एक छोटी-सी बात से सीखा सबक

19 जुलाई, 2022

कुछ समय पहले, एक समूह अगुआ, बहन ली ने वांग मेई को सिंचन कर्मी बनाया। मुझे वांग मेई की इंसानियत ठीक नहीं लगती थी। वह हमेशा अपने काम में लापरवाह रहती थी, परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं करती थी। मैं फौरन बहन ली से वांग मेई के बारे में उसका आकलन पूछने गई, ताकि जान सकूं कि क्या अब भी वो वैसी है। अगर वो अब भी कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार है, तो फिर वो नए सदस्यों के सिंचन के लिए सही नहीं है। तब बहन ली ने कहा, "वांग मेई अपनी शोहरत और रुतबे को अहमियत देती है, पर कर्तव्य के प्रति उसका रवैया ठीक है, मुझे तो उसमें कोई समस्या दिखाई नहीं देती।" यह सुनकर मुझे राहत मिली। अगर बहन ली ने जाँच कर ली है, तो वांग मेई सिंचन कर्मी बनने के लिए सही होगी। कुछ दिन बाद, मैंने भूमिका बदलने की पूरी व्यवस्था कर ली, वांग मेई को कार्यभार सौंपने को तैयार हो गई। मगर तभी अचानक बहन ली ने बताया कि वांग मेई को काम में ढीली-ढाली और लापरवाह होने और सत्य को न स्वीकारने, के लिए कर्तव्य से बर्खास्त कर दिया गया है। यह खबर सुनकर मैं हैरान रह गई और सोचा, कुछ दिन पहले ही उसका आकलन कर क्या आपने नहीं कहा था कि उसमें कोई बड़ी समस्या नहीं है? "कुछ ही दिनों की तो बात है, उसे इस तरह कर्तव्य से बर्खास्त कैसे किया जा सकता है?" मैं शिकायत किए बिना नहीं रह सकी : "आप बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। मैंने आपसे छानबीन करने को कहा, पर आपने ठीक से नहीं किया। आप भले-बुरे की पहचान बिल्कुल नहीं कर पातीं। गलत इंसान को चुनने से मेरे काम पर भी असर पड़ा है। क्या इससे काम में देरी नहीं होगी? इस काबिलियत के साथ आप समूह अगुआ कैसे हो सकती हैं?" इस बारे में जितना सोचा उतना ही गुस्सा आया, पर मैं असली हालात को नहीं समझ पाई, बस मन-ही-मन उसकी आलोचना करती रही। उस समय, मैं वाकई बहन ली को एक संदेश भेजकर, पूछना चाहती थी कि उसके साथ चल क्या रहा था, क्या उसे इस इंसान की कोई पहचान थी, उसने मामले की अच्छी तरह से छानबीन क्यों नहीं की, वो इतनी गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकती है। मगर फिर मैंने सोचा, "गुस्से में लोगों को संदेश भेजना कोई समझदारी की बात नहीं है।" इसलिए मैंने उसे संदेश नहीं भेजा और बात आई-गई हो गई।

एक बैठक के दौरान, मैंने एक भाई की संगति सुनी कि जब चीजें उनके हिसाब से नहीं होती थीं, तो वे गुस्सा होकर लोगों को दोष देने लगते थे, फिर कैसे उन्होंने सत्य खोजकर चिंतन किया और खुद को जाना। यह सुनकर मुझे शर्मिंदगी हुई, मैं पहले के अपने अनुभव को याद किए बिना नहीं रह सकी। क्या मेरी और इन भाई की समस्या एक जैसी नहीं थी? उन्हें नतीजे मिले क्योंकि उन्होंने सत्य खोजा और सबक सीखा। मैं अपना सबक क्यों नहीं सीख पाई? मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने इस मामले का जिक्र किया ताकि उस सबक को जान सकूं जो मुझे सीखना चाहिए। एक बार, धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता परमेश्वर की आज्ञाकारिता का सबसे बुनियादी सबक है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में वे लोग, मामले और चीजें—और विभिन्न परिस्थितियाँ—शामिल हैं, जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर पैदा करता है। तो इन परिस्थितियों से सामना होने पर तुम्हें कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? सबसे बुनियादी बात है परमेश्वर द्वारा स्वीकृति। 