सत्य का अभ्यास सुसंगत समन्वय की कुंजी है
अगस्त 2018 में, मेरा काम भाई वांग के साथ फिल्म के लिए प्रॉप बनाना था। शुरू में मैंने महसूस किया कि ज्यादातर चीज़ें मुझे पता नहीं हैं, इसलिए मैं हर समय भाई वांग से मदद मांगता था। कुछ समय बाद मैंने काम को समझ लिया। इसके अलावा, इंटीरियर डिजाइन सीखने के साथ-साथ मैंने कंस्ट्रक्शन में काम भी किया था, मुझे बढ़ईगीरी का अनुभव भी था, इसलिए जल्द ही मैं अकेले प्रॉप बनाने लगा। फिर मुझे एहसास हुआ कि भाई वांग इंटीरियर सेट डिजाइन करने में माहिर हैं, लेकिन असल प्रॉप बनाने में वे कमज़ोर थे। इसलिए जब इस विषय में हमारी सोच अलग होती थी तो मैं उनकी बात सुनना नहीं चाहता था। मैं हमेशा सोचता था कि मैं प्रॉप बनाने में ज्यादा माहिर हूँ और मेरी योजनाएं उनसे बेहतर हैं। समय के साथ हमारे मतभेद बढ़ने लगे। कभी-कभी लकड़ी के छोटे से टुकड़े का क्या करना है इसे लेकर भी हम काफ़ी समय तक झगड़ते रहते थे। अक्सर हमारे रिश्ते की खातिर, मैं हार मान लेता था लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि मैं सही हूँ। कुछ समय बाद मैं बड़ा दुखी रहने लगा। मैं उनके साथ बिलकुल काम नहीं करना चाहता था।
एक बार हमें एक वीडियो के लिए घास-फूस के छप्पर वाला मकान बनाना था, लेकिन हमारे पास खंभों के लिए कोई टिकाऊ लकड़ी नहीं थी, इसलिए हमें उन्हें खुद बनाना था। हमने अपने-अपने सुझावों पर चर्चा की। मैंने कहा, हमें पहले खंभों के लिए सांचा बनाकर फिर उसमें कंक्रीट डालना चाहिए, ताकि वे मजबूत हो सकें। लेकिन भाई वांग ने कहा ऐसे खंभे बहुत चिकने बनेंगे, वे असली नहीं लगेंगे, लेकिन अगर हम फटा-पुराना कपड़ा इस्तेमाल करें तो हम पेड़ के तने की बनावट और आकार की नकल कर सकते हैं। मैंने सोचा, "मैंने कंस्ट्रक्शन में काम किया है, लेकिन कभी सीमेंट के खंभे पर कपड़ा इस्तेमाल होते नहीं देखा। यह चाहे कैसा भी दिखे, इसकी मोटाई को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। यह ज़्यादा मजबूत भी नहीं बनेगा।" इसलिए मैंने उनके सुझाव को ख़ारिज कर दिया, लेकिन फिर भी वे इसे आजमाना चाहते थे। जब मेरे सुझाव को स्वीकार नहीं किया गया तो मैं भी रुकावट डालने लगा। मैंने सोचा, "आप मेरी बात क्यों नहीं मान लेते? कोई फर्क नहीं पड़ता—वैसे भी मैं सही हूँ। अब तो परिणाम ही बोलेंगे। जब यह नाकामयाब होगा तो मत कहना कि मैंने चेतावनी नहीं दी।" हम सहमत नहीं हो सके, इसलिए हम दोनों ने अपनी-अपनी मर्जी से काम किया। मैंने दोपहर तक काम करके एक खंभा बना लिया। मैं भाई वांग के खंभे के बारे में सोचने लगा, हम दोनों ने अपनी-अपनी मर्जी से काम किया है, तो क्या हमारे खंभे एक दूसरे से मेल खाएंगे। मुझे यह सोचकर थोड़ी बेचैनी हुई, इसलिए मैं उनका काम देखने गया। वहां जाकर मैंने देखा, उनका खंभा सही में अच्छा नहीं था। तब मैंने सोचा, "मैंने बताया था यह काम नहीं करेगा, लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी। अब यह स्पष्ट है कि मेरा सुझाव बेहतर था।" फिर मैंने भाई वांग से कहा, "भाई वांग, यह खंभा तो बहुत बड़ा है। घास-फूस का हमारा मकान बड़ा नहीं है, उसमें यह खंभा फ़िट बैठेगा? इसमें कई सारी दरारें भी हैं, यह ज्यादा मजबूत नहीं लगता। हमारे बनाए हुए खंभे बहुत अलग दिखते हैं। हम इन्हें फ़िल्म बनाने में कैसे इस्तेमाल कर पाएंगे? आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। मेरे सुझाव को अपनाना बेहतर होगा ना?" मुझे अचरज हुआ जब उन्होंने कहा, "मेरा खंभा थोड़ा मोटा है, लेकिन इसमें कोई समस्या नहीं है। आपका सीमेंट का खंभा पेड़ के तने जैसा नहीं दिखता। उस पर बाद में बहुत काम करना पड़ेगा।" जब मैंने देखा, वे