मुझे पाप से शुद्ध होने का मार्ग मिल गया

06 सितम्बर, 2020

"मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने मेरी लंबे समय की उलझन को सुलझा दिया। अपनी आस्था में, मैं प्रभु से प्रार्थना करके अपने पाप स्वीकार किया करती थी, फिर भी मैं झूठ बोले बिना और दोबारा पाप किये बिना नहीं रह पाती थी। अगर कोई चीज़ मेरे मुताबिक़ नहीं होती, तो मुझे गुस्सा आ जाता, फिर मैं न तो प्रभु की शिक्षाओं का ध्यान रख पाती और न ही खुद को पाप से मुक्त कर पाती। इससे मुझे वाकई दुख होता। इस बारे में मैंने अनेक पादरियों से पूछा, लेकिन कभी कोई हल नहीं मिल पाया। मैं सोचती, "प्रभु पवित्र है, फिर मुझ जैसा पाप में जीने वाला कोई इंसान उसके राज्य में कैसे प्रवेश कर पायेगा?" जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मुझे आखिरकार पाप से मुक्त होने और भ्रष्टता से शुद्ध होने का मार्ग मिल गया।

एक नये विश्वासी के रूप में, मैं दक्षिण कोरिया की एक प्रेस्बिटेरियन कलीसिया में जाया करती थी। हमारे पादरी हमेशा कहा करते, "हम पापी हैं, पाप से भरे हुए हैं। लेकिन डरो मत—प्रभु यीशु को हमारी पाप-बलि के रूप में सूली पर चढ़ाया गया था। अगर हम प्रभु से प्रार्थना करें और अपने पाप स्वीकार करें, तो वह हमें माफ़ कर देगा, और जब वह वापस आयेगा, तो हमें स्वर्ग में ले जाएगा।" मैंने प्रभु का बड़ा आभार माना, मुझे महसूस हुआ कि हमारे लिए उसका प्रेम बहुत महान है। हर बार जब मैं कोई झूठ बोलती या पाप करती, तो मैं प्रार्थना कर स्वीकार कर लेती, प्रायश्चित कर लेती, तब मुझे शांति और आनंद का एहसास होता। मैं बेताब रहती कि प्रभु आये और मुझे अपने राज्य में ले जाए। लेकिन समय बीतने के साथ मैंने पाया कि पाप करके स्वीकार कर लेना मेरे लिए आम बात हो गयी है। मैं बेहद ज़िद्दी हो जाती और आसानी से आपा खो बैठती। अगर मेरे पति कुछ ऐसा कहते या करते जो मुझे पसंद नहीं होता, तो मैं उन्हीं की बात को पकड़ कर उनसे बहस करने लगती, लेकिन बाद में सब्र न रखने को लेकर मुझे खेद होता। ख़ास तौर से जब मैं प्रभु यीशु के ये वचन पढ़ती, "तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:39), तो मुझे बहुत बुरा लगता। मैं दूसरों को खुद की तरह प्यार करना तो दूर, अपने परिवार के साथ सब्र रखने में भी नाक़ाबिल महसूस करती, यह हताशा मन में लिये, पाप से बचने का रास्ता ढूँढ़ने के लिए, मैं कई बार पादरी और उपदेशक के पास गयी, लेकिन उन्होंने बस मुझसे और अधिक प्रार्थना करने और अपने पाप स्वीकार करने को कहा। मेरी उलझन कायम रही, मैं सोचने लगी कि क्या मैं प्रभु की इच्छा पूरी कर पाऊँगी, प्रार्थना करके अपने पापों को स्वीकार कर लेने के बाद फिर से वही पुराने पाप करते रहने से, क्या मैं स्वर्ग में प्रवेश कर पाऊँगी? बिल्कुल नहीं। बाइबल में कहा गया है, "क्योंकि सच्‍चाई की पहिचान प्राप्‍त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं" (इब्रानियों 10:26)। इस वचन ने मुझे भयभीत और विचलित कर दिया, लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि और क्या करूं। मैंने बस और अधिक प्रार्थना की और प्रभु से ऐसी शक्ति माँगी कि पाप न करूं। मैं मौके पर खुद को काबू में करने की कोशिश करती, लेकिन मैं अभी भी पाप की जकड़ में थी। समय बीतने के साथ इसने मुझे थकाकर निराश कर दिया। मैं नींद से जब-तब उठ बैठती और रोती हुई प्रभु से प्रार्थना करती, पाप से बचने का मार्ग ढूँढ़ने में मेरी मदद करने की विनती करती।

