पर्दे के पीछे के कर्तव्य में मेरे मन की हालत

19 जुलाई, 2022

वू यान, चीन

जून 2021 के आखिरी दिनों में, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी पागलों की तरह ईसाइयों को गिरफ्तार कर रही थी, मेरे मेजबान घर की निगरानी की जा रही थी। मैंने फौरन ही उस घर को छोड़ दिया, पर पूरी संभावना थी कि पुलिस की नजर मुझ पर भी थी। काम करने के लिए मुझे घर में छिपे रहना पड़ता था। मैं उस समय कुछ समूहों के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी निभा रही थी। मेरे काम का भार बढ़ रहा था, और कुछ चीजें सिर्फ पत्र लिखकर नहीं की जा सकती थीं, और यह रू-ब-रू बात करने जितना असरदार भी नहीं था। इसलिए काम की जरूरतों को देखते हुए अगुआ ने बहन वांग को मेरी सहयोगी बना दिया।

शुरू में वह भाई-बहनों को अच्छी तरह नहीं जानती थी, इसलिए हर सभा से पहले मैं उसे उठाए जाने वाले मुद्दों का मूल समझा देती, ताकि वह ज्यादा असरदार हो सके। फिर मुझे पता चला कि समूह की एक सदस्य, बहन ली अपने काम में हमेशा लापरवाह रहती थी, संगति के कई सत्रों के बाद भी वह नहीं बदली थी, जिससे काम में रुकावट आ रही थी। सिद्धांतों के आधार पर उसे फौरन बर्खास्त करना जरूरी था, इसलिए, मैंने हालात और लोगों को बर्खास्त करने के सिद्धांत समझाते हुए एक दस्तावेज तैयार करके बहन वांग को दिखाया और बहन ली को बर्खास्त करने के बारे में अपनी राय बताई, ताकि उसके साथ अपनी संगति में वह सभी पहलुओं को छुए जिससे बहन ली को आत्मचिंतन और खुद को जानने में मदद मिल सके। बहन वांग ने अगले दिन उसे बर्खास्त कर दिया। घर लौटने के बाद उसने बताया कि वहाँ क्या हुआ, पर पूरी बातचीत में उसने एक बार भी मेरा नाम नहीं लिया, न ही यह बताया कि लोगों को परखने और समस्याएं हल करना सीखने में मैंने उसकी मदद की थी। मुझे थोड़ी निराशा हुई। मुझे लगा कि किसी और को नहीं मालूम था कि पर्दे के पीछे मैं क्या कर रही थी। मैंने सोचा कि कहीं वे यह तो नहीं समझते कि बहन वांग को तभी बहन ली की हालत का पता चल गया, कि उसमें मुझसे ज्यादा परखने की क्षमता थी। यह सोचते हुए कि मैंने कितना कुछ किया था जिसका दूसरों को पता नहीं था और जिससे बहन वांग इतनी काबिल दिखती थी, मैं थोड़ी परेशान हो गई।

कुछ दिन बाद बहन वांग के साथ कामकाजी चर्चा के दौरान यह बात उठी कि एक समूह लगातार खराब प्रदर्शन कर रहा है। मैं इस समस्या का मूल कारण नहीं समझ पाई तो उसने कहा कि समूह अगुआ का कोई मसला हो सकता है। इस पर विचार करते हुए और समूह अगुआ के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए, मुझे लगा कि वह सिर्फ अपने रुतबे और नाम के लिए काम कर रही है, और कोई व्यवहारिक काम नहीं करती, जिससे रुकावटें आ रही हैं। सिद्धांतों के आधार पर उसे बर्खास्त करने की जरूरत थी। मैं जानती थी कि मैं इस मसले को खुद हल नहीं कर सकती, और मुझे अपनी समझ बहन वांग को बतानी चाहिए, ताकि वह दूसरों के साथ बेहतर संगति करके उन्हें सही-गलत में फर्क करना सिखा सके, और फौरन किसी नई अगुआ का इंतजाम कर सके। पर जब मैंने बहन ली की बर्खास्तगी के बारे में सोचा, कि कैसे मैंने सिद्धांतों की खोज करके दस्तावेज तैयार किया था, और बहन वांग के साथ कितनी सारी संगति की थी पर किसी को पता तक नहीं था, तो मुझे लगा कि अगर इस बार भी मैंने अपने विचार उसके साथ साझा किए और उसने समूह अगुआ को बर्खास्त कर दिया तो सभी यही सोचेंगे कि सब कुछ उसी ने किया था। वे सोचेंगे कि अपने कर्तव्य की इतनी छोटी अवधि में ही उसने दो ऐसे लोगों को पहचान लिया था जो ठीक नहीं थे, जबकि मैंने इतनी लंबी अवधि तक जिम्मेदारी