सुनने को तैयार नहीं हैं और मेरे काम में खोट भी निकाल रहे हैं, मुझे बड़ी बेचैनी हुई। मैंने सोचा, "आपसे बात करना इतना मुश्किल क्यों है? आपके साथ काम करना नामुमकिन है!" रात को खाने के बाद कंप्यूटर पर काम करते हुए मैंने गुज़रे दिन के बारे में सोचा। मैं थोड़ा परेशान था। मुझे लगा भाई वांग साफ-साफ गलत हैं। वे बेवजह मेरे साथ हमेशा बहस किया करते हैं। मैं अब उनके साथ बिलकुल काम नहीं करना चाहता। लेकिन तब मुझे लगा मैं मुद्दे को टाल रहा हूँ, और मैंने समर्पण नहीं किया है। मैंने काफ़ी उलझन और परेशानी महसूस की, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, खुद को जानने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन मांगा ताकि मैं भाई वांग के साथ मिलजुल कर काम कर सकूं।
उसके बाद मैंने कलीसिया की वेबसाइट पर जाकर समन्वय में सेवा के बारे में परमेश्वर के वचन पढ़े। परमेश्वर कहता है : "इन दिनों, कई लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि दूसरों के साथ समन्वय करते समय क्या सबक सीखे जाने चाहिये। मैंने देखा है कि तुम लोगों में से कई लोग दूसरों के साथ सहयोग करते समय बिलकुल सबक नहीं सीख पाते; तुममें से ज़्यादातर लोग अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं। कलीसिया में काम करते समय, तुम अपनी बात कहते हो और दूसरे लोग उनकी बातें कहते हैं। एक की बात का दूसरे की बात से कोई संबंध नहीं होता है; दरअसल, तुम लोग बिलकुल भी सहयोग नहीं करते। तुम सभी लोग सिर्फ़ अपने परिज्ञान को बताने या उस 'बोझ' को हल्का करने में लगे रहते हो जिसे तुम भीतर ढोते हो और किसी मामूली तरीके से भी जीवन नहीं खोजते हो। ऐसा लगता है कि तुम केवल लापरवाही से काम करते हो, तुम हमेशा यह मानते हो कि कोई और व्यक्ति चाहे जो भी कहता या करता हो, तुम्हें अपने ही चुने मार्ग पर चलना चाहिये। तुम सोचते हो कि चाहे दूसरे लोगों की परिस्थितियां कैसी भी हों, तुम्हें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार सहभागिता करनी चाहिये। तुम दूसरों की क्षमताओं का पता लगाने में सक्षम नहीं हो और ना ही तुम खुद की जाँच करने में सक्षम हो। तुम लोगों की चीज़ों की स्वीकृति वास्तव में गुमराह और गलत है। यह कहा जा सकता है कि अब भी तुम लोग दंभ का काफी प्रदर्शन करते हो, मानो कि तुम्हें वही पुरानी बीमारी फिर से लग गई है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। "भाइयों और बहनों के बीच सहयोग अपने आप में, एक की कमज़ोरियों की भरपाई दूसरे की शक्तियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। यही दूसरों की खूबियों से अपनी कमज़ोरियों की भरपाई करने और सामंजस्य के साथ सहयोग करने का यही अर्थ है। सामंजस्य में सहयोग करके ही लोग परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, व्यक्ति इसका जितना अधिक अनुभव करता है, उसमें उतनी ही अधिक व्यावहारिकता आती है, मार्ग उतना ही अधिक प्रकाशवान होता जाता है, इंसान और भी अधिक सहज हो जाता है। अगर तुम दूसरों के साथ हमेशा कलह में पड़ते हो, और कभी दूसरों की बात से सहमत नहीं होते, जो खुद भी कभी तुम्हारी बात सुनना नहीं चाहते हैं; अगर तुम दूसरों की गरिमा की रक्षा करने की कोशिश करते हो, फिर भी वे तुम्हारे लिए ऐसा नहीं करते हैं, जो तुम्हें असहनीय लगता है; अगर तुम उनकी कही बात पर उन्हें मुश्किल स्थिति में डाल देते हो, और वे इसे याद रखते हैं, और अगली बार जब कोई मुद्दा उठता है, तो वे भी तुम्हारे साथ वही सुलूक करते हैं—तो तुम जो कर रहे हो क्या उसे अपनी खूबियों से एक दूसरे की कमियों कमज़ोरियों की भरपाई करना और सामंजस्य में सहयोग करना कहा जा