खुशामदी होने की कड़वाहट

19 जुलाई, 2022

कु कोंग, यूनान

पिछले साल, मेरे साथ जगह-जगह जाकर सुसमाचार का प्रचार करने वाले भाई शिन को बर्खास्त कर दिया गया। जब मैंने उससे इस बारे में पूछा, तो उसने बताया कि कलीसिया द्वारा दिए गए कर्तव्य को वह कुछ सालों से अच्छी तरह नहीं निभा पा रहा था, वह सारी चीजें मनमाने ढंग से करता था, जिससे कलीसिया का काम काफी बाधित हो गया था, और इसीलिए उसे बर्खास्त कर दिया गया था। उसे इतना ज्यादा पछतावा और बेहद बुरा महसूस करते हुए देखकर मुझे उसके लिए बुरा लगा। साथ किए गए हमारे काम में, मैंने देखा था कि वह लापरवाह था और मनमानी से काम करता था। मैं उसे यह बताना चाहता था, ताकि आत्मचिंतन कर खुद के बारे में जानने में उसकी मदद कर सकूँ, लेकिन मुँह खोलने से ठीक पहले मैं झिझक गया। मैंने अंदाजा लगाया कि बर्खास्त करते समय अगुआ ने उसका काफी निपटान किया होगा, तो वह पहले से ही परेशान होगा। मैंने भी कुछ कह दिया, तो क्या यह जले पर नमक छिड़कना नहीं होगा। क्या वह सोचेगा मुझमें हमदर्दी नहीं है? इसके अलावा, अगुआ ने मेरे देखने से बहुत पहले ही इन मसलों का जिक्र किया होगा, तो मैंने उसे सुकून पहुँचाने का फैसला किया। मैंने उससे कहा, "मुझे यकीन है इतने वर्षों से जगह-जगह सुसमाचार साझा करते हुए तुमने बहुत-कुछ पाया, तुममें गहरी अंतर्दृष्टि है। कलीसिया के बहुत-से भाई-बहन काफी नए हैं, उन्हें सुसमाचार के प्रचार का अनुभव नहीं है। घर लौटकर तुम उनकी मदद कर पाओगे।" उसका जवाब सुनकर मुझे हैरत हुई, "भाई, तुम्हारी इस बात सुनकर मैं परेशान हो गया हूँ। मैंने सोचा था तुम मेरी मदद करने की कुछ बातें कहोगे, ताकि मैं आत्मचिंतन कर खुद को बेहतर समझ सकूँ, जो मेरे जीवन के लिए फायदेमंद हो। लेकिन बजाय इसके, ऐसी हालत होने पर भी तुम मेरी तारीफ कर रहे हो, ताकि मुझे लगे कि मेरी बर्खास्तगी कोई बड़ी बात नहीं थी और मैं दूसरों से ज्यादा काबिल हूँ। तुम शैतान का खेल खेल रहे हो, मुझे नरक के करीब धकेल रहे हो। इससे मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने पतरस को कैसे फटकारा था : 'हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो!' (मत्ती 16:23)। ऐसी विनम्र बातें लोगों के लिए शिक्षाप्रद नहीं होतीं, अब तुम्हें ऐसी बातें नहीं बोलनी चाहिए। यह प्रेम नहीं, बल्कि दूसरों के लिए नुकसानदेह और विनाशकारी है।" मुझे तब बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई, मैं बस छिप जाने के लिए कोई बिल ढूँढ़ना चाहता था। मुझे मालूम था, वर्षों की आस्था के बावजूद भाई शिन के स्वभाव में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ था, और उसने कभी अपने कर्तव्य में ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया था—उसकी हालत खतरनाक थी। लेकिन मैं बस मीठी बातें बोल रहा था। धूर्त बनकर, दुनियावी ढंग से विनम्र और प्रशंसा भरे अंदाज में पेश आ रहा था। क्या यह कपटी होना नहीं था? भाई शिन की बर्खास्तगी उसके लिए आत्मचिंतन करने और खुद को बेहतर समझने का अच्छा मौका था। अगर वह सत्य खोजकर आत्मचिंतन करके सचमुच प्रायश्चित कर सकता, तो वह नाकामी उसकी आस्था में एक अहम मोड़ होती। लेकिन मैं राह का रोड़ा बन रहा था, उसकी भावनाओं से खिलवाड़ करने और उसे गुमराह करने के लिए झूठी बकवास कर रहा था। मैं शैतान का नौकर बन गया था। परमेश्वर लोगों को बचाने की भरसक कोशिश करता है, लेकिन शैतान लोगों को परमेश्वर से दूर करने और खींचकर नरक में गिराने की हर-संभव कोशिश करता है। मेरी यह बकवास मेरे भाई को नुकसान पहुँचा रही थी। तब मुझे बहुत ज्यादा डर लगा, तो अपनी इस समस्या को दूर करने में मदद के लिए मैंने परमेश्वर के कुछ वचन ढूंढ़े।

