क्या आस्था द्वारा उद्धार परमेश्वर के राज्य में प्रवेश दिलाता है?
महामारी लगातार फैल रही है, भूकंप, बाढ़, कीटों का झुंड, अकाल आने शुरू हो गए हैं। बहुत लोग लगातार बेचैनी की स्थिति में जी रहे हैं, विश्वासी उत्सुकता से प्रभु के बादल पर आने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि वह उन्हें आसमान में ले जाए, और वे आपदाओं की पीड़ा और मृत्यु से बच जाएँ। उन्हें समझ नहीं आता कि क्यों उन्हें अभी तक प्रभु से मिलने के लिए ऊपर नहीं ले जाया गया है, वे दिन भर आकाश की ओर टकटकी लगाए रहते हैं, पर दिखता कुछ नहीं। कई लोग बहुत ही दुखी हैं, खासकर कलीसिया के बहुत-से याजकों को महामारी में खत्म होते देखकर। वे असहज महसूस करते हैं, कि प्रभु ने उन्हें दरकिनार कर दिया है और वे आपदाओं में पड़ गए हैं, और उनका बचना अनिश्चित है। वे भ्रमित और खोया हुआ महसूस करते हैं। प्रकाशितवाक्य में भविष्यवाणी है, प्रभु यीशु आपदाओं से पहले आएगा और हमें आसमान में ले जाएगा, ताकि हम आपदाओं से बच सकें। यही हमारी आशा है। हमारी आस्था आपदाओं से बचकर अनंत जीवन पाने के लिए है। लेकिन आपदाएँ बरसनी शुरू हो गई हैं, फिर प्रभु विश्वासियों को लेने बादल पर क्यों नहीं आया? हमारी आस्था द्वारा हमारे पाप क्षमा हो जाते हैं, हमें उद्धार का अनुग्रह और धार्मिकता मिलती है। फिर हमें स्वर्ग के राज्य में क्यों नहीं ले जाया गया है? हमने कई सालों तक प्रभु का बेचैनी से इंतजार किया है, बहुत पीड़ा सही है। वो हमारे लिए क्यों नहीं आया, हमें अपने साथ क्यों नहीं ले गया, ताकि हम उससे मिलकर आपदाओं से बच जाएँ? क्या उसने सच में हमें किनारे कर दिया है? बहुत-से विश्वासियों के ये सवाल हैं। अच्छा, क्या आस्था द्वारा उद्धार सच में हमें राज्य में ले जा सकता है? इस विषय पर मैं अपनी कुछ व्यक्तिगत समझ साझा करूँगा।
लेकिन इस पर संगति से पहले एक बात स्पष्ट कर लेते हैं। क्या आस्था द्वारा उचित ठहराए जाने और इस तरह राज्य में जाने के विचार का परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? क्या प्रभु यीशु ने कभी यह कहा कि आस्था द्वारा उचित ठहराया जाना और उद्धार का अनुग्रह उसके राज्य में प्रवेश के लिए काफी है? उसने कभी नहीं कहा। क्या कभी पवित्र आत्मा ने इसकी गवाही दी? नहीं। इसलिए हम निश्चित हो सकते हैं कि यह विचार पूरी तरह से इंसानी धारणा है, और हम राज्य में प्रवेश करने के लिए इसके भरोसे नहीं रह सकते। वास्तव में प्रभु यीशु इस बारे में बहुत स्पष्ट था कि राज्य में कौन प्रवेश कर सकता है। प्रभु यीशु ने कहा था, “जो मुझ से, ‘हे प्रभु! हे प्रभु!’ कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:21-23)। “मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है” (यूहन्ना 8:34-35)। “इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ” (लैव्यव्यवस्था 11:45)। “पवित्रता के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा” (इब्रानियों 12:14)। प्रभु यीशु ने हमें स्पष्ट बताया था कि केवल परमेश्वर की इच्छा पूरी करने वाले ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, केवल उन्हें ही राज्य में जगह मिलेगी जो पाप से बचकर शुद्ध किए जाते हैं। प्रवेश पाने का यही एकमात्र मानक है। क्या पाप से छुटकारा पाने और आस्था