मेरी गिरफ्तारी की रात
यह अप्रैल, 2011 की बात है, रात के आठ बजे थे। बहन लियू और मैं कमरे में परमेश्वर के वचन पढ़ रही थीं कि अचानक दरवाज़े पर किसी ने ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दी और कई पुलिस अधिकारी अंदर घुस आए। दो ने मुझे पकड़कर ज़ोर से मेरे हाथों को मरोड़ा और पीछे की ओर मोड़ दिया। बाकी पुलिसवाले कमरे का सामान उलटने-पलटने लगे। उन्हें वचन देह में प्रकट होता है की प्रति और एमपी4 प्लेअर मिल गया। मैं घबरा गयी। समझ नहीं पायी कि ये लोग मेरे साथ क्या करेंगे। इतने बरसों में मैंने कभी भी ऐसी मुश्किलों का सामना नहीं किया था। अगर पुलिस ने मुझे सताया तो क्या मैं सह पाऊँगी? पूरे समय मैं मन ही मन प्रार्थना करती रही। मैंने कहा, "परमेश्वर! मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मुझे आस्था और शक्ति दे, और पुलिस के क्रूर उत्पीड़न को सहने की राह दिखा।" प्रार्थना के बाद, एक स्पष्ट विचार मन में आया : मैं यहूदा नहीं बनूँगी, भले ही मर जाऊँ। परमेश्वर को धोखा नहीं दूँगी। करीब दस बजे, पुलिस बहन लियू को और मुझे स्थानीय पुलिस थाने ले गयी, जहाँ उन्होंने हमसे अलग-अलग पूछताछ की। दो अधिकारी मुझ पर चिल्लाए : "तू अगुआ है क्या? तू ही सुसमाचार का प्रचार करने जाती है न? कहाँ की है तू?" मैं एकदम चुप रही। मैंने मन ही मन सोचा, "अगर मैं कलीसिया की अगुआई की बात ही न स्वीकारूँ, तो शायद ये लोग मुझे बुरी तरह न सताएं। और शायद जल्दी ही मुझे छोड़ भी दें।" मुझे हैरानी हुई जब एक ने मुझे घुटनों के बल झुकने को कहा। मेरे मना करने पर उसने मेरे घुटने के पीछे ज़ोर से ठोकर मारी और मेरे पैर अपने आप ही मुड़ गए। मुझे जबरन उस मुद्रा में रखकर, वह मुझसे सवाल-जवाब करता रहा। करीब बीस मिनट के बाद, मेरे घुटने दर्द करने लगे, तो मैंने अपना वज़न थोड़ा शिफ़्ट किया, लेकिन पुलिसवाले ने एक किताब उठा कर ज़ोर से मेरे चेहरे पर मारा। मैं दर्द से तिलमिला उठी। मेरे कान बजने लगे और मैं अपनी आँख भी नहीं खोल पायी। जल्दी ही मेरे पैर सुन्न पड़ गए। यह सब न झेल पाने के कारण, मैं पीछे की तरफ थोड़ी उकडूं होकर बैठ गयी, फिर उसने कसकर मेरी पीठ पर ठोकर मारी। मैं लगातार दो घंटों तक घुटनों के बल बैठी रही उसने मुझे दस से ज़्यादा बार पीटा होगा। बुरी तरह मार खाने से मुझे चक्कर आ गए और मैं फर्श पर ही ढेर हो गयी। मेरे पैर इतनी बुरी तरह से सुन्न हो गए कि लगा मेरे पैर ही नहीं हैं। तभी मुझे दूसरे कमरे से बहन लियू के चीखने की आवाज़ आयी। मुझे उसकी चिंता हो रही थी। मुझे नहीं पता था कि वे लोग उसे क्या यातना दे रहे थे। क्या वो इस क्रूर यातना को झेल पाएगी? मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वो हमें आस्था और शक्ति दे, गवाही देने में हमें राह दिखाए। थोड़ी देर बाद, पुलिसवाला बोला : "पता है तुझसे आखिर में पूछताछ क्यों हो रही है? क्योंकि तेरे लिए हमने सबसे कठोर उत्पीड़न बचा के रखा है। देखता हूँ तू अपनी ज़बान को कितना कसकर बंद रखती है! तू हर जगह सुसमाचार का प्रचार करने जाती है। ज़रूर तू कोई बड़ी अगुआ होगी।" उसकी बात सुनकर मैं डर गयी। वो लोग पहले