के उस पद पर रहकर भी किसी को नहीं हटाया था। वे सोचेंगे कि उसे लोगों की बेहतर पहचान और सत्य की समझ है। मैंने अपने कुछ विचार साझा न करने का फैसला किया, ताकि बहन वांग की संगति उतनी स्पष्ट न हो सके, फिर दूसरे उसकी तारीफ नहीं करेंगे और मैं इतनी खराब नहीं दिखूंगी। मुझे अपराध-बोध भी हुआ। अगर उसकी संगति स्पष्ट नहीं हुई और समूह अगुआ अपनी समस्या को समझ नहीं पाई, तो वह गलतफहमी में पड़कर नकारात्मक हो सकती थी, और इससे उसके आत्मचिंतन पर तो असर पड़ता ही, बाद में उसके कर्तव्य पर भी इसका असर पड़ता। इस तरह की चालों से परमेश्वर को भी नफरत होती है। इस विचार से, मैंने अपनी सारी समझ बहन वांग के साथ साझा की, पर जब बहन वांग मामले को निपटाने गई तो मुझे फिर से बुरा लगने लगा। मैं यह काम अपने हाथ में क्यों नहीं ले पाई? सभी ने बहन वांग को लोगों को पहचानते और बर्खास्त करते देखा, पर इसके पीछे के मेरे प्रयासों को किसने देखा? मैं इस बात से बिल्कुल भी खुश नहीं थी कि मैं जो कुछ भी करती थी उससे बहन वांग ही काबिल दिखती थी और दूसरों की नजरों में उसकी छवि और निखर जाती थी। मुझे इस बात से भी शिकायत थी कि परमेश्वर ने मुझे ऐसी बुरी स्थिति में क्यों डाल दिया। वह मुझे अचानक ही निगरानी में रखे जाने की अनुमति क्यों दे रहा है? हुआ यह कि उस समय कुछ भाई-बहन हमें कामकाज के मसलों के बारे में लिख रहे थे, और कुछ खास तौर से यह चाहते थे कि बहन वांग ही उन्हें देखे। इससे मैं और भी नाखुश थी। मुझे लगता था कि हर कोई सिर्फ बहन वांग को ही देख रहा है, और पर्दे के पीछे के मेरे काम को नहीं देख रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो क्या सब लोग मुझे फालतू नहीं समझने लगेंगे? मुझे लगता था कि भले ही बहन वांग सब भाग-दौड़ कर रही हो, पर मैं भी घर पर आराम से नहीं बैठी थी। कोई भी मेरी मेहनत को नहीं देख पा रहा था। मैं इससे खुश नहीं थी और इसे बदलने का कोई रास्ता सोच रही थी। हालांकि मैं खुद बाहर जाकर भाई-बहनों से नहीं मिल सकती थी, पर मैं कामों की व्यवस्था के लिए पत्र लिखकर अपनी कड़ी मेहनत को साबित कर सकती थी, कि मैं ही हर काम के आगे और केंद्र में थी। इससे दूसरे लोगों के मन में मेरी छवि मजबूत हो जाती। तभी हमें कलीसिया के कुछ सामान्य मामलों के बारे में कुछ समूहों के पत्र मिले, तो मैंने जवाब देते हुए उन्हें ठीक करने की बारीकियाँ समझाईं, और साफ-साफ लिखा कि बहन वांग कब जाएगी, ताकि सबको पता चल जाए कि यह सब मैं ही देखती हूँ, कि सब कुछ मेरे हाथ में है। एक दिन, मैं एक बहन को पत्र लिखकर पूछना चाहती थी कि उसका कामकाज कैसा चल रहा है, पर पत्र लिखने के बाद मैं सोचने लगी कि क्या उसे पता होगा कि पत्र लिखने वाली मैं हूँ। अगर मैंने कोई संकेत नहीं दिया तो शायद वह सोचे कि बहन वांग को उसकी कितनी चिंता है। ऐसे काम नहीं चलेगा, इस बहन को यह पता चलना जरूरी है कि पत्र मैंने लिखा है। पर सीधे-सीधे ऐसा लिखना भी ठीक नहीं था। अचानक मुझे याद आया कि कुछ ही दिन पहले मैंने उस बहन को एक भजन सुझाया था, तो मैं उससे पूछ सकती हूँ कि क्या वह इसे सीख रही है, इस तरह उसे पता चल जाएगा कि यह मैं हूँ। इस विचार के आते ही मैंने झट से पत्र पूरा किया और भेज दिया। उसके जवाब से मैं समझ गई कि उस बहन को पत्र लिखने वाली का पता चल गया था, और मैं खुश हो गई। मुझे लगा कि मैं पर्दे के पीछे रहकर भी अच्छी दिख सकती हूँ, और दूसरों को यह दिखा सकती हूँ कि मेरे पास वास्तविकता और मसले सुलझाने की क्षमता है। इस तरह, मुझे कभी भी समझ में नहीं आया कि मैं सही हालत में नहीं थी। जब एक बहन ने मुझे अपनी हालत