एक चुनाव से हुए मेरे फायदे

19 जुलाई, 2022

मुँह टोंग, जापान

कलीसिया ने हाल में अगुआ का पद भरने के लिए खास चुनाव कराया। जब मुझे पता चला कि ऊपरी अगुआ बहन झाओ को पदोन्नत करने की योजना बना रहे हैं, तो मैं इस निर्णय पर सवाल उठाए बिना नहीं रह सकी : बहन झाओ? एक अगुआ के रूप में उसने ईर्ष्या और कलह बोई और दूसरों को दबाया और दंडित किया, भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया और कलीसिया का कार्य अव्यवस्थित और बाधित किया। बहन-भाइयों ने उसे कई बार उजागर किया, लेकिन उसने कभी इसे नहीं स्वीकारा और बाद में वह बदल दी गई। क्या उसने आत्मचिंतन किया और खुद को जाना? क्या उसने पश्चात्ताप किया और बदलाव हासिल किया? पर फिर मैंने सोचा, "अगर अगुआ उसे पदोन्नत करना चाहते हैं, तो उन्होंने उसके मामले का सिद्धांत के अनुसार मूल्यांकन किया होगा। उसने पश्चात्ताप किया होगा और एक हद तक बदल गई होगी। और आखिरकार, अगुआ का चुनाव ऊपरी अगुआओं का मामला है और मेरे लिए इतना प्रासंगिक नहीं है। मुझे व्यर्थ में इसकी फिक्र नहीं करनी चाहिए।"

कुछ दिनों बाद अगुआओं ने एक सभा की, जिसमें उन्होंने कलीसिया केअगुआ चुनने के सिद्धांतों पर चर्चा की और जानकार स्रोतों से बहन झाओ के मूल्यांकन पढ़े। मूल्यांकनों से मुझे पता चला कि निपटे जाने पर बहन झाओ अक्सर नाराज हो जाती थी और बहस करती थी, और मुश्किल से सत्य स्वीकारती थी। यही नहीं, इन मूल्यांकनों में इसका कोई उल्लेख नहीं था कि उसने अपने पिछले अपराधों को कैसे लिया। मैंने मन में सोचा : "अगर बहन झाओ ने आत्मचिंतन नहीं किया है और खुद को नहीं जाना है, तो वह सत्य का अनुसरण या उसे स्वीकार नहीं करेगी। अगर वह फिर से अगुआ चुनी गई, तो क्या वह ईर्ष्या और कलह बोना और भाई-बहनों का दमन करना जारी नहीं रखेगी?" पर फिर मैंने सोचा, "मैंने उसे इन कुछ सालों में ज्यादा नहीं देखा है और मैं उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में स्पष्ट नहीं हूँ, इसलिए मुझे इस मामले की चिंता नहीं करनी चाहिए। मेरे लिए अपना काम करना सबसे अहम है। जो भी हो, असल में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगुआ कौन बनता है।" उस वक्त मैंने मामले को यूँ ही रहने दिया और जिंदगी चलती रही। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ दिनों बाद अगुआओं ने एक और सभा की। उन्होंने कहा कि कुछ भाई-बहनों ने बहन झाओ की पदोन्नति का विरोध किया है, क्योंकि उसने अपने पिछले अपराधों पर चिंतन कर उनकी समझ हासिल नहीं की और पश्चात्ताप नहीं किया और बदली नहीं, और वह अगुआ के पद पर पदोन्नत होने योग्य नहीं है। अगुआओं ने यह पक्का करने के लिए कि बहन झाओ पर लगाए गए आरोप सही हैं, उसकी स्थिति की गहरी जाँच की, और अंत में सिद्धांत के आधार पर फैसला किया कि बहन झाओ बेशक अगुआ बनने लायक नहीं है। यह सब पता चलने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई : अन्य लोग समस्याएँ देखकर उनकी रिपोर्ट करने और कलीसिया के चुनाव की रक्षा करने में सक्षम क्यों थे, जबकि मैं तमाशा देखती रही, मामले को गंभीरता से नहीं लिया? मैं क्या सोच रही थी?

