रास्ता भूल जाने के बाद आत्मचिंतन

19 जुलाई, 2022

शिंझी, चीन

अगस्त 2019 में एक दिन, अगुआ ने एक पत्र भेजकर मुझसे कहा कि बाहर गाँव की एक बहन को जाकर ले आऊँ। मैंने देखा बहन के घर का पता पड़ोसी कलीसिया के इलाके का था। सोचा, “उसका तबादला हमारी कलीसिया में क्यों किया जा रहा है? पास वाली कलीसिया में क्यों नहीं?” मगर दोबारा सोचने पर लगा, हमारी कलीसिया को तरह-तरह के कामों के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत थी, तो मैंने उसे लाकर देखने का फैसला किया। चाहे जो भी कर्तव्य हो, वह उसे करने में सक्षम रहती, हमें अतिरिक्त मदद मिल सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्र में बहन का नाम झू युन लिखा था, मुझे एकाएक याद आया, “कुछ साल पहले मैं झू युन से मिली थी। वह करीब चालीस साल की है और उसे सत्य की अच्छी समझ है। अगर यह वही है, तो हमारी कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता भी बन सकती है। इससे मुझे एक अतिरिक्त सहायिका मिल जाएगी।” इस विचार से मैं बहुत खुश हो गई। अब मुझे कोई परवाह नहीं थी कि वह बहुत दूर रहती है, मैं बस उसे फौरन कलीसिया में लाना चाहती थी!

मैंने पत्र में दिया गया पता देखकर बहन झू युन का घर ढूंढ़ा, और दरवाजे पर दस्तक दी, मगर दरवाजा खोलने वाली महिला बहुत बूढ़ी दिखती थी। वह वो झू युन नहीं थी, जिसे मैं जानती थी। मैंने जल्दी से कहा, “माफ कीजिए, मैंने गलत दरवाजे पर दस्तक दे दी!” मैं जाने के लिए मुड़ी, लेकिन उसने मेरे पीछे आकर उत्सुकता से पूछा, “आप किसे ढूँढ़ रही हैं?” मैंने कहा, मैं झू युन को ढूँढ़ रही थी। उसने तुरंत कहा, “वो मैं ही हूँ!” मैं उसके पीछे-पीछे घर में चली गई। हमारी बातचीत में मुझे पता चला कि सीसीपी द्वारा गिरफ्तार होकर वह तीन साल से ज्यादा जेल काट चुकी थी। रिहा होने के बाद भी पुलिस उसकी निगरानी करती थी, इसलिए वह अपने गाँव में सभाओं में भाग नहीं ले सकती थी। कलीसिया जीवन फिर से शुरू करने के लिए उसके पास अपने बेटे के घर आने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। उसकी हालत के बारे में जानकर मेरा दिल डूब गया। सोचा, “काश यह वही झू युन हो, जिसे मैं जानती हूँ। अगर यह हमारी कलीसिया में शामिल हो जाए, तो मुझे एक बढ़िया सहायिका मिल जाएगी। लेकिन इस झू युन पर पुलिस नजर रखे हुए है। इसका मतलब है कि यह कोई काम नहीं कर सकती। कलीसिया में पहले ही सिंचन-कर्मी कम हैं, और अब किसी को इसके साथ आमने-सामने सभा करनी होगी। अगर उसके संपर्क में आए भाई-बहनों को भी पुलिस ने निशाना बनाया, तो बहुत भयानक नुकसान होगा! नहीं, यह हमारी कलीसिया में नहीं आ सकती। वापस जाकर मैं अगुआ को पत्र लिखकर कहूँगी कि झू युन का पास वाली कलीसिया में तबादला कर दें।” उसकी हालत के बारे में जानने के बाद मैं जाने के लिए उठ गई। मैंने उससे उसकी समस्याओं या मुश्किलों के बारे में नहीं पूछा। झू युन ने मुझसे तुरंत पूछा, “आप वापस कब आएँगी?” मैंने यूँ ही कह दिया, “यहीं इंतजार कीजिए। कुछ चीजों पर चर्चा करने के बाद मैं आपको बताऊँगी।”

वापस लौटते समय, चलते-चलते मैंने खुद को उलाहना दी, “अगुआ नहीं जानतीं, वे क्या कर रही हैं। झू युन पड़ोसी कलीसिया के बहुत पास रहती है। उस कलीसिया से कोई जाकर उसे वहाँ क्यों नहीं ले गई? हमारे लिए तो यह बहुत दूर है। आगे से, उसके साथ सभा करने जाने के लिए हमें बहुत समय बरबाद करना पड़ेगा...।” मैं उत्तर दिशा में चलते हुए मन-ही-मन भुनभुनाई, चलते हुए महसूस किया कि मैं रास्ता भूल गई थी। रास्ता पूछने पर पता चला कि मैं उल्टी दिशा में शहर से बाहर निकल गई थी। मैं सचमुच भ्रमित थी, “मैं पहले इस रास्ते पर चल चुकी हूँ। मैं रास्ता कैसे भूल गई?” तब, मैंने इस बात को ज्यादा तूल नहीं दी। घर पहुँचकर, मैंने पत्र लिखकर अगुआ को सुझाया कि झू युन का तबादला पास की कलीसिया में कर दें।