'परमेश्वर द्वारा स्वीकृति' का क्या अर्थ है? शिकायत करना और विरोध करना—क्या यह परमेश्वर द्वारा स्वीकृति पाना है? बहाने बनाना और दोष ढूँढ़ना—क्या यह परमेश्वर द्वारा स्वीकृति पाना है? नहीं। तो परमेश्वर द्वारा स्वीकृति पाने को कैसे अमल में लाया जाना चाहिए? पहले तनावमुक्त हो जाओ, सत्य की खोज करो, और आज्ञाकारिता का अभ्यास करो। बहाने या कारण मत सुनाओ। कौन सही है और कौन गलत, इसका अनुमान लगाने या विश्लेषण करने की कोशिश मत करो। और इसका विश्लेषण मत करो कि किसकी गलती अधिक गंभीर है और किसकी कम। क्या हमेशा इन चीजों का विश्लेषण करना परमेश्वर की स्वीकृति पाने का रवैया है? क्या यह आज्ञाकारिता का रवैया है? (नहीं।) यह परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का रवैया नहीं है, यह परमेश्वर द्वारा स्वीकृति पाने का रवैया नहीं है, यह परमेश्वर का प्रभुत्व और व्यवस्था स्वीकार करने का रवैया नहीं है। परमेश्वर द्वारा स्वीकृति : यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता का अभ्यास करने के सिद्धांतों का एक पहलू है। ... सही या गलत का विश्लेषण न करना, तर्कसंगत न ठहराना, लोगों में दोष न खोजना, बाल की खाल न निकालना, वस्तुनिष्ठ कारणों का विश्लेषण न करना, और मानव-बुद्धि का उपयोग करके विश्लेषण और जाँच न करना; ये सभी विवरण हैं, और यह परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाना है। और इसे अमल में लाने का तरीका है पहले आज्ञापालन करना। भले ही तुम्हारी धारणाएँ हों या तुम्हें चीजें स्पष्ट न हों, फिर भी आज्ञा मानो, बहाने न बनाओ या विद्रोह न करो; और आज्ञा मानने के बाद सत्य खोजो; परमेश्वर से प्रार्थना करो और खोजो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्‍वर की आज्ञा मानना सत्‍य को प्राप्‍त करने का बुनियादी सबक है')। परमेश्वर कहता है कि ऐसे हालात का सामना होने पर, हम चाहे उसकी इच्छा समझ पाएं या नहीं, हमें उसका विरोध या अपने लिए बहस नहीं करनी चाहिए। हमारा रवैया परमेश्वर के बनाए हालात को स्वीकारने और उसके अनुसार चलने का होना चाहिए। यह चीजों को ऐसे स्वीकारना है जैसे वे परमेश्वर से आई हों। कोई बात होने पर, मैं हमेशा चीजों को ऊपर से देखकर, सही-गलत का विश्लेषण करती थी, तरह-तरह की शिकायत करती थी। सोचती थी कि समूह अगुआ लापरवाह है, कर्तव्य में गैर-जिम्मेदार है, जिसका असर मेरे काम पर पड़ता है, और मुझे बेवजह अधिक मेहनत करनी पड़ती है। ऐसी हालत में, मेरा रवैया परमेश्वर की इच्छा को स्वीकारने वाला नहीं था। मैंने शांत मन से उसकी इच्छा नहीं खोजी, क्या सबक सीखना है यह चिंतन नहीं किया। इसके बजाय, मैंने अपनी नजरें समूह अगुआ पर टिका दीं। मैं गुस्से में आकर उसे फटकारना और उसकी आलोचना करना चाहती थी। यह स्वीकारने या आज्ञा मानने वाला रवैया नहीं था! क्या काम में उस समय की सभी समस्याएं और मुश्किलें वाकई दूसरों की गलती थी? क्या मैं इनमें से किसी बात के लिए जिम्मेदार नहीं थी? मैंने हमेशा परमेश्वर के मेरे लिए बनाए हालात का विरोध किया था। भले ही अंत में वो समस्याएं पूरी तरह से दूसरों की गलती होती और मैं जिम्मेदार नहीं होती, दूसरे लोग आत्मचिंतन करने, इससे सबक सीखने और प्रगति करने में सक्षम थे। मगर मुझे अंदर-ही-अंदर गुस्से से उबलने के सिवाय, क्या हासिल हो रहा था? तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं थी। मैं विश्लेषण करती और इसमें उलझी नहीं रह सकती कि कौन सही है और कौन गलत। मुझे खुद को शांत कर सत्य खोजना और सबक सीखना होगा।