बाद में एक मित्र ने मुझे अपनी कलीसिया में शामिल होने का न्योता दिया। कुछ समय तक वहां जाने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि पादरी के धर्मोपदेश करीब-करीब एक-जैसे होते और उनमें कोई रोशनी नहीं होती थी, वे पाप से बचने के बारे में कुछ बताते ही नहीं थे। मुझे वाकई बहुत निराशा हुई, जब मैंने ख़ास तौर से देखा कि कलीसिया में 40 वर्षों से काम कर रहे एक एल्डर, जो धर्मनिष्ठ दिखाई देते और जिन्हें बड़े आदर से देखा जाता, वे देह-सुख के लालच में, प्रचार करने के लिए चमक-दमक वाली जगहों पर जाते। उन्हें अपनी ज़िंदगी में बिल्कुल भी बदला हुआ न देख कर मुझे ख़ासा झटका लगा। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : "इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)। पाप की ज़िंदगी जीने वाले लोग परमेश्वर के दर्शन करने योग्य नहीं होते, तो क्या वे उसके राज्य में प्रवेश कर सकते हैं? वह एल्डर 40 साल की आस्था में नहीं बदला, इसलिए मेरे लिए बदल पाना और भी ज़्यादा मुश्किल लग रहा था। पादरी और एल्डर यह कह कर हमें सांत्वना देते, "प्रभु यीशु ने सूली पर चढ़ कर हमें हमारे पापों से छुटकारा दिलाया, इसलिए हमें पाप करने को लेकर फ़िक्र नहीं करनी चाहिए।" लेकिन असलियत यह है कि वर्षों की आस्था के बाद भी हम निरंतर पाप करते हैं और गंदगी से भरे होते हैं। परमेश्वर पवित्र है, तो फिर हम जैसे पापी लोग प्रभु के मुख को कैसे देख पायेंगे? ये विचार बहुत दुखदाई थे और मैं हताश हो गयी। मैं सोचने लगी कि खुद को पाप से कैसे मुक्त किया जाए। मैंने अपनी अच्छी मित्र बहन झीशाऊ के बारे में सोचा। वह एक धर्मनिष्ठ और विचारशील विश्वासी है। मुझे लगा कि उससे बात करनी चाहिए। लेकिन फिर मुझे याद आया कि वह तो वर्षों से सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखती है, और हमारे पादरी ज़ोर देकर कहते हैं कि हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विश्वासियों से दूर रहना चाहिए। उस वक्त मुझे संकोच हुआ, लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैं किस तरह पाप में फंसी हुई हूँ, और पादरी के पास इसका कोई जवाब नहीं है। वह वर्षों से मेरी अच्छी दोस्त रही है और बहुत सक्षम है, इसलिए मैंने सोचा कि वह शायद कुछ सुझाव दे सके। मैंने उससे किसी दिन मिलने का फैसला किया।

