ईर्ष्या की जगह उदारता दिखाना

04 नवम्बर, 2020

कुछ साल पहले, अगुआई के कार्य में मेरी मदद करने के लिए बहन शाओजी का हमारी कलीसिया में तबादला कर दिया गया। थोड़े समय में, मैंने देखा कि युवा होने के बावजूद उसमें अच्छी काबिलियत थी और वह वाकई सक्षम थी। समस्याएँ आने पर वह सत्य का अभ्यास करती और सत्य के सिद्धांतों की खोज करने पर ध्यान लगाती। मैं काबिलियत या कार्य क्षमता में उसके बराबर नहीं थी। मैं वाकई उसकी प्रशंसक थी, मुझे लगा कि वह प्रतिभाशाली है। एक बार सहकर्मियों की बैठक में, एक अगुआ ने मुझसे पूछा, कि क्या कलीसिया में ऊंची काबिलियत वाले ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। मैंने बेहिचक उन्हें बहन शाओजी की खूबियों के बारे में बताया। जल्दी ही, अगुआ ने उसे सहकर्मियों की सभा में बुला लिया, और उससे अगली कई बैठकों में भी आने को कहा। धीरे-धीरे यह सोचकर मेरी परेशानी थोड़ी बढ़ गयी, "हमेशा बैठकों में मैं ही भाग लिया करती हूँ, कलीसिया के मामलों पर अगुआ मुझसे ही चर्चा करती हैं। अब वे शाओजी को बैठकों में आने को कह रही हैं। लगता है वे उसे प्रशिक्षित करने पर ध्यान देना चाहती हैं। अगर मुझे पता होता, तो मैं उसकी खूबियों का ज़िक्र ही नहीं करती।" मुझे लगा कि उसी के कारण मुझे भुला दिया गया है, पीछे छोड़ दिया गया है। मुझे और भी ज़्यादा बेचैनी महसूस होने लगीऔर चुपचाप एक सोच पनपने लगी कि अगर अगुआ उसका तबादला कर दें तो बड़ा अच्छा होगा। अगर हम साथ नहीं रहे, तो मैं उससे बुरी नहीं दिखूंगी, फिर शायद अगुआ मुझसे मामलों पर चर्चा करें। लेकिन मुझे मालूम था कि शाओजी का तबादला इतनी जल्दी नहीं होने वाला। मुझे लगा जैसे मेरे दिल पर कोई भारी बोझ रखा हुआ है। यही नहीं, मैं हार मानने को तैयार नहीं थी। मैं चुपचाप परमेश्वर के वचनों में डूब गयी, उन्हें पढ़ने, याद करने और उन पर ज़्यादा सोच-विचार करने लगी, ताकि मैं सत्य के बारे में संगति करने में उससे आगे निकल जाऊं और खुद को साबित कर पाऊँ। लेकिन मेरी मंशा ग़लत थी। मैं बस रुतबे के लिए उससे होड़ लगा रही थी, इसलिए मेरे कर्तव्य में पवित्र आत्मा का कार्य नहीं था। मैं किसी भी समस्या को समझ या सुलझा नहीं पा रही थी।

एक बार, कुछ बहनों को कलीसिया की उपयाजिकाओं के रूप में चुना गया। उन्हें फ़िक्र थी कि वे सत्य को इतना नहीं समझतीं कि जीवन में प्रवेश को लेकर दूसरों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा सकें। वे यह पद नहीं संभालना चाहती थीं। यह सुनकर मैंने सोचा, "उनकी दशा ठीक करने के लिए परमेश्वर के किन वचनों पर संगति करूं, ताकि हर कोई समझ सके कि बहन शाओजी मुझसे बेहतर नहीं है?" जैसे ही उन बहनों की बात पूरी हुई, मैंने जल्दी से परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े और संगति करने लगी। लेकिन मैं परमेश्वर के सामने शांत होकर समस्या की जड़ का पता लगाने के लिए सत्य को खोजना नहीं, बस दिखावा करना चाहती थी, ताकि लोग मुझे आदर से देखें। मेरी संगति जमी नहीं। उन लोगों को बिना किसी प्रतिक्रिया के बैठे हुए देखकर बहुत अटपटा लगा। मैं समझ नहीं पायी कि क्या बोलूँ। फिर बहन शाओजी ने हमारे कर्तव्य निभाने के अर्थ पर संगति शुरू कर दी, अपने अनुभवों, समझ और परमेश्वर की इच्छा के बारे में बताया। बहनों की आँखों में आंसू आ गये और उन्होंने उस कर्तव्य को स्वीकार करने की ठान ली। उन्हें शाओजी को प्रशंसा की नज़र से निहारते हुए देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। उसके आने से पहले, सभी लोग मुझे स्वीकार करते थे, लेकिन कलीसिया से जुड़ने के बाद इतनी जल्दी वह हर चीज़ पर छा गयी थी। अगुआ उसकी कद्र करते और भाई-बहन उसका आदर करते, ज़्यादा समय तक अगुआ होने के बावजूद मैं उसकी बराबरी नहीं कर पायी। मुझे फ़िक्र होने