यह सब जानकर मुझे थोड़ा दुःख हुआ, तो मैं खोज और प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आई : इस स्थिति से मुझे क्या सबक सीखने चाहिए? मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : "वे सभी, जो आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं लेकिन आध्यात्मिक मामले नहीं समझते, नकली होते हैं, और वे पूरे दिन नियमों का सख्ती से पालन करने या सिद्धांतों के शब्द रटने में बिताने के अलावा किसी चीज की परवाह नहीं करते; यह ठीक वैसा ही है जैसा प्राचीन विद्वानों ने किया था, 'खुद को गौरव-ग्रंथों में डुबो देना और अपने आसपास के परिवेश से परे जो चल रहा है, उसे अनदेखा करना।' जो लोग आध्यात्मिक होने का ढोंग करते हैं, वे पाते हैं कि दूसरे लोग जो कुछ भी करते हैं, उसका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और दूसरे क्या सोचते हैं, इसे वे उनका मामला मानते हैं, और वे लोगों के बीच अंतर करना सीखने, चीजों की गहराई में देखने, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार परमेश्वर की इच्छा समझने से इनकार कर देते हैं। ज्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं। उपदेश सुनने या परमेश्वर के वचन पढ़ लेने के बाद, तो वे उसे कागज पर लिख लेते हैं या अपने दिलों में संग्रहीत कर लेते हैं और उसे सिद्धांतों या नियमों की तरह मान लेते हैं, जिनका वे सांकेतिक पालन करते हैं और फिर उनसे कोई सरोकार नहीं रखते। रही बात यह कि उनके आसपास घटित होने वाली चीजों का सत्य से क्या संबंध है, या उनके आसपास के लोगों में दिखने वाले विभिन्न व्यवहारों और अभिव्यक्तियों का सत्य से क्या संबंध है, तो वे कभी इस पर विचार तक नहीं करते या अपने दिलों में इसकी थाह लेने की कोशिश तक नहीं करते, और न ही वे प्रार्थना या खोज करते हैं। ज्यादातर लोगों का आध्यात्मिक जीवन इसी तरह का होता है। इस कारण से, जब सत्य में प्रवेश करने की बात आती है, तो ज्यादातर लोग धीमे और सतही होते हैं; उनका आध्यात्मिक जीवन अत्यंत नीरस होता है, वे केवल नियमों का पालन करते हैं, उनके काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होता। हम कह सकते हैं कि, ज्यादातर लोगों के मामले में, उनका आध्यात्मिक जीवन खोखला होता है और वास्तविक जीवन के साथ नहीं जुड़ा होता। इस कारण से, दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों के खुले आचरण और व्यवहारों की तुलना में, उनके पास बिलकुल कोई अवधारणा नहीं होती, कोई परिभाषा होने की तो बात ही दूर है, न ही उनके पास कोई विचार होते हैं और न ही वे कोई अंतर कर पाते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग पाँच)')। परमेश्वर के वचन पढ़कर लगा, जैसे वे मेरी ही आस्था के अभ्यास का जिक्र कर रहे हों। मैंने ठीक वही किया था, जैसा उन्होंने उजागर किया : "खुद को गौरव-ग्रंथों में डुबो देना और अपने आसपास के परिवेश से परे जो चल रहा है, उसे अनदेखा करना।" मैं मानती थी कि अपने कर्तव्य और कार्य का अपना हिस्सा पूरा करना ही पर्याप्त है। उससे बाहर की किसी भी चीज का मुझसे कोई लेना-देना नहीं। मैंने मन में सोचा, परमेश्वर में आस्था में केवल परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, कर्तव्य पूरे करना और कोई बड़ी गलती न करना शामिल है। ये चीजें करके इंसान परमेश्वर की प्रशंसा पा सकता है। उसके वचन पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि यह धारणा कितनी बेतुकी है। परमेश्वर का कार्य बेहद व्यावहारिक है, जरा भी अस्पष्ट नहीं—उसका कोई पहलू वास्तविकता से परे नहीं। हमें सत्य प्रदान करते वक्त ही वह हमारे दैनिक जीवन में सभी प्रकार की स्थितियाँ भी तैयार करता है, ताकि हम उसके