एक ईमानदार इंसान बनने का संघर्ष

29 अगस्त, 2020

वेई झोंग, चीन

कुछ साल पहले, मैंने घरेलू उपकरणों की मरम्मत की दुकान खोली। मैं एक ईमानदार व्यापारी बनकर बस थोड़ा-बहुत कमाना चाहता था ताकि मेरे परिवार के लिए काफ़ी हो। लेकिन थोड़े वक्त के बाद, लगातार व्यस्त रहकर भी, मैं बस परिवार के गुज़ारे जितना ही कमा पा रहा था और बचत करने का कोई तरीका नहीं था। कभी-कभी तो मेरी महीने भर की आमदनी बिल्कुल नये कामगार से भी कम होती थी। मेरी पत्नी इस बारे में हमेशा मुझसे शिकायत करती रहती, कहती कि मैं कुछ ज़्यादा ही ईमानदार हूँ और मुझे व्यापार करना नहीं आता। मेरे बहनोई को भी यही लगता था। वो कहता, "हम पैसों के ज़माने में जी रहे हैं, आप चाहे जो करें, क़ाबिल दिखने के लिए आपको लोगों से पैसे वसूलने ही होंगे।" उसने मुझे जगाने और रुझान का अनुसरण करने तथा ज़िद्दी न बनकर दूसरों की तरह कारोबार करने के लिए ऐसी बातें भी कहीं, "धूर्तता के बिना धन नहीं आता" और "दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है।" मुझे लगा उन दोनों की बात कुछ हद तक सही है, लेकिन मैं अपने खरीदारों को ठग नहीं सकता था। मुझे लगा मेरी अंतरात्मा कभी नहीं मानेगी।

फिर मैंने देखा कि मेरी दुकान के पास वाली घरेलू उपकरणों की मरम्मत की एक दुकान के मालिक कियान के पास कोई तकनीकी हुनर नहीं है। वो बस छोटी-मोटी ख़राबियां दुरुस्त कर सकता था, लेकिन उसकी दुकान के बाहर एक बड़ा-सा बोर्ड टंगा हुआ था, जिस पर लिखा था "तमाम उपकरणों की बढ़िया मरम्मत।" इस तरीके से उसके पास बहुत काम आने लगा। ख़राबी मामूली होती तो काम हाथ में लेकर खुद ही ठीक कर देता। वरना, वह उस उपकरण को किसी दूसरी मरम्मत की दुकान में भेज कर उससे अपना फ़ायदा वसूल लेता। इस तरह से उसने बहुत पैसा कमाया। एक बार हमारी गपशप के दौरान उसने मुझे बताया कि वह पैसे कैसे कमाता है। उसने कहा कि जब किसी उपकरण का एक छोटा-सा हिस्सा टूट जाता है, तो तुम उसके सारे पुर्ज़े बदल सकते हो ताकि ज़्यादा पैसा वसूल कर सको। ग्राहकों को ज़्यादा कुछ पता नहीं होता। उसने कहा कि हम जिस समाज में जी रहे हैं वहां पैसा ही सब-कुछ है, और "बिल्ली काली हो या सफ़ेद, अगर वो चूहे पकड़ सकती है, तो क्या फर्क पड़ता है।" उसने यह भी कहा कि अगर तुम पैसा कमा सकते हो तो तुम क़ाबिल हो, वरना, तुम चाहे जितने भी अच्छे इंसान क्यों न हो, लोग तुम्हें नीची नज़र से ही देखेंगे। इस आदमी की "मेधावी समझ" को देख कर मैंने सोचा, "हम ऐसे ज़माने में जी रहे हैं। लोग पैसे के लिए कुछ भी करेंगे, शराफ़त जैसी कोई चीज़ है ही नहीं, तो मेरे अकेले के ईमानदार रहने का क्या फ़ायदा? इसके अलावा, ईमानदारी से व्यापार करने से मुझे कुछ भी नहीं मिला। यह आदमी मेरी ही तरह चीज़ें ठीक करता है और बढ़िया ज़िंदगी बसर करता है। उसका पूरा परिवार खुशहाल है, लेकिन मेरी कमाई सिर्फ गुज़ारे के लिए काफ़ी है। लगता है मैं बहुत अड़ियल हूँ। मुझे ज़्यादा पैसा कमाने के तरीके ढूँढ़ने होंगे, ताकि मेरा परिवार बेहतर ज़िंदगी जी सके।" उसके बाद, मैं अपने साथियों की "कामयाबियों" से सीखकर छलपूर्ण तरीके इस्तेमाल करके अपने ग्राहकों को ठगने लगा। मुझे बेचैनी होने लगी, लेकिन मैंने उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया ताकि मैं ज़्यादा पैसे कमा सकूं।

