मैं ईमानदार आचरण क्यों नहीं कर पाई
जब मैंने पहली बार नवागतों के सिंचन-कार्य की निगरानी शुरू की, तो मेरी साथी, बहन झांग, अक्सर सभाओं में सिद्धांत की बात करती और खुद को ऊंचा उठाकर दिखावा करती और काम में बहुत-सी समस्याएँ समय पर हल न हो पातीं। मैंने अगुआओं को बहन झांग के व्यवहार की सूचना दी, स्थिति की जांच-पड़ताल के बाद, अगुआओं ने तय किया कि वह पर्यवेक्षक बनने योग्य नहीं है और उसे बर्खास्त कर दिया गया। उसके बाद, मैंने भी समूह के कुछ अनुपयुक्त लोगों का तबादला कर दिया, और काम में आ रही समस्याओं के हल के लिए भाई-बहनों के साथ संगति की। दो महीने बाद, काम में सुधार हुआ और हर कोई अपने काम में सक्रिय हो गया। एक बार, अगुआओं ने पत्र लिखकर बताया कि हमारे नवागतों के सिंचन-कार्य में सुधार हुआ है। मेरी साथी बहनों ने भी कहा कि मैं काम में अच्छी हूँ और भाई-बहनों की व्यावहारिक समस्याएँ हल कर सकती हूँ। जब उन्हें परेशानी होती, तो वे अक्सर मुझसे पूछने आतीं। अगुआओं से अपने काम की पुष्टि और साथियों से सम्मान और प्रशंसा पाकर मैं फूली न समाई। मैंने सोचा, "शायद मुझमें सत्य की कुछ वास्तविकताएँ हैं और मैं थोड़ा-बहुत व्यावहारिक कार्य कर सकती हूँ।" धीरे-धीरे मैं खुद पर गर्व करने लगी। मैंने सोचा, पर्यवेक्षक और अपने साथियों के बीच समूह-अगुआ होने के नाते मुझे समस्याएँ सुलझाने में औरों से बेहतर होना चाहिए।
उस समय, मैं मुख्य रूप से एक समूह के काम के लिए जिम्मेदार थी। मैं काम संबंधी समस्याएँ और विचलन दूर करने के लिए अक्सर सदस्यों से मिलकर संगति करती, और काम में उल्लेखनीय सुधार होने में देर नहीं लगती। लेकिन मेरे साथियों की निगरानी वाले समूहों में कोई खास सुधार नहीं हुआ, खासकर बहन ली की निगरानी वाले समूह में, जहां सदस्यों में सहयोग की कमी के कारण समस्याएं अनसुलझी रहतीं। परेशान होकर बहन ली ने मुझसे पूछा, "तुम उनके साथ कैसे संगति करती हो? कैसे इतने अच्छे परिणाम हासिल कर लेती हो?" मैंने विस्तार से अपनी कार्यशैली समझाई। मैने बात खत्म की, तो मुझे एक अहंकारी स्वभाव वाला भाई याद आया, जो किसी से सहयोग नहीं करता था। मैं इस मुद्दे को हल नहीं कर पाई, तो मुझे इस बारे में सबसे सलाह और संगति करना जरूरी लगा। लेकिन फिर सोचा, "मैं समूह की अगुआ और सबके लिए एक आदर्श हूँ, अगर मैंने कहा कि मैं कुछ समस्याएं हल नहीं कर पा रही, तो बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी? मैंने अभी-अभी इतनी मिठास से बात की है। भला मैं कौन-सी समस्याएँ नहीं सुलझा सकती? क्या वे मुझे हिकारत से नहीं देखेंगी?" आखिर मेरी इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत नहीं हुई। इसके कुछ समय बाद, हम जब भी काम पर चर्चा करते, तो मैं बताती कि मैंने समस्याएँ कैसे दूर कीं और क्या परिणाम हासिल किए, लेकिन अनसुलझी समस्याओं पर कुछ न कहती। नतीजा यह हुआ कि मेरे दो साथी यह सोचकर मेरा सम्मान करते कि मुझे समस्याएँ दूर करने में महारत हासिल है। वे यह भी कहते, "तुम सत्य समझती हो और तुममें वास्तविकताएँ हैं।" मुझमें उस समय थोड़ी जागरुकता थी, तो मैं बस इतना कहकर बात को गोल कर जाती कि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो नहीं सुलझ पाईं।