ही मुझे बड़ी अगुआ मान चुके थे, तो मुझे छोड़ने का तो सवाल ही नहीं था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वो मुझे यातना देने के क्या तरीके आज़माएंगे। मैंने दूसरे भाई-बहनों की गिरफ्तारी के अनुभवों को याद किया। पुलिस यातना देने के लिए हर तरह के क्रूर तरीके अपनाती थी, और मुझे डर था कि वो मेरे साथ भी वही करेगी ... सोच-सोचकर मेरा डर बढ़ता गया। मैं तो बस परमेश्वर से प्रार्थना ही कर सकती थी। मैंने कहा, "परमेश्वर! मुझे डर है कि पुलिस मुझे यातना दे-देकर किसी भी पल मार सकती है। मुझे राह दिखा, मुझे आस्था दे।" प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "तुम्हें किसी भी चीज़ से भयभीत नहीं होना चाहिए; चाहे तुम्हें कितनी भी मुसीबतों या खतरों का सामना करना पड़े, तुम किसी भी चीज़ से बाधित हुए बिना, मेरे सम्मुख स्थिर रहने के काबिल हो, ताकि मेरी इच्छा बेरोक-टोक पूरी हो सके। यह तुम्हारा कर्तव्य है; ... डरो मत; मेरी सहायता के होते हुए, कौन इस मार्ग में बाधा डाल सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। हाँ। अगर परमेश्वर मेरे साथ है, तो फिर मैं क्यों डरूँ? मेरा जीना-मरना परमेश्वर के हाथ में है। परमेश्वर की अनुमति के बिना, शैतान मेरा जीवन मुझसे नहीं छीन पाएगा। यह सोचने पर मेरा डर निकल गया। मैंने परमेश्वर के लिए गवाही देने की खातिर अपनी जान देने का भी संकल्प कर लिया।
पुलिस बार-बार कलीसिया के बारे में ही पूछती रही। मेरे जवाब न देने पर, उन्होंने ठोकर मारकर फिर मुझे नीचे गिरा दिया। पाँच-छह लोग मुझे घेरकर पीट रहे थे, ठोकर मार रहे थे। उन्होंने कमर, सिर और पैरों के निचले हिस्से पर वार किया, साथ ही मुझ पर चीख और चिल्ला भी रहे थे। इतनी मार खाकर मुझे चक्कर आने लगे, मेरा सिर घूमने लगा। मुझे मारते हुए एक अफसर चिल्लाया : "तेरी ज़बान पर जो ताला पड़ा है न, मैं उसे खुलवाकर रहूँगा!" यह कहकर उसने मुझे हथकड़ी लगा दी, फिर मुझे उकडूं बिठाकर मेरे घुटनों में मेरा सिर दे दिया। दो पुलिसवालों ने मेरे घुटनों के नीचे लोहे की छड़ डालते हुए धमकी भरे लहजे में कहा : "अगर तूने ज़बान नहीं खोली, तो तुझे लटकाकर इतनी यातना देंगे कि तेरी मौत हो जाएगी!" मेरे दिल में बेचैनी और खौफ़ बढ़ता गया : क्या मैं इतना ज़ुल्म और अत्याचार सह पाऊँगी? मैं तो बस मन ही मन परमेश्वर को पुकार सकती थी। मैंने कहा, "परमेश्वर! मुझे इस ज़ुल्म और अत्याचार से बचा। ये लोग मुझे कितना भी सताएँ, लेकिन मैं शैतान के आगे नहीं झुकूँगी।" पुलिसवालों ने लोहे की छड़ को मेरे घुटनों के नीचे डालकर, उसके एक सिरे को खिड़की पर और दूसरे को टेबल पर फिट कर दिया, इस तरह मेरा शरीर गठरी बनकर हवा में लटक गया। एक अफसर ने मुझे धक्का दिया और मैं झूलने लगी। मुझे भयंकर पीड़ा हुई। लगा जैसे मेरी कलाइयाँ टूट गयी हैं। जिस्म का सारा खून सिर में आ गया, मेरा चेहरा गुब्बारे की तरह सूज गया और आँखें फूलकर बंद हो गयीं, खुल नहीं रही थीं। फिर भी, वो मुझे ज़ोर-ज़ोर से झुलाते रहे। मेरी हालत खराब हो गई। मुझे उबकाई आने लगी। मेरा दिल ज़ोरों से धड़क रहा था और मैं बुरी तरह से हाँफ रही थी, जैसे