परमेश्वर कहते हैं, "अगर किसी भाई या बहन के साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, और वे तुमसे पूछते हैं कि उनमें क्या गलत है, तो तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? यह इस बात से संबंधित है कि तुम इस मामले में क्या दृष्टिकोण अपनाते हो। क्या तुम्हारा दृष्टिकोण सत्य के सिद्धांतों पर आधारित है, या तुम जीने के लिए फलसफ़ों का उपयोग करते हो? मुद्दा क्या है, अगर तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि किसी में समस्या है, लेकिन टकराव से बचने के लिए तुम उसे सीधे नहीं बताते, और यह कहते हुए बहाने भी बनाते हो, 'मेरा आध्यात्मिक कद अभी छोटा है और मैं तुम्हारी समस्याएँ पूरी तरह से नहीं समझता। जब मैं समझ लूँगा, तो मैं तुम्हें बताऊँगा'? इसमें जीने का एक दर्शन शामिल है। क्या यह दूसरों को बेवकूफ बनाने की कोशिश नहीं है? तुम्हें वह बोलना चाहिए जो तुम स्पष्ट रूप से देख सकते हो; और अगर कोई चीज तुम्हें स्पष्ट न पता हो, तो वैसा ही कहो। यह वही कहना है, जो तुम्हारे दिल में है। अगर तुम्हारे कुछ विचार हैं और तुम्हें कुछ चीजें स्पष्ट पता हैं, लेकिन तुम लोगों को ठेस पहुँचाने से डरते हो, उनकी भावनाएँ आहत करने से भयभीत हो, और इसलिए कुछ नहीं बोलना चाहते तो यह एक सांसारिक फलसफे से जीना है। अगर तुम पाते हो कि किसी को कोई समस्या है या वह भटक गया है, तो भले ही तुम प्यार से उसकी मदद न कर पाओ, तो भी कम से कम तुम्हें समस्या की ओर इंगित करना चाहिए, ताकि वह उस पर विचार कर सके। अगर तुम इसे अनदेखा करते हो, तो क्या यह उसे नुकसान पहुँचाना नहीं है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है')। "उन्हें सकारात्मक चीजों से कोई प्रेम नहीं है, वे प्रकाश की लालसा नहीं करते, और वे परमेश्वर के मार्ग से या सत्य से प्रेम नहीं करते। वे सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण पसंद करते हैं, वे हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति आसक्त होते हैं, उन्हें दुष्ट प्रवृत्तियों के बीच श्रेष्ठ होना पसंद है, वे बुराई और शैतान की ताकतों के समर्थक होते हैं। वे अपने दिलों में महान और प्रसिद्ध लोगों की पूजा करते हैं, वे राक्षसों के राजाओं की पूजा करते हैं, और अपने दिलों में वे सत्य या सकारात्मक चीजों का अनुसरण नहीं करते, बल्कि ज्ञानार्जन की वकालत करते हैं। वे अपने दिलों में उन लोगों को स्वीकार नहीं करते, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर की गवाही देते हैं; इसके बजाय, वे ऐसे लोगों को स्वीकार करते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, जो दुष्ट हैं और जिनमें विशेष प्रतिभाएँ हैं। वे परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि बुराई और शक्ति का अनुसरण करते हैं, वे रहस्यमय और धूर्त बनने का प्रयास करते हैं, वे एक प्रभावशाली, सुप्रसिद्ध हस्ती बनने के लिए खुद को समाज के ऊपरी तबकों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। वे चाहते हैं कि वे किसी भी भीड़ में पूरी सहजता से घुलमिल सकें, पूरे कला-कौशल के साथ हर तरह की चालें, योजनाएँ और दाँव चल सकें, और जहाँ भी वे जाएँ, उनका सम्मान के साथ स्वागत-सत्कार किया जाए; वे लोगों के आराध्य बनना चाहते हैं। वे इसी तरह का व्यक्ति बनना चाहते हैं। यह किस तरह का मार्ग