काम में मिलजुलकर सहयोग करना सबसे अहम है

19 जुलाई, 2022

जिंगकाओ, अमेरिका

2020 की गर्मियों में, बहन वांग और मैंने साथ मिलकर वीडियो की कलर ग्रेडिंग का काम किया। मैं टीम अगुआ थी और दूसरों को काम सौंपा करती थी, मैंने बहन वांग को एमवी का काम दे दिया और खुद फिल्मों का प्रभार संभाल लिया। मैंने सोचा कि फिल्मों की कलर ग्रेडिंग मैं खुद संभाल सकती हूँ, क्योंकि इससे पहले मैंने कई फिल्में खुद ही पूरी की थीं। हालांकि, बहन वांग ने भी फिल्मों में रंग भरने का काम किया था, मगर मेरा तजुर्बा उससे अधिक था, तो मुझे लगा उसे शामिल करने की ज़रूरत नहीं है। साथ ही, अगर मैंने इसे अकेले पूरा किया, तो श्रेय मुझे ही मिलेगा, जिससे मेरी काबिलियत उभरकर सामने आएगी और भाई-बहन मेरे बारे में ऊंचा सोचेंगे। बाद में, बगैर कलर ग्रेडिंग वाले दृश्यों का बैकलॉग जमा हो जाने से मेरे काम का बोझ काफी बढ़ गया। मैं हर दिन ओवरटाइम काम करती, अधूरे दृश्यों को पूरा करने की कोशिश करती। कभी-कभी मैं देखती कि बहन वांग जल्दी सो जाती थी, जबकि मैं आधी रात तक काम में जुटी होती, सुबह भी मैं बहन वांग से पहले उठ जाती थी, मुझे काफी थकान महसूस होती रहती। मगर मैं नहीं चाहती थी कि बहन वांग मेरे काम का बोझ साझा करे। मैं सोचती कि अगर वह इसमें शामिल हो गई, तो फिल्म के आखिर में आने वाले कलर ग्रेडिंग के क्रेडिट में दो नाम शामिल होंगे। पहले सिर्फ मेरा नाम होता था, अगर मैंने बहन वांग को जोड़ लिया, तो भाई-बहन सोचेंगे कि अपने काम में मेरी काबिलियत कम है, जो कि शर्मिंदगी की बात होगी। कभी-कभी मैं सोचती, अगर मैंने बहन वांग को मदद करने दी, तो काम में तेजी आएगी, मैं इतनी व्यस्त नहीं रहूँगी, मेरे अकेले काम करने के मुकाबले नतीजे भी बेहतर होंगे। मगर जब मैंने उसके साथ श्रेय बांटने की बात सोची, तो मुझे अच्छा नहीं लगा। इस तरह, मैंने बहन वांग को फिल्मों की कलर ग्रेडिंग में भागीदार नहीं बनने दिया। उस वक्त, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। फिर एक दिन, एक बहन ने मुझे बताया कि बहन वांग अपने काम का बोझ नहीं उठा रही, उसने मुझे उसके साथ संगति करने को कहा। अचानक मैंने सोचा, "क्या बहन वांग के बोझ न उठाने का मेरे साथ कोई लेना-देना है? मैं हर दिन कितना व्यस्त रहती हूँ, उसके पास खाली समय है, ये जानकर भी उसे कलर ग्रेडिंग का काम नहीं दे रही, इसलिए उसके पास कोई काम ही नहीं है।" मुझे थोड़ा एहसास हुआ कि ऐसा करना ठीक नहीं था, अगर मैंने अकेले ही कलर ग्रेडिंग का काम किया, तो इससे परमेश्वर के घर के काम में देरी होगी। मगर फिर मैंने सोचा, थोड़ा और ओवरटाइम करके इसे निपटा लूंगी, और सब वैसे ही चलने दिया। हालांकि मुझे एहसास था कि मेरी मंशा गलत थी, फिर भी मैं इसे छोड़ नहीं पाई, जो मेरे लिए बहुत पीड़ाजनक था, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी गलत मंशाओं को त्यागने के लिए उसे राह दिखाने को कहा।