पत्र भेजने के कुछ दिनों बाद तक मैं बेचैन रही, मानो कुछ तो गलत हुआ था। परमेश्वर के वचन पढ़कर भी मैं मन को शांत नहीं कर पाई, न ही उपदेशों या संगति पर ध्यान दे पाई। मुझे एहसास हुआ कि मैंने शायद ऐसा कुछ किया था, जो परमेश्वर के इरादे के विरुद्ध था, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे प्रबुद्ध करने और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा। प्रार्थना के बाद, एकाएक मुझे उस दिन रास्ता भूल जाने की बात याद आ गई। मुझे एहसास हुआ कि झू युन को कलीसिया में लाने की बात पर मैंने बस निजी हितों की परवाह की। अपने लिए अच्छा होने पर मैं यह काम कर देती, पर अच्छा न होने पर मैंने इनकार किया और शिकायत की। मैंने उस बहन के जीवन की जरा भी परवाह नहीं की। परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़ने के बाद ही मैं अपनी समस्या की थोड़ी समझ हासिल कर पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “व्यक्ति के हितों से संबंधित मामले उसे सबसे ज्यादा प्रकट करते हैं। हित प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं, और व्यक्ति रोजाना जिस भी चीज के संपर्क में आता है, वह उसके हित से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, जब तुम कुछ कहते हो या किसी मामले के बारे में बात करते हो, तो इसमें कौन-से हित शामिल होते हैं? जब दो लोग किसी मुद्दे पर चर्चा करते हैं, तो यह इस बात का मामला होता है कि कौन स्पष्ट बोलता है और कौन नहीं, दूसरे लोग किसका बहुत सम्मान करते हैं और किसको नीची नजर से देखते हैं...। लोग जिन हितों का अनुसरण करते हैं उनमें और कौन-से पहलू शामिल होते हैं? अपने कामकाज के दौरान लोग लगातार चीजों को तौलते, हिसाब लगाते और मन में विचार करते हैं, यह सोचने के लिए दिमाग लड़ाते हैं कि कौन-से क्रियाकलाप उनके हित में हैं, कौन-से उनके हित में नहीं हैं, कौन-से क्रियाकलाप उनके हितों को आगे बढ़ा सकते हैं, कौन-से क्रियाकलाप कम से कम उनके हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और कौन-से क्रियाकलाप उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्धि और सबसे बड़ा भौतिक लाभ दिला सकते हैं और उन्हें सबसे बड़ा लाभार्थी बना सकते हैं। जब भी लोगों पर कोई मुसीबत आती है, वे इन्हीं दो हितों के लिए लड़ते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का खुलासा कर दिया। मैं समझ गई कि मैं स्वार्थी और घिनौनी थी। हर चीज में मैं सिर्फ निजी हितों के बारे में सोचती थी और अपना फायदा बढ़ाने के तरीके ढूँढ़ना चाहती थी। कलीसिया के कार्य की बात तो दूर रही, मैं भाई-बहनों के बारे में भी नहीं सोचती थी। जब अगुआ ने मुझे बहन झू युन को लाने के लिए कहा, तो मुझे लगा वह कलीसिया के लिए काम कर सकेगी, अपने काम का बोझ कम करने और उसे ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए, मेरी एक और सहायिका होगी, जिससे मैं बेहतर दिखाई दूँगी, इसलिए मैं अपनी कलीसिया में उसका स्वागत करने का इंतजार नहीं कर सकी। लेकिन जब मैंने देखा कि वह मेरी पहचान वाली बहन नहीं थी, और एक सुरक्षा जोखिम