भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का तरीका मुझे पता है

20 मार्च, 2022

मेरी परवरिश एक कैथोलिक परिवार में हुई, मैं बचपन से ही प्रभु में विश्वास करता था। बड़ा होने पर, समझ आया कि कुछ विश्वासी सिर्फ रविवार को ही कलीसिया जाया करते थे, फिर भी अविश्वासियों की तरह नियमित रूप से धूम्रपान करते, शराब पीते और पार्टी करते थे। मुझे लगा वे प्रभु की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं चल रहे हैं, वे पाप कर रहे हैं। मैं भी अक्सर पाप करता था। मैं झूठ बोलता, गुस्सा होता और ईर्ष्या करता। याजक के सामने पाप कबूल करने पर भी, मैं पाप करने, उसे कबूल करने और फिर से पाप करने के कुचक्र से नहीं बच पाया। मैं पूरी तरह हताश था। तब मैंने कलीसिया छोड़ने का फैसला किया और पाप से बचने का मार्ग खोजने के लिए दूसरे संप्रदाय से जुड़ गया।

बाद में, काम के दौरान मैं भाई राउल से मिला, जो काफी समय से ईसाई थे। उन्होंने कहा वे कई कलीसियाओं में गये, पर फिर जाना बंद कर दिया, क्योंकि पादरियों के उपदेश अंतर्दृष्टि वाले नहीं होते थे, वे हमेशा भेंट माँगा करते थे। उन्हें सिर्फ पैसों में दिलचस्पी थी, जब भाई-बहन किसी समस्या में उनकी मदद लेना चाहते, तो उनका कहना यही होता, "पहले उपदेशक से जाकर पूछो, फिर भी हल न निकले तो मुझे बताओ।" मैं बहुत उलझन में पड़ गया। कलीसिया में ऐसी चीज़ें क्यों होती हैं? उसके बाद, मैं पाँच या छह अन्य ईसाई कलीसियाओं में गया, तो देखा कि वे बिल्कुल वैसे ही थे जैसा भाई राउल ने बताया था। मुझे याद है एक सेवा में कुछ विश्वासी शतरंज खेल रहे थे और दावत उड़ा रहे थे। मैंने देखा कलीसियाओं में पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, वे मुझे धार्मिक लोगों के लिए मनोरंजन की जगह जैसे ज़्यादा लगे। अब मैं कलीसिया नहीं जाना चाहता था। मुझे बाइबल की यह बात याद आई, "एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना न छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो त्यों–त्यों और भी अधिक यह किया करो" (इब्रानियों 10:25)। मुझे बड़ी हताशा हुई। सभा के लिए मैं कहां जाऊं? 1,000 से अधिक ईसाई संप्रदाय हैं, ऐसी कलीसिया ढूंढना बेहद मुश्किल होगा जहां परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का कार्य हो। भाई राउल भी नहीं जानते थे अब कहां जाएं। हमने फैसला किया कि हम अपने समूह को छोड़कर, अपना खाली समय बाइबल पढ़ने में बिताएंगे। हमने मिलकर बाइबल पढ़ी और अपनी समझ को साझा किया, एक दूसरे की मदद की।

