दिखावा करने की बेशर्मी

04 फ़रवरी, 2022

वंग क्षिणपिंग, चीन

मार्च 2020 में, मुझे एक नई कलीसिया में ट्रांसफर किया गया। मैं अपनी पुरानी कलीसिया में अगुआ थी, मेरे भाई-बहन मेरे बारे में बहुत ऊँचा सोचते थे। जब भी उनको कोई समस्या होती, वे समाधान के लिए मेरे पास आते। मगर इस कलीसिया में, भाई-बहन मेरे बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे। मुझे एक गुमनाम प्यादे जैसा महसूस होता था, जो बहुत निराशाजनक था। मैंने सोचा : "मैं सुसमाचार का प्रचार करने में कितनी अच्छी रही हूँ, इस बार अगर मैं अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करके ज़्यादा लोगों को परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने की राह दिखा पाई, तो हर किसी को लगेगा कि मुझमें काबिलियत है और मैं दूसरों के मुकाबले अपने कर्तव्य अधिक कुशलता से कर पाऊँगी। फिर मैं बाकी सब से अलग दिखूंगी।" इसलिए, मैं सुबह से लेकर रात तक, सुसमाचार का प्रचार करने लगी, कभी-कभी खाने का भी समय नहीं मिलता था, जल्दी ही, मेरे प्रचार के कारण, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों ने परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लिया। मैंने सोचा, "मैंने इतने अच्छे से काम किया है इसलिए मेरे भाई-बहन पक्के तौर पर मुझे नए नज़रिये से देखेंगे।" भाई-बहनों को देखकर मैं खुद को दिखावा करने से नहीं रोक पाती। वे ईर्ष्या भरे लहज़े में कहते, "आप आसानी से सुसमाचार का प्रचार करती हैं, पर हम नहीं कर पाते। सुसमाचार का प्रचार करते हुए जब मैं धारणा रखने वालों से मिलती हूँ जो सुनते ही नहीं, तो समझ नहीं आता क्या कहूँ।" सच तो ये है कि मैंने भी अक्सर इन हालात का सामना किया है और ऐसे लोगों को समझा नहीं पाती हूँ, मगर मैं कभी इन समस्याओं और नाकामियों का ज़िक्र नहीं करती, न ही कभी इनके बारे में बात करती, डर था कि सबको पता चला, तो वे मुझे काबिल नहीं समझेंगे, मेरे बारे में ऊँचा नहीं सोचेंगे। मैंने सोचा, "मुझे बस सुसमाचार-प्रचार के सफल अनुभवों के बारे में बोलना चाहिए, ताकि आप जान सकें कि मैं अपना कर्तव्य बड़े अच्छे से करती हूँ।" इसलिए मैंने कहा, "सुसमाचार का प्रचार करना मुश्किल नहीं है। जब मैं सुसमाचार-प्रचार के लक्ष्यों से मिलती हूँ, तो मैं उनके साथ ऐसे सहभागिता करती हूँ ..." यह सुनकर मेरे भाई-बहन मेरी बहुत प्रशंसा करते। उसके बाद, जब किसी के दोस्तों या रिश्तेदारों को परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की जांच करने की इच्छा होती, तो दूसरे लोग कहते, "झी पिंग को ले जाओ। झी पिंग से मिलो।" हर किसी का ऐसा रवैया देखकर मैं बहुत खुश थी। जल्दी ही, मुझे कई कलीसियाओं के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी देने की सिफारिश की गई। इससे मुझे और गर्व हुआ, अब काबिलियत दिखाने का और भी बड़ा मंच मिल गया है। जब भी मेरे भाई-बहनों को सुसमाचार साझा करने या नए सदस्यों के सिंचन में कोई मुश्किल आती और वे अपने कदम पीछे खींच लेते, या जब उन्हें तकलीफ़ उठाने और कीमत चुकाने की इच्छा नहीं होती, तो मैं उनका हौसला बढ़ाते हुए बताती कि सुसमाचार का प्रचार करने में मैंने कितनी तकलीफें उठाई हैं। मैं कहती कि सुसमाचार-प्रचार के समय, कभी-कभी सर्दियों में तापमान शून्य से बहुत नीचे चला जाता था, सर्द हवाएं चीर देती थीं, मगर मैं तब भी प्रचार करती थी। भारी बारिश में, पुलों के नीचे पानी भर जाता था, जूते गीले हो जाते थे, तब जूतों से पानी निचोड़कर जेब में रख लेती और प्रचार के लिए आगे बढ़ जाती। एक बार, जब तापमान शून्य से बहुत नीचे था, मैं एक नए सदस्य से मिलने पहुँची, मैंने घंटे भर बाहर उस का इंतज़ार किया। ... भाई-बहन ये सुनकर, समर्थन भरी नज़रों से मुझे देखते और इतना सहने के लिए मेरी सराहना करते, इससे मुझे बहुत खुशी मिलती।