फिर एक समूह था जिसका काम प्रभावहीन था, भाई-बहनों को काम में कुछ दिक्कतें आ रही थीं। तो बहन ली ने मुझसे कहा, "मैं कई बार संगति करके भी उनकी समस्याएँ दूर नहीं कर पाई। मुझे बहुत नकारात्मकता महसूस हो रही है।" यह सुनते ही मेरा चेहरा लटक गया और मैं बहुत बेचैन हो गई, क्योंकि मैं भी कई बार जा चुकी थी, लेकिन समस्याएँ दूर नहीं कर पाई थी। मुझे बहुत मायूसी हो रही थी, क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं समझ नहीं पाई कि समस्याएँ दूर क्यों नहीं हुईं। मैं अपनी स्थिति पर खुलकर बोलना चाहती थी, लेकिन बहन ली को नकारात्मक देख मैंने सोचा, अगर मैं भी इस वक्त अपनी मुश्किलों पर खुलकर बोलूँगी, तो शायद नकारात्मकता और फैल जाए। इसके अलावा, मैं समूह-अगुआ थी। समस्याएँ आने पर, बिना नकारात्मक हुए, मुझे हौसला और संयम रखना था। तभी बहन ली ने पूछ लिया, "ऐसी समस्याएँ आने पर, मुझे कैसे अनुभव करना चाहिए?" मुझे समझ नहीं आया क्या जवाब दूँ। मेरे पास न कोई मार्ग था और न यह पता था कि संगति कैसे करूँ। लेकिन अच्छी छवि बनाए रखने के लिए मैंने दिल कड़ा करके कह दिया, "ऐसी मुश्किलों में हमें परमेश्वर पर भरोसा करना पड़ता है। नूह के लिए जहाज बनाना मुश्किल था, पर उसने इस काम को परमेश्वर के भरोसे किया। हमें भी नूह की तरह डटकर परेशानियों का सामना करना चाहिए।" फिर, मैंने उन दिक्कतों की बात की, जिनका सामना मैं पहले कर चुकी थी और कैसे कठिनाइयों पर काबू और अच्छे परिणाम पाने में मैंने सबकी अगुआई की थी। कुछ नासमझ बहनों ने इस अनुभव के लिए मेरी प्रशंसा भी की, लेकिन मैं बिल्कुल खुश नहीं थी। हम अभी भी हाल की कठिनाइयाँ दूर नहीं कर पाए थे, तो क्या मैं अपनी बातों से लोगों को बेवकूफ नहीं बना रही थी? लेकिन मैंने यह सोचकर खुद को दिलासा दी, "समूह-अगुआ के नाते मैं इसके अलावा कर ही क्या सकती थी? मुझे हर हाल में डटे रहना है!" न चाहते हुए भी मैंने कह दिया, "यह समस्या मुझ पर छोड़ दो।" मुझे बिल्कुल पता नहीं था कि इसे कैसे संभालूँ। लगा, जैसे मैं किसी पहाड़ के नीचे दबी हूँ और बचने का कोई रास्ता नहीं, लेकिन मैंने बहनों से खुलकर संगति करने का साहस नहीं दिखाया। तभी बहन ली ने कहा, "हमारी हाल की समस्याएं सुलझ नहीं पाई हैं। क्या हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिए?" बहन शिन ने कहा, "इस पूरे समय, हम तुम पर भरोसा करते रहे हैं। हमें लगता है कि तुम्हें सत्य की समझ है और समस्याएँ दूर कर सकती हो, इसलिए हम तुम पर निर्भर हैं। हमारी यह स्थिति ठीक नहीं है।" तब बहन ली ने कहा, "यह सच है। हमने तुम्हारे साथ जितने भी समय काम किया है, तुम कभी अपनी भ्रष्टता की बात नहीं करती। केवल अपने सकारात्मक प्रवेश की बात करती हो। अब जब हमारे काम में इतनी सारी समस्याएँ और कठिनाइयाँ आ रही हैं, तो हम दोनों नकारात्मक स्थिति में हैं, लेकिन तुमने कमजोरी नहीं दिखाई है। क्या तुम खुद को छिपा रही हो?" उसकी यह बात सुनकर मेरा दिल बैठ गया। क्या यह सब मेरा खुद को छिपाने का नतीजा है? लेकिन मैं अभी भी बहुत भ्रमित थी और सोच रही थी, "मैं समूह-अगुआ हूँ। अगर खुलकर कहूँगी कि मैं कमजोर महसूस कर रही हूँ, तो क्या इससे नकारात्मकता नहीं फैलेगी? जैसे युद्ध में होता है, सेनापति के पतन के बाद सैनिक भी हथियार डाल देते हैं।" लेकिन फिर मैंने सोचा, चूँकि मेरे साथी मेरा आदर करते हैं, और मैं ही उन्हें अपने सामने लाई थी, तो मेरे मार्ग में अवश्य कोई समस्या होगी। मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। उस समय, मुझे यह भी पता चला कि और भी कई लोग नकारात्मक स्थिति में हैं और हार मान लेना चाहते हैं, जिससे काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इन समस्याओं के चलते, मुझे बहुत नकारात्मकता महसूस हुई। उस समय मैं किसी भी व्यावहारिक समस्या का समाधान नहीं कर सकी। मैं इतना महत्वपूर्ण काम संभाल नहीं पाई। इस तरह तो मैं परमेश्वर के घर के काम में बाधा ही बनूँगी। अंत में, मैं संभाल नहीं पाई और अगुआओं को अपना इस्तीफा सौंप दिया।
