारे में बताया था, तो उसने बहुत शर्मिंदा महसूस किया, उसे लगा मैं जानबूझ कर उसके लिए इतनी मुश्किल खड़ी कर रही थी, इस वजह से वह सभाओं में संगति नहीं करना चाहती थी। हालाँकि उसने सत्य खोजने, आत्म-चिंतन करने और अपनी समस्याओं को पहचानने का काम किया, उसकी यह बात सुनना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। इसके बाद, मैं दूसरों की समस्याएँ बताने में बहुत चौकस रहने लगी। मैंने सोचा कि बारबरा के साथ मेरा रिश्ता हमेशा से कितना बढ़िया था, और सोचा कि अगर मैंने उसे उसकी समस्याएँ बताईं, तो कहीं उसे ऐसा तो नहीं लगेगा कि उसे एक असहज स्थिति में डाल दिया गया है? अगर वह न सुने और मेरे खिलाफ हो जाए, अगर उसे लगे कि मैं उसकी कमियाँ उजागर कर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही थी, और फिर वह मेरी अनदेखी करे, तो मैं क्या करूँगी? हम रोज रास्तों में मिला करते थे, तो चीजें बहुत असहज हो जाएँगी। उसने भी हमेशा यूँ ही दिखावा नहीं किया था। शायद परमेश्वर के वचन पढ़कर वह आत्म-चिंतन कर सके और खुद इस बात का एहसास कर ले। तो छोड़ देते हैं, मैं बस चुप रहूँगी।
एक दिन, बारबरा ने मुझे बताया कि भाई-बहनों ने उसे कुछ सुझाव दिए थे। उन्होंने कहा कि वह अपनी संगति में दिखावा करने और दूसरों से सराहना पाने के पक्ष में रहती थी। इस बात ने उसे बहुत परेशान कर रखा था। उसकी यह बात सुनकर मेरे भीतर उथल-पुथल मच गई। सच यह था कि हाल में मैंने भी उसे दिखावा करते देखा था, लेकिन हमारे रिश्ते को नुकसान पहुंचाने के डर से, मैंने उसकी अनदेखी की और उससे कुछ नहीं बोली। क्या यह एक बढ़िया मौका नहीं था? क्या मुझे भी खुद देखी समस्याओं के बारे में नहीं बता देना चाहिए? लेकिन फिर मैंने सोचा कि वह पहले से ही मुश्किल में है। अगर मैंने भी बताया, तो शायद वह इसे झेल न पाए और निराश हो जाए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि जो समस्याएँ मैंने देखी थीं उनके बारे में मुझे बताना चाहिए था, लेकिन मुझे फिक्र हुई कि वह मुझे बहुत बेरहम समझेगी, मुझसे दूरी बना लेगी, तो मैंने सावधानी से इस बारे में सोचा कि मुझे किस लहजे में बोलना चाहिए और कैसे ज्यादा चतुराई से बात करनी चाहिए, ताकि वह शर्मिंदा न हो। इसलिए मैंने बस मिसालें दीं कि पहले मैं कैसे अपनी बड़ाई कर दिखावा करती थी, और फिर कैसे आत्म-चिंतन कर उसे समझा था, और आखिर में उसकी समस्या का थोड़ा-सा जिक्र कर दिया। मुझे उसे शर्मिंदा करने का डर था, इसलिए मैंने उससे दिलासा के कुछ बोल बोले, “सभी का स्वभाव भ्रष्ट होता है और उसे दिखाना बिल्कुल सामान्य है। मैं भी दिखाती हूँ। मैं हमेशा बहुत घमंडी और दंभी रही हूँ, अक्सर दिखावा करती हूँ। इससे लाचार न हो, तुम्हें खुद के प्रति सही रवैया रखना चाहिए।” वह जवाब में कुछ नहीं बोली। मगर फिर ऐसा कुछ हुआ जिसने मुझे फिर से परेशान कर दिया।
एक सभा में, बारबरा परमेश्वर के वचन के बारे में अपनी समझ पर संगति कर रही थी, और फिर सुसमाचार फैलाने के अपने हाल के अनुभव के बारे में बोलने लगी। उसने बताया कि कैसे वह दशकों से प्रभु में आस्था रखने वाले एक पादरी को प्रचार कर रही थी। वह धार्मिक धारणाओं से लबालब था, उसने बहुत-सी अफवाहें सुन रखी थीं। बार-बार प्रचार के बावजूद वह सुसमाचार को स्वीकार नहीं पा रहा था। लेकिन वह उसके साथ संगति कर उससे विचार-विमर्श करने गई, और परमेश्वर के वचन के प्रासंगिक अंश ढूँढ कर उसने उसकी धारणाएँ एक-एक कर काटी थीं, आखिरकार, उसने अपनी धारणाएँ छोड़कर, परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया था। उसकी बात पूरी हो जाने पर, सबका ध्यान परमेश्वर के वचन से हटकर उसके सुसमाचार के अनुभव की ओर खिंच गया था। तब मैं थोड़ी जागरूक थी : क्या यह विषय से भटकना नहीं है? हालाँकि वह अपने सुसमाचार अनुभव के बारे में संगति कर रही थी, मगर संगति पूरी हो जाने पर, सब उसकी प्रशंसा कर उसे आदर से देख रहे थे। क्या यह उसका दिखावा नहीं था? मैं यह बात बताकर उसे इस