अपने काम में मेहनत नहीं करने का नतीजा

27 फ़रवरी, 2022

यीचें, इटली

2019 में बहन झांग के साथ मुझे आर्ट टीम का प्रभारी बनाया गया। काम की शुरूआत में, मुझे कई सिद्धांतों की समझ नहीं थी, बहन झांग ने धीरज के साथ सहभागिता की, ज़्यादातर काम खुद किया। फिर पता चला कि वो दो सालों से यह काम कर रही है, उसे काम का थोड़ा अनुभव था, बैठकों में सहभागिता से लेकर काम का सारांश तैयार करने तक हर मामले में, वो हर बात अधिक गहराई से सोचती थी। उसके पास हमेशा भाई-बहनों के सवाल के अच्छे समाधान होते। उसकी तुलना में मैं बहुत पीछे थी। मैंने सोचा, "बहन झांग जैसी बनने के लिए कितनी पीड़ा सहनी होगी, कितनी कीमत चुकानी होगी? उसके पास ज़्यादा अनुभव है, वो ज़्यादा जिम्मेदारी लेती है, तो ज्यादातर काम उसे ही करने दूँगी।"

काम के सारांश में, उसने समस्याएं हल करने पर सहभागिता करने के बारे में सोचने को कहा। मैंने सोचा, "ये तो बहुत मुश्किल है। काम की मौजूदा समस्याओं का सार बताने के साथ, मुझे सहभागिता के लिए प्रासंगिक परमेश्वर के वचन और सिद्धांत भी ढूंढने होंगे। खासकर पेशेवर मामलों में, मेरे पास ज़्यादा अनुभव नहीं है। हल बताने के लिए बहुत सी जानकारी ढूंढनी होगी, जो समझ नहीं आता उस पर सहभागिता लेनी होगी। इसमें काफी समय और मेहनत लगेगी। बहन झांग को काम की जानकारी है, वो आसानी से सार बता सकती है। उसी पर छोड़ना ठीक है।" उसके बाद, मैंने काम का सार निकालने पर ज़्यादा नहीं सोचा। फिर, जब बहन झांग ने मुझसे मेरे विचार पूछे, तो मैंने कहा, "मुझे काम की जानकारी नहीं है, आप ही सार निकाल लें।" कभी, अध्ययन की दिशा तय करते समय वो मुझसे पूछती, क्या मैं भागीदारी करना चाहूंगी, ताकि उसे सलाह देकर आने वाली समस्याओं से बचने में मदद कर सकूँ। मैं सोचती थी कि, "बहन झांग हमेशा से इस काम के लिए जिम्मेदार रही है, मेरी समझ उससे कम है। भागीदारी के लिए मुझे सोचना होगा, जो नहीं जानती उसे पढ़ना होगा। इसमें काफी मेहनत लगेगी! चलो छोड़ो! इससे दूर ही रहूंगी!" फिर मैंने इसके लिए मना कर दिया।

एक बार, हम ड्रॉइंग की नई तकनीक सीख रहे थे। कई समस्याएं और मुश्किलें आईं, पर उसने हमारे साथ चर्चा करके सब हल कर दिया। काम की जानकारी नहीं थी, इसलिए दो बार समझाने पर भी मुझे समझ नहीं आया। मैंने सोचा, "इस काम में नये कौशल सीखना थका देता है। मुझे नहीं लगता इस बार मैं शामिल हो पाऊँगी। बहन झांग तो है ही, वो सीखने में हमारी मदद कर देगी।" फिर, पढ़ाई के समय, मैंने ध्यान से नहीं सुना। कभी कुछ नहीं कहती; तो कभी दूसरे काम करने चली जाती। बहन झांग मेरे सुझावों और विचारों के बारे में पूछती, तो मैं लापरवाही से कह देती, कोई सुझाव नहीं है। आखिर में, मैं अपने काम में कम-से-कम जिम्मेदारी लेने लगी। जितना मुझे लगता कि मैं काबिल नहीं, उतना ही मैं समस्याओं को देख न पाती। उस दौरान, हर दिन मेरे दिल में खालीपन महसूस होता, मैं बहुत नकारात्मक रहने लगी। लगा मैं किसी काबिल नहीं हूँ, काम के लायक नहीं हूँ। कभी-कभी, बहन झांग से बहुत ईर्ष्या होती। लगता वो अपना काम अच्छे से करती है, क्योंकि उसके पास काबिलियत और अनुभव है, पर मैं अलग हूँ। मेरे पास न काबिलियत है, न अनुभव, ऐसे में काम करना मुश्किल है।