भी थी, तो मैं समझ गई कि वह न सिर्फ कोई कर्तव्य नहीं निभा सकेगी, बल्कि उसके साथ किसी को अकेले में ही बैठक करनी होगी। मुझे लगा वह न तो हमारी कार्य-उत्पादकता बढ़ा सकेगी, न ही मुझे बेहतर दिखा सकेगी, बल्कि वह हमारी सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर सकती है। मैं इसके खिलाफ थी, मैंने शिकायत कर दी कि अगुआ की व्यवस्था अनुचित थी, इसलिए मैंने जल्दी से उसे एक पड़ोसी कलीसिया में भेज देने की कोशिश की। मैंने देखा कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” जैसे शैतानी जहर के अनुसार जीकर, मैं ज्यादा-से-ज्यादा स्वार्थी और घिनौनी हो गई थी। मेरे दिल में सिर्फ निजी हित थे, और मैं सिर्फ अपनी ही परवाह करती थी। परमेश्वर देखता है कि हमारे दिलों में क्या है। परमेश्वर मेरी सोच से घृणा कैसे नहीं करता? जब मैंने सोचा कि बहन झू युन का तबादला पड़ोसी कलीसिया में कैसे हुआ था, तो मुझे पछतावा हुआ, और मैं जान गई कि आगे बढ़कर मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना होगा, और अब मैं निजी हितों का ध्यान नहीं रख सकती।

कुछ समय बाद, मुझे अगुआ का एक और पत्र मिला। कुछ भाई-बहन सीसीपी से बचते फिर रहे थे, और हमें उन्हें अपनी कलीसिया में लाने की व्यवस्था करनी थी। पत्र पढ़कर मैंने मन ही मन सोचा, “इस बार, मैं अब निजी हितों के बारे में नहीं सोच सकती। वे कर्तव्य निभा सकते हों या नहीं, मैं उन्हें स्वीकारने को तैयार हूँ, ताकि वे कलीसियाई जीवन जी सकें।” इसलिए मैं अगुआ द्वारा दिए हुए पतों पर गई, हमारी कलीसिया में उनका स्वागत किया, और जरूरी व्यवस्थाएं कीं। इस तरह अभ्यास करके, मैंने बहुत शांति और सुकून महसूस किया।

बाद में, पुलिस मुझ पर भी नजर रख रही थी, तो मैं भी सुरक्षा जोखिम बन गई, और दूसरों के साथ संपर्क नहीं रख पाई। मैं सभाओं में भाग नहीं ले सकती थी, अपने कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। वह मेरे लिए कठिन समय था। मैं अक्सर वो दिन याद करती जब मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना कर्तव्य निभा सकती थी। मैं भाई-बहनों से फिर से मिलने, साथ में सत्य पर संगति करने और अपने मन की बात कहने की आस लगाए रहती। कलीसिया जीवन और भाई-बहनों से मिलने की लालसा ने मुझे बहुत रुलाया। तब जाकर मैं समझ पाई कि सीसीपी द्वारा पीछा किए जा रहे भाई-बहन कैसा महसूस करते हैं, जब वे कलीसिया जीवन नहीं जी पाते या भाई-बहनों के साथ संपर्क नहीं कर पाते। मैंने बहन झू युन के बारे में सोचा जिसे मैंने पड़ोसी कलीसिया में भेज दिया था। तब, मैंने यही सोचा था, कर्तव्य न निभा सकने के कारण, वह कलीसिया के कार्य में कोई मदद नहीं कर सकेगी। लेकिन मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि तीन साल से भी ज्यादा समय तक सीसीपी द्वारा जेल में बंद रखे जाने, और रिहाई के बाद अभी भी निगरानी में रहने, भाई-बहनों से संपर्क न कर पाने और कलीसिया जीवन न जी पाने से वह कितनी दुखी और पीड़ित होगी। सभाओं में भाग लेने के लिए उसे अपने गाँव से हमारे पास आना पड़ रहा था। उसने ऐसा भाई-बहनों के साथ संपर्क में बने रहने के लिए किया, लेकिन मैंने सहानुभूति या सुकून पहुँचाने का एक भी शब्द बोले बिना उसे ठुकरा दिया। इस बारे में मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतना ही दोषी महसूस किया। मैं इतनी ज्यादा निष्ठुर और निर्दयी कैसे थी? एक दिन मैंने परमेश्वर के वे वचन पढ़े, जो मसीह-विरोधियों का खुलासा करते हैं, जिससे