शोहरत और लाभ के पीछे भागने पर चिंतन
मई 2021 में मुझे टीम-अगुआ के रूप में चुना गया था और मैं सिंचन-कार्य के लिए जिम्मेदार था। यह खबर सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई, क्योंकि अपने भाई-बहनों का सिंचन करके मुझे बहुत सारा प्रबोधन मिल सकेगा, बेहतर अनुभव हासिल होंगे। अगर मैं उनके जीवन प्रवेश में आने वाली समस्याएं हल कर पाया, तो भाई-बहन पक्के तौर पर कहेंगे कि मैं अच्छा हूँ और सत्य समझता हूँ, मैं कलीसिया की बुनियाद बन सकता हूँ। इसलिए, मैंने खुद को अपने कर्तव्य में झोंक दिया, भाई-बहनों के साथ संगति के लिए अक्सर सभाओं में जाने लगा, और उन्हें जब कोई परेशानी होती, तो मैं उनकी समस्या सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों में हल खोजने की पहल करता। कुछ समय बाद, कोई सवाल होने पर भाई-बहन सहभागिता के लिए मेरे पास आने लगे, मैं बहुत खुश था।
समय के साथ, जब और लोगों ने अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य स्वीकारा, तो कलीसिया में लोगों की संख्या बढ़ने लगी। एक दिन, मुझे पता चला कि एक कलीसिया अगुआ नए सदस्यों का सिंचन करने और मेरे काम की जानकारी लेने आने वाले हैं। भाई-बहन अपनी समस्याओं का हल पाने के लिए उनसे बात कर सकते हैं। जब मैंने यह सुना, तो मुझे कोई खुशी नहीं हुई, क्योंकि इस अगुआ ने पहले मेरा सिंचन किया था, उनमें अच्छी काबिलियत थी, वे मुझसे ज्यादा समझते थे और परमेश्वर के वचनों पर स्पष्ट संगति करते थे, वे भाई-बहनों की समस्याएँ आसानी से हल करने में समर्थ थे। मैंने मन में सोचा, “अब वो मेरे पार्टनर बनेंगे, तो क्या भाई-बहन पहले की तरह अपने सारे सवाल लेकर मेरे पास आएंगे? क्या वे मुझे किनारे करके मेरे अगुआ से सवाल पूछेंगे? इसके बाद कौन मेरे बारे में ऊँचा सोचेगा? भाई-बहनों के दिलों से मेरा रुतबा चला जाएगा।” यह सोचकर, मैं अगुआ का साथी नहीं बनना चाहता था। इसी के साथ, मुझे संकट भी महसूस हुआ। मैंने मन में कहा, “मैं ऐसा नहीं होने दे सकता। मुझे भाई-बहनों के दिलों में अपना रुतबा बनाए रखना होगा।” तब से, जब भी मुझे पता चलता कि भाई-बहनों की हालत बुरी है या उन्हें कोई परेशानी है, तो मैं सहभागिता करने और उनकी समस्या सुलझाने भागता, कि कहीं मेरे अगुआ पहले न पहुंच जाएँ। मैं सभी भाई-बहनों को कॉल करके पूछता कि उन्हें किसी मदद की जरूरत तो नहीं, कहता कि उनके मन में कोई सवाल या उलझन है, तो वे मेरे पास आ सकते हैं और मैं उनकी मदद कर सकता हूँ। मैंने सोचा, इस तरह भाई-बहन अपनी समस्याओं के लिए अगुआ को नहीं खोजेंगे। मगर सब कुछ उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था। मैं उनके द्वारा पूछी गई कई समस्याओं को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाता था, मुझे उन्हें हल करना भी नहीं आता था, मगर मैं अगुआ से नहीं पूछना चाहता था। मैंने सोचा, “अगर मैंने अगुआ से पूछा, तो उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मुझे सत्य की समझ नहीं, मैं समस्याएं हल नहीं कर सकता? और तो और, अगर मैंने अगुआ को भाई-बहनों की समस्याएं हल करने दी तो क्या उन लोगों को ऐसा नहीं लगेगा कि मैं नाकाबिल हूँ, उनकी मदद नहीं कर सकता?” मैं नहीं दिखाना चाहता था कि मैं उनकी मदद नहीं कर सकता। मैं चाहता था कि सभी जान लें कि मैं इस काम के लिए योग्य हूं, ताकि उनके मन में कोई सवाल हो, तो वे मुझसे ही पूछते रहें। मगर अपने बल पर भाई-बहनों की मदद करना मुश्किल था। कुछ चीजों का मैंने अनुभव नहीं किया था, और उनके साथ सहभागिता करके इसका हल निकालना नहीं जानता था, कभी-कभी तो उनकी समस्याएं हल करने के लिए प्रासंगिक परमेश्वर के वचन ढूंढने में मुझे कई दिन लग जाते, फिर जब दूसरे भाई-बहन अपने सवाल लेकर आते, तो मेरे पास उनसे बात करने का समय नहीं होता। इसी तरह, एक महीना गुजर गया, और क्योंकि मैंने समय पर अपने कुछ भाई-बहनों की मदद नहीं की, उनकी समस्याएं हल नहीं हो पाईं और उनकी बुरी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। मैं स्पष्ट रूप से समझता था कि अगर मैंने अगुआ से कह दिया होता कि मुझे इन समस्याओं की समझ नहीं है, तो हम साथ मिलकर उनकी मदद के लिए सत्य ढूंढ सकते थे, और सभी की समस्याएं जल्द से जल्द हल हो जातीं, मगर मैंने ऐसा नहीं किया। ये जानकर मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ कि अगर मैं ऐसा करता रहा, तो अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में जरूर रुकावट बन जाउंगा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा तब जाकर मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति अपने रवैये की थोड़ी समझ आई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपे गए काम हैं; वे लोगों द्वारा पूरा करने के लिए विशेष कार्य हैं। लेकिन, कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय कतई नहीं है, न यह भीड़ में अलग दिखने की सीढ़ी है। कुछ लोग कर्तव्यों का उपयोग अपने प्रबंधन और गिरोह बनाने के लिए करते हैं; कुछ अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए करते हैं; कुछ अपने अंदर का खालीपन भरने के लिए करते हैं; और कुछ भाग्य पर भरोसा करने वाली अपनी मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए करते हैं यह सोचकर कि जब तक वे अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहेंगे, तब तक परमेश्वर के घर में और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए व्यवस्थित अद्भुत गंतव्य में उनका भी एक हिस्सा होगा। कर्तव्य के बारे में इस तरह के दृष्टिकोण गलत हैं; वे परमेश्वर को घिनौने लगते हैं और उन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं समझ गया कि हमारा कर्तव्य परमेश्वर द्वारा हमें दी गई आज्ञा है, यह कोई निजी मामला नहीं है, हमें अपने कर्तव्य को दिखावा करने और दूसरों की प्रशंसा पाने का जरिया नहीं समझना चाहिए, न ही हमें कर्तव्य निर्वहन को प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के मौके रूप में इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे लोग हमारी सराहना करें। इसके बजाय हमें अपने कर्तव्य को एक दायित्व समझकर, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार उसे करना चाहिए। मगर अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया कैसा था? मैंने शोहरत और लाभ पाने और अपनी इच्छाओं को पूरा करने लिए कर्तव्य निभाया। मैं चाहता था कि मेरे भाई-बहन मेरी प्रशंसा और पूजा करें। मैंने उनके जीवन के लिए कोई दायित्व वहन नहीं किया, मैं उनकी मदद नहीं करना चाहता था, बल्कि मैं चाहता था उनकी नजर में मेरी अच्छी छवि बने, ताकि जब वे मेरी बात करें, तो कहें कि मैं बहुत अच्छा और उदार हूँ। मैंने अपने कर्तव्य से शोहरत, लाभ और रुतबा पाना चाहा, ताकि लोगों के दिलों में मेरी जगह बने, वे अपनी समस्याएं लेकर मेरे पास आएं और परमेश्वर को किनारे कर दें। मैं एक निजी उद्यम चला रहा था। फिर मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य को लेकर मेरा रवैया गलत था। भाई-बहनों की समस्याएं हल कर भी पाऊँ, तब भी मेरी मंशा कर्तव्य ठीक से करने की नहीं थी, जिससे परमेश्वर कभी संतुष्ट नहीं होता।