एक दिन, बहन झांग ने काम की चर्चा करते हुए कहा, "तुम्हें ये काम करते कुछ समय हो गया है, फिर भी कहती हो तुममें अनुभव और समझ नहीं है। सच तो ये है तुम जिम्मेदारी नहीं लेना या मेहनत करना नहीं चाहती। मेरे पास अच्छे सुझाव इसलिए होते हैं क्योंकि मैं अक्सर प्रार्थना करके परमेश्वर पर भरोसा करती हूँ, चीज़ों को समझने के लिए सिद्धांत खोजती हूँ। पेशेवर पहलू न समझने पर, हमें उनके बारे में पढ़ना चाहिए। इसके बिना, काम अच्छे से कैसे होगा?" फिर उसने बताया कि कैसे उसने समस्याओं का सामना करते हुए परमेश्वर पर भरोसा कर हल खोजा। बदकिस्मती से, उस वक्त मैं अपनी समस्या नहीं समझी। लगा बहन झांग मेरी परेशानियों को नहीं समझती, मैंने उसके सुझावों पर ध्यान नहीं दिया, आत्मचिंतन भी नहीं किया।

जल्दी ही, बहन झांग दूसरे काम की प्रभारी बन गई। उसने जाने पर मैं बहुत उदास हो गई, क्योंकि इतना काम देखकर मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। मैंने खुद से पूछा, "एक साल से इस काम की जिम्मेदारी मुझ पर है, फिर भी मैं इसे क्यों नहीं कर पा रही?" तब मुझे बहन झांग की बात याद आई। क्या मैंने सचमुच काम की जिम्मेदारी नहीं उठाई? आत्मचिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर से राह दिखाने के लिए प्रार्थना की। फिर परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा : "काम में आ रही समस्याओं के बारे में पूछे जाने पर अधिकांश समय तुम लोग उत्तर नहीं दे पाते। काम में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं, लेकिन तुम लोगों ने कभी नहीं पूछा कि वह ठीक चल रहा है या नहीं, या इस बारे में कभी सोचा ही नहीं। तुम लोगों की क्षमता और ज्ञान को देखते हुए, तुम्हें कुछ पता नहीं होना चाहिए, क्योंकि तुम सबने इस कार्य में भाग लिया है। तो ज्यादातर लोग कुछ भी क्यों नहीं कहते? संभव है कि तुम लोगों को वास्तव में पता न हो कि क्या कहना है—कि तुम जानते ही न हो कि कामकाज ठीक चल रहा है या नहीं। इसके दो कारण हैं : एक यह कि तुम लोग पूरी तरह से उदासीन हो, और तुमने कभी इन चीजों की परवाह ही नहीं की है और केवल यह मानते रहे हो कि इस काम को किसी तरह निपटाना है। दूसरा यह है कि तुम लोगों को इन बातों की परवाह करने की कोई इच्छा ही नहीं होती। अगर वास्तव में तुम्हें परवाह होती, लगन होती, तो हर चीज पर तुम्हारा एक विचार और दृष्टिकोण होता। कोई दृष्टिकोण या विचार न होना अकसर उदासीन और बेपरवाह होने तथा कोई जिम्मेदारी न लेने से पैदा होता है। तुम अपने काम में मेहनत नहीं करते, तुम कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते, तुम कोई कीमत चुकाने या उसमें शामिल होने को तैयार नहीं होते, तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और न ही अधिक ऊर्जा खर्च करने को तैयार होते हो; तुम बस अधीनस्थ बनकर चाहते हो, जो किसी अविश्वासी के अपने मालिक के लिए काम करने से अलग नहीं है। इस तरह से काम करना परमेश्वर को प्रिय नहीं है, परमेश्वर इसे स्वीकार नहीं करता, वह इसका तिरस्कार करता है और देर-सबेर ऐसा व्यक्ति हटा दिया जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। परमेश्वर ने वचनों ने मेरी हालत को स्पष्ट कर दिया। बहन झांग के साथ काम और चर्चा करते हुए, मेरे अपने सुझाव या विचार नहीं थे। हमेशा यही लगता था कि ऐसा काम की जानकारी न होने की वजह से हुआ। परमेश्वर के वचन पढ़कर समझ आया कि इसकी वजह मेरी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी थी। बहन झांग के साथ भागीदारी पर सोचा तो लगा कि पेशेवर समस्या होने पर मैंने कभी परवाह नहीं की। हमेशा काम का अनुभव और सिद्धांतों की समझ न होने का बहाना बनाकर बचती रही। काम पर चर्चा की बातें बस सुनकर रह जाती। कभी ध्यान नहीं दिया। बहन झांग से अक्सर कहती कि मुझे समझ नहीं आया, आपको काम का ज़्यादा अनुभव है, मगर ये सब झूठ और बहाने थे। मेरा असली मकसद उसकी हमदर्दी पाना ही था, ताकि वो ज़्यादा से ज़्यादा काम करे और मैं आराम से बैठी रहूँ। मैं बहुत कपटी और धूर्त थी! मैं एक साल से काम कर रही थी, मेरे पास पेशेवर आधार भी था, जिम्मेदारी और मेहनत से पढ़ाई की होती, तो काम पर चर्चा के समय मेरे भी कुछ विचार होते। बहन झांग का ट्रांसफर होने के बाद सारा काम ठीक से संभाल पाती। मैंने बस गैर-जिम्मेदारी से जैसे तैसे काम निपटाया, मानो मैं सिर्फ वेतन पाने के लिए काम कर रही थी, जितनी हो सके उतनी कम से कम मेहनत और फिक्र करते हुए एक-एक दिन गुजार रही थी। ठीक से काम करने, पूरी कोशिश करने और जिम्मेदारी निभाने के बारे में कभी नहीं सोचा। जैसे-तैसे काम करती रही, शरीर को कष्ट देने से बचने की सोचती रही। परमेश्वर की इच्छा पर कभी विचार नहीं किया। मैं कैसे कह सकती हूँ कि मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह है? काम के प्रति ऐसा रवैया देख परमेश्वर कैसे नफ़रत नहीं करेगा?