कलेजा अभी मुँह को आ जाएगा। लगा जैसे अभी साँस थम जाएगी। वो मुझे इसी तरह झुलाते रहे। जब सहन नहीं हुआ तो मैं चीखी, "बहुत हो गया! मुझे नीचे उतारो!" एक अफसर ने मुझे धमकाते हुए कहा, "बहुत हो गया? तो गुनाह कुबूल कर ले। अगर ज़बान नहीं खोली, तो जान जाने तक लटकी रहेगी!" दूसरा अफसर चिल्लाया, "तू हमेशा अपने परमेश्वर के काम के लिए भाग-दौड़ करती है न। तो वो अब तुझे बचाता क्यों नहीं?" यह कहकर वो अट्टहास करने लगे। उनके चेहरे के क्रूर भाव देखकर मुझे बहुत गुस्सा आया। मुझे खुद से नफरत हुई कि मुझमें दम नहीं है। उनके आगे रहम की भीख माँगने का पछतावा हुआ। वो लोग मुझे झुलाते रहे। मुझे चक्कर आ गए और सिर गुम-सा हो गया। मैं लगातार परमेश्वर को पुकारती रही। मैंने कहा, "परमेश्वर! मुझे बचा! मैं ये ज़ुल्म ज़्यादा देर तक सह नहीं पाऊँगी! मेरी रक्षा कर!" करीब आधे घंटे के बाद, पुलिसवालों ने मुझे नीचे उतारा। चूँकि (लोहे की) छड़ को हटाया नहीं गया था, इसलिए मैं सिर्फ उकडूं बैठ सकती थी। हिल नहीं पा रही थी। पैर सुन्न हो चुके थे, उनमें कोई हरकत नहीं थी, शरीर कमज़ोर और बेजान हो गया था। पुलिस कलीसिया के बारे में जानकारी माँगती रही, लेकिन मैंने कुछ नहीं बताया। उन्होंने फिर मेरे सिर और पीठ पर वार किया, ठोकर मारी, मार-पीट और पूछताछ चलती रही। मेरा पूरा जिस्म घायल था। एक पुलिसवाला चिल्लाया, "ज़बान खोलेगी या नहीं? वरना तेरी खबर लेने के हमारे पास और भी तरीके हैं! तेरी ज़बान खुलने तक हम तुझे लटकाकर रखेंगे।" सही पूछो तो, लटकाए जाने की सोचकर ही मेरे पसीने छूट रहे थे। मैं उन सबसे दोबारा नहीं गुज़रना चाहती थी। मन में उथल-पुथल मची थी। ज़बान खोलूँ या चुप रहूँ? अगर चुप रही, तो पुलिस मुझे किसी भी हालत में छोड़ेगी नहीं। शायद आज रात ही मेरी जान निकल जाए। लेकिन ज़बान खोलने का मतलब है परमेश्वर से विमुख होना। तभी मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा जिन्होंने गहरी पीड़ा के दिनों में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई है, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी ही दूर तक है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं है जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे व्यक्ति जो भी हो, मेरा स्वभाव यही है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इससे मुझे महसूस हुआ कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कोई अपमान सहन नहीं करता। दोस्तों को धोखा देना परमेश्वर को पसंद नहीं। कुछ समय तक शारीरिक कष्टों से बचने के लिए अगर मैंने परमेश्वर को धोखा दिया और भाई-बहनों से मुँह मोड़ा, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और यह उसके स्वभाव का अपमान होगा। मुझे यहूदा की तरह दंडित किया जाएगा और धिक्कारा जाएगा। मैं यहूदा नहीं बनना चाहती थी। अगर इस अत्याचार से मेरी मौत भी हो जाए, तो भी मैं परमेश्वर के लिए गवाही दूँगी।