सकता है? इसे कलह, और गुस्सैल तथा भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार चलना कहा जाता है। इससे परमेश्वर का आशीष प्राप्त नहीं होगा; इससे वह प्रसन्न नहीं होता" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')। परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे दिखाया कि भाई वांग और मैं मिलजुल काम नहीं कर पा रहे थे क्योंकि मैं अपने घमंडी और दंभी स्वभाव में जी रहा था। मैं हमारे कर्तव्य में हमेशा अपने मन की करना चाहता था। मैं हमेशा सोचता था कि प्रॉप बनाने में मुझे महारत हासिल है, खासकर भाई वांग की तुलना में, इसलिए मैं हमेशा उन्हें नीचा दिखाता और चाहता कि वे मेरी बात मानकर मैं जो कहूँ वैसा ही करें। जब उन्होंने खंभों के लिए सुझाव दिया, तो उस पर गौर करने के बजाय मैंने उसे तुरंत खारिज कर दिया। यहां तक कि उन्हें बेकार समझ कर मैंने उनकी उपेक्षा भी की। मुझे लगा उनमें कोई निपुणता नहीं है, इसलिए उनके सुझाव विचार करने लायक नहीं हैं। उनका खंभा अच्छा नहीं है, यह देखकर मुझे लगा कि मैं सही हूँ, इसलिए मैंने धूर्तता से उनके काम की बुराई की। मैं चाहता था कि वे मेरी बात मानें। जब उन्होंने मेरी योजना की कमियां दिखाईं, तो मैंने न ही उन्हें स्वीकार किया और न ही उनके साथ कोई समाधान खोजने की कोशिश की। मैं विरोध कर रहा थाऔर उनके साथ काम भी नहीं करना चाहता था। मैं सिर्फ अपने आप को साबित करने और उनसे अपनी बात मनवाने के लिए बोलता और काम करता था। यह पूरी तरह से घमंड और दंभ का शैतानी स्वभाव था। परमेश्वर के ये वचन विशेष रूप से उचित हैं : "तुम जो कर रहे हो क्या उसे अपनी खूबियों से एक दूसरे की कमियों कमज़ोरियों की भरपाई करना और सामंजस्य में सहयोग करना कहा जा सकता है? इसे कलह, और गुस्सैल तथा भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार चलना कहा जाता है। इससे परमेश्वर का आशीष प्राप्त नहीं होगा; इससे वह प्रसन्न नहीं होता" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')। मैं परमेश्वर के वचनों से महसूस कर सका कि वह उस तरह के लोगों से घृणा करता है। परमेश्वर ने भाई वांग के साथ मेरे काम करने की व्यवस्था इस उम्मीद से की थी कि हम एक-दूसरे की कमियों को पूरा करके अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकें। लेकिन मैंने घमंड से ही बात की और काम लिया, मैं हमेशा सोचता था कि मैं ही सही हूँ और मेरी बात मानी जानी चाहिए। मैं चाहता था कि बाकी लोग मेरे विचारों को सत्य की तरह मानें और उनका अनुसरण करें, लेकिन मैं किसी और के विचारों को स्वीकारना नहीं चाहता था। परमेश्वर उस तरह के स्वभाव से घृणा करता है। इस बारे में सोचकर मैं खेद और अपराध की भावना से भर गया, इसलिए मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं अपने घमंड के कारण लोगों के साथ मिलजुल कर काम नहीं कर पाया हूँ, जिससे मेरा काम प्रभावित हुआ है। परमेश्वर, मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ। हमारा कर्तव्य बखूबी निभाने के लिए मैं खुद को भुलाकर अपने भाई के साथ काम करना चाहता हूँ।"
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "कई बार, अपना कर्तव्य पूरा करने में सहयोग करते समय, दो लोगों में सिद्धांत की बात को लेकर विवाद हो जाता है। उनके दृष्टिकोण अलग-अलग हैं और उनकी राय भी अलग-अलग हो गयी है। ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है? क्या ऐसी स्थिति बार-बार आती है? यह सामान्य घटना है जो लोगों के विचारों, क्षमताओं, अंतर्दृष्टियों, आयु और अनुभवों में भिन्नताओं से उत्पन्न होती है। दो लोगों के मन में बिल्कुल एक ही बात का होना असंभव है, इसलिए दो लोगों का अपनी राय और दृष्टिकोण में भिन्न हो सकना बहुत सामान्य घटना है और ऐसा अक्सर होता है। इसे लेकर खुद को उलझाओ मत। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब ऐसी समस्या पैदा होती है, तब तुम्हें परमेश्वर के समक्ष एकता और मतैक्य प्राप्त करने के लिए सहयोग और चेष्टा कैसे करनी चाहिए। मतैक्य प्राप्त करने का लक्ष्य क्या है? इसका मकसद इस संबंध में सत्य के सिद्धांतों की खोज करना, और अपने या किसी अन्य के अभिप्रायों के अनुसार कार्य नहीं करना है, बल्कि साथ मिलकर परमेश्वर के अभिप्रायों की खोज करना है। यही सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करने का मार्ग है। जब तुम परमेश्वर के अभिप्रायों और उसके द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों की खोज करोगे, केवल तभी तुम एकता प्राप्त कर पाओगे" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने देखा कि हमारे सहयोग में सहमति तक पहुंचने के लिए, सिर्फ एक व्यक्ति के विचारों को मानने के बजाय हमें सत्य के सिद्धांतों की खोज करनी होगी। सच्चे सुसंगत सहयोग का अर्थ है, सत्य की तलाश करना और सिद्धांत के अनुसार काम करना। भाई वांग और मेरे पास अलग-अलग अनुभव, ज्ञान और तकनीकी कौशल थे, इसलिए हमारे काम में अलग-अलग दृष्टिकोण होना सामान्य बात थी। मुझे खुद को भूलना सीखकर उनके साथ सिद्धांतों की तलाश करनी थी। हमें सत्य को स्वीकार करके परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखना था, ताकि हम अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। यह जानकर मैंने अगले दिन सहभागिता में भाई वांग को अपने मन की बात खुलकर कहने का इरादा किया, ताकि हम साथ मिलकर उस प्रॉप को कैसे बनाना है यह सोच सकें। मुझे आश्चर्य हुआ जब अगली सुबह वे मुझसे मिलने आए और उन्होंने कहा कि वे बहुत ज्यादा अड़ियल थे और उनकी योजना अच्छी नहीं थी। उन्होंने उनका बनाया खंभा भी तोड़ डाला और वे मेरी बात मानने को तैयार थे। उनकी यह बात सुनकर मैं शर्मिंदा हुआ। मैंने भी भाई वांग को अपनी स्थिति और समझ खुलकर बता दी। जब हम दोनों ने अपने अहंकार को त्याग दिया तो हमारे बीच की दीवार टूट गई। उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में अपनी कमियां देखीं। मेरा बनाया खंभा सच में बहुत चिकना था जो असली पेड़ के तने जैसा नहीं दिख रहा था। उसमें कुछ बदलाव करना जरूरी था। मैंने भाई वांग के साथ इस बारे में चर्चा की और हमने जल्द ही इसका समाधान ढूंढ निकाला। हमने एक दूसरे की कमज़ोरियों को पूरा करके एक ही दिन में तीन खंभे बना लिए। पहले, हमने दिन भर में सिर्फ दो खंभे बना पाए थे जिनमें से एक भी सही नहीं था। यह ज़्यादा कारगर था। मैं समझ गया कि सत्य का अभ्यास करके अपने कर्तव्य में भाई-बहनों के साथ सहयोग करना कितना महत्वपूर्ण है। लेकिन मै इतना घमंडी और दंभी था कि जल्द ही लोगों के साथ काम करने में मुझे फिर से दिक्कत होने लगी।
एक बार, लोकेशन पर भाई-बहनों को बारिश से बचाने के लिए मैं भाई ली के साथ तंबू लगाने का काम कर रहा था। हमारी चर्चा में मैंने जो तरीका सुझाया वह उन्हें बहुत पसंद आया। उस पल मैंने सोचा, "मैं पहले कंस्ट्रक्शन में काम कर चूका हूँ, इसलिए मैं इन बातों को तुमसे बेहतर समझता हूँ।" लेकिन तुरंत उन्होंने एक आपत्ति जताई। उन्होंने कहा, "अभी हमारे पास लोहे के सिर्फ 16 खंभे हैं। क्या वे इसके लिए काफी होंगे? क्या यह मजबूत बनेगा? क्या यह सुरक्षित होगा?" मैंने सोचा, "यह एक त्रिकोणीय ढांचा है। क्या तुमने त्रिकोणीय ढांचों की स्थिरता के बारे में नहीं सीखा है? यह बहुत मजबूत होगा, इसमें कोई सवाल नहीं।" इसलिए मैंने