फिर, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : "प्रभु यीशु ने एक बार कहा था कि, 'क्योंकि जिसके पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा' (मत्ती 13:12)। इन वचनों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि यदि तुम अपना कर्तव्य या कार्य तक पूरा नहीं करते या उनके प्रति समर्पित नहीं होते, तो परमेश्वर वह सब तुमसे छीन लेगा जो कभी तुम्हारा था। 'छीन लेने' का क्या अर्थ है? इससे लोगों को क्या महसूस होता है? हो सकता है कि तुम उतना प्राप्त करने में भी नाकाम रहे हो जो तुम अपनी क्षमता और हुनर से कर सकते थे, और तुमने कुछ महसूस नहीं किया, और फिर से उसी स्थिति में पहुँच गए जब तुम अविश्वासी थे। यह सब परमेश्वर ने छीन लिया। यदि तुम अपने कर्तव्य में चूक जाते हो, कोई कीमत नहीं चुकाते, और ईमानदार नहीं हो, तो परमेश्वर वह सब छीन लेगा जो कभी तुम्हारा था, वह तुमसे अपना कर्तव्य करने का अधिकार वापस ले लेगा, वह तुम्हें यह अधिकार नहीं देगा। चूँकि परमेश्वर ने तुम्हें हुनर और क्षमता दी, लेकिन तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, परमेश्वर के लिए खुद को नहीं खपाया, या कीमत नहीं चुकाई, उसे पूरे दिल से नहीं किया, इसलिए परमेश्वर न केवल तुम्हें आशीष नहीं देता, बल्कि वह भी छीन लेता है जो कभी तुम्हारे पास था। परमेश्वर इंसान को गुण प्रदान करता है, उन्हें विशेष हुनर और साथ ही विवेक और बुद्धि देता है। इंसान को इन गुणों का इस्तेमाल किस प्रकार से करना चाहिए? (उन्हें इन गुणों का इस्तेमाल अपने कर्तव्य-पालन के लिए करना चाहिए।) तुम्हें अपने विशेष हुनर, गुणों, विवेक और बुद्धि को अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित करना चाहिए। तुम्हें अपने ज्ञान की हर बात, जो भी तुम समझते हो, तुम्हारे द्वारा हासिल की जा सकने वाली हर चीज और जो कुछ भी सोच सको, उसे अपने कर्तव्य में इस्तेमाल करने के लिए अपना दिल और दिमाग़ लगा देना चाहिए। ऐसा करके तुम धन्य हो जाओगे। परमेश्वर का आशीष पाने का क्या अर्थ है? इससे लोगों को क्या महसूस होता है? (उन्हें अपना कर्तव्य निभाते समय एक मार्ग दिखाई देता है, उन्हें लगता है कि पवित्र आत्मा ने उन्हें प्रबुद्ध कर दिया है।) उन्हें लगता है कि उन्हें परमेश्वर ने प्रबुद्ध कर उनका मार्गदर्शन किया है। लोगों को यह लग सकता है कि तुम्हारी योग्यताओं के दायरे में, तुम्हारी क्षमता और तुम्हारे द्वारा सीखी गई चीजें तुम्हें वह करने देने के लिए अपर्याप्त हैं, जो तुम करना चाहते हो—लेकिन अगर परमेश्वर कार्य करता है और तुम्हें प्रबुद्ध कर देता है, तो तुम न केवल समझने में, बल्कि बेहतर कार्य करने में भी सक्षम हो जाते हो। तुम मन ही मन सोचते हो, 'मैं उतना कुशल तो नहीं था। ऐसा लगता है कि अब मेरे भीतर और भी बहुत-कुछ है। ऐसा कैसे हुआ कि मैं अचानक उन बातों को समझने लगा हूँ, जो मैंने कभी सीखी ही नहीं, और मैं इतना कुछ करने में सक्षम हो गया? मैं अचानक इतना होशियार कैसे हो गया?' तुम इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। यह परमेश्वर का प्रबोधन और आशीष है; परमेश्वर इसी तरह लोगों को आशीष देता है। यदि तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते या काम करते समय ऐसा महसूस नहीं करते, तो तुम पर परमेश्वर का आशीष नहीं है। यदि तुम्हें अपना काम हमेशा निरर्थक लगता है, अगर ऐसा लगता है कि करने के लिए कुछ नहीं है, और तुम योगदान नहीं दे पाते, यदि तुम कभी प्रबुद्ध नहीं हुए हो, और खुद को इस्तेमाल की जा सकने वाली प्रवीणता या बुद्धिमत्ता से रहित समझते हो, तो यह समस्या है : यह दर्शाता है कि तुममें अपना कर्तव्य निभाने के लिए सही प्रेरणाएँ नहीं हैं, तुम उसे बेढंगेपन और लापरवाही से करते हो, तुम सही रास्ते पर नहीं चलते, और परमेश्वर तुम्हें अनुमोदित नहीं करता या आशीष नहीं देता; तुम इस तरह की परिस्थितियों में फँस गए हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। इन वचनों पर विचार कर समझ आया कि परमेश्वर उन्हें आशीष देता है जो ईमानदार हैं, सच्चे मन से खुद को खपाते हैं। इंसान काम में जितनी मेहनत और सुधार करता है, उतना ही पवित्र आत्मा उसे मार्गदर्शन देता है, फिर वो अपने काम में असरदार होता है। अगर कोई काम में मक्कारी करता है, मेहनती नहीं है, कीमत नहीं चुकाता, तो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता, काम से लाभ नहीं पा सकता, जो कुछ हासिल किया है उसे भी गँवा सकता है। तभी मुझे बहन झांग का बताया एक अनुभव याद आया। पहले उसे काम की ज़्यादा समझ नहीं थी, पर वो अपनी समस्याएं परमेश्वर को बताती, प्रार्थना और खोजबीन करके उन पर विचार करती, दूसरों के साथ उन पर सहभागिता करती, तब उसे पवित्र आत्मा का प्रबोधन मिलता, हमेशा मन में नये विचार आते। वो लगातार तरक्की करती गई, काम की प्रभावशीलता बढ़ गई। पर मैंने तो जैसा था वैसे ही चलने दिया, तरक्की नहीं चाही, आराम के मजे लेते हुए कष्ट उठाने या कीमत चुकाने की नहीं सोची। नतीजतन मैं जो कर सकती थी वो भी नहीं कर पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जिसके पास कुछ नहीं है, उससे जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा" (मत्ती 13:12)। परमेश्वर को काम के प्रति मेरे लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैये से नफ़रत थी। पश्चाताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझे ठुकरा देगा, मुझसे नफ़रत करेगा, आखिर में मेरा काम भी छिन सकता है। यह सोचकर मुझे डर लगा, फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की, अभ्यास के मार्ग के लिए उसका मार्गदर्शन माँगा, पश्चाताप की इच्छा जताई।