एक दिन, धार्मिक कार्यों में, मैंने परमेश्वर के वचनों का वीडियो पाठ देखा, "हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साथी होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे मूर्ख और नाकाबिल नजर आएँगे।यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे जवाब चाहना और सवाल पूछना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ समन्वय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ काम करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि उन्हें पता है और वे जानते हैं कि इससे कैसे निपटें, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करते, वे उस पर नियंत्रण करना चाहेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, जब तक उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रहे, इसलिए वे परमेश्वर के आदेश का कार्यांवयन नहीं कर पाते और मात्र सेवा कर रहे होते हैं। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सत्य के सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब उनके पास सत्ता होती है, तो वे दिखावा करते हैं, आडंबर करते हैं और भीड़ से अलग दिखना चाहते हैं। इस तरह मसीह-विरोधी अपनी सत्ता और रुतबे से चिपके रहते हैं और उसे कभी नहीं छोड़ते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')परमेश्वर के वचन में, मैंने देखा कि मसीह-विरोधियों में बहुत अहंकारी स्वभाव होता है, वे किसी से भी सहयोग नहीं करते। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ काम साझा करने पर, वे काबिल नहीं दिखेंगे, सत्ता बंट जाएगी और दूसरे उनकी तारीफ नहीं करेंगे। इसलिए, दूसरों के साथ काम बांटने के बजाय, वे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान होने देते हैं। मैंने आत्मचिंतन किया तो समझ आया कि मैं भी वैसी ही थी। मैं बहन वांग को फिल्म की कलर ग्रेडिंग में हिस्सा नहीं लेने देना चाहती थी, क्योंकि मुझे डर था कि उसकी भागीदारी से मैं नाकाबिल दिखूंगी, मेरी छवि खराब होगी, तो मैंने अकेले ही काम किया। पर मैं बहुत थक जाती थी, और काम में देरी हो रही थी। मैं सचमुच बहुत अहंकारी और नासमझ थी। परमेश्वर के घर में चाहे जो भी काम हो, कोई भी उसे अकेले नहीं कर सकता। हर किसी को साथियों और मदद की ज़रूरत होती है, भाई-बहनों को दिल से साथ मिलजुलकर काम करना होता है, क्योंकि कोई भी पूरी तरह काबिल नहीं है। किसी की काबिलियत कितनी भी ऊंची हो, उसकी खूबियां और हुनर चाहे जो भी हों, हर किसी में कमियां और खामियां होती हैं, हमें खुद की परवाह करना छोड़कर अपने साथियों के साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि हम अपना काम अच्छे से करें और परमेश्वर के आदेश को पूरा करें। मगर मैं अहंकारी और दंभी थी। ज्यादा ही महत्वाकांक्षी थी, सारा श्रेय खुद लेकर दूसरों की तारीफ पाना चाहती थी, इसलिए मैंने किसी को साथी नहीं बनाया। मैंने लोगों को अपने काम में दखल देने या जोड़ने के बजाय परमेश्वर के घर के काम में देरी होने दी। इस तरह काम करके, मैं अच्छे कर्म अर्जित नहीं कर रही थी, बल्कि दुष्टता कर रही थी। यह बात समझ आने पर, मैं बहुत उदास हो गई, फिर मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैंने देखा कि मैं बहुत अहंकारी हूँ, मुझमें ज़रा भी इंसानियत और समझ नहीं है। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं खुद को जान सकूं।"