के बारे में बताया तो मैं चौंकी। उसने बहुत दुखी मन से कहा कि जिन अध्ययन दस्तावेजों पर उसने कड़ी मेहनत की थी, उन्हें उसकी साथी ने भेजा था, जिससे उसे लगा कि उसकी साथी ने उसके काम का श्रेय छीन लिया था, और अब वह अपने काम को लेकर उत्साहित नहीं रही। यह सुनकर मुझे एक झटका-सा लगा। क्या मैं भी कुछ समय से ऐसी ही हालत में नहीं थी? मैं इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज भी नहीं कर रही थी। क्या परमेश्वर ने मुझे सचेत करने के लिए यह स्थिति पैदा की थी, ताकि मैं आत्मचिंतन करके अपने बारे में जान सकूँ। इसलिए, अपनी मौजूदा हालत को ठीक करने के लिए मैंने परमेश्वर के वचन खोजे। मैंने यह अंश पढ़ा। "जब मसीह-विरोधी कार्य करते हैं, तो वे ऐसा इरादे से करते हैं। उनकी भाषा, कार्य, यहाँ तक कि उनके द्वारा चुने गए शब्द भी बहुत साभिप्राय होते हैं। वे क्षणिक रूप से छोटे आध्यात्मिक कद का अपना भ्रष्टाचार, या अपना अज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति होना उजागर नहीं करते, जो जहाँ भी जाते हैं, बकवास करते हैं। ऐसे लोगों के साथ ऐसा नहीं है। जब हम उनकी तकनीकें, उनके काम करने के तरीके और उनके शब्दों का चुनाव देखते हैं, तो हम देख सकते हैं कि मसीह-विरोधी चालाक और दुष्ट होते हैं। अपनी हैसियत के लिए, लोगों को नियंत्रित करने का अपना लक्ष्य पाने के लिए मसीह-विरोधी अवसर मिलते ही अपनी शान दिखाते हैं, कभी एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐसे लोग मेरे सामने ये व्यवहार प्रकट करेंगे? (हाँ।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? (उनकी प्रकृति और सार अपनी शान दिखाना है।) क्या मसीह-विरोधी केवल अपनी शान दिखाते हैं? अपनी शान दिखाने के पीछे उनका क्या लक्ष्य होता है? वे हैसियत माँग रहे होते हैं। उनके कहने का मतलब यह होता है, 'क्या तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? मेरे द्वारा किए गए काम देखो, मैंने यह अच्छा काम किया था, और मैंने परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण योगदान दिया। चूँकि तुम्हें इसकी जानकारी है, तो क्या तुम्हें मुझे और अधिक महत्वपूर्ण काम नहीं देना चाहिए? क्या तुम्हें मेरे बारे में अच्छी राय नहीं रखनी चाहिए? तुम जो कुछ भी करते हो, उसके लिए क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं करना चाहिए?' क्या यहाँ उनका कोई लक्ष्य नहीं है? मसीह-विरोधी हर किसी को नियंत्रित करना चाहते हैं, चाहे वह कोई भी हो। नियंत्रण के वर्णन का दूसरा तरीका क्या है? यह दूसरों को प्रभावित करना और लोगों के साथ खिलवाड़ करना है, वे जो करते हैं उसे नियंत्रित करने की कोशिश करना हैं। उदाहरण के लिए, जब भाई-बहन कुछ अच्छी तरह करने पर उसकी प्रशंसा करते हैं, तो मसीह-विरोधी तुरंत कहते हैं कि वह उन्होंने किया था, ताकि हर कोई उनका धन्यवाद करे। क्या कोई वास्तव में समझदार इंसान ऐसा करेगा? बिलकुल नहीं। जब मसीह-विरोधी थोड़ा-सा भी अच्छा काम करते हैं, तो वे सभी को बताने की कोशिश करते हैं, ताकि हर कोई उन्हें सम्मान से देखे और उनकी प्रशंसा करे। यही उन्हें संतुष्ट करता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी हमेशा दिखावा करते रहते हैं। उनकी हर कथनी-करनी लोगों की तारीफ पाने के लिए होती है और रुतबा हासिल करने के लिए दिखावा मात्र होती है। परमेश्वर के वचनों और मेरे मौजूदा व्यवहार को देखते हुए, क्या मैं भी एक मसीह-विरोधी की तरह नहीं थी? बहन वांग ने मेरा जिक्र किए बिना उन दो बहनों को बर्खास्त किया तो मुझे लगा मेरे साथ गलत हुआ है। मुझे लगा