इस्तीफा देकर, मैंने आत्मचिंतन करना शुरू किया, "मैं अपनी समस्याओं और परेशानियों पर खुलकर संगति क्यों नहीं कर पाती? हमेशा खुद को छिपाती क्यों हूँ? ईमानदार क्यों नहीं हो पाती?" फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपने बारे में कुछ समझ हासिल की। परमेश्वर कहते हैं, "क्या तुम लोग जानते हो कि फरीसी वास्तव में कौन हैं? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को 'फरीसी' क्यों कहा जाता है? फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिलकुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य की वास्तविकता नहीं होते, बल्कि सिद्धांत के शब्द होते हैं। कुछ लोग केवल सिद्धांत के शब्द रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका सिद्धांत का पाठ निरंतर उच्च होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छ्द्मावरण द्वारा छिपाने के लिए करते है। वे जहाँ भी जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें, जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल होती हैं, लेकिन जिनमें सत्य की कोई वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को धोखा देते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है, वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं है, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से, वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे ज़रा से भी वफ़ादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतही तौर पर, वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया से मुनाफा कमाते हुए और गुप्त रूप से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम संचालित कर रहे हैं और अपना कारोबार चला रहे हैं। ... ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जीवन संवृद्धि के छह संकेतक')। परमेश्वर के वचन फरीसियों का सार बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं। फरीसियों ने अपनी असलियत छिपाकर हर काम में लोगों को धोखा दिया। उन्होंने लोगों को गुमराह करने और सम्मान पाने के लिए अच्छे लगने वाले काम किए। मैंने सोचा, मैं भी तो फरीसियों जैसा ही व्यवहार कर रही थी। सिंचन-कार्य की निगरानी की शुरुआत से ही, जब मैंने देखा कि समूह का काम ठीक से चल रहा है और काफी प्रभावी है, अगुआ और साथी मेरी प्रशंसा करते हैं, तो मुझे लगा, मैं सत्य की वास्तविकताएँ दूसरों से बेहतर समझती हूँ, और अनजाने ही अपने बारे में ऊँची राय रखने लगी। मैं सोचती, निरीक्षक होने के नाते मुझे नकारात्मक न होकर औरों से ज्यादा मजबूत होना चाहिए, भाई-बहनों के लिए एक मिसाल बनना चाहिए, तो मैं हर काम में अपने आपको छिपाकर रखने लगी। जब बहन ली को दिक्कतें आईं और उसने मुझसे समाधान चाहा, तो मैंने समझने का नाटक करते हुए जबरन सिद्धांत के शब्दों में उत्तर देने की कोशिश की, ताकि बहनें भ्रमित होकर सोचें कि मुझमें सत्य की समझ और उसकी वास्तविकताएँ हैं। जब मैं कठिनाइयाँ दूर नहीं कर पाई, तो एकदम निराश हो गई, पर इस डर से कि भाई-बहन मेरी कमजोरी न देख लें, मैंने मजबूत होने का नाटक किया, जिससे मेरे साथी मेरा सम्मान करने लगे, उन्हें लगा कि मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा है और मैं कोई भी समस्या दूर कर सकती हूँ। भाई-बहनों के सामने एक अच्छी छवि और ऊँचा रुतबा बनाए रखने के लिए, मैंने कभी अपनी भ्रष्टता का जिक्र नहीं किया और हर चीज सही, चाहे कितनी भी मुश्किल क्यों न हो। मैंने खुद को छिपाने और अच्छा दिखाने की कोशिश की, दूसरों को धोखा देने के लिए सही लगने वाले सिद्धांत इस्तेमाल किए। इससे, मैं न केवल अपनी समस्याएँ और कठिनाइयाँ दूर नहीं कर पाई, बल्कि मैंने परमेश्वर के घर के काम में बाधा भी डाली। मैं अपना भी नुकसान कर रही थी और दूसरों का भी! मैं पाखंडी फरीसियों के मार्ग पर चल रही थी। तब मुझे समझ आया कि परमेश्वर ने क्या कहा है, "आम आदमी होने का अर्थ है; तुम