परमेश्वर के नामों का रहस्य
"यद्यपि यहोवा, यीशु, और मसीहा सभी परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु ये नाम परमेश्वर की प्रबन्धन योजना में केवल विभिन्न युगों के द्योतक हैं, और उसकी सम्पूर्णता में उसका प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। ऐसे नाम जिनके द्वारा पृथ्वी के लोग परमेश्वर को पुकारते हैं, उसके सम्पूर्ण स्वभाव को और वह सब कुछ जो वह है उसे स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकते हैं। वे मात्र अलग-अलग नाम हैं जिनके द्वारा विभिन्न युगों के दौरान परमेश्वर को पुकारा जाता है। और इसलिए, जब अंतिम युग—अंत के दिनों के युग—का आगमन होगा, तो परमेश्वर का नाम पुनः बदल जाएगा। उसे यहोवा, या यीशु नहीं कहा जाएगा, मसीहा तो कदापि नहीं, बल्कि उसे सामर्थ्यवान स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहा जाएगा, बल्कि उसे सामर्थ्यवान स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहा जाएगा, और इस नाम के तहत ही वह समस्त युग को समाप्त करेगा। और इस नाम के तहत ही वह समस्त युग को समाप्त करेगा" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। परमेश्वर के वचनों के इस भजन ने मुझे दिखाया कि हरेक युग में, परमेश्वर के नाम के पीछे एक अर्थ होता है। सिर्फ एक ही नाम, परमेश्वर के स्वभाव और वह जो है, इसका पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। कोई एक नाम, सिर्फ उस युग के लिए परमेश्वर के द्वारा व्यक्त स्वभाव को ही दर्शाता है। परमेश्वर का अस्तित्व व्यापक और परिपूर्ण है। लोग परमेश्वर को सीमांकित नहीं कर सकते, या यह निर्धारित नहीं कर सकते कि उसका नाम कभी नहीं बदलता। कुछ समय पहले, मैं हरेक युग में परमेश्वर द्वारा रखे गये उसके नाम के अर्थ को वाकई समझ नहीं पाता था, इसलिए मैं निश्चित था कि उसका नाम नहीं बदल सकता। मैं प्रभु यीशु नाम के साथ चिपका हुआ था और सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता था। मैं प्रभु के स्वागत का अपना मौक़ा करीब-करीब गँवा ही चुका था।
बचपन से ही मेरी दादी मुझे कलीसिया ले जाती थी। वहां पादरी इन वचनों का हवाला देते थे: "यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है" (इब्रानियों 13:8)। "किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें" (प्रेरितों 4:12)। मुझे पूरा विश्वास था कि सिर्फ प्रभु यीशु ही सच्चा परमेश्वर है, और अगर मैं उसके नाम और उसके बताये मार्ग को कायम रखूँ, तो उसके आने पर मुझे स्वर्ग ले जाया जाएगा।
2017 में, मेरी पत्नी ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार को स्वीकार कर लिया। वह चाहती थी कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के बारे में सुनूं। इसलिए वह संगति करने के लिए एक बहन को ले आयी, मैंने उसे सुना। लेकिन जब उसने कहा कि प्रभु यीशु सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में वापस आ चुका है, तो मैंने आगे एक भी शब्द नहीं सुनना चाहा। यह जान कर कि मेरी पत्नी सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करती है, मैं उसके आड़े आने लगा। मैंने कहा, "स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया। हमें प्रभु यीशु के नाम के साथ सच्चा रहना होगा। अनेक वर्षों की आस्था के बाद तुम्हें बेहतर मालूम होना चाहिए।" उसने मेरी बात का खंडन किया, "प्रभु यीशु नाम ने हमें बचाया, यानी हमारे पापों को क्षमा कर दिया, ताकि हमें दंड न भोगना पड़े, लेकिन हम अभी भी