लगी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। क्या वे कहेंगे कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, और बस मेरी तुलना ही उसे अच्छा दिखाती है? उस दौरान मेरे ख़यालों में बस यही बात जमी हुई थी। मुझे लगा मानो बहन शाओजी मेरी शोहरत छीन रही है, मैं उससे ईर्ष्या करने लगी। कभी-कभी मैं चाहती कि आपसी फायदे वाला कोई रास्ता देखकर उसे कलीसिया से निकलवा दूं। बहुत सोच-विचार के बावजूद मुझे कोई तरीका नहीं सूझा। मुझे यह भी महसूस होने लगा कि मैं परमेश्वर से दूर जा रही हूँ और मेरी आत्मा अँधेरे में डूब रही है। परमेश्वर के वचनों पर मेरी संगति में दूसरों के लिए कोई रोशनी नहीं होती थी और मैं समस्याओं में उनकी कोई मदद नहीं कर पा रही थी। मैं अब भी हर दिन अपना कर्तव्य निभा रही थी, मगर मैं बहुत परेशान और पीड़ित थी। परमेश्वर से प्रार्थना करते समय मैंने अपना हाल बयान किया, उसकी इच्छा को समझने और अपनी भ्रष्टता को जानने का रास्ता दिखाने की विनती की।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "कलीसिया के अगुआ होने के नाते, तुम लोगों को मालूम होना चाहिए कि प्रतिभा का पता कैसे लगाएं, उसे कैसे बढ़ावा दें, और कैसे प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या न करें। इस प्रकार, तुम अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा सकोगे, अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर सकोगे; तुम निष्ठावान बनने के लिए अपना पूरा प्रयास भी कर सकोगे। कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनकी प्रसिद्धि को चुरा लेंगे और उनसे आगे निकल जाएंगे, अपनी पहचान बना लेंगे जबकि उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! सिर्फ़ खुद के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, और सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचना और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने गहरा असर डाला। उन्होंने मेरी असली दशा को उजागर कर दिया। अपनी बहन की ऊंची काबिलियत और व्यावहारिक संगति को देख कर, और यह देख कर कि अगुआ उसकी कद्र करती हैं और दूसरे उसे आदर से देखते हैं, मैंने ईर्ष्यालु होकर उसे निकलवा दिया। मैं उसके कलीसिया छोड़ने का इंतज़ार नहीं कर पायी। मैंने यह नहीं सोचा कि इससे कलीसिया के काम पर या परमेश्वर के घर के हितों पर क्या असर पड़ेगा। मैं सिर्फ दुष्टता दिखा रही थी और बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी। मुझमें सामान्य इंसानियत बिल्कुल भी नहीं थी! मेरा इस तरह कर्तव्य निभाना परमेश्वर को कैसे नाराज़ न करता? मैंने अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन गँवा दिया और अँधेरे में डूब गयी। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे रुतबे की चाह को छोड़ने, सामान्य इंसानियत के साथ जीने और अपनी बहन के साथ ठीक से काम करने के लिए रास्ता दिखाने की विनती की।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो, और वह व्यक्ति एक प्रतिभाशाली इंसान बन जाता है, जिससे परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रवेश होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह पूरा किया है? तब क्या तुम अपने कर्तव्य के निर्वहन में वफ़ादार नहीं रहे हो? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है, यह एक तरह का विवेक और सूझ-बूझ है जो इंसानों में होनी चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मुझे अब और भी अधिक अपराध-बोध और पछतावा होने लगा। परमेश्वर चाहता है कि सत्य का अनुसरण करने वाले अधिक से अधिक लोग ऊपर उठें और परमेश्वर के साथ सहयोग करें। मैं ज़रूर एक कलीसिया-अगुआ थी, लेकिन मेरे दिल में वह नहीं था जो परमेश्वर चाहता है। जब मैंने उस प्रकार के व्यक्ति को कलीसिया में काम करते देखा, तो मैं न सिर्फ़ इससे नाखुश हुई, बल्कि ईर्ष्यालु होकर अपने ओहदे की फ़िक्र करने लगी। मुझमें इंसान की सबसे बुनियादी अंतरात्मा और समझदारी भी नहीं थी। मैं समझ गयी कि मैं अगुआ बनने लायक हूँ ही नहीं, इतना स्वार्थी होने पर मैं खुद से घृणा करने लगी। अच्छी काबिलियत और संगति के द्वारा समस्याएँ सुलझाने वाली बहन शाओजी कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन के लिए ठीक थी। मुझे उसका समर्थन करना चाहिए था, उसकी खूबियों से सीखना चाहिए था। हमारे कर्तव्य में उसके साथ ठीक से काम करना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप चलने का एकमात्र तरीका है। परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बावजूद दूसरों को बहन शाओजी की बातें मानते हुए देखने पर मुझे अभी भी थोड़ी जलन होती, मगर मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद का त्याग करती। मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए परमेश्वर के सामने जीने पर ध्यान देने लगी, और इस बारे में ज़्यादा सोचना बंद कर दिया कि किसे आदर से देखा जा रहा है, इससे मेरी ईर्ष्या बहुत कम हो गयी। कोई समस्या होने पर मैं बहन से चर्चा कर खोजबीन करने, अपनी कमज़ोरियों के बदले उसकी खूबियों का लाभ लेकर साथ-साथ सत्य के सिद्धांतों की खोज करने में समर्थ हो गयी। मैं अब पहले से ज़्यादा आज़ाद और सहज महसूस करने लगी। थोड़े बदलाव के बाद, मुझे लगा कि मेरी ईर्ष्यालु प्रकृति में सुधार हुआ है, लेकिन मुझे तब हैरत हुई जब एक और परिस्थिति से मेरा सामना हुआ, इसने मुझे दिखाया कि मेरी शैतानी प्रकृति कितनी गहराई तक जड़ें जमाये हुए है। मुझे शुद्ध होने के लिए परमेश्वर के और भी अधिक न्याय और ताड़ना से गुज़रना होगा।

एक बार, शाओजी और मैं सहकर्मियों की एक बैठक में गयी, जहां अगुआ ने हलके-से मेरा अभिवादन किया, और फिर वे कलीसिया के काम के बारे में शाओजी से विचार-विमर्श करने लगीं। मैं बस स्टेपनी जैसी महसूस करती हुई एक तरफ बैठी रही, मेरी मनोदशा तेज़ी से बिगड़ गयी। मैंने शाओजी की ओर नाराज़गी से देखा, मैं यह सोचकर शक किये बिना नहीं रह सकी, "तो अगुआ मुझसे ज़्यादा तुम्हारी कद्र करती हैं। कलीसिया में और अगुआ की नज़रों में सुनहरी बच्ची तुम हो, मैं सिर्फ तुलना में तुम्हारे बेहतर दिखने के लिए हूँ।" बाद में मैंने सुना कि अगुआ ने शाओजी के लिए किसी दूसरे क्षेत्र में धर्मोपदेश सुनने और थोड़ा प्रशिक्षण पाने की व्यवस्था की है। यह सुनकर मुझे वाकई खुशी नहीं हुई। मैंने सोचा, "उन्होंने मेरे बजाय शाओजी को क्यों भेजना चाहा? क्या मैं इतनी बुरी हूँ? क्या मैं थोड़े-से प्रशिक्षण के लायक भी नहीं हूँ?" मैंने शर्मिंदगी महसूस की, मानो मुझ पर ठंडा पानी उड़ेल दिया गया हो। मैं इसे बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं कर पायी, यह सोचकर कि मैंने भी अपने कर्तव्य में उतनी ही मेहनत की है जितनी इसने। मगर मुझे पीछे छोड़ा जा रहा है, जबकि वह धर्मोपदेश सुनने के लिए जा रही है। मैंने महसूस किया कि मुझे अनदेखा कर दिया गया है, मैं चाहे जो करूं कभी भी उसकी बराबरी नहीं कर पाऊँगी। इस तरह तुलना करके मैंने और भी ज़्यादा बुरा महसूस किया, फिर एक बार मैं ईर्ष्या और विद्वेष की हालत में जीने लगी। मैं मरी जा रही थी कि कब अगुआ हम दोनों को अलग काम में लगायेंगी, ताकि मुझे अलग दिखने का मौक़ा मिल सके।