कई साल गुजर गये, हालाँकि मैं हर दिन प्रार्थना करता और बाइबल पढ़ता था, पर इस बात ने मुझे बहुत परेशान कर दिया कि कुछ ऐसा होने पर जो मुझे पसंद नहीं था या मेरे हितों से समझौता होने पर, मैं गुस्से पर काबू नहीं कर पाता था। कभी-कभी भाई राउल के साथ काम करते हुए, अगर उन्होंने मुझे कुछ करने को कहा और मैंने उनकी बात नहीं समझी, तो वे मुझसे कड़ाई से बात करते, तब मैं गुस्से से पागल हो जाता। मैं सोचता था, ये तो साफ है कि उन्होंने अच्छे से नहीं बताया, पर वे मुझ पर चिल्ला रहे थे, मुझे बेवकूफ समझ रहे थे, मैं इसे नहीं स्वीकार सकता। मैं भी उन पर चिल्ला उठता। हम दोनों बुरी तरह उखड़ जाते और अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाते। आखिर में, हम तमतमाते हुए निकल जाते। मैं उनकी बात सुनना या उन्हें समझाना नहीं चाहता था। फिर शांत होने के बाद, हम अपनी गलतियों को स्वीकार कर एक दूसरे से माफी माँग लेते। मुझे पता था मैं पाप से मुक्त नहीं हूँ, लगातार पाप करता हूँ, परमेश्वर के ख़िलाफ़ विद्रोह करता हूँ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके गुनाह कबूल किया, मैं खुद पर काबू पाना चाहता था। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद, मैं गड़बड़ कर बैठता, दिन में पाप करता और रात में कबूल कर लेता। मेरी हालत दयनीय हो गई थी, इस कुचक्र में फंसकर खुद को दोषी माना, मैं अपने आपसे बहुत निराश था। मैंने खुद से पूछा, मैं पाप करना क्यों नहीं छोड़ पाता? भाई राउल और मैंने अनेक बार इस बारे में बात की, हमें पता था हम एक दूसरे की मदद नहीं कर सकते, हमारा दंभ, अहंकार और खुदगर्ज़ी बढ़ती जा रही थी, इसलिए हम पवित्रता हासिल नहीं कर पाये।

एक बार, साथ मिलकर बाइबल पढ़ते हुए, हमारी नज़र इन पदों पर पड़ी : "पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (1 पतरस 1:16)। "पवित्रता के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा" (इब्रानियों 12:14)। इन पदों को पढ़कर हम सोच में पड़ गए। प्रभु ने बताया हमें पवित्र होना चाहिए, फिर भी हम पाप में जी रहे थे। हम पवित्रता कैसे हासिल करें? हमारे पास कोई मार्ग ही नहीं है। मैंने इस बारे में एक पादरी से पूछा, उन्होंने बताया, "दैहिक-सुखों में जीते हुए, हम कभी पवित्रता हासिल नहीं कर सकते। मगर प्रभु यीशु ने हमें पापों से छुटकारा दिलाया है। हमारे पाप पहले ही माफ़ कर दिये गए हैं, प्रभु हमें पापी नहीं मानता। जब वो बादल पर सवार होकर आएगा, हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाएगा।" यह सुनकर मुझे थोड़ा सुकून मिला, पर मैं अब भी उलझन में था : प्रभु पवित्र है, फिर भी हम लगातार पाप में जी रहे हैं। क्या वो लौटकर आने पर सचमुच हमें अपने राज्य में ले जाएगा?

