सत्य से अपनी ऊब को समझना
एक दिन, मैंने देखा कि हाल ही में कलीसिया से जुड़ी एक नई सदस्य दो सभाओं में नहीं आई, तो मैंने समूह अगुआ से इसकी वजह पूछी, पर समूह अगुआ ने कोई जवाब नहीं दिया। बाद में, वह नई सदस्य फिर से सभाओं में आने लगी, तो मैंने समूह अगुआ से इसकी वजह नहीं पूछी। मैंने सोचा, “अगर वह नियमित रूप से सभाओं में हिस्सा ले रही है तो ठीक है। फिलहाल, मैं अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त हूँ, बारीकियों पर ध्यान देने में काफी समय और मेहनत लगती है। समय मिला तो दोबारा इस बारे में पूछ लूंगी।” नतीजतन, मैं इस बात को भूल गई। एक अन्य सभा में, मैंने देखा कि वह नई सदस्य बीच में ही चली गई। समूह अगुआ से पूछा तो उसने फिर से जवाब नहीं दिया, और मैं मामले की तह में नहीं गई। न ही नई सदस्य से पूछा कि उसे कोई समस्या या परेशानी तो नहीं हो रही है। कुछ समय बाद, मैंने फिर से देखा कि वह लगातार कई सभाओं में शामिल नहीं हुई। तब मुझे फिक्र होने लगी। मैंने फौरन उस सदस्य से संपर्क किया, पर वह जवाब नहीं दे रही थी। मुझे चिंता हुई कि वह कलीसिया छोड़ देगी, तो मैंने समूह अगुआ से संपर्क कर पूछा कि क्या वह उस सदस्य से बात कर सकती है, पर समूह अगुआ ने कहा, “उसने मेरा फ्रेंड रिक्वेस्ट ही स्वीकार नहीं किया, तो मैं उससे बात नहीं कर सकती।” इस पर मुझे थोड़ा अफसोस हुआ। अगर मैंने पहले इस मामले पर ध्यान दिया होता, तो समस्या हल करने के तरीके ढूंढ सकती थी, पर अब देर हो चुकी है। खोज-खबर न रखना पूरी तरह से मेरी गलती थी। मैंने नई सदस्य के साथ हुई चैट के रिकॉर्ड पढ़े, इस उम्मीद में कि उसके हालात को जान पाऊँगी। रिकॉर्ड से पता चला कि उसे अभिवादन के कुछ शब्द कहने के बाद, मैंने कभी उससे कोई बात ही नहीं की। मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानती थी। मैं समझ गई कि उसे वापस ला पाने की उम्मीद बहुत कम है। यह सब होने की वजह यही थी कि मैं इस मामले में लापरवाही कर रही थी। उस वक्त, मैंने गंभीरता से आत्मचिंतन नहीं किया। बस थोड़ा सोचा और मान लिया कि मैं थोड़ी-सी लापरवाह थी, और अपने काम में लग गई।
कुछ ही दिनों में, सुपरवाइजर ने इस नई सदस्य के बारे में मुझसे पूछा कि वह कलीसिया छोड़कर क्यों गई। मैं काफी घबरा गई। मैंने सोचा, “ओह, अब मैं उजागर होने वाली हूँ। सुपरवाइजर को असलियत पता चली तो वह यकीनन यही कहेगी कि मैं लापरवाह हूँ, भरोसे के लायक नहीं हूँ। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया तो मैं क्या करूंगी?” बेशक, सुपरवाइजर को हालात के बारे में पता चला तो उसने मेरी समस्या बताई कि मैं कर्तव्य में लापरवाही कर रही थी, मैंने नई सदस्य की हालत की परवाह नहीं की या उसे जानने की कोशिश नहीं की। जब मैंने यह सुना, तो फौरन खुद को सही ठहराने की कोशिश की, “नई सदस्य ने मेरे अभिवादन का जवाब नहीं दिया, तो मैं बातचीत आगे नहीं बढ़ा पाई।” सुपरवाइजर ने यह कहकर मेरी काट-छाँट की, “ऐसा नहीं है कि तुम उससे बात नहीं कर पाई, दरअसल तुम्हें उसकी परवाह ही नहीं थी।” मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने लापरवाही की बात मान ली, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, तो मैंने फौरन समझाया, “उस नई सदस्य के लिए मुख्य रूप से समूह अगुआ जिम्मेदार थी। मैंने सोचा वह नई सदस्य के संपर्क में होगी, इसलिए समय रहते नई सदस्य की हालत के बारे में नहीं पूछा। मैंने समूह अगुआ से पूछा था, उसी ने समय पर जवाब नहीं दिया।” मैंने सुपरवाइजर को समूह अगुआ को भेजे मैसेज दिखाए, ताकि साबित कर सकूं कि मुझे नई सदस्य की परवाह थी। मैंने वो मैसेज भी दिखाये जो मैंने नई सदस्य को बाद में भेजे थे, ताकि साबित कर सकूं कि उसके नियमित रूप से सभाओं में न आने का पता चलने के बाद, मैंने समय पर उससे संपर्क करने की भी कोशिश की थी, पर उसने जवाब नहीं दिया। मैंने फोन पर उससे बात न कर पाने की वजह भी खोज ली, कहा कि सुसमाचार प्रचारक ने मुझे उसका फोन नंबर नहीं दिया था। मैंने कई सामान्य वजहें गिनाई, लगातार दूसरों पर दोष मढ़ती रही, इस उम्मीद में कि सुपरवाइजर को समस्या की वजह दिख जाए, और मेरी गलती साबित न हो, कम से कम इसका दोष दूसरों पर भी जाये, सारा दोष मेरा न हो। यह देखकर कि मैं अपनी समस्याएं स्वीकार न करके जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही थी, सुपरवाइजर ने यह कहकर मेरी काट-छाँट की, “यह नई सदस्य कई सभाओं में हिस्सा