विषय पर बोलने से रोकना चाहती थी, लेकिन मैं कुछ बोल ही नहीं पाई : अगर मैंने इतने सारे लोगों के सामने उसे टोका, तो क्या वह सचमुच शर्मिंदा नहीं हो जाएगी? यह सच था कि बारबरा ने सुसमाचार कार्य में कुछ नतीजे हासिल किए थे, अगर मैंने उसे यह बताया, तो क्या सभी सोचेंगे कि ईर्ष्या की वजह से मैं जान-बूझकर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हूँ? हो सकता है उसके इरादे नेक हों, वह दिखावा न कर रही हो? इसलिए मैं कुछ नहीं बोली, लेकिन परमेश्वर के वचन पर मनन के लिए खुद को ज्यादा शांत नहीं कर पाई, मेरी संगति प्रबोधक नहीं थी, मैंने बस थोड़े-से नीरस वचन ही बोले, और सभा जल्दी समाप्त हो गई।
वह रात मैंने बिस्तर पर करवट बदलते हुए काटी, सो नहीं पाई। मैं सभा में दिखावा करने के लिए बारबरा की कही बातों, और सबकी आँखों में उसके लिए दिखी सराहना के बारे में सोचे बिना नहीं रह सकी। उसने जो संगति की थी उससे दूसरों को परमेश्वर के वचनों की कोई बेहतर समझ नहीं मिल पाई थी, बल्कि उसने सबका ध्यान अपने सुसमाचार कार्य की ओर खींच लिया था, और सभा से कुछ अच्छा हासिल नहीं हुआ था। उसे शर्मिंदा करने के डर से, कुछ न बोलकर मैं कलीसिया जीवन की रक्षा करने में नाकाम रही थी। क्या मैं सही-गलत का ख्याल किए बिना सिर्फ खुशामदी नहीं बन रही थी? मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया : “यह देखने के लिए कि तुम एक सही व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें सावधानीपूर्वक स्वयं की जाँच करनी चाहिए। क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते? ... क्या तुम्हें लगता है कि शैतान ने इस बार जो खाना और पीना छीना है, उसकी पूर्ति तुम अगली बार कर सकोगे? इस प्रकार, अब तुम इसे स्पष्ट रूप से देखते हो; क्या यह ऐसा है जिसकी तुम क्षतिपूर्ति कर सकते हो? क्या तुम खोए हुए समय की पूर्ति कर सकते हो? तुम सबको यह देखने के लिए मेहनत से जाँच करनी चाहिए कि आखिर पिछली कुछ बैठकों में कोई खाना और पीना क्यों नहीं हुआ था और यह समस्या किसके कारण पैदा हुई थी। जब तक यह स्पष्ट न हो जाए, तब तक तुम्हें एक-एक करके सहभागिता करनी चाहिए। अगर ऐसे व्यक्ति को सख्ती से रोका नहीं गया, तो भाइयों और बहनों को समझ में नहीं आएगा, और यह फिर से होगा। तुम्हारी आध्यात्मिक आंखें बंद हैं; तुम में से कई व्यक्ति अंधे हैं! इसके अलावा, जो लोग देख सकते हैं, वे इस बारे में लापरवाह हैं। वे खड़े होकर बोलते नहीं हैं और वे भी अंधे हैं। जो देखते हैं लेकिन बोलते नहीं हैं, वे मूक हैं। यहाँ कई लोग विकलांग हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परामश्वर के वचनों ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। मैंने सोचा कि अपनी संगति में बारबरा कैसे विषय से भटक गई थी, सबका वक्त बरबाद किया था, सभा की उत्पादकता को प्रभावित किया था, फिर भी मैं चुप्पी साधे थी। मैं सोचती रही, “मुझे स्पष्ट मालूम था कि बारबरा विषय से भटक रही थी, तो मैंने कलीसिया जीवन को क्यों नहीं बचाया? मैंने चुप्पी साधकर खुशामदी बनना क्यों पसंद किया?” अव्वल तो, मैं यकीन से नहीं कह सकती थी कि बारबरा खुद की बड़ाई और दिखावा कर रही थी। यह सच था कि उसे सुसमाचार फैलाने का थोड़ा अनुभव था, और इन अनुभवों पर संगति दूसरों के लिए लाभकारी हो सकती थी, तो क्या उसका ऐसी संगति करना दिखावा माना जा सकता था? दूसरे, मुझे फिक्र थी कि मैं चीजों को साफ नहीं देख पा रही थी, मेरे बोलने से वह बेबस हो जाती, और दूसरे सोचेंगे कि मैं ये सब ईर्ष्या की वजह से कह रही थी।