चिंता से मुक्त रह सकते हो, और आनंद और मन की शांति पा सकते हो। यही जीवन का सही मार्ग है। अगर तुम हमेशा उत्कृष्ट बनना चाहते हो, बाकी सबसे बेहतर, तो तुम खुद को भेड़ियों के हवाले कर रहे हो, खुद को कीमा बनाने की मशीन में डाल रहे हो, और अपना जीवन कठिन बना रहे हो" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचन कितने वास्तविक हैं। लोगों और वरिष्ठों से हमेशा सम्मान पाने की इच्छा रखना शैतान के हाथों में खेलना और पीड़ा में जीना है। प्रसिद्धि और पद त्यागकर, ईमानदार, साधारण और विनम्र बनने का लक्ष्य रखकर ही हम आजादी और उन्मुक्तता से आचरण कर सकते हैं, शांति और सुरक्षा महसूस कर सकते हैं।
आत्म-चिंतन से, मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण गलत था। मुझे लगा, अपनी कमजोरियों और मुश्किलों पर खुलकर बोलना नकारात्मकता फैलाना है, इसलिए मैं खुल नहीं पाई। दरअसल, मुझे पता ही नहीं था कि खुलने और नकारात्मकता फैलाने में क्या अंतर है। मेरी अवधारणाएं गड्डमड्ड थीं। फिर मैंने खाने-पीने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक भाग खोजे। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "सबसे पहले हम यह देखें कि नकारात्मकता का भाव दिखाने को कैसे समझा और पहचाना जाए, लोगों की नकारात्मकता को कैसे भाँपें, उनकी कौन-सी टिप्पणियों और अभिव्यक्तियों से नकारात्मकता का भाव दिखता है। सबसे पहले तो, लोगों में जो नकारात्मकता का भाव दिखता है वह सकारात्मक नहीं होता, यह एक विपरीत चीज होती है जो सत्य को खंडित करती है, एक ऐसी चीज जो उनके भ्रष्ट स्वभाव से पनपती है। भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास और परमेश्वर का आज्ञापालन कठिन हो जाता है—और इन कठिनाइयों के कारण लोगों में नकारात्मक विचार और दूसरी नकारात्मक चीजें उजागर होने लगती हैं। ये चीजें सत्य के अभ्यास की उनकी कोशिश के संदर्भ में पनपती हैं; ये वे विचार और नजरिए होते हैं जो सत्य के अभ्यास के दौरान लोगों को प्रभावित और बाधित करते हैं, और ये पूरी तरह नकारात्मक होते हैं। चाहे ये नकारात्मक विचार मनुष्य की धारणाओं के कितने ही अनुरूप क्यों न हों और ये कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न प्रतीत हों, ये परमेश्वर के वचनों की समझ से नहीं आते, परमेश्वर के वचनों के अनुभव और ज्ञान से तो बिलकुल भी नहीं। इसके बजाय, ये मनुष्य के दिमाग की देन होते हैं, और ये सत्य से बिलकुल भी मेल नहीं खाते—इसलिए ये नकारात्मक, विपरीत चीजें होती हैं। नकारात्मकता का भाव दिखाने वाले लोगों की मंशा सत्य का अभ्यास करने में अपनी विफलता के बहुत-से निष्पक्ष कारण ढूँढने की होती है, ताकि वे दूसरे लोगों की हमदर्दी और सहमति पा सकें। यह व्यवहार, अलग-अलग पैमाने पर, सत्य का अभ्यास करने की लोगों की पहल को प्रभावित कर सकता है, उस पर प्रहार कर सकता है, और बहुत-से लोगों को सत्य का अभ्यास करने से रोक भी सकता है। ऐसे परिणाम और प्रतिकूल प्रभाव इन नकारात्मक चीजों को विपरीत, परमेश्वर के प्रतिरोधी और सत्य के पूरी तरह विरुद्ध परिभाषित किए जाने के और भी योग्य बना देते हैं। कुछ लोग नकारात्मकता के सार को लेकर आँखें मूँदे रहते हैं, और सोचते हैं कि कभी-कभार की नकारात्मकता सामान्य बात है, और इसका सत्य की खोज पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। यह गलत है; सच्चाई यह है कि इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, और अगर नकारात्मकता असहनीय हो जाए तो यह आसानी से विश्वासघात में बदल सकती है। यह भयानक परिणाम सिर्फ नकारात्मकता की देन होता है। तो नकारात्मकता के प्रदर्शन को कैसे पहचानें और समझें? सीधे शब्दों में कहें तो नकारात्मकता का भाव दिखाने का अर्थ है लोगों