इसके तुरंत बाद, शाओजी के पति गंभीर रूप से बीमार हो गये। उसके लिए यह वाकई मुश्किल घड़ी थी। मैंने उसे सांत्वना दी और इस परीक्षण के दौरान परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी इच्छा मालूम करने के लिए प्रोत्साहित किया, मगर यह सोचने से नहीं रह सकी, "वह सचमुच अपने चरम पर है। अब उसका शुद्धिकरण हो रहा है और वह बुरे हाल में है, इसलिए अपनी काबिलियत दिखाने का यह मेरा मौक़ा है। अगर उसकी हालत सुधर गयी, तो फिर मुझे कभी यह मौक़ा नहीं मिलेगा। उसका यह शुद्धिकरण कुछ समय तक चले तो ठीक रहेगा। फिर सब लोग देखेंगे कि सामान्य स्थिति में तो वह अच्छी संगति करती है, मगर वह परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को नहीं जी सकती। फिर वे उसकी उतनी अधिक प्रशंसा नहीं करेंगे। अगुआ भी शायद समझ जाएं कि उसमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, तब वे उसे आगे प्रशिक्षित नहीं करेंगी, फिर स्वाभाविक है कि दूसरे लोग मेरे बारे में ऊंचा सोचेंगे।" मैंने अपने मन की दशा के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा, लेकिन उन ख़्यालों को यूं ही गुज़र जाने दिया। एक दिन कुछ बहनों ने चिंतित होकर शाओजी के बारे में पूछा, तो मैंने कहा कि वह बहुत बुरे हाल में है, वैसे आम तौर पर वह भले ही बढ़िया संगति करती थी, मगर परीक्षण से गुज़र कर वह नकारात्मक हो गयी है और उसमें सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं है। मैंने ऐसा कह तो दिया, पर थोड़ी बेचैन हो गयी। मैं उसे आंकने और नीचा दिखाने के लिए बढ़ा-चढ़ा कर बोल रही थी। लेकिन जब मैंने देखा कि बहनें मेरी बात मान गयी हैं, तो मुझे मन-ही-मन खुशी हुई। मुझे लगा अब वे शाओजी की उतनी ज़्यादा प्रशंसा नहीं करेंगी। लेकिन बाद में जब मैंने उसे देखा, तो भले ही वह सचमुच दुखी थी और प्रार्थना करते समय रोती रहती, फिर भी उसने इस बात को बिल्कुल भी अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने दिया। मैं थोड़ा दोषी महसूस करने से नहीं रह पायी। उस परीक्षण का सामना करते हुए मुश्किल होगा कि कष्ट न हो और कमज़ोरी महसूस न हो। अगर मुझमें इंसानियत होती, तो मैं उसके लिए प्रार्थना करती, उसकी मदद करने, उसे सहारा देने के लिए सब-कुछ करती। लेकिन मैंने क्या किया? सोचकर बहुत बुरा लगा। मैंने यह कह कर परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैं बहुत अधिक ईर्ष्यालु हूँ। मैंने बहन शाओजी को आंक कर उसे नीचा दिखाया ताकि मैं उससे आगे निकल सकूं। मैंने उसकी पीड़ा की खुशी भी मनायी, और उसके नकारात्मक होकर लड़खड़ाने का इंतज़ार नहीं कर पायी। मुझमें बिल्कुल भी इंसानियत नहीं है। हे परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ, मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं अपनी भ्रष्टता को जान सकूं और अपने शैतानी स्वभाव से मुक्त हो सकूं।"

अपनी प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "अगर कुछ लोग किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। वे इसी तरह का जीवन जीते हैं और फिर भी यह सोचते हैं कि वे महान हैं और वे नेक हैं। लेकिन, क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के लोग कैसे परिणाम भुगतते हैं? वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, ठीक है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो मूल समस्‍या यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्‍वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलु को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और बिलकुल महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। ... तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? जो व्‍यक्ति परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखता वह किस तरह का व्‍यक्ति है? क्‍या वह अहंकारी नहीं है? क्‍या ऐसा व्‍यक्ति शैतान नहीं है? वे किस तरह के प्राणी होते हैं जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? पशुओं की बात छोड़ दें, तो परमेश्‍वर में श्रद्धा न रखने