कि मैंने ही उन्हें पहचाना था, पर आखिर में सारा श्रेय बहन वांग को मिल गया। सिर्फ उसी का चेहरा सबके सामने रहता था. मैं कितना ही काम क्यों न करूँ, कोई भी इसे देख नहीं पाता था। अगर मैं चुपचाप काम करती रहूँगी तो किसी को भी पता नहीं चलेगा, जो बेहद चुभने वाली बात थी। मैं खुद को दिखाने के लिए कितनी मगजपच्ची और कितने जतन कर रही थी, ताकि भाई-बहन मेरी तारीफ करें और उनकी नजरों में मेरा रुतबा बढ़े। ऐसा लगा कि मैं सिर्फ कामकाज की व्यवस्था के लिए पत्र लिख रही थी, पर असलियत में मैं हरेक को यह याद दिला रही थी कि मेरी मौजूदगी को न भूलें, कि बहन वांग सिर्फ मेरी तरफ से काम कर रही थी और अहम जिम्मेदारी मेरी थी। एक बहन की हालत को लेकर उसकी मदद करने के बहाने मैं उसके लिए चिंता जता रही थी, ताकि उसे अपनी मौजूदगी की याद दिलाकर उसकी तारीफ पा सकूँ और उसे मेरे घृणित इरादों का पता भी न चले। मेरा स्वभाव कितना धूर्त और बुरा था! सच्चाई यह है कि परमेश्वर के प्रकाशन और मार्गदर्शन के बिना, मैं कभी भी यह न जान पाती कि वे दो बहनें अपने कर्तव्यों के योग्य नहीं थीं। उनके बर्खास्त होने तक काम को भी कितना सारा नुकसान पहुंचा था। यह बात उस समूह अगुआ के बारे में खास तौर से सच थी। अगर बहन वांग इसका जिक्र न करती तो मैं इसे भाँप न पाती और उसे उसके ओहदे पर रहने देती। मैं अपना काम ठीक से नहीं कर रही थी, मुझे कोई अपराध-बोध नहीं था, बल्कि बेशर्मी से श्रेय पाना चाहती थी, दिखावे और रुतबे के लिए घृणित साधनों का इस्तेमाल कर रही थी, ताकि हर कोई मुझे ऊंची समझे। मैं किस हद तक बेशर्म थी!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो, तो तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर की जाँच स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन कितने सही हैं। परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारना सत्य के अभ्यास का मूलमंत्र है, हम इस बात की परवाह नहीं कर सकते कि लोग क्या सोचते हैं, सिर्फ परमेश्वर को संतुष्ट करने और अपना कर्तव्य निभाने की परवाह कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे अभ्यास का एक रास्ता मिला, तो बाद में दूसरों को भेजे पत्रों और संगति में, मैं हमेशा सही मंशा रखने और परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारने पर ध्यान देने लगी, दूसरों की तारीफ पाने और उनके दिल में जगह बनाने के लिए पत्रों का इस्तेमाल करना बंद कर दिया। मैंने कलीसियाओं को लिखे गए पौलुस के पत्रों के बारे में सोचा। उसने कभी प्रभु यीशु का महिमागान नहीं किया या उसकी गवाही नहीं दी, और उसने विश्वासियों को प्रभु यीशु के वचनों का अनुसरण करने के लिए नहीं कहा। वह सिर्फ अपना ही महिमागान करता और गवाही देता रहा, सिर्फ यही बोलता रहा कि उसने कितना काम किया है, कितने कष्ट सहे हैं। उसने कहा, "मैं किसी बात में बड़े से बड़े प्रेरितों से कम नहीं हूँ" (2 कुरिन्थियों 11:5), और लोगों को अपने सामने ले आया, जो परमेश्वर के विरोध का रास्ता था। मैं भाई-बहनों को जो पत्र लिख रही थी उनमें भी न तो परमेश्वर का महिमागान किया, न ही उसकी गवाही दी, मैं परोक्ष रूप से अपना ही दिखावा कर रही थी। क्या मैं पौलुस जैसा ही काम नहीं कर रही थी? मैं जानती थी कि अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो मुझे भी निकाल फेंका जाएगा और उसी की तरह दंडित किया जाएगा। इस एहसास के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मुझे अपने रुतबे की ज्यादा ही चिंता रहती है। मैं इसके काबू में रहना नहीं चाहती, परमेश्वर के घर के काम को कोई नुकसान पहुंचाना नहीं चाहती। मैं दूसरों से योग्य दिखूँ या नहीं, मैं बस अडिग रहकर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।"