अगले दिन सभा में, मैंने कुछ बहनों को अपनी चिंता बता कर उनसे मदद माँगी। हमने साथ मिलकर परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने की कोशिश करना—भ्रष्ट मनुष्यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैतानी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे इस लक्ष्य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे इन चीज़ों का उपयोग उस पूँजी की तरह करते हैं जिसके द्वारा वे अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्य मानें, और अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के लिए क्या-क्या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान उन्होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़िक्र तक नहीं करते। जब उन्होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचन के खुलासे से मैं समझ गई कि मसीह-विरोधियों की खुद की बड़ाई करने की एक निशानी उनका दूसरों के सामने अपने गुणों और खूबियों, योगदानों और उपलब्धियों का प्रदर्शन करना है, ताकि लोग उन्हें प्रतिभाशाली और काबिल समझकर, उन्हें सम्मान दें और सराहें। सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना सकारात्मक चीजें हैं। एक सुसमाचार कार्यकर्ता के रूप में अपनी खूबियों के साथ, अगर बारबरा ने इस बारे में संगति की होती कि उसकी झेली हुई मुश्किलें क्या थीं, कैसे उसने परमेश्वर पर भरोसा कर उसके कार्य का अनुभव किया था, इससे उसने क्या हासिल किया और सीखा था, और अभ्यास के अच्छे रास्ते क्या थे, तो वह संगति शिक्षाप्रद होती। लेकिन बारबरा ने सिर्फ यही बताया कि उसने कितने लोगों का मत-परिवर्तन किया था, उसने कितने कष्ट उठाए थे, उसने कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी, लेकिन उसके अनुभव सुनने वाले किसी को भी परमेश्वर की ज्यादा समझ हासिल नहीं हो पाई, न ही अलग-अलग मसलों पर अभ्यास या विचार कैसे करें, इस पर कोई स्पष्टता मिली। बजाय इसके, वे बस उसके बारे में ही ज्यादा जान सके, कि सुसमाचार साझा करने में वह गुणी और काबिल थी, और दूसरों के मुकाबले ज्यादा जोशीली थी। सबने उसकी प्रशंसा की, उससे ईर्ष्या की और गहराई से अपनी कमियों को महसूस किया। मैं समझ गई कि खुद का दिखावा करने के और परमेश्वर की बड़ाई कर उसकी गवाही देने के नतीजे एक सामान नहीं थे। संगति के जरिए मेरे पुराने विचारों की पुष्टि हो गई, मैंने तय कर लिया कि बारबरा की कही हुई ज्यादातर बातें परमेश्वर की गवाही की नहीं थीं, बल्कि ये खुद को ऊँचा उठाने और दिखावा करने के लिए कही गई थीं। वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव दिखा रही थी जिससे परमेश्वर को नाराजगी और घृणा होती। बहनों ने मुझे यह भी याद दिलाया कि बारबरा शायद अभी यह न जानती हो कि वह भ्रष्ट स्वभाव दिखा रही थी, और यह देख कर हमें स्नेह से उसे इस बारे में बता देना चाहिए। सिर्फ अपने रिश्तों को बचाने के लिए हम खुशामदी नहीं हो सकते। बहनों की बातों ने मुझे शर्म से भर दिया और मैंने जल्द-से-जल्द बारबरा से संगति करने का फैसला किया।
बैठक खत्म हो जाने पर, मैं शांत नहीं रह सकी। मैंने बारबरा की समस्याएँ पहले देखी थीं, लेकिन उसे बताने की हिम्मत नहीं की थी, और जब मैंने थोड़ा-बहुत बताया भी, तो समस्या को बस छू लिया और इससे सच में कुछ हासिल नहीं हुआ, यानी बारबरा ने कभी सचमुच आत्म-चिंतन नहीं किया, न ही वह अपनी समस्याओं को जान सकी। इन ख्यालों से मैं परेशान रही, दोषी महसूस करती रही, और खुद से पूछे बिना नहीं रह सकी, “मैं आम तौर पर बारबरा के इर्द-गिर्द बड़ी खुश और जीवंत रहती हूँ, उसे सब-कुछ बताती हूँ, तो उसकी समस्याएँ बताने में मुझे इतनी मुश्किल क्यों हो रही है? मैं कुछ बोल क्यों नहीं पा रही?” अपनी खोज और आत्म-चिंतन में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, “तुम सभी सुशिक्षित हो। तुम सभी अपनी बोली में परिष्कृत और संतुलित होने पर ध्यान देते हो, और बोलने के तरीके पर भी ध्यान देते हो : तुम व्यवहारकुशल हो, और दूसरों की गरिमा और अहंकार को ठेस न पहुंचाना सीख चुके हो। अपने शब्दों और कार्यों में, तुम लोगों को उनकी अपनी सोच से काम करने का अवसर देते हो। लोगों को सहज महसूस कराने के लिए तुम वह सब कुछ करते हो जो तुम कर सकते हो। तुम उनकी कमियों या कमज़ोरियों को उजागर नहीं करते हो, और तुम कोशिश करते हो