मैंने परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा : "लोगों को अपने कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए। जब सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—किसी को कोई कार्य सौंपता है, तब उस समय, वह उस व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है। जिन कार्यों और आदेशों को परमेश्वर तुम्हें देता है—वे तुम्हारे कर्तव्य हैं। जब तुम उन्हें अपने लक्ष्य बनाकर उनके पीछे जाते हो, और जब तुम्हारा दिल वास्तव में परमेश्वर-प्रेमी होता है, तब भी क्या तुम इनकार कर सकोगे? (नहीं।) बात ये नहीं की तुम कर सकते हो या नहीं—तुम्हें इसे इनकार नहीं करना चाहिए। तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। यही अभ्यास का पथ है। अभ्यास का मार्ग कौन-सा है? (हर कार्य में पूरी तरह से समर्पित होना।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए सभी चीजों में समर्पित रहो। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह 'सभी चीजों में' है। 'सभी चीजों' का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी, तुम्हें कोई चीज अच्छे से नहीं आती, कभी-कभी तुम्हें सीखने की आवश्यकता होती है, कभी-कभी तुम्हें कठिनाइयों का सामना करना और कभी-कभी तुम्हें कष्ट उठाना पड़ेगा। लेकिन चाहे वह कोई भी कार्य हो, अगर वह परमेश्वर का आदेश है, तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, उसे अपना कर्तव्य समझना चाहिए, उसे पूरा करने के लिए समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना चाहिए : यह अभ्यास का मार्ग है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल ईमानदार बनकर ही लोग वास्तव में खुश हो सकते हैं')। एक और अंश है : "जब लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, तो वे अपना कर्तव्य निभाते समय अकसर अनमने और लापरवाह रहते हैं। यह सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। अगर लोगों को अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है, तो उन्हें सबसे पहले अनमनेपन और लापरवाही की यह समस्या सुलझानी चाहिए। अगर उनका रवैया अनमना और लापरवाह होगा, तो वे अपना कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा पाएँगे, जिसका अर्थ है कि अनमनेपन और लापरवाही की समस्या हल करना बेहद जरूरी है। तो उन्हें इसे कैसे अभ्यास में लाना चाहिए? पहले, उन्हें अपनी मनःस्थिति की समस्या का समाधान करना चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्य को सही तरह से लेना चाहिए, और धोखेबाज या अनमना हुए बिना चीजों को गंभीरता और जिम्मेदारी की भावना के साथ करना चाहिए। कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभाया जाता है, किसी व्यक्ति के लिए नहीं; यदि लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी मनःस्थिति सही होगी। इसके अलावा, कोई कार्य करने के बाद, लोगों को उसे जाँचना चाहिए, और उस पर चिंतन करना चाहिए, और अगर उनके दिल में कोई संदेह हो, और विस्तृत निरीक्षण के बाद उन्हें पता चले कि वास्तव में कोई समस्या है, तो उन्हें बदलाव करने चाहिए; ये बदलाव होने के बाद उनके मन में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। जब लोगों के मन में संदेह होते हैं, तो यह साबित करता है कि कोई समस्या है, और उन्हें, विशेष रूप से महत्वपूर्ण चरणों पर, जो कुछ भी उन्होंने किया है, उसकी पूरी लगन से जाँच करनी चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक जिम्मेदार रवैया है। जब कोई व्यक्ति गंभीर, जिम्मेदार, समर्पित, और कड़ी मेहनत करने वाला हो सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनःस्थिति ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें ऐसी जागरूकता दे, तुम्हें यह बोध कराए कि कुछ गलत है, फिर भी तुम्हारी मनःस्थिति सही न हो पाए, और तुम अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? (नहीं।) तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? (जब लोगों के दिल परमेश्वर के सामने शांत होते हैं, और वे पूरे दिल और ताकत से अपना कर्तव्य निभाते हैं, केवल तभी उनकी आत्माएँ दक्ष होंगी।) सही कहा। यह दिखाता है कि बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनके दिल बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, और वे अपनी सोच और इरादों को किस दिशा में ले जाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करके मुझे काफी प्रेरणा मिली। मेरा कर्तव्य परमेश्वर की आज्ञा है, उसके द्वारा सौंपा काम है, अब मैं वो काम करने में कुशल थी या नहीं, काम आसान था या मुश्किल, यह परमेश्वर से आया था, तो मुझे जिम्मेदार बनकर ज़्यादा वफ़ादारी दिखानी थी। पूरी कोशिश करने और जिम्मेदारी निभाने पर ही परमेश्वर की आशीष मिलेगी। मैंने परमेश्वर के सामने खाई कसमों के बारे में सोचा, कि उसके प्रेम का मूल्य चुकाने को पूरी वफ़ादारी से काम करूंगी। जब मैंने देखा काम थोड़ा मुश्किल और चुनौती भरा है, इसमें कष्ट उठाना होगा, कीमत चुकानी होगी, तो जैसे-तैसे इससे निपटाकर बचने की कोशिश की। इसका एहसास होने पर, लगा मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ, उसके प्रेम के लायक नहीं हूँ। ऐसे तो नहीं चलेगा। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना होगा, ईमानदारी से काम करते हुए अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, ताकि बाद में पछताना न पड़े।