मुझे अपनी समस्या को ज्यादा स्पष्ट रूप से समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधियों के कपट और निर्दयता की प्राथमिक अभिव्यक्ति यह है कि वे जो कुछ भी करते हैं, उसका एक खास तौर से स्पष्ट उद्देश्य होता है। सबसे पहले वे अपने हितों के बारे में सोचते हैं; और उनके तरीके घृणित, असभ्य, घटिया, नीच और संदिग्ध होते हैं। जिस तरह से वे काम करते हैं और जिस तरह से और जिन सिद्धांतों के अनुसार वे लोगों से व्यवहार करते हैं, उनमें कोई ईमानदारी नहीं होती। जिस तरह से वे लोगों से व्यवहार करते हैं, वह उनका फायदा उठाना और उनके साथ खिलवाड़ करना है, और जब लोग उनके लिए लाभदायक मूल्य के नहीं रह जाते, तो वे उन्हें फेंक देते हैं। अगर तुम उनके लिए लाभदायक मूल्य रखते हो, तो वे तुम्हारी परवाह करने का दिखावा करते हैं : ‘क्या हाल है? कोई कठिनाई तो नहीं हो रही? मैं तुम्हारी कठिनाइयाँ हल करने में तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। अगर तुम्हें कोई समस्या है, तो मुझे बताओ। मैं तुम्हारे लिए हाजिर हूँ। हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमारे बीच इतना अच्छा रिश्ता है!’ वे बहुत ध्यान देने वाले लगते हैं। फिर भी अगर ऐसा दिन आ जाए जब उनके लिए तुम्हारा कोई लाभदायक मूल्य न रहे, तो वे तुम्हें छोड़ देंगे, वे तुम्हें एक तरफ फेंक देंगे और तुम्हें अनदेखा कर देंगे, मानो वे तुमसे पहले कभी मिले तक न हों। जब तुम वास्तव में किसी समस्या में होते हो और मदद के लिए उनका मुँह जोहते हो, तो अचानक उनका रवैया बदल जाता है, उनके शब्द अब उतने अच्छे नहीं रहते जितने तब होते थे जब उन्होंने पहली बार तुम्हारी मदद करने का वादा किया था—और ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उनके लिए तुम्हारा कोई उपयोगी मूल्य नहीं रहता। नतीजतन, वे तुम पर ध्यान देना बंद कर देते हैं। और इतना ही नहीं : अगर उन्हें पता चलता है कि तुमने कुछ गलत किया है या उन्हें कुछ ऐसा मिल जाता है जिसका वे लाभ उठा सकते हैं, तो वे रुखाई से तुम्हारे दोष निकालने लगते हैं, यहाँ तक कि तुम्हारी निंदा भी कर सकते हैं। तुम इस तरीके के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह दयालुता और ईमानदारी की अभिव्यक्ति है? जब मसीह-विरोधी दूसरों के प्रति अपने व्यवहार में ऐसा कपट और निर्दयता प्रकट करते हैं, तो क्या इसमें मानवता का कोई निशान शामिल रहता है? क्या उनमें लोगों के प्रति थोड़ी-सी भी ईमानदारी होती है? बिल्कुल नहीं। जो कुछ भी वे करते हैं, अपने लाभ, गौरव और प्रतिष्ठा के लिए करते हैं, दूसरों के बीच खुद को हैसियत और प्रसिद्धि दिलाने के लिए करते हैं। जिस किसी से भी वे मिलते हैं, अगर वे उसका फायदा उठा सकते हैं तो जरूर उठाएँगे। जिनसे वे फायदा नहीं उठा सकते, उनका तिरस्कार करते हैं और उन पर ध्यान नहीं देते; यहाँ तक कि अगर तुम उनसे संपर्क करने का बीड़ा भी उठाते हो, तो भी वे तुम्हें अनदेखा करते हैं और तुम्हारी ओर देखते तक नहीं। लेकिन अगर कोई ऐसा दिन आता है, जब उन्हें तुम्हारी जरूरत होती है, तो तुम्हारे प्रति उनका रवैया अचानक बदल जाता है और वे बहुत ही ध्यान रखने वाले और मिलनसार हो जाते हैं, जिससे तुम हैरान रह जाते हो। तुम्हारे प्रति उनका रवैया क्यों बदल गया है? (क्योंकि अब तुम उनके लिए लाभदायक मूल्य के हो।) यह सही है : जब वे देखते हैं कि तुम्हारा लाभदायक मूल्य है, तो उनका रवैया बदल जाता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने खुद को बहुत दुखी और दोषी महसूस किया। मेरे कार्य और कर्म मसीह-विरोधियों जैसे ही थे। हर हालात में मेरी एक मंशा थी, मैं सिर्फ निजी हितों का ध्यान रखती थी। मैंने अपने मेलजोल में हमेशा हिसाब लगाकर लोगों का इस्तेमाल किया। भाई-बहनों के प्रति मेरे मन में प्रेम, ईमानदारी या दया नहीं थी। बहन झू युन बहुत लंबे समय से सीसीपी की निगरानी में थी और वह कलीसिया जीवन नहीं जी पाई थी। मुझे उसकी हालत समझनी चाहिए थी, प्रेम से सहारा देकर उसकी मदद करनी चाहिए थी, जल्द-से-जल्द सभाओं में उसके भाग लेने और उसके लायक कर्तव्य की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन मैं उसके सुरक्षा जोखिमों को लेकर चिंतित थी। मुझे लगा उसे कलीसिया में स्वीकारने से कलीसिया के कार्य में कोई मदद नहीं मिलेगी, और हमें उसकी मदद के लिए और ऊर्जा खपानी पड़ेगी, कीमत चुकानी पड़ेगी। बुरा-से-बुरा, उससे अन्य भाई-बहनों की सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा, जिससे कलीसिया के कार्य पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए उसे कलीसिया जीवन मिले या न मिले, मैंने कोई परवाह नहीं की, और मैंने उसकी हालत या मुश्किलों के बारे में उससे एक भी सवाल नहीं पूछा। मैं सिर्फ उससे छुटकारा पाना चाहती थी, उसे कलीसिया में नहीं आने देना चाहती थी। मैं बेपरवाह और स्वार्थी थी। मैं खुद से पूछे बिना नहीं रह सकी, “मैं इस छोटे-से मामले में उस बहन के बारे में नहीं सोच सकी। मुझमें प्रेम या दया नहीं है। तो पहले मैंने भाई-बहनों को जो मदद दी थी, वह सच्ची कैसे हो सकती थी?” आत्मचिंतन के जरिए, मैंने जाना कि कई बार मैं भाई-बहनों की मदद इसलिए करती थी, क्योंकि मैं कलीसिया अगुआ थी। मुझे लगता उन्हें सही सहारा देने और सबकी हालत सामान्य हो यह पक्का करने से, मैं अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल कर पाऊँगी और इस तरह अच्छी छवि पेश कर पाऊँगी। अब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर के इरादों का ध्यान नहीं रखा, और मैं एक अगुआ की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही थी। इसके बजाय, मैं अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा कर रही थी। ऊपर से तो मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन दरअसल अपना कर्तव्य निभाने के बहाने मैं निजी हितों का ध्यान रख रही थी, मैंने शोहरत और रुतबे के पीछे भागने में सीढ़ी के तौर पर दूसरों का इस्तेमाल किया। मेरी करतूत परमेश्वर को नाराज करने वाली थी, और मैं परमेश्वर के प्रतिरोध के मार्ग पर चल रही थी। अगर मैंने कलीसियाई जीवन न जी पाने की पीड़ा महसूस नहीं की होती, तो मैं कभी भी सभाओं और कलीसियाई जीवन के बिना जी रहे भाई-बहनों को हुई पीड़ा और कष्ट न जान पाती। मैं कभी भी अपने कुटिल और दुष्ट मसीह-विरोधी स्वभाव को पहचान नहीं पाई होती।

मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : “अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग शोहरत, लाभ और रुतबे जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक साधन बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव बाधा डालने और काम बिगाड़ने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि अगर हम सत्य का अभ्यास किए बिना अपना कर्तव्य निभाएँ, अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा करें, तो हम चाहे जितनी भी बड़ी कीमत चुकाएँ, कलीसिया में हमेशा एक नकारात्मक