द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ यह है कि लोग प्रभु की इच्छा पूरी कर रहे हैं? कि वे अब पाप नहीं करते, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध नहीं करते? बिलकुल नहीं। प्रभु के सभी विश्वासी देख सकते हैं कि भले ही हम आस्था द्वारा छुड़ाए और उचित ठहराए गए हैं, पर हम निरंतर पाप कर रहे हैं, दिन में पाप करने और रात को उसे स्वीकारने के कुचक्र में जी रहे हैं। हम पाप से बचने में असमर्थ होने के दर्द में जी रहे हैं—और कुछ नहीं कर पा रहे। सभी संप्रदायों में ऐसे लोग हैं जो ईर्ष्यालु और झगड़ालू हैं, शोहरत और लाभ के लिए लड़ते हैं, एक-दूसरे के बारे में गलत बातें बोलते हैं। ये बहुत आम बात है। ज्यादातर लोगों की आस्था केवल परमेश्वर का अनुग्रह पाने के लिए है, लेकिन वे वो नहीं करते जो वह कहता है। वे मुसीबत में कलीसिया की ओर दौड़ते हैं, पर शांति के समय सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं। कलीसियाओं में बस एक के बाद एक पार्टी हो रही है। कोई भी सत्य पर संगति नहीं कर रहा, न अपनी गवाही साझा कर रहा है, सभी बस इस होड़ में लगे हैं कि किसे ज्यादा अनुग्रह, सर्वोच्च आशीष मिलते हैं। बड़ी आपदाओं के आने और स्वर्ग ले जाने के लिए प्रभु को बादलों पर आता न देख, बहुत-से लोगों की आस्था और प्रेम ठंडा पड़ रहा है, और वे परमेश्वर को दोष देने और उसकी आलोचना करने लगे हैं। कुछ ने उसे नकारकर धोखा दे दिया है। तथ्य हमें बताते हैं कि पाप क्षमा होने और उद्धार का अनुग्रह पाने से लोगों का व्यवहार बेहतर हो सकता है, पर इसका अर्थ ये नहीं कि वे पाप से पूरी तरह बच गए हैं, और वे परमेश्वर की अवज्ञा नहीं करते, इसका ये अर्थ तो बिलकुल नहीं कि उन्होंने पवित्रता पा ली है और राज्य के योग्य बन गए हैं। यह बस खयाली पुलाव है। इसलिए अब हम यह तथ्य देखकर समझ सकते हैं कि प्रभु यीशु ने क्यों कहा कि उसके नाम पर प्रचार करने वाले और दुष्टात्माओं को निकालने वाले कुकर्मी हैं, उन्होंने उसे कभी नहीं जाना। ऐसा इसलिए है क्योंकि पाप क्षमा हो जाने के बाद भी लोग लगातार पाप कर रहे हैं, और प्रभु को दोष देकर उसकी आलोचना कर रहे हैं। प्रभु को आता न देख वे शिकायतों से भर गए हैं, और उसे नकारने और धोखा देने लगे हैं। कुछ तो ये भी कहते हैं कि अगर प्रभु उन्हें अपने राज्य में नहीं ले गया तो वे उससे बहस करेंगे। ये लोग प्रभु यीशु की निंदा और दमन करने वाले फरीसियों जैसे ही हैं, या शायद उनसे भी बुरे। दूसरे लोग स्पष्ट देख सकते हैं कि वे कैसा व्यवहार कर रहे हैं, परमेश्वर की नजरों में वे बेशक कुकर्मी हैं। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है, तो क्या वो निरंतर पाप करने वालों को, अपनी आलोचना और विरोध करने वालों को स्वर्ग जाने देगा? बिलकुल नहीं। और इसलिए, लोगों का यह विश्वास कि आस्था के कारण उचित ठहराए जाने से वे राज्य में जा सकते हैं, एक धारणा है और प्रभु के वचनों और सत्य के विरुद्ध है। यह पूरी तरह से इंसानी धारणा और कल्पना है, जो अनावश्यक इच्छाओं से जन्मी है।
यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि बाइबल में अनुग्रह द्वारा आस्था के माध्यम से बचाए जाने का आधार है : “क्योंकि धार्मिकता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुँह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:10)। “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्वर का दान है” (इफिसियों 2:8)। तो अगर हम इस तरह राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते, तो आखिर “उद्धार” का क्या मतलब है? सर्वशक्तिमान परमेश्वर हमें सत्य के इस रहस्य के बारे में बताता है। आइए, उसके वचनों पर एक नजर डालें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “उस समय यीशु का कार्य समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाना था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; अगर तुम उस पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हें छुटकारा दिलाएगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते, तो तुम पाप के नहीं रह जाते, तुम अपने पापों से मुक्त हो जाते हो। यही बचाए जाने और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ है। फिर विश्वासियों के अंदर परमेश्वर के प्रति विद्रोह और विरोध का भाव था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2))। “मनुष्य को ... पाप क्षमा कर दिए जाते थे, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध था कि मनुष्य को उसके भीतर के शैतानी स्वभावों से कैसे मुक्त किया जाए, तो यह कार्य अभी किया जाना बाकी था। मनुष्य को उसके विश्वास के कारण केवल बचाया गया था और उसके पाप क्षमा किए गए थे, किंतु उसका पापी स्वभाव उसमें से नहीं निकाला गया था और वह अभी भी उसके अंदर बना हुआ था। ... मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। इससे हम देख सकते हैं कि प्रभु यीशु इंसानों के लिए पाप-बलि के रूप में क्रूस पर चढ़ा, और उसने हमें पापों से छुड़ाया। पाप क्षमा कराने के लिए हमें बस प्रभु के सामने अपने पाप स्वीकार कर पश्चात्ताप करना है। फिर हम दोषी नहीं रहते और व्यवस्था के तहत मृत्युदंड नहीं पाते। प्रभु अब हमें पापी नहीं समझता और शैतान अब हम पर आरोप नहीं लगा सकता। हमें प्रभु के सामने आकर प्रार्थना करने और उसके द्वारा दी जाने वाली शांति और खुशी के साथ उसके अत्यधिक अनुग्रह और आशीष का आनंद लेने की अनुमति है। यहाँ “उद्धार” पाने का यही अर्थ है। आस्था के कारण उद्धार पाने का मतलब सिर्फ पापों की क्षमा और व्यवस्था के तहत दोषी न ठहराया जाना है। न कि एक बार बचाए लिए गए तो हमेशा के लिए बचा लिए गए और राज्य में प्रवेश के योग्य हो गए, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। “उद्धार” के बारे में बाइबल में जो उल्लेख है, वह पौलुस का विवरण है, प्रभु यीशु या पवित्र आत्मा ने ऐसा कभी नहीं कहा। हम बाइबल में दर्ज किसी इंसान के वक्तव्य को आधार नहीं मान सकते, केवल प्रभु यीशु के वचन ही आधार हो सकते हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि जब प्रभु ने हमारे पाप क्षमा कर दिए, और परमेश्वर अब हमें पापी नहीं समझता और हमें धार्मिक कहता है, तो हम राज्य में क्यों नहीं ले जाए जा सकते? यह सच है कि परमेश्वर ने हमें धार्मिक कहा, लेकिन उसने ये नहीं कहा कि हमारे पाप क्षमा होने का अर्थ यह है कि हम राज्य के योग्य हैं, या हम क्षमा पा चुके हैं इसलिए हम अभी भी पाप कर सकते हैं और फिर भी हम पवित्र रहेंगे। हमें समझना होगा कि परमेश्वर का स्वभाव पवित्र और धार्मिक है, वह निरंतर पाप करने