जब हम मिले, तो वहां मैंने कुछ अनजाने चेहरे देखे। वे सभी प्रतिष्ठित और ईमानदार दिखाई दे रहे थे, सभी बहुत स्नेही थे। मैंने अंदाज़ा लगाया कि वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया से होंगे, इसलिए मैं चौकस होने लगी। जब वे आस्था के बारे में चर्चा करने लगे, तो मैं उनकी बातों को समझ नहीं रही थी, मैं ज़्यादा कुछ बोलना भी नहीं चाहती थी। फिर एक बहन ने संगति में कहा, "बहुत-से विश्वासी सोचते हैं कि प्रभु यीशु ने सूली पर चढ़ कर हमारे पाप को खुद पर ले लिया, परमेश्वर अब हमारे पाप नहीं देखता, इसलिए अब हम पापी नहीं रहे, प्रभु जब आयेगा तो हमें अपने राज्य में ले जाएगा। लेकिन क्या यह सही है? हालांकि प्रभु यीशु में आस्था के जरिये हमारे पाप माफ़ कर दिये गये हैं, हम पहले की तरह ज़ाहिर तौर पर पाप नहीं करते और अच्छा बर्ताव करते-से दिखाई देते हैं, तो क्या इसका यह मतलब है कि हमें हमारे पाप से अच्छी तरह शुद्ध कर दिया गया है? हम निरंतर झूठ बोलते और पाप करते हैं, ईर्ष्या करते हैं, नफ़रत से भरे हुए हैं। हम अहंकार और कपट से सराबोर हैं, और दूसरों को हमेशा खुद से नीचा समझते हैं। हम सांसारिक प्रवृत्तियों पर चलते हैं, हम लालची और अभिमानी हैं, जब ऐसा कुछ घटता है जो हमें पसंद नहीं, तो हम प्रभु को आंकने और उसे दोष देने लगते हैं। यह दिखाता है कि हम पाप के बंधनों और बेड़ियों से दूर-दूर तक नहीं बच पाये हैं, यही वह दशा है जिसमें सभी विश्वासी जी रहे हैं। जैसे कि रोमियों 7 में पौलुस ने कहा : 'क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती। इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूँ, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता, वही किया करता हूँ' (रोमियों 7:18-19)। प्रेरित पौलुस के पापों को प्रभु यीशु ने क्षमा कर दिया था, लेकिन उसकी सबसे बड़ी हताशा यह थी कि वह अभी भी पाप के बंधन में था और उससे बच नहीं पा रहा था। वह हर वक्त पाप किये बिना नहीं रह पा रहा था, इसी वजह से वह असहाय होकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा, 'मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?' (रोमियों 7:24)। क्या पौलुस जैसी हताशा हममें भी नहीं है?" उस बहन के शब्दों ने मेरे दिल को झकझोर दिया। सच कहूं तो मेरी सबसे बड़ी हताशा यही है। फिर मैं यह सवाल पूछे बिना नहीं रह पायी : "अभी-अभी तुमने जो कहा, वह सच है। मैं सचमुच में पाप करके स्वीकार कर लिया करती हूँ, पाप में जीती हूं, यह मेरे लिए दर्दनाक है। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रही कि जब प्रभु यीशु ने हमें पहले ही छुटकारा दिला दिया और हमारे पाप माफ़ कर दिये, तो फिर हम पाप क्यों करते रहते हैं? हम पाप से बच क्यों नहीं सकते? ऐसा ही चलता रहा, तो क्या प्रभु के आने पर हमें उसके राज्य में ले जाया जाएगा?"

जवाब में उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। "यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना')