एक दिन मैं अपनी हालत से जुड़े परमेश्वर के वचन के अंश खोज रही थी, तो मुझे यह अंश मिला, "अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ऊर्जा से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ऊर्जा का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर जो ऊर्जा है उसे लगाना, अपनी संपूर्ण शक्ति का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। यदि तुम बातों को समझते हो, स्वीकारते हो और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों से संवाद करना चाहिए। सद्भाव में सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम लोग हमेशा पूरा भार ढोना चाहते हो और सब कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, दूसरों के बजाय खुद को दिखाना चाहते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण, या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उन्हें सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—लेकिन, दूसरों की राय पर ध्यान देने से भी न चूको। जिसका भी विचार सही है उसे स्वीकारना और उसका पालन करना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर नहीं लेना है, न ही अत्यधिक कार्य करना है, या 'खिलने वाला एकमात्र फूल' या सबसे अलग सोचने वाला नहीं बनना है; इसके बजाय, तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ सद्भाव में कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियां कैसे पूरी करनी है और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी शक्ति और प्रकाश है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने की कोशिश मत करो, ऊँची-ऊँची बातें न करो, और दूसरों के विपरीत बातें मत करो। दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर अधिक ध्यान दो। इस तरह सद्भाव में सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम सद्भाव में सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचन पर विचार करके मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का खुलासा किया। मैं दिखावा करने, खुद को स्थापित करने और ऊंचा दिखाने के लिए, बहन वांग को साथी बनाए बिना, फिल्म की कलर ग्रेडिंग का काम अकेले करना चाहती थी। मुझे लगा, क्योंकि मैं हर फिल्म की कलर ग्रेडिंग का काम अकेले किया करती थी, इसलिए बहन वांग को शामिल करने पर मुझसे मेरा श्रेय छिन जाएगा। कोई मेरी तारीफ नहीं करेगा, दिखावा करने के लिए कोई पूंजी नहीं होगी। मैंने सोचा, इस तरह तो मैं पिछड़ जाऊंगी। मैं जानती थी कि फिल्मों के लिए कलर ग्रेडिंग के काम का भार बहुत ज़्यादा था, और अकेले पूरा करने पर इसमें देर हो जाएगी, अपनी बहन को शामिल करने से काम तेजी से होगा और नतीजे बेहतर होंगे, यह जानकर भी कि टीम का ज़्यादातर काम मेरे हाथों में था, जबकि मेरी बहन अक्सर खाली बैठी रहती थी, और उसकी हालत पर भी असर पड़ रहा था। फिर भी मैंने उसे काम का बोझ बांटने नहीं दिया। मैं सभी फिल्मों की कलर ग्रेडिंग खुद ही करना चाहती थी, ताकि न केवल अहम योगदान कर सकूं, बल्कि यह भी साबित कर सकूं कि मेरे पास अच्छे तकनीकी और पेशेवर कौशल हैं। मैंने देखा कि मैं हर वक्त अपनी इज्जत और रुतबे के बारे में सोचती रहती थी। मैंने परमेश्वर के घर के काम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, न ही अपनी बहन की भावनाओं की परवाह की। मुझमें सचमुच अंतरात्मा या इंसानियत नहीं थी! कहने को तो मैं हर दिन जल्दी उठ जाती और कड़ी मेहनत करती थी, मानो मैं बोझ उठाकर कष्ट सह सकती हूँ, कीमत चुका सकती हूँ, मगर असल में, मैं निजी उद्यम में जुटी हुई थी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी कर रही थी। मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी। अपना कर्तव्य निभाने के बहाने परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ रही थी, दुष्टता कर रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी की राह पर चल रही थी।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। "जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने देखा है उसे याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम लोगों का जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाए। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, कुलीनता और रुतबा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य को ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, सच्चा इंसान बनने का प्रयास करके और मनुष्य की तरह जीवन जी कर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इसके अलावा, उन्हें ऐसे महान या अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जो लोगों में श्रेष्ठ हो और दूसरों से अपनी पूजा करवाता हो। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए', इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। इसे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से, मैंने उसकी इच्छा को समझा। दरअसल, इंसान से परमेश्वर की अपेक्षाएं सरल हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग बड़े या दुनिया हिला देने वाले काम करें। परमेश्वर हमें असाधारण या महान इंसान बनने नहीं को कहता। वो केवल यह चाहता है कि हम एक सृजित प्राणी की जगह पर रहें, व्यावहारिक तरीके से सत्य का अनुसरण करें, अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अपना काम करें, और परमेश्वर के वचन के अनुसार जीवन जिएं। मुझे यह भी समझ आया कि परमेश्वर हमारी उपलब्धि या योगदान की मात्रा के आधार पर यह मूल्यांकन नहीं करता कि हम अपना कर्तव्य निभाने के काबिल हैं या नहीं, बल्कि वह देखता है कि हमारी मंशा और काम करने के शुरुआती बिंदु परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं या नहीं, हम हर मुमकिन कोशिश करते हैं या नहीं। जब हमारी मंशा सही होगी और हम सही राह पर चलेंगे, तभी अपने काम में गवाही दे सकते हैं। जब लोग सिर्फ अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए काम करते हैं, तब वे चाहे कितना भी प्रयास करें या कितना भी योगदान दें, आखिर में परमेश्वर उनसे नफरत करेगा और उन्हें निकाल देगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा अपने काम का सारा श्रेय खुद लेना चाहती थी। अहंकारी स्वभाव के कारण मैं अपनीसाथी से सहयोग किए बिना अकेले काम करना चाहती थी। मैंने कड़ी मेहनत की और खुद को इतना थकाया, ताकि दूसरे मेरे बारे में ऊंचा सोचें। मेरे प्रयास परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थे, ये सिर्फ मेरी निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए थे। भले ही मैं बहुत व्यस्त रही, काफी कष्ट झेले, कुछ उपलब्धियां हासिल कीं, दूसरों की तारीफ और सहमति हासिल की, पर यह सब किसलिए था? इनका मतलब यह नहीं था कि मैं अपना काम योग्य तरीके से करती थी, या यह कि मुझे परमेश्वर की स्वीकृति मिल गई थी। आखिर में, गलत राह पर चलने के कारण, मैंने अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार काम किया और परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ा, परमेश्वर मुझे ठुकराकर बाहर निकाल देगा। मैंने यह भी सोचा कि बहन वांग के साथ सहयोग करने से मेरे काम की कमियों की भरपाई होगी। वो सीखने पर ध्यान देती थी, अध्ययन करना चाहती थी, और उसकी कुशलता तेजी से बढ़ी थी, पर मेरे साथ ऐसा नहीं था, मैंने अपने अनुभव पर ज़्यादा भरोसा किया। भले ही मैं यह काम काफी समय से कर रही थी, मेरी कुशलता में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ था। सबसे बड़ी बात, किसी इंसान के विचार और सौंदर्य-बोध हमेशा सीमित होते हैं, वे परिपूर्ण नहीं होते। जिन लोगों को आत्मबोध होता है वे काम में अपनी इच्छाओं का त्याग करते हैं, काम अच्छे से करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करना चाहते हैं। हमारे अंदर यही समझ होनी चाहिए, हमें ऐसे ही अभ्यास करना चाहिए। मगर मैं अहंकारी और दंभी थी, रुतबे की चाह रखती थी। मैं अपने हितों को छोड़ना और अपनी बहन के साथ सहयोग करना नहीं चाहती थी। इन बातों का असर काम की प्रगति और नतीजों पर पड़ा। अगर मैंने पहले ही उसके साथ सहयोग किया होता, हमने एक-दूसरे की मदद की होती, तो काम की प्रगति और नतीजे अभी के मुकाबले काफी बेहतर होते। इस बारे में मैंने जितना सोचा उतना ही लगा मैं बहुत अहंकारी थी, मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी, जितना सोचा उतनी ही खुद से नफरत हुई और अपने कर्मों पर अफसोस हुआ। मैं इन इरादों के साथ काम करना नहीं चाहती थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं हमेशा महत्वाकांक्षा के साथ, अपने नाम और रुतबे के लिए काम करती हूँ। अब मैं इस तरह अनुसरण करने के बजाय पश्चाताप करना चाहती हूँ, अपने गलत इरादों को त्यागकर अपनी बहन के साथ मिलजुलकर अच्छे से काम करना चाहती हूँ।"

