काम में मिलजुलकर सहयोग करना सबसे अहम है
2020 की गर्मियों में, बहन औड्रिया और मैं कलीसिया में वीडियो बनाने का काम करती थी। उस समय, मुझ पर काम सौंपने की जिम्मेदारी थी। मैं औड्रिया के लिए आसान कामों की व्यवस्था करती थी, जबकि मैं अहम काम कर रही थी। मैंने सोचा कि मैं उन कामों को खुद संभाल सकती हूँ, क्योंकि इससे पहले मैंने हमेशा प्रमुख काम खुद ही पूरे किए थे। मेरा तजुर्बा औड्रिया से अधिक था, तो मुझे लगा उसे उन कामों में शामिल करने की ज़रूरत नहीं है। साथ ही, अगर मैंने इसे अकेले पूरा किया, तो श्रेय मुझे ही मिलेगा, जिससे मेरी काबिलियत उभरकर सामने आएगी और भाई-बहन मेरे बारे में ऊंचा सोचेंगे। बाद में, मेरे काम का बोझ काफी बढ़ गया, तो मुझे हर दिन ओवरटाइम काम करना पड़ता था। कभी-कभी औड्रिया जल्दी सो जाती थी, जबकि मैं आधी रात तक काम में जुटी होती, सुबह भी मैं उससे पहले उठ जाती थी, मुझे काफी थकान महसूस होती रहती। मगर मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरे काम का बोझ साझा करे। मैंने हमेशा अपने काम खुद ही पूरे किए थे, ऐसे में अगर उसने मेरे काम के बोझ को कम करने में मेरी मदद की, तो भाई-बहन सोचेंगे कि अपने काम में मेरी काबिलियत कम है, जो कि शर्मिंदगी की बात होगी। कभी-कभी मैं सोचती, अगर मैंने औड्रिया को मदद करने दी, तो काम में तेजी आएगी, मैं इतनी व्यस्त नहीं रहूँगी, मेरे अकेले काम करने के मुकाबले नतीजे भी बेहतर होंगे। मगर जब मैंने उसके साथ श्रेय बांटने की बात सोची, तो मुझे अच्छा नहीं लगा। इस तरह, मैंने औड्रिया को अपने कामों में भागीदार नहीं बनने दिया। उस वक्त, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। फिर एक दिन, एक बहन ने मुझे बताया कि औड्रिया अपने कर्तव्य में बोझ नहीं उठा रही, उसने मुझे उसके साथ संगति करने को कहा। फिर मैंने सोचा, “क्या औड्रिया के बोझ न उठाने का मेरे साथ कोई लेना-देना है? मैं हर दिन कितना व्यस्त रहती हूँ, उसके पास खाली समय है, ये जानकर भी उसे नए काम नहीं दे रही, इसलिए उसके पास कोई काम ही नहीं है।” मुझे थोड़ा एहसास हुआ कि ऐसा करना ठीक नहीं था, और अकेले ही काम करके, मैं कलीसिया के काम में देरी कर दूंगी। मगर फिर मैंने सोचा, थोड़ी और कड़ी मेहनत करके इसे निपटा लूंगी, और सब वैसे ही चलने दिया। हालांकि मुझे एहसास था कि मेरी मंशा गलत थी, फिर भी मैं इसे छोड़ नहीं पाई, जो मेरे लिए बहुत पीड़ाजनक था, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी गलत मंशाओं को त्यागने के लिए उसे राह दिखाने को कहा।
अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ा : “हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साथी होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे मूर्ख और नाकाबिल नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे सवाल पूछना और जवाब माँगना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ समन्वय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ काम करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि उन्हें पता है और वे जानते हैं कि इससे कैसे निपटें, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करते, वे उस पर नियंत्रण करना चाहेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, तो यह किसी कर्तव्य का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि खुद को प्रदर्शित करने और दूसरों से अलग दिखने का मौका होता है, और शक्ति का प्रयोग करने का मौका होता है। इसलिए, हालाँकि वे कहते हैं कि वे दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करेंगे और जब कोई मामला आएगा तो वे दूसरों के साथ मिलकर उस पर चर्चा करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि, अपने दिल की गहराई में, वे अपनी शक्ति या हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि अगर उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे, वे परमेश्वर के आदेश का कार्यांवयन नहीं कर पाते और मात्र सेवा कर रहे होते हैं। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सत्य सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास सत्ता होती है, तब उनके अपनी हैसियत का उपयोग अपना दिखावा करने और आडंबर करने, दूसरों से अपना आदर करवाने और भीड़ से अलग दिखने का अपना लक्ष्य हासिल करने की संभावना होती है। इस तरह, मसीह-विरोधी सत्ता और हैसियत से चिपके रहते हैं, और उन्हें कभी नहीं छोड़ते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन में, मैंने देखा कि मसीह-विरोधियों में बहुत अहंकारी स्वभाव होता है, वे किसी से भी सहयोग नहीं करते। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ काम साझा करने पर, वे काबिल नहीं दिखेंगे, सत्ता बंट जाएगी और दूसरे उनकी तारीफ नहीं करेंगे। इसलिए, दूसरों के साथ काम बांटने के बजाय, वे कलीसिया के काम पर असर पड़ने देते हैं। मैंने आत्मचिंतन किया तो समझ आया कि मैं भी वैसी ही थी। मैं औड्रिया को मेरे कामों में हिस्सा नहीं लेने देना चाहती थी, क्योंकि मुझे डर था कि उसकी भागीदारी से मैं नाकाबिल दिखूंगी, मेरी छवि खराब होगी, तो मैंने अकेले ही काम किया। पर मैं बहुत थक जाती थी, और काम में देरी हो रही थी। मैं सचमुच बहुत अहंकारी और नासमझ थी! कलीसिया में चाहे जो भी काम हो, कोई भी उसे अकेले नहीं कर सकता। हर किसी को साथियों और मदद की ज़रूरत होती है, भाई-बहनों को दिल से साथ मिलजुलकर काम करना होता है, क्योंकि कोई भी पूरी तरह काबिल नहीं है। किसी की काबिलियत कितनी भी ऊंची हो, उसकी खूबियां और हुनर चाहे जो भी हों, हर किसी में कमियां और खामियां होती हैं, हमें खुद की परवाह करना छोड़कर अपने साथियों के साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि हम अपने कर्तव्य अच्छे से पूरे करें। मगर मेरा स्वभाव अहंकारी था। अपने कर्तव्य में ज्यादा ही महत्वाकांक्षी थी, सारा श्रेय खुद लेकर दूसरों की तारीफ पाना चाहती थी। मैंने लोगों को अपने काम में दखल देने या जोड़ने के बजाय कलीसिया के काम में देरी होने दी। इस तरह कर्तव्य करके, मैं अच्छे कर्म अर्जित नहीं कर रही थी, बल्कि दुष्टता कर रही थी! यह बात समझ आने पर, मैं बहुत उदास हो गई, फिर मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत अहंकारी हूँ, मुझमें ज़रा भी इंसानियत और समझ नहीं है। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं खुद को जान सकूं।”
एक दिन मैं अपनी हालत से जुड़े परमेश्वर के वचन के अंश खोज रही थी, तो मुझे यह अंश मिला : “अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ताकत से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ताकत का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर अपनी सारी ताकत लगाना, अपनी संपूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। अगर तुम्हारे पास समझने-बूझने की योग्यता है और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों को बताना चाहिए। मिल-जुलकर सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—यदि तुम्हारे पास सुझाव हैं, तो उन्हें पेश करो; जिसका भी विचार सत्य के अनुरूप हो, उसे स्वीकार किया जाना और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या ‘खिलने वाला एकमात्र फूल’ या सबसे अलग सोचने वाला नहीं बनना है; इसके बजाय, तुम्हें यह सीखने की आवश्यकता है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन पर विचार करके मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का खुलासा किया। मैं दिखावा करने, खुद को स्थापित करने और ऊंचा दिखाने के लिए, औड्रिया को साथी बनाए बिना, वीडियो का काम अकेले ही करना चाहती थी। मुझे लगा, औड्रिया को शामिल करने पर मुझसे मेरा श्रेय छिन जाएगा। इस तरह, मेरे पास दिखावा करने के लिए कोई पूंजी नहीं होगी और मेरे लिए दूसरों की सराहना पाने का कोई रास्ता नहीं होगा। मैंने सोचा, इस तरह तो मैं पिछड़ जाऊंगी। मैं जानती थी कि काम का भार बहुत ज़्यादा था, और अकेले काम करने पर इसमें देर हो जाएगी, जबकि औड्रिया को शामिल करने से काम तेजी से होगा और नतीजे बेहतर होंगे। मैं यह भी जानती थी कि टीम का ज़्यादातर काम मेरे हाथों में था, जबकि वह अक्सर खाली बैठी रहती थी, उसके पास कोई काम नहीं था, और उसकी हालत पर भी असर पड़ रहा था, मगर फिर भी मैंने उसे काम का बोझ बांटने नहीं दिया। मैं सभी खुद ही काम करना चाहती थी, ताकि न केवल सारा श्रेय मुझे ही मिले, बल्कि यह भी साबित कर सकूं कि मेरे पास अच्छे तकनीकी और पेशेवर कौशल हैं। मैं हर वक्त अपनी इज्जत और रुतबे के बारे