है? यह राक्षसों का मार्ग है, बुराई का मार्ग है। यह किसी विश्वासी द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग नहीं है। लोगों को उनके व्यक्तिगत भरोसे के कारण ठगने के लिए, उनसे अपनी आराधना और अनुसरण करवाने के लिए वे शैतान के दर्शनों, उसके तर्क का इस्तेमाल करते हैं, वे हर परिवेश में उसकी हर चाल, हर फरेब का इस्तेमाल करते हैं। यह वह मार्ग नहीं है, जिस पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को चलना चाहिए; न केवल ऐसे लोग बचाए नहीं जाएँगे, बल्कि उन्हें परमेश्वर का दंड भी मिलेगा—इसमें जरा भी संदेह नहीं हो सकता" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा')

परमेश्वर के वचनों ने मेरे बुरे मंसूबों, और भ्रष्ट प्रकृति को पूरी तरह से उजागर कर दिया। भाई शिन अपने कर्तव्य में ढीला-ढाला था, और फिर उसने बर्खास्त होने के बाद, अपने नए कर्तव्य में दिल नहीं लगाया। वह अपने काम में मेहनती नहीं था, सिद्धांतों पर नहीं चलता था, मनमानी करता था। मैं उसके इस बर्ताव को साफ तौर पर देख चुका था, लेकिन मैं खुशामदी था, उसका दिल दुखाने से डरता था, और कभी इन मसलों पर उसका ध्यान नहीं दिलाया। उसे फिर से बर्खास्त कर दिया गया और उसने अपनी नाकामियों के बारे में मुझसे खुलकर संगति की। मुझे उसकी समस्याओं के बारे में बात कर उसके साथ परमेश्वर की इच्छा पर संगति करनी चाहिए थी, ताकि आत्मचिंतन कर परमेश्वर के सामने प्रायश्चित करने में उसे मदद मिल सके। यह वास्तव में स्नेह दिखाना होता, उसके लिए फायदेमंद और शिक्षाप्रद होता। लेकिन मैं प्यारा इंसान था, गुमराह करने वाली फूहड़ बातें बोलता था। क्या मैं उसे सिर्फ मूर्ख बनाने की कोशिश नहीं कर रहा था कि वह मुझे पसंद करे? मैं चाहता था वह महसूस करे कि नाकामी का अनुभव होने पर, अगुआ ने सिर्फ उसका निपटान कर उसे उजागर किया था, लेकिन मैं उसे स्नेह और सुकून दे रहा था। फिर वह मेरे प्रति आभारी होकर मन में मेरी अच्छी छवि सँजोता। मैं अविश्वासियों के दुनियावी फलसफे इस्तेमाल कर रहा था, जैसे "लोगों की कमियों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए," "दूसरों की भावनाओं और तर्क-शक्ति के सामंजस्य में अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है," "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," वगैरह-वगैरह। ये सब जीवन जीने के लिए बुरी, दुनियावी बातें हैं और पूरी तरह से शैतानी फलसफे हैं। सारे अविश्वासी शैतानी तर्क के आधार पर बातें करते हैं। एक भी सच्चा शब्द बोले बिना, हमेशा चिकने-चुपड़े और पाखंडी होते हैं। वे सब नाटक करते हैं, हर बात में चालबाजी से दूसरों को टटोलते हैं। लेकिन परमेश्वर के ढेरों वचन पढ़ चुके लंबे समय के विश्वासी होने के बावजूद, मैं एक भी ऐसी बात नहीं कर पाता था जो सत्य के अनुरूप हो। इसके बजाय, मैं एक अविश्वासी की ही तरह शैतानी फलसफों का इस्तेमाल करता था, शैतान का डोंगा बना हुआ था, बहुत झूठा और कपटी बन गया था। हालत दयनीय थी! इससे मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "यदि विश्वासी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)"जितना अधिक तुम परमेश्वर की उपस्थिति में होगे, उतने ही अधिक अनुभव तुम्हें होंगे। अगर तुम अभी भी दुनिया में एक जानवर की तरह जीते हो—तुम्हारा मुँह तो परमेश्वर पर विश्वास की घोषणा करता है, लेकिन तुम्हारा दिल कहीं और होता है—और अगर तुम अभी भी जीने के सांसारिक फलसफों का अध्ययन करते हो, तो क्या तुम्हारी पिछली सारी मेहनत बेकार नहीं हो जाएगी?