वाले प्राणियों में, दैत्‍य, शैतान, प्रधान स्वर्गदूत, और परमेश्‍वर के साथ विवाद करने वाले, सभी शामिल हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। इन बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैं ठीक वैसी ही थी। मैं जानती थी कि बहन शाओजी में अच्छी काबिलियत है, वह सत्य का अनुसरण करती है, और प्रशिक्षित करने के योग्य है, लेकिन जब मैंने देखा कि अगुआ उसकी कद्र करती हैं और उसे सभाओं में भेजना चाहती हैं, तो मेरा संतुलन बिगड़ गया। मुझे लगा मेरे साथ ग़लत हो रहा है, मैं इसे मान नहीं पा रही थी। मैं उसके प्रति ईर्ष्यालु और द्वेषपूर्ण हो गयी, मैंने बुरी तरह चाहा कि अगुआ उसका कहीं तबादला कर दें। जब वह परीक्षण के दौरान कमज़ोर और पीड़ित थी, तो मैंने उसकी मदद करने का नाटक किया, लेकिन दरअसल मैं उसके दुख से खुश हुई। मैं चाहती थी कि वह नकारात्मक हो जाए ताकि मैं चमक सकूं। मैंने खुद को ऊपर उठाने के लिए उसे आंक कर नीचा दिखाया, ताकि मैं अलग दिख सकूं। मैंने परमेश्वर में वर्षों से विश्वास रखा, लेकिन मेरे मन में उसके लिए कोई आदर नहीं था। मैं ईर्ष्यालु थी और सिर्फ अपने रुतबे को बचाने के लिए मैंने बड़े अनुचित काम किये। मैं बहुत घिनौनी और दुर्भावनापूर्ण थी। मैं ओछी, घमंडी, दुष्ट, घिनौनी और तुच्छ थी! मैं शैतान से अलग कहाँ थी? सिर्फ़ शैतान ही कुछ अच्छा होते हुए नहीं देख सकता, वह चाहता है कि लोग निराश होकर परमेश्वर से दूर रहें और उसे धोखा दें। मैं साफ़ तौर पर शैतान के प्यादे का काम कर रही थी, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर रही थी। मैं परमेश्वर के घर को नुकसान पहुंचा कर दुष्टता कर रही थी, परमेश्वर के विरुद्ध शैतान का साथ दे रही थी! इसके बाद भी, मैं खुद को बहुत ऊंचा समझती थी। मुझमें साफ़ तौर पर सत्य की वास्तविकता नहीं थी और मेरी काबिलियत बहन शाओजी के बराबर की नहीं थी। मैं हमेशा रुतबे के लिए होड़ करती थी, उससे आगे निकलने की कोशिश करती थी। मैं बहुत अहंकारी थी, मुझमें खुद की समझ नहीं थी! उस मुकाम पर, मैं वाकई खुद से नफ़रत करने लगी और मुझमें अपने शैतानी स्वभाव से तुरंत मुक्त होने की चाह पैदा हुई।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर के विरुद्ध मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान के द्वारा उसकी भ्रष्टता है। क्योंकि वह शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिये मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान के द्वारा भ्रष्ट होने से पहले, मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का अनुसरण करता था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनका पालन करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उचित मानवता थी। शैतान के द्वारा भ्रष्ट होने के बाद, उसकी मूल समझ, विवेक, और मानवता मंद पड़ गई और शैतान के द्वारा दूषित हो गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता और प्रेम को खो दिया है। मनुष्य की समझ पथ से हट गई है, उसका स्वभाव एक जानवर के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन फिर भी, मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, और केवल आँख बंद करके विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य के स्वभाव का प्रकाशन उसकी समझ, अंतर्दृष्टि, और अंत:करण का प्रकटीकरण है; और क्योंकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंत:करण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में ऐसा बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, जो परमेश्वर के हृदय के अनुकूल हो। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और परमेश्वर के द्वारा उपयोग के लिए अयोग्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किये जाने के कारण मैं हमेशा परमेश्वर के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध कर रही थी, भ्रष्टता में जी रही थी। मैं इन शैतानी सिद्धांतों और तर्कों में डूबी हुई थी, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है," "एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है," आदि-आदि। मैंने शैतान के इन फलसफों को स्वीकार किया था, ज़िंदा रहने का मेरा नज़रिया, नियम और समझ सब मुड़े-तुड़े थे, जिससे मैं ज़्यादा अहंकारी, दुष्ट और इंसानियत से खाली हो गयी थी। शैतान के इस ज़हर के काबू में, मैं सिर्फ़ शोहरत, रुतबा और आदर पाना चाहती थी। मैं दूसरों से अलग दिखना चाहती थी, नहीं चाहती थी कि कोई मुझसे आगे निकल जाए, अगर कोई निकल जाता, तो मैं होड़ लगाये बिना नहीं रह पाती। अगर मैं दूसरों से आगे नहीं निकल पाती, तो मुझमें ईर्ष्या और विद्वेष पैदा हो जाता, फिर मैं अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ग़लत काम भी कर डालती। मैं बस अहंकार, कपट और दुष्टता का शैतानी स्वभाव दिखाती। मैं अपना कर्तव्य निभाने का दावा करती, मगर दरअसल मैं अपने ही लिए काम करती, दुष्टता करती और परमेश्वर का प्रतिरोध करती। मैंने उन मसीह-विरोधियों को याद किया जिन्हें निकाल दिया गया था। वे हर उस इंसान के प्रति ईर्ष्या और कड़वाहट से भरे थे, जो सत्य का अनुसरण करते या परमेश्वर की इच्छा की परवाह करते, उनके रुतबे के लिए खतरा बनने वाले हर व्यक्ति को वे एक कांटा समझते। वे दमनकारी और द्वेषपूर्ण थे, वे यहाँ तक चाहते कि दूसरों को कलीसिया से निकलवा दें, ताकि सबसे ऊपर उनका दबदबा बना रहे। इतनी दुष्टता करने के लिए उन्हें कलीसिया से निकाल बाहर किया गया। मैं मसीह-विरोधियों जितनी द्वेषपूर्ण या दुष्टता करने वाली नहीं थी, लेकिन मैं ईर्ष्यालु थी, अपने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के काबू में थी। मैं अपना रुतबा बनाये रखने के लिए दूसरों को आंक कर उन्हें दूर रखती। मैं मसीह-विरोधी की राह पर चल रही थी, जो परमेश्वर के विरुद्ध होता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कोई अपमान सहन नहीं करता। मैं जानती थी कि अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो मैं परमेश्वर द्वारा ठुकरा कर हटा दी जाऊंगी। यह मेरे लिए बहुत डरावना था। मैं जानती थी कि परमेश्वर अपने कठोर न्याय से मेरी रक्षा कर रहा है। वरना मैं आत्मचिंतन नहीं करती, फिर मेरे कुछ बुरा काम करने पर पछतावा बहुत देर से होता। परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोच-विचार कर मैं सचमुच प्रेरित हुई। मैंने प्रायश्चित करने और बदलने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की।

एक दिन अपने धार्मिक कार्य के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अपने कर्तव्य को निभाने वालो, चाहे तुम सत्य को कितनी भी गहराई से क्यों न समझो, यदि तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि तुम जो भी काम करो, उसमें परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचो, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं, इरादों, सम्मान और हैसियत को त्याग दो। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—तुम्हें कम से कम यह तो करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का, परमेश्वर के हितों का, उसके कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन विचारों को पहला स्थान देना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। ... इसके साथ ही, यदि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सको, अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा कर सको, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और इरादों को त्याग सको, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सको, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रख सको, तो इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। "कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझ लिया कि परमेश्वर यह पहले से तय कर देता है कि हर इंसान की काबिलियत क्या है, वे क्या काम कर सकते हैं। तुम इन चीज़ों के लिए स्पर्धा या संघर्ष नहीं कर सकते। जब किसी दूसरे इंसान में बेहतर काबिलियत हो, जब परमेश्वर पहले से तय कर दे कि मैं घास बनूं, पेड़ नहीं, तो मुझे बस घास बन कर उस भूमिका को खुशी-खुशी निभाना चाहिए। अब मैंने रुतबे को लेकर दूसरों से होड़ नहीं लगाना चाहा, अपनी स्वार्थी आकांक्षाओं को छोड़ देना चाहा, शैतानी स्वभाव के तहत नहीं जीना चाहा, परमेश्वर के घर के हितों को सबसे पहले रखना चाहा, और अपने कर्तव्य को ज़मीनी तौर पर ठीक से निभाना चाहा। रोशनी में जीने का यही एकमात्र तरीका है। मैंने अपनी भ्रष्टता के बारे में बहनों से खुल कर बात की और बहन शाओजी से माफी माँगी। जब उसे मेरे द्वेषपूर्ण इरादों और करतूतों का पता चला, तो उसने मुझे बिल्कुल भी दोष नहीं दिया बल्कि मेरी मदद करने के लिए सत्य के बारे में संगति की। मैं वाकई बहुत प्रेरित हुई। मुझमें इंसानियत न होने और उसका दिल दुखाने के लिए मैंने खुद से नफ़रत की। फिर मैंने रुतबे के लिए छल-कपट करने से बचने और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की।

महीने भर से थोड़े ज़्यादा समय में शाओजी अपनी यात्रा से लौट आयी, फिर उसने बताया कि उसने सभाओं में क्या जाना। उसकी संगति वाकई शिक्षाप्रद और लाभकारी थी, लेकिन जब मैंने दूसरों को ध्यान से सुनते हुए देखा, तो मैं फिर से परेशान होने लगी। मुझे एहसास हो गया कि मैं फिर से रुतबे के लिए संघर्ष और ईर्ष्या कर रही हूँ, इसलिए खुद को अलग रखने के लिए मैंने शीघ्र ही परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे किसी धर्मोपदेश में सुनी हुई एक बात याद आयी कि परमेश्वर की सेवा करने वाला कोई समझदार इंसान ईर्ष्या नहीं करता, बल्कि आशा करता है कि दूसरे उससे बेहतर हों, ताकि और ज़्यादा लोग परमेश्वर का बोझ उठाने में मदद कर सकें। परमेश्वर जब किसी इंसान को प्राप्त कर ले, तो वैसा इंसान आनंदित होता है। मुझे एहसास हुआ कि धर्मोपदेश सुनने की अपनी यात्रा में उसने ज्ञान अर्जित किया है, उसका कद बढ़ा है, वह दूसरों का सिंचन और मदद कर सकती है। सभी लोग सत्य को समझ सकें, इसके लिए यह अच्छी बात थी, इससे परमेश्वर को सुकून मिलेगा। मुझे अपने कर्तव्य के लिए उससे सीख कर उसकी खूबियों का लाभ उठाना होगा। यह बहुत अहम है। जब मैंने इस प्रकार प्रार्थना की और खुद का त्याग किया, तो मुझे बहुत सुकून मिला। अब मेरे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं था कि भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचते हैं, और कलीसिया में मेरा पद क्या है। मैं बस शांत होकर उसकी संगति सुनने लगी और प्रबुद्धता पाती रही। मैंने हमारे काम में सत्य के सिद्धांतों को खोजने के लिए उसके साथ मिलकर कार्य किया। उसके बाद हमारे साथ के काम में, जब मैं अगुआ को उसके साथ कुछ विचार-विमर्श करते हुए देखती, तो मुझे ठीक लगता, मुझे जलन नहीं होती। यह मेरे लिए बड़ी राहत की बात थी। मैंने खुद अनुभव किया कि ईर्ष्या को छोड़ देने से मुझे सुकून मिला है, मैं सच्चा महसूस कर रही हूँ, धीरे-धीरे मैं इंसानियत के साथ जी पा रही हूँ। मैं परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना के कारण ही थोड़ा बदल पायी। मेरा उद्धार करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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