वचनों का अनुभव कर पाएँ और उसके वचनों के चश्मे से देख पाएँ, और धीरे-धीरे सत्य को समझ और प्राप्त कर सकें। अगुआ के पद के उस चुनाव पर विचार करूँ तो, कुछ लोग सत्य की खोज करने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर विवेक से काम लेने में सक्षम थे। यह देखकर कि अगुआ को सिद्धांत के अनुसार पदोन्नत नहीं किया गया, वे समय पर हस्तक्षेप कर पाए और कलीसिया के कार्य की रक्षा में खड़े हो पाए। इस स्थिति के जरिये उन्होंने लोगों और चीजों को समझना सीखा और व्यावहारिक लाभ प्राप्त किए। जहाँ तक मेरी बात है, मैंने उसी स्थिति को बाहरी इंसान की तरह लिया, चुनाव खत्म होते ही उसमें से निकल गई और यह समझने की जरा भी कोशिश नहीं की कि क्या सबक सीखे जा सकते हैं। और नतीजतन, मुझे कुछ नहीं मिला। मेरी आस्था का अभ्यास मेरे असली जीवन से पूरी तरह से अलग था। मैंने परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने को महत्व नहीं दिया, परमेश्वर की बनाई स्थितियों में सत्य की खोज करने पर जोर तो बिलकुल भी नहीं दिया। चाहे कुछ भी चल रहा हो, मैंने हमेशा एक गैर-विश्वासी की तरह खुद को स्थिति से दूर रखा। नतीजतन, मैं कई चीजों से बेखबर रही, और दस वर्षों की आस्था में खाली हाथ रही, कोई भी सत्य नहीं समझा, न लोगों और चीजों की कोई समझ प्राप्त की। कितनी दयनीय और अधम थी!

जब मैंने जाना कि मुझे यह समस्या है, तो मुझे बहुत दुःख हुआ, लेकिन मैं अपनी स्थिति बदलने और उस चुनाव से सबक सीखने के लिए तैयार थी। चिंतन करने पर मैंने जाना कि अगुआ के चुनाव के लिए मैंने चिंता इसलिए नहीं दिखाई थी, क्योंकि मेरा हमेशा यह गलत विचार रहता था कि अगुआ चुना गया इंसान मेरे लिए अप्रासंगिक है। मैं परमेश्वर में आस्था रखते हुए पहले की तरह अपने कर्तव्य निभाती रहूँगी, चाहे कोई भी चुना जाए। केवल बाद में, जब मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, मैं अंततः कलीसिया के अगुआ के चुनावों का अर्थ समझ पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है और उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उनकी आवश्यकता है। ... अगुआ व कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने बाकी लोगों के बीच बस उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों के विशिष्ट गुण का अंतर होता है। यह विशिष्ट गुण खास तौर पर उनकी अगुआई की भूमिका में दिखता है। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में मौजूद सभी चुने हुए लोगों की अगुआई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है, तो कलीसिया में मौजूद परमेश्वर के चुने हुए लोग अगुआ के पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चले जाएंगे, जिसका उन सब पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया, तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ भटक जाते हैं, तो केवल अगुआ ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। अगर अगुआ सही व्‍यक्ति है, ऐसा व्‍यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्‍य का अनुसरण और अभ्‍यास करता है, तो उसकी अगुआई में चल रहे लोग अच्छी तरह परमेश्वर के वचन खाएँगे और पिएँगे और अच्छी तरह सत्य खोजेंगे, और, साथ ही साथ, अगुआ का जीवन अनुभव और प्रगति दूसरों को दिखाई देगी और उन पर असर डालेगी। तो, वह सही मार्ग क्‍या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्‍य की समझ और सत्‍य में प्रवेश की ओर ले जाने, और दूसरों को परमेश्‍वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना। गलत मार्ग क्‍या है? यह है बार-बार प्रतिष्‍ठा, प्रसिद्धि तथा लाभ के पीछे भागना, स्वयं अपने को ऊँचा उठाना और स्वयं अपनी