वाले को कभी पवित्र या अभी भी पाप करने वाले को पाप से मुक्त नहीं कहेगा। जिस विश्वासी के पाप क्षमा कर दिए गए हैं, वह भी परमेश्वर का विरोध और निंदा करने पर शापित हो सकता है। जैसा कि बाइबल कहती है, “क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)। प्रभु यीशु ने अपनी निंदा और विरोध करने के लिए फरीसियों को शाप दिया। क्या यह तथ्य नहीं है? सभी विश्वासी जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव अपमान नहीं सहता, और प्रभु यीशु ने कहा है, “मनुष्य का सब प्रकार का पाप और निन्दा क्षमा की जाएगी, परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा क्षमा न की जाएगी। जो कोई मनुष्य के पुत्र के विरोध में कोई बात कहेगा, उसका यह अपराध क्षमा किया जाएगा, परन्तु जो कोई पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ कहेगा, उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा” (मत्ती 12:31-32)। पापों की क्षमा सच में परमेश्वर का अनुग्रह है, पर क्षमा पाने के बाद भी अगर लोग परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते रहे, तो परमेश्वर उन्हें शाप और दंड देगा। अगर हमने परमेश्वर को फिर से सूली पर चढ़ाया, तो इसके नतीजे बुरे होंगे। लेकिन परमेश्वर प्रेम और करुणा है, इसलिए वह हमें पाप और दुष्टता से बचाना चाहता है, ताकि हम पवित्र बन जाएँ। इसीलिए प्रभु यीशु ने यह वादा किया था कि वो छुटकारे के काम के बाद वापस आएगा। वो किसलिए लौटेगा? वो इंसान को पाप और शैतान की ताकतों से पूरी तरह बचाने के लिए लौटेगा, ताकि हम परमेश्वर की ओर मुड़ें और उसके द्वारा प्राप्त किए जाएँ। केवल प्रभु की वापसी का स्वागत करने वाला विश्वासी ही स्वर्ग के राज्य में जाने की कुछ आशा कर सकता है। यहाँ कुछ लोग सोच सकते हैं, चूँकि हमारे पाप क्षमा कर दिए गए हैं, फिर हम पाप से बचकर पवित्र कैसे बन सकते हैं और राज्य में प्रवेश कैसे पा सकते हैं? ये सवाल हमें मुख्य बिंदु तक लाता है। केवल प्रभु यीशु की क्षमा स्वीकार कर लेना ही काफी नहीं है। हमें प्रभु के आगमन का स्वागत कर उसके कार्य के अगले कदम को भी स्वीकारना होगा, ताकि हम पाप से बच सकें, परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचाए जा सकें और राज्य के योग्य बन सकें। जैसी प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की थी, “मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा” (यूहन्ना 16:12-13)। “यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा” (यूहन्ना 12:47-48)। “पिता किसी का न्याय नहीं करता, परन्तु न्याय करने का सब काम पुत्र को सौंप दिया है। ... वरन् उसे न्याय करने का भी अधिकार दिया है, इसलिये कि वह मनुष्य का पुत्र है” (यूहन्ना 5:22, 27)। और “क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्वर के लोगों का न्याय किया जाए” (1 पतरस 4:17)। इस पर ध्यान से सोचें तो हम समझ सकते हैं कि प्रभु यीशु अंत के दिनों में मनुष्य के पुत्र के रूप में लौटेगा, सत्य व्यक्त कर न्याय का कार्य करेगा, सभी सत्यों में प्रवेश करने की राह दिखाएगा, ताकि हम पाप और शैतान की ताकतों से पूरी तरह मुक्त होकर पूर्ण उद्धार पा सकें। इसलिए अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारना और अपनी भ्रष्टता से शुद्धि