इन विचारों से मुझे बल मिला, और मैं जान गयी कि मैं पीड़ा सह सकती हूँ। वो मुझे लटकाकर झूले की तरह हिलाते रहे। लगा कलाइयाँ और घुटने बिल्कुल टूट गए हैं, मैं दर्द से चिल्ला रही थी। मैंने सोचा, "पत्थर-दिल तो कोई नहीं होता। अगर रोऊँगी तो शायद दया खाकर मुझे नीचे उतार दें।" लेकिन उन्होंने तो और भी तेज़ी से हिलाना शुरू कर दिया। मेरी हालत खराब हो गई। मुझे उबकाई आने लगी। लगा जैसे दम घुट रहा है। मैं तड़प रही थी। उनकी बेरहमी और दुष्टता देखकर, लगा मैं कितनी बेवकूफ हूँ कि उन्हें पहचान नहीं पायी। पहले तो यह सोचा, अगर मैं कलीसिया-अगुआ होना न स्वीकारूँ तो शायद वो मुझे इतनी कठोर यातना न दें। फिर लगा शायद वो मेरे आँसुओं से पिघल जाएँ। लेकिन आखिरकार एहसास हुआ कि ये लोग इंसान नहीं हैं। ये इंसानों की शक्ल में जंगली जानवर हैं, दुष्ट हृदय के राक्षस हैं! पुलिसवाले मुझे झुलाते रहे और चिल्लाते रहे : "मान जा! ज़बान खोल दे, हम तुझे उतार देंगे। जब तक बोलेगी नहीं, लटकी रहेगी। लेकिन तेरी खामोशी तेरी जान ले लेगी।" उनकी बातें डराने वाली थीं, मैंने सोचा, "अभी मेरी उम्र ही क्या है, सिर्फ तीस की ही तो हूँ, क्या ये लोग आज रात ही मेरी जान ले लेंगे?" मैं निरंतर मन ही मन परमेश्वर से याचना करती रही, "परमेश्वर, मुझे बचा ले! बस अब बर्दाश्त नहीं होता! मुझे डर है कहीं मैं अपना संकल्प तोड़कर तुझे धोखा न दे दूँ। इन हैवानों के अत्याचारों को सहने में मदद कर।" प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्ट कर सकता है" (मत्ती 10:28)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। हाँ। पुलिस सिर्फ मेरे शरीर को मार सकती है लेकिन वो मेरी आत्मा को नहीं कुचल सकती। मेरा पूरा अस्तित्व परमेश्वर के हाथ में है। चाहे ये लोग मुझे कितना भी सताएँ, लेकिन परमेश्वर की मर्ज़ी के बिना, मुझे मार नहीं सकते। मुझे यह भी एहसास हुआ, चूँकि मुझे अपनी ज़िंदगी से बेहद प्यार है, इसलिए शैतान मेरी कमज़ोरी का फायदा उठा रहा है। परमेश्वर को धोखा देने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहा है। अगर यहूदा बनकर, मैंने परमेश्वर को धोखा दे दिया, तो मैं अनंतकाल तक धिक्कारी जाऊँगी। लेकिन अगर मैंने परमेश्वर के लिए गवाही दी, फिर भले ही मेरी जान चली जाए, तो वह यातना धार्मिकता की खातिर होगी और मेरी मौत भी सार्थक होगी। यह सोचकर, मेरा डर जाता रहा। पुलिसवालों ने देखा कि मेरा सिर बेजान-सा लटका हुआ है, और मैं आँख भी नहीं खोल पा रही हूँ। इस डर से कि कहीं मेरी मौत उनके सिर न आ पड़े, उन्होंने मुझे नीचे उतार दिया। कमज़ोर और बेजान होने के कारण, मुझे लगा अब मौत बहुत करीब है। लेकिन वो फिर भी मुझसे कलीसिया के बारे में पूछताछ करते रहे। मैं खौफज़दा थी। मुझे डर था कहीं वो मुझे फिर से न लटका दें। इस खौफ़नाक ख्याल से ही मेरा दिल बैठा जा रहा था। मैं उनकी क्रूरता और दुष्टता देख चुकी थी, पता नहीं था कि वो और कितनी बार मुझे लटकाएँगे। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो मैं कल का सूरज नहीं देख पाऊँगी। जी-जान से परमेश्वर से प्रार्थना करने पर, मेरे मन में अनुभव का यह भजन आया : "मैं अपना प्यार और अपनी निष्ठा परमेश्वर को अर्पित कर दूँगा और परमेश्वर को महिमान्वित करने के अपने लक्ष्य को पूरा करूँगा। मैं परमेश्वर की गवाही में डटे रहने, और शैतान के आगे कभी हार न मानने के लिये दृढ़निश्चयी हूँ। मेरा सिर फूट सकता है, मेरा लहू बह सकता है, मगर परमेश्वर-जनों का जोश कभी ख़त्म नहीं हो सकता। परमेश्वर के उपदेश दिल में बसते हैं, मैं दुष्ट शैतान को अपमानित करने का निश्चय करता हूँ। पीड़ा और कठिनाइयाँ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। मैं मृत्युपर्यंत उसके प्रति वफादार और आज्ञाकारी रहूँगा। मैं फिर कभी परमेश्वर के आँसू बहाने या चिंता करने का कारण नहीं बनूँगा। ..." ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर के महिमा दिवस को देखना मेरी अभिलाषा है')। मन ही मन यह भजन गाने पर, मैंने संकल्प किया कि मैं कायर बिल्कुल नहीं बनूँगी। मुझे परमेश्वर के लोगों जैसी दृढ़ता बनाये रखनी है और किसी भी सूरत में शैतान के आगे नहीं झुकना है। मैं हर कष्ट सहकर भी परमेश्वर के लिए गवाही देने को दृढ़संकल्प थी। मुझे याद आया कि किस तरह अपनी बरसों की आस्था में, मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद लिया है। मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए परमेश्वर ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन जब कर्तव्य के दौरान मुश्किलों और परेशानियों से दो-दो हाथ करने का वक्त आया, तो मैं देह की चिंता करने लगी। मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। मैंने मन ही मन परमेश्वर का आभार व्यक्त किया। अगर मैं यहाँ से ज़िंदा निकल पायी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगी और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान दूँगी।
जब तीसरी बार पुलिस ने मुझे लटकाया, तो लगा जैसे मेरा सिर फट जाएगा। मेरे हाथ-पैरों में भी भयानक दर्द होने लगा। उस वक्त (स्थानीय) पुलिस प्रमुख घमंड से बोला, "कुछ तो बोल। अगर तू सब-कुछ बता दे, तो मैं गारंटी देता हूँ कि तुझे कुछ नहीं होगा।" मैंने कोई जवाब नहीं दिया। एक अफसर ने लोहे की छड़ी मेरे टखनों पर मारी। मैं दर्द से चीख उठी। वो लोग मुझे झुलाते रहे। दर्द इतना ज़्यादा था कि मौत से भी बदतर हालत थी। बर्दाश्त से बाहर होने पर मैं जान देने के बारे में सोचने लगी। मैं मौत की दुआ माँगने लगी ताकि इस नारकीय यातना से छुटकारा मिले। एक अधिकारी मेरी बंद आँखों को देखकर बोला, "देखो, कैसे अपने परमेश्वर से दुआ माँग रही है!" उसकी बात सुनकर मैं होश में आयी और सोचने लगी, "मुझे परमेश्वर पर भरोसा करने का ख्याल क्यों नहीं आया?" मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर! मुझसे जब पीड़ा नहीं झेली जाती, तो मैं मरने की कामना करने लगती हूँ। मैं तुझसे भी दुआ माँगती हूँ कि मेरे जीवन का अंत कर दे। परमेश्वर, इस अधिकारी की बातों के ज़रिए मुझे याद दिलाने का शुक्रिया। अब मैं मौत की दुआ नहीं माँगूँगी। अब जो भी होगा, उसे तेरे विश्वास के सहारे सह लूँगी।" प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों के लोगों के समूह के बीच मेरा कार्य एक अभूतपूर्व उद्यम है, और इस प्रकार, मेरी खातिर सभी लोगों को आखिरी कठिनाई का सामना करना है, ताकि मेरी महिमा सारे ब्रह्मांड