आखिरकार मुझे अपनी मक्कारी समझ आ गई

17 दिसम्बर, 2024

मार्लेन, हांगकांग

मुझे कलीसिया में नए सदस्यों के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। कुछ समय पहले, कई नए सदस्यों के बारे में मैं निश्चित नहीं हो पाई थी कि वे टीम अगुआ के रूप में पोषण के लिए उपयुक्त हैं या नहीं। मेरी चिंता यह थी कि उनका पोषण करने के बाद अगर वे काम के लायक नहीं निकले, तो इसमें समय और ऊर्जा की बर्बादी होगी। लेकिन अगर मैंने उनका पोषण नहीं किया, तो मेरी सुपरवाइजर कह सकती हैं कि मैं उनसे बड़ी अपेक्षाएं रखती थी और उनके पोषण पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी या मुझमें उनका पोषण करने की क्षमता ही नहीं थी। मैं असमंजस में थी और नहीं जानती थी ऐसे में क्या करूं। मुझे लगा इस बारे में सुपरवाइजर से ही पूछ लेना चाहिए और उन्हें ही फैसला करने देना चाहिए। फिर कुछ गलत हो गया तो मैं अकेली जिम्मेदार नहीं ठहराई जाऊंगी, और अगर नए सदस्य वाकई काम के लायक नहीं निकले तो भी मेरी काट-छाँट नहीं की जाएगी। जब मैं सुपरवाइजर से मिली, तो सीधे तौर पर यह नहीं कहा कि मैं लोगों को ठीक से परख नहीं पाती और नहीं जानती कि ऐसे में क्या करूं। इसके बजाय, मैंने उन नए सदस्यों की विभिन्न परिस्थितियों और मुश्किलों के बारे में इधर-उधर की बातें कीं : जैसे फलां व्यक्ति का इंटरनेट कनेक्शन ठीक नहीं है और उससे संपर्क करना मुश्किल है, फलां व्यक्ति काम में व्यस्त है, और फलां व्यक्ति सभाओं में ज्यादा बातें नहीं करता...। फिर इस डर से कि कहीं सुपरवाइजर ऐसा न कहें कि मैं लोगों को दरकिनार कर रही हूँ, मैंने आगे कहा, “मगर वे सभाओं में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं और खोज करने को उत्सुक हैं, तो मैं उनका पोषण करने की हर मुमकिन कोशिश करूंगी।” पहले मुझे लगा वह यही कहेंगी कि ये नए सदस्य पोषण के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इस तरह यह उनका फैसला होगा। मैं जिम्मेदार नहीं ठहराई जाऊंगी और उनके पोषण के लिए कीमत चुकाने का जोखिम नहीं उठाऊंगी। जब उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, तो मुझे बड़ी हैरानी हुई। फिर उन्होंने सख्ती से पूछा, “तुम कहना क्या चाहती हो? तुम घुमा-फिराकर बात करती हो जिसे समझना मुश्किल है। मैंने पहले भी ऐसा देखा है। पहले तुम नए सदस्यों की समस्याओं के बारे में बात करती हो, जिससे ऐसा लगता है कि वे पोषण के लायक नहीं हैं, फिर कहती हो कि तुम हर मुमकिन कोशिश करोगी, ऐसे में यह जान पाना नामुमकिन हो जाता है कि तुम असल में क्या सोचती हो।” यह सुनकर मैं काफी परेशान हो गई : “क्या उनका मतलब है कि मैं समस्या के बारे में सीधे बात करने बातों को गोल-गोल घुमा रही हूँ? क्या मैं सच में इतनी बुरी हूँ? या फिर वे अपना मूड खराब होने की भड़ास मुझ पर निकाल रही हैं?” मुझे एहसास हुआ कि इस बारे में ऐसा सोचना गलत है; बहन ने बेवजह तो ऐसा नहीं कहा होगा और इससे पता चलता है कि उन्हें असल में कैसा महसूस होता है। मैंने अनजाने में ही भ्रष्ट स्वभाव दिखाया था और वह बहन इस बारे में बताकर मेरी मदद ही कर रही थीं। इसलिए मैंने उनसे कहा, “आप जिन समस्याओं की बात कर रही हैं मुझे उनकी ज्यादा समझ नहीं है, पर मैं इसे स्वीकार कर पूरी तरह आत्मचिंतन करने को तैयार हूँ।”

इसके बाद, मैं सुपरवाइजर की बातों पर विचार करती रही और फिर परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे राह दिखाए ताकि मैं खुद को बेहतर ढंग से जान सकूं। मुझे याद आया कि शैतान के शब्द बेहद कपटी थे और उनमें पारदर्शिता नहीं थी। यहोवा परमेश्वर ने शैतान से पूछा : “तू कहाँ से आता है?” शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)। परमेश्वर यहाँ शैतान के बात करने के तरीके को उजागर कर उसका विश्लेषण करते हुए कहता है : “तो फिर शैतान को इस तरीके से उत्तर देते देख तुम लोगों को कैसा लगता है? (हमें लगता है कि शैतान बेतुका है, लेकिन धूर्त भी है।) क्या तुम लोग बता सकते हो कि मुझे कैसा लग रहा है? हर बार जब मैं शैतान के इन शब्दों को देखता हूँ, तो मुझे घृणा महसूस होती है, क्योंकि वह बोलता तो है, पर उसके शब्दों में कोई सार नहीं होता। क्या शैतान ने परमेश्वर के प्रश्न का उत्तर दिया? नहीं, शैतान ने जो शब्द कहे, वे कोई उत्तर नहीं थे, उनसे कुछ हासिल नहीं हुआ। वे परमेश्वर के प्रश्न के उत्तर नहीं थे। ‘पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।’ तुम इन शब्दों से क्या समझते हो? आखिर शैतान कहाँ से आया था? क्या तुम लोगों को इस प्रश्न का कोई उत्तर मिला? (नहीं।) यह शैतान की धूर्त योजनाओं की ‘प्रतिभा’ है—किसी को पता न लगने देना कि वह वास्तव में क्या कह रहा है। ये शब्द सुनकर भी तुम लोग यह नहीं जान सकते कि उसने क्या कहा है, हालाँकि उसने उत्तर देना समाप्त कर लिया है। फिर भी वह मानता है कि उसने उत्तम तरीके से उत्तर दिया है। तो तुम कैसा महसूस करते हो? घृणा महसूस करते हो ना? (हाँ।) अब तुमने इन शब्दों की प्रतिक्रिया में घृणा महसूस करना शुरू कर दिया है। शैतान के शब्दों की एक निश्चित विशेषता है : शैतान जो कुछ कहता है, वह तुम्हें अपना सिर खुजलाता छोड़ देता है, और तुम उसके शब्दों के स्रोत को समझने में असमर्थ रहते हो। कभी-कभी शैतान के इरादे होते हैं और वह जानबूझकर बोलता है, और कभी-कभी वह अपनी प्रकृति से नियंत्रित होता है, जिससे ऐसे शब्द अनायास ही निकल जाते हैं, और सीधे शैतान के मुँह से निकलते हैं। शैतान ऐसे शब्दों को तौलने में लंबा समय नहीं लगाता; बल्कि वे बिना सोचे-समझे व्यक्त किए जाते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा कि वह कहाँ से आया है, तो शैतान ने कुछ अस्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया। तुम बिल्कुल उलझन में पड़ जाते हो, और नहीं जान पाते कि आखिर वह कहाँ से आया है। क्या तुम लोगों के बीच में कोई ऐसा है, जो इस प्रकार से बोलता है? यह बोलने का कैसा तरीका है? (यह अस्पष्ट है और निश्चित उत्तर नहीं देता।) बोलने के इस तरीके का वर्णन करने के लिए हमें किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए? यह ध्यान भटकाने वाला और गलत दिशा दिखाने वाला है। मान लो, कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि दूसरे यह जानें कि उसने कल क्या किया था। तुम उससे पूछते हो : ‘मैंने तुम्हें कल देखा था। तुम कहाँ जा रहे थे?’ वह तुम्हें सीधे यह नहीं बताता कि वह कहाँ गया था। इसके बजाय वह कहता है : ‘कल क्या दिन था। बहुत थकाने वाला दिन था!’ क्या उसने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया? दिया, लेकिन वह उत्तर नहीं दिया, जो तुम चाहते थे। यह मनुष्य के बोलने की चालाकी की ‘प्रतिभा’ है। तुम कभी पता नहीं लगा सकते कि उसका क्या मतलब है, न तुम उसके शब्दों के पीछे के स्रोत या इरादे को ही समझ सकते हो। तुम नहीं जानते कि वह क्या टालने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसके हृदय में उसकी अपनी कहानी है—वह कपटी है। क्या तुम लोगों में भी कोई है, जो अक्सर इस तरह से बोलता है? (हाँ।) तो तुम लोगों का क्या उद्देश्य होता है? क्या यह कभी-कभी तुम्हारे अपने हितों की रक्षा के लिए होता है, और कभी-कभी अपना गौरव, अपनी स्थिति, अपनी छवि बनाए रखने के लिए, अपने निजी जीवन के रहस्य सुरक्षित रखने के लिए? उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, यह तुम्हारे हितों से अलग नहीं है, यह तुम्हारे हितों से जुड़ा हुआ है। क्या यह मनुष्य का स्वभाव नहीं है?(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मैंने जाना कि शैतान हमेशा छिपी हुई मंशाएं रखता है, वह अपनी कथनी और करनी में शातिर चालों का इस्तेमाल करता है। अपने शर्मनाक इरादों को छिपाने के लिए, वह घुमा-फिराकर और गोल-मोल बातें करता है। इससे सुनने वाले भ्रमित होते हैं और इसके अर्थ की थाह नहीं लगा पाते हैं। मैंने विचार किया कि भाई-बहनों के साथ बात करने का मेरा तरीका भी शैतान जैसा ही थी, मैं गोल-मोल भाषा में बातें करके उन्हें उलझन में डाल देती थी। जब वे पूछते कि मेरी देखरेख वाली कलीसिया के नए सदस्यों में से कितनों का पोषण किया जा सकता है और उन नए सदस्यों की प्रगति कैसी है, इसके जवाब में मुझसे बस नए सदस्यों की संख्या और उनकी स्थिति के बारे में कुछ शब्द कहने की अपेक्षा की जाती थी, लेकिन मैंने कभी सीधा जवाब नहीं दिया। मैं नए सदस्यों के खराब प्रदर्शन के कुछ उदाहरण चुन लेती और उनसे जुड़ी कई बातों का जिक्र करती, ताकि भाई-बहनों को लगे कि नए सदस्य पोषण के लायक ही नहीं थे; मानो उनका पोषण न कर पाने में मेरी कोई खामी ही नहीं थी। फिर मैं यह कहकर अपना अंदाज बदल लेती, “मगर नए सदस्यों का पोषण करना जरूरी है। आइये हम पहले ऐसा करके देखते हैं।” मैं सिर्फ उनमें समस्याएं होने की बातें करती थी, और अब कह रही थी कि मैं उनके पोषण पर काम करूंगी। यह कोई सीधा जवाब तो नहीं था। यह ऐसा गोल-मोल जवाब था जिससे कोई भी यह अंदाजा न लगा पाये कि मैं कहना क्या चाहती हूँ। परमेश्वर कहता है कि शैतान अपने हितों की रक्षा करने के लिए गोल-मोल भाषा इस्तेमाल करता है, छिपी हुई मंशाएं रखता है और शातिर चालें आजमाता है। फिर मैंने खुद से पूछा कि भाई-बहनों से इस तरह बात करके मैं क्या मकसद हासिल करना चाहती थी। इस बारे में विचार करने पर मैंने जाना कि मैं हमेशा पहले समस्याएं बताकर अपनी बात शुरू करती थी, ताकि दूसरे यह समझें कि मामला मेरा लोगों के पोषण पर ध्यान केंद्रित न करने का नहीं है, बल्कि यह कि अनेक वजहों से वे पोषण के लिए अच्छे उम्मीदवार नहीं थे। फिर मैं अपनी बात खत्म करते हुए कहती कि उनका पोषण करने