मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है

आज हमारी संगति का विषय है मनुष्य का नए युग—राज्य के युग में प्रवेश, और लोगों को राज्य के युग में कैसे रहना चाहिए और इसमें परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए कैसे सच्चे ढंग से नए युग में प्रवेश करना चाहिए। मनुष्य नए युग में प्रवेश कैसे करे, इस विषय पर चर्चा मुख्य रूप से किस पर केंद्रित होगी? राज्य के युग में परमेश्वर इतने अधिक वचन व्यक्त करता है, वह न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, इसलिए परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को यह सटीक रूप से जानना चाहिए कि राज्य के युग में परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए मनुष्य को उस पर किस प्रकार विश्वास करना चाहिए। अतीत में अधिकतर लोगों ने प्रभु पर विश्वास कर परमेश्वर का खूब अनुग्रह प्राप्त किया। अब वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना कार्य का अनुभव लेना शुरू कर रहे हैं, तो उन्हें परमेश्वर पर विश्वास के पुराने विचारों के बदले परमेश्वर की अपेक्षाएं पूरी करने वाले नए विचार अपनाना चाहिए? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर पर विश्वास के तुम्हारे पुराने विचार सही थे या गलत, इस बात की जाँच नहीं होगी, तुम्हें वास्तविकता का सामना करना चाहिए, और तुम्हें यह जानना होगा कि अब किस तरह विश्वास और अनुसरण करना है। अगर तुम ठीक उसी तरह अनुसरण करते रहोगे जैसा पहले अनुग्रह के युग में करते थे, और अपने पुराने विचारों के आधार पर ही परमेश्वर पर विश्वास करते रहे तो तुम नए युग में प्रवेश नहीं कर पाओगे? यह बात समझाने के लिए पहले मैं एक सूक्त वाक्य सुनाता हूँ। यह कौन-सी सूक्ति है? अनुग्रह के युग में यह सूक्ति अक्सर सुनाई जाती थी : “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है।” अर्थात, जब किसी एक व्यक्ति ने यीशु पर विश्वास किया तो इस जुड़ाव से उसके परिवार में सबसे छोटे से लेकर बड़े से बड़े तक सभी लाभान्वित हुए और उन सबको शांति और आनंद का सुख प्राप्त हुआ। चूँकि यीशु ने छुटकारे का कार्य किया, इसलिए वह निश्चित रूप से असीम रूप से सहनशील, धैर्यवान, क्षमाशील और मनुष्य को पापमुक्त करने वाला था। तुम्हारा जीवन-प्रवेश चाहे जैसा रहा हो, तुममें जैसी भी काबिलियत रही हो, तुमने अतीत में चाहे जितने ज्यादा पाप किए हों, तुम्हें बस प्रभु के सामने कबूल करने भर की देर थी और सब कुछ क्षमा कर तुम्हें शांति और आनंद का आशीष मिल जाता था। तुम्हें केवल “विश्वास” करने भर की जरूरत थी और यही पर्याप्त था—यह इतना सरल था। क्या अब भी यही बात है कि एक व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करे तो उसका पूरा परिवार धन्य हो जाता है? नहीं। अब यह काम क्यों नहीं हो रहा है? क्योंकि अब नया समय आ चुका है और परमेश्वर न्याय का कार्य करने और मानवजाति को हमेशा-हमेशा के लिए शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए आ चुका है। इसलिए परमेश्वर को अब ऐसे लोगों की जरूरत है जो उसके प्रति वफादार और निष्ठावान हों, उसकी स्तुति करें और आज्ञा मानें, जिनके दिल में उसके प्रति श्रद्धा हो—ये चीजें लोगों को करनी ही चाहिएं। अगर परमेश्वर पर विश्वास करने वाले सत्य को जान, स्वीकार, समझ और हासिल कर सकें, तो वे पूर्णतया बचा लिए जाएंगे। लेकिन जो लोग सत्य को स्वीकार न कर सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह का लोभ करते हैं, वे बहिष्कृत कर दिए जाएंगे। अगर तुम अब भी यह चाहते हो कि परमेश्वर अनुग्रह के युग का कार्य करता रहे, यह सोचते रहे कि परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास करने भर से तुम्हारा पूरा परिवार धन्य हो जाएगा तो यह मूर्खता है! परमेश्वर अब अनुग्रह के युग का कार्य नहीं कर रहा है। यह युग बीत चुका है। यह समझते हो, ना?