पाप करने और फिर स्वीकार करने की ज़िंदगी जीते हैं। हम पाप से मुक्त नहीं हैं। प्रभु यीशु वापस आ गया है और उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर नाम से राज्य का युग शुरू कर दिया है। वह न्याय का कार्य कर रहा है। वह परमेश्वर का विरोध करने वाली हमारी शैतानी प्रकृति को प्रकट करने, इंसान के पापों का न्याय करने, और हमारी पापी प्रकृति को ठीक करने का रास्ता दिखाने के लिए सत्य व्यक्त करता है| हमें परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय और अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करना होगा।" लेकिन मैं धारणाओं से सराबोर था, उसकी बात मुझे जमी नहीं, मैं जानता था कि वह हमेशा अपने माता-पिता की बात सुनती थी, इसलिए उसे रोकने के लिए मैंने उनकी मदद ली, लेकिन वह अड़ी हुई थी कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है, उसने हमें इस पर गौर करने को प्रोत्साहित भी किया।
मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर में उसकी आस्था को रोकने की कोशिश की। वक्त मिलने पर मैं बाइबल पर शोध करके, ऑनलाइन जाकर जाने-माने पादरियों के धर्मोपदेश निकालता, और उन्हें डाउनलोड कर उसे दिखाता। मेरा ख़याल था कि उसका मन बदल जाएगा। लेकिन बजाय इसके, वह दरअसल मुझे प्रवचन देने लगी। इस बात ने मुझे गुस्सा दिलाया, मगर मेरे हाथ बंधे हुए थे। हम दोनों अपनी-अपनी आस्था पर अमल करते रहे। मैंने पक्का कर लिया कि मैं उसका विरोध करूंगा। वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ती और मैं बाइबल पढ़ता। वह अपनी कलीसिया के भजन बजाती और मैं प्रभु की स्तुति करता। जब वह अपनी कलीसिया के धर्मोपदेश सुनती, मैं पादरियों के धर्मोपदेश सुनता। हम बाइबल के बारे में अक्सर बहस करते, और हालांकि वह पहले कभी वाक्पटुता में मेरी बराबरी नहीं कर पाती थी, अब उसकी हर बात सचमुच गहरी होती। उसके शब्दों में वजन होता, उसके जवाब मेरी बोलती बंद कर देते, मुझे कुछ नहीं सूझता। मैं उसे छोटा नहीं दिखा सकता था। मैंने सोचा, बाइबल के अपने मौजूदा ज्ञान के साथ मैं उसकी बराबरी नहीं कर सकता, तो फिर मुझे जीतने के लिए बाइबल का अध्ययन करना होगा।
एक दिन मैंने निर्गमन के अध्याय 3 में यह अंश देखा: "फिर परमेश्वर ने मूसा से यह भी कहा, 'तू इस्राएलियों से यह कहना, 'तुम्हारे पितरों का परमेश्वर, अर्थात् अब्राहम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याक़ूब का परमेश्वर, यहोवा, उसी ने मुझ को तुम्हारे पास भेजा है।' देख, सदा तक मेरा नाम यही रहेगा, और पीढ़ी पीढ़ी में मेरा स्मरण इसी से हुआ करेगा'" (निर्गमन 3:15)। तब मैंने सोचा कि परमेश्वर के वचन में तो, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उसका नाम सदा के लिए यहोवा है, फिर उसे अनुग्रह के युग में यीशु क्यों कहा गया? पुराने नियम में कहा गया है: "मैं ही यहोवा हूँ और मुझे छोड़ कोई उद्धारकर्ता नहीं" (यशायाह 43:11)। नये नियम में कहा गया है: "किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें" (प्रेरितों 4:12)। इन सबका अर्थ क्या है? मैंने इन पदों को बार-बार पढ़ा, लेकिन इन सबसे मैं ज़्यादा उलझन में पड़ गया। "क्या प्रभु यीशु हमारा उद्धारकर्ता नहीं है? यहोवा और यीशु एक ही परमेश्वर है, तो उसके नाम इतने अलग क्यों हैं? क्या यह सच हो सकता है कि परमेश्वर का नाम बदलता है, जैसा कि मेरी पत्नी ने कहा?" अपने बहस-मुबाहसों से मैंने महसूस किया, कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, मेरी पत्नी की अंतर्दृष्टि पैनी हो गयी है। उसकी बातें सारभूत होती हैं। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, कोई भी अपने-आप इस तरह से आगे नहीं बढ़ सकता। मैंने खुद से पूछना शुरू किया, "क्या मैं ही ग़लत हूँ? क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तव में वापस आया हुआ प्रभु है? क्या चमकती पूर्वी बिजली ही सच्चा मार्ग है? अगर यह सच्चा मार्ग है और मैं अपनी पत्नी को रोकता हूँ, तो क्या मैं परमेश्वर के विरुद्ध नहीं हो जाऊंगा?" मैं एक मुश्किल परिस्थिति में फंस गया था। मैं इसे पूरी तरह से समझना चाहता था, मगर अपना अभिमान छोड़ने को तैयार नहीं था।
इसे समझने की कोशिश में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के यू-ट्यूब चैनल की सदस्यता लेकर उसे देखना शुरू किया, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को जांचने लगा। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा, जिसका शीर्षक था, "उद्धारकर्त्ता पहले ही एक 'सफेद बादल' पर सवार होकर वापस आ चुका है।" सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "'यहोवा' वह नाम है, जिसे मैंने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपनाया था, और इसका अर्थ है इस्राएलियों (परमेश्वर के चुने हुए लोगों) का परमेश्वर, जो मनुष्य पर दया कर सकता है, मनुष्य को शाप दे सकता है, और मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है; वह परमेश्वर, जिसके पास बड़ा सामर्थ्य है और जो बुद्धि से भरपूर है। 'यीशु' इम्मानुएल है, जिसका अर्थ है वह पाप-बलि, जो प्रेम से परिपूर्ण है, करुणा से भरपूर है, और मनुष्य को छुटकारा दिलाता है। उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और वह अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह प्रबंधन-योजना के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। ... प्रत्येक युग में और कार्य के प्रत्येक चरण में मेरा नाम आधारहीन नहीं है, बल्कि प्रातिनिधिक महत्व रखता है : प्रत्येक नाम एक युग का प्रतिनिधित्व करता है। 'यहोवा' व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और उस परमेश्वर के लिए सम्मानसूचक है, जिसकी आराधना इस्राएल के लोगों द्वारा की जाती है। 'यीशु' अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है और उन सबके परमेश्वर का नाम है, जिन्हें अनुग्रह के युग के दौरान छुटकारा दिया गया था। यदि मनुष्य अब भी अंत के दिनों के दौरान उद्धारकर्ता यीशु के आगमन की अभिलाषा करता है, और उसके अब भी उसी छवि में आने की अपेक्षा करता है जो उसने यहूदिया में अपनाई थी, तो छह हज़ार सालों की संपूर्ण प्रबंधन-योजना छुटकारे के युग में रुक गई होती, और आगे प्रगति न कर पाती। इतना ही नहीं, अंत के दिनों का आगमन कभी न होता, और युग का समापन कभी न किया जा सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उद्धारकर्ता यीशु सिर्फ मानवजाति के छुटकारे और उद्धार के लिए है। 'यीशु' नाम मैंने अनुग्रह के युग के सभी पापियों की खातिर अपनाया था, और यह वह नाम नहीं है जिसके द्वारा मैं पूरी मानवजाति को समापन पर ले जाऊँगा" (वचन देह में प्रकट होता है)। मैंने मन-ही-मन इसे बार-बार दोहराया। यहोवा और यीशु नामों की अहमियत के बारे में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की व्याख्या बिल्कुल स्पष्ट है। मैंने समझा कि हरेक युग के लिए परमेश्वर का नाम सिर्फ उस युग का प्रतिनिधित्व करता है। "यहोवा" नाम परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपने कृपालु और प्रतापी स्वभाव को दर्शाने वाले अपने कार्य के लिए रखा। "यीशु" नाम, परमेश्वर के अनुग्रह के युग के लिए था, जो उसके स्नेही स्वभाव को दर्शाता है। आखिरकार मैंने देखा कि परमेश्वर का नाम न बदलने वाला नहीं है। परमेश्वर के कार्य के नये चरण का अर्थ एक नया नाम भी होता है। इसलिए जब प्रभु अंत के दिनों में वापस आयेगा, तो उसका एक नया नाम होगा।
फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन देखे। "मैं कभी यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीहा भी कहा जाता था, और लोग कभी मुझे प्यार और सम्मान से उद्धारकर्ता यीशु भी कहते थे। किंतु आज मैं वह यहोवा या यीशु नहीं हूँ, जिसे लोग बीते समयों में जानते थे; मैं वह परमेश्वर हूँ जो अंत के दिनों में वापस आया है, वह परमेश्वर जो युग का समापन करेगा। मैं स्वयं परमेश्वर हूँ, जो अपने संपूर्ण स्वभाव से परिपूर्ण और अधिकार, आदर और महिमा से भरा, पृथ्वी के छोरों से उदित होता है। लोग कभी मेरे साथ संलग्न नहीं हुए हैं, उन्होंने मुझे कभी जाना नहीं है, और वे मेरे स्वभाव से हमेशा अनभिज्ञ रहे हैं। संसार की रचना के समय से लेकर आज तक एक भी मनुष्य ने मुझे नहीं देखा है। यह वही परमेश्वर है, जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्यों पर प्रकट होता है, किंतु मनुष्यों के बीच में छिपा हुआ है। वह सामर्थ्य से भरपूर और अधिकार से लबालब भरा हुआ, दहकते हुए सूर्य और धधकती हुई आग के समान, सच्चे और वास्तविक रूप में, मनुष्यों के बीच निवास करता है। ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसका मेरे वचनों द्वारा न्याय नहीं किया जाएगा, और ऐसा एक भी व्यक्ति या चीज़ नहीं है, जिसे जलती आग के माध्यम से शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंततः मेरे वचनों के कारण सारे राष्ट्र धन्य हो जाएँगे, और मेरे वचनों के कारण टुकड़े-टुकड़े भी कर दिए जाएँगे। इस तरह, अंत के दिनों के दौरान सभी लोग देखेंगे कि मैं ही वह उद्धारकर्ता हूँ जो वापस लौट आया है, और मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है। और सभी देखेंगे कि मैं ही एक बार मनुष्य के लिए पाप-बलि था, किंतु अंत के दिनों में मैं सूर्य की ज्वाला भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को जला देती है, और साथ ही मैं धार्मिकता का सूर्य भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को प्रकट कर देता है। अंत के दिनों में यह मेरा कार्य है। मैंने इस नाम को इसलिए अपनाया और मेरा यह स्वभाव इसलिए है, ताकि सभी लोग देख सकें कि मैं एक धार्मिक परमेश्वर हूँ, दहकता हुआ सूर्य हूँ और धधकती हुई ज्वाला हूँ, और ताकि सभी मेरी, एक सच्चे परमेश्वर की, आराधना कर सकें, और ताकि वे मेरे असली चेहरे को देख सकें : मैं केवल इस्राएलियों का परमेश्वर नहीं हूँ, और मैं केवल छुटकारा दिलाने वाला नहीं हूँ; मैं समस्त आकाश, पृथ्वी और महासागरों के सारे प्राणियों का परमेश्वर हूँ" (वचन देह में प्रकट होता है)। इन वचनों में अधिकार है। प्रत्येक वचन ने मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया। ये परमेश्वर के अपने वचन ही हो सकते हैं। परमेश्वर के नामों के रहस्य को और कौन प्रकट कर सकता है? मैंने जितना ज़्यादा समझा, उतना ही ज़्यादा मुझे लगा कि यह परमेश्वर की वाणी है। फिर मुझे यूहन्ना 16:13 वाले वचन याद आये: "परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा।" इसलिए, हमें ये सत्य बताने वाला