बाद में, मेरे अगुआओं ने मुझे और कलीसियाओं के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी सौंपी। मैंने सोचा, "कुछ ही महीनों में मेरी फिर से तरक्की मिली है, अब मेरे भाई-बहन मेरे बारे में और भी ऊँचा सोचेंगे!" उस दौरान, मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती और नए सदस्यों के सिंचन से जुड़े सत्य के पहलू समझने की कोशिश करती। धीरे-धीरे कर्तव्यों में आगे का मार्ग मिल गया। भाई-बहनों को लगता कि मेरी सहभागिता से काफी मदद मिलती है। मुझे एहसास भी नहीं हुआ और मेरा अहंकार फिर से बढ़ने लगा, मैं फिर से सभाओं में दिखावा करने लगी। जब मेरे भाई-बहन मुझसे पूछते कि नए सदस्यों की धार्मिक धारणाओं का समाधान कैसे किया जाए, मैं सोचती, "मैं उनसे इस बारे में ऐसे बात करूंगी कि हर किसी को इस मामले में मेरी महारत का पता चल सके।" फिर मैं अपने विचारों और अनुभव के बारे में उन्हें विस्तार से बताती, धीरे-धीरे हर कोई मुझे अलग नज़रिये से देखने लगा। मैं जो कुछ भी कहती उसे वे बहुत ध्यान से सुनते, मैं जहां भी जाती भाई-बहन मेरा भरपूर स्वागत करते, जिन भाई-बहनों ने मेरी सहभागिता कभी नहीं सुनी थी वे भी मुझे सुनने की माँग करते। बाद में, मैंने सुसमाचार के प्रचार और सिंचन कार्य में आई सामान्य समस्याओं को लेकर सत्रह नियम लिखे, फिर सभाओं में भाई-बहनों के साथ इन पर गहन चर्चा की। उस समय, एक बहन के पति जो एक गाँव के कैडर थे, उसके परमेश्वर में विश्वास का विरोध करते थे, बहुत-से तीखे सवाल कर हमारे लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं, उसने मेरा नाम लेकर मुझसे सहभागिता की माँग की। इससे मैं बहुत परेशान थी, मगर, परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए, मैंने उसके हर सवाल का खंडन किया अंत में, उसके पास कहने को कुछ नहीं था। फिर, मैंने उसके द्वारा उठाये सवालों को, सुसमाचार-प्रचार में अक्सर पूछे जाने वाले सवालों में शामिल कर लिया। सभाओं में हर बार, मैं जानबूझकर ये बात निकालती और बढ़ा-चढ़ा कर बोलती, मैं सभाओं में अपने सफल अनुभवों के बारे में बताती, ताकि मेरे भाई-बहन जानें कि मैं कितनी काबिल और बुद्धिमान हूँ। सभाओं के बाद, कुछ भाई-बहन कहते, "बहन, क्या आप एक और दिन हमारे साथ रहकर थोड़ी और सहभागिता कर सकती हैं?" हर किसी को अपनी प्रशंसा करता देखा, मेरा अहंकार बढ़ता चला गया। भाई-बहनों को दिखाने के लिए कि मेरी बड़ी अहमियत है, मैं कर्तव्य में तकलीफें उठाती और कीमत चुकाती हूँ, मैं बातों-बातों में उनसे कहती, "मुझ पर कई कलीसियाओं की जिम्मेदारी है, दूसरी कलीसिया में अपोइंटमेंट भी तय है। बहुत से भाई-बहन मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। मेरे पास तो आराम करने का भी समय नहीं है। ..." भाई-बहनों के साथ बात करते समय, मैं जानबूझकर कहती, "जिस भी सभा में जाती हूँ, पूरा दिन निकल जाता है। मेरी कमर में चोट आ गई थी, और इस तरह बैठना बड़ा मुश्किल है।" यह सुनकर एक बहन ने प्रशंसा में कहा, "आप वाकई कड़ी मेहनत कर रही हैं, आपको अपनी सेहत पर भी ध्यान देना होगा।" क्योंकि मैं अक्सर भाई-बहनों के बीच इस तरह का दिखावा किया करती थी, उन्हें लगता कि मैं तकलीफ उठाने और कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी उठाने में सक्षम हूँ।