चिंतन करते हुए, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "अगर तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहते और उससे अपेक्षा नहीं रखते, और केवल जैसा चाहते हो वैसा करते हो, तो तुम कितने भी चतुर क्यों न हो, कभी न कभी तुम असफल हो जाओगे। जिद्दी लोग अपने विचारों का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं, तो क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है? जो लोग बहुत जिद्दी हैं, वे परमेश्वर को भूल गए हैं, और वे परमेश्वर की आज्ञाकारिता को भूल गए हैं; केवल जब चीजें होती हैं, जब उन लोगों के सामने गतिरोध आ जाता है, या वे कुछ भी करने में असफल रहते हैं, तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानी है, और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की है। यह क्या है? यह दिल में परमेश्वर का न होना है। उनके कार्य दिखाते हैं कि परमेश्वर उनके दिलों से अनुपस्थित है, कि सब-कुछ उन्हीं से आता है। और इसलिए, चाहे तुम कलीसिया का काम कर रहे हो, कोई कर्तव्य निभा रहे हो, कुछ बाहरी मामले सँभाल रहे हो, या अपने निजी जीवन में मामलों से निपट रहे हो, तुम्हारे दिल में सिद्धांत होने चाहिए, एक आध्यात्मिक स्थिति होनी चाहिए। कौन-सी स्थिति? 'चाहे कुछ भी हो, मेरे साथ कुछ भी होने से पहले मुझे प्रार्थना करनी चाहिए, मुझे परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए, मुझे उसका प्रभुत्व मानना चाहिए, सब-कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया जाता है, और जब कुछ हो, तब मुझे परमेश्वर की इच्छा खोजनी चाहिए, मेरी यही मानसिकता होनी चाहिए, मुझे अपनी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए।' कुछ समय तक इस प्रकार अनुभव करने के बाद, लोग खुद को कई चीजों में परमेश्वर का प्रभुत्व देखते हुए पाएँगे। अगर तुम्हारी हमेशा अपनी योजनाएँ, विचार, कामनाएँ, स्वार्थी उद्देश्य और इच्छाएँ होंगी, तो तुम्हारा हृदय अनजाने ही परमेश्वर से भटक जाएगा, तुम यह देखने में असमर्थ हो जाओगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और अधिकांश समय परमेश्वर तुमसे छिपा रहेगा। क्या तुम अपने विचारों के अनुसार कार्य करना पसंद नहीं करते? क्या तुम अपनी योजनाएँ नहीं बनाते? तुम्हारे पास दिमाग है, तुम शिक्षित हो, जानकार हो, तुम्हारे पास चीजें करने की क्षमता और कार्यपद्धति है, तुम उन्हें अपने दम पर कर सकते हो, तुम अच्छे हो, तुम्हें परमेश्वर की जरूरत नहीं है, और इसलिए परमेश्वर कहता है, 'तो जाओ और इसे अपने दम पर करो, और इसके ठीक से होने न होने की जिम्मेदारी लो, मुझे परवाह नहीं है।' परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब लोग परमेश्वर में अपनी आस्था में इस तरह से अपनी इच्छा के पीछे चलते हैं और जिस तरह चाहते हैं, वैसे विश्वास करते हैं, तो परिणाम क्या होता है? वे कभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व का अनुभव करने में सक्षम नहीं होते, वे कभी भी परमेश्वर का हाथ नहीं देख पाते, कभी भी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी महसूस नहीं कर पाते, वे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पाते। और समय बीतने के साथ क्या होगा? उनके हृदय परमेश्वर से और भी दूर हो जाएँगे, और इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव होंगे। कौन-से प्रभाव? (परमेश्वर पर संदेह करना और उसे नकारना।) यह केवल परमेश्वर पर संदेह करने और उसे नकारने का मामला नहीं है; जब लोगों के दिलों में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं होता, और वे लंबे समय तक जैसा चाहते हैं वैसा करते हैं, तो एक आदत बन जाएगी : जब उनके साथ कुछ होगा, तो वे पहला काम अपने समाधान, लक्ष्यों, प्रेरणाओं और योजनाओं के बारे में सोचेंगे; वे पहले यह सोचेंगे कि यह उनके लिए लाभकारी है या नहीं; अगर