इस कथित “नए युग में प्रवेश” का अर्थ है आज के राज्य के युग में प्रवेश करना, और परमेश्वर पर विश्वास के बारे में तुम्हारे विचार, तुम्हारे इरादे, तुम्हारी आस्था और किस प्रकार तुम अपना जीवन जीते हो, और तुम चीजों को कैसे अनुभव करते हो, यह सब बदलना चाहिए। अगर तुम सिर्फ एक चीज बदलते हो, अगर तुम यीशु पर विश्वास किया करते थे लेकिन आज सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करते हो, और जिस परमेश्वर पर विश्वास करते हो तुम्हारे लिए उसका सिर्फ नाम बदला है तो फिर वास्तव में तुम्हारे विश्वास का तरीका, तुम्हारा मार्ग और तुम जिन चीजों की तलाश में हो, इनमें से कुछ भी नहीं बदला है। कहने का आशय यह है कि तुम्हारी तलाश, तुम्हारी समझ और तुम्हारे विचारों में कुछ परिवर्तन होना चाहिए। जब तुम इस आधार पर सत्य का अनुसरण करते हो केवल तभी तुम्हारी आस्था शुद्ध और सच्ची होगी। अब कुछ लोग क्यों हमेशा नकारात्मक होते हैं, सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास निरर्थक है और पहले जैसा स्फूर्तिदायक नहीं है? इसका कारण यह है कि परमेश्वर पर विश्वास के बारे में उनके विचार अभी तक बदले नहीं हैं। वे अब भी अपने उन्हीं विचारों पर कायम हैं जो यीशु पर विश्वास करते समय थे, जरा-सा अनुग्रह पाने या खुद को अधिक खपाने और अधिक दौड़-भाग पर ही ध्यान लगाए रहते हैं; उनका सारा ध्यान उपहारों, सतही कार्यों और सतही उपदेशों, और उत्साह पर ही लगा रहता है। फिर भी वे परमेश्वर के वर्तमान कार्य के साथ कदम ताल मिलाकर नहीं चलते, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने पर ध्यान नहीं लगाते, और न वे पवित्र आत्मा से प्रबोधन पाते हैं, इसलिए हमेशा नकारात्मक महसूस करते हैं। इस तरह के लोग ऐसे दिखते हैं मानो वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं जबकि दरअसल उन्होंने दिल से सत्य नहीं स्वीकारा है, इसीलिए उनकी नकारात्मक स्थिति कभी ठीक नहीं हो पाती है। वे बिल्कुल भी जीवन-प्रवेश नहीं कर पाते हैं, अब भी कोई बदलाव किए बिना परमेश्वर पर विश्वास के अपने पुराने विचारों से चिपके रहते हैं। क्या यही बात नहीं है? पवित्र आत्मा का कार्य बदल चुका है, और पवित्र आत्मा के अनुरूप ही परमेश्वर पर मनुष्य का विश्वास भी बदलना चाहिए। अगर तुम्हारी तलाश, तुम्हारे जीने का तरीका, तुम्हारे अनुभव का तरीका, परमेश्वर पर विश्वास के प्रति तुम्हारा नजरिया, और परमेश्वर पर विश्वास को लेकर तुम्हारे उद्देश्य और विचार नहीं बदले हैं तो यह दिखाता है कि तुमने पवित्र आत्मा के कार्य के साथ कदम ताल नहीं मिलाई है। यदि लोग पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ चलना चाहते हैं, नए तरीकों के साथ खुद को बदलना चाहते हैं और नई समझ हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें सत्य खोजना चाहिए, उसमें प्रवेश करना चाहिए और अपनी छोटी-छोटी बातों जैसे अपने हर कदम और कार्य, अपने सोच-विचार, अपने उद्देश्य और नजरिए में भी बदलाव लाना होगा—तभी वे प्रगति करेंगे। यदि लोग इस बारे में केवल दिखावा करते हैं, अपने व्यवहार में सिर्फ मामूली हेरफेर करते हैं तो इसे परिवर्तन नहीं माना जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपने सोच-विचार और अपने जीने के तरीके में परिवर्तन लाना होगा। अगर तुम अपनी पुरानी धारणाओं और कल्पनाओं को तिलांजलि दे सकते हो और परमेश्वर पर विश्वास के अपने पुराने विचारों के बारे में विवेक-दृष्टि और ज्ञान पा सकते हो तो इसी से साबित होगा कि तुम परिवर्तित हो चुके हो। खुद को परखकर देखो कि तुम्हारे जीवन के कौन से हिस्से अभी तक नहीं बदले हैं, क्या तुम्हारे बोलने या चीजों को देखने का पुराना ढर्रा कायम है या नहीं, और तुम्हारे अतीत की वे कौन-सी गहरी पैठी हुई चीजें हैं जो अभी तक खोजी नहीं गई हैं। अगर तुम गहरे नहीं उतरोगे तो तुम्हें लग सकता है कि अंदर कुछ नहीं है लेकिन जब तुम गहराई से अपने अंदर उतरोगे तो तुम्हें लगेगा कि काफी कुछ बाहर