जुलाई 2019 में एक दिन, भाई राउल और मैं हमेशा की तरह बाइबल पढ़ रहे थे। हमने इंटरनेट पर "बाइबल" खोजा, तो हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की फिल्म, "आखिरी ट्रेन पकड़ ली" मिली। फिल्म देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई। ये एक शानदार फिल्म थी, इसमें बताये गए सत्य बेहद प्रबोधक थे, खासकर वो हिस्सा जहां एक बहन कहती है, "प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया। उसने लोगों के पापों को माफ किया, पर हमारी पापी प्रकृति दूर नहीं की, इसलिए हम पाप और परमेश्वर का विरोध करते हैं। याजक-वर्ग से लेकर सामान्य विश्वासियों तक, प्रभु में विश्वास करने वाला कोई भी क्या पाप से मुक्त होने का दावा कर सकता है? कोई भी नहीं। बिना किसी अपवाद के, हर इंसान पाप के आगे मजबूर और बेबस है। हम अहंकार, स्वार्थ, कपट और लोभ से भरे हैं। हम न चाहकर भी पाप करने से खुद को नहीं रोक पाते। कुछ लोग विनम्र और सज्जन दिखते हैं, पर उनके दिलों में भ्रष्टता भरी होती है। हम परमेश्वर की इच्छा पर चलने वाले पवित्र लोग नहीं है जिन्हें वो अंत में पाना चाहता है, हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने योग्य नहीं हैं। इसी वजह से परमेश्वर को अपनी योजनानुसार अंत के दिनों में इंसान को बचाने का कार्य जारी रखना होगा, पापों की माफी की नींव पर न्याय कार्य का एक चरण पूरा करना होगा, हमें स्वच्छ करके पूरी तरह बचाना होगा, ताकि हम पाप से बचकर शुद्ध हो सकें, फिर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर अनंत जीवन पा सकें।" फिल्म में कही हर बात सही थी। मैं बहुत उत्साहित था, क्योंकि मैंने ऐसा पहले कभी नहीं सुना। वे लोग इतना अनूठा प्रबोधन कैसे साझा कर पाये? उन्हें यह कहां से मिला? मैंने देखा वे "वचन देह में प्रकट होता है" नाम की किताब पढ़ रहे थे। इसकी सामग्री सामर्थ्य और अधिकार से परिपूर्ण थी, ऐसी बातें मैंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। मैं इसके बारे में और जानना चाहता था। फिल्म देखकर, हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया से संपर्क किया और ऑनलाइन सभाओं में भाग लेने लगे, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर सहभागिता करने लगे।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में मैंने ये पढ़ा : "मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाय यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्धिकरण का कार्य है। वास्तव में यह चरण विजय का और साथ ही उद्धार के कार्य का दूसरा चरण है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। "अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)

परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मैंने जाना कि प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया था, जिससे हमें सिर्फ पापों से छुटकारा मिला, अब हम पापी नहीं हैं, पर इंसान की पापी प्रकृति दूर नहीं की गई थी। यही वजह है कि हम लगातार झूठ बोलते, पाप करते, भ्रष्टता दिखाते हैं। सोचने पर, समझ आया ये सही है। जब भी मैं गुस्सा होता, बाद में पछतावा होता। जब भी कुछ ऐसा होता जो मुझे पसंद नहीं, मैं अपना आपा खो बैठता। तब समझ आया, अपनी पापी प्रकृति दूर नहीं की, तो कभी पाप से मुक्त नहीं हो पाऊँगा, अपने विचार, बोली और कर्म में परमेश्वर के ख़िलाफ़ हो जाऊँगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से मैंने यह भी जानाकि अंत के दिनों में परमेश्वर ने मानवजाति को उजागर और निर्मल करने के लिए सत्य व्यक्त किये हैं। परमेश्वर के न्याय कार्य को जानने की उत्सुकता में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और भी वचन पढ़े, और जाना कि उसने मानवजाति की पापी प्रकृति के बारे में सब कुछ बताया है। उसने दिखाया है कैसे शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, कैसे हम पाप से बचकर निर्मल हो सकते हैं, कौन स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है, किसे दंड मिलेगा, विभिन्न प्रकार के लोगों का अंजाम क्या होगा। मानवजाति का न्याय करके उसे उजागर करने वाले वचनों में परमेश्वर का प्रेम और उद्धार दिखता है। वे चाहे कितने भी कठोर लगें, ऐसा इसलिए है कि हम सत्य समझ सकें, इस सच को जान सकें कि कैसे शैतान ने हमें भ्रष्ट किया है, खुद से नफ़रत करें, फिर पश्चाताप करके बदल सकें। इन सारी बातों को जानकर, मुझे बहुत खुशी हुई, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और भी वचनों के लिए तरसने लगा। सभाओं में हिस्सा लेने और भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता करने में भी बेहद खुशी मिलती, मुझे परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव होने उम्मीद थी, ताकि अपनी पापी प्रकृति दूर कर सकूँ।