उपेक्षा करते हुए कहा, "कोई समस्या नहीं होगी, इस बात की गारन्टी तो नहीं दे सकता, लेकिन अगर श्रेणी 10 का तूफान न आए, तो सब कुछ ठीक रहेगा।" फिर वे चाहते थे कि मैं ब्लूप्रिंट बनाकर सारी बातें स्पष्ट करूं। तब मैंने आपा खो दिया और कहा, "कोई ज़रूरत नहीं है। स्केच मेरे दिमाग में है और यह तंबू ठीक से बने इसका जिम्मा मेरा।" इसके बाद कोई चर्चा नहीं हुई। अगली दोपहर जब हमने तंबू लगाना शुरू कर दिया, तो दूसरे एक भाई ने सुझाया कि पहले हम लोहे के दो खंभों से छत को सुरक्षित करें, फिर बगल के हिस्सों को बनाएं। यह सुनकर मैंने सोचा, "इसमें निश्चित ही बड़ी देर लगेगी। मैंने इसके बारे में बहुत सोचा है और मेरा तरीका ही सबसे अच्छा है। एक तो तुम यहां नए हो, ऊपर से चर्चा के समय तुम हाजिर नहीं थे। मेरी योजना निश्चित ही बेहतर है।" इसलिए मैंने उनसे कहा, "इसमें बहुत समय जाएगा। उन दो खंभों को बाद में हटाना पड़ेगा, इसलिए इसे पीछे की तरफ से बनाने में कम समय लगेगा।" यह देखकर कि उनका सुझाव स्वीकार करने का मेरा कोई इरादा नहीं, वे चुप हो गए, इसलिए मैंने अपने मन के मुताबिक तंबू बनाना शुरू कर दिया। जब मैं सीढ़ी के ऊपर चढ़ा, तो मैंने देखा लोहे के एक खंभे की पकड़ अचानक खुल गई और वह नीचे गिर गया। खुशकिस्मती से किसी इंसान या चीज़ के बजाय वह घास पर गिर गया। मुझे काटो तो खून नहीं। "हुआ क्या?" मैं सोचने लगा। "मैंने उसे यकीनन कस लिया था, फिर वह गिर कैसे सकता है? शायद इसे सीधे पकड़ा नहीं गया था, इसलिए इसकी पकड़ ठीक से कसी नहीं गई।" मेरी सोच इतनी सरल थी और मैंने इसे दिल से नहीं लिया। मैं बस उसे अपनी योजना के मुताबिक बनाता गया। उसी समय, जो खंभा बिठाया गया था वह सीधे उस सीढ़ी पर आकर गिर गया जिस पर मैं खड़ा था। मैं सीढ़ी से छह फीट नीचे गिर गया। खुशकिस्मती से मुझे चोट नहीं आई। तब मेरी समझ में आया कि ये दो हादसे अचानक हुए नहीं थे। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा न होती तो उन दो खंभों से चोट लगने के परिणाम भयानक होते। इसके बारे में सोचकर मेरा मन अपराध की भावना और डर से भर गया, तुरंत मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। "हे परमेश्वर, आज चीज़ें गलत हो रही हैं। मैं जानता हूँ कि इसके पीछे तुम्हारी पवित्र इच्छा है और मेरे सीखने के लिए लिए सबक है, लेकिन मैं नहीं जानता कि मुझे क्या तलाशना चाहिए। मेरा मार्गदर्शन करके मुझे प्रबुद्ध कर, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा जान सकूँ।" प्रार्थना के बाद मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "जब कभी भी तुम कुछ करते हो तो गड़बड़ हो जाती है या तुम्हारे सामने कोई अवरोध आ जाता है। यह परमेश्वर का अनुशासन है। कभी, अगर तुम कुछ ऐसा करो जो अनाज्ञाकारी और परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो, तो हो सकता है कि दूसरों को इसके बारे में पता न चले, लेकिन परमेश्वर जानता है। वह तुम्हें बचकर जाने नहीं देगा, और वह तुम्हें अनुशासित करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। ये वचन मेरे दिमाग में घूमते रहे : "तो हो सकता है कि दूसरों को इसके बारे में पता न चले, लेकिन परमेश्वर जानता है। वह तुम्हें बचकर जाने नहीं देगा, और वह तुम्हें अनुशासित करेगा।" तब मेरी समझ में आया कि मैं तंबू लगाते समय अपने भाइयों के साथ कितनी उपेक्षा से पेश आया था। उनके सुझावों को सुनने के बजाय मैंने उन्हें सिरे से खारिज कर दिया था। मुझे लगा कि मैं ही सही हूँ, इसलिए हमें वही करना चाहिए जो मैं चाहता हूँ। क्या यह मेरा घमंड नहीं था? बनते समय ही वह तंबू इतना जोखिम भरा था। अगर वह कलाकारों के ऊपर गिर