ले चुकी थी, जिससे साफ पता चलता है कि उसे सत्य की लालसा है, पर तुमने समय रहते उसकी हालत और परेशानियों के बारे में नहीं पूछा, अब यह कहकर पल्ला झाड़ रही हो कि तुम्हारे पास उसका नंबर नहीं है, इसलिए तुम उससे संपर्क नहीं कर पाई। यह बात बड़ी बेतुकी है!” मुझे एहसास हुआ कि सुपरवाइजर ने मेरी समस्याएं समझ ली थी, मैं जिम्मेदारी लेने से बच नहीं सकती। इस चिंता में मैंने सोचा, “सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वो कहेगी कि मैं कोई व्यावहारिक काम नहीं करती? क्या मुझे बर्खास्त किया जाएगा?” मैं बहुत फिक्रमंद थी, खुद को शांत नहीं कर पाई। उसके बाद, मैंने उस सारी बातों पर गौर किया जो मेरी इस हालत की वजह थी, मुझे एहसास हुआ कि इस मामले में, मैं एक ईमानदार इंसान नहीं थी, मैंने काट-छाँट को नहीं स्वीकारा। साफ तौर पर, मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, मैंने लापरवाही से काम किया, उसके बावजूद खुद को सही ठहराने के लिए अभी भी चालें चल रही थी, बहाने बना रही थी। फोन नंबर न देने के लिए मैंने सुसमाचार प्रचारक को भी दोषी ठहरा दिया। मैं इस सच को स्वीकारने से मना करती रही कि मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही की थी, मैंने आत्मचिंतन भी नहीं किया। अपने व्यवहार पर गौर करके मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई। हालांकि मैं हर दिन परमेश्वर के वचन खाती-पीती थी, पर वास्तविक हालात का सामना होने पर, और काट-छाँट किए जाने पर, मैं अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीती रही, सत्य को नहीं स्वीकारा। मुझे अपनी गहरी भ्रष्टता एहसास हुआ, यह मानकर कि इसे बदलना बहुत मुश्किल है, मैं थोड़ी नकारात्मक महसूस करने लगी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सत्य का अनुसरण स्वैच्छिक होता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य करेगा। जब तुम सत्य से प्रेम करते हो; जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते और उस पर निर्भर होते हो, चाहे तुम पर जो भी अत्याचार या क्लेश आ पड़े, तुन आत्मचिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करते हो, और जब तुम खुद में पता चली समस्याओं का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य की खोजते हो और ठीक से अपना कर्तव्य निभा पाते हो, तब तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम होगे। जब लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो ये अभिव्यक्तियाँ उनमें सहज ही दिखती हैं। वे स्वतः, खुशी से, बिना किसी दबाव और बिना किसी अतिरिक्त शर्त के घटित होती हैं। अगर लोग परमेश्वर का इस तरह अनुसरण कर सकें, तो अंततः वे सत्य और जीवन प्राप्त कर पाएंगे और वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करेंगे, और मनुष्य की छवि जिएंगे। ... परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा जो भी कारण हो, अंततः परमेश्वर तुम्हारे परिणाम का निर्धारण इस आधार पर करेगा कि तुमने सत्य प्राप्त किया है या नहीं। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य या बहाने में दम नहीं होगा। तुम चाहे जैसे तर्क करने का प्रयास करो, खुद के लिए जैसी मर्जी हो वैसी मुसीबत खड़ी करो—क्या परमेश्वर परवाह करेगा? क्या परमेश्वर तुमसे बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। वह बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा तर्क चाहे जितना भी मजबूत हो, वह टिक नहीं पाएगा। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझना चाहिए और ये नहीं सोचना चाहिए कि अगर तुम तमाम कारण दो और बहाने बनाओ तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है कि तुम हर तरह के परिवेश में और खुद पर पड़ने वाले हर मामले में सत्य खोजने में सक्षम बनो, और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चाहे जिन परिस्थितियों की व्यवस्था की हो, चाहे जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना हो और चाहे जिस परिवेश में तुम खुद को पाओ, तुम्हें उनका सामना करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। ये ही वे सबक हैं, जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। यदि तुम हमेशा इन परिस्थितियों से निकल भागने के लिए बहाने खोजोगे, इनसे बचोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तर्क करने, हठी या टेढ़ा होने