हाँ, तो वे उसे करेंगे, और अगर नहीं, तो वे नहीं करेंगे; सीधे इस रास्ते पर चलना, उनकी आदत बन जाएगी। और अगर वे बिना पश्चात्ताप के इसी तरह करते रहे, तो परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, और उन्हें एक ओर कर देगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के समक्ष समर्पण से संबंधित अभ्यास के सिद्धांत')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं अपनी हालत साफ जान गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि मजबूत इच्छा-शक्ति वाले लोग अक्सर अपनी योजना और अपने नियम बनाकर शुरुआत करते हैं, हिसाब लगाते हैं कि वे क्या-क्या और कैसे करेंगे। वे योजना बनाकर और सब तय करके काम शुरू करते हैं, फिर अपने चुने हुए साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करके उसे पूरा करते हैं, वे चाहते हैं कि दूसरे भी उनके तरीके से काम करें। देखने में लगता है कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करते हैं, पक्का करते हैं कि उनके काम के अच्छे नतीजे मिलें। मगर जब वे इस तरीके से काम करते हैं, उसमें उनकी बहुत-सी इच्छाएं और बहुत-से नियम शामिल होते हैं। वे परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज नहीं करते, आज्ञाकारिता का रवैया नहीं अपनाते, वे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर चलने की परवाह नहीं करते। वे सब कुछ अपनी इच्छा के मुताबिक करते हैं, और चीजों को अपनी मर्जी से चलाना चाहते हैं। परमेश्वर कहता है उनकी अपनी इच्छा बलवती होती है, उनके दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं होती। परमेश्वर ऐसे इंसान से नफरत कर उसे अनदेखा करता है। अपने व्यवहार पर सोचा तो लगा कि मैं अपने कर्तव्य में बहुत अड़ियल थी, मैं जो भी काम करती थी, अगर मैंने मन बना लिया, तो उसे कोई नहीं बदल सकता था। मैं तो दूसरों से अपनी मांगें पूरी करवाती थी, अगर वे ऐसा नहीं करते, तो मुझे लगता वे कर्तव्य में वफादार नहीं हैं, वे कलीसिया के काम की रक्षा नहीं करते। सिंचन कर्मियों की जांच-पड़ताल ऐसे ही करती थी। मैंने सुना था कि वांग मेई में कोई समस्या नहीं थी, तो मैंने उसके आने और कार्यभार संभालने का समय तय किया, पर फिर समूह अगुआ ने बताया कि वांग मेई को बर्खास्त कर दिया गया है, तो मेरी योजनाएं अधर में लटक गईं। मुझे काफी गुस्सा आ रहा था, मेरा दिल में बहुत-सी शिकायतें थीं। मैंने समूह अगुआ को गैर-जिम्मेदार समझा, सोचा उसमें काबिलियत और विवेक नहीं है। मैं बहुत दंभी, अहंकारी और अज्ञानी थी! अगर मेरी योजना और फैसले सही भी होते, वे परमेश्वर के घर के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते, तब भी चीजें हमेशा मेरी इच्छा के अनुरूप नहीं होतीं, उनका परिणाम हमेशा मेरी सोच जैसा नहीं होगा। मैं योजनाएं बनाती हूँ, व्यवस्थाएं करती हूँ, यह मेरा कर्तव्य है, मुझे इसी तरीके से सहयोग करना चाहिए, पर मुझे अंतिम परिणाम पहले से तय नहीं करना चाहिए। मुझसे जो बन पड़े वो करके परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पित होना चाहिए। कोई काम पूरा हो सकता है या नहीं, किस तरह की चीजें सामने आ सकती हैं, काम कैसे आगे बढ़ेगा, उसके लिए पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर चलकर परमेश्वर की सत्ता के प्रति समर्पित होना पड़ेगा। मेरे पास इसी तरह की समझ होनी चाहिए। मैं अपनी इच्छा के अनुसार काम कर रही थी, परमेश्वर के प्रभुत्व को नहीं जानती थी, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। ऐसे मुझे परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन कैसे मिल सकता है?