उस दौरान, मैं सभाओं और सहभागिता में बहुत व्यस्त रहती थी, कभी-कभी मेरा दिल इतना खाली हो जाता कि समझ नहीं आता क्या कहूँ। मगर भाई-बहनों की आँखों में उम्मीद देख, मैं सोचती, "भाई-बहनों को लगता है कि मैं सत्य के बारे में स्पष्ट सहभागिता करती हूँ, जहां भी जाती हूँ, सब मेरी बड़ाई करते हैं। अगर मैं उनसे कहूँ कि मुझे सहभागिता करना नहीं आता, तो उनके दिलों में बनी मेरी अच्छी छवि बिगड़ नहीं जाएगी?" मैंने शांत रहने का दिखावा करते हुए पहले उनसे सहभागिता करने को कहा। मैंने सोचा, "पहले, मैं हर किसी की बातें सुनूंगी, फिर उनकी बातों का सारांश निकालकर अपनी समझ साझा करूंगी। इससे लगेगा कि मैं सत्य अधिक विस्तार और स्पष्टता से समझती हूँ।" अंत में, भाई-बहनों को लगा कि मैंने अच्छी तरह से सहभागिता की है। फिर मैंने नम्रता का दिखावा किया, "चूंकि मेरे पास यह कर्तव्य है, परमेश्वर ने मुझे अलग तरीके से प्रबुद्ध किया है।" मेरे ऐसा कहने पर, भाई-बहन मुझ पर और भी अधिक आश्रित हो गये। उस दौरान, सुसमाचार का प्रचार करने में कोई भी भी मुश्किल आने पर, वे प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि उम्मीद करते कि मैं उनकी समस्याएँ हल कर दूँगी। उस समय, मैंने प्रशंसा करने और पाने, दोनों के नुकसानों के बारे में सोचती थी, मुझे थोड़ी बेचैनी भी होती, मगर फिर मैं सोचती, "मेरी सहभागिता बस परमेश्वर के वचनों की मेरी समझ और भाई-बहनों को अभ्यास के मार्ग बताने के लिए है। यह सब काम के अच्छे नतीजे के लिए है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।" इसलिए वैसी चिंताएं और आशंकाएं पल भर के लिए ही होती थीं। मगर जब मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के जोश और जूनून से भरी थी, तभी कई सालों से दबा सोरायसिस अचानक वापस आ गया। मेरे पैरों, हाथों और चेहरे पर बड़े-बड़े चकत्ते बन गये। इसमें बहुत खुजली होती थी, इससे मुझे इतनी परेशानी होती कि मैं सभाओं में भी नहीं जा पाती थी। मैंने बहुत सी दवाएं लीं, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। इस बार, यह पहले से ज़्यादा बिगड़ गया था। मुझे लगा कि यह स्थिति ऐसे ही नहीं आई, जरूर इसमें मेरे लिए कुछ सबक होंगे। मैंने इसकी खोज करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, मगर उस समय मुझे अपनी समस्या समझ नहीं आई।

बाद में, मेरे अगुआओं ने व्यवस्था की कि मैं कुछ सुसमाचार-प्रचारकों के साथ सहभागिता कर उनकी समस्याएँ हल करूँ। फिर मैंने सोचा, "मुझे ये अच्छे से करना होगा ताकि मैं अपनी काम करने की क्षमता उन्हें दिखा सकूँ।" उसके बाद, मैंने बैठक में किसी एग्जिक्यूटिव की तरह रिपोर्ट पेश की। मैंने बताया कि सुसमाचार का प्रचार करते समय सहभागिता की मुख्य बातों को कैसे समझा जाए, सुसमाचार के प्रचार की आम समस्याओं का हल कैसे करें। भाई-बहनों ने बहुत ध्यान से सुना। कुछ लोग तो लगातार मेरी बातों को नोट करते रहे, कि कुछ छूट न जाए। मेजबानी करने वाली बहन भी दरवाजे के पास बैठकर ध्यान से मेरी बातें सुनती रही और समय-समय पर मुझे पानी दिया। सभी को मेरी सहभागिता को इतना पसंद करता देख मुझे बहुत खुशी हुई। मगर साथ ही साथ मैं थोड़ी परेशान भी थी। यह सब सिर्फ मेरी निजी समझ थी, इसलिए गलतियां होना लाजमी था, तो क्या हर किसी का मेरी बात को नोट करना ठीक था? मगर फिर मैंने सोचा, "शायद भाई-बहन कुछ अच्छी बातों को लिख लेना चाहते हैं, ताकि कर्तव्य निर्वहन में उन्हें मदद मिले। इसमें कुछ भी गलत नहीं हो सकता।" ये सोचकर मैंने सभाओं में लोगों को नोट लिखने देने का फैसला किया। अगले दिन की बैठक में, एक बहन फिर से आई, कहने लगी, "कल मैं बहन झी पिंग की सहभागिता को लिख नहीं पाई, इसलिए आज फिर से सुनूंगी।" बैठक के बाद, मैंने दो बहनों को बातें करते सुना। एक ने कहा, "क्या तुमने इसे रिकॉर्ड किया?" दूसरी बहन की शिकायत थी, "तुमने इसे रिकॉर्ड क्यों नहीं किया?" यह सुनकर मुझे थोड़ा डर महसूस हुआ : "अगर हर कोई मेरी बातों को इतना महत्वपूर्ण मानता है, तो क्या मैं लोगों को अपने सामने नहीं ला रही?" जितना सोचती उतना ही मुझे डर लगता, इसलिए मैंने घर जाकर परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की, ताकि मैं खुद को जान सकूँ।

मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े। "स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? एक तरीक़ा इस बात की गवाही देना है कि उन्‍होंने कितना अधिक दुःख भोगा है, कितना अधिक काम किया है, और स्वयं को कितना अधिक खपाया है। वे इन बातों की चर्चा निजी पूँजी के रूप में करते हैं। अर्थात, वे इन चीज़ों का उपयोग उस पूँजी की तरह करते हैं जिसके द्वारा वे अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मज़बूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्‍हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह परम प्रभाव है। इस लक्ष्‍य—पूर्णतया अपना उत्कर्ष करना और स्वयं अपनी गवाही देना—को प्राप्त करने के लिए वे जो चीज़ें करते हैं, क्‍या वे तर्कसंगत हैं? वे नहीं है। वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, और विशेष दक्षताओं तक पर, या अपने आचरण की चतुर तकनीकों और लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों तक पर इतराते हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ, और नाकामियाँ छिपाते हैं ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने परमेश्‍वर के घर को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। "वे सभी जो अधोगति पर होते हैं स्वयं का उत्कर्ष करते हैं और स्वयं की गवाही देते हैं। वे स्वयं के बारे में शेखी बघारते हैं और आत्म-प्रशंसा करते हैं, और उन्होंने परमेश्वर को हृदय में तो बिल्कुल नहीं लिया है। मैं जिस बारे में बात कर रहा हूँ, क्या तुम लोगों को उसका कोई अनुभव है? बहुत से लोग लगातार खुद के लिए गवाही दे रहे हैं : 'मैं इस तरह से या उस तरह से पीड़ित रहा हूँ; मैंने फलाँ-फलाँ कार्य किया है और परमेश्वर ने मेरे साथ फलाँ-फलाँ ढंग से व्यवहार किया है; उसने मुझे ऐसा-ऐसा करने के लिए कहा; वह विशेष रूप से मेरे बारे में ऊँचा सोचता है; अब मैं फलाँ-फलाँ हूँ।' वे जानबूझकर एक निश्चित लहजे में बोलते हैं, और निश्चित मुद्राएँ अपनाते हैं। अंतत: कुछ लोग इस विचार पर पहुँचते हैं कि ये लोग परमेश्वर हैं। एक बार जब वे उस बिंदु पर पहुँच जायेंगे, तो पवित्र आत्मा उन्हें लंबे समय पहले ही छोड़ चुका होगा। यद्यपि, इस बीच, उन्हें नजरअंदाज किया जाता है, और निष्कासित नहीं किया जाता है, उनका भाग्य निर्धारित किया जाता है, और वे केवल अपने दण्ड की प्रतीक्षा कर सकते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। परमेश्वर के वचन ने मेरी स्थिति को साफ तौर पर उजागर कर दिया। मैं अक्सर खुद को ऊँचा उठाती थी, दिखावा करती थी। नई कलीसिया में काम शुरू करते समय, लगता था मेरी कोई पहचान, कोई अहमियत नहीं है, इसलिए मैंने सुसमाचार के प्रचार को लोगों से अपने प्रशंसा और अनुसरण करवाने का मौका समझा। सबको अपनी काबिलियत दिखाने और मेरे प्रति उनका नजरिया बदलने के लिए, मैंने अपनी विफलता के अनुभवों के बारे में बात नहीं की, इसके बजाय, सिर्फ यही बताया कि मैंने सुसमाचार का प्रचार कैसे किया, कितने लोगों का मत परिवर्तन किया, और मुश्किल समस्याओं को कैसे हल किया जाए, ताकि लोगों को एक भ्रम हो और वे सोचें कि मैं कोई भी काम करने के काबिल हूँ। जब मेरी तरक्की हुई, तो मैं चाहती थी कि और ज़्यादा लोग मेरी बड़ाई करें, उनके दिलों में मेरे लिए जगह हो, इसलिए मैं भाई-बहनों से कहती कि देखो, मैं कितनी व्यस्त हूँ, कैसी