एक दिन एक ग्राहक मरम्मत के लिए आयी। उस समय खराब पुर्ज़े को निकालते वक्त मैंने कुछ अच्छे पुर्ज़ों को भी बाहर निकाल दिया ताकि वह समझे कि ज़्यादा पुर्ज़े टूट गये हैं, और ज़्यादा पैसे वसूल करने पर भी वह न जान न पाये। पुरानी कहावत, "चोर की दाढ़ी में तिनका" बहुत सही है। पहले तो मैं सचमुच घबराया हुआ था, मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था, इस डर से कि वो समझ जाएगी और मुझे रंगे हाथों पकड़ लेगी। यह बड़ा अपमानजनक होगा। लेकिन मैंने शांत होने का दिखावा करके उन सभी पुर्ज़ों को बदल दिया। जब पैसे लेने की घड़ी आयी, तो बेफ़िक्र होकर पहले बताये दाम से पचास फीसदी ज़्यादा देने को कहा। उस दौरान मैं सिर झुकाये हुए था, उसकी आँखों में देखने की हिम्मत नहीं थी, लेकिन मुझे यह देख कर हैरत हुई कि उसने एक भी शब्द बोले बिना पैसे चुका दिये। उसके जाने के बाद आखिरकार मैंने राहत की सांस ली। मेरा चेहरा और पीठ पसीने से तर हो गये और मुझे एक अजीब-सी बेचैनी का एहसास हुआ। लेकिन जब मैंने ज़्यादा पैसे देखे, तो बेचैनी झट से हवा हो गयी।

उसके बाद से मैंने ग्राहकों से ज़्यादा पैसे वसूलने की तमाम तिकड़मों के बारे में सोचना शुरू कर दिया। शुरू-शुरू में मुझे दोषी होने का एहसास हुआ, लेकिन मैंने चुपचाप अपना हौसला बढ़ाया ताकि मैं ज़्यादा कमाता रहूँ। "मैं ज़्यादा नरमदिल नहीं हो सकता—'जैसे एक छोटे मन से कोई सज्जन व्यक्ति नहीं बनता है, वैसे ही वास्तविक मनुष्य विष के बिना नहीं होता है।' अगर मुझे पैसा कमाना है तो चतुर बनना होगा। इसके अलावा, अकेला मैं नहीं, सब यही करते हैं।" कुछ वक्त बाद दोषी होने का एहसास धूमिल हो गया और मैं पैसे कमाने के अपने "हुनर" में ज़्यादा माहिर और व्यवहार-कुशल हो गया। मैंने लोगों के चेहरे पढ़ कर अंदाज़ा लगाना सीख लिया, अलग-अलग लोगों से अलग-अलग तरीकों से पेश आने लगा। मैंने और भी तरकीबें सीख लीं। जब कोई दौलतमंद ग्राहक आता, तो मैं उसके मन की बात कह कर उसे खुश करता और उसकी झूठी तारीफ़ करता ताकि उससे ज़्यादा पैसे वसूलने में मुझे सहूलियत हो। जब सच में कोई परेशान ग्राहक आता, तो मैं ढोंग करता कि ये मरम्मत तो बड़ा सिरदर्द है और फिर जान-बूझ कर उसमें लिप्त होने का दिखावा कर ज़्यादा वक्त लगाता। यह देखकर वे मुझे ज़्यादा पैसे देते। कुछ ग्राहक थोड़े ज़्यादा चालाक होते, तो मैं कोई वजह बताकर उनसे उपकरण मेरे पास छोड़ कर किसी और दिन लेने को कहता, जब वे वापस आते तो कहता कि मुझे इसमें और भी खराबियां दिखाई पड़ीं। ज़्यादा मेहनत किए बगैर मैं काफी पैसे कमा रहा था। इसलिए मैं ग्राहकों से ज़्यादा पैसे वसूलने के लिए निरंतर अपना दिमाग़ कुरेदता रहता। मैं अब बहुत ज़्यादा पैसे कमा रहा था और ज़्यादा आरामदेह ज़िंदगी बसर कर रहा था, मगर दिल में ज़रा भी खुशी या उल्लास महसूस नहीं कर रहा था। इसके बजाय, जब कभी मैं अपने किये हुए घिनौने, अनैतिक कामों के बारे में सोचता, मैं भयभीत होकर अशांत महसूस करता। कभी-कभार मैं सोचता, "मुझे अब रुक जाना चाहिए। मुझे अब यह नीच व्यापार नहीं करना चाहिए। लोग कहते हैं न, 'भले का भला, बुरे का बुरा।' मुझे जो मिलना है वही मिलेगा।" लेकिन जब मैं अपने हाथों में नोटों की उन तमाम गड्डियों के बारे में सोचता, तो इसे रोकने का संकल्प नहीं कर पाता।

जब मैं नीचता और संवेदनहीनता में और गहराई तक गिरने लगा, तब मेरी बहन ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का राज्य सुसमाचार सुनाया। परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ सभाओं में जाकर परमेश्वर के वचन पढ़ने लगा। एक बार एक सभा में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "मनुष्य इन विभिन्न अवधियों में परमेश्वर के साथ चला है, फिर भी वह नहीं जानता कि परमेश्वर सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों की नियति पर शासन करता है, न ही यह जानता है कि कैसे परमेश्वर सभी चीज़ों को आयोजित और निर्देशित करता है। इसने मनुष्य को अनादि काल से आज तक भ्रम में रखा है। जहाँ तक कारण का सवाल है, ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर के तरीके बहुत छिपे हुए हैं, न इसलिए कि परमेश्वर की योजना अभी तक साकार नहीं हुई है, बल्कि इसलिए है कि मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर से बहुत दूर हैं, उतनी दूर, जहाँ मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करते हुए भी शैतान की सेवा में बना रहता है—और उसे इसका भान भी नहीं होता। कोई भी सक्रिय रूप से परमेश्वर के पदचिह्नों और उसके प्रकटन को नहीं खोजता और कोई भी परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रहने के लिए तैयार नहीं है। इसके बजाय, वे इस दुनिया के और दुष्ट मानवजाति द्वारा अनुसरण किए जाने वाले अस्तित्व के नियमों के अनुकूल होने के लिए, उस दुष्ट शैतान द्वारा किए जाने वाले क्षरण पर भरोसा करना चाहते हैं। इस बिंदु पर, मनुष्य का हृदय और आत्मा शैतान के लिए आभार व्यक्त करते उपहार और उसका भोजन बन गए हैं। इससे भी अधिक, मानव हृदय और आत्मा एक ऐसा स्थान बन गए हैं, जिसमें शैतान निवास कर सकता है, और वे शैतान के खेल का उपयुक्त मैदान बन गए हैं। इस तरह, मनुष्य अनजाने में मानव होने के सिद्धांतों और मानव-अस्तित्व के मूल्य और अर्थ के बारे में अपनी समझ को खो देता है। परमेश्वर की व्यवस्थाएँ और परमेश्वर और मनुष्य के बीच का प्रतिज्ञा-पत्र धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय में धुँधला होता जाता है, और वह परमेश्वर की तलाश करना या उस पर ध्यान देना बंद कर देता है। समय बीतने के साथ मनुष्य अब यह नहीं समझता कि परमेश्वर ने उसे क्यों बनाया है, न ही वह उन वचनों को जो परमेश्वर के मुख से आते हैं और न उस सबको समझता है, जो परमेश्वर से आता है। मनुष्य फिर परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आदेशों का विरोध करने लगता है, और उसका हृदय और आत्मा शिथिल हो जाते हैं...। परमेश्वर उस मनुष्य को खो देता है, जिसे उसने मूल रूप से बनाया था, और मनुष्य अपनी शुरुआत का मूल खो देता है : यही इस मानव-जाति की त्रासदी है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचन वास्तविकता दर्शाते हैं। हालांकि मैंने दुनिया में बहुत पैसा कमाया, मेरा भौतिक ऐशो-आराम पहले से बेहतर था, मगर मैं अंदर से खोखला और दुखी था, इस कारण से कि मैं परमेश्वर से दूर हो गया था, इंसान से उसकी अपेक्षाओं के खिलाफ काम कर रहा था, और शैतान के नियमों के अनुसार