भूमिका ही अदा करेंगे, और शैतान का अड्डा बन जाएंगे। हम सिर्फ कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी ही पैदा करते रहेंगे, और अपने भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचाएंगे। मैंने बहन झू युन के बारे में सोचा जिसे बस कलीसिया जीवन में भाग लेने के लिए अपने गाँव से हमारे पास आना पड़ रहा था। वह परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखती थी, और परमेश्वर के वचनों के लिए तरस रही थी। अगर मुझमें जरा भी इंसानियत होती, तो मैं उसके साथ इस तरह पेश नहीं आई होती। मैं एक कलीसिया अगुआ थी, लेकिन जब बहन झू युन मुसीबत में थी, तो मैं उसकी मदद करने में असमर्थ रही, मैंने बेपरवाही और निर्दयता से उसे किसी दूसरी कलीसिया में भेज देने की कोशिश की। मैंने अपनी करतूत के बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही खुद से घृणा की। मुझे लगा मैं उस बहन की ऋणी थी, उससे भी ज्यादा परमेश्वर की ऋणी थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! काम करते समय मैं सिर्फ निजी हितों का ध्यान रखती हूँ, और भाई-बहनों के लिए मेरे मन में जरा भी प्रेम नहीं है। मैं बहुत स्वार्थी और दुष्ट हूँ। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ...।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा। मैं मानवजाति के लिए परमेश्वर के निस्वार्थ पोषण और देखभाल को समझ पाई। मैंने अपने स्वार्थ और दुष्टता पर और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “चाहे तुमने परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़े हों, तुम कितना भी सत्य स्वीकार करने और समझने में सक्षम हो, तुमने कितनी भी वास्तविकता जी हो, या तुमने कितने भी परिणाम प्राप्त किए हों, एक तथ्य है जिसे तुम्हें समझना चाहिए : परमेश्वर का सत्य, मार्ग और जीवन प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त रूप से प्रदान किए जाते हैं, और इसमें किसी से पक्षपात नहीं होता है। परमेश्वर कभी भी एक व्यक्ति की तुलना में दूसरे से इन वजहों से पक्षपात नहीं करेगा कि उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है या उसने कितना कष्ट सहा है, न ही वह इन्हीं वजहों से कभी किसी व्यक्ति पर उपकार करेगा या उसे आशीष देगा। न वह किसी की उम्र, रूप-रंग, लिंग, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि के कारण अलग तरह से ही बरताव करेगा। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर से समान चीजें प्राप्त करता है। वह किसी को कम नहीं देता, न किसी को ज्यादा देता है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति निष्पक्ष और न्यायी है। वह लोगों को ठीक वही चीज देता है जिसकी उन्हें जरूरत है और ठीक उसी समय पर देता है जब उन्हें जरूरत है, वह उन्हें भूखा, ठंडा या प्यासा नहीं रहने देता, और वह मनुष्य के हृदय की सभी जरूरतें पूरी करता है। जब परमेश्वर ये चीजें करता है, तो वह लोगों से क्या चाहता है? परमेश्वर ये चीजें लोगों को देता है, तो क्या इसमें परमेश्वर का कोई स्वार्थी उद्देश्य है? (नहीं।) परमेश्वर का कतई कोई स्वार्थी उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर के सभी वचन और कार्य मानवजाति के लिए हैं, मानवजाति की तमाम मुसीबतें और कठिनाइयाँ हल करने के लिए हैं, ताकि मानवजाति उससे वास्तविक जीवन प्राप्त कर सके। यह तथ्य है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्‍य है)। परमेश्वर सच्ची