तकलीफें सहती हूँ। मगर मैंने कभी अपनी कमज़ोरी और भ्रष्टता के बारे में बात नहीं की, ताकि लोग सोचें कि मैं सत्य खोज सकती हूँ, कीमत चुका सकती हूँ, और अपने कर्तव्यों का बोझ उठा सकती हूँ। क्या यह अपने भाई-बहनों को धोखा देना नहीं थी? बड़ा लाल अजगर हमेशा अपने "महान, शानदार और सही" छवि का प्रचार करता है ताकि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा और अनुसरण करें, मगर हर तरह से, दुनिया के लोगों को धोखा देने के लिए चोरी से किए अपने बुरे कर्मों पर परदा डालता है। मेरे और बड़े लाल अजगर के कर्मों के बीच क्या फ़र्क है? परमेश्वर ने मुझे सुसमाचार फैलाने की प्रतिभाएं और खूबियां दीं, ताकि मैं सुसमाचार का दायरा बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा सकूँ और ज़्यादा लोगों को परमेश्वर के करीब ला सकूँ, ताकि वे उसका उद्धार पा सकें। मगर मैंने इन प्रतिभाओं और खूबियों का इस्तेमाल दिखावा करने के लिए किया, मेरे प्रति भाई-बहनों के सम्मान और निष्ठा का लाभ उठाया। मैं कितनी बेशर्म थी। क्योंकि मैं भाई-बहनों को धोखा देने के लिए लगातार खुद को ऊँचा उठाती और दिखावा करती रही, समस्याएं आने पर सत्य की खोज या परमेश्वर से प्रार्थना करने के बजाय हल ढूंढने के लिए मेरे साथ सहभागिता की। क्या मैं परमेश्वर की जगह लेने की कोशिश नहीं कर रही थी? मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी! जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मुझे बहुत डर लगा। मैं घुटनों के बल परमेश्वर के आगे गई और प्रार्थना करते हुए रोने लगी, "परमेश्वर, मैंने गलती की है। मैंने खुद को ऊँचा उठाया और दिखावा किया, ताकि लोग मुझे पूजें। आपका विरोध करने के ऐसे मार्ग पर चल पड़ी जिससे छुटकारा संभव नहीं। अब मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।"

फिर मैंने आत्मचिंतन किया। मैं साफ तौर पर जानती थी कि मेरी सहभागिता की रोशनी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता थी, फिर भी न चाहकर भी मैंने दिखावा क्यों किया? मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। "जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैं तुम्हारे साथ नहीं निपटता हूँ, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी काट-छाँट नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और अपने सामने समर्पण करवाने लगोगे। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें इनमें से कुछ भी जानबूझकर करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारे सामने समर्पण करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी गवाही दें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और इच्छानुसार चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी हरकतें करने का अर्थ है कि उनकी अहंकारी प्रकृति शैतान की है; महादूत की है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो वे महादूत बन जाते हैं और परमेश्वर को दरकिनार कर देते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी और दंभी थी। मैं भी पौलुस जैसी थी, जो चाहता था कि लोग उसकी पूजा और प्रशंसा करें। सबसे पहले, मैं बस अपना कर्तव्य अच्छे से करना चाहती थी, मगर मैं अपने अहंकारी और दंभी प्रकृति के काबू में थी, इसलिए समूहों में, अनायास दिखावा करती और खुद को ऊँचा उठाती थी। हालांकि मैं जानती थी कि मेरी बातों में निजी मंशाएं और इरादे होते थे, मैं अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर कभी काबू नहीं कर पाती थी। हमेशा लोगों से प्रशंसा और स्तुति चाहती थी। बचपन में परिवार के लाड़-प्यार ने मुझे बिगाड़ दिया था, बड़ी हुई तो बिजनेस में उतर गई और एक जानी-मानी उद्यमी बन गई। घर में और काम पर, हमेशा मेरी ही चलती थी। जहां भी मैं जाती, दूसरों की प्रशंसा और तारीफ पाती, मुझे आसमान का सबसे चमकता सितारा होने का एहसास हुआ, सभी मेरी सुनते थे। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, मैं कलीसिया में साधारण और गुमनाम होने से कभी संतुष्ट नहीं रही। मैंने हमेशा ऐसे अवसरों की खोज की ताकि दूसरे मेरी प्रशंसा करें और मेरे बारे में ऊँचा सोचें। पौलुस की प्रकृति खास तौर पर अहंकारी थी, वह हमेशा यही चाहता था कि दूसरे उसे पूजें, उसके बारे में ऊँचा सोचें, इसलिए उसने जो भी कार्य किया, जितनी भी पीड़ा सही, उसका दिखावा किया। उसने अपने पत्रों में कभी मसीह की गवाही नहीं दी। इसके बजाय, उसने कलीसिया की मदद करने के नाम पर खुद को ऊँचा उठाया, और बाद में, उसने बेशर्मी से यह गवाही दी कि वह मसीह की तरह जीवन जीता था। विश्वासी उसे पूजते, उसे ऊंचा उठाते, उसे एक मिसाल समझते, और उसकी बातों को परमेश्वर के वचन मानते थे। इस हद तक कि आज, 2,000 साल बाद भी कई धार्मिक विश्वासी पौलुस की बातों से चिपके हैं, और परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को ठुकराते हैं। पौलुस लोगों को अपने सामने लाया, जिससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान हुआ, और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। अब, मैं भी अहंकारी और दंभी हूँ, "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है" और "भीड़ से ऊपर उठो," जैसे शैतानी विचारों और नजरियों के अनुसार जीती थी। मैं हमेशा दूसरों से आगे रहना, दिखावा करना और अपनी काबिलियत दिखाना चाहती थी। इसी वजह से कुछ होने पर भाई-बहन सिर्फ मेरी बात सुनते और मानते थे, मेरी सहभागिता अच्छी तरह न सुन पाने पर, उसकी भरपाई के तरीके खोजते थे, यहां तक कि मेरी बातों को रिकॉर्ड भी करते थे, क्योंकि मेरी बातें उन्हें परमेश्वर के वचनों से अहम लगतीं। फिर भी, ये नहीं पता था कि आत्मचिंतन करना चाहिए। इसके बजाय, मैंने खुद को प्रशंसा पाने की खुशी में डुबो दिया। मैं कितनी अहंकारी और बेशर्म थी! मुझे खुद को बिलकुल नहीं पहचानती थी। यह नहीं समझती थी कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, एक ऐसी इंसान जिसे शैतान ने भ्रष्ट किया है, मैंने बेशर्मी से खुद को ऊँचे आसन पर बिठा दिया। मैं चाहती थी कि दूसरों के दिलों में मेरी जगह हो, वे मेरी बात सुनें, मेरा समर्थन करें। चूंकि मैं लगातार दिखावा करती रही, मैंने अपने भाई-बहनों के दिलों में अपनी एक जगह बना ली। उन्होंने जितनी मेरी प्रशंसा की, उतना ही परमेश्वर से दूर हो गए। क्या मैं लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ नहीं कर रही थी? मैंने राज्य के युग की पहली प्रशासनिक आज्ञा के बारे में सोचा, "मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। परमेश्वर ने लोगों को बनाया, इसलिए हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, उसे सर्वोपरि मानना चाहिए, मगर मैंने ऐसा काम किया कि लोग मेरी प्रशंसा करें, मेरे बारे में ऊँचा सोचें और मुझे सर्वोपरि मानें। क्या मैं इस प्रशासनिक आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर रही थी? उस समय, मुझे बहुत डर लगा। लोगों से अपनी पूजा और बड़ाई करवाने के लिए दिखावा करने की गंभीर प्रकृति का एहसास हुआ। अगर मैं ऐसा करती रही, तो पक्के तौर पर नरक में पौलुस की तरह दंडित पाऊँगी! मेरी बीमारी परमेश्वर द्वारा मुझे अनुशासित किया जाना था। वह बीमारी के ज़रिये मुझे चेतावनी दे रहा था कि मैं भटक गई हूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था!