अगले कुछ दिनों तक मैं सचेत होकर अपनी मंशाओं को ठीक रखती रही, खुद को यह याद दिलाते हुए कि कलीसिया के हित सबसे ऊपर हैं, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना है। फिर एक दिन, हमें भाई चेन का इस्तीफा मिला, जिसमें लिखा था कि वह इसलिए छोड़ना चाहता है क्योंकि उसकी अपने साथी से नहीं बनती। हमें उसके कुछ मसलों का पहले से थोड़ा-बहुत पता था। मुख्य बात यह थी कि वह बहुत अहंकारी और जिद्दी था, इसलिए दूसरों से उसकी नहीं निभती थी। बहन वांग पहले भी कई बार उसके साथ संगति कर चुकी थी, पर वह नहीं बदला था। जब उसने अचानक ही इस तरह इस्तीफा दे दिया, तो ऐसा लगा कि हमारे लिए इस समस्या को सुलझाना मुश्किल होगा। मैंने और बहन वांग ने इस पर बात की तो मैंने उसे अपना नजरिया बताया और परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक अंश खोज लिए। बहन वांग को भी लगा कि यह अच्छी संगति रहेगी। उस समय मुझे यह ख्याल आया कि मेरी संगति कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, पर असल में उस भाई से बात वही करेगी। किसे पता चलेगा कि पर्दे के पीछे यह मेरा प्रयास था, मैं ही इसकी अगुवाई कर रही थी? यह सोचकर मेरा मन हुआ कि बहन वांग के साथ संगति न करूँ, पर मैं यह भी जानती थी कि परमेश्वर मेरी हर सोच और विचार पर नजर रखे हुए है, इसलिए मैं थोड़ा सहम गई। मैं हमेशा खुद का नाम और रुतबा क्यों बचाना चाहती थी? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे रुतबे के पीछे भागने के परिणामों को समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। जो लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। उनके हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझतेहैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, यह उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह विघटन, रुकावट और हानि है। यह लोगों के प्रसिद्धि और हैसियत के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। मैं हमेशा यह सोचती थी कि नाम और रुतबे के पीछे भागने से सिर्फ जीवन प्रवेश पर फर्क पड़ता है और जब तक हम कोई बहुत बुरा काम नहीं करते, कलीसिया के काम में रुकावट नहीं आती। मैं यह नहीं समझती थी कि परमेश्वर नाम और रुतबे के पीछे भागने से इतनी घृणा क्यों करता है। परमेश्वर के वचनों के पाठ ने मुझे दिखाया कि अपने कर्तव्य में रुतबे के पीछे भागने और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा न करने से कलीसिया के काम को और आखिर में भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचना तय है। यह कलीसिया के काम में बाधा और व्यवधान डालेगा, और परमेश्वर इसकी निंदा करता है। भाई चेन की समस्या पर बात करते हुए मैं अब और संगति नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मुझे कोई नाम नहीं मिलने वाला था। यह कोई बड़ी बात नहीं लगती थी, पर यह गंभीर बात थी। अगर हमने भाई चेन के मसलों पर बात करने में देरी की, तो इससे उसके जीवन प्रवेश को नुकसान होगा, और नए विश्वासियों के सिंचन पर भी असर पड़ेगा। अपनी जिम्मेदारी को देखते हुए मुझे अपने कर्तव्य में मुश्किलें झेल रहे व्यक्ति की फौरन मदद करनी चाहिए थी, ताकि कलीसिया का काम पटरी पर रहे। खास तौर से कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा धड़ल्ले से गिरफ्तारियों को देखते हुए, बहन वांग हर बार सभा में जाकर गिरफ्तारी