परमेश्वर के अलावा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता, है न? मैंने तमाम पादरियों को प्रचार करते सुना, लेकिन किसी ने भी नहीं समझाया कि पुराने नियम में यहोवा और नये नियम में यीशु जैसे परमेश्वर के नामों का अर्थ क्या है। ऐसा लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही प्रभु यीशु का प्रकटन है! उस वक्त के बारे में सोच कर मैंने बहुत शर्मिंदा महसूस किया जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को नकार कर अपनी पत्नी को साथ खींचने की कोशिश की थी, खोजबीन किये बिना परमेश्वर के कार्य को आंकने का मुझे पछतावा हुआ। यह मेरी नादानी थी। पहले जब फरीसियों ने, अपनी धारणाओं और बाइबल के शाब्दिक अर्थ के आधार पर, प्रभु यीशु के कार्य की निंदा की थी... तब परमेश्वर ने क्या उन सबको दंड नहीं दिया था? इसलिए मुझे यह सबक सीखना चाहिए, और परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य पर गौर करना चाहिए। मैं आज के जमाने का फरीसी नहीं बनना चाहता था।
फिर, मेरे पास जो भी खाली वक्त होता, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ता और कलीसिया की फ़िल्में देखता। मैं ख़ास तौर से प्रभुत्व का रहस्य और परमेश्वर में आस्था से प्रेरित हुआ। उनके अनुभव वास्तविक थे, और उनकी संगति दिन की तरह साफ़ थी। मैं समझ सका कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वापस आया हुआ प्रभु यीशु है। इसलिए मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने का फैसला कर लिया, मैंने चाहा कि अपनी पत्नी को बता दूं, लेकिन मैं शर्मिंदा था। एक दिन, जब वह घर लौटी, तो मैंने उससे पूछा, "आज तुमने किस बारे में संगति की?" सचमुच चौंक कर उसने पूछा, "क्या तुम्हें कोई संगति सुननी है? इसीलिए पूछ रहे हो? मैं बात करने के लिए कलीसिया से किसी को ला सकती हूँ, तुम्हें ठीक लगेगा?" उसकी इस बात से मुझे बहुत खुशी हुई, मगर मैं अभी भी शर्मिंदा था। मैंने कहा, "ठीक है, अगर तुम चाहो तो।"
फिर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की दो बहनें आयीं, मैंने उन्हें अपनी दुविधा बतायी। "मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को ऑनलाइन पढ़ता रहा हूँ, अब मैंने समझ लिया है कि युग के साथ परमेश्वर के नाम बदलते हैं, फिर भी कुछ चीज़ें मेल नहीं खातीं। बाइबल में कहा गया है: 'यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है' (इब्रानियों 13:8)। 'किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें'" (प्रेरितों 4:12)। "बाइबल में कहा गया है कि प्रभु यीशु का नाम नहीं बदल सकता, फिर अंत के दिनों में उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर क्यों पुकारें, यीशु क्यों नहीं?" तब उन्होंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन पढ़े: "परमेश्वर का सार और उसका स्वरूप कभी नहीं बदलेगा। किंतु जहाँ तक उसके कार्य की बात है, वह हमेशा आगे बढ़ रहा है, हमेशा गहरा होता जा रहा है, क्योंकि वह हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता। हर युग में परमेश्वर एक नया नाम अपनाता है, हर युग में वह नया कार्य करता है, और हर युग में वह अपने सृजनों को अपनी नई इच्छा और नया स्वभाव देखने देता है।" "कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर का नाम नहीं बदलता, तो फिर यहोवा का नाम यीशु क्यों हो गया? यह भविष्यवाणी की गई थी मसीहा आएगा, तो फिर यीशु नाम का एक व्यक्ति क्यों आ गया? परमेश्वर का नाम क्यों बदल