बहन ने फिर संगति जारी रखी, "अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु को इंसान की पाप-बलि के रूप में सूली पर चढ़ाया गया था, जब हम उसे अपना उद्धारकर्ता मानकर उसके सामने अपने पाप स्वीकार कर प्रायश्चित करते हैं, तो हमारे पाप माफ़ कर दिये जाते हैं, हमें व्यवस्था के तहत दंड या मृत्यु की सज़ा नहीं दी जाती। हम प्रभु से सीधे प्रार्थना करके उसके अनुग्रह का आनंद ले सकते हैं। प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य का सच्चा अर्थ यही है। मगर, उसने अपने छुटकारे के कार्य से बस इंसान के पाप माफ़ किये। उसने हमें हमारे शैतानी स्वभाव या पापी प्रकृति से मुक्त नहीं किया। हालांकि हमारी आस्था के जरिये हमारे पाप माफ़ कर दिये जाते हैं, मगर हमारी पापी प्रकृति और शैतानी स्वभाव अभी भी हमारे भीतर हैं। इनमें अहंकार, कपट, बुराई, कठोरता और सत्य का तिरस्कार करने जैसे अवगुण शामिल हैं। ये चीज़ें पाप से भी ज़्यादा अड़ियल हैं, यही हमारे पाप करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने की जड़ हैं। अगर हम अपनी पापी प्रकृति को नहीं बदलते, तो हम बस पाप करके स्वीकार करते और फिर से पाप करते रहते हैं, कभी भी पाप की बेड़ियों से मुक्त नहीं होते और परमेश्वर के राज्य के बिल्कुल भी योग्य नहीं होते। परमेश्वर ने कहा, 'इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ' (लैव्यव्यवस्था 11:45)। प्रभु यीशु ने कहा था, 'मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है' (यूहन्ना 8:34-35)। प्रभु पवित्र है, इसलिए कोई भी अपवित्र व्यक्ति उसे नहीं देख सकता। हम जैसे अक्सर पाप करने वाले और प्रभु का प्रतिरोध करने वाले लोग, उसका मुख देखने और उसके राज्य में प्रवेश करने लायक कैसे हो सकते हैं? तो फिर, हमारी पापी प्रकृति की समस्या कैसे सुलझ पायेगी? प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की : 'मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा' (यूहन्ना 16:12-13)। और 1 पतरस 4:17 में कहा गया है : 'क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए।' अंत के दिनों में, परमेश्वर अपने घर से शुरू करके न्याय-कार्य करने के लिए फिर से देहधारी होकर सत्य व्यक्त करता है। यह ख़ास तौर से इंसान की पापी प्रकृति को बदलने, हमें पाप से पूरी तरह मुक्त करने और हमें भ्रष्टता से शुद्ध करने के लिए होता है, ताकि हम परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचाये जा सकें और उसके राज्य में प्रवेश कर सकें। अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य ने हमें हमारे पापों की माफ़ी के लायक बनाया, लेकिन यह हमें पाप से पूरी तरह मुक्त या शुद्ध नहीं कर पाया। अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय-कार्य ही उसके शुद्धिकरण और उद्धार के कार्य का मूल और उसका केंद्र-बिंदु है। यह इंसान को बचाने के उसके कार्य का सबसे अहम चरण है। अंत के दिनों का न्याय-कार्य ही हमारे लिए ज़रूरी सत्य से हमें पोषित कर सकता है, ताकि हम परमेश्वर को सही मायनों में जान सकें, अपने जीवन स्वभाव को बदल सकें, और ऐसे लोग बन सकें जो आज्ञाकारी हों, परमेश्वर की आराधना करें और उसकी इच्छा पूरी करें। इससे इंसान को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना पूरी हो जाएगी।"

उस बहन की संगति ने सचमुच मेरी आँखें खोल दीं। मुझे एहसास हो गया कि मैं पाप किये बिना और उसे स्वीकार किये बिना नहीं रह सकती, क्योंकि मेरी पापी प्रकृति नहीं बदल पायी है। मैंने अभी भी अपनी आस्था में परमेश्वर के कार्य के सबसे अहम चरण का अनुभव नहीं किया है। मैं यह जानने को तड़प रही थी कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर लोगों को शुद्ध करने के लिए अंत के दिनों का न्याय-कार्य वास्तव में कैसे करता है। पादरी ने हमेशा सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की निंदा ही की थी, इसलिए मुझे शंका थी। फिर से विचार करूं, तो हालांकि इन सभी वर्षों में उनका दावा था कि हम पापी नहीं हैं, मगर मैं पापी होने के दर्द में फंसी हुई थी। इस बारे में मेरा अनुभव बहुत वास्तविक था! मैं जान गयी कि अब मैं पादरी की बातों को आँखें बंद कर नहीं सुन सकती, बल्कि मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को सही ढंग से पढ़ना होगा, देखना होगा कि क्या उसके कथन वाकई परमेश्वर की वाणी हैं। दुख की बात थी कि देर हो जाने के कारण हम अपनी संगति को जारी नहीं रख पा रहे थे।