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अनुभव पर)। आस्था के इतने वर्षों में, मैंने न सत्य हासिल किया था, न ही सरल, ईमानदार इंसान बन पाया था, बल्कि दुनियावी तौर-तरीकों से चिपका हुआ था। मैं समझ गया कि मैं सत्य से प्रेम करने वाला या उसे स्वीकारने वाला इंसान नहीं था। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरी कथनी और करनी में इंसानियत नहीं है। मैं बहुत दुष्ट और धूर्त हूँ! मैं सच में प्रायश्चित करना चाहता हूँ, और शैतानी, दुनियावी फलसफों के अनुसार नहीं जीना चाहता।"

उस अनुभव और सबक से, दूसरों के साथ अपने मेलजोल और उसके बाद अपने कर्तव्य में मैं सतर्क हो पाया, सिर्फ झूठा और खुशामदी न होकर, उस ढंग से बोलने का अभ्यास कर पाया जिससे लोगों को फायदा हो। लेकिन शैतान ने मुझे इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था, कि जब मेरे निजी हितों से जुड़ी कोई बात होती, तो मैं वैसा दोबारा किए बिना नहीं रह पाता।

इसके बाद मैं वीडियो बनाने पर भाई चेन के साथ काम कर रहा था। वे पुख्ता राय रखते थे और काम के बारे में मेरे मुकाबले बहुत ज्यादा जानते थे। मुझे लगा मुझे संकोची होना चाहिए, ताकि उन्हें न लगे कि मैं एक घमंडी और अनाड़ी हूँ। इसलिए हमारे कर्तव्य में, मैं "सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है," पर टिके रहने की कोशिश करता था। कभी-कभी जिन वीडियो पर वे काम करते, उनमें मुझे कुछ गलतियाँ और समस्याएँ नजर आतीं, और मैं उन्हें सुधारने की सलाह देता, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि मैं जिन चीजों का जिक्र करता, वे कोई समस्याएँ थीं। वे सिर्फ कुछ बहाने और राय साझा करते थे। हालाँकि मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं होता, पर मैं डरता कि आगे चर्चा करने से बात अटक जाएगी या बहस छिड़ जाएगी, फिर सभी लोग मुझे अड़ियल कहेंगे। ऐसा सोचकर मैं इसे छोड़ देता। लेकिन प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बजाय, मैंने उनके साथ कुछ महीने इसी तरह काम किया, और फिर हमारे वीडियो यहाँ-वहाँ कुछ समस्याओं के साथ सामने आए। बाद में, मुझे एहसास हुआ कि ये वही मसले थे जो मैंने पहले-पहल बताए थे, और हमें ये वीडियो फिर से बनाने पड़े। घमंडी और अड़ियल होने के कारण भाई चेन को बर्खास्त कर दिया गया। हालाँकि अंत में ये वीडियो पूरे बन गए, पर इस बारे में मुझे सुकून और आराम नहीं मिला। मैं बेचैन और दोषी महसूस कर रहा था। मैं समझ गया कि अपने कर्तव्य में ऊपर से सौहार्द बनाए रखने के लिए मैं हमेशा से खुशामदी था, तो दूसरों का दिल दुखाने के डर से मैं सिद्धांतों का मान नहीं रखता था। मैं एक सच्चा सहभागी नहीं बन पाया, और मैं परमेश्वर के घर के वीडियो कार्य में रुकावट पैदा कर रहा था। मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। फिर अगुआ मुझसे बात करने आए, और यह कहकर मुझे बेनकाब कर दिया कि "आपने भाई-बहनों के साथ कार्य में सत्य के सिद्धांतों का मान नहीं रखा। यह साफ तौर पर जानकर भी कि किसी की राय गलत है, आप आँखें बंद करके उनके पीछे चलते हैं, ताकि कोई संघर्ष न हो, और उनके मन में आपकी छवि सुरक्षित रहे। नतीजतन वीडियो दोबारा बनाने होंगे, और इससे हमारी तरक्की रुक गई है।" फिर वे बोलीं, "आप मुश्किल हालात के आगे झुक जाते हैं, आपको चाहिए कि आप सत्य खोजें और तुरंत इस मसले को सुलझाएँ।" यह सुन पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। अगले कुछ दिनों तक मैं प्रार्थना कर आत्मचिंतन करता रहा, और इस बात पर मनन के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़ता रहा।