फिर मैं अपने काम के बारे में जानने लगी जो कभी मुझे समझ नहीं आता था, मैंने मुश्किल समस्याओं से बचकर भागना बंद कर दिया। भाई-बहनों के साथ उनके बारे में चर्चा और सहभागिता करने लगी, कोई बात समझ न आने पर उनसे मदद मांगती। आखिरकार, काम की बातें अच्छे से समझ आने लगीं, दूसरों को कोई समस्या होने पर उसका हल भी निकाल पाती। पहले, काम का सार बताते हुए मेरे पास विचार नहीं होता था, मैं इससे बचना चाहती थी, फिर परमेश्वर के वचनों में पढ़ी बातों को याद करके, मैंने दैहिक इच्छाओं का त्याग किया, काम की समस्याओं पर विचार किया, सिद्धांत और जानकारी ढूंढने के लिए मेहनत की। कुछ समय इसी तरह अभ्यास करने के बाद, मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष महसूस किया। उन चीज़ों में महारत मिलने लगी जो पहले समझ नहीं आती थी या उलझन में डाल देती थी, फिर काम के सार से कुछ अच्छे नतीजे मिले। भाई-बहनों ने मेरी बताई बातों पर अमल किया और आगे बढ़ने लगे।

मैंने सोचा, काम के प्रति मेरा रवैया थोड़ा बदल गया है, पर जब परमेश्वर ने मेरे लिए नए हालात पैदा किये, तो मैं पुराने ढर्रे पर लौट गई।