निकालना बाकी है। ऐसा क्यों है कि अभी तक कुछ लोग परमेश्वर के कदमों के साथ मिलकर नहीं चल पा रहे हैं? इसका कारण यह है कि लोगों के अंदर ऐसी कई चीजें हैं जो उन्हें यह काम करने से रोकती हैं, क्योंकि लोगों को न तो नई चीजों की कोई समझ है, न वे इन्हें स्वीकारते ही हैं। लोग परमेश्वर के बारे में हमेशा धारणाएँ क्यों पालते हैं? वे परमेश्वर के वचनों और कार्यों के बारे में धारणाएँ पालते हैं, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य को लेकर भी उनमें धारणाएँ होती हैं, वे यह नहीं स्वीकार पाते कि परमेश्वर किन लोगों को बचाता है और किन्हें त्याग देता है, और वे इस बात को नहीं भूल पाते कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता है। इसका सटीक कारण क्या है? एक कारण तो यही है कि यह मनुष्य की अहंकारी और आत्मतुष्ट प्रकृति से तय होता है, वह इसलिए कि लोगों की हमेशा हर मामले में अपनी धारणाएँ और कपोल-कल्पनाएँ होती हैं—यही समस्या की जड़ है; एक अन्य वस्तुपरक कारण भी होता है, वह यह कि लोग परमेश्वर पर विश्वास के मामले में कई ऐसी गलत धारणाएँ पालते हैं जो परिवर्तित नहीं हुई हैं, वह इसलिए कि गहरे पैठी हुईं ये चीजें अभी भी बदली नहीं हैं। यीशु या यहोवा पर अपने विश्वास के आधार पर बातें करने के पुराने तरीके अभी भी उनके दिलों में जड़ें जमाए हुए हैं, इसलिए परमेश्वर के नए कार्य का सामना होने पर वे सच्चे मार्ग को तो स्वीकारते हैं लेकिन वे परमेश्वर के बोलने और कार्य करने के नए तरीके स्वीकारने में सक्षम नहीं होते हैं। तुम इन नई चीजों को क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम अभी भी अतीत की उन पुरानी चीजों से चिपककर उन्हें छोड़ नहीं पा रहे हो जो तुम्हें इन नई चीजों का विरोध करने की ओर ले जाती हैं। अगर अतीत की ये चीजें तुम्हारे पास न हों तो तुम वह स्वीकार सकोगे जो परमेश्वर अब करता है। अगर तुम अतीत की ये चीजें नहीं छोड़ सकते तो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने और उससे विद्रोह करने के भागी होओगे, और नतीजे में नुकसान झेलोगे। यदि तुम परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हो तो तुम्हारे सिर पर परमेश्वर के हाथों बहिष्कृत होने का खतरा मँडराता रहेगा, और वह तुम्हें दंडित करेगा।

तुम्हें गहराई तक जाकर यह जांच करनी चाहिए कि चीजों को करने और समझने के कौन से पुराने तरीके और अतीत के विचार अभी भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। तुम्हें एक सरल उदाहरण देता हूँ। कुछ लोगों ने मसीह को न तो कभी देखा है, न बोलते सुना है। उन्होंने सिर्फ मसीह द्वारा व्यक्त वचन पढ़े हैं, और वे कहते हैं कि ये अच्छे और आधिकारिक वचन हैं, ये न्याय के वचन हैं लेकिन हकीकत में जब वे मसीह के संपर्क में आते हैं तो उनके भीतर धारणाएँ जन्म लेने लगती हैं, और वे सोचते हैं, “परमेश्वर इतनी सख्ती से क्यों बोलता है? परमेश्वर लोगों को इस तरह भाषण क्यों देता है? वह इतनी भारी-भरकम बातें क्यों कहता है? उसके बात करने का ढंग बेहद डरावना है, वह हमेशा लोगों को उजागर कर उनका न्याय करता है। इसे कौन स्वीकारेगा? यीशु पर हमारा विश्वास अलग है। सभी मृदुभाषी हैं और परस्पर मिल-जुल कर रहते हैं। उसकी तरह कोई नहीं बोलता। मैं उस तरह के परमेश्वर को न तो स्वीकार सकता हूँ, न उसके समान परमेश्वर को सहन कर सकता हूँ। अगर वह प्रभु यीशु की तरह मृदुल और सौहार्दपूर्ण ढंग से बोलता, लोगों के प्रति दयालु और मिलनसार होता तो मैं उसे स्वीकार कर पाता। लेकिन मैं इस तरह के परमेश्वर को स्वीकार नहीं सकता। उससे तो मैं जुड़ भी नहीं सकता हूँ!” तुम स्वीकारते हो कि यही सच्चा मार्ग है, कि ये देहधारी के वचन हैं, और तुम पूरे दिल से आश्वस्त हो चुके हो तो फिर जब तुम मसीह के संपर्क में आते हो तो उसके लहजे, उसके द्वारा व्यक्त वचनों और बोलने की शैली को लेकर ऐसी धारणाएँ क्यों पालते हो जिन्हें छोड़ने में असमर्थ हो? इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि तुम्हारे दिल में मौजूद वे पुरानी बातें पहले ही हावी हो चुकी हैं और धारणाएँ और नियम बन चुकी हैं। तथ्य यह है कि वे सारी चीजें मनुष्य से आती हैं, वे मनुष्य के फैसले और उसकी कपोल-कल्पनाएँ हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं। अगर किसी ने इन बातों को आज के परमेश्वर पर थोपने की कोशिश की तो वह ऐसा करने में असमर्थ तो रहेगा ही, साथ ही उसके परमेश्वर का विरोध करने की भी संभावना होगी। परमेश्वर अलग-अलग युग में अलग-अलग कार्य करता है, इसलिए वह जो स्वभाव प्रकट करता है वह भी भिन्न होता है, और परमेश्वर जो स्वयं है और अपना जो स्वरूप वह प्रकट करता है वह भी अलग-अलग होता है। तुम इस बारे में नियम लागू नहीं कर सकते; ऐसा करोगे तो बहुत संभव है कि तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित होंगी, और तुम परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम हो जाओगे। यदि तुम अपने बारे में चिंतन नहीं करते और पश्चात्ताप करने से साफ मना करते हो तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा और तुम्हें दंड देगा। परमेश्वर का कार्य हर युग में ऐसा ही है—हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो परमेश्वर को स्वीकार कर उसकी आज्ञा मानते हैं और उससे आशीष पाते हैं, तो कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो परमेश्वर का विरोध और निंदा करते हैं और उसके हाथों नष्ट हो जाते हैं। अंत के दिनों के अपने कार्य में परमेश्वर बहुत सारे वचन और सत्य व्यक्त करता है। वह लोगों के धारणा पालने से नहीं डरता, उसे डर है कि लोग उसके वचन नहीं पढ़ेंगे या उसके द्वारा व्यक्त सत्यों को नहीं स्वीकारेंगे—यही सबसे डरावनी बात है। अगर तुम्हारी धारणाएँ और विचार परमेश्वर के बताए सत्यों के अनुरूप नहीं हैं तो फिर वे सत्य के विपरीत हैं, वे परमेश्वर विरोधी हैं, और उनका समर्थन नहीं किया जा सकता है। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं, और उनके अपने विचार होते हैं—ऐसा क्या है जो उनके विचारों पर हावी होता है? वे लोगों के इरादों, और उनके उस दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य से प्रभावित होते हैं जिससे लोग चीजों को देखते हैं, इसलिए तुम्हारे विचार न तो पवित्र आत्मा से आते हैं, न ही सत्य की नींव पर खड़े होते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि तुम्हारी धारणाएँ और विचार मनुष्य और देह की चीजें हैं? वह इसलिए क्योंकि तुम्हारे विचारों पर सत्य का प्रभुत्व नहीं है, न वे सत्य आधारित चिंतन से ही उपजते हैं। कुछ लोगों के विचार बाइबल-आधारित चिंतन से आते हैं, और यह तो और भी गलत है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि बाइबल ही गलत है, बल्कि सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि परमेश्वर के अतीत में किए गए कार्य की तुलना उसके नए कार्य से करना अनुचित है—तुम्हें उसके कार्य की इस तरह तुलना नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या अनुग्रह के युग में लोगों का यहोवा के कार्य की तुलना प्रभु यीशु के कार्य से करना उचित होता? क्या राज्य के युग में, प्रभु यीशु के कार्य की तुलना परमेश्वर के आज के कार्य से करना उचित है? बिल्कुल नहीं, इनकी तुलना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि परमेश्वर के कार्य का हर चरण पिछले चरण से अधिक उन्नत होता है, और वह अपने कार्य को दोहराता नहीं है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर जब भी नए चरण का कार्य करता है और एक नया युग शुरू करता है तो हमेशा लोगों का एक समूह या बहुसंख्यक लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध करते हुए उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं? हर युग में ऐसा ही क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग परमेश्वर के नए कार्य को चाहे स्वीकार करें या न करें, उनकी बाइबल की