की भरसक कोशिश करके देखते हैं आगे क्या होता है, जिससे भाई-बहनों को पता चले कि मैं नए सदस्यों के पोषण की उचित जिम्मेदारी उठाती हूँ और मेरा रवैया सकारात्मक है। इस तरह, वे यह नहीं कहेंगे कि मैं लोगों को दरकिनार कर रही हूँ और उनके पोषण के लिए कीमत चुकाने का जोखिम नहीं उठाना चाहती हूँ। इस तरह गोल-मोल तरीके से बात करने के पीछे घिनौनी मंशाएं छिपी होती हैं। अपनी सुपरवाइजर से बात करते हुए मैं समस्याओं के इर्द-गिर्द बातें करती; मैं चाहती थी कि पक्की जानकारी के बिना वह बस अंदाजा लगाएँ, और आखिर में खुद यह फैसला लें कि उन नए सदस्यों का पोषण करना है या नहीं। इस तरह चाहे जो भी हो, नतीजा मेरे हक में ही होगा। अगर बाद में किसी ने पूछा कि मैंने उनका पोषण क्यों नहीं किया, तो मैं आसानी से इसका दोष सुपरवाइजर पर मढ़ सकती हूँ। और अगर नए सदस्यों ने प्रगति की, तो सबको यही लगेगा कि मैं ऐसे लोगों का पोषण करने में सक्षम हूँ, जिससे साबित हो जाएगा कि मुझमे थोड़ी-बहुत कार्यक्षमता है और मेरी छवि अच्छी बनेगी। मेरा बात करने का तरीका मेरे बात करने का तरीका शैतान की तरह ही था, जैसा कि परमेश्वर ने उजागर किया है—अपनी मंशाओं को छिपाकर गोल-मोल बातें करना, ताकि मैं अपने लक्ष्यों को हासिल कर लूं और दूसरों को इनका पता भी न चले। मैं शैतान जैसी ही शातिर और मक्कार थी। कहने को तो मैं सुपरवाइजर के साथ यह जानने की कोशिश कर रही थी कि नए सदस्यों का पोषण किया जाए या नहीं, पर असल में मेरी कोशिश यह थी कि वे खुद मेरे लिए फैसला करें, ताकि मैं अपनी जिम्मेदारी का बोझ कम कर सकूं। मैं बेहद मक्कार थी! ऐसी स्थिति में एक आम इंसान प्रासंगिक सिद्धांत ढूंढता है, ताकि सिद्धांत के अनुसार काम किया जा सके और कलीसिया के काम की भलाई के लिए नए सदस्यों का बेहतर ढंग से पोषण किया जा सके। मगर मेरा मकसद अपनी जिम्मेदारी का बोझ कम करना था, ताकि मैं अपने हितों, रुतबे और प्रतिष्ठा की रक्षा कर सकूं। मैं इतनी शातिर और मक्कार कैसे हो सकती थी? सुपरवाइजर ने मेरी काट-छाँट कर मुझे उजागर किया, इसकी वजह यही थी कि मैं आदतन अपने कपटी स्वभाव के आधार पर बोलती और काम करती थी, कभी आत्मचिंतन नहीं करती थी। मैं परमेश्वर के लिए घिनौनी और दूसरों के लिए घृणास्पद थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके कसम खाई कि अब से अपनी कथनी और करनी के पीछे छिपी मंशाओं और मकसदों पर अधिक ध्यान दूंगी, और ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करूंगी। बाद में, जब भाई-बहन नए विश्वासियों के बारे में मुझसे पूछते, तो कभी-कभी मैं फिर से उनकी समस्याओं के साथ शुरुआत करना चाहती, ताकि अगर उनका पोषण न किया जा सके, तो इसकी जिम्मेदारी मुझ पर न आये। जब मुझे एहसास होता कि मैं फिर से कपटी बन रही हूँ और गलत मंशा पाल रही हूँ, तो सजग होकर प्रार्थना करती और खुद से विद्रोह कर नए सदस्यों के साथ निष्पक्ष और तटस्थ भाव से बात करती। जब मैंने सजग होकर ईमानदारी का अभ्यास करना शुरू किया, तो पता चला कि ऐसी बहुत सी बातें थीं जिनमें मैं धूर्त और कपटी हो सकती थी और कभी-कभी मेरी मंशाएं इतनी गहराई में छिपी होती थीं कि उनका पता ही नहीं चल पाता था।

एक दिन सुपरवाइजर ने कहा कि एक नया विश्वासी जिसका मैंने सिंचन किया था, वह बहन अलैना द्वारा आयोजित सभा में हिस्सा ले रहा था और उसे उसकी संगति अच्छी लगी। तब मैं सोचने लगी कि यह नया विश्वासी बहुत अहंकारी है, उसमें बहुत-सी धारणाएं हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों को पसंद करता है। वह नियमित रूप से मेरी सभाओं में हिस्सा नहीं ले रहा था और उसका सिंचन करने में काफी मेहनत लग रही थी, मुझे लगा कि अगर मेरे बजाय अलैना ही उसका सिंचन करे तो मेरा बोझ थोड़ा हल्का हो जाएगा। अगर मैंने सीधे-सीधे उसे अलैना के पास ट्रांसफर करने का सुझाव दिया, तो सुपरवाइजर कह सकती हैं कि मैं कपटी हूँ और जिन नए विश्वासियों का सिंचन करना मुश्किल है उनसे पल्ला झाड़ना चाहती हूँ। लेकिन अगर सुपरवाइजर खुद उसे ट्रांसफर करने का सुझाव देती हैं, तो सहज रूप से मैं अपना बोझ कम कर सकती हूँ। इसलिए, मैंने आगे सवाल किया : “क्या उस नए विश्वासी ने कहा कि उसे अलैना की संगति पसंद है?” सुपरवाइजर ने हाँ में जवाब दिया। मैंने झट से अगला सवाल किया, “अगर ऐसी बात है, तो शायद हमें उसकी पसंद का ख्याल रखना चाहिए? वैसे भी, वह अक्सर मेरी सभाओं में हिस्सा तो लेता नहीं। आप क्या सोचती हैं?” मैं उनके यह कहने का इंतजार कर रही थी कि उसे ट्रांसफर कर दिया जाना चाहिए। मगर उन्होंने उस वक्त फैसला नहीं लिया। बाद में, मुझे थोड़ी बेचैनी-सी महसूस हुई : क्या मैं फिर से छिपी हुई मंशाओं के साथ नहीं बोल रही थी? मैं हमेशा ऐसे शर्मनाक इरादे क्यों रखती हूँ? मैं जो सोचती हूँ उसके बारे में सीधे-सीधे और खुलकर बात क्यों नहीं कर सकती?