जाता, तो उन परिणामों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सोचकर, खुद में बदलाव लाने के लिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। फिर मुझे प्रभु यीशु की कही हुई यह बात याद आई : "यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी" (मत्ती 18:19)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे तुरंत जगा दिया—मैं जान गया कि मैं इस तरह से काम नहीं कर सकता था, बल्कि मुझे चर्चा करके अपने भाइयों के साथ सहयोग करना चाहिए। फिर मुझे एक खयाल आया : सुरक्षा सबसे पहले। सबसे महत्वपूर्ण था हमारे पास मौजूद सामान से अच्छा तंबू बनाना। तभी, भाइयों ने कहा कि मेरी मूल योजना के आधार पर एक मजबूत तंबू बनाने के लिए हमारे पास पर्याप्त लोहे के खंभे नहीं थे, लेकिन दो खंभों को बीच में खड़ा करने से छत की मेड़ सुरक्षित हो जाएगी। मैं उनसे पूरी तरह से सहमत था। मेरी मूल योजना ने असल में बहुत सारे खतरों को पैदा किया होता। इसलिए हमने इस पर चर्चा की और कुछ ही समय में हमारी पूरी योजना तैयार हुई। और तो और, हमारे पास लोहे के खंभे भी पर्याप्त थे। हमने अंधेरा होने से पहले ही काम पूरा कर दिया।
उस शाम, मैंने गुजरे दिन के बारे में सोचा। मेरे घमंड के कारण बड़ा अनर्थ होने वाला था। तरह-तरह की भावनाएं मेरे मन में उमड़ रही थीं। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करके खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। अपने फोन पर मैं कलीसिया की वेबसाइट पर गया, जहां मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कुछ लोग अपने कर्तव्य का पालन करते हुए कभी सत्य की तलाश नहीं करते। वे, हठपूर्वक अपनी कल्पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, महज़ वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे हमेशा स्वेच्छाचारी और उतावले बने रहते हैं। 'स्वेच्छाचारी और उतावला' होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी विचार-प्रक्रिया के बगै़र, और दूसरे क्या कहते हैं इसकी परवाह किए बिना, उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। न तो तुम तक कोई पहुँच सकता है, और न कोई तुम्हारा मन बदल सकता है, नतीजतन तुम्हें ज़रा भी प्रभावित नहीं किया जा सकता; तुम अपनी अपनी बात पर अड़े रहते हो, और, अगर दूसरे लोग जो कुछ कहते हैं वह मायने भी रखता है, तब भी तुम उसे सुनते नहीं हो, और अपने तरीक़े को ही सही मानते रहते हो। अगर ऐसा हो भी, तब भी क्या तुम्हें दूसरों के सुझावों पर ध्यान नहीं देना चाहिए? फिर भी तुम ध्यान नहीं देते। दूसरे लोग तुम्हें अड़ियल कहते हैं। कैसे अड़ियल? इस क़दर अड़ियल कि दस बैल भी मिल कर तुम्हें डिगा नहीं सकते—पूरी तरह से अड़ियल, अहंकारी और हद दर्जे़ के दुराग्रही, ऐसा अड़ियल जो सत्य को तब तक नहीं देखता, जब तक कि वह तुम्हें घूरने न लगे। क्या इस तरह का अड़ियलपन उच्छृंखलता के स्तर तक नहीं पहुँच जाता? तुम वह करते हो जो करना चाहते हो, जो करने का सोचते हो, और तुम किसी की नहीं सुनते। अगर तुमसे कोई कहे कि जो कुछ तुम कर रहे हो वह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो तुम कहोगे, 'मैं तो यही करूँगा, वह चाहे सत्य के अनुरूप हो या न हो। अगर वह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो मैं तुम्हें अमुक तर्क, या अमुक औचित्य प्रदान करूँगा। मैं तुम्हें बाध्य करूँगा कि तुम मेरी बात सुनो। मैंने यह तय कर लिया है।' दूसरे लोग कह सकते हैं कि तुम जो कर रहे हो वह नुकसान पहुँचाने वाला है, इसके गम्भीर नतीजे होंगे, यह परमेश्वर के घर के हितों को क्षति पहुँचाएगा—लेकिन तुम उनकी बात पर ध्यान देने