को छलना और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकना; यह लोगों को झांसा देने और गुमराह करने के लिए नरम हथकंडों और सामान्य प्रतीत होने वाले तरीकों का प्रयोग है। क्या इससे उन्हें नुकसान होता है? दरअसल इससे उन्हें बहुत गहरी क्षति पहुँचती है। और इसलिए, नकारात्मकता का भाव दिखाना एक विपरीत चीज है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है; यह नकारात्मकता का भाव दिखाने की सबसे सरल व्याख्या है। ... क्या नकारात्मकता में लोगों की अवज्ञा, असंतोष, शिकायतें और नाराजगी शामिल नहीं हैं? उसमें बहुत गंभीर चीजें भी शामिल हैं, जैसे विरोध, प्रतिरोध, यहाँ तक कि पलटकर बहस करना। जिन टिप्पणियों में ये तत्त्व शामिल होते हैं, उन्हें नकारात्मकता रिसने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। "'अनुभव साझा करने और उनके बारे में संवाद करने' का अर्थ है अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के अपने ज्ञान के बारे में संगति करना, अपने हृदय के हर विचार, अपनी शारीरिक स्थिति, अपने में प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बोलना और दूसरों को उन्हें समझने देना, और फिर सत्य पर संगति के जरिये समस्या हल करना। जब अनुभवों के बारे में इस तरह संगति की जाती है, तभी सबको लाभ और बहुत-कुछ प्राप्त होता है; केवल यही असली कलीसियाई जीवन है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई। नकारात्मकता फैलाने का अर्थ है अपने मंसूबों और भ्रष्ट स्वभाव से परमेश्वर के घर के काम से असंतोष, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें व्यक्त करना, ताकि लोग परमेश्वर के बारे में धारणा बना लें, उसका अनुसरण न करें और अपना कर्तव्य न निभाएँ। जैसे, अगर किसी की काट-छाँट कर उससे निपटा जाए, तो हो सकता है वो बहस और शिकायत करे, ताकि लोगों में परमेश्वर के बारे में धारणाएं और गलतफहमियां पैदा हों। यह नकारात्मकता फैलाना है। लेकिन खुलकर बोलना ईमानदार होना है। यह केवल सत्य का अभ्यास करने के अपने अनुभव पर संगति करना नहीं है। तुम्हें अपनी भ्रष्टता, कठिनाइयों, कमियों, मिलावट और अपने काम में गलत इरादों के बारे में भी खुलकर बोलना चाहिए, ताकि हर कोई उन्हें समझकर उनका विश्लेषण कर सके। खुलकर बोलने का मकसद अपनी समस्याएँ, कठिनाइयाँ और अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजना है। यह एक सकारात्मक अभ्यास है। जब मैंने सत्य के इस पहलू को समझ लिया, तो मैंने सजगतापूर्वक अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में खुलकर बात की, और उन्हें दूर करने के लिए भाई-बहनों के साथ सत्य की खोज की। धीरे-धीरे, मेरी स्थिति सुधरने लगी और मेरा काम भी अधिक प्रभावी हो गया। फिर मेरे अगुआओं ने देखा कि मैंने थोड़ा आत्मज्ञान पाकर पश्चात्ताप किया है, तो उन्होंने पूछा कि क्या मैं नवागतों के लिए सिंचन-निरीक्षक का काम जारी रख सकती हूँ। मैं भावुक हो गई। मैंने सोचा भी नहीं था कि मुझे यह कार्य फिर से करने का मौका मिलेगा। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह को सराहा और जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए तैयार हो गई। उसके बाद, मैं ईमानदार होने के बारे में और अधिक आश्वस्त हो गई और खुलकर बोलना उतना मुश्किल नहीं लगा। कुछ समय बाद, बहन शिन ने मुझसे कहा, "मुझे लगता है कि अब तुम थोड़ी बदल गई हो। यह अच्छा है कि इस तरह खुलकर सत्य का अभ्यास कर रही हो।" उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई, और लगा कि आखिरकार मुझमें बदलाव आ रहा है। लेकिन अच्छा समय हमेशा नहीं रहता। जल्दी ही, मेरी समस्या ने फिर सिर उठा लिया।