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपने गुस्से के पीछे छिपे भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी समझ हुई। परमेश्वर कहते हैं, "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर, मुझे अपने अहंकार और दंभी प्रकृति की थोड़ी समझ हुई। सच तो यह है कि मैं न सिर्फ अपनी मर्जी से काम कर रही थी, बल्कि इसके पीछे एक अहंकारी स्वभाव भी छिपा था। इस बार काम में हुई समस्याओं के बारे में सोचा, मुझे वजह समझ नहीं आई थी, न मैंने समूह अगुआ से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं। मैंने बिना सोचे-समझे उसकी शिकायत और आलोचना की। उसकी निंदा और आलोचना करके, मैं असल में खुद को ऊंचा उठाकर उसे नीचा दिखाना चाहती थी, खुद को आसन पर बिठाकर सोच रही थी कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ, मानो मुझे ही सत्य की विशेष समझ थी, दूसरों को नहीं, मानो सिर्फ मैं ही कर्तव्यनिष्ठ थी और बाकी सब लापरवाह थे, मैं ही सब कुछ समझ सकती थी, दूसरे नहीं। मैंने खुद को सत्य का मालिक और दूसरों को सत्य का नौकर समझा। मैं दूसरों को चिंतन करने, खुद को जानने और सबक सीखने की याद दिलाती, मानो शैतान ने मुझे भ्रष्ट किया ही नहीं था, मुझे चिंतन करके खुद को जानने की जरूरत ही नहीं थी। मेरी नजरों में, दूसरे लोग नाकाबिल और बर्दाश्त के बाहर थे, मैं ही सबसे अच्छी थी, इसलिए किसी के कर्तव्य में कोई समस्या आने पर, मैं सोचती, "इसे तुम कर्तव्य निभाना कहती हो?" "क्या तुम कर्तव्य निभाने के काबिल भी हो?" "तुम तो बस अड़चनें डालती रहती हो," और उन्हें हमेशा बातें सुनाती। मैं सिर्फ दूसरों को दोष देना और फटकारना चाहती थी। असल में, मैंने भी अपने कर्तव्य में इसी तरह की बहुत-सी गलतियां की थीं, मेरे सामने भी यही मुश्किलें आई थीं, तो क्या मैं सचमुच उनसे बेहतर थी? किसी इंसान या हालात को अच्छे से न समझ पाना, सबके साथ होता है, लोगों में कमियां हो सकती हैं, वे कर्तव्य में पिछड़ भी सकते हैं। समस्याओं और भटकावों का सही समय पर पता चल जाए, निरंतर समीक्षा करके उन्हें ठीक कर लिया जाए, तो यह विकास की प्रक्रिया ही है। असल में, मैं अपने कर्तव्य में अक्सर गलतियां करती हूँ, जैसा कि वांग मेई के मामले में हुआ। मुझे पता था कि उसका व्यवहार पहले ठीक नहीं था, पर जब बहन ली ने कहा कि हाल में उसके व्यवहार में कोई समस्या नहीं दिखी है, तो मैंने सच की खोज नहीं की। मैंने मान लिया कि बहन ली ने आकलन कर लिया है, अब कोई समस्या नहीं होगी। अंत में, समस्या खड़ी हो गई, और इसमें मेरी जिम्मेदारी भी थी, पर मैंने सब कुछ बहन ली पर डाल दिया, उस पर उंगली उठाई, उसकी निंदा और आलोचना की। मैं बहुत अहंकारी थी, मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी! इस तरह काम करने से दूसरों को न मदद मिलेगी न वे सीखेंगे, उनकी प्रगति रुक जाएगी और वे नकारात्मक भी हो जाएंगे। कोई समस्या आने पर, मैं लोगों या चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं देखती थी। मैं बस शिकायत करती, गुस्सा होती और लोगों को फटकारती थी। मुझे तो लगता था कि जिम्मेदार होने का यही मतलब है, यह करना उचित है और मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा कर रही हूँ। यह नजरिया बहुत-ही बेतुका था!