सितंबर 2021 में, नये सदस्यों के सिंचन से जुड़ी ज़रूरतों के कारण मैंने बहन ली को पार्टनर बनाया। लगा इस काम में तकनीकी समस्याएं नहीं होंगी, तो ज़्यादा सिरदर्दी भी नहीं होगी, पर काम शुरू करने के बाद पता चला कि नये सदस्यों का सिंचन करना आसान नहीं था। अंग्रेज़ी में बातचीत करना तो ज़रूरी था ही, सत्य पर सहभागिता भी करनी थी, ताकि उनकी धारणा और उलझन हल हो। मैंने देखा बहन ली काम के सभी पहलुओं में बहुत सक्षम थी। नए सदस्यों की समस्याएं हल करने के लिए उनसे जुड़े सत्य फौरन ढूंढ लेती थी, पर मैं ऐसा नहीं कर पाती थी। सत्य पर स्पष्ट सहभागिता या उनकी समस्याएं हल नहीं कर पाती थी। बहन ली की बराबरी करने के लिए, मुझे काफी पढ़ाई करके खुद को काबिल बनाने और बड़ी कीमत चुकाने की ज़रूरत थी। मैंने सोचा, "चलो छोड़ो, अब तो बहन ली मेरी साथी है, मैं इस बारे में फ़िक्र क्यों करूं।" यह सब सोचकर, मैंने सत्य की खोज नहीं की, बैठकों के बाद, नये सदस्यों की समस्याओं के बारे में भी नहीं पूछती थी। एक दिन, मैंने सोचा कि सिंचन का काम करते दो महीने हो गये, फिर भी मैं किसी नये सदस्य का सिंचन नहीं कर पाती हूँ। मुझे लगता था कि मुझमें समझ नहीं है, पर कीमत चुकाने का प्रयास नहीं किया। फिर खुद से सवाल किया, "ऐसा क्यों है कि जब किसी काम में मैं अच्छी नहीं होती हूँ, तो जानकारी नहीं होने का का बहाना बनाकर काम में टालमटोल करती हूँ, कीमत नहीं चुकाना चाहती हूँ?" फिर परमेश्वर से अपनी हालत और उलझन बताते हुए प्रार्थना की।