जब इस बहन ने बाद में मुझे कलीसिया आने का न्योता दिया, तो मैंने उसे नहीं ठुकराया, मैंने उसकी दी हुई परमेश्वर के वचनों की क़िताब को स्वीकार कर लिया। इस तरह मैंने खोजना और जांच-पड़ताल करना शुरू किया, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को विस्तार से पढ़ा। मैंने देखा कि वह अनेक रहस्यों को प्रकट करता है, जैसे कि परमेश्वर के देहधारण के रहस्य, उसके नाम, बाइबल की अंदरूनी कहानी, और भी बहुत कुछ। हर चीज़ बिल्कुल नयी थी, ये सब ऐसे सत्य और रहस्य थे जिनको मैंने पहले कभी नहीं सुना था। मैंने सोचा, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इन स्वर्गिक रहस्यों को प्रकट किया है, वह इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर की इच्छा व्यक्त कर सकता है। कोई भी इंसान ऐसा नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन बहुत संभव है कलीसियाओं के लिए पवित्र आत्मा के वचन हों, परमेश्वर की वाणी हों। मुझे सच में इस बारे में सोच-विचार करना होगा।"

मैंने इन भाई-बहनों को झूठ बोलने और पाप करते रहने, दूसरों पर नाराज़गी दिखाने, सब्र खो बैठने, और प्रभु की शिक्षाओं पर कायम न रहने की अपनी समस्या के बारे में भी बताया। मैंने उन्हें बताया कि पाप वाली अपनी ज़िंदगी से मैं बहुत दुखी हूँ। मैंने एक बहन से पूछा, "परमेश्वर लोगों को शुद्ध करने के लिए अंत के दिनों में न्याय का कार्य कैसे करता है? अपनी आस्था के वर्षों में, मैं हमेशा सोचती कि पाप-मुक्त जीवन जीना बहुत अच्छा होगा, फिर जीवन दुखों से भरा हुआ नहीं होगा।"

उसने मुझे पढ़ने के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश दिये, जो मैं पढ़कर सुनाना चाहती हूँ। "वर्तमान देहधारण में परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से ताड़ना और न्याय के द्वारा अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इस नींव पर निर्माण करते हुए वह मनुष्य तक अधिक सत्य पहुँचाता है और उसे अभ्यास करने के और अधिक तरीके बताता है और ऐसा करके मनुष्य को जीतने और उसे उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने का अपना उद्देश्य हासिल करता है। यही वह चीज़ है, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के पीछे निहित है" ("वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना')। "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। "न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाय यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्धिकरण का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))

इसे पढ़ने के बाद, उस बहन ने अपनी संगति जारी रखी : "अंत के दिनों के न्याय-कार्य में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर इंसान को शुद्ध करने और बचाने वाले सभी सत्य व्यक्त करता है, वह परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के रहस्यों को प्रकट करता है, वह इंसान को बचाने के परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों के मक़सद, कार्य के प्रत्येक चरण की अंदरूनी कहानी, और प्रत्येक चरण में हासिल की गयी उपलब्धियों को प्रकट करता है। वह हमारी आस्था में, स्वभाव परिवर्तन और शुद्धिकरण का मार्ग दिखाता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर शैतान द्वारा इंसान की भ्रष्टता की प्रकृति और सार, और हमारे पाप के मूल को भी प्रकट करता है। इससे हम आत्मचिंतन करने, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध करने की अपनी शैतानी प्रकृति और स्वभाव को जानने, और यह समझने लायक बनते हैं कि शैतान ने इतना भ्रष्ट कर दिया है कि हममें इंसानियत बिल्कुल भी नहीं है। फिर हम खुद से नफ़रत करने लगते हैं और अब अपनी भ्रष्टता में नहीं जीना चाहते। हम यह भी समझ जाते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव कितना धार्मिक, पवित्र और अपमानित न किया जा सकने वाला है, और हम उसके प्रति मन में आदर की भावना लाये बिना नहीं रह पाते। अब हम मनमानी नहीं करते, और जैसा चाहे वैसा नहीं बोलते, नहीं करते। इसके बजाय, हम देह-सुख को त्याग कर सत्य का अभ्यास करने लगते हैं। धीरे-धीरे हम अपने शैतानी स्वभाव के बंधनों को तोड़ फेंकते हैं, इससे हमारे पाप और परमेश्वर के विरोध की समस्या जड़ से ख़त्म हो जाती है। ये ऐसी चीज़ है जिसे वो लोग कभी हासिल नहीं कर सकते, जो प्रभु में विश्वास तो रखते हैं मगर परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय और शुद्धिकरण को स्वीकार नहीं करते।"