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, जिससे मेरा दिल रोशन हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मन:स्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए वे बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करता है और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाता है। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं। जब न्याय दुष्टता से टकराता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का बचाव या समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता; इसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुँह फेरने वाला होता है। लेकिन दुष्ट शक्तियों से सामना होने पर मनुष्य का रवैया समझौतापरक, झुकने और मक्खन लगाने वाला होता है। इसलिए, मनुष्य का क्रोध निकालना दुष्ट शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और देहयुक्त मनुष्य के अनियंत्रित और रोके न जा सकने वाले बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है। किंतु जब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है, तो सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा, मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले सारे पापों पर अंकुश लगाया जाएगा, परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाली सभी विरोधी ताकतों को प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा, परमेश्वर का विरोध करने वाले शैतान के सभी सहयोगियों को दंडित किया जाएगा और उन्हें जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान पर, परमेश्वर का कार्य बाधाओं से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना निर्धारित समय के अनुसार कदम-दर-कदम विकसित होती रहेगी, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की बाधा और छल से मुक्त होंगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग स्वस्थ और शांतिपूर्ण माहौल के बीच परमेश्वर की अगुआई और आपूर्ति का आनंद लेंगे। परमेश्वर का कोप एक सुरक्षा-उपाय है, जो सभी दुष्ट ताकतों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह ऐसा सुरक्षा-उपाय भी है, जो समस्त न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और प्रसार की रक्षा करता है, और शाश्वत रूप से उन्हें दमन और विनाश से बचाता है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि अपने निजी हितों की रक्षा करने, अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, लोग अपने गुस्से की वजह, सिद्धांत या लक्ष्य पर विचार किए बिना ही परेशान हो जाते हैं। ये सभी तुनकमिजाजी और भ्रष्ट स्वभाव के लक्षण हैं, परमेश्वर को इनसे नफरत है। अगर लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए चीजों और लोगों को परमेश्वर के वचन के अनुसार देख सकें, काम बिगाड़ने वाले कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों से नफरत करें, परमेश्वर को जिससे प्रेम और नफरत है उससे प्रेम और नफरत करें, तो यह सामान्य मानवता का लक्षण और न्याय की समझ की अभिव्यक्ति है। अगर आप कभी-कभी थोड़ी सख्ती दिखाते हैं या कड़ाई से बोलते हैं, तब भी अगर आपकी हर बात परमेश्वर के वचन पर आधारित है, तथ्यों के उलट नहीं है, अपनी भड़ास निकालना नहीं है, इसमें आपकी अपनी मंशाएं निहित नहीं हैं, तो लोग आपकी बात मानेंगे, समस्याओं के सार को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे, और आपकी टिप्पणियों के सकारात्मक परिणाम होंगे। इस तरह का गुस्सा सकारात्मक होता है, यह भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति नहीं है। भ्रष्ट स्वभाव के कारण गुस्सा होना अलग बात है। ऐसा गुस्सा लोगों की निजी मंशाओं और छिपे इरादों से दूषित होता है। कुछ लोग अपनी शोहरत और रुतबे को बचाने के लिए गुस्सा करते हैं, कुछ लोग दूसरों से अपनी बात मनवाने और अपनी मर्जी से काम करवाने के लिए ऐसा करते हैं, तो कुछ लोग अपने निजी हितों को नुकसान पहुंचने पर गुस्सा करते हैं। ये सभी तुनकमिजाजी और भ्रष्ट स्वभाव के अलग-अलग रूप हैं। जैसे कि जब मुझे लोगों के कर्तव्य में समस्याएं दिखीं जिनकी वजह से प्रगति में देरी हुई, तो मेरा गुस्सा कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की इच्छा से प्रेरित लगा, पर असल में, मेरे गुस्से की वजह थी कि लोग मेरी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर रहे थे और इससे बेवजह मुझे बहुत-सी दिक्कतें उठानी पड़ी। मैंने इसे अपने असंतोष की भावना दिखाने के मौके के तौर पर इस्तेमाल किया, अंदर-ही-अंदर लोगों की आलोचना कर, उन्हें नीचा दिखाती रही। यह साफ तौर पर गुस्सा दिखाना था।