का खतरा उठा रही थी। अगर वह पूरी तरह से तैयार नहीं होगी, तो वह सभा में मसले हल नहीं कर पाएगी, जिसका मतलब होगा कि इतना खतरा उठाने के बावजूद वह असरदार साबित नहीं होगी। क्या यह बहुत बुरी बात नहीं होगी? मैं समस्याओं को जल्दी-से-जल्दी हल करने या बहन वांग की सुरक्षा के बारे में नहीं सोच रही थी। मैं बस उसके द्वारा मेरा श्रेय चुरा लिए जाने को लेकर चिंतित थी। मैं कितनी स्वार्थी और बिना इंसानियत वाली थी! बड़ी जिम्मेदारी होने के बावजूद मैं व्यावहारिक काम नहीं कर रही थी। मैं परमेश्वर के घर के काम की कीमत पर खुद के रुतबे को बचा रही थी। यह परमेश्वर का प्रतिरोध और एक मसीह-विरोधी का रास्ता था। पहले मैं अकेली ही यह जिम्मेदारी उठा रही थी, कड़ी और अथक मेहनत से अपना काम कर रही थी। पर पार्टी की गिरफ्तारियों के कारण मैं अब बाहर नहीं निकल सकती थी—पर्दे के पीछे रहकर ही काम कर सकती थी। मैं अपना कर्तव्य निभाने में हिचकिचा रही थी, और नाम के लिए बहन वांग से होड़ करना चाहती थी। तब मुझे एहसास हुआ कि अपने काम को लेकर मेरा पहले का उत्साह सिर्फ नाम और रुतबे के लिए था। वह हालत मेरी मंशाओं और लक्ष्यों को उजागर कर रही थी। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार और प्रेम था।

फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों को याद किया, जिनसे मेरा अभ्यास का रास्ता स्पष्ट हुआ। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन के लिए, कलीसिया के फ़ायदे के लिये और अपने भाई-बहनों को आगे बढ़ाने के वास्ते प्रोत्साहित करने के लिये, तुम लोगों को सद्भावपूर्ण सहयोग करना होगा। तुम्हें एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिये, एक दूसरे में सुधार करके कार्य का बेहतर परिणाम हासिल करना चाहिये, ताकि परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखा जा सके। सच्चे सहयोग का यही मतलब है और जो लोग ऐसा करेंगे सिर्फ़ वही सच्चा प्रवेश हासिल कर पाएंगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। "अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ऊर्जा से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ऊर्जा का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर जो ऊर्जा है उसे लगाना, अपनी संपूर्ण शक्ति का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। यदि तुम बातों को समझते हो, स्वीकारते हो और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों से संवाद करना चाहिए। सद्भाव में सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम लोग हमेशा पूरा भार ढोना चाहते हो और सब कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, दूसरों के बजाय खुद को दिखाना चाहते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण, या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उन्हें सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए हमें परमेश्वर के दिल का ध्यान रखना चाहिए और अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करना चाहिए। हमें अपना सब कुछ इसमें झोंक देना चाहिए और अपनी खूबियों का इस्तेमाल एक-दूसरे की कमियों की भरपाई के लिए करना चाहिए। इस तरह से ही हमें परमेश्वर की आशीष मिल सकती है और हम अपने काम में अच्छे नतीजे हासिल कर सकते हैं। मैंने यह भी देखा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हममें से कौन समस्याओं को हल करता है। अगर दूसरों की हालत और मुश्किलों का समाधान हो रहा है, तो हमारे प्रयास भले ही अदृश्य और पर्दे के पीछे हों, पर अपना