जीवन-यापन कर रहा था। जब मैंने पहले-पहल दुकान खोली थी, तो मैंने निर्मल अंतरात्मा से पैसे कमाये, भले ही मैं ज़्यादा नहीं कमाता था, फिर भी मुझे सुकून था। लेकिन फिर मैं अपने माहौल से प्रभावित हो गया। दूसरों को छलपूर्ण तरीकों से धनी होते देख, मुझमें भी ये बातें घर करने लगीं, "धूर्तता के बिना धन नहीं आता," "दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है।" और "पैसा ही सब कुछ नहीं है, किन्तु इसके बिना, आप कुछ नहीं कर सकते हैं," और ज़िंदा रहने के लिए शैतान के ऐसे ही दूसरे नियम। मैंने दुष्ट प्रवृत्तियों के पीछे चलकर पैसे कमाने के अपने बुनियादी सिद्धांतों को छोड़ दिया, ग्राहकों को ठगने के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया ताकि वे ज़्यादा पैसा दें। पैसा मेरे हाथ में था, मगर यह नाजायज़ था। जब भी मैं अपने इन नीच और अनैतिक कामों के बारे में सोचता, अपने बारे में बहुत बुरा महसूस करता और मुझे ज़रा भी सुकून नहीं मिलता। मैं उस दिन के डर में जी रहा था जब कोई मेरी पोल खोल देगा, जब मेरी निंदा होगी। सबसे बुरा यह भी हो सकता था कि पुलिस को मेरी शिकायत कर दी जाती। मैं निरंतर बेचैन रहता। ज़िंदगी बसर करने का यह दर्दनाक तरीका था। लेकिन उस दिन मैंने समझा कि यह सब मेरे शैतानी फ़लसफ़े के मुताबिक़ जीने के कारण है। यह शैतान के नियमों से बंध जाने और मूर्ख बनाये जाने का नतीजा था। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के बिना, मैं कभी उस असलियत को नहीं जान पाता कि शैतान मुझे किस तरह नुकसान पहुँचा रहा है।

फिर एक बहन ने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : "तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और परमेश्वर से लाभ उठाने मात्र के लिए काम न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। "मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। फिर उसने यह संगति साझा की : "परमेश्वर का सार निष्ठावान है। वह ईमानदार लोगों को पसंद करता है और उन्हें आशीष देता है। दुनिया में दूसरों के साथ अपने व्यवहार में, हम शैतान की इस व्यवस्था के अनुसार जीते हैं, 'जब तक कोई संबद्ध लाभ न हो, तब तक कभी भी सुबह जल्दी मत उठो।' हमारी कथनी और करनी सब निजी फायदे के लिए होती है, और हम बिना मलाल के झूठ बोलते और धोखा देते हैं। हम नहीं जानते कि नेक इंसान होने के क्या मायने हैं। लेकिन आज परमेश्वर में आस्था के मायने अलग हैं। उसकी अपेक्षा है कि हम ईमानदार हों, सच बोलें, और सच्चे हों। वह चाहता है कि अपनी हर कथनी और करनी में हम उसकी जांच को स्वीकार करें, हम खुले दिल के और निष्कपट हों, और परमेश्वर या इंसान को धोखा देने या ठगने की कोशिश न करें। सिर्फ ईमानदार लोगों में ही सच्ची इंसानियत होती है और सिर्फ ऐसे ही लोग परमेश्वर की गवाही देकर उसको गौरवान्वित कर सकते हैं।" परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि वह ईमानदार लोगों को पसंद करता है और मुझे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कर्म करना चाहिए। मैंने भाई-बहनों के साथ ईमानदारी से बात करने और उन्हें धोखा न देने का अभ्यास शुरू किया, लेकिन व्यापार करते वक्त मैं अभी भी चिंतित था। मुझे लगता कि भाई-बहनों के साथ ईमानदार