गवाही देना, और कभी भी परमेश्‍वर की गवाही न देना। इसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर क्‍या प्रभाव पड़ता है? वे लोग भटककर परमेश्‍वर से दूर चले जाएँगे और इस अगुआ के नियंत्रण में आ जाएँगे। अगर तुम लोगों को अपने समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करते हो, तो तुम उन्‍हें भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो, और तुम उन्‍हें परमेश्‍वर के समक्ष नहीं, शैतान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो। लोगों को सत्‍य के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना ही उन्‍हें परमेश्‍वर के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे मार्ग सही पर चलें या गलत मार्ग पर, उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सत्य नहीं समझा होता है, तो वे आँखें मूँदे अनुसरण करते हैं। उनका अगुआ भला हुआ तो वे उसका अनुसरण करेंगे; उनका अगुआ बुरा हुआ तो भी वे उसका अनुसरण करेंगे—वे भेद नहीं करते। जैसी अगुआई होती है, वे उसी प्रकार अनुसरण करते हैं, चाहे अगुआ कोई भी हो। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि कलीसियाएँ अच्छे लोगों को अपना अगुआ चुनें। वफादार किस रास्ते पर चलते हैं, इसका सीधा संबंध उस मार्ग से होता है जिस पर अगुआ और कार्यकर्ता चलते हैं, और वे उन अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं द्वारा अलग-अलग मात्राओं में प्रभावित हो सकते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने जाना कि अगुआ कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश और लोगों द्वारा अपनी आस्था में लिए गए मार्ग पर सीधा प्रभाव डालते हैं। अगुआ सही इंसान है या नहीं, सत्य की खोज करता है या नहीं, किस मार्ग का अनुसरण करता है, इसका कलीसियाई जीवन की गुणवत्ता और चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अच्छा अगुआ भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने को अपने असल जीवन-अनुभव का इस्तेमाल करके उन्हें सत्य को समझने और सत्य की वास्तविकता में तेजी से प्रवेश करने में मदद कर सकता है। भाई-बहन अगुआ से कुछ लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अगर अगुआ सत्य की खोज के मार्ग पर नहीं चलता, और सिर्फ अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए काम करता है, बिना परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही दिए, केवल सिद्धांत की बात करता है, व्यावहारिक कार्य कर लोगों के वास्तविक मुद्दे हल नहीं करता, तो धीरे-धीरे वह लोगों को अपने सामने लाएगा और उन्हें परमेश्वर से ज्यादा से ज्यादा दूर कर देगा, आखिर में उन्हें नुकसान पहुँचाकर बरबाद कर देगा। बहन झाओ के बरताव पर विचार करूँ तो, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने पर वह नाराज होकर बहस करती और आत्मचिंतन कर सीखने में विफल रहती। उसने अपने पिछले अपराधों पर चिंतन कर उन्हें पहचाना नहीं था, पश्चात्ताप तो बिलकुल नहीं किया था। इससे देखा जा सकता है कि बहन झाओ ने सत्य की खोज नहीं की थी और उसमें अगुआ के गुण नहीं थे। अगर वह अगुआई की भूमिका में चुन ली जाती, तो वह केवल सिद्धांत की बात करती और लोगों के लिए मददगार न होती। वह सत्य को समझने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में कैसे राह दिखाती? लेकिन मेरा यह बेतुका विश्वास था कि चाहे कोई भी अगुआ चुना जाए, हम फिर भी परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे, अपने कर्तव्य पूरे करेंगे, सामान्य रूप से कलीसियाई जीवन जिएँगे और इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं होगा। क्या मूर्खतापूर्ण धारणा थी!

एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला, जिसमें चर्चा की गई थी कि चुनावों के दौरान लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए और उनके क्या गलत इरादे और धारणाएँ हो सकती हैं। केवल तभी मैं अपने बारे में कुछ समझ पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब भी कलीसिया का कोई चुनाव होता है, चाहे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए हो या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए, तो हर कोई जिम्मेदार होता है और चुनाव-कार्य की रक्षा करना हरेक का दायित्व होता है। ... कुछ लोग यह कहते हुए बस बैठे देखते रहते हैं, 'मैं वैसे भी कलीसिया का अगुआ नहीं बन सकता। कोई भी सेवा करे, एक ही बात है। जिसमें भी क्षमता हो, वह सेवा कर सकता है। अगर कोई मसीह-विरोधी सेवा करना चाहता है, तो इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं, और जब तक वह मुझे नहीं हटाता, तब तक सब ठीक है।' सबसे नकारात्मक लोग यही कहते हैं। वे कल्पना नहीं कर सकते कि अगर कोई मसीह-विरोधी अगुआ के रूप में सेवा करता है तो इसके क्या परिणाम होंगे, और इसका परमेश्वर में उनके विश्वास पर क्या प्रभाव पड़ेगा। सत्य को समझने वाले ही इसकी असलियत देख सकते हैं। वे कहेंगे : 'अगर कोई मसीह-विरोधी कलीसिया का अगुआ बन जाता है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग पीड़ित होंगे, खासकर वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं, न्याय की भावना रखते हैं और तत्परता से अपना कर्तव्य निभाते हैं, उन सभी को दबाया और बाहर किया जाएगा। केवल भ्रमित और हाँ में हाँ मिलाने वाले लोग ही फायदे में रहेंगे, और वे मसीह-विरोधी की मुट्ठी में जकड़ लिए गए होंगे।' लेकिन वे नकारात्मक लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। वे सोचते हैं : 'इंसान बचाए जाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करता है। विश्वास एक व्यक्तिगत मार्ग है। अगर कोई मसीह-विरोधी अगुआ बन भी जाता है, तो इसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अगर मैं बुरे काम नहीं करूँगा, तो मसीह-विरोधी मुझे दबा या निकाल या कलीसिया से बाहर नहीं कर सकता।' क्या यह सही दृष्टिकोण है? अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई भी कलीसिया के चुनावों के बारे में चिंतित नहीं होता, और वे किसी मसीह-विरोधी को सत्ता प्राप्त करने देते हैं, तो परिणाम क्या होंगे? क्या यह वास्तव में उतना ही सरल होगा, जितना लोग कल्पना करते हैं? कलीसियाई जीवन किस प्रकार के परिवर्तनों से गुजरेगा? यह सीधे तौर पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन में प्रवेश करने से संबंधित है। अगर कलीसिया में किसी मसीह-विरोधी की सत्ता रहती है, तो वहाँ सत्य की सत्ता नहीं रहती, और वहाँ परमेश्वर के वचनों की भी सत्ता नहीं रहती। वह ऐसी कलीसिया होती है, जहाँ शैतान और गैर-विश्वासियों की सत्ता होती है। हालाँकि सभाओं में अभी भी परमेश्वर के वचन पढ़े जाते होंगे, लेकिन बोलने के अधिकार पर मसीह-विरोधियों का नियंत्रण रहता है। क्या मसीह-विरोधी सत्य के बारे में स्पष्ट रूप से संगति कर सकता है? क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुओं को सत्य के बारे में स्वतंत्र रूप से और खुले तौर पर संगति करने दे सकता है? यह असंभव है। जब किसी मसीह-विरोधी के पास सत्ता होती है, तो ज्यादा व्यवधान और गड़बड़ियाँ होती हैं, और कलीसियाई जीवन का प्रभाव निश्चित रूप से कम हो जाता है। अगर ऐसा होता है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग इकट्ठा होने पर ज्यादा हासिल नहीं कर पाएँगे, और यह उनकी सभाओं में अशांति भी पैदा कर सकता है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों की समस्याएँ हल नहीं की जा सकतीं, सत्य का अभ्यास भी बाधित हो जाता है, और कलीसियाई