आस्था वाले हर इंसान के लिए निस्स्वार्थ भाव से प्रावधान करता है। उसने हम में से प्रत्येक के लिए श्रमसाध्य कीमत चुकाई है, और कभी बदले में हमसे कुछ भी नहीं चाहता, सिर्फ उम्मीद करता है कि हम सत्य का अनुसरण करेंगे, अपना स्वभाव बदलेंगे, और सच्चे इंसान की तरह जीवन जियेंगे। लेकिन मैं भाई-बहनों से उनकी उपयोगिता के आधार पर पेश आती थी। अगर वे उपयोगी होते, तो मैं कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हो जाती। अगर नहीं, तो मैं उन पर जरा भी ध्यान नहीं देती। कोई फायदा न दिखने पर मैं परेशानी मोल नहीं लेना चाहती। प्रभु यीशु ने कहा था : “मैं तुम से सच कहता हूँ कि तुमने जो मेरे इन छोटे से छोटे भाइयों में से किसी एक के साथ किया, वह मेरे ही साथ किया(मत्ती 25:40)। यह सच है। यहाँ तक कि कलीसिया में सबसे कम नजर आने वाले मगर परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले भाई-बहनों की भी मदद करनी चाहिए, अगर वे बुरे लोग, मसीह-विरोधी या छद्म-विश्वासी न हों। उनकी प्रेम से मदद कर पाना परमेश्वर के इरादे का ध्यान रखना है, और इसमें परमेश्वर की स्वीकृति होती है। खास तौर पर सीसीपी द्वारा पीछा कर तलाशे जा रहे भाई-बहनों के लिए, जो घर वापस नहीं लौट सकते, उनके साथ हमें ठीक से पेश आना चाहिए और उनकी सुरक्षा पक्की करनी चाहिए। यह एक नेक कार्य से भी बढ़कर है। ऐसे भाई-बहनों के प्रति किसी इंसान का रवैया उसकी इंसानियत दिखाता है। मुझे गहरा पछतावा हुआ। अगर मेरे पास कर्तव्य निभाने का एक और मौका होता, तो मैं अब उतनी स्वार्थी और घिनौनी नहीं होती, या अपने भाई-बहनों के साथ मेलजोल में निजी हितों का ध्यान नहीं रखती। मुझे भाई-बहनों की भरसक मदद करनी चाहिए, और ऐसी बननी चाहिए जिसमें इंसानियत और समझ हो।

कई महीने बाद, मैंने आखिरकार एक और कर्तव्य संभाला। अगुआ ने मुझे सुरक्षा जोखिम वाली एक बहन को सहारा देने का काम सौंपा। मुझे लगा, “उन हालात से गुजरने के बाद, आखिरकार मेरे पास एक कर्तव्य है। इस बहन से मेरा संपर्क होने पर, अगर मुझे फँसा दिया गया तो क्या होगा?” इस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं सही हालत में नहीं हूँ, और मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं खुद के विरुद्ध विद्रोह करूँगी, और कहा कि मैं अपनी बहन की मदद करने, उसे सहारा देने का भरसक प्रयास करना चाहती हूँ। उसके साथ मिलकर परमेश्वर के वचन पर संगति करने से, उसकी नकारात्मक हालत धीरे-धीरे सुधर गई, और उसने परमेश्वर की गवाही देने वाला एक लेख लिखना चाहा। उस बहन की मदद का भरसक प्रयास करके मुझे बहुत सुकून मिला।

पहले मुझे हमेशा लगता था कि मुझमें अच्छी इंसानियत है, मैं अपने कर्तव्य में मुश्किलें झेल सकती हूँ और मुझमें भाई-बहनों के प्रति प्रेम है। फिर सच्चाई के आईने में देखकर, और परमेश्वर के वचन के न्याय और प्रकाशन से, आखिर मैं समझ सकी कि मैं सिर्फ फायदा चाहती थी। मैं स्वार्थी और उदासीन थी। शैतान ने मुझे इस हद तक भ्रष्ट कर दिया था कि मुझमें मनुष्य जैसा कुछ भी नहीं था! परमेश्वर के वचनों से मैं समझ सकी कि इंसानियत और समझ से अपने भाई-बहनों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। इससे मुझे हमेशा निजी हितों की परवाह किए बिना दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहने और ईमानदारी से भाई-बहनों को सहारा देकर उनकी सहायता करने में मदद मिली। परमेश्वर का धन्यवाद!

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