फिर, मुझे नए सदस्यों की कलीसिया का अगुआ चुन लिया गया। एक बार, एक बहन ने अपने काम में आने वाली समस्याओं को दूर करने में मेरी मदद माँगी, मैंने कुछ सलाह दी कि उसे क्या करना चाहिए। उसने और दूसरी बहन ने मेरी सलाह मानकर उसके अनुसार काम किया। फिर, एक अगुआ ने हमें बुलाया, दोनों बहनों ने मेरे विचार साझा करने के लिए कहा। मेरे समझाने के बाद, अगुआ ने कुछ नहीं कहा, बस पढ़ने के लिए एक दस्तावेज़ दिया, फिर बताया हमें क्या करना है। मैं थोड़ा नाराज़ था। मुझे लगा शायद उसने मेरी बात को समझा नहीं था। मैंने पहले ही दोनों बहनों को बता दिया था हमें क्या करना है, कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए, इस बारे में काफी सोच-विचार भी किया था। क्या मेरी सारी मेहनत बेकार थी? मैंने बेसब्र होकर अगुआ से कहा, "क्या आपने मेरी बात समझी? हम पहले ही इस पर सहमत थे, हमारी एक आपसी समझ थी।" अगुआ ने बताया, "तुम्हारा दिया गया सुझाव ठीक है, पर ये बहुत कारगर नहीं होगा।" फिर उन्होंने हमें उस काम को करने का एक तेज और आसान तरीका बताया। मुझे वाकई लगा उनका हल बेहतर है, पर कोई खुशी नहीं हुई। मैं सोच रहा था, जिस नतीजे पर पहुँचने में मैंने इतना समय लगाया, उसका इस्तेमाल न होने पर दोनों बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी। क्या उन्हें लगेगा मैं बिल्कुल बेकार था, छोटा सा काम भी नहीं कर पाया? ये बहुत शर्मनाक होगा। इस बारे में जितना सोचा, उतना ही बुरा लगा। बाद में, अगुआ ने मुझे दोनों बहनों के साथ काम करने को कहा। मैं ये बिल्कुल नहीं करना चाहता था, मैंने ठीक से बात भी नहीं की। बाद में, मैंने वो काम पूरा किया, पर इस पूरी प्रक्रिया में अपनी भ्रष्टता दिखाई, जिससे मैं परेशान हो गया, खुद को दोषी माना। उसके बाद, मन-ही-मन सोचा, अगुआ जिम्मेदारी लेकर कुछ अच्छे सुझाव दे रही थी ताकि हमारी कार्यकुशलता बेहतर की जा सके। यह परमेश्वर के घर के कार्य के लिए अच्छा था। मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाया और नाराज़ भी हो गया। मैंने खुद से पूछा, मैं उपयुक्त राय को स्वीकार क्यों नहीं कर पाया, तो मेरा गुस्सा और भी बढ़ गया। मुझे इसकी जड़ का पता लगाना था, ताकि जल्द से जल्द इन हालात से निकल सकूँ।

उसी शाम, मैंने कलीसिया की वेबसाइट पर, परमेश्वर के वचनों में गुस्से से जुड़े अंश ढूंढे, तो मुझे यह अंश मिला : "एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मन:स्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए भ्रष्ट मनुष्य बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करता है और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाता है। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना इंसान के गुस्से से भड़कने के पीछे एक वजह है। जब भी हमारे हितों या इज़्ज़त पर खतरा होता है, हम असंतोष ज़ाहिर करते हैं, गुस्सा दिखाते हैं, इंसानी समझ से काम नहीं लेते। हम शैतानी स्वभाव और नकारात्मक चीज़ें दिखाते हैं। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्मचिंतन करने पर, मैंने जाना कि मेरे सुझाव ठुकराये जाने पर मैं प्रतिरोधी बन गया। मुझे पता था अगुआ का सुझाव मेरे सुझाव से बेहतर है, ये तेज और आसान होगा, फिर भी मुझे गुस्सा आया, चिंता हुई कि इससे दूसरों को लगेगा मैं बिल्कुल बेकार हूँ। मैंने अगुआ से उखड़कर बात की। तब समझ आया मैं बहुत अहंकारी था, मेरा पूरा ध्यान अपने नाम और रुतबे पर था। मुझे हमेशा लगा मेरे सुझाव सबसे अच्छे हैं, दूसरों की बात नहीं सुनना चाहता था। परमेश्वर के घर के कार्य के लिए क्या फायदेमंद होगा, ये कभी नहीं सोचा। मैं सभी तर्कों से परे बेहद अहंकारी था, मुझे अच्छी सलाह मानने में भी बहुत मुश्किल होती थी। यह एहसास होने पर, मन पछतावे से भर गया। पश्चाताप के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा, ताकि खुद को जानकर अहंकार से छुटकारा पा सकूँ।