जीवन का माहौल पूरी तरह से बदल जाता है। जब काले बादल प्रकट होकर सूर्य को अवरुद्ध कर देते हैं, तो क्या कलीसियाई जीवन में आनंद बना रहता है? वह निश्चित रूप से भारी संकट में पड़ जाएगा" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों ने कलीसिया के चुनावों के समय लोगों के सभी विचार और उदासीन रवैये उजागर कर दिए। ऐसा लगा, जैसे परमेश्वर मेरे सामने खड़ा मेरा न्याय कर रहा हो। मेरा बरताव ठीक वैसा ही था, जैसा उसके वचनों ने उजागर किया था। उस चुनाव के दौरान मैंने जाना कि बहन झाओ सत्य की खोज करती नहीं लगती थी, पर मैंने कलीसिया के अगुआ के चुनावों के सिद्धांतों की खोज नहीं की, और यह गौर करने में विफल रही कि बहन झाओ के चुने जाने के क्या नतीजे होंगे, और मैंने निश्चित ही अगुआओं के सामने चुनाव-परिणामों के बारे में संदेह नहीं उठाए। बल्कि उदासीनता से चुपचाप देखती रही। मैं मानती थी कि अगुआ कौन बनता है, इससे फर्क नहीं पड़ता, वह अपने कर्तव्य निभाएगा और मैं अपने, कोई दूसरे के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। मैंने यह भी सोचा कि अगर चुनाव में कोई समस्या है भी, तो यह ऊपरी अगुआओं का मामला है, मेरी समस्या नहीं है। मैंने मुश्किल से ही ध्यान दिया, और चिंता करने की जहमत नहीं उठाई। तो उस चुनाव के दौरान मेरी अपनी कोई सोच नहीं थी, मैंने बस आँख मूँदकर अनुसरण और समर्पण किया। क्या मैं आस्था का अभ्यास धार्मिक दुनिया के लोगों की तरह ही नहीं कर रही थी, जो सिर्फ अपना पेट भरते और आँख मूँदकर अनुसरण करते हैं? मैं ऐसे शैतानी विषों पर जी रही थी, "अगर चीजें किसी को निजी तौर पर प्रभावित नहीं करतीं, तो उन्हें होने दो," "जो मुझे पैसे देता और खिलाता है, वह मेरा प्रिय है।" अगुआ कोई भी हो, मैंने बस बिना विवेक के उसका आज्ञापालन और अनुसरण किया। मैं कितनी गलत थी! अगर कलीसिया पर मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं का नियंत्रण होगा, तो न केवल कलीसिया का कार्य बाधित होगा, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी नुकसान होगा और उनके उद्धार पाने के अवसर नष्ट हो जाएँगे। लेकिन इसके इतना महत्वपूर्ण मुद्दा होने के बावजूद मैंने इतने स्वार्थी, उदासीन और गैरजिम्मेदार तरीके से काम किया। मेरा विवेक और तर्क-शक्ति कहाँ थी? मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : "यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने काम के प्रति सच्चे मन से समर्पित नहीं होते; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्र के लिए प्रयास करते हो, अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते, किसी तरह हर दिन यूँ ही गुजार देते हो, उन समस्याओं को देखकर उनसे आँखें फेरते हो, कुछ गड़बड़ी हो जाए तो उसकी ओर ध्यान नहीं देते हो, और विवेकशून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। परमेश्वर उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। परमेश्वर के वचनों को देखें तो, मेरा बर्ताव परमेश्वर के घर के इंसान जैसा नहीं था। मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर आजादी से उसके वचन पढ़े, उसके अनुग्रह और आशीष का आनंद लिया, फिर भी मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की। चाहे कलीसिया में कोई भी व्यवधान या गड़बड़ी हुई, या परमेश्वर के घर के कार्य को कितना भी नुकसान पहुँचा, मैंने बस आँखें मूँद लीं, उसके बारे में चिंता करने की जहमत नहीं उठाई। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी—मैं परमेश्वर के घर में अविश्वासी थी और परमेश्वर की नजर में बस गैर-विश्वासी थी। इस मामले में, अगुआ के रूप में पदोन्नत इंसान इस काम के लायक नहीं थी और मैं पहले ही बहुत उदासीन रही थी। अगर कोई मसीह-विरोधी या कुकर्मी कलीसिया को नियंत्रित करता है, चुनाव में हेर-फेर करता और बाधा डालता है, और किसी को उस मसीह-विरोधी या कुकर्मी के खिलाफ लड़ने की जरूरत हुई, तो मैं निश्चित ही पीछे हटकर उदासीनता से चुपचाप देखती। मैं आगे आकर परमेश्वर के घर के काम की रक्षा नहीं करती। जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे लगा कि कैसे परमेश्वर ने अपने घर के कार्य के प्रति मेरे उदासीन रवैये से घृणा की। अगर मैं इसी तरह करती रही, तो मुझे अंततः त्याग दिया जाएगा।