कि तुम उन्हें तकलीफ़ न पहुँचाओ और शर्मिंदा न करो। अधिकांश लोग इसी अंतर्वैयक्तिक सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं। और यह किस तरह का सिद्धांत है? (लोगों को खुश करने का; कपट और धूर्तता का।) यह चालाक, कपटी, विश्वासघाती और धोखेबाज़ है। लोगों के मुस्कुराते चेहरों के पीछे बहुत से द्वेषी, कपटी और घिनौनी बातें होती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “जो लोग मध्य मार्ग से चिपके रहते हैं, वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविकता नहीं जान सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। “जीवन जीने के दर्शनों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—दूसरे की गरिमा पर हमला न करने या उनकी कमियाँ उजागर न करने के सिद्धांत बनाए रखने चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपने मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। चूँकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे द्वारा दोष उजागर किए जाने या चोट पहुँचाए जाने के बाद दुश्मन बनकर कोई तुम्हें किस तरह से नुकसान पहुँचाएगा, और तुम खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालना चाहते, इसलिए तुम जीवन जीने के दर्शनों के ऐसे सिद्धांत इस्तेमाल करते हो, ‘किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों को कभी छोटा मत कहो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, वे एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिलकुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न वे जो चाहते हैं वह कह सकते हैं, न ही जो उनके दिल में होता है, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, उन्हें जोर से कह सकते हैं। इसके बजाय, वे कर्णप्रिय शब्दों का चयन करते हैं, ताकि दूसरे को चोट न पहुँचे। वे दुश्मन नहीं बनाना चाहते। इसका लक्ष्य अपने आसपास के लोगों को खतरा न बनने देना है। जब कोई उनके लिए खतरा नहीं बन रहा होता, तो क्या वे अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहते? क्या ‘किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ’ इस वाक्यांश का प्रचार करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, और जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे कुछ भी कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, हिसाब लगाते और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? इसके मूल में, ‘किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के सद्गुण से यह अपेक्षा करना कि ‘किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ’ एक उच्च नीति है? क्या यह सकारात्मक है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी, कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो, तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी; वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर गली से गुजरने वाले अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। ... तो, यह वाक्यांश लोगों को जो सिखाता है, उसका अंतिम परिणाम क्या होता है? यह लोगों को ज्यादा ईमानदार बनाता है या ज्यादा कपटी? इसके परिणामस्वरूप लोग और ज्यादा कपटी हो जाते हैं; लोगों के दिल और दूर हो जाते हैं, लोगों के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और लोगों के रिश्ते जटिल हो जाते हैं; यह लोगों के सामाजिक संबंधों के जटिल हो जाने के बराबर है। लोगों का संवाद असफल होने लगता है, और यह एक-दूसरे से खुद को बचाने की मानसिकता पैदा करता है। क्या इस तरह लोगों के रिश्ते सामान्य रह सकते हैं? क्या इससे सामाजिक माहौल में सुधार होगा? (नहीं।) इसलिए ‘किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ’ वाक्यांश स्पष्ट रूप से गलत है। लोगों को इस तरह सिखाने से वे सामान्य मानवता नहीं जी सकते; इतना ही नहीं, यह लोगों को ईमानदार, खरा या निष्कपट नहीं बना सकता; यह बिल्कुल भी सकारात्मक प्रभाव प्राप्त नहीं कर सकता” (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (8))। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गई कि बारबरा से अपने मेल-जोल में मैं जीवन के बारे में शैतान के फलसफों पर भरोसा कर रही थी, जैसे कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” “लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए” और “एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग।” तब तक, इन फलसफों को मैंने लोगों से मेल-जोल के सिद्धांत माना था। मुझे लगता था कि ऐसा व्यवहार करना ही आपसी रिश्ते बनाए रखने, दूसरों का दिल न दुखाने, और अपने लिए मुश्किल खड़ी न करने का एकामात्र तरीका था। परमेश्वर के वचन के खुलासे से मैं आखिरकार समझ सकी कि ये फलसफे जीने के धूर्त, कपटी और विश्वासघाती तरीके थे, ये एक-दूसरे से प्रेम करना तो दूर, लोगों को एक-दूसरे के प्रति सावधान कर देते थे, और ईमानदार मेल-जोल से रोकते थे। हालाँकि इस तरह के मेल-जोल से लोगों का दिल नहीं दुखता या खुद के लिए मुश्किल खड़ी नहीं होती, मगर यह आपको सच्चे दोस्त बनाने से रोकता है, लोगों को बहुत नकली और कपटी बना देता है। मैं यह भी समझ सकी कि दूसरों से मेल-जोल में इंसान को सच्चा होना चाहिए, जब आप देखें कि किसी के साथ कोई समस्या है, तो आपको सहानुभूति के साथ उनकी भरसक मदद करनी चाहिए। भले ही उस पल वे उसे मान न सकें और आपको गलत समझ लें, फिर भी आपको उनसे संपर्क करने में, उन सिद्धांतों का पालन कर सही इरादे तय कर देने चाहिए। जो लोग सत्य को सच्चाई से स्वीकारते हैं, वे निपटान होने पर, भले ही शर्मिंदा महसूस करें और मंजूर न कर पाएँ, फिर भी वे बाद में सत्य खोज कर आत्म-चिंतन कर सकेंगे। न सिर्फ वे दूसरों से ईर्ष्या नहीं करेंगे, बल्कि वे उस व्यक्ति का आभार मानेंगे जिसने उन्हें सुधारा। मैंने बारबरा से अपनी पिछली बातचीत के बारे में सोचा। कई मौकों पर मैंने देखा था कि वह दूसरों के सामने साफ तौर पर दिखावा करती थी, और दूसरे उसे बहुत ऊँचा मानते थे, लेकिन मुझे डर था कि उसकी समस्या बताने से उसके अहं को ठेस पहुँचेगी, और वह आगे से मेरी अनदेखी करेगी। इसलिए उसके साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने के लिए, उसके भ्रष्टता दिखाने पर मैं उससे कुछ कहे बिना, उसकी मदद किए बिना बस देखती रही, यानी वह आत्म-चिंतन नहीं कर रही थी, अपनी समस्या नहीं जानती थी, और फिर वापस अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगी थी। मैं समझ गई कि इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हुए मैं बस यही चाहती थी कि हमारा रिश्ता बना रहे, और बारबरा कहे कि मैं एक समझदार और समानुभूति रखने वाली इंसान थी। मैंने उसके जीवन-प्रवेश पर विचार ही नहीं किया। अगर मैंने उसे उसकी समस्याएँ जल्द बता दी होतीं, तो शायद उसने अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ लिया होता और सभाओं में ऐसी अविवेकी बातें न बोलती। हमारे रिश्ते को बचाने के लिए मैं खुशामदी बन गई थी! यह सच में हानिकारक व्यवहार था! फिर मैंने एक और बहन के बारे में सोचा जिसके संपर्क में मैं आई थी। मैंने देखा कि वह अपने कर्तव्य में अक्सर बेपरवाह रहती थी, जब दूसरे उसकी समस्याएँ उसे बताते तो वह बहस करती और उसे मान नहीं पाती। मैं आत्म-चिंतन में मदद के लिए उसके साथ संगति करना चाहती थी, लेकिन मुझे लगा वह ज्यादा उम्र की है, अगर मैंने उसकी समस्याएँ बताईं, तो मैं उसके अहं को चोट पहुँचाऊँगी और फिर वह मुझे ज्यादा ही कठोर समझेगी। इसलिए मैंने उसकी समस्या को अनदेखा कर दिया, और उसके साथ बाहर से खुश, बातूनी और मैत्रीपूर्ण बनी रही। कर्तव्य में बेपरवाह होने के कारण जब उसे बर्खास्त कर दिया गया, तब जाकर मुझे उसकी शीघ्र मदद न करने पर पछतावा हुआ। उसके छोड़कर जाने के बाद ही मैंने उसके साथ उसकी समस्याओं पर संगति की। हालाँकि उसने अपनी