होने का अभ्यास करना आसान है, लेकिन अगर मैं अपने व्यापार में ऐसा करूंगा, तो बहुत कम कमा पाऊँगा, मुझे दुकान बंद भी करनी पड़ सकती है। परंतु यदि मैं पहले की तरह लोगों को ठगता रहूँ, तो क्या यह परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध नहीं होगा? तो फिर मुझे क्या करना चाहिए? मैंने इस बार में विस्तार से सोचा तो मुझे एक बीच का रास्ता मिला : मैं कलीसिया में तो ईमानदार इंसान रहूँगा, मगर अपनी दुकान पहले की तरह चलाता रहूँगा।

एक दिन एक बूढ़ा आदमी अपना टीवी लेकर आया और बोला कि तस्वीर फ़ीकी नज़र आती है। मैंने जांच की तो देखा कि उसके कलर ट्यूब पुराने हो चले हैं और उन्हें बदलना ज़रूरी है, लेकिन मैंने उसे सच नहीं बताया। सिर्फ उसका फिलामेंट वोल्टेज बढ़ा दिया ताकि वह थोड़े समय तक और इस्तेमाल कर सके और जब वे दोबारा खराब हो जाएं तो मैं उन्हें बदल दूं। इस तरह मैं मरम्मत करने के 30 युवान ज़्यादा कमा लूंगा। दो हफ़्ते बाद, टीवी में सच में एक खराबी आ गयी और उस आदमी ने यह बोल कर मुझे फिर से उसकी मरम्मत करने को कहा कि मैंने पहले अच्छा काम नहीं किया था। मैंने उससे कहा कि कलर ट्यूब पुराने हैं और इनको बदलना ज़रूरी है। उसने मेरी चाल को समझ लिया। मुझे हैरत हुई। उसने मरम्मत के 30 युवान नहीं दिये और उलाहना देते हुए कहा, "नौजवान, व्यापार में ईमानदारी होनी चाहिए। ज़्यादा लालची मत बनो!" उस वक्त मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की, मगर ज़्यादा सोचे बिना उसे झटक दिया। बाद में एक बूढ़ी औरत एक खराब माइक्रोवेव लेकर आयी, उसमें मुझे एक छोटा-सा टूटा हुआ पुर्ज़ा मिला। मुझे लगा कि इसे ठीक करके इसके वाजिब पैसे ले लूंगा। लेकिन फिर मैंने सोचा कि वह खासी दौलतमंद है, उससे थोड़ा ज़्यादा वसूल कर लेना कोई बड़ी बात नहीं होगी। जितना मिल सके ले लेना चाहिए। लेकिन कुछ दिन बाद वह दुकान में दोबारा आयी और बोली, "आपने उस माइक्रोवेव के लिए मुझसे अच्छा-खासा पैसा लिया है। कहाँ है आपका ज़मीर? ऊपरवाला देखता है कि हम क्या करतूतें कर रहे हैं!" उसकी लताड़ से मैंने बहुत बुरा महसूस किया, तब मैंने उस आदमी की बातों को याद किया। मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई। मैंने यह भी समझ लिया कि परमेश्वर मुझे चेतावनी देने के लिए मेरे इर्द-गिर्द की चीज़ों का इस्तेमाल कर रहा है ताकि मैं आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूं।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे मामला कितना भी बड़ा या छोटा हो, और चाहे तुम इसे परमेश्वर के परिवार में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए या अपने निजी कारणों के लिए यह कर रहे हो, तुम्हें इस बात पर विचार करना ही चाहिए कि जो तुम कर रहे हो वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, साथ ही क्या यह ऐसा कुछ है जो किसी मानवता युक्त व्यक्ति को करना चाहिए। अगर तुम जो भी करते हो उसमें उस तरह सत्य की तलाश करते हो तो तुम ऐसे इंसान हो जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है। यदि तुम हर बात और हर सत्य को इस ढंग से लेते हो, तो तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम होगे। कुछ लोगों को लगता है कि जब वे कुछ निजी