पिछली व्याख्याओं के साथ ही साथ परमेश्वर के नाम, उसकी छवि और उस पर विश्वास को लेकर उनके विचार और परमेश्वर में विश्वास करने के उनके तरीके पहले ही उनके दिल में आकार ले चुके होते हैं। यही नहीं, वे इन चीजों को संजोए रखते हैं, और यह मानते हुए कि उन्होंने कुछ लाभ कमाया है, वे असीम रूप से अहंकारी हो जाते हैं, और अपने आप को इतना अच्छा और निराला समझने लगते हैं कि परमेश्वर के आज के कार्य को उसके अतीत के कार्य से इतना भिन्न देखकर उसकी आलोचना करने लगते हैं। वे हमेशा अनुग्रह के युग की चीजें उठाकर उनकी तुलना आज के परमेश्वर, उसके आज के कार्य और आज के सत्य के साथ करने लगते हैं—क्या ये तुलना योग्य हैं? चीजों पर नियम लागू करने के बजाय तुम्हें इसका भान होना चाहिए : “अब मैंने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकार लिया है, लेकिन मैं कुछ चीजें ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ। मैं उनका अनुभव लेकर धीरे-धीरे उन्हें जानूँगा, मैं थोड़ा-थोड़ा करके उनका अनुसरण करूंगा, जैसे कोई चींटी हड्डी को कुतरती है, ठीक उसी तरह मैं उन पर थोड़ा-थोड़ा काम करूँगा और समय बीतने के साथ उन्हें समझ लूँगा।” परमेश्वर का कार्य अनंत रहस्यमय और अथाह है; इसकी तह तक मनुष्य कभी नहीं पहुँच सकता। एक-दो साल तक इसका अनुभव करने के बाद, लोगों को इसकी कुछ समझ मिल सकती है; तीन-चार साल में थोड़ी और समझ आ सकती है, और इसी तरह धीरे-धीरे वे बढ़ेंगे और बदलेंगे। उन पुरानी चीजों को लेकर उनके विचार धीरे-धीरे बदलेंगे और थोड़ा-थोड़ा करके वे उनसे किनारा कर लेंगे; जब लोग उन पुरानी चीजों को त्याग देंगे, तभी नई चीजों को समझ सकेंगे। वे पुरानी चीजें तुममें अभी तक गहरे पैठी हुई हैं और तुमने उनका पता लगाना भी शुरू नहीं किया है, फिर भी तुम जानबूझकर अपनी धारणाएँ फैलाने और अपनी राय व्यक्त करने की जुर्रत करते हो, और जो चाहो बोलते हो—इसमें कोई अर्थ नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि लोग बेहद अहंकारी बन जाते हैं? उसका कारण यही है। लोगों के भीतर की वे सड़ी-गली चीजें किसी काम की नहीं हैं, फिर भी वे इन्हें जानबूझकर कहने और फैलाने की हिम्मत करते हैं। क्या यह समझ से पूरी तरह रहित नहीं है? इसलिए, कुछ लोगों ने इस चरण का कार्य तो स्वीकार लिया है, परमेश्वर के वचन भी पढ़ लिए हैं लेकिन वे उन पुरानी चीजों को छोड़ने के बजाय इन्हें अपने भीतर ढोते रहते हैं। ऐसा क्यों है कि कुछ स्थानों के अगुआ और कार्यकर्ता अपनी धारणाओं से मेल खाते कार्य को तो लागू कर देते हैं मगर जब कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और वे इसे नहीं करना चाहते तो इसे लागू नहीं करते हैं? ऐसी स्थिति कैसे आती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग उन पुरानी चीजों को छोड़ नहीं पाते और अपने भीतर ढोते रहते हैं। तुम्हारे भीतर की वे पुरानी चीजें जितनी ज्यादा आकार लेती हैं, तुम उतना ही तीव्र विरोध करते हो। क्या यही बात नहीं है? ऐसा क्यों है कि इस समय धार्मिक संसार में कुछ अगुआ, जो जितने ज्यादा उच्च पद पर आसीन होते हैं और जितने ज्यादा लोगों की अगुआई करते हैं, उतने ही ज्यादा अहंकारी बन जाते हैं और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में उतने ही कम सक्षम होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग हमेशा अतीत की चीजों से चिपके रहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य और जीवन के रूप में ग्रहण नहीं करते, और वे परमेश्वर को सब चीजों में सर्वोच्च और महानतम मानकर सम्मान देने में सक्षम नहीं हैं। बल्कि वे अपनी धार्मिक धारणाओं और अपने विचारों और दृष्टिकोणों को सत्य और सच्चा मार्ग मानते हैं—क्या यह भयंकर भूल नहीं है? इस तरीके से क्या तुम कहीं भी सत्य पा सकोगे? अगर तुम अपनी उन बातों को सत्य मानते हो तो क्या तुम अब भी परमेश्वर से सत्य प्राप्त करने में सक्षम रहोगे? क्या तुम तब भी सत्य की खोज और इसकी कामना कर सकोगे?

कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के अनेक वचन पढ़े हैं, उसकी वाणी सुनी है, मैं सच्चा मार्ग स्वीकारता हूँ और जानता हूँ कि परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ने चाहिए। मैं अपनी समस्याएँ खुद हल करता हूँ, मुझे दूसरों की मदद नहीं चाहिए, और इससे तय होता है कि मेरा जीवन वृद्धि कर सकता है।” जब तुम इस तरह बात करते हो तो चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हो। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा प्रबोधन न करे और तुम सिर्फ अपने ही भरोसे रहकर परमेश्वर के वचन पढ़ो तो क्या उन्हें समझ पाओगे? अगर परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर न करें, तुम्हारी आंतरिक भ्रष्टता की चीर-फाड़ न करें तो तुम बदलाव लाने में सक्षम नहीं रहोगे—तुम्हें कोई समझ मिलनी मुश्किल हो जाएगी। लोग जब उपन्यास पढ़ते हैं तो उन्हें अच्छी तरह समझते हैं, उनके कई दृश्य उन्हें याद रहते हैं, और पढ़ने के बाद वे तुरंत लोगों को इसके बारे में बता सकते हैं। लेकिन जीवन के मामले किसी भी दूसरी चीज जैसे नहीं होते हैं। जीवन के मामले बहुत व्यापक होते हैं, और थोड़ी-सी समझ पाने से पहले तुम्हें बरसों विश्वास करना होता है। तुम जीवन भर परमेश्वर के एक कथन को अनुभव कर सकते हो, फिर भी इसे पर्याप्त रूप से अनुभव नहीं कर सकते हो। परमेश्वर का कथन चाहे जो हो, जब तक तुम आजन्म उसका पर्याप्त अनुभव नहीं कर पाओगे; तुम्हारी क्षमता चाहे जितनी अच्छी हो, फिर भी सत्य को समझने से पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने पर भरोसा करना होगा। उदाहरण के लिए, एक ईमानदार व्यक्ति बनना। अपनी झूठ बोलने की समस्या हल करने से पहले तुम्हें कितने साल का अनुभव चाहिए? ऐसा नहीं है कि तुम केवल एक-दो साल का अनुभव ले लो और फिर समस्या खत्म हो जाएगी, तुम और झूठ नहीं बोलोगे, धोखा नहीं दोगे, और अब एक ईमानदार व्यक्ति बन जाओगे। ऐसा हो ही नहीं सकता। यह नतीजा देखने से पहले तुम्हारे पास दशकों का अनुभव होना चाहिए। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग बहुत जटिल हैं, भ्रष्ट स्वभाव उनके भीतर गहरी जड़ें जमाए हुए है, उनकी धारणाएँ उन्हें सत्य में प्रवेश करने और परमेश्वर को जानने से रोकती हैं, उनके इरादे उन्हें अपना स्वभाव बदलने और सत्य का अभ्यास करने से रोकते हैं, और अपनी कथनी-करनी को लेकर वे जो विचार और दृष्टिकोण अपनाते हैं, वे उन्हें सत्य को समझने से रोकते हैं। राज्य के युग में परमेश्वर मनुष्य से जिस सत्य को हासिल करने की अपेक्षा करता है, अगर तुम उस सत्य के पक्ष में बोलने और कार्य करने में सक्षम हो तो आसानी से उसके कार्य के प्रति समर्पण कर पाओगे और परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकते हो। अगर तुम सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते तो परमेश्वर से बहुत दूर जाकर भटक रहे होगे या फिर परमेश्वर के विरोध में खड़े होगे। ऐसा मत सोचना कि इतने सारे उपदेश सुनने और इतने लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास कर लेने भर से तुम्हारे आध्यात्मिक कद में अब ज्यादा कमी नहीं है! सत्य की खोज जीवन पाने का मामला है, यह अनंत जीवन पाने का मामला। सत्य सदा अपरिवर्तनशील, सदा प्रयोज्य, अत्याज्य, अकाट्य, निर्विवाद है—यही सत्य का मूल्य और महत्व है। सत्य सर्वोच्च, सबसे गहन और सबसे मूल्यवान चीज है। यह बेशकीमती है, और कोई व्यक्ति जीवन भर के अनुभव के बाद क्या समझ और हासिल कर सकता है, इसकी भी सीमा होती है।