कर्तव्य निभाकर और परमेश्वर को संतुष्ट करके हमें सुकून और शांति मिलेगी। इसके बाद मैंने विचार किया कि भाई चेन की हालत के लिए मुझे किन सत्यों पर संगति करनी चाहिए और मुझे बहन वांग को दिखाने के लिए परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचन मिल गए। उसने भी कुछ ऐसे अंश खोज निकाले जो भाई चेन की हालत पर बिल्कुल ठीक बैठते थे और जिनके बारे में मैं खुद नहीं सोच पाई थी। दोनों को मिलाकर काफी स्पष्ट सामग्री इकट्ठी हो गई। मुझे याद आया कि मूसा कितना कम बोलता था और हारून बोलने में कितना अच्छा था, पर उन्होंने मिलकर परमेश्वर के आदेश का पालन किया और इस्राएलियों को मिस्र से निकालने में उनकी अगुवाई की। मैं काम के लिए बाहर नहीं निकल सकती थी, लेकिन मैं जो देखती और सोचती थी, उसे लेकर बहन वांग के साथ साफ तौर पर संगति कर सकती थी। साथ काम करने से हम मसलों पर ज्यादा साफ राय बना सकते थे, और उन्हें बेहतर ढंग से सुलझा सकते थे। क्या यह कलीसिया के काम के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं है? हमने हर बात पर आपस में चर्चा कर ली तो बहन वांग, भाई चेन के साथ संगति करने गई। मैं अपने दिल में उनके लिए प्रार्थना कर रही थी कि परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करे।

फिर एक दिन, हमें कुछ भाई-बहनों का एक पत्र मिला। इसमें लिखा था कि बहन वांग की संगति से, वे अपनी कुछ गलतियाँ सुधारने में सफल रहे और अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा रहे हैं। इसे पढ़कर मैं थोड़ी निराश हो गई। मुझे लगा कि मैंने ही उन गलतियों और मसलों को खोजा था, पर हर कोई सिर्फ बहन वांग के काम को देख रहा था। कोई यह नहीं देख रहा था कि पर्दे के पीछे मैं क्या कर रही थी। तभी मुझे ख्याल आया कि मैं फिर से नाम और फायदे के लिए होड़ कर रही थी, तो मैंने प्रार्थना कर अपने निजी हितों को त्याग दिया। बाद में, मैंने एक निबंध में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। यह सच है। हालांकि कोई भी पर्दे के पीछे के मेरे काम को देख नहीं पा रहा था, पर मैं परमेश्वर के सामने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रही थी। दूसरे लोगों को पता होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को संतुष्ट करना ही अहम बात थी। एक सुपरवाइजर के तौर पर यह मेरा कर्तव्य था कि कुछ गलतियाँ और मसले नजर आने पर मैं लोगों से बात करूँ। यह कोई श्रेय लेने वाली बात नहीं थी। पहले मैं दूसरों के सामने हमेशा दिखावा करने की कोशिश करती थी, पर अब मैं सिर्फ पर्दे के पीछे रहकर ही काम कर सकती थी। यह परमेश्वर की व्यवस्था थी, और मुझे इसकी जरूरत थी। मुझे इसके सामने समर्पण करना था और उपयोगी साबित होना था, अपने कर्तव्य में सत्य का अभ्यास करते हुए इसे अच्छे ढंग से निभाना था।

इसके बाद जब भी हमारे काम में मुझे समस्याएँ दिखाई देतीं, मैं पहल करके बहन वांग से बात करती। कभी-कभी जब मैं भाई-बहनों को मसलों के बारे में लिखती, तो यह दिखाने की कोशिश करती कि यह मैं लिख रही हूँ, पर फिर यह एहसास करके कि मैं चुपके-से खुद का महिमागान और दिखावा कर रही हूँ, मैं प्रार्थना करती और अपनी गलत मंशाओं को त्याग देती। खुद को शांत करके मैं यह सोचने लगती कि दूसरों की मदद करने के लिए मैं क्या लिख सकती हूँ, और कैसे अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सकती हूँ। इस तरह के अभ्यास से मेरा दिल रोशन हो उठता और मैं उन्मुक्त महसूस करती। यह खुद को संभालने का कितना बढ़िया तरीका है!

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