विचार करने पर, मैंने यह भी महसूस किया कि मेरा यह सोचना गलत था कि ऊपरी अगुआ, अगुआओं के काम का निरीक्षण और निगरानी करते हैं, इसलिए उनके लिए गए सभी निर्णय सिद्धांत के अनुसार होंगे और इस पर सवाल उठाने या संदेह करने की कोई बात नहीं। बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही योग्य अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों के बारे में स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता, और वे इन पदोन्नत लोगों की कल्पनाओं पर भरोसा करते हुए उनका सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य की वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को साकार करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या उनमें प्रतिबद्धता है? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करते हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? और उनमें परमेश्वर का आखिर कितना अधिक भय है? क्या काम करते समय उनके द्वारा अपनी इच्छा का पालन करने की संभावना रहती है? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआ का कार्य करने के दौरान क्या वे परमेश्वर की इच्छा की खोज करने के लिए नियमित रूप से और अकसर परमेश्वर के सामने आते हैं? क्या वे लोगों का सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे तुरंत ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास बहुत थोड़ा अनुभव है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से करने में सक्षम है। ... जिन्हें उन्नत और विकसित किया जाता है, लोगों को उनसे उच्च अपेक्षाएँ या अवास्तविक उम्मीदें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उनके कार्य पर नजर रख सकते हो, और अगर उनके काम के दौरान तुम्हें समस्याओं या ऐसी बातों का पता चलता है जो सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, तो तुम इन मामलों को उठाकर, इन्हें सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो। तुम्हें उनकी आलोचना, और निंदा नहीं करनी चाहिए, या उन पर हमला कर उन्हें अलग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, उन्हें पूर्ण या सत्य की वास्तविकता से युक्त व्यक्ति के रूप में तो बिल्कुल भी नहीं देखना चाहिए। वे तुम लोगों जैसे ही हैं : यह वह समय है, जब उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। अंतर केवल इतना है कि वे साधारण लोगों की तुलना में अधिक काम करते और अधिक जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। उनके पास अधिक काम करने की जिम्मेदारी और दायित्व है; वे अधिक कीमत चुकाते हैं, अधिक कठिनाई सहते हैं, अधिक कष्ट झेलते हैं, अधिक समस्याएँ हल करते हैं, अधिक लोगों की निंदा सहन करते हैं, और निस्संदेह, सामान्य लोगों की तुलना में अधिक प्रयास करते हैं, कम सोते हैं, कम अच्छा भोजन करते हैं, और कम गपशप करते हैं। यह है उनके बारे में खास; इसके अतिरिक्त वे किसी भी अन्य व्यक्ति के समान होते हैं। मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताना कि उन्हें परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं की उन्नति और विकास को सही तरह से लेना चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में कठोर नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, लोगों को उनके बारे में अपनी राय में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना या सम्मान करना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी मानवीय या यथार्थवादी नहीं है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना अगुआ भाई-बहनों से अलग नहीं हैं; उन्हें भी विकसित और प्रशिक्षित किया जाता है। बात बस यह है कि कलीसिया के कार्य की जरूरतों के कारण कुछ लोगों को यह विशेष भूमिका निभाने के लिए पदोन्नत करना होता है। पर इसका यह मतलब नहीं कि वे कोई योग्य अगुआ या कार्यकर्ता हैं, या उनमें सत्य की वास्तविकता है। मुझे उन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में देखना चाहिए और न्यायपूर्ण और वस्तुनिष्ठ तरीके से लेना चाहिए। मुझे उनसे ज्यादा ऊँची अपेक्षाएँ या माँगें नहीं करनी चाहिए, न ज्यादा आलोचनात्मक होना चाहिए। कलीसिया की एक सदस्या के नाते, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य की निगरानी करना और कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए उनके साथ समन्वय करना मेरी जिम्मेदारी है। जब अगुआ सत्य के अनुसार कार्य करें, तो मुझे समर्पित होकर स्वीकार करना चाहिए, लेकिन अगर मुझे लगे कि अगुआओं के साथ समस्याएँ या भटकाव हैं, तो मुझे उन्हें तुरंत उजागर और दुरुस्त करना चाहिए और बदलने और प्रवेश पाने में उनकी मदद करनी चाहिए, ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए सबसे अच्छा होगा। अगर कलीसिया में नकली अगुआ या मसीह-विरोधी दिखाई दें, तो मुझे उनके वरिष्ठों को उनकी सूचना देनी चाहिए। यह कलीसिया के कार्य के साथ ही अपने प्रति भी जिम्मेदार होना है, और इससे भी बढ़कर, अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना है। जब मुझे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ बरताव के सिद्धांतों का पता चला, तो मैंने बहुत स्पष्ट महसूस कर अभ्यास का मार्ग पा लिया।

कुछ समय बाद, मैंने देखा कि अगुआ बहन लियू यह कहते हुए कि वह बहुत व्यस्त है, सिंचन-कार्य नहीं कर रही थी। कभी-कभी, जब भाई-बहन समस्याएँ लेकर उसके पास आते, तो वह इस बात से नाराज भी हो जाती कि वे उसका काम बढ़ा रहे हैं। मैंने मन में सोचा : अगुआओं के पास बहुत काम होते हैं, पर इंसान प्राथमिकता तय कर सकता है। उन्हें सारे काम खुद करने की जरूरत नहीं है, वे कुछ काम किसी और को सौंप सकते हैं, और काम होने के बाद मूल्यांकन और निरीक्षण कर सकते हैं। अगर अगुआ हमेशा व्यस्त रहने का बहाना बनाता है, और अपनी जिम्मेदारी के कार्य की निगरानी नहीं करता या बेमन से कार्य करता है, तो यह गंभीर लापरवाही है, यह व्यावहारिक कार्य नहीं है और मुझे इसकी सूचना उसके वरिष्ठ को देनी चाहिए। पर फिर मैंने सोचा कि मुझे इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि अगुआ अपना काम कैसे कर रही है, मुझे बस अपने कर्तव्यों की पूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए। तभी मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : "अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करते हैं या नहीं, इस पर नजर रखना सभी की जिम्मेदारी है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। मैं जान गई कि मेरा विचार गलत था। मुझे अगुआ को याद दिलाकर उसकी समस्या जल्दी ठीक करवानी चाहिए। इसलिए मैंने हिम्मत जुटाई और उसके साथ मामला उठाया। अगुआ ने कहा : "हम्म। तुम सही हो, यह वास्तव में समस्या है। मैं निश्चित रूप से इस पर विचार और आत्मचिंतन करूँगी।" उसकी यह बात सुनकर मैं बहुत द्रवित हुई। उसके बाद, मैंने देखा कि अगुआ ने सक्रिय रूप से सिंचन-कार्य करना शुरू कर दिया, और उस कार्य में आने वाले कुछ व्यावहारिक मुद्दे हल कर दिए। इस अनुभव ने मुझे यह जानने में मदद की कि हमारा जो भी कर्तव्य हो, हम सभी को कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। यह सबकी जिम्मेदारी और कर्तव्य है।

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