कोई कहता है, “मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करता हूँ और घर में खुद ही अपने विश्वास पर चलते हुए भजन गाता हूँ और परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ। चाहे किसी भी चरण का कार्य हो, मैं इसका अनुसरण करता हूँ और इस तरह अंत तक विश्वास पर कायम रहने से परमेश्वर मुझे पीछे नहीं छोड़ेगा।” इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है? तुम घर में रहकर अपने विश्वास पर चलने से सत्य का अनुसरण कैसे कर सकते हो? अपना कर्तव्य निभाए बिना परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे कर सकते हो? यदि अपना कर्तव्य नहीं निभाते हो तो तुम्हारे कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं होंगे, फिर तुम आत्म-निरीक्षण कैसे करोगे? परमेश्वर के वचनों के न्याय और उनकी ताड़ना का अनुभव कैसे करोगे? परमेश्वर के वचन तुम्हें कैसे उजागर करेंगे और तुमसे कैसे निपटेंगे? लोग घर में रहकर इन चीजों का अनुभव नहीं कर पाते हैं। क्या तुम व्यावहारिक अनुभव के बिना वाकई खुद को जान सकते हो? क्या सच में बदल सकते हो? परिवर्तन होना असंभव है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए तुम्हें कलीसिया का जीवन जीना होगा और अपना कर्तव्य निभाकर ही तुम चीजों का सही अनुभव कर सकोगे। अगर तुम घर में रहकर दस-बीस साल या उससे भी ज्यादा समय तक अपने विश्वास पर चलते रहे, और बड़े लाल अजगर को गिरा दिया गया और बड़ी आपदाएँ खत्म हो गईं तो क्या तुम अपने सचमुच अनुभवी होने और गवाही देने के बारे में बताने में सक्षम होगे? क्या तुमने परमेश्वर की तरह कष्ट सहे होंगे? इतनी सुंदर गवाही देने वाले परमेश्वर के लोग सचमुच बदल चुके होंगे, वे वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करेंगे और निष्ठावान होंगे—क्या तुम ऐसी गवाही दे सकोगे? मुझे डर है कि उस समय तुम बिल्कुल लज्जित हो जाओगे। परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा है कि बुलाए तो बहुत जाते हैं, लेकिन चुने बहुत कम जाते हैं? इसका कारण यही है कि भ्रष्ट मानवजाति में सत्य से प्रेम करने वाले बहुत कम हैं। अधिकतर लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य को स्वीकार करने योग्य तो और भी कम हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? कुछ लोग परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं, और जब तक घर में सब कुछ ठीक-ठाक है, वे कोई शिकायत नहीं करते। लेकिन जब कुछ गड़बड़ी हो जाती है, जब घर का कोई सदस्य बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो जाता है, या बच्चे को कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता, या कोई आपदा आती है तो वे मेज पर मुट्ठी मारकर परमेश्वर से शिकायत करते हैं, “परमेश्वर पर विश्वास करके मुझे क्या मिला? परमेश्वर ने मुझे आशीर्वाद नहीं दिया! तुम्हें मुझे आशीर्वाद देना चाहिए, मुझे समस्त आशीर्वाद दो, इसमें मेरे साथ मेरा पूरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी पत्नी (या मेरा पति), मेरे माँ-बाप हर कोई शामिल है। अगर मेरे परिवार के साथ ऐसा न हुआ होता तो क्या मैं ईमानदारी से सत्य की खोज नहीं कर रहा होता?” वे सत्य को हासिल न करने के लिए ऐसे बहाने बनाते हैं! क्या ये बहाने सच की जगह ले सकते हैं? वे मानते हैं कि उनके बहाने बिल्कुल पर्याप्त और तर्कसंगत हैं, और शिकायत करना जायज है। जब लोग परीक्षणों और पीड़ा से नहीं गुजर रहे होते हैं तो परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते। वे जोर-शोर से कहते हैं कि परमेश्वर कितना महान और अच्छा है। लेकिन जब परीक्षण और पीड़ा के क्षण आते हैं तो परमेश्वर के बारे में शिकायत करने की उनकी इच्छा कभी भी फट सकती है। वे न तो चीजों पर विचार करते हैं, न कोई और सोच-विचार करते हैं; वे तो बस स्वाभाविक रूप से अपनी भड़ास निकाल देते हैं। कुछ लोगों के परिवार के बजाय पशुधन के साथ कुछ होता है तो भी वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हैं। क्या यह निहायत बेहूदा नहीं है? अगर कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच सके जहाँ उसके