अगली सुबह अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो, तो तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर की जाँच स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, अगर तेरा अनुभव उथला है, या अगर तू अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। तू जो भी करता है, उसमें तू अपनी स्वार्थी इच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करता। इसके बजाय, तू लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करता है। भले ही तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभा पाओ, पर तुम्हारा दिल सुधार दिया गया है; अगर, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम्हारा कर्तव्य मानक स्तर का होगा और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। यह है गवाही देना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। कर्तव्य निभाने के लिए, निजी हितों को त्यागकर परमेश्वर के घर के हितों पर ध्यान देना चाहिए। अपने मान या रुतबे को चाहे कितना भी नुकसान पहुंचे, परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करना और अपना कर्तव्य निभाना सबसे अहम है। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मुझे सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा मिली। अब मैं यह नहीं सोचती कि क्रेडिट्स में कितने नाम शामिल होंगे, इसकी परवाह नहीं करती कि आखिर में दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं सिर्फ अपना काम अच्छे से पूरा करके परमेश्वर को संतुष्ट करने की सोचती हूँ। फिर, मैंने बहन वांग को फिल्म की कलर ग्रेडिंग के कुछ काम दिए, वह फौरन राजी हो गई। जल्दी ही, बहन वांग की हालत सुधर गई, अब वो पहले जैसी सुस्त नहीं थी, हम पिछड़ा हुआ सारा काम पूरा करने में सफल रहे। इससे, मुझे काफी राहत मिली। मुझे यह भी समझ में आया कि सत्य का अभ्यास करना और काम में मिलजुलकर सहयोग करना कितना अच्छा है।