पाना ही स्वर्ग के राज्य में जाने का एकमात्र मार्ग है। आइए, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश देखें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। “यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सब-कुछ स्पष्ट नहीं कर देते? अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु ने छुटकारे का काम किया, जो इंसान के पाप क्षमा करना और हमें उनसे छुटकारा दिलाना था—ये सच है। पर लोगों की पापी प्रकृति का समाधान नहीं हुआ है, हम परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं, इसलिए इसे पूरी तरह बचाया जाना नहीं कहा जा सकता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में आकर कई सत्य व्यक्त कर रहा है, और प्रभु यीशु के छुटकारे के काम की नींव पर परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय-कार्य कर रहा है। वह इंसान को पूरी तरह से शुद्ध करके बचाने और हमें परमेश्वर के राज्य में ले जाने आया है। अंत के दिनों का परमेश्वर का न्याय-कार्य इंसान को बचाने का सबसे मुख्य और बुनियादी काम है, और यह हमारे लिए शुद्ध होने और पूरी तरह बचाए जाने का एकमात्र मार्ग है। यह स्वर्णिम अवसर है, हमारे लिए स्वर्ग के राज्य में जाने का एकमात्र अवसर है। हम कह सकते हैं कि परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय-कार्य विश्वासियों को स्वर्गारोहित करने का कार्य है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से हमारी भ्रष्टता शुद्ध की जा सकती है, फिर हम बड़ी आपदाओं से बचाए और परमेश्वर के राज्य में ले जाए जा सकेंगे। यही वास्तव में स्वर्गारोहित होना है। अगर हम इस काम के साथ कदम न मिला पाए, तो हमारी आस्था कितनी भी पुरानी हो, हमने कितना भी कष्ट सहा हो, कीमत भी चुकाई हो, सब व्यर्थ हो जाएगा। यह आधे में ही छोड़ देना है, इससे हमारे सभी पिछले प्रयास व्यर्थ हो जाएँगे। हम आपदा में पड़ जाएँगे और रोते हुए अपने दाँत पीसेंगे। परमेश्वर अपना विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति को अपने राज्य में नहीं ले जाएगा। यह उसके धार्मिक स्वभाव से तय होता है।
कुछ लोग पूछ सकते हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर इंसान को बचाने और शुद्ध करने का ये न्याय-कार्य कैसे करता है? आइए देखें, वह इस बारे में क्या कहता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने लाखों वचन कहे हैं, हमारी भ्रष्टता की शुद्धि और हमारे उद्धार के लिए जरूरी सभी सत्य बताए हैं। वह हमारी पापमय, परमेश्वर-विरोधी शैतानी प्रकृति और हमारे भ्रष्ट स्वभाव के सभी पहलुओं का न्याय कर उन्हें उजागर करता है, हमारी सबसे गहरी छिपी घिनौनी प्रेरणाओं और धारणाओं को उजागर कर देता है। हम जितना अधिक ईश-वचन पढ़ते हैं, उतना अधिक न्याय का अनुभव करते हैं, हम देख पाते हैं कि शैतान ने हमें कितनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया है, हम कितने अहंकारी और झगड़ालू हैं। हम बहुत कपटी, स्वार्थी और लालची हैं, हम हर चीज में शैतानी दर्शनों और नियमों के अनुसार जीते हैं, हमेशा अपने हितों की रक्षा करते हैं। हमारी आस्था और कलीसिया के लिए काम करना भी पुरस्कार और राज्य में प्रवेश पाने के लिए है। हमारा कोई जमीर या विवेक नहीं है, बल्कि हम बिलकुल शैतान की तरह जीते हैं। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के जरिये हम आखिरकार देख पाते हैं कि उसकी धार्मिकता अपमान नहीं सहती। परमेश्वर सच में हमारे दिल और दिमाग में देखता है, अगर हम मुँह से न भी बोलें, तो भी परमेश्वर हमारी सोच को, हमारे दिल की गहराई में मौजूद भ्रष्टता को सामने ले आता है। छिपने की कोई जगह न पाकर हम बहुत शर्मिंदा होते हैं, और हममें परमेश्वर का भय बढ़ता है। प्रार्थना में अपने दिल की बातें कह पाते हैं, और ईमानदारी से अपने गलत विचार और सोच खुलकर बता सकते हैं, जमीर और विवेक हासिल करते हैं। झूठ बोलने पर हम तुरंत बता देंगे और प्रायश्चित करेंगे। इस तरह परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने से हमारे भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे शुद्ध होकर बदल जाते हैं, और हम इंसान की तरह जी सकते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण द्वारा हम गहराई से समझ सकते हैं कि परमेश्वर का इंसान को बचाने का काम कितना व्यावहारिक है! इसके बिना हम अपनी असली भ्रष्टता कभी नहीं देख पाएँगे, और वास्तव में कभी प्रायश्चित नहीं करेंगे, न ही बदलेंगे। हम समझ सकते हैं कि हम अपनी मेहनत और आत्मसंयम से दुष्टता से नहीं बच सकते, परमेश्वर द्वारा हमारा न्याय, ताड़ना और परीक्षा अनिवार्य है। हमारी काट-छांट, निपटारा और हमें अनुशासित किया जाना भी जरूरी है। इसी एकमात्र तरीके से हम अपना जीवन-स्वभाव बदल सकते हैं, परमेश्वर को समर्पित होकर उसका भय मान सकते हैं। इसलिए अगर हमारी आस्था में केवल प्रभु यीशु का छुटकारा है, तो हम पापों की क्षमा पाकर आस्था के द्वारा उचित ठहराए जाते हैं, पर हम राज्य के अयोग्य हैं। हमें अब भी प्रभु का स्वागत कर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय को स्वीकार करना होगा, ताकि हम अपनी भ्रष्टता त्यागकर अपनी पापमय प्रकृति का पूरी तरह समाधान कर सकें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है, जो न्याय का कार्य कर रहा है। वह उद्धारकर्ता है जो इंसान को पूरी तरह से बचाने के लिए खुद काम करने आया है। सभी संप्रदायों के विश्वासी परमेश्वर की वाणी सुनकर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार कर रहे हैं। वे बुद्धिमान कुंआरियाँ हैं और मेमने के विवाह-भोज में शामिल हो रहे हैं। पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को नकारने वाले मूर्ख कुंआरियाँ हैं जो आपदाओं में पड़कर रोएँगे। अब हमें समझना चाहिए कि धार्मिक जगत ने प्रभु यीशु को बादलों पर आते हुए क्यों नहीं देखा? वे हठपूर्वक शास्त्रों के शाब्दिक अर्थ से चिपके रहते हैं, वे अपने खयालों के आधार पर निश्चित हैं कि प्रभु बादल पर आकर उन्हें स्वर्ग ले जाएगा। पर सच यह है कि प्रभु पहले ही गुप्त रूप से काम करने आ चुका है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अनेक सत्य व्यक्त किए हैं, जिन्हें खोजने से वे इनकार करते हैं। वे सुनते हैं पर गौर नहीं करते, देखते हैं पर समझते नहीं। वे आँखें मूंदकर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की निंदा और विरोध करते हैं। वे आसमान की ओर देखते हुए उद्धारकर्ता यीशु के बादल पर आने का इंतजार करते हैं। इससे वे आपदाओं में पड़ जाएँगे। यह किसका दोष होगा?