में ही सोचती रहती थी। मैंने कलीसिया के काम पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया, न ही अपनी बहन की भावनाओं की परवाह की। मुझमें सचमुच अंतरात्मा या इंसानियत नहीं थी! कहने को तो मैं हर दिन जल्दी उठ जाती और कड़ी मेहनत करती थी, मानो मैं बोझ उठाकर कष्ट सह सकती हूँ, कीमत चुका सकती हूँ, मगर असल में, मैं निजी उद्यम में जुटी हुई थी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी कर रही थी। मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। अपना कर्तव्य निभाने के बहाने कलीसिया का काम बिगाड़ रही थी, दुष्टता कर रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर चल रही थी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, भावात्मक अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने उसकी इच्छा को समझा। दरअसल, इंसान से परमेश्वर की अपेक्षाएं सरल हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग बड़े या दुनिया हिला देने वाले काम करें। परमेश्वर हमें असाधारण या महान इंसान बनने नहीं को कहता। वो केवल यह चाहता है कि हम एक सृजित प्राणी की जगह पर रहें, व्यावहारिक तरीके से सत्य का अनुसरण करें, अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्य करें, और परमेश्वर के वचन के अनुसार जीवन जिएं। परमेश्वर हमारी उपलब्धि या योगदान की मात्रा के आधार पर यह मूल्यांकन नहीं करता कि हम अपना कर्तव्य निभाने के काबिल हैं या नहीं, बल्कि वह देखता है कि काम करने की हमारी मंशाएँ परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं या नहीं, हम हर मुमकिन कोशिश करते हैं या नहीं। जब हमारी मंशा सही होगी और हम सही राह पर चलेंगे, तभी अपने कर्तव्य में गवाही दे सकते हैं। अगर लोग सिर्फ अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए कर्तव्य करते हैं, तो वे चाहे कितना भी प्रयास करें या कितना भी योगदान दें, आखिर में परमेश्वर उनसे नफरत करेगा और उन्हें निकाल देगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा अपने कर्तव्य का सारा श्रेय खुद लेना चाहती थी। अहंकारी स्वभाव के कारण मैं अपनी साथी से सहयोग किए बिना अकेले काम करना चाहती थी। मैंने कड़ी मेहनत की और खुद को इतना थकाया, ताकि दूसरे मेरे बारे में ऊंचा सोचें। मेरे प्रयास परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थे, ये सिर्फ मेरी निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए थे। भले ही मैंने कुछ उपलब्धियां हासिल कीं, दूसरों की तारीफ और सहमति हासिल की, पर यह सब किसलिए था? इनका मतलब यह नहीं था कि मैं अपना कर्तव्य योग्य तरीके से करती थी। इसके उलट, मैंने अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार काम किया, अकेले ही काम पूरा किया, वीडियो कार्य की प्रगति में देरी की और कलीसिया का काम बिगाड़ा। आखिर में, परमेश्वर मुझे ठुकराकर बाहर निकाल देता। वास्तव में, औड्रिया के साथ सहयोग करने से मेरे कर्तव्यों की कमियों की भरपाई होती। वो सीखने पर ध्यान देती थी, अध्ययन करना चाहती थी, और उसकी कुशलता तेजी से बढ़ी थी, पर मैंने कौशल सीखने पर ध्यान नहीं दिया, मैंने अपने अनुभव पर ज़्यादा भरोसा किया। भले ही मैं यह कर्तव्य काफी समय से कर रही थी, मेरी कुशलता में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ था। सबसे बड़ी बात, किसी इंसान के विचार हमेशा एकतरफा होते हैं। जिन लोगों को आत्मबोध होता है वे कर्तव्य में अपनी इच्छाओं का त्याग करते हैं, कर्तव्य अच्छे से करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करना चाहते हैं। हमारे अंदर यही समझ होनी चाहिए, हमें ऐसे ही अभ्यास करना चाहिए। मगर मैं अहंकारी और दंभी थी, रुतबे की चाह रखती थी। मैं अपने हितों को छोड़ना और अपनी बहन के साथ सहयोग करना नहीं चाहती थी। इन बातों का असर काम की प्रगति और नतीजों पर पड़ा। अगर मैंने पहले ही उसके साथ सहयोग किया होता, हमने एक-दूसरे की मदद की होती, तो काम नतीजे अभी के मुकाबले काफी बेहतर होते। इस बारे में मैंने जितना सोचा उतना ही लगा मैं बहुत अहंकारी थी, मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी, मुझे खुद से नफरत हुई और अपने कर्मों पर अफसोस हुआ। मैं इन इरादों के साथ कर्तव्य करना नहीं चाहती थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं हमेशा महत्वाकांक्षा के साथ, अपने नाम और रुतबे के लिए कर्तव्य करती हूँ। अब मैं इस तरह अनुसरण करने के बजाय पश्चाताप करना चाहती हूँ, अपने गलत इरादों को त्यागकर अपनी बहन के साथ अच्छे से कर्तव्य करना चाहती हूँ।”