एक दिन मैंने परमेश्वर के उन वचनों को खाने-पीने के लिए खोजा जो मेरी अवस्था के लिए प्रासंगिक थे, मैंने इन वचनों को पढ़ा : “कुछ लोग हमेशा ऐसे बोलते हैं कि लोग उनके शब्दों से यह न पकड़ सकें कि उनके दिमाग में क्या है। कभी-कभी उनके वाक्यों का आदि तो होता है, लेकिन उनका अंत नहीं होता है, और कभी अंत होता है लेकिन आदि नहीं होता। तुम बिल्कुल बता नहीं सकते कि वे कहना क्या चाहते हैं, तुम्हें उनकी कोई भी बात समझ में नहीं आती, और यदि तुम उन्हें स्पष्ट रूप से समझाने के लिए कहते हो, तो वे ऐसा नहीं करेंगे। वे अक्सर अपनी बातचीत में सर्वनाम का प्रयोग करते हैं। जैसे, वे रिपोर्ट करते हुए कहते हैं, ‘वह व्यक्ति, अ... वह सोच रहा था कि... और भाई-बहन बहुत... नहीं थे’ वे घंटों बात कर सकते हैं, फिर भी साफ तौर पर कुछ नहीं कह पाते, वे हकलाते हैं, अटकते हैं, अपने वाक्यों को पूरा नहीं करते, बस एक-एक शब्द बोलते हैं जिनका आपस में कोई संबंध नहीं होता, और इतना सब सुनने पर भी तुम्हारी समझ में कोई इजाफा नहीं होता, बल्कि बेचैनी और बढ़ जाती है। वास्तव में, उन्होंने बहुत पढ़ाई की होती है और वे सुशिक्षित भी होते हैं—तो वे एक पूर्ण वाक्य तक बोलने में असमर्थ क्यों होते हैं? यह स्वभावगत समस्या है। वे इतने अस्थिर बुद्धि के होते हैं कि उन्हें थोड़ा सा भी सत्य बोलने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। मसीह-विरोधी जो कुछ भी कहते हैं, उसमें से किसी बात पर उनका कोई ध्यान नहीं होता, हमेशा एक आदि तो होता है, लेकिन कोई अंत नहीं होता; वे आधा वाक्य तेजी से बोल देते हैं, लेकिन बाकी आधा निगल जाते हैं, और वे हमेशा चीजों को भाँपते-परखते रहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि तुम समझो कि उनके कहे का क्या अर्थ है, वे चाहते हैं कि तुम अनुमान लगाओ। यदि वे सीधे तौर पर बता देंगे, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि वे क्या कह रहे हैं और उनकी बात का क्या मतलब है, है न? वे ऐसा नहीं चाहते। वे क्या चाहते हैं? वे चाहते हैं कि तुम खुद ही अनुमान लगाओ, वे सहर्ष तुम्हें अपने अनुमान को सही मानने देते हैं—अब ऐसे में, उन्होंने तो कुछ कहा नहीं, इसलिए उस बात को लेकर उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। इसके अलावा, जब तुम उन्हें बताते हो कि तुम्हारे अनुमान से उनकी बातों का क्या अर्थ है, तो उन्हें क्या हासिल होता है? वे तुम्हारा अनुमान ही तो सुनना चाहते हैं, इससे उन्हें उस मामले पर तुम्हारा नजरिया और तुम्हारे विचार पता चल जाते हैं। तब वे अपने शब्द चुन-चुन कर बोलेंगे कि क्या कहना है, क्या नहीं कहना है और कैसे कहना है, और फिर वे अपनी योजना के अनुसार अगला कदम उठाएंगे। उनका हर वाक्य एक जाल पर खत्म होता है, और अगर तुम उनकी बात सुनते हुए उनके अधूरे वाक्य पूरे करते रहते हो, तो तुम पूरी तरह से उनके जाल में फँस जाते हो। क्या उनके लिए हमेशा इस तरह बोलना थका देने वाला होता है? उनका स्वभाव दुष्ट है—वे थकान महसूस नहीं करते। यह उनके लिए पूरी तरह से स्वाभाविक होता है। वे तुम्हारे लिए ऐसा जाल क्यों बुनना चाहते हैं? क्योंकि उन्हें तुम्हारे विचार साफ तौर पर समझ में नहीं आते, उन्हें डर होता है कि तुम उन्हें पहचान जाओगे। साथ ही उनकी यह भी कोशिश रहती है कि तुम उन्हें समझ न पाओ, और वे तुम्हें भी समझने की कोशिश कर रहे होते हैं। वे तुम्हारे अंदर से तुम्हारे विचार, तुम्हारी सोच और तुम्हारी विधियों का सार निकालना चाहते हैं। अगर वे सफल हो जाते हैं, तो समझो उनका बुना जाल काम कर गया। कुछ लोग अक्सर ‘हूँ... हाँ...’ कहकर रुक जाते हैं; वे कोई विशिष्ट दृष्टिकोण व्यक्त नहीं करते। अन्य लोग ‘जैसे...’ और ‘खैर...’ कहकर अटक जाते हैं, वे जो वास्तव में सोच रहे होते हैं, उस बात को छिपा जाते हैं, वे जो वाकई कहना चाहते हैं, उसकी जगह ऐसे शब्द बोलते हैं। उनके हर वाक्य में कई बेकार शब्द, क्रिया विशेषण और सहायक क्रियाएँ होती हैं। यदि तुम उनके शब्दों को रिकॉर्ड करते और लिख डालते, तो तुम्हें पता चलता कि उनमें से कोई भी बात इस मामले पर उनके विचारों या दृष्टिकोण को प्रकट नहीं करती। उनके हर शब्द में छिपे हुए फंदे होते हैं, प्रलोभन होते हैं और फुसलावे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? (दुष्टता का।) बहुत दुष्टता का। क्या इसमें छल-प्रपंच शामिल होता है? वे जिन फंदों, प्रलोभनों और फुसलावों की रचना करते हैं, उन्हीं को छल-प्रपंच कहते हैं। जिन लोगों में मसीह-विरोधियों का दुष्ट सार होता है, यह उनकी सामान्य विशेषता होती है। यह सामान्य विशेषता कैसे अभिव्यक्त होती है? वे अच्छी खबर की रिपोर्ट करते हैं, लेकिन बुरी की नहीं, वे विशेष रूप से कर्णप्रिय शब्द बोलते हैं, रुक-रुक कर बोलते हैं, वे अपने वास्तविक अर्थ को आंशिक रूप से छिपा लेते हैं, वे भ्रमित करने वाले अंदाज में बोलते हैं, अस्पष्ट बोलते हैं और उनके शब्दों में प्रलोभन होते हैं। ये सब बातें फंदे हैं और वे सब छल-प्रपंच के साधन हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर कहता है कि मसीह-विरोधी हमेशा घुमा-फिराकर बातें करते हैं। वे सुनने वालों को बातों में उलझाकर उन्हें कुछ भी समझने नहीं देते। वे हमेशा प्रलोभन और लालच देकर अपना मकसद हासिल करने के लिए दूसरों को जाल में फंसाने की कोशिश करते हैं और आखिरकार जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे शैतान ने हव्वा से कहा कि अगर उसने फल खाया, तो निश्चित नहीं कि वह मर जाएगी। शैतान के शब्द प्रलोभन देने और ललचाने वाले थे, जिनसे सीधे तौर पर उसके मकसद का पता नहीं चलता था, बल्कि वह कोई