को भर सके। क्या तुम लोग मेरी इच्छा को समझते हो? यह आखिरी अपेक्षा है जो मैं मनुष्य से करता हूँ, जिसका अर्थ है, मुझे आशा है कि सभी लोग बड़े लाल अजगर के सामने मेरे लिए सशक्त और शानदार ज़बर्दस्त गवाही दे सकते हैं, कि वे मेरे लिए अंतिम बार स्वयं को समर्पित कर सकते हैं और एक आखिरी बार मेरी अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं। क्या तुम लोग वाकई ऐसा कर सकते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 34)। आज मैं मुश्किलें सहकर यह बात समझ गयी, परमेश्वर की इच्छा थी कि मैं उसके लिए गवाही देकर शैतान को नीचा दिखाऊं। मगर अपनी तकलीफें कम करने के लिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वो मेरी जान ले ले। ताकि मौत के ज़रिए मुझे छुटकारा मिल जाए। इसमें कोई गवाही नहीं होगी। मुझे लगा कि मैंने परमेश्वर को मायूस किया है। शैतान इस क्रूर यातना के ज़रिए मुझे तोड़ना चाहता है, वो चाहता है कि मैं परमेश्वर को धोखा दूँ, ताकि नरक में जाकर मैं भी उसके साथ तबाह हो जाऊँ। क्या मौत की कामना करना शैतान के चंगुल में फँसना नहीं है? यह सोचकर मैंने संकल्प लिया कि मैं आज परमेश्वर को संतुष्ट करूँगी। पुलिस चाहे मुझे कितना भी सताए, मैं गवाही देने और शैतान को नीचा दिखाने के लिए परमेश्वर में अटल विश्वास और भरोसा रखूँगी। मैंने परमेश्वर के आगे संकल्प लिया, "परमेश्वर, पुलिस चाहे मुझे कितनी बार भी लटकाए, लेकिन मैं गवाही देने के लिए तुझ पर भरोसा रखूँगी।" करीब आधा घंटे के बाद, उन्होंने मुझे नीचे उतार दिया।
मुझे लुभाने के लिए पुलिसवालों ने और चाल चली। उन्होंने कहा, "तेरे साथ जिस व्यक्ति को हमने गिरफ्तार किया था, उसने तो कब का हमें सब कुछ बता दिया। सिर्फ तू यहाँ बची है, चल तू भी बता दे।" मुझे पता था कि शैतान बहुत ही धूर्त है। वो इस तरकीब के ज़रिए मुझसे भाई-बहनों को धोखा दिलवाना चाहता था। मैंने सोचा, "मैं धोखा देकर उन्हें कभी इस अमानवीय यातना की आग में नहीं झोंकूँगी।" मैं अपने दाँत भींचकर खामोश रही। कुछ देर बाद, मैंने टॉयलेट जाने के लिए पूछा। एक पुलिसवाला मुँह बिचकाते हुए बोला, "रोक के रख!" दूसरा हँसकर बोला, "अगर रोक नहीं सकती, तो यहीं फ़र्श पर कर दे!" अगले बीस मिनट में मैंने चार बार टॉयलेट जाने के लिए पूछा। लेकिन उन्होंने जाने नहीं दिया। आखिरकार मैं रोक नहीं पायी और कपड़ों में ही कर दिया। पाँच पुलिसवाले मुझे घेर कर कहने लगे, "देखो! इस औरत ने कपड़ों में ही सू-सू कर दिया!" उनके इस अपमान और उपहास से मैंने बेहद अपमानित महसूस किया। एक पुलिसवाले ने वचन देह में प्रकट होता है की एक प्रति ली और उसे फ़र्श पर फैले सू-सू में पटक दिया, और कोशिश की कि मैं परमेश्वर के वचनों पर थूक दूँ और उसे पैरों तले कुचल दूँ। लेकिन मैंने ऐसा करने से मना कर दिया। फिर वो खुद ही अपनी एड़ियों से उसे कुचलने लगा, और कुटिल मुस्कान के साथ बोला, "ये ले! मैंने कुचल दी और कुछ नहीं हुआ! अगर तू भी कुचल देगी, तो मैं तुझे छोड़ दूँगा और फिर कभी परमेश्वर में तेरी आस्था और काम को लेकर कोई छानबीन नहीं करूँगा।" उसे परमेश्वर के वचनों को कुचलते और उनका