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "देखने में, मसीह विरोधियों की बातें हर तरह से दयालुतापूर्ण, सुसंस्कृत और विशिष्ट प्रतीत होती हैं। जो कोई भी सिद्धांत का उल्लंघन करता है, कलीसिया के कार्य में हस्तक्षेप और दखलंदाजी करता है, उसे उजागर नहीं किया जाता या उसकी आलोचना नहीं की जाती, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो; मसीह-विरोधी आंखें मूंद लेता है, लोगों को यह सोचने देता है कि वह हर मामले में उदार-हृदय है। लोगों के भ्रष्टाचार और घिनौने कर्मों के प्रति उसका व्यवहार उपकार और सहनशीलता का होता है। वे क्रोधित नहीं होते, या अचानक आगबबूला नहीं हो जाते, जब वे कुछ गलत करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे लोगों को नाराज नहीं करेंगे और उन्हें दोष नहीं देंगे। चाहे कोई भी बुराई करे और परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाले, वे कोई ध्यान नहीं देते, मानो इससे उनका कोई लेना-देना न हो, और वे इस कारण लोगों को कभी नाराज नहीं करेंगे। वे सबसे ज्यादा चिंता किस बात की करते हैं? इस बात की कि कितने लोग उनका सम्मान करते हैं, और जब वे कष्ट झेलते हैं तो कितने लोग उन्हें देखते हैं और इसके लिए उनकी प्रशंसा करते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि कष्ट कभी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए; चाहे वे कोई भी कठिनाई सहें, कितनी भी कीमत चुकाएँ, कोई भी अच्छे कर्म करें, दूसरों के प्रति कितने भी दयालु, विचारशील और स्नेही हों, यह सब दूसरों के सामने किया जाना चाहिए, अधिक लोगों को इसे देखना चाहिए। और ऐसा करने का उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों को जीतना, अपने कार्यों, व्यवहार और चरित्र के प्रति लोगों की सराहना और स्वीकृति पाना। यहाँ तक कि ऐसे मसीह-विरोधी भी हैं, जो इस बाहरी अच्छे व्यवहार के माध्यम से अपनी छवि अच्छे व्यक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, ताकि अधिक लोग मदद की तलाश में उनके पास आएँ। ... उनके कार्य लोगों के दिलों में सिर्फ श्रद्धा ही पैदा नहीं करते—वे उन्हें वहाँ जगह भी देते हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर का स्थान लेना चाहते हैं। जब वे ये चीजें करते हैं, तो उनका लक्ष्य यही होता है। निस्संदेह, उनके कार्यों के शुरुआती परिणाम पहले ही सामने आ चुके हैं : जिन लोगों में विवेक की कमी होती है, उनके दिलों में अब मसीह-विरोधी जगह रखते हैं, और अब ऐसे लोग हैं जो उनमें श्रद्धा रखते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं, जो कि वास्तव में मसीह-विरोधियों का उद्देश्य था" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। परमेश्वर दर्शाता है कि मसीह-विरोधी सचमुच दुष्ट और घिनौने होते हैं, वे मीठा बर्ताव करते हैं, खुद को छुपाने और दूसरों के दिल जीतने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, ताकि लोग सोचें कि वे ही समझदार हैं, और सुकून पाने के लिए उनके पास आएं। ऐसा बर्ताव लोगों को परमेश्वर से दूर ले जाता है, और मसीह-विरोधी उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान ले लेते हैं। मैंने देखा कि मैं इसी तरह कर्म कर रहा था। भाई-बहनों को, अपने कर्तव्य में, मसले उठाकर एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, लेकिन मैं दिल दुखाने वाली किसी भी बात से बच