कार्य कर रहे होते हैं, तो वे सत्य की उपेक्षा कर सकते हैं, इच्छानुसार काम कर सकते हैं और वैसे कर सकते हैं जैसे उन्हें खुशी मिले, और उस ढंग से जो उनके लिए फायदेमंद हो। वे इस तरफ ज़रा-सा भी ध्यान नहीं देते कि यह परमेश्वर के परिवार को कैसे प्रभावित करेगा और न ही वे यह सोचते हैं कि यह संतों के आचरण को शोभा देता है या नहीं। अंत में, जब मामला समाप्त हो जाता है, तो वे भीतर अंधकारमय और असहज हो जाते हैं; लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि यह सब क्यों हो रहा है। क्या यह प्रतिशोध उचित नहीं है? यदि तुम ऐसी चीजें करते हो जो परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं हैं, तो तुमने परमेश्वर को नाराज़ किया है। यदि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, और अक्सर अपनी इच्छा के आधार पर काम करते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर को रुष्ट या अपमानित करेंगे। ऐसे लोग आम तौर पर अपने कर्मों में परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं होते और अगर वे पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे सज़ा से ज़्यादा दूर नहीं होंगे"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। इसे पढ़कर मैं सच में जान सका कि परमेश्वर का आत्मा सब-कुछ देखता है। मैंने किसी भी व्यक्ति को अपने अंदरूनी जज़्बात नहीं बताये थे, लेकिन परमेश्वर के वचनों में वे पूरी तरह से प्रकाशित थे। मैंने परमेश्वर के वचनों से यह समझ लिया कि हम अपना दिल उसे समर्पित करें, यही उसकी अपेक्षा है। हम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हों या खुद का काम कर रहे हों, हमें उसके वचनों का अभ्यास करना होगा। लेकिन मैं अपनी पसंद के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी में सत्य का अभ्यास कर रहा था। मैंने देखा कि कलीसिया में मेरा ईमानदारी से पेश आने का अभ्यास करना परमेश्वर और भाई-बहनों को पसंद था, तो मैं ऐसा करने को तैयार था। लेकिन अपने व्यापार में, मुझे नुकसान होने का अंदेशा था और यह मेरे हितों के लिए ठीक नहीं होगा, तो मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने देखा कि मैं सिर्फ अपने निजी हितों का ख़याल कर रहा हूँ। मुझे पता था कि कपटी होना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं है, लेकिन मैंने फिर भी वही किया जो मैं चाहता था, बस अपना फायदा देखता रहा। क्या एक आस्थावान व्यक्ति ऐसा होता है? तब मेरे मन में वाकई यह विचार कौंधा। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "अमीर बनने के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है" जैसे ज़िंदा रहने के शैतानी नियमों ने मुझे जकड़ लिया था और ये मेरी प्रकृति बन चुके थे। मुझे लगा कि अगर मैं इन पर न चला तो शायद आगे नहीं बढ़ सकूंगा। लेकिन असलियत में, उस तरह जी कर मुझे बस थोड़ा निजी फ़ायदा और भौतिक आनंद मिला। लेकिन यह बिना किसी प्रतिष्ठा के जीने का एक घिनौना तरीका था। लोग मुझसे नाराज़ होकर मुझे ठुकराने लगे, परमेश्वर मुझसे और भी ज़्यादा घृणा और नफ़रत करने लगा। फिर मैंने प्रभु यीशु के इस वचन को याद किया : "मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे" (मत्ती 