फिर परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित हो सकते हो, सत्य को प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो" (परमेश्‍वर की संगति)। इस अंश पर विचार करने पर, वो कारण समझ आया कि क्यों मैं दूसरों के सुझावों को ठीक से नहीं ले पाता था, क्योंकि मेरा स्वभाव अहंकारी था। मैं चाहता था दूसरे मेरी बात सुनें, पर मैं दूसरों की सलाह सुनना या मानना नहीं चाहता था। भाई राउल के साथ काम करते हुए भी मैं ऐसा ही था। बेहद अहंकारी होने के कारण, उनके निर्देशों को नहीं मानना चाहता था, अपने साथ कड़े लहजे में बात करना तो मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाता था। रोज़मर्रा के जीवन में पत्नी या दूसरों के साथ बातचीत में, हमेशा सोचता था मेरे सुझाव सबसे अच्छे हैं, मैं ही सही हूँ, उन्हें बस मेरी बात सुननी और माननी चाहिए। आस्था रखने के बाद, भाई-बहनों के साथ कर्तव्य निभाते हुए, मैं लगातार अहंकार में जीता रहा, दूसरों के सुझाव नहीं मानना चाहता था। यह जानने पर भी कि मेरी सोच बेहतर नहीं है, अपने तरीके से काम करते हुए चाहता था कि दूसरे मेरी बात सुनें। मैं इतना अहंकारी था कि मेरी बात में कोई तर्क ही नहीं होता था। अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण, तर्क से चीज़ों को नहीं देख पाता था। लगता हमेशा मैं ही सही हूँ, पर अक्सर दूसरों के पास मुझसे बेहतर सुझाव होते, मेरे मुकाबले अधिक व्यापक विचार होते। जैसे, मैं हमेशा सोचता मेरी बात ही सही है, अक्सर पत्नी से मेरी योजना के अनुसार काम कराता, पर नतीजा बहुत बुरा होता। इस बार भी यही हुआ। अगुआ का सुझाव आसान था, इसमें समय की बचत के साथ बेहतर नतीजे मिल सकते थे, जबकि दोनों बहनों को दिया गया मेरा सुझाव पेचीदा था, उसमें समय भी लगता। सच जानकर पता चला मेरे अहंकारी होने की कोई वजह नहीं थी। मुझे विनम्र और शांत होकर अपनी जगह पहचाननी चाहिए थी। अगर मैं ऐसे अहंकार में जीता रहा, तो आखिर में महादूत बन जाऊँगा, जो परमेश्वर का सम्मान न करके, उसके स्वभाव का अपमान करता है, जिसके लिए वो मुझे दंड और शाप देगा। यह एहसास होने पर, मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, अब मैं अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहता। मैं सामान्य इंसान की तरह जीना, अपने काम में भाई-बहनों के सुझाव सुनना, उनके साथ अच्छे से काम करना और तुम्हारी इच्छा के अनुसार कर्तव्य निभाना चाहता हूँ।"