कुछ समय बाद, जब फिल्म की कलर ग्रेडिंग का काम पूरा हो गया, तो हमने मंच नाटकों और एमवी पर काम किया। उस समय, अनायास ही मुझे ख्याल आया, "अगर मैं मंच नाटक की कलर ग्रेडिंग का काम संभालती हूँ, तो श्रेय बांटना नहीं पड़ेगा। फिर, मंच नाटक का काम फिल्मों के मुकाबले काफी आसान भी है। अपनी काबिलियत से, मैं यह काम अकेले कर सकती हूँ। बहन वांग को शामिल करने की जरूरत नहीं है। अगर मंच नाटक की कलर ग्रेडिंग में दो लोगों की ज़रूरत पड़ती है, तो मैं नाकाबिल दिखूंगी। मेरे सभी भाई-बहन मुझ पर हँसेंगे।" यह सोचकर, मैं एमवी की कलर ग्रेडिंग का काम बहन वांग को सौंपकर, मंच नाटक का काम खुद ही संभालना चाहती थी। पर उसी वक्त, मुझे एहसास हुआ कि मेरे इरादे गलत थे। मैं अभी भी अपने निजी हितों को पूरा करना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, "यदि, अपने मन में, तुम अभी भी रुतबे और प्रतिष्ठा से ग्रस्त हो, अभी भी दिखावे और दूसरों की प्रशंसा हासिल करने में जुटे हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम गलत रास्ते पर चलते हो; तुम जिसका अनुसरण करते हो, वह सत्य नहीं है, न ही जीवन है, बल्कि वो चीजें हैं जिनसे तुम प्रेम करते हो, वह रुतबा और प्रतिष्ठा है—ऐसे में, तुम जो कुछ भी करोगे उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होगा, वह सब कुकर्म और सेवा करने के रूप में गिना जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। परमेश्वर के वचन ने मुझे जगा दिया। मैं अनजाने में हमेशा स्वार्थी चीजें किया करती थी। मैं सचमुच बहुत तुच्छ और खुदगर्ज थी। इतनी ज्यादा भ्रष्ट होने पर मुझे खुद से नफरत होने लगी, मैं अपने गलत इरादों को त्यागकर सत्य का अभ्यास करना चाहती थी। मैंने बहन वांग को मेरे साथ मंच नाटक की कलर ग्रेडिंग में हाथ बंटाने को कहा। उस दिन से, जब भी काम सौंपने की बात आती है, मैं हमेशा बहन वांग से सलाह लेती हूँ, उसकी राय पूछती हूं। जब भी मैं सारा श्रेय पाने के लिए सारा काम खुद करना चाहती हूँ, तो सचेत होकर खुद का त्याग करती हूँ, और काम की ज़रूरतों के आधार पर बहन वांग को काम सौंप देती हूँ। इस तरह अभ्यास करके, मुझे शांति और सुकून महसूस होता है।

इस अनुभव से मुझे अपनी अहंकारी महत्वाकांक्षाओं और शैतानी स्वभाव की समझ आई। मुझे एहसास हुआ कि अपना काम अच्छे से करने के लिए मिलजुलकर सहयोग करना सबसे अहम है। सिर्फ अपने भरोसे काम करने से कोई काम अच्छा नहीं होता। केवल मिलजुलकर सहयोग करने से ही हमें परमेश्वर के आशीष और पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिल सकता है।

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