जिम्मेदारी लिए बिना दूसरों को पाप करने के लिए ललचाता था। जैसा कि परमेश्वर ने खुलासा किया है : “प्रत्येक व्यक्ति के भीतर शैतानी स्वभाव होता है; प्रत्येक व्‍यक्ति के हृदय में बेशुमार जहर होते हैं जिनसे शैतान परमेश्वर को आजमाता है और मनुष्य को फुसलाता है। कभी-कभी उसकी वाणी शैतान की आवाज और लहजे से युक्त होती है, और उसका इरादा लुभाना और फुसलाना होता है। मनुष्य के विचार और ख्याल शैतान के जहर से भरे हुए हैं और उसकी दुर्गंध फैलाते हैं। कभी-कभी, इंसानों के चेहरे-मोहरे या हरकतों से भी प्रलोभन और फुसलाने की यही दुर्गंध आती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सही मार्ग चुनना परमेश्वर में विश्‍वास का सबसे महत्‍वपूर्ण भाग है)। मैं भी वैसी ही थी, भाई-बहनों के साथ हमेशा घुमा-फिराकर बातें करती थी, अपनी घिनौनी मंशाएं पूरी करने के लिए प्रलोभन देती और ललचाती थी। मैं किसी नए सदस्य पर समय और ऊर्जा खर्च नहीं करना चाहती थी। मैं इस मौके का इस्तेमाल बस उससे पल्ला झाड़ने के लिए करना चाहती थी। लेकिन यह नहीं चाहती थी कि सुपरवाइजर को पता चले कि मैंने एक नए सदस्य को दरकिनार कर ठुकरा दिया। नए सदस्यों के प्रति कर्तव्यनिष्ठ और स्नेहशील होने की अपनी छवि को बनाए रखने के लिए, मैंने उन्हें यह सुझाव दिया कि हमें नए सदस्य की भावनाओं का ख्याल रखकर उसके हिसाब से ही काम करना चाहिए। मेरी कोशिश थी कि सुपरवाइजर उसे अलैना की सभाओं में ट्रांसफर करने का सुझाव दें, ताकि मैं अपना मकसद हासिल कर सकूं। मेरा बात करने का तरीका वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने खुलासा किया है : “यदि तुम उनके शब्दों को रिकॉर्ड करते और लिख डालते, तो तुम्हें पता चलता कि उनमें से कोई भी बात इस मामले पर उनके विचारों या दृष्टिकोण को प्रकट नहीं करती। उनके हर शब्द में छिपे हुए फंदे होते हैं, प्रलोभन होते हैं और फुसलावे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? (दुष्टता का।) बहुत दुष्टता का(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। जब भी कोई बात होती, तो मेरे मुँह से निकलने वाली हर बात में परीक्षा और प्रलोभन का ही भाव होता, ईमानदारी का एक भी शब्द नहीं निकलता। क्या यह एक दुष्ट स्वभाव का प्रदर्शन नहीं था? मैंने किसी को अपना असली मकसद जानने देने के बजाय घुमा-फिराकर बातें करना पसंद करती थी। मुझे लगता था कि बिना सोचे-विचारे अपनी मंशाओं को जाहिर कर अपनी विफलताओं को उजागर करना बेवकूफी होगी। ऐसा तो बेवकूफ लोग ही करते हैं! मैं सोचती थी कि बात करने का मेरा कपटी तरीका असल में मेरी चालाकी है—मानो मैं चतुर और बुद्धिमान हूँ, दूसरों से दो कदम आगे बढ़कर सोचती हूँ—और यही अपने हितों की रक्षा करने का तरीका है। मैं शातिर और मक्कार बनकर जीने के सिद्धांत पर चल रही थी, मैंने कथनी और करनी में ईमानदार और पारदर्शी होने की परमेश्वर की बातों को खारिज कर दिया था। मुझे लगता था कि उस तरीके से जीवन जीना मेरी हार होगी। मेरा नजरिया बहुत पहले ही बिगड़ गया था। मैंने आचरण के मानक के तौर पर शैतान के तरीकों को अपना लिया था, हर मोड़ पर धूर्तता और मक्कारी से काम लेती थी। इस पर विचार करके और यह जानकर मुझे थोड़ा डर लगा कि मैं कितनी बुरी और दुष्ट हूँ। मैंने देखा कि शैतान ने मुझे कितनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है, मैं तो इंसान कहलाने लायक ही नहीं हूँ। रोजमर्रा के जीवन में भी मेरी कथनी और करनी ऐसी ही थी। मुझे याद है एक बार मुझे मेरी आंटी का डिजाइनर हैंडबैग काफी पसंद आया। मैं उनसे सीधे-सीधे इसे मांग तो नहीं सकती थी, लेकिन नया हैंडबैग खरीदने पर ढेर सारे पैसे भी खर्च नहीं करना चाहती थी, तो मैंने थोड़ी चिंता जाहिर करते हुए कहा, “इसका तो कोई इस्तेमाल ही नहीं होगा—बस पैसे की बर्बादी है! आपके पास तो उस ब्रैंड का बैग पहले से मौजूद है। आपने इसे किसके लिए खरीदा?” मेरी आंटी को लगा मानो मुझे उनकी काफी परवाह है और मैं नहीं चाहती कि गैरजरूरी चीजों में पैसा बर्बाद किया जाए। हालांकि मेरे कहने का आशय था कि वह बैग वहां बेकार पड़ा रहेगा, तो क्यों न मुझे ही दे दें? फिर उन्होंने वह बैग मुझे दे दिया। कुछ ही शब्दों में मैंने उन्हें वह बैग मुझे “भेंट” कर देने पर मजबूर कर दिया। मैं हमेशा से ऐसी ही थी, जो चाहती उसे सीधे तौर पर नहीं कहती, बल्कि लोगों को इस कदर मजबूर कर देती कि वे खुद ही उसे मेरे हवाले कर दें। उन सारी बातों पर विचार करके लगा कि मैं भला इतनी मक्कार कैसे हो सकती हूँ। काश मैं वक्त को पीछे मोड़ पाती और अपनी कही बुरी बातों को वापस ले पाती। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मसीह-विरोधियों की कथनी और करनी का तरीका और उनका दुष्ट स्वभाव मुझे रच-बस गया है, जैसा कि परमेश्वर ने उजागर किया है। मैं बरसों से इसी तरह का जीवन जी रही थी और अनजाने में ही धूर्त तरीके से बात करने लगती थी। मेरा भ्रष्ट स्वभाव एक बड़ी समस्या थी। अगर मैंने इसे ठीक नहीं किया और खुद को नहीं बदला, तो यह बेहद खतरनाक होगा।

मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और आचरण की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। गैर-विश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सिखाया कि वह ईमानदार लोगों को पसंद करता है और मक्कार लोगों से नफरत करता है। केवल ईमानदार लोग ही उससे उद्धार पा सकते हैं, जबकि मक्कार लोगों को उजागर कर त्याग दिया जाएगा। अपनी आस्था के बरसों में मैंने जिन लोगों को स्वच्छ करने के बाद कलीसिया से निकाले जाते देखा है, उनमें ऐसे लोग शामिल थे जो लगातार लापरवाह रहे और अपने कर्तव्य में धोखेबाजी में लिप्त थे; उनमें ऐसे लोग भी थे जिन्होंने प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर झूठा मुखौटा लगाए रखा या तरह-तरह की साजिशों और चालों का सहारा लेकर लोगों को गुमराह करते रहे। मगर परमेश्वर सभी चीजों को देखता है, वह ऐसे हालात बनाता है जिसमें उनमें से हर एक को उजागर कर हटाया जा सके। सचमुच परमेश्वर के घर में मक्कार लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जब मैं नए विश्वासियों का सिंचन और पोषण कर रही थी, उस वक्त के बारे में सोचूँ तो मेरे आचरण में बहुत से भटकाव और समस्याएं थीं, फिर भी उनसे निपटने के लिए मैंने सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। मैं हमेशा से धूर्त और मक्कार बनी रही, अपनी भ्रष्टता और कमियों की भरपाई करने के लिए तर्क और बहाने ढूंढती रही; नतीजतन, नए सदस्यों का पोषण नहीं हो पाया। अगर ऐसे ही चलता रहता, तो परमेश्वर मुझे भी ठुकराकर त्याग देता। अपने आसपास मौजूद सरल और ईमानदार भाई-बहनों को देखकर, मैं देख पाती थी कि वे अपने कर्तव्य में बहुत सी बातों को नहीं समझते थे, उनके काम में गलतियां और चूक होती थी, मगर वे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ते थे। सत्य को समझने, सिद्धांतों पर पकड़ बनाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की खातिर अपना कर्तव्य निभाने में, वे अपने निजी घमंड को दरकिनार कर सरल और सच्चे बन सकते थे, अपनी नाकामियों और कमियों को कबूल कर दूसरों से सीख सकते थे। यह स्पष्ट था कि परमेश्वर उनका प्रबोधन और मार्गदर्शन कर रहा था। भले ही उनकी काबिलियत औसत दर्जे की थी या कभी-कभी वे थोड़ी बेवकूफी भी कर बैठते थे, फिर भी परमेश्वर उन्हें राह दिखाकर उनकी मदद करता था, धीरे-धीरे वे सत्य के सिद्धांतों को सीख कर अपने काम में सुधार कर पाते थे। इससे मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर सरल और ईमानदार लोगों को आशीष देता है। यही उसकी धार्मिकता है। इस बात को समझकर मुझे एहसास हुआ कि सच बोलने और ईमानदार बनने का मतलब यह हो सकता है कि लोग मेरी असलियत को पहचानें, लेकिन यह तो कोई बुरी बात नहीं है। कुछ पल के लिए यह भले ही थोड़ी शर्मिंदगी की बात होगी, मगर यह सच्चा और ईमानदार होना है और परमेश्वर इससे खुश होता है। साथ ही, सरल और ईमानदार बनकर जहां मैं अपनी समस्याओं को उजागर कर सकती हूँ, वहीं भाई-बहन इसकी वजह से मुझे कभी नीची नजर से नहीं देखेंगे। वे अपने साथ चीजों में सुधार करने में मेरी मदद करेंगे और सिद्धांतों को समझने में मेरा मार्गदर्शन करेंगे। इस तरह का अभ्यास मेरे कर्तव्य के लिए हानिकारक नहीं होगा। परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार अब बहुत तेजी से फैल रहा है, और इसके लिए बहुत-से नए विश्वासियों की मदद जरूरत होगी। मगर मैंने अब तक किसी भी नए विश्वासी का पोषण नहीं किया था। क्या यह कलीसिया के कार्य में बाधक बनना और रुकावट डालना नहीं है? मैं तो परमेश्वर का विरोध कर रही थी! परमेश्वर कहता है : “तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है।” परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। कोई इंसान जो भी रास्ता चुनता हो और वह चाहे जैसा भी इंसान बनाना चाहता हो, इसका उसके परिणाम और भाग्य पर सीधा असर पड़ता है। मैंने विचार किया कि कैसे अनेक मौकों पर मैंने सत्य की खोज किये बिना या खुद को बेहतर ढंग से जानने के लिए आत्मचिंतन किये बिना भयंकर गलतियां की थीं। मैं अपनी शैतानी प्रकृति में जी रही थी। मैंने तो ईमानदार बनने के सबसे बुनियादी सत्य में भी प्रवेश नहीं किया था, ना ही मैंने अपने जीवन स्वभाव में कोई बदलाव किया था। मैं एक मक्कार इंसान बनी हुई थी जिसका संबंध शैतान से था। मैं बचाए जाने की उम्मीद कैसे कर सकती थी? सिर्फ ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करके ही मैं सही रास्ते पर चल सकती थी।

बाद में मैंने सत्य की खोज जारी रखी और परमेश्वर के वचन पढ़कर ईमानदारी का अभ्यास करने का मेरा रास्ता थोड़ा और स्पष्ट हो गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब लोग छल-कपट में संलग्न होते हैं, तब वे ऐसा किन उद्देश्‍यों से करते हैं? वे कौनसा लक्ष्‍य प्राप्‍त करने की कोशिश कर रहे हैं? बिना किसी अपवाद के, ऐसा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा हासिल करने के लिए है; संक्षेप में, यह उनके अपने हितों के लिए है। और निजी हितों के पीछे भागने के मूल में क्या है? जड़ यह है कि लोग अपने हितों को बाक़ी सब चीज़ों से ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण मानते हैं। वे अपना स्‍वार्थ साधने के लिए छल-कपट में संलग्न होते हैं, और इससे उनका कपटपूर्ण स्‍वभाव प्रकट हो जाता है। इस समस्‍या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? पहले तुम्हें यह जानना और समझना चाहिए कि हित क्या हैं, वे लोगों के लिए सटीक रूप से क्या लाते हैं, और उनके पीछे भागने के क्या परिणाम होते हैं। अगर तुम इसका पता नहीं लगा सकते, तो उनका त्याग कहना आसान होगा, करना मुश्किल। अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके लिए अपने हित छोड़ने से कठिन कुछ नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके जीवन-दर्शन हैं ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ और ‘मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं’ जाहिर है, वे अपने हितों के लिए जीते हैं। लोग सोचते हैं कि अपने हितों के बिना—अगर उन्‍हें अपने हित छोड़ने पड़े—तो वे जीवित नहीं रह पाएँगे, मानो उनका अस्तित्व उनके हितों से अविभाज्य