एक सभा के अंत में, मैंने लोगों से पूछा कि क्या उनके कोई प्रश्न हैं। एक बहन ने कहा कि उसे हाल ही में अपने काम में परेशानी हुई और समझ नहीं आया कि क्या करे, इसलिए वह मेरी मदद चाहती है। मुझे तुरंत कोई अच्छा उपाय नहीं सूझा, तो मैंने सभी से पूछा कि उनका क्या विचार है। एक भाई ने एक उपाय सुझाया, जिससे सभी सहमत हो गए और मैं भी समझ गई। बहन ने खुश होकर कहा, "आपका समाधान अच्छा है। यह मुझे क्यों नहीं सूझा?" मैं कहना चाहती थी, "मुझे भी यह समाधान नहीं सूझा।" लेकिन फिर मैंने सोचा, "मैं निरीक्षक हूँ। अगर मैं ऐसा कहूँगी तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं वो यह तो नहीं कहेंगे कि मैं समस्याएँ सुलझाने में भाई-बहनों जितनी अच्छी नहीं हूँ?" तो भाई द्वारा सुझाए गए समाधान का श्रेय लेते हुए मैंने उसमें कुछ और ब्योरा जोड़ दिया। मेरी संगति के बाद बहन ने कहा, "अब मेरे पास एक मार्ग है।" यह सुनकर मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, मैंने सोचा, "क्या मैं लोगों को धोखा नहीं दे रही? मैं फिर से खुद को क्यों छिपा रही हूँ?" मैंने आत्मचिंतन शुरू किया और अपनी स्थिति से संबंधित परमेश्वर के कुछ वचन खाए-पिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा ऐसा ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे पर्दे के पीछे कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या करें, किसी को भी इसकी शिकायत करने या इसे उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और सही हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की मुख्य विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। ... शैतान लोगों को एक झूठी छवि देकर उन्हें धोखा देने, ठगने और मूर्ख बनाने के लिए हर तरह के तरीके इस्तेमाल करता है। यहाँ तक कि वह लोगों को श्रद्धा और भय का अनुभव कराने के लिए डराने-धमकाने का भी उपयोग करता है, जिसका अंतिम लक्ष्य उनसे शैतान के आगे समर्पण करवाकर उसकी आराधना करवाना है। यही चीज है, जो शैतान को प्रसन्न करती है; यह लोगों को जीतने के लिए परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा करने में उसका लक्ष्य भी है। तो, जब तुम लोग अन्य लोगों के बीच हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए लड़ते हो, तो तुम किसके लिए लड़ते हो? क्या यह वाकई प्रसिद्धि के लिए होता है? नहीं, तुम वास्तव में उन लाभों के लिए लड़ते हो, जो तुम्हें प्रसिद्धि से मिलते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। "जो लोग कभी खुलकर नहीं बोलते, जो हमेशा चीजों को छिपाते हैं, जो हमेशा ईमानदार होने का दिखावा करते हैं, जो हमेशा कोशिश करते हैं कि दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, जो दूसरों को खुद को पूरी तरह से नहीं समझने देते, और उनसे अपनी प्रशंसा करवाना चाहते हैं—क्या वे लोग मूर्ख नहीं हैं? ऐसे लोग बड़े मूर्ख होते हैं! कारण, इंसान की सच्चाई देर-सबेर सामने आ ही जाती है। अपने आचरण में वे किस रास्ते पर चलते हैं? फरीसियों के रास्ते पर। ये पाखंडी खतरे में हैं या नहीं? ये वे लोग हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि वे खतरे में नहीं हैं? वे सब जो फरीसी हैं, विनाश के मार्ग पर चलते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर, मैं समझ गई कि खुद को छिपाने की असली वजह अपना सिक्का जमाना, लोगों का सम्मान पाना, लोगों पर रोब जमाना, उन्हें नियंत्रित करना और अपनी स्थिति मजबूत करना है। यह अहंकार और दुष्ट स्वभाव होने के साथ-साथ परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चलना है। जहाँ तक बहन की समस्या का सवाल है, मुझे उसका समाधान नहीं पता था, लेकिन मुझे डर था कि अगर यह बात भाई-बहनों को पता चली, तो वो मेरा सम्मान नहीं करेंगे, इसलिए मैंने खुद को छिपाकर, अपने विचार दूसरे के ज्ञान में जोड़कर, उसे अपना कह दिया और यह दिखाने की कोशिश की कि मुझमें बोध, सत्य की समझ और उसकी वास्तविकताएँ हैं। मैंने छल से सबका सम्मान पाना चाहा और इस भ्रम में रही कि वे मेरी प्रशंसा करेंगे और मुझ पर निर्भर रहेंगे। मैं फरीसियों के मार्ग पर चल रही थी। फरीसी पाखंडी धोखेबाज थे, परमेश्वर ने उनकी निंदा कर उन्हें धिक्कारा था। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता, इसलिए अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझे धिक्कारेगा और दंड देगा। जब मैंने समस्या की गंभीरता देखी, तो थोड़ी डर गई, मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे पता चला कि अगुआ या कार्यकर्ता बनने पर कैसे बर्ताव करना चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और उनका विकास किया जाता है, और यह एक अच्छी चीज है, यह प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? पहला सिद्धांत है सत्य को समझना, जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। अगर उन्हें सत्य की समझ न हो, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर वे खोजने के बाद भी नहीं समझते, तो वे संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, 'दूर रखा पानी तत्काल प्यास नहीं बुझाएगा।' अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ समय पर, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य की वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य की वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और पोषण के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह भावना होनी चाहिए। अगर पदोन्नत और उपयोग किए जाने के बाद तुम अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर बैठ जाते हो और मानते हो कि तुममें सत्य की वास्तविकता है और तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या उच्च से उत्तर माँग सकते हो और उसके साथ संगति कर सकते हो—इसमें से कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी उच्च को तुम्हारे वास्तविक कद का पता चल ही जाएगा, और और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य की वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह भाव है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है। अगर तुम्हें यह लगता है कि जब तुम अगुआ बन जाते हो, तो हमेशा दूसरों से या ऊपर वाले से सवाल पूछते रहना या सिद्धांत न समझना शर्मनाक है, और नतीजतन, अगर तुम यह दिखावा करते हुए ढोंग करते हो कि तुम समझते हो, जानते हो, काम करने में सक्षम हो, तुम कलीसिया का कोई भी काम कर सकते हो, और किसी को तुम्हें याद दिलाने या तुम्हारे साथ सहभागिता करने, या किसी को तुम्हें पोषण प्रदान करने या तुम्हारी सहायता करने की आवश्यकता नहीं है, तो यह खतरनाक है, और यह बहुत अहंकार और आत्मतुष्टि है, समझ की बहुत कमी है। तुम अपना माप तक नहीं जानते—और क्या यह तुम्हें मूर्ख नहीं बनाता? ऐसे लोग वास्तव में परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और पोषित किए जाने के मानदंड पूरे नहीं करते, और देर-सबेर उन्हें बदल दिया जाएगा या त्याग दिया जाएगा" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि मैं माहिर या सर्वज्ञ बनूँ। परमेश्वर चाहता है कि मैं अपने कर्तव्य में इरादे सही रखूँ, अपना काम पूरी तन्मयता से करूँ, और चाहे मुझमें कितनी भी कमियाँ हों, भाई-बहनों के साथ मिलकर खोजूँ, संगति करूँ और सौहार्दपूर्वक सहयोग करूँ। इसे ही विवेकपूर्ण ढंग से बर्ताव करना कहते हैं। लेकिन मैं अभिमानी और अज्ञानी थी, और सोचती थी कि निरीक्षक के रूप में मुझे