का कोई अर्थ नहीं है—अगर परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो तुम उद्धार का अवसर खो दोगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना मुश्किल नहीं है। अहम बात यह है कि लोग क्या विकल्प चुनते हैं, वे सत्य की खोज और उसका अभ्यास करते हैं या नहीं। हालात चाहे जैसे भी हों, काट-छाँट, विफलताओं या नाकामियों का सामना भी करना पड़े, तो भी लोगों को आत्मचिंतन करके खुद को जानना और सत्य खोजना चाहिए। थोड़ा सत्य समझने के बाद उस पर अमल कर, सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए। ऐसा करते ही प्रगति और बदलाव दिखने लगेगा। हालांकि, काट-छाँट होने पर, अगर आप हमेशा बच निकलने, इनकार करने और बहाने बनाने की कोशिश करते हैं, तो आपको सत्य हासिल नहीं होगा, परमेश्वर भी आपसे नफरत करेगा और ठुकरा देगा। अपनी हालत पर गौर किया, तो काट-छाँट होने पर, मैंने उसे नहीं स्वीकारा, ईमानदारी से गलती मानकर समस्या पर विचार नहीं किया, अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए सक्रिय होकर सत्य नहीं खोजा। इसके बजाय, मैंने खुद को सीमाओं में बाँध लिया, नकारात्मक होकर इसका विरोध किया। क्या मैं विवेकहीन नहीं बन रही थी? यह सत्य को स्वीकार करने वाला रवैया नहीं था। यह समझ आने पर, नकारात्मक हालत में जीने और खुद को सीमित करने के बजाय मैं अपनी समस्याएं हल करने के लिए सत्य खोजना चाहती थी। मैं मनन करने लगी, सोचा कि क्यों मैं वैसे तो मीठा बोलती हूँ, मगर काट-छाँट किए जाने पर मैंने इसे नहीं स्वीकारा, नकारात्मक होकर इसकी अवज्ञा की। मैंने कैसा स्वभाव दिखाया?
अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े : “कुछ लोग इस बात को स्वीकार कर पाते हैं कि वे दानव हैं, शैतान हैं, और बड़े लाल अजगर की संतान हैं, वे आत्म-ज्ञान के बारे में बहुत सुंदर ढंग से बोलते हैं। लेकिन जब वे कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और कोई उन्हें उजागर करता है, उनकी काट-छाँट करता है, तो वे पूरी ताकत से खुद को सही ठहराने की कोशिश करेंगे और वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। यहाँ मुद्दा क्या है? इसमें, ये लोग पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। खुद को जानने की बात करते हुए वे बहुत ही सुंदर ढंग से बात करते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे सत्य स्वीकार नहीं पाते? यहाँ एक समस्या है। क्या इस तरह की बात काफी सामान्य नहीं है? क्या इसे समझना आसान है? हाँ, वास्तव में आसान है। काफी लोग ऐसे होते हैं जो आत्मज्ञान की बात करते समय यह मानते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, लेकिन बाद में न तो वे पश्चात्ताप करते हैं और न ही बदलते हैं। तो जिस आत्मज्ञान की वे बात करते हैं, वह सच है या झूठ? क्या उन्हें अपने बारे में सच्चा ज्ञान है या यह दूसरों को बरगलाने के लिए बस एक चाल है? उत्तर स्वतः स्पष्ट है। तो यह देखने के लिए कि क्या व्यक्ति के पास सच्चा आत्मज्ञान है, तुम्हें केवल उसके बारे में उसे बात करते नहीं सुनना चाहिए—तुम्हें काट-छाँट के प्रति उसका रवैया देखना चाहिए, और यह भी कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। जो व्यक्ति काट-छाँट को स्वीकार नहीं करता, उसमें सत्य न स्वीकारने और उसे स्वीकार करने से इंकार करने का सार होता है, और उसका स्वभाव सत्य से ऊबने का होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ लोगों ने चाहे कितनी भी भ्रष्टता दिखाई हो, वे दूसरों को अपने साथ काट-छाँट करने की अनुमति नहीं देते—कोई भी उनकी काट-छाँट नहीं कर सकता। वे अपने आत्मज्ञान के बारे में, जैसे चाहें वैसे बोल सकते हैं, लेकिन यदि कोई और उन्हें उजागर करे, उनकी आलोचना करे या उनकी काट-छाँट करे, तो चाहे वह कितना भी निष्पक्ष या तथ्यों के अनुरूप क्यों न हो, वे उसे नहीं स्वीकारेंगे। दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव के उनके किसी भी तरह के उद्गार को उजागर करे, वे अत्यंत विरोधी बने रहेंगे और लेशमात्र भी सच्चे समर्पण के बिना, अपने लिए सुनने में अच्छे लगने वाले तर्क देते रहते हैं। अगर ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो संकट आ पड़ेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। “लोगों के सत्य से घृणा करने की मुख्य अभिव्यक्ति सिर्फ एक विरक्ति नहीं जो लोगों को सत्य सुनने से होती है। उसमें सत्य का अभ्यास करने की अनिच्छा और सत्य का अभ्यास करने का समय आने पर पीछे हटना भी शामिल है, मानो सत्य का उनसे कोई लेना-देना न हो। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे दूसरों को गुमराह कर उनका दिल जीतने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत दोहराना और बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद करते हैं। जब वे ऐसा करते हैं, तो वे ऊर्जा से भरे हुए और उत्साहित प्रतीत होते हैं और लगातार बोलते रहते हैं। इस बीच दूसरे लोग सुबह से रात तक पूरा दिन आस्था से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते रहते हैं, प्रार्थना करते रहते हैं, भजन सुनते रहते हैं, नोट्स लेते रहते हैं, मानो वे पल-भर के लिए भी परमेश्वर से अलग न रह सकते हों। सुबह से शाम तक वे अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं। क्या ये लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं? क्या इनमें सत्य से चिढ़ने का स्वभाव नहीं होता? उनकी वास्तविक अवस्था कब देखी जा सकती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे भाग जाते हैं, और वे काट-छाँट स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) क्या ऐसा इसलिए हो सकता है कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं उसे समझ नहीं पाते या इसलिए कि चूँकि वे सत्य नहीं समझते इसलिए वे उसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते? उत्तर इनमें से कोई नहीं है। वे अपनी प्रकृति से शासित होते हैं। यह स्वभाव की समस्या है। अपने दिल में ये लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, कि वे सकारात्मक हैं, कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभावों में बदलाव आ सकता है और वह उन्हें परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम बना सकता है, लेकिन वे उन्हें स्वीकारते नहीं या उनका अभ्यास नहीं करते। यही सत्य से चिढ़ना है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। परमेश्वर के वचन से, मैंने जाना कि लोगों में सत्य से ऊबने का स्वभाव होता है, जहां वे सत्य को स्वीकारने से मना करते हैं, काट-छाँट को ठुकराते हैं और सत्य का अभ्यास न करने की अभिव्यक्ति दिखाते हैं। आत्मचिंतन करने पर एहसास हुआ कि भले ही मैं हर दिन परमेश्वर के वचन खाती-पीती और अपना कर्तव्य निभाती थी, और सभाओं में, परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्वीकार कर पाती थी कि मुझमें भ्रष्ट स्वभाव है, मेरा संबंध शैतान से है, मैं बड़े लाल अजगर की संतान हूँ, वगैरह वगैरह। ऊपर-ऊपर से लगता था कि मैं सत्य स्वीकारती हूँ, पर अपने कर्तव्य में लापरवाह होने को लेकर काट-छाँट किए जाने पर, मैंने खुद को सही ठहराने की कोशिश की, दूसरों पर आरोप मढ़े और अपनी भ्रष्टता को नहीं स्वीकारा। मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य स्वीकारने या उस पर अमल करने वाली इंसान नहीं हूँ, मैंने हर चीज में सत्य से ऊबने का शैतानी स्वभाव दिखाया। मैं जानती थी कि एक सिंचन कर्मी के लिए जिम्मेदार और धैर्यवान होना न्यूनतम शर्त है। नये सदस्यों ने अभी तक सच्चे मार्ग पर अपने कदम नहीं जमाये हैं, और वे नवजात शिशुओं जैसे, और जीवन में बहुत कमजोर होते हैं। अगर वे सभाओं में नहीं आते, तो हमें उनकी हालत जानने की कोशिश करनी चाहिए और फौरन उनके सिंचन और मदद का तरीका ढूंढना चाहिए। मैं इन सिद्धांतों को समझती थी, पर जब इन पर अमल करने, कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की बारी आई, तो मैंने ऐसा नहीं करना चाहा। मैं अच्छी तरह सत्य जानती थी मगर उस पर अमल नहीं किया। इस नई सदस्य का कुछ बार अभिवादन करने के सिवाय मैंने कोई सिंचन या सहयोग नहीं दिया। जब वह नियमित रूप से सभाओं में नहीं आने लगी, तो मुझे न फिक्र हुई, न मैंने सोचा कि कैसे उससे फौरन संपर्क करूँ या उसकी समस्याओं और परेशानियों को समझूँ। मैं लापरवाह और गैर-जिम्मेदार बनी रही, जिस कारण से वह कलीसिया छोड़कर चली गई। फिर भी, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। जब सुपरवाइजर ने मेरी समस्याएं बताईं, तो मैंने अपनी लापरवाही के लिए बहाने बनाने का हर तरीका आजमाया, इस उम्मीद में कि सारी जिम्मेदारी समूह अगुआ और सुसमाचार प्रचारक पर डाल दूँ। यह सत्य को स्वीकारने और उसका पालन करने वाला रवैया कैसे था? मैंने सिर्फ सत्य से ऊबने वाला स्वभाव ही दिखाया!