अपने कर्तव्य के दौरान मैं अक्सर ऐसे हालात का सामना करती थी। पहले, मेरी प्रकृति मुझ पर काबू किए हुए थी, पर मैं इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देती थी। फिर, आगे ऐसे हालत का सामना होने पर मुझे क्या करना चाहिए? अपने धार्मिक कार्यों में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। "जब कार्य करने या चीजें सुलझाने की बात हो, तो कम से कम अंतःकरण और समझ के मानकों का उल्लंघन मत करो; सामान्य मानवता की भावना के अनुसार लोगों से जुड़ो, बातचीत करो और चीजें सँभालो; स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना सबसे अच्छा है, यह परमेश्वर को संतुष्ट करता है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य के सिद्धांत क्या हैं? सिद्धांत यह है कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उनकी कमजोरी और नकारात्मकता समझें, लोग दूसरों के दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील रहें, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, और सहायता और समर्थन की पेशकश करें, समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, ताकि वे कमजोर न रहें और वे परमेश्वर के सामने लाए जाएँ। क्या अभ्यास करने का यह तरीका सिद्धांत के अनुरूप है? इस प्रकार अभ्यास करना सिद्धांत के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध भी सिद्धांत के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर हस्तक्षेप करने वाले और विघटनकारी होते हैं, या अपना कर्तव्य निभाते समय जानबूझकर लापरवाह और अनमने रहते हैं, अगर तुम इसे देखते हो और सिद्धांत के अनुसार मामले सँभालने में सक्षम हो, और उन्हें इन चीजों के बारे में बताकर उन्हें फटकार लगा सकते हो, और उनकी मदद कर सकते हो, तो यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके प्रति सहिष्णु होकर उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उन्हें अच्छी-अच्छी बातें भी कहते हो, और उनकी प्रशंसा और वाहवाही भी करते हो, नकली वचनों से उन्हें बहकाते भी हो, तो ऐसे व्यवहार, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य के सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है—इस स्थिति में ये व्यवहार और लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दे सँभालने के तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि दूसरों के कर्तव्य में समस्याएं आने पर, उन्हें हल करने का सबसे अच्छा और तर्कपूर्ण तरीका सत्य पर संगति करके उनकी मदद और सहयोग करना है। अगर लोग चूक होने या सिद्धांतों को नहीं समझ पाने के कारण काम में देरी करते हैं, तो आपको धीरज रखकर उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए, साथ ही सिद्धांतों को साफ तौर पर समझाना चाहिए, ताकि उन्हें उनकी समस्याओं का पता चले और सही मार्ग मिल जाए। कुछ लोग अपने कर्तव्य में हमेशा लापरवाह रहते हैं। वे जिम्मेदारी नहीं उठा पाते, जिससे समस्याएं खड़ी होती हैं, और जो काम अच्छे से हो सकता था वह नहीं हो पाता। वही समस्याएं बार-बार सामने आती रहती हैं, जिससे काम पर असर पड़ता है या वह खराब भी हो सकता है। ऐसे इंसान की काट-छांट और निपटान कर चेतावनी दी जा सकती है। बार-बार फटकारने के बाद भी न बदलने पर उन्हें बदला या बर्खास्त किया जा सकता है। हालात चाहे जैसे भी हों, आपको तुनकमिजाजी और भ्रष्ट स्वभाव से काम करने के बजाय हमेशा चीजों को परमेश्वर के वचन और सत्य के सिद्धांतों के आधार पर देखना और संभालना होगा। इन चीजों पर विचार करके, मेरा दिल रोशन हो गया, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया।

इसके बाद, मैं वांग मेई के हालत को समझने के लिए बहन ली के पास गई। तब जाकर पता चला कि वांग मेई पहले दूसरी कलीसियाओं में कर्तव्य निभा रही थी और हाल ही में हमारी कलीसिया में उसका तबादला हुआ था, इसलिए बहन ली को उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। दूसरी कलीसियाओं में पूछने पर, उसे पता चला कि वांग मेई हमेशा से लापरवाह, कपटी और धूर्त थी। उसकी बातें बस सुनने में अच्छी थीं, उसमें इंसानियत नहीं थी, लोगों को बेबस करती थी, आखिरकार उसे कर्तव्य से बर्खास्त कर दिया गया। परदे के पीछे की बात पता चलने पर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। बहन ली असल में गैर-जिम्मेदार नहीं थी जैसा मैंने सोचा था। दरअसल उसके बारे में दूसरी कलीसियाओं में पूछताछ करना जरूरी था, तो कुछ गलतियां हो गईं और अच्छी तरह से पुष्टि नहीं हुई। फिर मैंने इस मामले पर बहन ली की आलोचना नहीं की, बस उसे याद दिलाया कि इस समस्या की रोशनी में इन गलतियों पर सोच ले, ताकि इस तरह की समस्या दोबारा न हो। इस बार समस्या हल करने में, मैंने मनमर्जी या गुस्से से काम करने के बजाय, सत्य के सिद्धांतों की खोज की। इस तरह अभ्यास करने पर मेरे दिल को सुकून मिला।

इस अनुभव से मैंने जाना कि चाहे अपना कर्तव्य निभाने की बात हो या लोगों के साथ अपने बर्ताव की, अपनी निजी धारणाओं, कल्पनाओं और गुस्से पर भरोसा करना ठीक नहीं है। सब कुछ परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। परमेश्वर के वचनों से सत्य के सिद्धांतों की खोज करो, उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करो और अपना कर्तव्य निभाओ। यही सत्य का सही अनुसरण और जीवन में प्रवेश का मार्ग है।

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