अगली सुबह अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार कर सकते हैं। परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करने पर तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाएगा। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, और हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहता हो और परमेश्वर की पड़ताल स्वीकार नहीं करते, तब भी क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन मेंतुम अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम निष्ठावान रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारेतुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। कर्तव्य निभाने के लिए, निजी हितों को त्यागकर कलीसिया के हितों पर ध्यान देना चाहिए। अपने मान या रुतबे को चाहे कितना भी नुकसान पहुंचे, कलीसिया के काम की रक्षा करना और अपना कर्तव्य निभाना सबसे अहम है। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, अब मैं यह नहीं सोचती थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा करके परमेश्वर को संतुष्ट करने की सोचती हूँ। फिर, मैंने औड्रिया के साथ अपने कुछ काम साझा किए, वह फौरन राजी हो गई। जल्दी ही, औड्रिया की हालत सुधर गई, अब वो पहले जैसी सुस्त नहीं थी, हम पिछड़ा हुआ सारा काम पूरा करने में सफल रहे। इससे, मुझे काफी राहत मिली। मुझे यह भी समझ में आया कि सत्य का अभ्यास करना और कर्तव्य में मिलजुलकर सहयोग करना कितना अच्छा है।
कुछ समय बाद, हमें एक नया काम मिला। अनायास ही मुझे ख्याल आया, “अगर मैं यह काम अकेले संभालती हूँ, तो श्रेय बांटना नहीं पड़ेगा। अपनी काबिलियत से, मैं यह काम खुद कर सकती हूँ। औड्रिया को शामिल करने की जरूरत नहीं है। अगर वह भी इस काम में हिस्सा लेती है, तो मैं नाकाबिल दिखूंगी। मेरे सभी भाई-बहन मुझ पर हँसेंगे।” यह सोचकर, मैं यह काम खुद ही संभालना चाहती थी। पर उसी वक्त, मुझे एहसास हुआ कि मेरे इरादे गलत थे। मैं अभी भी अपने निजी हितों को पूरा करना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “यदि, अपने मन में, तुम अभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे पर नजरें गड़ाए हो, अभी भी दिखावा करने और दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाने में जुटे हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम गलत रास्ते पर चल रहे हो। तुम जिसका अनुसरण करते हो, वह सत्य नहीं है, न ही यह जीवन है, बल्कि वो चीजें हैं जिनसे तुम प्रेम करते हो, वह प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा है—ऐसे में, तुम जो कुछ भी करोगे उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, यह सब कुकर्म और सेवा करना है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचन ने मुझे जगा दिया। मैं अनजाने में हमेशा स्वार्थी चीजें किया करती थी। मैं सचमुच बहुत तुच्छ और खुदगर्ज थी। इतनी ज्यादा भ्रष्ट होने पर मुझे खुद से नफरत होने लगी, मैं अपने गलत इरादों को त्यागकर सत्य का अभ्यास करना चाहती थी। मैंने औड्रिया को मेरे साथ नए काम में हाथ बंटाने को कहा। उस दिन से, जब भी काम सौंपने की बात आती है, मैं हमेशा औड्रिया से सलाह लेती हूँ, उसकी राय पूछती हूं। जब भी मैं सारा श्रेय पाने के लिए सारा काम खुद करना चाहती हूँ, तो सचेत होकर खुद का त्याग करती हूँ, और कर्तव्य की ज़रूरतों के आधार पर औड्रिया को काम सौंप देती हूँ। इस तरह अभ्यास करके, मुझे शांति और सुकून महसूस होता है।
इस अनुभव से गुजरने के बाद, मुझे अपने शैतानी स्वभाव की थोड़ी समझ आई। मुझे यह भी एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य अच्छे से करने के लिए मिलजुलकर सहयोग करना सबसे अहम है। सिर्फ अपने भरोसे काम करने से कोई कर्तव्य अच्छा नहीं होता। केवल मिलजुलकर सहयोग करने से ही हमें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिल सकता है।
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