एक दिन, अपने धार्मिक कार्य के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अपना कर्तव्य निभाते करते समय हमेशा आसान काम चुनना, वे काम जिनमें थकान न हो, जिन्हें करने के लिए चिलचिलाती धूप या मूसलाधार बारिश में बाहर न जाना पड़े; उन कामों से बचना जो जोखिम से भरे हों और जिनमें कड़ी मेहनत करनी पड़े, उन्हें दूसरों के कंधों पर डाल देना और अपने लिए कोई आसान काम खोजना; यह कहकर बहाने बनाना कि मैं कम क्षमता वाला हूँ, कि मैं यह काम करने में असमर्थ हूँ, कि मैं इसे नहीं कर सकता, कि मैं मूर्ख हूँ और आने वाली समस्याओं से निपटने में सक्षम नहीं हूँगा—ऐसा व्यक्ति कामचोर होता है, और यह दैहिक सुख-सुविधाओं का लालची होने की अभिव्यक्ति है। ... ऐसा भी होता है कि लोग काम करते समय शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें अवकाश मिलता है वे आराम और गपशप करने लगते हैं और काम शुरू होते ही शिकायत करने लगते हैं, कोई मुश्किल काम देखते ही पीछे हट जाते हैं और यह कहकर उसके लिए कोई कारण बताते या बहाना बनाते हैं कि 'मैं इसके काबिल नहीं हूँ, मेरी क्षमता बहुत खराब है! फलाँ-फलाँ मुझसे अधिक क्षमतावान है, वह मुझसे अधिक पैनी दृष्टि रखता है, अधिक सक्षम है, वह इस काम में सफल हो सकता है,' और किसी हलके काम की तलाश में निकल जाते हैं, ताकि उनके पास मनोरंजन के लिए अधिक समय रहे। ... ऐसा व्यक्ति दैहिक सुख-सुविधाओं का लालची होता है, है न? क्या ये दैहिक सुख-सुविधाओं के लालची होने की अभिव्यक्तियाँ हैं? क्या ऐसे लोग कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं? उनसे कर्तव्य निभाने की बात करो, कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करो, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं : उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होंगी, वे शिकायतों से भरे होंगे, वे हर चीज को लेकर नकारात्मक रहते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (2)')। "कुछ झूठे अगुआओं में थोड़ी-बहुत काबिलियत होती है, लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते, और भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच में फँस जाते हैं। मेरी दृष्टि में, भौतिक सुख-सुविधाओं के लालची लोग सूअरों से अलग नहीं होते। सूअर हर दिन खाने और सोने में बिताते हैं। तुम उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी इतना अधिक अन्न इसलिए खिलाते हो, ताकि भविष्य में तुम उनका मांस खा सको। अगर झूठे अगुआओं को भी सूअरों की तरह ही पाल-पोसकर मोटा-ताजा और बड़ा किया जाता है, लेकिन उनसे केवल जगह की बरबादी होती है और वे कोई काम नहीं करते, तो तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करके क्या कर रहे हो? क्या उन्हें हटाया नहीं जाना चाहिए? और इसलिए, झूठे अगुआ को पालना सूअर पालने से भी बदतर है। हालाँकि सूअर कुछ नहीं करता, दिन में तीन बार मुफ्त में खाता-पीता है, लेकिन जब सालभर के बाद तुम्हें उसका मांस खाने को मिलता है, तो तुम्हें लगता है कि सुअर ने योगदान किया। उसे पूरे साल खिलाना थका देने वाला रहा, यह कड़ी मेहनत थी, लेकिन यह सारा श्रम व्यर्थ नहीं रहा, बेकार नहीं गया; अपने मन में तुम महसूस करते हो कि यह करने लायक था। लेकिन झूठे अगुआ? उनके पास 'अगुआ' की उपाधि हो सकती है, वे इस पद पर आसीन हो सकते हैं, और दिन में तीन बार अच्छा खा-पी सकते हैं, परमेश्वर के अनेक अनुग्रहों का आनंद ले सकते हैं, लेकिन अंतत:, साल के अंत में, जब वे खा-पीकर मोटे-ताजे हो जाते हैं, उनका काम कैसा रहता है? जरा उस काम पर तो नजर डालो, जो तुमने सालभर में किया है : कौन-से कार्य फलदायी रहे, तुमने कौन-सा वास्तविक कार्य किया? परमेश्वर का घर यह नहीं कहता कि तुम हर काम निपुणता से करो, लेकिन कम से कम तुम्हें मुख्य कार्य अच्छी तरह से करना चाहिए—जैसे सुसमाचार का कार्य या दृश्य-श्रव्य कार्य, लिखित गवाही संबंधी कार्य, आदि। ये सब सफल होने चाहिए। सालभर के बाद देखो कि तुम्हारी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाला कौन-सा काम सबसे सफल रहा, जिसमें तुमने सबसे ज्यादा कीमत चुकाई और सर्वाधिक कष्ट उठाया। अपनी उपलब्धियों पर नजर डालो : तुम्हारे मन में इसका कुछ एहसास होना चाहिए कि सालभर तक परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेने के बाद तुम्हारी कोई बहुमूल्य उपलब्धि रही है या नहीं। इस पूरी अवधि में परमेश्वर के घर का खाना खाते हुए और उसके अनुग्रह का आनंद लेते हुए तुम क्या कर रहे थे? क्या तुमने कुछ हासिल किया? यदि तुमने कुछ हासिल नहीं किया, तो तुम एक मुफ्तखोर, और पक्के तौर पर एक झूठे अगुआ हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (4)')। ये वचन मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ गए। तब समझ आया कि मैं हमेशा काम की मुश्किलों से जी चुराती थी, काम की समझ नहीं होने को ढाल बना लेती थी, क्योंकि मैं बहुत आलसी थी, आराम की बहुत परवाह करती थी। इससे पहले, जब मैं बहन झांग के साथ सुपरवाइजर थी, तो हमेशा सरल और आसान काम ही चुनती थी, जो काम मुझे नहीं आता या जिसमें ध्यान से सोचने की ज़रूरत होती, वो उसे दे देती। बहन ली के साथ नए सदस्यों का सिंचन करने में भी, मैं फ़िक्र करना, कष्ट उठाना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। अपने इस बर्ताव पर चिंतन किया तो इसकी असली वजह समझ आई, मैं शैतानी फलसफों के काबू में थी। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो" जैसी बातें मेरे दिल में गहराई तक जड़ें जमा चुकी थीं। हमेशा लगता था कि लोगों को खुद के लिए जीना चाहिए, शरीर को आराम मिले, कोई फ़िक्र ना हो, हमें ऐसे ही तो जीना चाहिए। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने लगी, तब भी मेरे विचार यही थे, जब कोई मुश्किल आती या कोई काम मुझे नहीं आता, कष्ट सहने या कीमत चुकाने की ज़रूरत होती, तो कायर की तरह पीठ दिखाकर आराम को सबसे पहले रखती। ऐसी जिंदगी जीना सूअर जैसे जीने से अलग नहीं था। सूअर को कुछ सोचने या करने की ज़रूरत नहीं होती। वे बस खाना, पीना और सोना जानते हैं। मैं भी ऐसी ही थी, सिर्फ अपने आराम की परवाह करती थी। मैं कितनी घटिया जिंदगी जी रही थी! पहले सुपरवाइजर बनकर और अब सिंचन कार्य में, परमेश्वर ने मुझे कितना ऊँचा उठाया, पर मैंने आगे बढ़ने, अपने काम और जिम्मेदारियों को समझने की कोशिश ही नहीं की। कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन के प्रति गैर-जिम्मेदार बनी रही। मुझमें ज़रा-भी विवेक नहीं था! कष्ट उठाना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी, काम न समझने को हमदर्दी पाने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया, ताकि दूसरों को लगे कि मैं अपनी कमियों को स्वीकारती हूँ, वे मुझे समझदार और ईमानदार समझें। सच तो ये है कि मैंने इन शब्दों से अपने आलस और गैर-जिम्मेदारी को छिपाया। मैं बहुत मक्कार और धोखेबाज थी, मैंने सभी भाई-बहनों को बेवकूफ़ बनाया। भले ही मैं कुछ समय तक उन्हें बेवकूफ़ बना पाई, पर परमेश्वर सब कुछ देखता है, वह धार्मिक है। मैं उसे बेवकूफ़ बनाने और धोखा देने की कोशिश में थी, वह मुझसे नफ़रत कैसे नहीं करता? इसी वजह से काम में परमेश्वर की आशीष या मार्गदर्शन नहीं मिला। जब समस्याएं आपको हमेशा उलझन में डाल दें, प्रगति न दिखे, तो ये खतरे के संकेत हैं!