फिर मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "हालाँकि परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसकी सृष्टि है, जो सुनने में ऐसा लग सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अंतर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है, वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, लोगों को शैतान के बंधन से छुड़ाने के लिए परमेश्वर खुद ही देहधारण करके लोगों के बीच कार्य करने आया है, उसने लोगों की निंदा और बदनामी को सहा है। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए सब कुछ त्याग दिया, फिर भी उसने कभी दिखावा नहीं किया। लोगों के साथ संवाद करते समय भी उसने कभी परमेश्वर होने का फायदा नहीं उठाया। उसने चुपचाप हमें सत्य और जीवन की आपूर्ति की। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार सुंदर और नेक है, वह विनम्र और अप्रत्यक्ष है, उसमें कोई घमंड या अहंकार नहीं है। जबकि, मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई इंसान थी जिसके पास असल में कुछ नहीं था, फिर भी परमेश्वर ने कर्तव्य देकर मुझे ऊँचा उठाया, मेरा मार्गदर्शन करके मुझे प्रबुद्ध किया, मगर मैंने हर जगह इसे दिखावा करने की पूँजी जैसे इस्तेमाल किया, ताकि लोगों के दिलों में अपनी ऊँची छवि बना सकूँ, उनकी प्रशंसा और तारीफ पा सकूँ। मैं परमेश्वर की नज़रों में बहुत बेशर्म, घिनौनी और दुष्ट थी। मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं तुम्हारे सामने अपने पापों को कबूल कर पश्चाताप करना चाहती हूँ। अब मैं दिखावा नहीं करना चाहती। मैं विनती करती हूँ, मेरा मार्गदर्शन करो और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को हल करने का मार्ग दिखाओ।"

मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े। "किस प्रकार का व्यवहार अपना उत्कर्ष न करना और अपनी गवाही न देना है? उसी मामले में, यदि तुम दिखावा करते हो, तो तुम अपने आपको ऊँचा उठाने, अपनी गवाही देने और दूसरों से आदर पाने के अपने उद्देश्य में सफल हो जाओगे—लेकिन यदि तुम खुलकर अपनी सच्चाई उजागर कर देते हो, तो सार अलग होता है। यहाँ विवरण की बात आ जाती है, है न? उदाहरण के लिए, जब तुम अपनी अभिप्रेरणाएँ और विचार प्रकट करते हो, तो तुम्हें स्वयं को व्यक्त करने के वाक्यांशों और तरीकों, जो कि आत्म-ज्ञान हैं, और दिखावा करने के तरीकों, जिनसे दूसरे तुम्हें आदर दें, जो तुम्हारी प्रशंसा और गवाही का गठन करते हैं, के बीच अंतर करना आना चाहिए। यदि तुम याद करो कि तुमने कैसे प्रार्थना की है और कैसे सत्य की खोज की है, परीक्षणों के दौरान कैसे गवाही दी है, तो यह परमेश्वर की बड़ाई करना और उसके लिए गवाही देना है। इस तरह का अभ्यास दिखावा करना और अपनी गवाही देना बिलकुल नहीं है। तुम दिखावा कर रहे हो या नहीं और अपनी गवाही दे रहे हो या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम जो कहते हो, उसका तुमने वास्तव में अनुभव किया है या नहीं, और क्या परमेश्वर की गवाही का प्रभाव प्राप्त हुआ है या नहीं; इसलिए, यह देखना भी आवश्यक है कि जब तुम अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करते हो, तो तुम्हारे इरादे और लक्ष्य क्या होते हैं। ये सब चीजें अंतर बताना आसान कर देती हैं। जब तुम अपने आपको उजागर और अपना विश्लेषण करते हो, तो उसमें तुम्हारा इरादा भी शामिल होता है। यदि तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाने का होता है कि तुम्हारी भ्रष्टता कैसे उजागर हुई, तुम कैसे बदल गए हो, और तुम उससे दूसरों को लाभ उठाने देते हो, तो तुम्हारे शब्द ईमानदार, सच्चे और तथ्यों के अनुरूप होते हैं। इस तरह के इरादे सही होते हैं, और तुम दिखावा नहीं कर रहे होते या अपनी गवाही नहीं दे रहे होते। यदि तुम्हारा इरादा हर किसी को यह दिखाना है कि तुमने वास्तव में क्या अनुभव किया है, और तुम बदल गए हो और तुममें सत्य की वास्तविकता आ गई है, और इस तरह तुम लोगों की प्रशंसा और सम्मान अर्जित कर लेते हो, तो ये इरादे झूठे हैं—और उन्हें भी प्रकाश में लाया जाना चाहिए। यदि