मैंने सत्य की खोज करना जारी रखा और परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : “जिन परिस्थितियों के कारण किसी के साथ काट-छाँट की जाती है, उनके प्रति सबसे महत्वपूर्ण रवैया क्या होना चाहिए? पहले तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन तुम्हारी काट-छाँट कर रहा है, इसका कारण क्या है, चाहे वह कठोर लगे, लहजा और शब्द कैसे भी हों, तुम्हें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुमने क्या गलत किया है, तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तो सबसे पहले तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। क्या मसीह-विरोधियों का रवैया ऐसा होता है? नहीं; शुरू से अंत तक, उनका रवैया प्रतिरोध और घृणा का होता है। क्या ऐसे रवैये के साथ, वे परमेश्वर के सामने शांत होकर, नम्रता से काट-छाँट को स्वीकार कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। तो फिर वे क्या करेंगे? सबसे पहले तो वे लोगों की समझ और क्षमा पाने की आशा में, जोरदार बहस करेंगे और तर्क देंगे, अपनी गलतियों और उजागर किए गए भ्रष्ट स्वभावों का बचाव करेंगे, उसके पक्ष में बहस करेंगे ताकि उन्हें कोई जिम्मेदारी न लेनी पड़े या उन वचनों को स्वीकार न करना पड़े जो उनकी काट-छाँट करते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनका क्या रवैया होता है? ‘मैंने पाप नहीं किया है। मैंने कुछ गलत नहीं किया है। अगर मुझसे कोई भूल हुई है, तो उसका कारण था; अगर मैंने कोई गलती की है, तो मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, तो मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। थोड़ी-बहुत गलतियाँ कौन नहीं करता?’ वे इन कथनों और वाक्यांशों को पकड़ लेते हैं, उनसे कसकर चिपके रहते हैं और जाने नहीं देते, लेकिन वे सत्य नहीं खोजते, न तो वे अपनी की हुई गलती स्वीकारते हैं और न ही अपना प्रकट किया हुआ भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारते हैं—और बुराई करने में उनका जो इरादा और मकसद होता है, उसे तो निश्चित रूप से नहीं स्वीकारते। ... तथ्य किसी भी प्रकार से उनके भ्रष्ट स्वभाव को बाहर ले आएँ, वे उसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि अपना बचाव और प्रतिरोध करते रहते हैं। लोग कुछ भी कहें, वे उसे स्वीकारते या मानते नहीं, बल्कि सोचते हैं, ‘देखते हैं कौन किसको बातों में हरा सकता है; देखते हैं किसकी जबान ज्यादा तेज चलती है।’ यह एक प्रकार का रवैया है जिसे मसीह-विरोधी काट-छाँट के प्रति अपनाते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि जब सामान्य लोगों की काट-छाँट होती है, तो वे इसे परमेश्वर से आया मानते हैं, इसे स्वीकार कर इसका पालन करते हैं, आत्मचिंतन करते हैं, और सच्चा पश्चाताप कर खुद को बदलते हैं। अगर उस समय इसे स्वीकार नहीं पाते, तो बाद में, निरंतर सत्य की खोज और चिंतन करके काट-छाँट से सबक सीख पाते हैं। मगर एक मसीह-विरोधी में सत्य से ऊबने और नफरत करने की प्रकृति होती है। काट-छाँट किए जाने पर, वे कभी आत्मचिंतन नहीं करते। वे केवल प्रतिरोध, अस्वीकार और नफरत का रवैया दिखाते हैं। अपने व्यवहार पर विचार किया, तो जाना कि मैंने साफ तौर पर लापरवाही की, और समय रहते नई सदस्य की मदद नहीं की, जिस कारण से वह कलीसिया छोड़कर चली गई। यह एक अपराध था। जिसके पास ज़रा भी विवेक और समझ होगी, उसे दुःख और अपराध-बोध होगा, वह अपनी समस्याओं पर चिंतन करेगा और इस मामले में आगे कुछ नहीं कहेगा। मगर मैंने न तो खुद को ऋणी माना, न ही अपनी समस्याओं को स्वीकारा। मैंने ऐसे प्रत्यक्ष सच का सामना किया, फिर भी मैंने जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की, पहले तो कहा कि वो सदस्य मुझे जवाब नहीं दे रही थी, फिर कहा कि समूह अगुआ गैर-जिम्मेदार थी, आखिर में, मैंने सुसमाचार प्रचारक पर दोष मढ़ दिया, ताकि मुझे जिम्मेदारी से छुटकारा मिल जाये और मैं सुपरवाइजर का भरोसा जीत सकूं। परमेश्वर के प्रकाशन और काट-छाँट का सामना होने पर, मैंने ज़रा-भी आत्मचिंतन नहीं किया। इसके बजाय, मैंने प्रतिरोध किया, खुद को बचाने और सही ठहराने के लिए कई बहाने बनाये, क्योंकि मैं जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी। मुझमें भला किस तरह से इंसानियत या विवेक था? मैंने देखा कि मैंने अड़ियल और सत्य से ऊबने वाला स्वभाव दिखाया। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था। मैंने देखा कि इतने बरस परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मेरा स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था, मुझे बहुत दुःख हुआ।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मैं काट-छाँट को न स्वीकारने की अपनी समस्या को बेहतर ढंग से समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिलकुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से परेशान हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक परेशान रहते हैं। चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करता है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे ‘मरने तक नकारते रहो’ के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे जो उजागर या विश्लेषण करें, वे उन्हें नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपनी हैसियत, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और जिम्मेदारी से इनकार करने का होता है। उनमें अंतःकरण और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से ऊबने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें अंतःकरण, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और समझ का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? मसीह-विरोधियों का सार शैतान का सार होता है। वे परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाते हों, वे उसे नहीं देखते। वे अपने दिल में इससे जरा भी परेशान नहीं होते, न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिलकुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिलकुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। यह शैतान है, और शैतान में कोई जमीर या समझ नहीं होती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी काट-छाँट नहीं स्वीकारते, क्योंकि उनकी प्रकृति सत्य से ऊब जाने और इससे नफरत करने की होती है, क्योंकि वे खास तौर पर अपने हितों को संजोते हैं। जब उनकी शोहरत को कोई खतरा और नुकसान होता है, तो वे खुद को सही ठहराने और अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने के बहाने ढूँढने की भरसक कोशिश करते हैं। उनके कर्मों से कलीसिया के हितों या भाई-बहनों के आध्यात्मिक जीवन को नुकसान पहुंचे, तब भी उन्हें कोई पछतावा या अफ़सोस नहीं होता है। ऐसे काम करते हुए पाये जाने पर भी, वे अड़ियल बनकर इसकी जिम्मेदारी नहीं लेते, इस डर से कि जिम्मेदारी मान लेने से उनकी शोहरत और रुतबे को नुकसान होगा। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी खास तौर पर स्वार्थी और नीच होते हैं, उनमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं होती, वे असल में दानव हैं। जब मैंने “दानव” शब्द देखा, तो मुझे बहुत बुरा लगा, मैंने जो व्यवहार और स्वभाव दिखाया, वह एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैंने साफ तौर पर गलती की थी, कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचाया था, फिर भी इसे नहीं स्वीकारा। काट-छाँट किए जाने पर, मैंने खुद को सही ठहराया, दूसरों पर जिम्मेदारी डालने की कोशिश की। नए विश्वासियों के लिए सुसमाचार को स्वीकारना कोई सहज प्रक्रिया नहीं है—इसके लिए बहुत से लोगों को कीमत चुकानी पड़ती है और उनका सिंचन और पोषण करना होता है ताकि उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाया जा सके। परमेश्वर खास तौर पर सभी के लिए जिम्मेदार होता है। अगर वह सौ भेड़ों में से एक भी भेड़ खो देता है, तो बाकी निन्यानबे भेड़ों को छोड़ अपनी खोई हुई भेड़ खोजेगा, वह हर इंसान के जीवन को गहराई से संजोता है। मगर जब मैं नये सदस्यों के सिंचन के लिए जिम्मेदार थी, तो मैंने लापरवाह रवैया अपनाया। नई सदस्य को सभाओं में शामिल न होते देख मुझे कोई चिंता नहीं हुई। कभी-कभार मैं बस यूं ही पूछ लेती थी, मैंने समूह अगुआ के कामकाज की खोज-खबर रखने में भी लापरवाही की और गैर-जिम्मेदार बन गई। जब उसने कई बार मुझे जवाब नहीं दिया, तो मैंने फौरन इसकी वजह नहीं पूछी, यह भी नहीं जाँचा कि उसे कोई समस्या या परेशानी तो नहीं थी। मैंने उसके साथ लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैया अपनाया, उसके जीवन को ज़रा-भी गंभीरता से नहीं लिया। फिर भी, मुझे कोई पछतावा या अपराध-बोध नहीं हुआ, मैंने मामले को सुधारने की कोशिश भी नहीं की। जब सुपरवाइजर ने बताया कि मैंने लापरवाही की थी, गैर-जिम्मेदार थी, तो मैंने तर्क देकर खुद को सही ठहराने की भरसक कोशिश की और जिम्मेदारी से बचने के बहाने ढूंढे, क्योंकि मुझे डर था कि अपनी समस्या स्वीकारी तो जिम्मेदारी लेनी होगी, इससे सुपरवाइजर के मन में मेरी खराब छवि होगी, मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। शुरू से अंत तक, मैंने कभी भी कलीसिया के काम की परवाह नहीं की, और कभी यह नहीं सोचा कि कहीं इससे नई सदस्य के जीवन को नुकसान तो नहीं पहुंचेगा। सिर्फ यह सोचा कि मेरे हितों को नुकसान न पहुंचे, मैं अपनी छवि और रुतबा बनाये रख पाऊं। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी, मैंने सिर्फ अपने निजी हितों की रक्षा की। मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी, परमेश्वर को मुझसे नफरत थी। फिर, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, कहा, “परमेश्वर, मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही की, जिसके गंभीर परिणाम हुए, पर मैंने इसे नहीं स्वीकारा। मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश की नहीं, बल्कि अपनी शोहरत और रुतबे के बारे में सोचा। मुझमें सचमुच इंसानियत नहीं थी! परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ।”
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, जिससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “सत्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, लेकिन अगर लोग हमेशा सत्य से ऊबते रहे, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे? नहीं। तो तुम्हें हमेशा परमेश्वर के सामने आना चाहिए, सत्य से ऊबने की अपनी आंतरिक अवस्थाओं की जांच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए तुममें सत्य से ऊबने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं और किस प्रकार से कार्य करना सत्य से ऊबना है, और किन बातों में तुम सत्य से ऊबने की मनोवृत्ति रखते हो—तुम्हें इन बातों पर अक्सर आत्मचिंतन करते रहना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो पहली बात यह कि अगर चीजें तुम्हारे अनुसार न हों, तो आवेश में आने से बचना चाहिए। पहले मन को शांत करो और परमेश्वर के सामने मौन रहो, मन ही मन उससे प्रार्थना करो और उससे खोजो। हठी मत बनो; पहले समर्पित हो जाओ। ऐसी मानसिकता से ही तुम समस्याओं का बेहतर समाधान कर सकते हो। यदि तुम परमेश्वर के सामने जीने में दृढ़ रह सको, और तुम पर चाहे जो भी मुसीबत आए, उसमें उससे प्रार्थना करने और रास्ता दिखाने के लिए कहने में समर्थ हो, और तुम समर्पण की मानसिकता से उसका सामना कर सकते हो, तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की कितनी अभिव्यक्तियाँ हैं, या तुमने पहले क्या-क्या अपराध किए हैं—अगर तुम सत्य की खोज करो, तो उन सभी समस्याओं को हल कर पाओगे। तुम्हारे सामने कैसी भी परीक्षाएँ आएँ, तुम दृढ़ रह पाओगे। अगर तुम्हारी मानसिकता सही है, तुम सत्य स्वीकारते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसका आज्ञापालन करते हो, तब तुम सत्य पर पूरी तरह अमल कर सकोगे। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े विद्रोही और प्रतिरोधी हो सकते हो और कभी-कभी रक्षात्मक समझ दिखाते हो और समर्पण नहीं कर पाते हो, पर यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी विद्रोही प्रवृत्ति को बदल सको, तो तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो। ऐसा करने के बाद, इस पर विचार करो कि तुम्हारे अंदर विद्रोह और प्रतिरोध क्यों पैदा हुआ। कारण का पता लगाओ, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो, और तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के उस पहलू को शुद्ध किया जा सकता है। ऐसी ठोकरें खाने और गिरकर उठने के बाद, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने लगोगे, तब तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। और फिर, तुम्हारे अंदर सत्य का राज हो जाएगा और वह तुम्हारा जीवन बन जाएगा। उसके बाद, तुम्हारे सत्य के अभ्यास में कोई और बाधा नहीं आएगी। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य वास्तविकता को जिओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन से मैंने समझा कि सत्य से ऊबने के स्वभाव को ठीक करने के लिए, मुझे बार-बार आत्मचिंतन करना चाहिए, यह जांचना चाहिए कि कहीं मेरे बयानों, अभ्यासों, इरादों, रवैयों और रायों में सत्य से ऊबने की झलक तो नहीं दिखती है। कोई बात हो जाए, तो वह मेरी इच्छा के अनुरूप हो या न हो, मुझे पहले खुद को शांत कर प्रतिरोध नहीं करना है। अगर मैं दूसरों की बातें स्वीकार न सकूं और खुद को सही ठहराने के बहाने ढूंढने लगूं, तो परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी होगी, और ज्यादा सत्य खोजना होगा, परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना होगा, उनका इस्तेमाल कर आत्मचिंतन करना होगा, या उन भाई-बहनों से संगति लेनी होगी जो सत्य समझते हैं। इस तरह, धीरे-धीरे सत्य स्वीकार कर, इसकी वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकती हूँ; तभी थोड़ा-थोड़ा करके अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर पाऊँगी। अभ्यास का मार्ग समझ आने पर, मैंने बदलने का संकल्प लिया।
यह जानकर कि इस नई सदस्य की हालत पर समय रहते गौर नहीं करना दरअसल एक अपराध था, मैंने फौरन चीजों को बदलने की कोशिश की। मैंने देखा कि क्या मैं ऐसे किसी नये सदस्य का ठीक से सिंचन करने में नाकाम रही, जिसकी जिम्मेदारी मुझ पर थी। एक नई सदस्य के साथ चैट करते हुए, मुझे पता चला कि वह प्रभु की वापसी से जुड़े सत्य को और परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को ठीक से नहीं समझती थी। मैंने अपनी अगुआ से पूछा कि क्या सुसमाचार प्रचारक को उसके साथ संगति करनी चाहिए, पर अगुआ ने मुझे उसके साथ संगति करने को कहा। हालांकि मैं जानती थी कि नई सदस्यों की समस्याओं को फौरन हल करना मेरी जिम्मेदारी थी, फिर भी मैंने प्रतिरोध किया। मैं अगुआ की बात मानने के बजाय बहस करना चाहती थी। मुझे लगा कि सुसमाचार प्रचारक ने अच्छे से संगति नहीं की थी इसलिए ऐसा हुआ, तो फिर इस मामले की जिम्मेदारी मेरी क्यों है? इतने सारे नये सदस्य हैं, तो मेरे पास ज़्यादा समय नहीं था, उसके साथ संगति तो सुसमाचार प्रचारक को करनी चाहिए। फिर एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं थी। दरअसल, मेरी अगुआ ने जो कहा वो उचित था। सुझाव सही था, तो मैं इसे क्यों नहीं स्वीकार पाई? मैं अभी भी बहस क्यों करना चाहती थी? मैंने बात क्यों नहीं मानी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, राह दिखाने को कहा ताकि मैं समर्पण कर सकूं, अपने सांसारिक सुख की न सोचूँ और नये सदस्य के जीवन के लिए जिम्मेदार बनूँ। मैंने महसूस किया कि हर किसी की समझने की क्षमता अलग-अलग होती है। कुछ लोग सुसमाचार प्रचारक की संगति सुनकर उसी समय बात को समझ जाते हैं, पर बाद में कुछ पहलुओं को लेकर वे उलझ जाते हैं। इसके लिए सिंचन कर्मियों को संगति करके कमियों की भरपाई करनी होती है। यह मिल-जुलकर किया जाने वाला सहयोग है। एक सिंचन कर्मी होने के नाते, समस्या होने पर उसे हल करना मेरा काम है। मुझे चुनकर आसान समस्याएं हल करना और मुश्किल समस्याएं दूसरों पर छोड़ना नहीं चाहिए, परेशानी से बचने और आराम पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने कर्तव्य में मुझे शर्तें रखना या बहाने बनाना नहीं चाहिए। अगर किसी नये सदस्य को मुझे सौंपा जाता है, तो उसका अच्छे से सिंचन करना मेरी जिम्मेदारी है, ताकि वह पक्के तौर पर सत्य समझ जाए और सच्चे मार्ग पर उसकी नींव मजबूत हो। यह मेरा कर्तव्य है। यही सचमुच सत्य का अभ्यास और वास्तविक बदलाव है। इस बारे में सोचकर, मेरा दिल रोशन हो गया। मैं फौरन इस सदस्य को ढूंढकर उसकी समस्या के बारे में उससे संगति करने निकल गई। इस तरह अभ्यास करने पर, मेरा प्रतिरोध ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि मुझे बहुत खुशी भी मिली। मैं समझ गई कि सत्य का अभ्यास करना कोई दिखावे का काम नहीं है। इसके बजाय, यह परमेश्वर के वचन को दिल से स्वीकारना, सत्य सिद्धांतों पर अमल करना, लोगों और चीजों को देखने, काम करने और व्यवहार करने के मानदंड के रूप में परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल करना है। इस तरह, अनायास परमेश्वर के वचन के सत्य, हमारे गलत इरादों, गलत सोच और भ्रष्ट स्वभाव की जगह ले लेंगे।
उस अनुभव के बाद, मुझे अड़ियल होने और सत्य से ऊब जाने के अपने शैतानी स्वभाव की थोड़ी समझ हासिल हुई। मैंने सत्य खोजने और सभी चीजों में सिद्धांत के अनुसार कार्य करने के महत्व को भी जाना। यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचन पढ़ने का नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद!
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