गया? क्या इस तरह का कार्य काफी समय पहले नहीं किया गया था? क्या परमेश्वर आज नया कार्य नहीं कर सकता? कल का कार्य बदला जा सकता है, और यीशु का कार्य यहोवा के कार्य के बाद आ सकता है। तो क्या यीशु के कार्य के बाद कोई अन्य कार्य नहीं हो सकता? यदि यहोवा का नाम बदल कर यीशु हो सकता है, तो क्या यीशु का नाम भी नहीं बदला जा सकता? इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है; बात केवल इतनी-सी है कि लोग बहुत सरल दिमाग के हैं। परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा। चाहे उसका काम कैसे भी बदले, चाहे उसका नाम कैसे भी बदल जाए, लेकिन उसका स्वभाव और बुद्धि कभी नहीं बदलेगी। यदि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को केवल यीशु के नाम से ही पुकारा जा सकता है, तो फिर तुम्हारा ज्ञान बहुत सीमित है।" "यीशु का नाम छुटकारे के कार्य के वास्ते लिया गया था, तो क्या जब वह अंत के दिनों में लौटेगा, तब भी उसे उसी नाम से बुलाया जाएगा? क्या वह अभी भी छुटकारे का कार्य करेगा? ऐसा क्यों है कि यहोवा और यीशु एक ही हैं, फिर भी उन्हें भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया जाता है? क्या यह इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं? क्या केवल एक नाम परमेश्वर का उसकी संपूर्णता में प्रतिनिधित्व कर सकता है? ऐसा होने पर, परमेश्वर को भिन्न युग में भिन्न नाम से ही बुलाया जाना चाहिए, और उसे युग को परिवर्तित करने और युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस नाम का उपयोग करना चाहिए। क्योंकि कोई भी एक नाम पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और प्रत्येक नाम केवल एक दिए गए युग में परमेश्वर के स्वभाव के उस समय से संबंधित पहलू का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है; उसे केवल उसके कार्य का प्रतिनिधित्व ही करना है। इसलिए, समस्त युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए परमेश्वर ऐसे किसी भी नाम को चुन सकता है, जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो" (वचन देह में प्रकट होता है)।
फिर उनमें से एक बहन ने मुझे यह बताया: "'परमेश्वर कभी नहीं बदलता' कहने का तात्पर्य उसके सार से है, उसके स्वभाव से है, उसके नाम से नहीं। परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे बढ़ता रहता है, वह युग बदलने के आधार पर अपना नया नाम रखता है। प्रत्येक नाम एक युग और परमेश्वर के कार्य के एक चरण का प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर का नाम नहीं बदलता' कहने का अर्थ यह है कि वह उस युग के दौरान नहीं बदलता और वह उस युग में उसके कार्य के समाप्त होने तक कायम रहता है।" "लेकिन जब परमेश्वर एक नये युग में कार्य शुरू करता है, तो वह अपने नये कार्य के साथ अपना नाम बदल लेता है। एक नये युग का सूत्रपात करने वाले, परमेश्वर का नाम उस नये युग में, उसके कार्य और उसके स्वभाव को दर्शाता है। व्यवस्था के युग में, परमेश्वर का नाम यहोवा था, और इसलिए उसने उस नाम से कार्य किया। उसने इंसान के मार्गदर्शन के लिए व्यवस्थाएं और आदेश जारी किये, ताकि लोग जान सकें कि पाप क्या होता है, किस प्रकार से यहोवा की आराधना करें, कैसे व्यवस्था और आदेशों का पालन करें, और कैसे परमेश्वर का आशीष पायें। जो भी व्यवस्था का उल्लंघन करता, उसे दंड दिया जाता। यहोवा नाम व्यवस्था के युग में, परमेश्वर के स्वभाव के प्रताप, कृपा और क्रोध को दर्शाता है। उस युग के अंत तक, लोग बहुत ज़्यादा