फिर मैंने मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े, जो मेरी हालत का अच्छे से वर्णन करते थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “चाहे कोई भी संदर्भ हो, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हों, वे यह छाप छोड़ने की कोशिश करेंगे कि वे कमजोर नहीं हैं, कि वे हमेशा मजबूत, आत्मविश्वास से भरे हुए रहते हैं, कभी नकारात्मक नहीं होते। वे कभी अपना असली आध्यात्मिक कद या परमेश्वर के प्रति अपना असली रवैया प्रकट नहीं करते। वास्तव में, अपने दिल की गहराइयों में क्या वे सचमुच यह मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है जो वे नहीं कर सकते? क्या वे वाकई मानते हैं कि उनमें कोई कमजोरी, नकारात्मकता या भ्रष्टता नहीं भरी है? बिल्कुल नहीं। वे दिखावा करने में अच्छे होते हैं, चीजों को छिपाने में माहिर होते हैं। वे लोगों को अपना मजबूत और सम्मानजनक पक्ष दिखाना पसंद करते हैं; वे नहीं चाहते कि वे उनका वह पक्ष देखें जो कमजोर और सच्चा है। उनका उद्देश्य स्पष्ट होता है : सीधी-सी बात है, वे अपनी साख, इन लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है अगर वे अपनी नकारात्मकता और कमजोरी दूसरों के सामने उजागर करेंगे, अपना विद्रोही और भ्रष्ट पक्ष प्रकट करेंगे, तो यह उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए एक गंभीर क्षति होगी—तो बेकार की परेशानी खड़ी होगी। इसलिए वे अपनी कमजोरी, विद्रोह और नकारात्मकता को सख्ती से अपने तक ही रखना पसंद करते हैं। और अगर ऐसा कभी हो भी जाए जब हर कोई उनके कमजोर और विद्रोही पक्ष को देख ले, जब वे देख लें कि वे भ्रष्ट हैं, और बिल्कुल नहीं बदले, तो वे अभी भी उस दिखावे को बरकरार रखेंगे। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने भीतर किसी भ्रष्ट स्वभाव का होना स्वीकार करते हैं, एक सामान्य व्यक्ति होना जो छोटा और महत्वहीन है, तो वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देंगे, सबकी श्रद्धा और आदर खो देंगे, और इस प्रकार पूरी तरह से विफल हो जाएँगे। और इसलिए, कुछ भी हो जाए, वे बस लोगों के सामने नहीं खुलेंगे; कुछ भी हो जाए, वे अपनी सामर्थ्य और हैसियत किसी और को नहीं देंगे; इसके बजाय, वे प्रतिस्पर्धा करने का हर संभव प्रयास करते हैं, और कभी हार नहीं मानते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मैं समझ गया कि मसीह-विरोधियों को रुतबा पसंद है। लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बनाये रखने के लिए, वे कभी लोगों को अपनी परेशानियां नहीं बताते इस डर से कि सभी उनकी कमियां जान जाएंगे। कर्तव्यों में परेशानियों से सामना होने पर भी वे दिखावा करते हैं, ताकि लोग उन्हें सर्वगुण-संपन्न समझें और मानें कि उन्हें सत्य की समझ है। यही मेरी हालत थी। बहुत-सी समस्याएं थीं, जिन्हें मैं हल नहीं सकता था, फिर भी मैंने किसी की मदद नहीं माँगी, और मैं हमेशा खुद को छिपाये रखता था क्योंकि मैं लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बनाना चाहता था, ताकि मेरे भाई-बहन सोचें कि मुझमें कोई कमी या खामी नहीं है और मैं उनकी सभी समस्याएं हल करने में उनकी मदद कर सकता हूँ। उनके दिलों में अपनी जगह और और छवि बनाए रखने के लिए मैंने खुद को छिपाया, अगुआ के साथ खोजने के बजाय परमेश्वर के वचनों में खोजने में काफी