के बजाय और अधिक तर्क देने लगते हो : 'मैं तो यही कर रहा हूँ, चाहे तुम्हें पसंद हो या न हो। मैं इसे इसी तरीके से करना चाहता हूँ। तुम पूरी तरह गलत हो, मैं पूरी तरह सही हूँ।' हो सकता है तुम सचमुच ही सही हो और तुम जो कर रहे हो उसके गंभीर नतीजे न हों—लेकिन यह किस तरह का स्वभाव है जिसे तुम उजागर कर रहे हो? (अहंकार।) अहंकारी प्रकृति तुम्हें दुराग्रही बनाती है। जब लोगों का ऐसा दुराग्रही स्वभाव होता है, तो क्या वे स्वेच्छाचारी और अविवेकी होने की ओर उन्मुख नहीं होते?" (परमेश्वर की संगति)। "अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्ता स्थापित करने की ख़ातिर परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है" (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपनी बदसूरती दिखाई। मैं उतना ही उद्दंड और अविवेकी था जितना कि परमेश्वर के वचन प्रकट करते हैं। वह तंबू बनाते समय मैंने अपने ही अनुभव पर अड़कर एक बार फिर हठी बर्ताव किया। अपने भाइयों के सुझावों को सुनने के बजाय मैंने उन्हें फौरन खारिज कर दिया। उन्होंने मुझे तंबू को सुरक्षित करने और छत की मेड़ को मजबूत बनाने की चेतावनियां दी थीं, लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं अपने मन की करना चाहता था। मैं चाहता था मैं जो कहूँ उसे सभी मान लें। मैंने देखा कि मेरी घमंडी प्रकृति मेरे उपेक्षापूर्ण और उद्दंड बर्ताव का मूल कारण थी। अपने घमंड और मनमानी के कारण पहले भी मेरे काम पर असर पड़ चुका था। लेकिन इस बार, उचित सुझाव को सुनने के बजाय सख्ती से अपनी ही बात पर अड़े रहकर, मैं एक हादसे का कारण बनने वाला था। अपने घमंड के कारण मैं उद्दंडता और तानाशाही पर उतर चुका था। मैं लोगों के साथ मिलजुल कर काम नहीं कर रहा था। मेरे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य या लोगों की सुरक्षा की भी परवाह नहीं की। मैं बस अपने मन की करने पर तुला हुआ था। अपने घमंड के कारण मैं सारा विवेक खो बैठा था। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा न होती तो क्या हो जाता इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं आखिरकार समझ गया कि इस तरह काम करना कितना खतरनाक था। न सिर्फ मैंने हमारे काम में बाधा डाली होती, बल्कि किसी दिन भयानक हादसा भी हो जाता और अफसोस के लिए बड़ी देर हो चुकी होती! इस खयाल ने मुझे सच में डरा दिया। मैंने अपनी घमंडी प्रकृति की कुछ समझ हासिल की, अब मैं उस तरह से अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता था।
उसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला। "रोब मत जमाओ। भले ही तुम व्यावसायिक रूप से सबसे ज़्यादा माहिर हो, या तुम्हें लगता हो कि तुम्हारी गुणवत्ता यहाँ के सभी लोगों से उत्तम है, तो भी क्या तुम अकेले काम कर सकते हो? तुम्हारे पास सबसे ऊंचा रुतबा हो, तो भी क्या तुम अकेले काम कर सकते हो? हर किसी की मदद के बिना, तुम बिल्कुल नहीं कर सकते। इसलिए, किसी को भी घमंडी नहीं होना चाहिए और किसी को भी अपनी ही मर्ज़ी से कर्म करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए; इंसान को अपना घमंड दबा देना चाहिए, अपने विचारों और नज़रिये को छोड़ देना चाहिए, और सबके साथ एकजुट होकर काम करना चाहिए। ऐसे ही लोग सत्य का अभ्यास करते हैं और इन्हीं में इंसानियत होती है। ऐसे ही लोगों से परमेश्वर प्रेम करता है, और ऐसे ही लोग अपना कर्तव्य निभाने के प्रति समर्पित होते हैं। सिर्फ यही होती है समर्पण की अभिव्यक्ति" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सहयोग के सिद्धांत दिखाएं। भले ही हममें बड़ी क्षमता या प्रतिभा हो, हम सभी में