भाई-बहनों से ऊपर होना चाहिए और हर समस्या का समाधान पता होना चाहिए। नतीजतन, मैंने हर जगह खुद को छिपाने, अच्छी छवि पेश करने और चीजों को समझने का नाटक किया। व्यर्थ की भाग-दौड़ कर परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डाली। मैं बेहद बेशर्म थी, मेरे विचार हास्यास्पद और बेतुके थे! निरीक्षक के रूप में पदोन्नत कर परमेश्वर ने मुझे अभ्यास करने और विकसित होने का अवसर दिया था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि सत्य की मेरी समझ औरों से ज्यादा होना यह सिद्ध करने का साधन नहीं था कि मेरी पहचान और हैसियत औरों से ऊँची है। मैं भी भाई-बहनों जैसी ही थी, ऐसा बहुत-सा सत्य था, जिसकी मुझे समझ नहीं थी, बहुत-सी समस्याएँ न तो मैं देख पाती थी और न ही उन्हें दूर कर पाती थी। मुझे कुछ ही मामलों की समझ थी, और वह भी परमेश्वर का प्रबोधन था; इसका मतलब यह नहीं कि मुझमें कोई वास्तविकता थी। पर मुझे अपनी औकात पता नहीं थी। अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बनाए रखने के लिए, मैंने खुद को छिपाने और अच्छी छवि बनाने के अलावा कुछ नहीं किया। सत्य समझने और उसकी वास्तविकताओं में प्रवेश करने के बजाय मैं और भी दुष्ट, चालाक और अभिमानी होती चली गई। मैं कितनी मूर्ख थी! यह एहसास होने पर मैंने कसम खाई कि अपनी असलियत छिपाकर अब मैं और मूर्ख नहीं बनूँगी। मुझे ईमानदार बनकर अच्छे से अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाने हैं।
कुछ दिनों बाद, जब हम काम की चर्चा कर रहे थे, तो बहन शिन ने कहा कि उसने एक नवागत को देखा, जो बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है। मैंने जल्दी से कहा, "उसका सिंचन मैं ही कर रही हूँ।" यह कहते ही मुझे लगा, "क्या मैं दिखावा नहीं कर रही? मुझे खुलकर खुद को उजागर करना चाहिए।" लेकिन फिर सोचा, "यह लज्जाजनक हो जाएगा। बहन शिन कहीं मुझे विवेकशून्य न समझ ले, यह न सोच ले कि कुछ अच्छा करते ही मैं दिखावा करती हूँ ताकि सब जान लें।" मुझे लगा, मैं फिर से अपनी असलियत छिपा रही हूँ, मैंने तुरंत परमेश्वर से मार्गदर्शन की प्रार्थना की, ताकि अपना अहम त्याग सकूं। मैंने खुलकर बोलने का साहस जुटाया और कहा कि मैंने खुद को ऊँचा उठाने और प्रकट करने के लिए यह बात कही है। बहन शिन ने कहा, "तुम्हारे बोलते ही हम समझ गए थे। तुम्हारा खुलकर बोलना बताता है कि तुम सजग रहकर ईमानदार बनने का अभ्यास कर रही हो।" उसकी बात सुनकर मैं लज्जित हो गई, लेकिन मुझे यह भी लगा कि अगर मैं अपनी असलियत छिपाकर धोखा न दूँ और हमेशा ऐसे ही स्पष्ट बोलूँ, तो मुझमें सुरक्षा और मुक्ति की भावना आएगी।
यह सब अनुभव करने के बाद मैंने एक तथ्य स्पष्ट देखा। पहले मैं अपनी भ्रष्टता उजागर करने के बजाय हमेशा खुद को छिपाकर रखना चाहती थी, सोचती थी कि अगर लोग न देख पाएँ, तो मेरी छवि बनी रहेगी। लेकिन यह खुद को धोखा देना और मूर्ख बनाना था। परमेश्वर सब-कुछ देखता है। मैं कितना भी दिखावा करूँ, परमेश्वर चीजों को साफ देख लेता है, देर-सवेर मैं उजागर हो ही जाऊँगी। फिर भाई-बहन भी परमेश्वर के वचन सुनकर धीरे-धीरे सत्य समझ रहे हैं। वे अलग-अलग तरह के लोगों को पहचानने में सक्षम हो रहे हैं और अलग-अलग तरह के शैतानी स्वभावों की अभिव्यक्तियाँ भी देख सकते हैं, तो मैं अपनी असलियत कितनी भी छिपाऊँ, सत्य समझने वाले तुरंत उसे पहचान लेंगे। मैं अब और भी आश्वस्त हो गई कि जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, शुद्ध और ईमानदार होते हैं, सीधे-सादे और विनम्र होते हैं, वे दरअसल बुद्धिमान होते हैं, जिन्हें परमेश्वर और लोग पसंद करते हैं, और यही प्रकाश-पथ है, जिसकी ओर परमेश्वर ने इशारा किया है।
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