समय लगाना पसंद किया। नतीजतन मैं दूसरों के जीवन प्रवेश में रुकावट बन गया। मैंने देखा कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव गंभीर था और मैं पाखंडी था। मैंने सोचा कि यहूदी धर्म में फरीसियों का स्वभाव बाहर से विनम्र और सहनशील दिखता था। वे अक्सर चौराहों पर प्रार्थना करते या लोगों को धर्मशास्त्र समझाते थे। लोगों के दिलों में उनकी अच्छी छवि थी, मगर वास्तव में वे अंदर से, पाखंडी, अहंकारी और दुष्ट थे, उनके मन में परमेश्वर का भय या आज्ञाकारिता नहीं थी, उनके सारे काम परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन करने के लिए नहीं होते थे। इसके बजाय, वे अच्छे आचरण और भ्रांतियों से लोगों को धोखा देते थे, ताकि लोग उनकी प्रशंसा पूजा करें। मैंने देखा कि मैं भी उन फरीसियों जैसा ही पाखंडी था, मैं मसीह-विरोधी के परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चल रहा था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के व्यवहार का सार अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने, लोगों को धोखा देकर फँसाने और उच्च हैसियत प्राप्त करने के लिए लगातार विभिन्न साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करना है, ताकि लोग उनका अनुसरण और आराधना करें। संभव है कि अपने दिल की गहराइयों में वे जानबूझकर मानवजाति को लेकर परमेश्वर से होड़ न कर रहे हों, पर एक बात तो पक्की है : जब वे मनुष्यों को लेकर परमेश्वर के साथ होड़ नहीं भी कर रहे होते, तब भी वे उनके बीच रुतबा और सत्ता पाना चाहते हैं। अगर वह दिन आ भी जाए, जब उन्हें यह एहसास हो जाए कि वे रुतबे के लिए परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं और वे अपने-आप पर थोड़ी-बहुत लगाम लगा लें, तो भी वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं; उन्हें अपने दिल में स्पष्ट होता है कि वे कुछ लोगों की स्वीकृति और सराहना प्राप्त करके वैध रुतबा प्राप्त कर लेंगे। संक्षेप में, हालाँकि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, उससे वे अपने कर्तव्य निभाते प्रतीत होते हैं, लेकिन उसका परिणाम लोगों को धोखा देना होता है, उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाना होता है—ऐसे में, इस तरह अपना कर्तव्य निभाना उनके लिए अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना होता है। लोगों को नियंत्रित करने और कलीसिया में रुतबा और सत्ता हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलती। ऐसे लोग पूरे मसीह-विरोधी होते हैं। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे या करे, और चाहे वह लोगों से कुछ भी चाहे, मसीह-विरोधी वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए या अपने कर्तव्य उस तरह से नहीं निभाते जो परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुरूप हो, न ही वे किसी सत्य को समझने के नतीजे के तौर पर सत्ता और रुतबे का अपना अनुसरण ही त्यागते हैं। हर समय, उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छएँ फिर भी बनी रहती हैं, वे फिर भी उनके दिल पर कब्जा किए रहती हैं और उनके पूरे अस्तित्व को नियंत्रित करती हैं, उनके व्यवहार और विचारों को निर्देशित करती हैं, और उस मार्ग को निर्धारित करती है, जिस पर वे चलते हैं। वे प्रमाणिक मसीह-विरोधी हैं। मसीह-विरोधियों में सबसे ज्यादा क्या दिखाई देता है? कुछ लोग कहते हैं, ‘मसीह-विरोधी लोगों को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर से होड़ करते हैं, वे परमेश्वर को नहीं स्वीकारते।’ ऐसा नहीं है कि वे परमेश्वर को नहीं स्वीकारते; अपने दिल में वे वास्तव में उसके अस्तित्व को स्वीकारते और उस पर विश्वास करते हैं। वे उसका अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं और सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन उनका खुद पर बस नहीं चलता, इसलिए वे बुराई कर सकते हैं। हालाँकि वे कई अच्छी लगने वाली बातें कह सकते हैं, लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलेगी : सत्ता और हैसियत के लिए उनकी आकांक्षा और इच्छा कभी नहीं बदलेगी, न ही वे कभी असफलता या बाधा के कारण, या परमेश्वर द्वारा उन्हें दरकिनार कर त्याग दिए जाने के कारण सत्ता और रुतबे का अपना अनुसरण छोड़ेंगे। ऐसी होती है मसीह-विरोधियों की प्रकृति” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पाँच : वे लोगों को गुमराह करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं)। परमेश्वर कहता है, मसीह-विरोधी शोहरत और रुतबे के पीछे भागते हैं, लोगों को उनका अनुसरण करने पर मजबूर करते हैं और वे लोगों पर नियंत्रण कर उन्हें वश में करने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करते हैं। वे लोगों पर काबू पाने को परमेश्वर से होड़ करते हैं। मैं परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल रहा था। मैं परमेश्वर में विश्वास करता था, उससे प्रेम करना चाहता था, यह भी जानता था कि सभी चीजों पर परमेश्वर की सत्ता है और वह सर्वोपरि है। वह सृष्टिकर्ता है और हमें उसे पूजना चाहिए, मगर अपने कर्तव्य को निभाते हुए मैं अपने काम के जरिए लोगों से अपनी प्रशंसा और पूजा करवाना चाहता था, उनके दिलों में जगह बनाना चाहता था। मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था! मैंने धार्मिक जगत के पादरियों और एल्डरों के बारे में सोचा, कैसे वे सुसमाचार का प्रचार करते, बाइबल समझाते, लोगों के लिए प्रार्थना करते हैं, आशीष देते और कुछ अच्छे कर्म करते दिखते हैं, यह सब करने में उनका उद्देश्य अपना रुतबा बचाने का होता है ताकि विश्वासी उनके बारे में ऊँचा सोचें, उनका अनुसरण करें और जब भी विश्वासी के मन में सवाल हों, तो वह उन्हें लेकर मार्गदर्शन के लिए उनके पास जाएँ। जब वे प्रभु के वापस आने की बात सुनते हैं, तब भी वे सच्चे मार्ग की खोज या छानबीन करने के लिए उनकी सहमति मांगते हैं। क्या यह लोगों को खुद को परमेश्वर मानने पर मजबूर करना नहीं? ये पादरी और अगुआ लोगों पर मजबूत पकड़ बनाये रखते हैं, वे खुले तौर पर परमेश्वर से शत्रुता करते हैं, और मसीह-विरोधी बन जाते हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने के साथ ही उसका विरोध भी करते हैं। मैं भी वैसा ही था। मैं चाहता था कि भाई-बहन मेरी प्रशंसा करें, और अपनी सारी समस्याएँ लेकर अगुआ के पास नहीं मेरे पास आएँ। वास्तव में, मुझे विश्वास रखे थोड़ा ही समय हुआ था और मुझे अनुभव भी कम था। मुझे भाई-बहनों की हालत और समस्याओं की गहरी समझ नहीं थी। मैं उनकी अच्छे से मदद नहीं कर सकता था, फिर भी मैंने सत्य नहीं खोजा और मैं अगुआ का साथी बनने को तैयार नहीं हुआ। मैं बस इतना चाहता था कि भाई-बहन मेरे इर्द-गिर्द घूमें। मैं वाकई बहुत अहंकारी और नासमझ था! पहले, मुझे यह लगता था कि सिर्फ ऊँचे स्तर के अगुआ ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकते हैं और मसीह-विरोधी बन सकते हैं, एक टीम अगुआ के तौर पर, ऊँचे रुतबे के बिना मैं उस मार्ग पर नहीं चल सकता। मगर मुझे एहसास हुआ कि यह सोच गलत थी। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना मुझे कभी पता नहीं चलता कि मैं मैं मसीह-विरोधी के पथ पर चल रहा था और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हुए और बुरे कर्म करता, और परमेश्वर द्वारा ठुकराकर हटा दिया जाता। इसे समझने में मार्गदर्शन और प्रबोधन देने के लिए मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया। मैंने शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे न भागकर, पश्चाताप करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की ठान ली।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। ... अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में कठिन नहीं है, और न ही उसे निष्ठापूर्वक और स्वीकार्य मानक तक करना कठिन है। तुम्हें अपने जीवन का बलिदान या कुछ भी खास या मुश्किल नहीं करना है, तुम्हें केवल ईमानदारी और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों और निर्देशों का पालन करना है, इसमें अपने विचार नहीं जोड़ने हैं या अपना खुद का कार्य संचालित नहीं करना है, बल्कि सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चलना है। अगर लोग ऐसा कर सकते हैं, तो उनमें मूल रूप से एक मानवीय सदृशता होगी। जब उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता होती है, और वे ईमानदार व्यक्ति बन जाते हैं, तो उनमें एक सच्चे इंसान की सदृशता होगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों से मुझे उसकी इच्छा समझने में मदद मिली। आज, परमेश्वर ने लोगों को बचाने के लिए बहुत से वचन बोले हैं, इस उम्मीद में कि हम उसके वचनों को सुनेंगे, सृजित प्राणियों की अपनी जगह लेंगे, उसकी अपेक्षा के अनुसार निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाएंगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पाकर बचाये जा सकेंगे। अपने कर्तव्य में हमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाये रखने के लिए निजी उद्यम नहीं चलाना चाहिए। इसके बजाय, हमें छिपी मंशाओं को किनारे कर परमेश्वर की संतुष्टि के लिए निष्ठा से सत्य की खोज करनी और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से आखिर मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया।
कुछ दिनों बाद, एक बहन ने मुझे अपनी परेशानियों के बारे में बताते हुए मुझसे मदद माँगी। मुझे इसका कोई अनुभव नहीं था और इसे हल करना मुझे नहीं आता था। मुझे यह एहसास था कि मैं पहले जैसा बर्ताव नहीं कर सकता, अपनी काबिलियत दिखाने के लिए अगुआ से सहयोग करने को मना नहीं कर सकता, इसलिए मैंने इस समस्या के बारे में अपनी अगुआ से पूछा। मैंने कहा, “मैं इस समस्या को हल नहीं कर सकता। क्या आप मेरी मदद करेंगे?” अगुआ ने परमेश्वर के वचनों के उपयुक्त अंश ढूंढकर मुझे भेजे, और हमने साथ मिलकर संगति की और उस बहन की समस्या को हल किया। उसके बाद, जब भी मुझे कोई ऐसी समस्या होती जिसे मैं समझ न पाता, तो मैं अपने अगुआ से पूछता और उनके साथ सहयोग करता, अब मैं पहले की तरह अकेले काम नहीं करता। मेरा रवैया पहले से बदल गया है। अब मैं यह सोचना नहीं चाहता कि भाई-बहन मेरा आदर करेंगे या नहीं। इसके बजाय, मैं उनकी समस्याओं को बेहतर ढंग से हल करने के बारे में सोचता हूँ। इस तरह अभ्यास करने से मुझे काफी सुकून का एहसास हुआ। परमेश्वर का धन्यवाद!
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