रहा था, ताकि मेरी छवि बनी रहे। भाई चेन के वीडियो बनाने के काम में मुझे कुछ समस्याएँ दिखीं, और मैं सत्य के सिद्धांतों को कायम रखे बिना, बस हवा के रुख के साथ चलकर प्यारा इंसान बना रहा, सत्य का अभ्यास नहीं किया। मैं चाहता था कि हर कोई सोचे मैं बहुत घमंडी नहीं हूँ, सहनशील, समझदार और दयालु इंसान हूँ। मैं जिनसे भी मेलजोल करता उन सभी को खुश करना चाहता, ताकि वे मुझे पसंद करें और अपने दिल में मेरी अच्छी छवि रखें। यह दुष्ट लक्ष्य हासिल करने के लिए, अपनी सकारात्मक छवि बनाए रखने की कोशिश में, मैंने कलीसिया के कार्य तक को नहीं छोड़ा। मैं बहुत स्वार्थी और दुष्ट था। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन से, मैं समझ गया कि एक प्यारा इंसान बनकर, मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था। इसका एहसास होने पर, मैंने बहुत दोषी महसूस किया। इसके बाद मैंने आत्मचिंतन जारी रखा। एक विश्वासी के रूप में अपना पूरा समय याद करूँ, तो मैं हमेशा दूसरे लोगों के सामने सुंदर छवि बनाए रखता था। जब कभी मैं किसी को पोषित और उदार रूप में देखता, तो मैं उसकी तरह बनने की कोशिश करता था। मैं आरामपसंद और मिलनसार दिखना चाहता था, ताकि भाई-बहनों के मन में, मेरी छवि सुरक्षित रहे। दूसरों की समस्याएँ देखने या उनके भ्रष्टता दिखाने पर, उनका दिल दुखाने के डर से, इस बारे में शायद ही कभी बोलता था। मुझे याद है कि पहले जब मैं सुसमाचार उपयाजक था, तो हमेशा शांत रहने और विनम्रता से बोलने की कोशिश करता था। जब मैं दूसरों को असैद्धांतिक होकर यूँ ही अपना कर्तव्य निभाते देखता, तो मुझे डर लगता कि यह मसला उठाने से वे दबा हुआ महसूस करेंगे, और दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए तथाकथित स्नेह और मदद करने की चाह के चलते, मैं बहुत सोच-समझ कर विनम्र और गोलमोल ढंग से बोलता था। मैं किसी को भी सीधे दोष नहीं देता था या उनकी करनी की गंभीरता समझने में उनकी मदद नहीं करता था। मैं बस उन्हें गोलमोल इशारा कर देता था। मुझे जब किसी को बर्खास्त करना होता और संगति करनी होती, तो मुझे लगता इससे उसका दिल दुखेगा, फिर मुझे समझ नहीं आता कि क्या बोलूँ। मैं हमेशा चाहता था कि मेरे बजाय कोई दूसरा संगति करे, और मैं बस छिप जाऊँ। मैंने इस तरह अपना रुतबा और छवि बचाने की पुरजोर कोशिश की थी, भाई-बहनों ने कहा कि मैं कभी रौब नहीं दिखाता था और बड़ा मिलनसार था। यह सोचकर कि मुझमें अच्छी इंसानियत है और मैं दूसरों को नहीं दबाऊँगा, उन्होंने अगुआ पद के लिए मेरी सिफारिश भी की थी। मैं बहुत आत्मतुष्ट महसूस करता था। मसीह-विरोधी, लोगों को गुमराह कर फँसाने और उनके दिलों में परमेश्वर का स्थान लेने की कोशिश में, ऊपर से अच्छे बर्ताव का इस्तेमाल करते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मेरे दिल में भी ऐसे ही मंसूबे और लक्ष्य थे। मैंने कभी भी अपने घिनौने मंसूबों और भ्रष्ट प्रकृति पर चिंतन नहीं किया था, मुझे लगता था कि प्यारा इंसान होने में कोई बुराई नहीं है। दूसरों की स्वीकृति, उनका साथ और उनकी प्रशंसा पाना आसान था। मुझे लगा, यह जीवन जीने का बढ़िया तरीका है। लेकिन अब मैं समझ सकता हूँ कि लोगों को धोखा देकर, बेवकूफ बनाकर, परमेश्वर के कार्य को कमजोर करने के लिए, मसीह-विरोधी जैसा काम करके, मैं चोरी-छिपे और गुप्त रूप से अपने पाँव जमा रहा था।