कमियां और कमज़ोरियां होती हैं। कोई भी इंसान हर एक चीज़ नहीं कर सकता है। हमें खुद को भुलाकर लोगों के साथ मिलजुल कर काम करना सीखना चाहिए ताकि हम परमेश्वर से मिले गुणों का उपयोग कर सकें और अपने कर्तव्य को बखूबी निभाने के लक्ष्य को पा सकें। मेरे कर्तव्य के बारे में देखा जाए तो कुछ भाई-बहनों में जो गुण थे, वे मुझमें नहीं थे। उनके सुझावों और मदद के बाद दूसरी दफा मैं बेहतर काम कर पाता था। कभी-कभी उनके पास ऐसे सुझाव होते थे जिन पर मैंने विचार भी नहीं किया था। उनके सुझावों ने मुझे कुछ संभावित समस्याओं से बचा लिया था। यह सोचकर मैं शर्मिंदा हुआ। मैं पहले खुद को नहीं जानता था। मैं बस अपने घमंड में चूर था, लेकिन अब मुझे पता चला मुझे लोगों के सहयोग और मदद की ज़रूरत थी, वरना मैं अपना कर्तव्य बखूबी नहीं निभा पाता। मेरे अनुभव ने मुझे दिखाया, जब मैंने घमंड से काम लेकर लोगों के साथ सहयोग नहीं किया, तो मुझे हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जब मैं पश्चाताप करके खुद को भुलाने और लोगों के साथ काम करने के लिए तैयार था, तो मैंने परमेश्वर से मार्गदर्शन और आशीष पाया। मैं देख पाया, परमेश्वर उन्हीं को पसंद करता है जिनके पास मानवता होती है और जो सत्य का अभ्यास करते हैं। यह मेरे लिए बड़ा प्रबोधक था, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया।
तीसरी सुबह, एक भाई ने मुझे तंबू को थोड़ा और मजबूत बनाने के लिए कहा। मैंने सोचा, "आज दोपहर को फिल्मांकन के बाद इसे उतारा जाएगा। क्या यह जरूरी है?" लेकिन फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : "किसी को भी घमंडी नहीं होना चाहिए और किसी को भी अपनी ही मर्ज़ी से कर्म करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए; इंसान को अपना घमंड दबा देना चाहिए, अपने विचारों और नज़रिये को छोड़ देना चाहिए, और सबके साथ एकजुट होकर काम करना चाहिए। ऐसे ही लोग सत्य का अभ्यास करते हैं।" परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। भाई ली के साथ सहयोग करने के लिए मुझे खुद के विचारों को छोड़ना चाहिए, वे चाहे सही होंया गलत मुझे पहले समर्पण और तलाश करनी चाहिए। फिर मैं समझ गया, अभी भी पांच-छः घंटों का फिल्मांकन बाकी था और मौसम कब बदलेगा यह कोई नहीं बता सकता था। इसे और मजबूत बनाना ज़्यादा सुरक्षित रहेगा। इसलिए एक भाई के साथ मिलकर मैंने तंबू को और मजबूत बनाया। फिर उस दोपहर लगभग 2 या 3 बजे, अचानक तेज हवाओं के साथ बारिश हुई, यह तूफान लगभग 40 मिनट तक चला। हमने तंबू के अंदर सुरक्षित रहकर तूफान के थमने का इंतजार किया। मैं इस कदर प्रेरित हुआ कि मैं बयान नहीं कर सकता। मैंने देखा, परमेश्वर कितना सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान है। लोगों के सुझावों ने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने में न सिर्फ मदद की, बल्कि परमेश्वर ने मुझे इस चमत्कारिक तरीके से याद दिलाकर तूफान से हमारी रक्षा की। मैं तहे दिल से परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ!
इन अनुभवों ने मुझे अपनी घमंडी शैतानी प्रकृति की समझ और सुसंगत सहयोग में प्रवेश दिया। मैंने देखा कि सत्य का अभ्यास करना और अपने कर्तव्य में अड़ियल न बनना लोगों के साथ मिलजुल कर काम करने के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं। जो कुछ मैंने समझा और प्राप्त किया है वह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के न्याय, प्रकाशन और साथ ही उसकी ताड़ना और अनुशासन के कारण है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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