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब से परमेश्वर ने नूह को जहाज निर्माण का काम सौंपा था, तब से नूह ने अपने मन में कभी यह नहीं सोचा, 'परमेश्वर कब दुनिया का नाश करने वाला है? वह मुझे ऐसा करने का संकेत कब देगा?' ऐसे मामलों पर विचार करने के बजाय नूह ने परमेश्वर की कही हर बात कंठस्थ करने का पूरा प्रयास किया और फिर उसे क्रियान्वित करने में लग गया। परमेश्वर द्वारा सौंए गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह बिना किसी देरी का विचार किए उसे इस तरह पूरा करने में जुट गया, जैसे जहाज का निर्माण पूरा करना उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, साल-दर-साल समय आगे बढ़ता गया। परमेश्वर ने नूह पर कभी कोई दबाव नहीं डाला, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंए गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक तमाम सामग्री का पता लगाया और उसे एकत्र किया, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में कोई उच्चतर निर्देश नहीं था जिसका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था : परमेश्वर के वचन ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे कुछ भी बोला हो, उसे कुछ भी करने को कहा हो, उसे कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह न केवल भूला नहीं, उसने न केवल उन सारी बातों को अपने दिमाग में बैठाकर रखा, बल्कि उसने उन्हें अपने जीवन की वास्तविकता बना लिया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, उसने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उठाया गया उसका हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे काफी प्रेरणा मिली। नूह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील था। जब परमेश्वर ने उसे जहाज बनाने के लिए कहा, तो नूह ने उसकी आज्ञा का मान रखा, उसकी अपेक्षाओं को पूरा किया। पहले तो उसे जहाज बनाना नहीं आता था, इसे बनाने में परेशानी भी बहुत थी। हर चरण में, कष्ट सहना और कीमत चुकाना था, पर नूह परमेश्वर की आज्ञा के प्रति वफ़ादार था। परमेश्वर के आदेश के लिए उसने कष्ट उठाया, कीमत चुकाई और एक-एक कील ठोककर जहाज बनाया। नूह 120 सालों तक कोशिश करता रहा, आखिर उसने परमेश्वर की आज्ञा पूरी की। भले ही जहाज बनाने में नूह ने काफी कष्ट उठाया, शरीर का आराम तो भूल ही गया, पर उसने परमेश्वर की आज्ञा पूरी करके उसे संतुष्ट किया और उसकी मंज़ूरी पाई। नूह का जीवन काफी सार्थक था। उसके मुकाबले, मुझमें इंसानियत बिल्कुल नहीं थी। मैंने परमेश्वर की आज्ञा का मान नहीं रखा, मैं वफादार नहीं थी। मैं आलसी और मक्कार थी। सिर्फ आराम की परवाह की, कष्ट नहीं उठाना चाहती थी। मैं परमेश्वर की आज्ञा के लायक नहीं थी। बेहद नीच थी। ऐसे ही रहा और मैंने खुद को नहीं बदला, तो अंत में परमेश्वर द्वारा सौंपा काम गँवाकर जिंदगी भर पछताउंगी।

उसके बाद, मैंने अपने समय का ध्यान रखा, हर दिन नए सदस्यों के सिंचन से जुड़े सत्य को जानने-समझने लगी। एक दिन बैठक में, भाई-बहनों ने सिंचन कार्य की एक समस्या बताई, तब जो बात समझ नहीं आई, मैंने उससे बचना चाहा। सोचा वे खुद ही इसका हल निकाल लेंगे। पर इस बार मुझे पता था मैं टालमटोल कर जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती हूँ। तब आदेश के प्रति नूह के गंभीर और जिम्मेदार रवैये के बारे में सोचा, फिर विवेक से अपनी गलत सोच ठीक की। मैंने ध्यान से सुना कि उन्होंने कैसे समस्या हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता की, जब उन्होंने सार बताया, तो मैंने अपनी सलाह दी। मुझे हैरानी हुई जब उन्होंने कहा कि मेरी सलाह अच्छी थी। बहन ली के साथ नए सदस्यों का सिंचन करते हुए, मैंने उनकी व्यावहारिक परेशानियाँ हल कीं, जो समस्या मैं हल नहीं कर पाती, उसमें उसकी मदद माँग लेती। कुछ समय बाद, मैं भी खुद से नए सदस्यों का सिंचन करने लगी। हालांकि अब भी मुझमें कई कमियां और खामियां हैं, पर खुद को आगे बढ़ते देख सकती हूँ, इससे काफी सुकून महसूस होता है। जो भी समझ और फायदे मिले, सब परमेश्वर के कार्य का प्रभाव है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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