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े। "अहंकारी प्रकृति तुम्‍हें दुराग्रही बनाती है। जब लोगों का ऐसा दुराग्रही स्‍वभाव होता है, तो क्‍या वे स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने की ओर उन्‍मुख नहीं होते? तब तुम अपने स्वेच्‍छाचार और अविवेक का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं; तो यह तय करने के बाद कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और इस बारे में तुम क्या सोचते और मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार और योजनाएँ सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और सभी से अंतिम बार जाँच लेने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोण पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य को जानने की कोशिश कर सकते हो; स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने के स्‍वभाव पर विजय पाने के लिए यह पहला क़दम है जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। दूसरा क़दम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह, सर्वप्रथम, एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर तय करो कि काम कैसे करना है। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है" (परमेश्‍वर की संगति)। "भ्रष्ट मानवजाति के लिए सबसे कठिन समस्या है वही पुरानी गलतियाँ दोहराना। इसे रोकने के लिए लोगों को पहले इससे अवगत होना चाहिए कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, कि उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और यह कि भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे अभी भी शैतान के अधीन रह रहे हैं, और उन्हें बचाया नहीं गया है; वे किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उससे दूर भटक सकते हैं। यदि उनके हृदय में संकट का यह भाव हो—यदि, जैसी कि कहावत है, वे शांति के समय युद्ध के लिए तैयार रहें—तो वे कुछ हद तक अपने आपको काबू में रख पाएँगे, और अगर उनके साथ कोई बात हो भी जाए, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, और वही पुरानी गलतियाँ करने से बच पाएँगे। यदि लोगों में आत्म-जागरूकता की कमी है, और वे नहीं जानते कि उनकी शैतानी प्रकृति अभी भी उनमें गहरे जड़ें जमाए हुए है, तो वे अब भी परमेश्वर को धोखा देने के जोखिम में हैं, और उनके नरक जाने की संभावना निरंतर बनी हुई है। यह वास्तविक है; उन्हें सावधान रहना चाहिए। तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए : पहली, तुम अभी भी परमेश्वर को नहीं जानते; दूसरी, तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है; और तीसरी, तुम्हें अभी भी मनुष्य की सच्ची छवि को जीना है। ये तीनों चीजें तथ्यों के अनुरूप हैं, ये वास्तविक हैं, और तुम्हें इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए, तुम्हें आत्म-जागरूक होना चाहिए। यदि तुम्हारे पास इस समस्या को ठीक करने का संकल्प है, तो तुम्हें अपना नीति-वाक्य चुनना चाहिए : उदाहरण के लिए, 'मैं शैतान हूँ,' या 'मैं अकसर पुराने ढर्रे पर चल पड़ता हूँ,' या 'मैं हमेशा खतरे में हूँ,' या 'मैं जमीन पर पड़ा गोबर हूँ।' इनमें से कोई भी तुम्हारा व्यक्तिगत नीति-वाक्य बनने के लिए उपयुक्त है, और यदि तुम हर समय इसे याद करोगे, तो यह तुम्हारी मदद करेगा। इसे मन में दोहराते रहो, इस पर चिंतन करो, और तुम गलतियाँ करने से रुकने या कम गलतियाँ करने में सक्षम हो सकते हो—लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य को समझने में अधिक समय व्यतीत करना, अपनी प्रकृति जानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव से बचना; तभी तुम सुरक्षित रहोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')

परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अहंकार दूर करने के लिए, मुझे दूसरों के साथ सहयोग करना, सत्य खोजना और सहभागिता करनी होगी। काम की चर्चाओं में, भाई-बहनों के साथ अपने विचार साझा करने होंगे और विनम्रता से दूसरों की राय लेनी होगी। भले ही उनकी राय मेरी राय से अलग क्यों न हो, मुझे अपने विचारों को किनारे करना होगा। दूसरों की बातों के आधार पर प्रार्थना और खोज करनी होगी, परमेश्वर का मार्गदर्शन और प्रबोधन लेना होगा, ताकि जान सकूँ क्या सही है, क्या उचित है, ताकि अपनी कमियों और खामियों को जान सकूँ। मेरी बात सही हो, तब भी मैं अपने विचारों से चिपके नहीं रह सकता, मुझे सत्य की खोज करके परमेश्वर की इच्छा जाननी होगी। किसी और का सुझाव मुझसे बेहतर, मेरे मुकाबले ज़्यादा सही होने पर, मुझे खुद को किनारे करके उनकी बात मानना सीखना होगा। यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, जो मुझे गलतियों से बचाता है। सबसे बड़ी बात, मैंने अपनी अहंकारी प्रकृति के बारे में एक आदर्श वाक्य लिख लिया। "मैं कचरे के सिवा कुछ नहीं हूँ, मुझे अहंकारी नहीं होना। खुद पर काबू न रख पाने के कारण मैं हमेशा खतरे में पड़ता रहा।" मुझे उन वाकयों की याद आई जब अहंकार के कारण मेरा अपमान हुआ, मुझे अहंकार में जीने के खतरों और नतीजों की भी याद आई। उसके बाद, मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल करने और दूसरों के सुझाव सुनने पर ध्यान देने लगा। घर पर या कलीसिया में भाई-बहनों के साथ काम में, जब भी कोई मुझसे अलग सुझाव या राय देता, तो मैं अपने अहंकार को किनारे कर देता। दूसरों के पास वाकई मेरे मुकाबले अधिक व्यापक सुझाव होते, मैंने दिल से उनके सुझावों को मानना और सही सुझावों को लागू करना सीख लिया। इस पर अमल करने पर, मैंने देखा कि अब भाई-बहनों के साथ मैं पहले की तरह गुस्सा नहीं होता था, दूसरों की बातें सुनकर उन्हें स्वीकार कर सकता था। मुझे पहले के मुकाबले काफी सुकून महसूस हुआ। मैंने तहे-दिल से परमेश्वर का आभार माना।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा निपटाया, अनुशासित किया जाना और काँटा-छाँटा जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और निपटारे से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से पता चला, अपने स्वभाव पर काबू पाने और बदलने के लिए हम अपनी क्षमता या दृढ़ता पर भरोसा नहीं कर सकते। खुद पर काबू पाने के सभी प्रयास बस थोड़ा सा बदलाव ला सकते हैं, और ये बदलाव भी ज़्यादा नहीं टिकते। अगर हमें सचमुच स्वभाव में बदलाव लाना है, तो परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना, निपटान और काट-छाँट, दंड और अनुशासन के साथ ही परीक्षण और शुद्धिकरण को भी स्वीकार करना होगा। यही हमारी शैतानी प्रकृति को जानने और अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीने के खतरनाक नतीजों को समझने का एकमात्र तरीका है। तभी हम खुद से नफ़रत करके इच्छाओं का त्याग कर पाएंगे, सच्चा पश्चाताप करके बदल पाएंगे।

मैं बहुत आभारी हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे अंत के दिनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने का मौका दिया, ताकि सत्य समझकर खुद को जान सकूँ, अपनी भ्रष्टता दूर कर सकूँ। मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ। अब मैं उतना हताश और परेशान नहीं महसूस करता, क्योंकि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हमारे पाप की जड़ और हमारे भ्रष्ट स्वभाव के कई रूपों का खुलासा हो गया है। उसने पाप को मिटाने और जीवन स्वभाव में बदलाव लाने का मार्ग भी दिया है। ये वचन प्रचुर और समृद्ध हैं, हमारी हर ज़रूरत को पूरा करते हैं। ये हमारे सभी सवालों और परेशानियों का जवाब देते हैं। अगर हम दिल से परमेश्वर के वचन पढ़कर उसे स्वीकारें, तो अपनी भ्रष्टता और विद्रोह की वजह समझ सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने का मार्ग ढूंढ सकते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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