हो, इसलिए ज्यादातर लोग अपने हितों के अतिरिक्त सभी चीजों के प्रति अंधे होते हैं। वे अपने हितों को किसी भी चीज से ऊपर समझते हैं, वे अपने हितों के लिए जीते हैं, और उनसे उनके हित छुड़वाना उनसे अपना जीवन छोड़ने के लिए कहने जैसा है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्‍या किया जाना चाहिए? लोगों को सत्य स्वीकारना चाहिए। सत्य समझकर ही वे अपने हितों के सार की सच्चाई देख सकते हैं; तभी वे उन्हें छोड़ना और उनके प्रति विद्रोह करना शुरू कर सकते हैं, उनसे अलग होने की पीड़ा को सहन करने योग्य हो सकते हैं जो उन्हें प्रिय है। और जब तुम ऐसा कर सकते हो, और अपने हितों को त्याग सकते हो, तो तुम अपने मन में शांति और सुकून की अधिक अनुभूति करोगे और ऐसा करने से तुम अपनी दैहिक इच्छाओं पर जीत पा लोगे। अगर तुम अपने हितों से चिपके रहते हो और उन्‍हें त्‍यागने से इनकार कर देते हो और अगर तुम सत्य को जरा-भी स्वीकार नहीं करते हो—तो मन ही मन तुम कह सकते हो, ‘अपने फायदे के लिए कोशिश करने और किसी भी नुकसान को नकारने में क्या गलत है? परमेश्वर ने मुझे कोई दण्ड नहीं दिया है, लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे?’ कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन अगर परमेश्वर में तुम्हारी यही आस्था है, तो तुम अंततः सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह तुम्हारी भयंकर हानि होगी—तुम उद्धार नहीं प्राप्‍त कर सकोगे। क्या इससे बड़ा कोई पछतावा हो सकता है? अपने हितों के पीछे भागने का अंततः यही परिणाम होता है। अगर लोग सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अगर वे सिर्फ अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो वे कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः वे ही नुकसान उठाएँगे। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वालों को ही बचाता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करने और उसे जानने में असमर्थ रहते हो, तो तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करोगे और तुम जीवन-प्रवेश नहीं कर पाओगे। सत्य को स्वीकारना और स्वयं को जानना तुम्हारे जीवन के विकास और उद्धार का मार्ग है, यह तुम्हारे लिए अवसर है कि तुम परमेश्वर के सामने आकर उसकी जाँच को स्वीकार करो, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करो और जीवन और सत्य को प्राप्त करो। अगर तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे और अपने हितों के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने और उद्धार पाने का अवसर छोड़ने के समान है। तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा और अपने हित चुनते हो, लेकिन तुम सत्य का त्याग कर देते हो, जीवन खो देते हो और बचाए जाने का मौका गँवा देते हो। किसमें अधिक सार्थकता है? अगर तुम अपने हित चुनकर सत्य को त्‍याग देते हो, तो क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? आम बोलचाल की भाषा में कहें तो यह एक छोटे से फायदे के लिए बहुत बड़ा नुकसान उठाना है। प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा, धन और हित सब अस्थायी हैं, ये सब अल्पकालिक हैं, जबकि सत्य और जीवन शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। अगर लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ाने वाले भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लें, तो वे उद्धार पाने की आशा कर सकते हैं। इसके अलावा, लोगों द्वारा प्राप्त सत्य शाश्वत होते हैं; शैतान लोगों से ये सत्‍य छीन नहीं सकता, न ही कोई और उनसे यह छीन सकता है। तुमने अपने हित त्याग देते हो, लेकिन तुम्‍हें सत्य और उद्धार प्राप्त हो जाते हैं; ये तुम्हारे अपने परिणाम हैं और इन्हें तुम डकौल प्राप्त करते हो। अगर लोग सत्‍य का अभ्‍यास करने का चुनाव करते हैं, तो वे अपने हितों को गँवा देने के बावजूद परमेश्वर का उद्धार और शाश्‍वत जीवन हासिल कर रहे होते हैं। वे सबसे ज्‍़यादा बुद्धिमान लोग हैं। अगर लोग अपने हितों के लिए सत्‍य को त्‍याग देते हैं, तो वे जीवन और परमेश्वर के उद्धार को गँवा देते हैं; वे लोग सबसे ज्‍यादा बेवकूफ होते हैं। कोई व्‍यक्ति क्‍या चुनता है—अपने हित या सच—वह अविश्‍वसनीय रूप से उजागर करने वाला होता है। जो लोग सत्‍य से प्रेम करते हैं वे सत्‍य को चुनेंगे; वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका अनुसरण करना चुनेंगे। वे सत्‍य का अनुसरण करने के लिए अपने निजी हितों तक को त्‍याग देना पसन्‍द करेंगे। उन्‍हें कितना ही दुख क्‍यों न झेलना पड़े, वे परमेश्वर को सन्‍तुष्‍ट करने के लिए अपनी गवाही पर अडिग बने रहने के लिए दृढ़ निश्‍चयी होते हैं। यह सत्‍य का अभ्‍यास करने और सत्‍य की वास्‍तविकता में प्रवेश करने का मूलभूत मार्ग है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्‍वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। “लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही उनकी जान-बूझकर योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे होते हैं जो लोग जान-बूझकर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और जब तक तुम अपने बताए प्रत्येक झूठ को सुलझाते जाओगे, और ऐसा करते रहोगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : जब एक झूठ बाहर आ जाए तो आत्मचिंतन करो और फिर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और उतने ही सत्य का अभ्यास करने और उसे जीने को लालायित होगे। इस तरह तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, जिसमें झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करने वाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार व्यक्ति बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। बेशक विशेष हालात का सामना होने पर तुम शायद कोई छोटा-मोटा झूठ बोल दो। ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब तुम्हारा सामना किसी खतरे या मुसीबत से हो, या तुम अपनी सुरक्षा बनाए रखना चाहो, तब झूठ बोलने से बचा नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें उस पर आत्मचिंतन कर उसे समझना चाहिए और समस्या को हल करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर कहना चाहिए : ‘मुझमें अभी भी झूठ और चालबाजी हैं। परमेश्वर मुझे सदा के लिए मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बचाए।’ जब कोई जान-बूझकर बुद्धि का प्रयोग करता है, तो यह भ्रष्टता का खुलासा नहीं माना जाता। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इंसान को इसका अनुभव करना पड़ता है। इस तरह तुम्हारे झूठ और भी कम हो जाएँगे। आज तुम दस झूठ बोलते हो, कल शायद नौ बोलो, और परसों आठ। बाद में तुम सिर्फ दो-तीन ही बोलोगे। तुम ज्यादा-से-ज्यादा सत्य बोलोगे, और ईमानदार व्यक्ति बनने का तुम्हारा अभ्यास परमेश्वर के इरादों, उसकी अपेक्षाओं और उसके मानकों के और ज्यादा करीब पहुँच जाएगा—और यह कितना अच्छा होगा! ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले झूठ बोलने की समस्या को हल करो। तुम्हें अपने ये झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी गहन विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कुछ घटित होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : ‘ईमानदार होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब और धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है—ऐसा जो “इंसान” कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, अब मैं और उस तरह नहीं जीना चाहता!’ इस समय तुम्हें सचमुच ईमानदार होने की आशा होगी, और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक कामयाबी है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो तुम्हारे अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहेंगे और खुद को खोल कर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, और तुम लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : ‘हे परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति बनाना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बचा लो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।’ जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : ‘इसे अभ्यास में लाना अच्छा है। आज मैंने सत्य का अभ्यास किया है। आखिरकार अब मैं ईमानदार व्यक्ति बन गया हूँ।’ जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, वह तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें इस बात की सराहना करने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इसी तरह अभ्यास में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलने लगता है। अगर वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हैं, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों में मुझे झूठ और छल-कपट से निपटने का अभ्यास करने के सिद्धांत मिल गये। सबसे अहम बात है, हमें अपने निजी हितों का त्याग करना होगा। अभ्यास का यह पहलू खास तौर पर महत्वपूर्ण है। झूठ बोलने का मकसद अपने हितों की रक्षा करना और अपने लक्ष्यों को हासिल करना होता है; ऐसा मकसद होने पर, हम झूठ और मक्कारी का सहारा लेते हैं। इसलिए सबसे अहम बात है अपने निजी हितों का त्याग करना। इससे कुटिल बनने की समस्या हल करने में मदद मिलती है। यह अक्सर आत्मचिंतन करने के लिए भी महत्वपूर्ण है, जिससे परमेश्वर हमारी हर कथनी और करनी की जांच-पड़ताल कर पाता है। जब हमें लगता है कि हम अपनी कथनी या करनी में छल-कपट करते हैं, तो हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि इससे हम क्या हासिल करना चाहते हैं। अगर हमें पता चलता है कि हम कुटिल इरादे रखते थे या भ्रष्ट स्वभाव दिखा रहे थे, तो हमें फौरन परमेश्वर के पास आकर प्रार्थना करनी चाहिए और खुद को बदलना चाहिए। हमें सजग होकर ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करना चाहिए और अपने भाई-बहनों से खुलकर बात करना, अपने विचारों, नजरियों, भ्रष्टता और कमियों को उजागर करना सीखना चाहिए, और उन्हें दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। यही धीरे-धीरे एक कपटी, दुष्ट, शैतानी स्वभाव को स्वच्छ करने का एकमात्र तरीका है। इसका एहसास होने पर मैंने अपने सुपरवाइजर से संपर्क किया, उनसे अपनी घिनौनी मंशाओं के बारे में खुलकर बात की और माफी माँगी। उन्होंने मुझे बिल्कुल नहीं ठुकराया, बल्कि वे भी अपने बारे में खुलकर बोलीं और हमने साथ मिलकर अपने काम की बहुत-सी कमियों को ढूंढ निकाला। इस तरह अभ्यास करके मुझे काफी सुकून मिला। मैंने महसूस किया कि अब मैं किसी साये में नहीं जी रही थी और इससे मेरे मन को सुकून मिला।

मैंने अभी भी अपने कपटी, दुष्ट और भ्रष्ट स्वभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हुई हूँ, पर यह आस्था और इच्छा रखती हूँ कि मैं परमेश्वर को खुश करने वाली ईमानदार इंसान बनूंगी; साथ ही, जीवन में हर कथनी और करनी में ईमानदार और सच्ची रहने पर ध्यान दूंगी, ताकि परमेश्वर की जांच-पड़ताल का सामना कर सकूं।

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