तुम्हारे बताए अनुभव और गवाही झूठी हैं, यदि उन्हें लोगों को गुमराह करने के लिए संशोधित किया और रचा गया है, ताकि उन्हें तुम्हारा वास्तविक पक्ष देखने से रोका जा सके, तुम्हारे इरादे, तुम्हारी भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता दूसरों के सामने प्रकट न हो पाए, तो ऐसे शब्द कपटपूर्ण और नकली हैं; यह झूठी गवाही है, यह परमेश्वर को धोखा देना है, यह परमेश्वर को लज्जित करता है, और परमेश्वर इसी से सबसे अधिक घृणा करता है। इन दोनों स्थितियों में स्पष्ट अंतर है, जिनमें प्रेरणा के आधार पर भेद किया जाता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्क हीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अगर मैं खुद को ऊँचा उठाना और खुद की गवाही देना नहीं चाहती, तो मुझे अक्सर परमेश्वर की मौजूदगी में जीना होगा, एक पवित्र हृदय रखना होगा जो परमेश्वर का भय मानता हो, अपने भाई-बहनों के सामने दिल की बातों को खुलकर बताना होगा, समझदारी से अपनी भ्रष्टता का खुलासा करके उसका विश्लेषण करना होगा, अपने उन वास्तविक अनुभवों के बारे में बताना होगा, जब मैं खुद को ऊँचा उठाना और खुद की गवाही देना चाहती थी। मुझे खुद को त्याग कर मंशाओं को ठीक करना था। मुझे अपने अंदर की भ्रष्टता और विद्रोह को उजागर कर उसका विश्लेषण करना था। मुझे परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शुद्धिकरण का अनुभव करने के बाद, परमेश्वर कार्य के अपने ज्ञान के बारे में सहभागिता करनी थी। मुझे दिल से बात करनी चाहिए ताकि भाई-बहनों को इससे लाभ मिले और वे मेरा असली चेहरा देख सकें। जब मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया, मैंने सभाओं में इस दौरान के अपने अनुभव और समझ को अपने भाई-बहनों के सामने रख दिया, मैंने उन्हें बताया कि मेरी सहभागिता में जो भी रोशनी दिखती है वह मेरे आध्यात्मिक कद से नहीं बल्कि पूरी तरह पवित्र आत्मा के प्रबोधन से आती है। परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, मैं कुछ नहीं कर सकती थी। उन्हें भी एहसास हुआ कि ऐसे मुझे पूजना और मेरे बारे में ऊँचा सोचना ठीक नहीं था, उन्होंने कहा कि अब वे कभी लोगों के बारे में ऊँचा नहीं सोचेंगे। और समस्या होने पर पवित्र आत्मा का प्रबोधन पाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर राह दिखाने को कहेंगे। इसके बाद, जब मैं सभाओं में जाती थी, तो कभी-कभी ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता था जिन्हें मैं समझ नहीं पाती थी, पर अहंकार छोड़कर उसके बारे में भाई-बहनों के साथ खुलकर बात करती थी। फिर , वे अपनी समझ और ज्ञान के बारे में सहभागिता करते, कभी-कभी उन चीज़ों पर भी जिन्हें मैं नहीं समझती थी, इससे मुझे काफी मदद मिलती थी। अब वे पहले की तरह मेरी पूजा नहीं करते थे, मुझमें समस्याएं देखकर उनके बारे में सीधे मुझे बता सकते थे। एक बार दोबारा दिखावा करने की इच्छा हुई, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकार किया। साथ ही, भाई-बहनों से खुलकर अपने दिल की बात कही, उन्हें अपनी कमियों और खामियों के बारे में बताया, उनका निरीक्षण स्वीकारा। इस तरीके से अभ्यास करने पर, मुझे सुरक्षा और सुकून का एहसास हुआ, मैंने सत्य का अभ्यास करने की मिठास का भी अनुभव किया। जब मुझे अपनी अहंकारी प्रकृति और गलत मार्ग पर चलने का एहसास हुआ, तो मैंने परमेश्वर के सामने पश्चाताप किया। मेरा सोरायसिस धीरे-धीरे गायब हो गया और मैं ठीक हो गई।

परमेश्वर के अनुशासन और ताड़ना का अनुभव करने के बाद मैंने सचमुच अनुभव किया कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव बहुत स्पष्ट और वास्तविक है, भले ही मैंने कुछ तकलीफें उठाईं, पर परमेश्वर का इरादा मेरे शैतानी भ्रष्ट स्वभाव से मुझे बचाने का था, जिससे मुझे परमेश्वर के वास्तविक प्रेम का पता चला। उसके न्याय, ताड़ना, अनुशासन और दंड ने ही मुझे दुष्टता करने से रोका और मुझे खतरे की दहलीज से वापस खींच लिया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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