आज सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अंत के दिनों के अपने न्याय-कार्य द्वारा विजेताओं का एक समूह तैयार कर लिया है। आपदाएँ आनी शुरू हो गई हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोग पूरी ताकत से सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैला रहे हैं, परमेश्वर के प्रकटन और कार्य की गवाही दे रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग सच्चे मार्ग की जाँच कर उसे स्वीकार रहे हैं, और ज्यादा से ज्यादा देशों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया स्थापित हो रही है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पूरी दुनिया में फैलाए और प्रमाणित किए जा रहे हैं। जो सत्य के प्यासे हैं और परमेश्वर का प्रकटन खोजते हैं, वे एक के बाद एक उसके सिंहासन के सामने आ रहे हैं। इसे रोका नहीं जा सकता! यह बाइबल की ये भविष्यवाणी पूरी करता है : “अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊँचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा के समान उसकी ओर चलेंगे” (यशायाह 2:2)। पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर का विरोध करने वाली धार्मिक जगत की मसीह-विरोधी ताकतें और उनके द्वारा गुमराह और नियंत्रित तथाकथित विश्वासी पहले ही आपदाओं के अधीन होकर स्वर्गारोहण का मौका गँवा चुके हैं। वे रोते हुए अपने दाँत पीस रहे हैं। यह वास्तव में एक त्रासदी है। आइए, अंत में परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो-पाठ देखें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अंत के दिनों का मसीह जीवन लाता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लाता है। यह सत्य वह मार्ग है, जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यही एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के द्वार में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे, क्योंकि तुम इतिहास की कठपुतली और कैदी दोनों ही हो। जो लोग नियमों से, शब्दों से नियंत्रित होते हैं, और इतिहास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, वे न तो कभी जीवन प्राप्त कर पाएँगे और न ही जीवन का अनंत मार्ग प्राप्त कर पाएँगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास सिंहासन से प्रवाहित होने वाले जीवन के जल के बजाय बस मैला पानी ही है, जिससे वे हजारों सालों से चिपके हुए हैं। जिन्हें जीवन के जल की आपूर्ति नहीं की जाती, वे हमेशा मुर्दे, शैतान के खिलौने और नरक की संतानें बने रहेंगे। फिर वे परमेश्वर को कैसे देख सकते हैं? यदि तुम केवल अतीत को पकड़े रखने की कोशिश करते हो, केवल जड़वत् खड़े रहकर चीजों को जस का तस रखने की कोशिश करते हो, और यथास्थिति को बदलने और इतिहास को खारिज करने की कोशिश नहीं करते, तो क्या तुम हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध नहीं होगे? परमेश्वर के कार्य के कदम उमड़ती लहरों और घुमड़ते गर्जनों की तरह विशाल और शक्तिशाली हैं—फिर भी तुम निठल्ले बैठकर तबाही का इंतजार करते हो, अपनी नादानी से चिपके हो और कुछ नहीं करते। इस तरह, तुम्हें मेमने के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति कैसे माना जा सकता है? तुम जिस परमेश्वर को थामे हो, उसे उस परमेश्वर के रूप में सही कैसे ठहरा सकते हो, जो हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं होता? और तुम्हारी पीली पड़ चुकी किताबों के शब्द तुम्हें नए युग में कैसे ले जा सकते हैं? वे परमेश्वर के कार्य के कदमों को ढूँढ़ने में तुम्हारी अगुआई कैसे कर सकते हैं? और वे तुम्हें ऊपर स्वर्ग में कैसे ले जा सकते हैं? जिन्हें तुम अपने हाथों में थामे हो, वे शब्द हैं, जो तुम्हें केवल अस्थायी सांत्वना दे सकते हैं, जीवन देने में सक्षम सत्य नहीं दे सकते। जो शास्त्र तुम पढ़ते हो, वे केवल तुम्हारी जिह्वा को समृद्ध कर सकते हैं और वे दर्शनशास्त्र के वे वचन नहीं हैं, जो मानव-जीवन को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हों, तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग देने की बात तो दूर रही। क्या यह विसंगति तुम्हारे लिए गहन चिंतन का कारण नहीं है? क्या यह तुम्हें अपने भीतर समाहित रहस्यों का बोध नहीं करवाती? क्या तुम अपने बल पर परमेश्वर से मिलने के लिए अपने आप को स्वर्ग पहुँचाने में समर्थ हो? परमेश्वर के आए बिना, क्या तुम परमेश्वर के साथ पारिवारिक आनंद मनाने के लिए अपने आप को स्वर्ग में ले जा सकते हो? क्या तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो? तो मेरा सुझाव यह है कि तुम स्वप्न देखना बंद कर दो और उसकी ओर देखो, जो अभी कार्य कर रहा है—उसकी ओर देखो, जो अब अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने का कार्य कर रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं करोगे, और न ही कभी जीवन प्राप्त करोगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है)।
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