भाई-बहनों ने परमेश्वर के वचनों के जरिये न्याय से गुज़रने की अपनी गवाहियों को भी साझा किया। एक बहन ने हमें बताया कि जब उसने एक कलीसिया की अगुआ के रूप में काम शुरू किया, तो वह सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे की ही परवाह करती थी। वह दूसरों पर रोब झाड़ना पसंद करती और चाहती कि लोग उसकी बात सुनें, जब कोई व्यक्ति अलग राय पेश करता, तो वह हमेशा उससे अपनी ही बात मनवाती। वह हमेशा दिखावा करती, सिद्धांत बघारती। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों द्वारा न्याय करके उजागर किये जाने से उसे एहसास हुआ कि वह अपने कर्तव्य में केवल दिखावा कर रही है और लोगों से अपनी आराधना करवा रही है। यह कपट और जालसाज़ी है। दरअसल, वह महान फ़रिश्ते की तरह रुतबे के लिए परमेश्वर से होड़ लगा रही है। वह परमेश्वर का विरोध कर रही है। इस बात का एहसास होने पर वह खेद से भर गयी, अपने इतने ज़्यादा अहंकारी और बेशर्म होने से उसे नफ़रत हो गयी। वह परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित कर रही थी। वह जान गयी कि अगर उसने प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर उसे हटा देगा और दंडित करेगा। उसने यह भी समझ लिया कि परमेश्वर का स्वभाव कितना धार्मिक, पवित्र, और अपमानित न किया जा सकने वाला है, और फिर उसने परमेश्वर का भय माना। इस प्रकार अनेक बार न्याय और ताड़ना से गुज़रने के बाद, वह सही मायनों में अपनी अहंकारी प्रकृति को समझ पायी, और खुद से घृणा करने लगी। अब वह अपने कर्तव्य में पहले जैसी अहंकारी और दिखावा करने वाली नहीं रही, और अपनी भ्रष्टता के बारे में सचमुच खुल कर बोलने में समर्थ हो गयी। उसने दूसरों के विचारों को सुनना, उनसे सीखना और दूसरों से सहयोग करना भी सीख लिया, वह इंसानियत के साथ ज़िंदगी जीने लगी।

उसकी संगति को सुनना मेरे लिए वाकई शिक्षाप्रद रहा। मैंने जान लिया कि पाप से मुक्त होने और अपनी भ्रष्टता को शुद्ध करवाने का एक ही रास्ता है, वह है सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के वचनों के न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव करना। इतने वर्षों की आस्था में मुझे कभी भी अनुभव पर आधारित ऐसी गवाही नहीं मिली। मैंने पादरी-वर्ग के बहुत-से सदस्यों से बात की थी, बहुत-सी कलीसियाओं में गयी थी, लेकिन मैंने कभी भी ऐसी गवाही नहीं सुनी। इन भाई-बहनों के अनुभवों ने मुझे शुद्ध होने, पूरी तरह बचाये जाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का मार्ग दिखाया। मैं रोमांचित हो गयी, मेरा दिल कहने लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही वापस आया हुआ प्रभु यीशु है। केवल परमेश्वर ही हमारे लिए इतना चिंतित होता है। परमेश्वर पाप में ज़िंदगी जीने के हमारे दर्द को जानता है, इसलिए उसने स्वयं देहधारी होकर मानवजाति को बचाने के लिए सत्य व्यक्त किया है। हमारे लिए उसका प्रेम बहुत सच्चा है।

फिर, मैं उत्सुकता के साथ सभाओं में भाग लेने लगी, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने लगी, और उसके वचनों के प्रकाश में अपनी भ्रष्टता पर आत्मचिंतन करने लगी। मेरे पति ने जब देखा कि मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया है, मैं पहले की तरह अब लोगों को नीचा नहीं समझती और बदल गयी हूँ, तो उन्होंने भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ना शुरू किया और उसके कार्य को स्वीकार कर लिया। बहुत बढ़िया! परमेश्वर का धन्यवाद!

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