18:3)। और सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : "अपने विचारों और गणनाओं को जितनी जल्दी हो सके, बट्टे खाते डाल दो, और मेरी अपेक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दो; वरना मैं अपना काम समाप्त करने के लिए सभी को भस्म कर दूँगा और, खराब से खराब यह होगा कि मैं अपने वर्षों के कार्य और पीड़ा को शून्य में बदल दूँ, क्योंकि मैं अपने शत्रुओं और उन लोगों को, जिनमें से दुर्गंध आती है और जो शैतान जैसे दिखते हैं, अपने राज्य में नहीं ला सकता या उन्हें अगले युग में नहीं ले जा सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे)। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है, वह ईमानदार लोगों को पाना चाहता है। जो लोग हमेशा झूठ बोलते और धोखा देते हैं, शैतानी स्वभाव वाले जो लोग प्रकृति से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं और प्रायश्चित करने से इनकार करते हैं उन्हें परमेश्वर नष्ट कर देगा। वे कभी भी उसके राज्य में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। अगर मैंने अब भी प्रायश्चित नहीं किया, शैतान के फलसफों और नियमों के अनुसार जीता रहा, कुटिल होकर अन्याय करता रहा, तो मैं हटा दिया जाऊंगा। यह ख़याल आते ही मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर! मैं तुम पर विश्वास करता हूँ, लेकिन मैंने अपने दिल में तुम्हें जगह नहीं दी है। मैं अभी भी शैतान के नियमों के मुताबिक़ जी रहा हूँ। मैं अब कपटी नहीं होना चाहता। मैं प्रायश्चित करके एक ईमानदार इंसान बनना चाहता हूँ।"

इसके बाद, एक बार दो-चार नौजवान एक टीवी की मरम्मत कराने के लिए मेरी दुकान में आये। मैं उसे ठीक कर रहा था तभी मैंने उन्हें बाहर दबी हुई आवाज़ में बातें करते सुन लिया : "अगर हमें मालूम होता कि वह जगह बेकार है तो हम दो दिन नहीं गंवाते। चलो देखते हैं, शायद ये बंदा इसे ठीक कर दे।" यह सुनकर मैंने सोचा, "अगर दूसरे दुकानदार इन लोगों की बातें सुन लें, तो मरम्मत करने के खूब पैसे वसूल कर लेंगे, फिर तो मैं इनसे आसानी से 20-30 युवान ज़्यादा मांग सकता हूँ। हाथों में आया पैसा न लेना बेवकूफ़ी होगी। मैं अगली बार ईमानदार इंसान बन जाऊंगा। अगर मैं एक बार सत्य का अभ्यास न भी करूं तो परमेश्वर कोई बतंगड़ नहीं बनायेंगे।" लेकिन तभी मुझे परमेश्वर के सामने किये गये अपने संकल्प की याद आयी और मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : "यदि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, और अक्सर अपनी इच्छा के आधार पर काम करते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर को रुष्ट या अपमानित करेंगे। ऐसे लोग आम तौर पर अपने कर्मों में परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं होते और अगर वे पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे सज़ा से ज़्यादा दूर नहीं होंगे"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। मुझे लगा जैसे परमेश्वर मुझे चेतावनी दे रहे हैं। मुझे जानबूझ कर ग़लत काम नहीं करने चाहिए। मुझे प्रायश्चित करके एक ईमानदार इंसान बनना चाहिए। इसलिए मैंने उसे ठीक करने के बाद सिर्फ सामान्य पैसे लिये। जब मैंने ग्राहकों के चेहरे खिले हुए देखे तो मुझे लगा कि खुले मन का और ईमानदार होना आज़ाद मन से ज़िंदगी जीने का एक बढ़िया तरीका है।