भ्रष्ट होने लगे थे और व्यवस्था का पालन नहीं कर रहे थे। वे व्यवस्था का उल्लंघन करने के कारण लगातार खतरे में रहते थे।" "परमेश्वर अपनी कार्य-योजना और भ्रष्ट इंसान की ज़रूरतों के आधार पर देहधारी बना। उसने ‘यीशु’ नाम से अनुग्रह का युग शुरू किया और व्यवस्था के युग का अंत किया। उसने इंसान को छुटकारा दिलाया और प्रायश्चित का मार्ग दिखाया, उसने परमेश्वर का प्रेमपूर्ण स्वभाव दर्शाया, इंसान पर अपना भरपूर अनुग्रह बरसाया। आखिर में, हमें हमारे पापों से छुटकारा दिलाने के लिए वह सूली पर चढ़ गया। उस समय से हम अपने पापों की माफी और परमेश्वर के असीम अनुग्रह का आनंद लेने के लिए प्रभु यीशु के नाम से प्रार्थना करते रहे हैं। यीशु नाम छुटकारे को दर्शाता है, इसका अर्थ पाप बलि होता है, जो प्रेम और दया के साथ भ्रष्ट इंसान को छुटकारा दिलाता है। प्रत्येक युग में परमेश्वर द्वारा रखे गये नाम का एक अर्थ होता है। प्रत्येक नाम उस युग में उसके स्वभाव और कार्य को दर्शाता है। परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे बढ़ता है, और उसका नाम उसके कार्य के प्रत्येक चरण के साथ बदलता है। अनुग्रह के युग में, अगर परमेश्वर ने यहोवा नाम रखा होता, तो पृथ्वी पर आने पर, उसका कार्य व्यवस्था के युग में ही रहा होता, और इंसान को कभी भी छुटकारा नहीं मिल पाया होता। वह व्यवस्था के उल्लंघन के जुर्म में दंडित हो गया होता। अगर वापस आने के बाद भी प्रभु को यीशु ही कहा जाता, तो इंसान अनुग्रह के युग से आगे नहीं बढ़ पाता। फिर हम कभी भी पाप से मुक्त होकर पूरी तरह बचाये नहीं जाते और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाते।"
फिर, दूसरी बहन ने बात को आगे बढ़ाया: "हालांकि प्रभु यीशु ने अनुग्रह के युग में हमारे पापों को क्षमा कर दिया, हम अभी भी प्रकृति से पापी ही हैं। हम घमंडी, धोखेबाज, और दुष्ट हैं। हमारी भ्रष्टता अभी भी हमारे अंदर गहराई से जड़ें जमाये हुए है, और इसी के कारण हम पाप करते हुए परमेश्वर का विरोध करते हैं। हम पाप करने और फिर स्वीकार करने की ज़िंदगी जीते हैं। हम अभी भी, उसके राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। परमेश्वर की पवित्रता के कारण, हम उसके राज्य में प्रवेश करने योग्य नहीं हैं। परमेश्वर अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम से वापस आ गया है, उसने इंसान को भ्रष्टता से बचाने के लिए राज्य का युग शुरू किया है।" उस बहन ने कहा कि अब प्रभु को सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहा गया है जो इन भविष्यवाणियों को पूरा करता है: "जो जय पाए उसे मैं अपने परमेश्वर के मन्दिर में एक खंभा बनाऊँगा, और वह फिर कभी बाहर न निकलेगा; और मैं अपने परमेश्वर का नाम और अपने परमेश्वर के नगर ... का नाम ... और अपना नया नाम उस पर लिखूँगा" (प्रकाशितवाक्य 3:12)। "प्रभु परमेश्वर, जो है और जो था और जो आनेवाला है, जो सर्वशक्तिमान है, यह कहता है, 'मैं ही अल्फ़ा और ओमेगा हूँ" (प्रकाशित वाक्य 1:8)। प्रकाशित वाक्य 11:17: "हे सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर, जो है और जो था, हम तेरा धन्यवाद करते हैं कि तू ने अपनी बड़ी सामर्थ्य को काम में लाकर राज्य किया है।" "सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय करता है। वह इंसान की भ्रष्टता को उजागर करने के लिए सत्य बोलता है, ताकि हम इन सबकी जड़ की समझ हासिल कर सकें, शैतान द्वारा हमारी भ्रष्टता की वास्तविकता को समझ सकें, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान सकें। ताकि हम अपने अहम का त्याग कर सकें, परमेश्वर के वचनों पर अमल कर सकें, और परमेश्वर का भय मानकर दुष्टता से दूर रहें। धीरे-धीरे हम अपने शैतानी स्वभाव से मुक्त हो जाएंगे, शुद्ध किये जाएंगे और पूरी तरह बचा लिये जाएंगे।" "परमेश्वर अपने न्याय-कार्य से लोगों को उनकी किस्म के अनुसार अलग भी करता है, इस प्रकार वह अपना अपमान बरदाश्त न करने वाला धार्मिक प्रतापी स्वभाव प्रकट करता है। अंत में, वह अपनी 6,000-वर्ष की प्रबंधन योजना का समापन करते हुए इस पुराने संसार को ख़त्म कर देगा। वे सभी जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर का नाम स्वीकार करेंगे, न्याय से गुज़र कर शुद्ध किये जाएंगे, वे परमेश्वर के राज्य में लाये जाएंगे। जो लोग सत्य से घृणा करते हैं, जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर का विरोध और उसकी निंदा करते हैं, उन्हें भयंकर विपत्ति के दौरान बाहर निकाल कर दंडित किया जाएगा। इससे परमेश्वर के प्रबंधन कार्य का समापन हो जाएगा। फिर परमेश्वर अपना कोई विशेष नाम नहीं रखेगा, बल्कि उसकी मौलिक पहचान बहाल हो जाएगी— सृजनकर्ता।" "वैसे ही जैसे परमेश्वर ने कहा है: 'एक दिन आएगा, जब परमेश्वर यहोवा, यीशु या मसीहा नहीं कहलाएगा—वह केवल सृष्टिकर्ता होगा। उस समय वे सभी नाम, जो उसने पृथ्वी पर धारण किए हैं, समाप्त हो जाएँगे, क्योंकि पृथ्वी पर उसका कार्य समाप्त हो गया होगा, जिसके बाद उसका कोई नाम नहीं होगा। जब सभी चीजें सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आती हैं, तो उसे किसी अत्यधिक उपयुक्त फिर भी अपूर्ण नाम की क्या आवश्यकता है? क्या तुम अभी भी परमेश्वर के नाम की तलाश कर रहे हो? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यहोवा ही कहा जा सकता है? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है? क्या तुम परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा का पाप सहन करने में समर्थ हो?'" (वचन देह में प्रकट होता है)। बहनों की संगति ने मुझे प्रेरित किया। मैंने परमेश्वर के नामों के पीछे के अर्थ को समझ लिया। सृजनकर्ता के रूप में, उसे किसी नाम की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन उसने इंसान को बचाने के लिए अलग-अलग नाम रखे। यहोवा, यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सब एक ही हैं। उसने तीन भिन्न युगों में, तीन चरणों में कार्य किया, और उसके प्रत्येक नाम की अपनी ख़ास अहमियत है। ये प्रत्येक युग में, परमेश्वर के स्वभाव और कार्य को दर्शाते हैं। आखिरकार मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया।
पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मुझे इतना बेवकूफ़ और अंधा होने पर खुद से नफ़रत होती है। मैंने बाइबल का शाब्दिक अर्थ लेकर सोचा कि परमेश्वर का नाम कभी नहीं बदलेगा, उसे हमेशा यीशु नाम से ही पुकारा जाएगा। अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अपने कार्य का सत्य व्यक्त नहीं किया होता, तो मैं बाइबल से ही चिपका रहता, और परमेश्वर के नामों के अर्थ को, ख़ास तौर से परमेश्वर के कार्य को, कभी नहीं समझ पाता, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य का विरोध करता रहता, और हटा दिया गया होता। परमेश्वर के मार्गदर्शन का धन्यवाद कि मैं उसकी वाणी सुन सका और उसके सामने आ पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मेरा धन्यवाद!
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