समस्या को समझ लिया, लेकिन उसे शीघ्र न बताने के लिए मुझे फटकार लगाई, और बोली कि अगर उसने पहले ही अपना बर्ताव सुधार लिया होता, तो शायद वह बर्खास्त न हुई होती। यह विचार आने पर मैं समझ सकी कि इन फलसफों के अनुसार जीते हुए खुशामदी बनने और एक नेक इंसान बनने में जरा भी समानता नहीं हैं। इसमें दूसरों के प्रति ईमानदारी या संवेदना बिल्कुल नहीं दिखती, इसके बजाय यह स्वार्थ और कपट है। मैं शैतानी स्वभाव के साथ जी रही थी और परमेश्वर को नाराज कर रही थी। बारबरा मेरे साथ हमेशा बहुत ईमानदार रहती थी, लेकिन उसके साथ बातचीत में मैंने बस इन फलसफों पर भरोसा किया था और सत्य पर अमल नहीं किया था। मैंने सिर्फ यही विचार किया था कि कैसे उसे दुख न पहुँचाऊँ, उसके मन में अपनी अच्छी छवि कैसे बनाए रखूँ, और जब मैंने उसे भ्रष्टता दिखाते हुए देखा तो ध्यान नहीं दिया। ऐसा करते हुए क्या मैं खुद को एक अच्छी मित्र कह सकती थी? मैं समझ गई कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” सच में शैतान का एक झूठ था, मैं अब इसके आधार पर नहीं जीना चाहती थी।
आत्म-चिंतन में, मुझे एहसास हुआ कि बारबरा की समस्या बताने की हिम्मत न करने का एक और भी कारण था : मेरा नजरिया गलत था। मैं हमेशा सोचती थी कि दूसरों की समस्या बताना उनकी खामी को उजागर करना था, यानी इससे उनके अहं को चोट पहुँचती, वे आहत होते, और यह एक बेकार का काम था। इसलिए बारबरा के साथ मुझे हमेशा डर था कि अगर मैंने उसकी समस्या बता दी तो वह आहत होगी और इससे हमारा रिश्ता टूट जाएगा, जिससे सत्य पर अमल करना बहुत मुश्किल हो गया। इसलिए मैंने परमेश्वर को पुकारा, उससे मेरी इस समस्या को दूर करने की विनती की।
अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। “परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, लोगों को छलें नहीं, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन्हें गुमराह न करें, उन पर व्यंग्य न करें, उनका अपमान न करें, उन्हें जकड़ें नहीं या उन्हें चोट न पहुँचाएँ, लोगों की कमजोरियाँ उजागर न करें, न उनका उपहास करें। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कभी-कभी, सीधे तौर पर दूसरों के दोषों, कमियों और गलतियों को बताना और उनकी आलोचना करना आवश्यक होता है। यह लोगों के लिए बहुत ही हितकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? ... और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन में प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है” (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। “अगर किसी भाई या बहन के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, और वे तुमसे पूछते हैं कि उनमें क्या गलत है, तो तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? यह इस बात से संबंधित है कि तुम इस मामले में क्या दृष्टिकोण अपनाते हो। ... तो फिर, सत्य के सिद्धांत के अनुसार, तुम्हें इस मामले के प्रति कैसा रवैया रखना चाहिए? सत्य के साथ कौन-सी कार्रवाई मेल खाती है? इसमें कितने प्रासंगिक सिद्धांत हैं? पहले, कम से कम, दूसरों के लिए ठोकर का कारण न बनो। तुम्हें पहले दूसरे की कमजोरियों पर, और इस बात पर विचार करना चाहिए कि उनके साथ किस तरह बात करने से वे ठोकर नहीं खाएँगे। कम-से-कम इस बात का ध्यान रखना तो जरूरी है। इसके बाद, अगर तुम जानते हो कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं, तो जब तुम देखो कि उन्हें कोई समस्या है, तो तुम्हें उनकी मदद करने की पहल करनी चाहिए। अगर तुम कुछ नहीं करते और उन पर हँसते हो, तो यह उन्हें चोट और नुकसान पहुँचाना है। जो ऐसा करता है, उसमें जमीर या समझ नहीं होती, और उसमें दूसरों के लिए प्रेम नहीं होता। जिनमें जरा-सा भी जमीर और समझ होती है, वे अपने भाई-बहनों को मजाक के तौर पर नहीं देख सकते। उन्हें उनकी समस्या हल करने में मदद करने के लिए विभिन्न तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें यह समझाना चाहिए कि बात क्या हुई है और उनकी गलती कहाँ है। वे पश्चात्ताप कर सकते हैं या नहीं, यह उनका अपना मामला है; हम अपनी जिम्मेदारी निभा चुके होंगे। भले ही वे अभी पश्चात्ताप न करें, देर-सवेर एक दिन आएगा जब वे होश में आएँगे, और तुम्हें दोष नहीं देंगे या तुम पर आरोप नहीं लगाएँगे। कम से कम, तुम अपने भाई-बहनों के साथ जैसा व्यवहार करते हो, वह जमीर और विवेक के मानकों से नीचे नहीं हो सकता। खुद को दूसरों का ऋणी मत बनाओ; जिस हद तक उनकी मदद कर सको, करो। लोगों को यही करना चाहिए। जो लोग अपने भाई-बहनों के साथ प्रेम से और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार कर सकते हैं, वे उत्तम प्रकार के लोग होते हैं। वे परम दयालु भी होते हैं। निस्संदेह, सच्चे भाई-बहन वे लोग होते हैं, जो सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति केवल भरपेट खाने या आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है, लेकिन सत्य नहीं स्वीकारता, तो वह भाई या बहन नहीं है। तुम्हें सच्चे भाई-बहनों के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। चाहे वे जैसे भी परमेश्वर पर विश्वास करते हों या वे जिस भी रास्ते पर हों, तुम्हें प्रेम की भावना से उनकी मदद करनी चाहिए। व्यक्ति को न्यूनतम क्या प्रभाव प्राप्त करना चाहिए? पहला, वह उनके ठोकर खाने का कारण न बने और उन्हें नकारात्मक न बनने दे; दूसरा, वह उनकी मदद करता हो और उन्हें गलत मार्ग से लौटा लाए; और तीसरा, वह उन्हें सत्य समझाए और उनसे सही मार्ग चुनवाए। ये तीन प्रकार के प्रभाव केवल उन्हें प्रेम की भावना से मदद करके ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अगर तुममें सच्चा प्रेम नहीं है, तो तुम ये तीन प्रकार के प्रभाव प्राप्त नहीं कर सकते, ज्यादा से ज्यादा एक या दो प्रकार के प्रभाव ही प्राप्त कर सकते हो। ये तीन प्रकार के प्रभाव दूसरों की मदद करने के तीन सिद्धांत भी हैं। तुम ये तीन सिद्धांत जानते हो और इन्हें अच्छी तरह समझते हो, लेकिन इन्हें वास्तव में कैसे लागू किया जाता है? क्या तुम वास्तव में दूसरे की कठिनाई को समझते हो? क्या यह एक अलग समस्या नहीं है? तुम्हें यह भी सोचना चाहिए : ‘उसकी कठिनाई का मूल क्या है? क्या मैं उसकी मदद करने में सक्षम हूँ? अगर मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और मैं समस्या हल नहीं कर सकता और लापरवाही से बोलता हूँ, तो मैं उन्हें गलत रास्ते पर ले जा सकता हूँ। इसके अतिरिक्त, यह व्यक्ति सत्य समझने में कितना सक्षम है, और उसकी क्षमता क्या है? क्या वह दुराग्रही है? क्या वह आध्यात्मिक मामलों को समझता है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है? क्या वह सत्य की तलाश करता है? अगर वह देखता है कि मैं उससे ज्यादा सक्षम हूँ, और मैं उसके साथ संगति करता हूँ, तो क्या उसमें ईर्ष्या या नकारात्मकता पैदा होगी?’ इन सभी प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों पर विचार कर इन पर स्पष्टता प्राप्त कर लेने के बाद उस व्यक्ति के साथ संगति करो, परमेश्वर के वचनों के कई अंश पढ़ो जो उसकी समस्या पर लागू होते हों, और उसे परमेश्वर के वचनों में सत्य समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम बनाओ। तब समस्या का समाधान होगा और वह कठिनाई से बाहर निकल पाएगा। क्या यह सरल मामला है? यह सरल मामला नहीं है। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम चाहे जितना भी बोलो, वह किसी काम का नहीं होगा। अगर तुम सत्य समझते हो, तो उसे कुछ ही वाक्यों से प्रबुद्ध कर लाभ पहुँचा सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन से मैं समझ सकी कि अगर आप किसी इंसान की आलोचना और निंदा करने के मकसद से उसकी कमजोरियों का फायदा उठाने के लिए उसकी कमियाँ उजागर करते हैं, और अगर आपके इरादे उसकी हँसी उड़ाने, चिढ़ाने और भर्त्सना करने के हैं, तो इससे परमेश्वर नाराज होता है। लेकिन अगर आप मदद करने के इरादे से किसी की समस्याएँ और कमियाँ बताते हैं, तो यह शिक्षाप्रद है, दूसरों के लिए संवेदना और उनके जीवन के प्रति जिम्मेदारी की भावना दिखाना है। अगर कोई सत्य का अनुसरण करता है, तो दूसरों की मदद से, वे आत्म-चिंतन कर सकेंगे, अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य खोज सकेंगे, और अपने जीवन-प्रवेश में तरक्की कर सकेंगे। वैसे कुछ लोग अपने निपटान और अपनी समस्याएँ बताए जाने को लेकर प्रतिरोधी होते हैं। यह दिखाता है कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते और उनका स्वभाव सत्य से ऊब जाने वाला होता है। पहले मैं मानती थी कि दूसरों की समस्याएँ बताना और उनकी कमियाँ उजागर करना दोनों एक समान हैं और यह बेकार का काम था। यह नजरिया बिल्कुल गलत था। मैं यह भी समझ गई कि दूसरों की समस्याएँ बताने के सिद्धांत होते हैं। यह सिर्फ नेक इरादे और उत्साह का होना या लोगों को जाने बिना उनकी समस्याएँ सीधे बता देना ही नहीं है। कभी-कभी आपको बुद्धि लगाकर सत्य के सिद्धांतों का पालन करने की जरूरत होती है। सबसे अहम यह है कि आप प्रासंगिक सत्य पर विचार करें, दूसरों को समस्याएं बताकर सत्य और परमेश्वर की इच्छा को समझने में उनकी मदद करें, उन्हें अभ्यास का एक मार्ग दिखाएँ। ऐसा करके ही आप लोगों की सचमुच मदद करते हैं। आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि पहले दूसरों की समस्याएँ बताने पर मुझे अच्छे नतीजे हासिल नहीं होते थे, क्योंकि मैं सत्य के सिद्धांत नहीं खोजती थी। जैसे मैं रोक्साना से पेश आई थी। वह घमंडी थी, अपनी शोहरत की ही चिंता करती थी, और पहले उसका निपटान नहीं किया गया था। यह देखने पर कि वह संगति में विषय से भटक रही थी, मुझे न सिर्फ उसकी समस्या बतानी चाहिए थी, उसके साथ परमेश्वर के वचन पर संगति करने के सिद्धांत भी साझा करने चाहिए थे, ताकि अभ्यास का मार्ग पाने में उसकी मदद हो सके। इससे वह लाचारी से बच जाती और बाद की सभाओं में वह सिद्धांतों के अनुसार संगति कर पाती। यह सिद्धांत समझ लेने के बाद, मैं अब बारबरा की समस्याएँ बताने से नहीं डर रही थी, जान गई थी कि मुझे सिद्धांतों और संवेदना के साथ उसकी मदद करनी चाहिए, ताकि वह गलत मार्ग पकड़ने से बच सके। अपने दिल में, मैंने परमेश्वर को पुकार कर उसकी प्रार्थना की, “मैं बारबरा को लाचार किए बिना, उसके साथ प्रभावी ढंग से संगति कैसे करूँ, उसे सत्य के इस पहलू को समझकर कैसे अपनी समस्या को पहचानने दूँ?”
जब भी मेरे पास वक्त होता, मैं इस समस्या पर मनन करती, परमेश्वर के ऐसे वचन खोजकर उन पर विचार करती, जो दिखावा कर खुद की बड़ाई करने वालों को उजागर करते हैं। मैं बारबरा के साथ संगति कर उससे खुलने, इस दौरान देखी उसकी समस्याओं के बारे में उससे बात करने के साथ ही दिखावा करने की प्रकृति और नतीजों, और इस किस्म के बर्ताव को लेकर परमेश्वर के रवैये पर संगति करने का मौका खोजने लगी। मेरी संगति के बाद, बारबरा को आखिरकार अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ, उसने समझ लिया कि उस पर रुतबे का जूनून हावी था, उसे लोगों के दिलों में जगह पाना और लोगों से सराहा जाना पसंद था, मगर इस प्रकार के अनुसरण से परमेश्वर को चिढ़ होती है। बाद में उसने एक सभा में अपने इस व्यवहार के बारे में खुलकर विश्लेषण किया, जिससे सभी लोग इसे पहचान सके। यह देखकर कि बारबरा आत्म-चिंतन कर अपनी समस्या पहचान सकी और खुद से घृणा कर पाई, मुझे खुशी हुई। लेकिन मैंने खुद को दोषी महसूस किया। मुझे पछतावा हुआ कि संगति कर उसे यह बताने में इतना समय लग गया था। उसकी समस्या बताने और उजागर करने को लेकर वह मेरे खिलाफ नहीं हुई, न ही हमारा रिश्ता टूटा, बजाय इसके हम एक-दूसरे के पहले से ज्यादा करीब हो गए। मैं समझ गई कि सिर्फ परमेश्वर के वचन के अनुसार जीकर और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार मेल-मिलाप करके ही सुकून मिल सकता है।
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