एक और बार जब मैंने एक महिला का टीवी ठीक किया, तो उस मरम्मत की कीमत 50 युवान थी, लेकिन उसने मुझे 100 दिये और खुले पैसे नहीं लिये। मैंने मना कर दिया, पर मैं पशोपेश में था। वह भला इतनी उदारता क्यों दिखा रही है? तब उसने बताया, "जिस व्यक्ति के पास मैं पहले गयी, उसने कहा कि इसका मदरबोर्ड ख़राब हो गया है, उसे बदलने के लिए उसने 400 युवान मांगे, लेकिन मैंने उसे ठीक करने को नहीं दिया। एक परिचित ने तब आपका नाम सुझाया, और कहा कि आप ईमानदार हैं और ग्राहकों से ज़्यादा पैसे नहीं वसूलते। अब मैं खुद देख सकती हूँ कि यह वाकई सच है।" उसकी बात सुनकर मैंने सोचा, "ऐसा नहीं है कि मैं बिल्कुल अच्छा आदमी हूँ, बात यह है कि परमेश्वर के वचनों ने मुझे बदल दिया है ताकि मैं इंसानियत के साथ जी सकूं।"

परमेश्वर के वचन पढ़ कर और ईमानदारी का अभ्यास करके चीज़ों के बारे में मेरा नज़रिया भी बदल गया है। पहले मैं सोचा करता था कि एक ईमानदार व्यापारी होना मुमकिन ही नहीं है, इससे आप पैसे नहीं कमा सकते, कामकाज में नुकसान उठाते हैं, और फिर व्यापार बंद करना पड़ता है। लेकिन परमेश्वर के वचनों के मुताबिक़ ईमानदार बनने के बाद, मुझे कामकाज में नुकसान भी नहीं हो रहा था, और हर दिन ज़्यादा ग्राहक भी मिल रहे थे। कुछ लोग तो बड़ी दूर से भी आते थे, और बोलते कि किसी ने उन्हें यहाँ आने की सिफारिश की थी। मैंने न कभी किसी तरह का विज्ञापन दिया, न ही किसी से अपना व्यापार बढ़ाने को कहा। सब-कुछ परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के कारण हुआ था, क्योंकि मैं परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप ईमानदार और सच्चा था, सिर्फ ईमानदारी के पैसे कमाता था, इसलिए मैंने ग्राहकों का भरोसा कमाया। यह वाकई परमेश्वर का आशीष था, जो सत्य का अभ्यास करने से मिला। इससे मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब लोग इस दुनिया में शैतान के भ्रष्टाचार के प्रभाव में रहते हैं, तो उनका ईमानदार होना असंभव है; वे केवल और अधिक कपटी बन सकते हैं। लेकिन, अगर हम ईमानदार हो जाएँ, तो क्या हम इस दुनिया में रह सकते हैं या नहीं? क्या हम दूसरों के द्वारा किनारे कर दिये जायेंगे? नहीं—हम पहले की भांति ही जीवित रहेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि हम भोजन करने, या श्वास लेने के लिए धोखेबाज़ी के भरोसे नहीं हैं। इसके बजाय, हम लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान की गयी श्वास और जीवन द्वारा जीते हैं। बात बस यह है कि, हमने परमेश्वर के वचनों के सत्य को स्वीकार कर लिया है, और हमारे पास जीने के लिए नए नियम हैं, नए जीवन लक्ष्य हैं, जो हमारे जीवन के आधार में बदलाव लाएँगे। बात बस ऐसी है कि हम परेमश्वर को संतुष्ट करने और उद्धार पाने के उद्देश्य से जीने के साधनों और तरीकों को बदल रहे हैं, और इसका इससे बिलकुल भी लेना-देना नहीं है कि हम शारीरिक रूप से क्या खाते हैं, पहनते हैं और कहाँ रहते हैं; यह हमारी आध्यात्मिक जरूरत है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर का धन्यवाद!

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