अपने धार्मिक कार्यों में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने मुझमें कुछ भावनाएं जगाईं। "जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाती है, तो सत्य का अभ्यास न करना एक अपराध है। और अगर तुम्हारे साथ दोबारा कुछ होता है और फिर भी तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते—अगर तुम अपने हितों, अभिमान और गर्व की रक्षा करने के लिए सत्य का त्याग कर देते हो—यह किस तरह का व्यवहार है? क्या यह बुराई करना है? अगर तुम किसी भी बिंदु पर सत्य का अभ्यास नहीं करते और तुम्हारे अपराध और भी अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा अंत पहले से ही तय है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि अगर तुम्हारे सभी अपराध जोड़ दिए जाएँ, और उन्हें तुम्हारे चुनावों में, उन चीजों में जिनका तुम अनुसरण करते हो, और तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छा में, और साथ ही, काम करते हुए तुम्हारे द्वारा ली गई दिशाओं और अपनाए गए मार्गों में जोड़ दिया जाए—अगर इन सभी को जोड़ दिया जाए, तो तुम्हारा अंत तय करना संभव है : तुम्हें नरक में डाल दिया जाना चाहिए, जिसका अर्थ है कि तुम्हें दंडित किया जाएगा। तुम क्या कहते हो, क्या यह कोई छोटी बात है? जोड़े जाने पर तुम्हारे सभी अपराध बुरे कर्मों का एक संग्रह बन जाते हैं, और इसलिए तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए—जो उस स्थिति का अंतिम परिणाम होता है, जब तुम परमेश्वर में विश्वास तो करते हो, लेकिन सत्य को स्वीकार नहीं करते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है')। मैं हमेशा एक प्यारा इंसान बनकर सत्य का अभ्यास नहीं करता था। दूसरों के साथ मेरा सहयोग हमेशा कलीसिया के कार्य की कीमत पर होता था। यह उनके दिलों को जीतने के बुरे मंसूबे के लिए था। यह पूरी तरह से दुष्टता थी। अगर मैं इसी राह पर चलता रहता, तो अंत में परमेश्वर मुझे त्याग कर दंड देता। परमेश्वर के वचनों से, मैं महसूस कर पाया उसका धार्मिक स्वभाव कैसा है और किस तरह उसे सत्य का अभ्यास न करने वालों से चिढ़ होती है। मैं उसी वक्त प्रायश्चित करना चाहता था, सत्य खोजकर अपने खुशामदी स्वभाव को ठीक करना चाहता था।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तब लोगों के साथ भी तुम्हारा संबंध सामान्य होगा। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाने के लिए, सबकुछ परमेश्वर के वचनों की नींव पर बनाया जाना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुम्हें अपने विचार एकदम सरल रखने चाहिए और हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और पूरे दिल से परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते हुए, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बना पाओगे। साथ ही अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करते हुए, तुम्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम ऐसा कुछ भी न करो जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ न हो, और ऐसा कुछ भी न कहो जो भाई-बहनों की मदद न करे। तुम्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो तुम्हारे जमीर के विरुद्ध हो और वह तो बिलकुल नहीं करना चाहिए जो शर्मनाक हो। तुम्हें खासकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर से विद्रोह करे या उसका विरोध करे, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो कलीसिया के कार्य या जीवन को बाधित करे। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो। यद्यपि कभी-कभी देह कमज़ोर हो सकती है, फिर भी तुम्हें अपने व्यक्तिगत लाभ का लालच न करते हुए, कोई भी स्वार्थी या नीच कार्य न करते हुए, आत्म-चिंतन करते हुए परमेश्वर के परिवार के हित पहले रखने चाहिए। इस तरह तुम अक्सर परमेश्वर के सामने रह सकते हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह सामान्य हो जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे इन चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौता कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम ऐसा कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक नीच और ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। सत्य खोजकर परमेश्वर के साथ खड़े होने वाले लोग, जो अपनी निजी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के घर के हितों का मान रखते हैं, वे ही इंसानियत से जीते हैं, और दूसरों के साथ सामान्य रिश्ते रख पाते हैं। इसके बाद, मैंने हर हालत में, सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करने का अभ्यास शुरू कर दिया, हर चीज में परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की कोशिश करने लगा। कुछ समय तक, ऐसा करके, मैं समझ गया कि मेरे पास रोजमर्रा के जीवन और अपने कर्तव्य में, सत्य का अभ्यास करने के ढेरों मौके हैं। मिसाल के तौर पर, एक सभा में, मैंने देखा कि कि कुछ लोग धर्म-सिद्धांतों की बात कर रहे थे या विषय से भटक रहे थे, या कोई बड़बड़ाकर हमारे सभा के समय को लंबा खींच रहा था, जिससे हमारे कलीसिया जीवन को नुकसान हुआ, लेकिन टीम अगुआ ने इसे सुधारने की कोशिश नहीं की थी। पहले-पहल मैंने कुछ नहीं कहना चाहा, लेकिन मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, और मैं जान गया कि मैं फिर से खुशामदी बन रहा हूँ। मैंने तुरंत प्रार्थना की। सभा के ख़त्म होते-होते, मैंने आँखों देखी समस्याएँ उठाईं और उनका समाधान सुझाया। मुझे लगा, खुद के हितों को त्याग देने और परमेश्वर के घर के हितों का मान रखने से मुझे सच में थोड़ा सुकून मिला। फिर, एक भाई, जिसे मैं अच्छी तरह जानता था, उसे बर्खास्त कर दिया गया था, उसने मुझे बताया कि उसके आराम तलाशने, अपने कर्तव्य में धूर्त बनने और प्रभावी न होने के कारण ऐसा हुआ। पहले तो मैंने उसे दिलासा देना चाहा, उसे मेरे बारे में अच्छा सोचने वाला बनाना चाहा, लेकिन फिर एहसास हुआ कि मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए। मैंने शांत मन से सोचा, कि परमेश्वर को संतुष्ट करने और इस भाई की शिक्षा में मदद के लिए क्या कहना चाहिए। मैंने हमारे पहले की बातचीत के बारे में सोचा। उसके कर्तव्य में, उसकी आराम पाने की आकांक्षा साफ तौर पर जाहिर थी। कुछ भी छोड़े बिना, मैंने उसे कर्तव्य के प्रति उसके रवैये की समस्याओं के बारे में बताया, और इससे जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन भेजे। बाद में, उसने मेरा धन्यवाद किया और कहा कि इनसे उसे काफी मदद मिली। ऐसा करने के बाद, मैंने शांत महसूस किया, मुझे बहुत सुकून मिला।

परमेश्वर के बनाए माहौल और उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन ने मुझे समझाया कि अगर मैं शैतान के दुनियावी फलसफों के अनुसार जीता रहा, तो मैं और ज्यादा धूर्त बनकर इंसान होने का आधार खो बैठूँगा, फिर मैं दूसरों का और खुद का नुकसान करूँगा। मैंने यह भी जान लिया कि परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार जीना ही इंसानियत रखने और एक अच्छा इंसान बनने का एकमात्र तरीका है।

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