तिरस्कार करते देख, मेरा दिल दुष्ट शैतान के लिए नफरत से भर गया। मैं चिल्लायी, "मैं इस पर न तो थूकूँगी, न इसे कुचलूँगी!" वो बोला, "अगर नहीं थूक सकती, तो इसे धिक्कार तो सकती है। मैं एक वाक्य बोलूँगा और तू उसे दोहराना। अगर तू इसे धिक्कार भी देगी, तो तुझे छोड़ दूँगा।" मैंने आग-बबूला होकर कहा, "नहीं धिक्कारूँगी!" एक पुलिसवाला चिल्लाया, "तू शहीद होना चाहती है? तुम लोगों की मौत की परवाह किसे है? अगर ज़बान नहीं खोली, तो तेरा खेल खत्म है। आठ-दस साल के लिए अंदर जाएगी। तू ज़बान खोलेगी या नहीं?" मैंने सोचा, "अगर आठ-दस साल की सज़ा हो भी गयी, तो भी अपने भाई-बहनों को धोखा नहीं दूँगी। परमेश्वर से मुँह नहीं मोड़ूँगी।" जैसे ही मैंने यह संकल्प करने की हिम्मत जुटायी, एक पुलिसवाला अचानक बोला, "बस अब कोई पूछताछ नहीं।" मैंने सिर उठाकर उनके लटके हुए चेहरे देखे, तो मैं भावुक हो गयी। जिस पल मैंने यह संकल्प लिया कि भले ही मेरी जान चली जाए, मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दूँगी, उसी पल शैतान बुरी तरह से पराजित और अपमानित हुआ।
आखिरकार, "सार्वजनिक जीवन में अव्यवस्था फैलाने" के जुर्म में मुझे दस दिन हिरासत में रखा गया। मेरी रिहाई के वक्त एक पुलिसवाले ने मुझे धमकाते हुए कहा, "रिहा होने के बाद, परमेश्वर में आस्था रखना छोड़ देना। अगर फिर पकड़ी गयी, तो सज़ा होगी।" मुझे गुस्सा आया। मैंने सोचा, "परमेश्वर में मेरी आस्था है और मैं सही मार्ग पर चल रही हूँ। तुम लोगों ने मुझे गिरफ्तार करके यातना दी। मुझे परमेश्वर को नकारने के लिए विवश किया और उससे विमुख करना चाहा। मुझे छोड़ तो दिया है, लेकिन तुमने मुझे आज़ाद नहीं किया है। तुम लोग दुष्ट और नीच हो!" मैंने कम्युनिस्ट पार्टी की शैतानी प्रकृति देख ली है, किस तरह वे परमेश्वर का विरोध करते और लोगों को सताते हैं। मुझमें अब अधिक विवेक है, अब वो मुझे छल नहीं पाएँगे। मैंने खुद परमेश्वर के प्रेम और उद्धार का अनुभव कर लिया है। जब वो लोग मुझ पर शैतान का क्रूर अत्याचार कर रहे थे और मैं झेल नहीं पा रही थी, तो परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया और राह दिखायी ताकि मैं उनकी निर्ममता पर विजय पा सकूँ। मुझे लगता है कि मेरी आस्था में बहुत शक्ति है और मैंने देखा है कि परमेश्वर कितना बुद्धिमान है। परमेश्वर अपने वचनों से महज़ हमारा पोषण और मार्गदर्शन ही नहीं करता, बल्कि हमें सबक सिखाने के लिए लोगों, घटनाओं और परिस्थितियों का आयोजन भी करता है। वो हमें सिखाने के लिए शैतान की कोशिशों का इस्तेमाल करता है ताकि हमें अंतर्दृष्टि और विवेक प्राप्त हो। मुझे बचाने के परमेश्वर के दयालु और ईमानदार प्रयासों का भी मैंने वास्तविक अनुभव किया है। मुझे लगता है कि इन सबसे गुज़रना मेरे लिए परमेश्वर का विशेष आशीर्वाद रहा है। भविष्य में मुझे चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, मैं अपने संकल्प में दृढ़ हूँ और मैं आजीवन परमेश्वर का अनुसरण करूँगी। मैं अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए कृतसंकल्प हूँ!
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