परिवार के साथ चाहे जो भी हो या उस पर जो भी विपदा आ पड़े, वह परमेश्वर के बारे में शिकायत न करे या इस मामले को दिल पर न ले, या चाहे जो जाए वह अपने कर्तव्य में या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में देरी न करे, जब परमेश्वर के प्रति उनके आज्ञापालन पर प्रभाव न पड़े, और जब जो कुछ घटित हुआ है वह उसे परमेश्वर की स्तुति करने से न रोके तो यह साबित करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाला उनका हृदय शुद्ध है। यह सोच “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है” गलत है। अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास के बारे में इस सोच से चिपके रहे तो कभी भी सत्य हासिल नहीं कर सकोगे। अपने उन अविश्वासी सगे-संबंधियों को देखो जो रोज अपनी जिंदगी जीने में व्यस्त हैं; विपदाएँ आएंगी तो क्या वे बच सकेंगे? नहीं, नहीं बच सकेंगे। अगर तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास के बारे में सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने सगे-संबंधियों की तरह विपदाओं से बचने में सक्षम नहीं रहते तो तुम भी उनके साथ नष्ट हो जाओगे। लेकिन, अगर तुम सत्य का अनुसरण करो और सार को समझ सको तो तुम शैतान को ठुकरा सकोगे और यह सोचोगे, “वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। वे दुष्ट हैं और उन्हें विपदाओं में नष्ट हो जाना चाहिए। वे मुझे परमेश्वर पर विश्वास करने से रोका करते थे, परमेश्वर के प्रति अवज्ञा भरी ईशनिंदक बातें करते थे। विपदाओं में मरकर उन्हें उनकी करनी का सही फल मिला। इस तरह परमेश्वर के वचन सचमुच पूरे हो गए हैं।” तुममें पहले न तो यह विश्वास था और न दुष्टों को श्राप देने का साहस था। अब तुम दुष्टों के असली चेहरे देख रहे हो और तुम्हारा दिल इन परमेश्वर-विरोधी दुष्टों से घृणा करने को उछल रहा है, और अगर ये मर भी गए तो तुम्हारे पास इन्हें दफनाने भर का काम रहेगा। उनके प्रति इस प्रकार की सोच रखना दिखाता है कि तुम्हारा दिल सचमुच परमेश्वर की ओर मुड़ चुका है। अगर तुम्हारा दिल अब भी धारणाओं और कपोल-कल्पनाओं को पकड़े हुए है, हमेशा यह मानता है कि “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है, कि परिवार के पाले हुए पशु भी धन्य हैं, कि मकान भी धन्य है, खेत-खलिहान की फसलें भी धन्य हैं” तो ये चीजें तुम्हें सत्य खोजने, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने से रोकेंगी। यदि किसी व्यक्ति का हृदय पूरी तरह सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ा रहे तो उसका हृदय बहुत शुद्ध और सरल हो जाता है, और जब वैसा समय आता है तो उसे बहुत कम कष्ट होता है। ऐसा क्यों है कि तुम अभी इतना कष्ट सह रहे हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सारे दिन अपने परिवार और बच्चों के लिए भागदौड़ में लगे रहते हो और उनके लिए इतने प्रयत्न करते हो। अगर तुम खुद को पूरी तरह कलीसिया के लिए खपाओ, तो मैं साहसपूर्वक कह सकता हूँ कि तुम कहीं ज्यादा आराम से रहोगे, क्या ऐसा नहीं है? इसका कारण यह है कि तुम अभी खुद को पारिवारिक मामलों में बहुत अधिक व्यस्त रखते हो और कलीसिया के मामलों में बहुत कम, और चूँकि तुम्हारे घर के मसले इतने दुष्कर हो जाते हैं कि तुम इन्हें सह नहीं सकते और परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हो। लेकिन तुमने वास्तव में परमेश्वर को कितना अर्पित किया है? तुमने कुछ भी उल्लेखनीय अर्पित नहीं किया है! तुम अभी भी अपने घर और अपनी देह के सुखों के लिए इतनी भागदौड़ करते हुए व्यस्त रहते हो तो फिर तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत कैसे कर सकते हो? तुम्हें अब परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए। जो भी परमेश्वर पर विश्वास करता है, वह सत्य हासिल करने में सक्षम है और उसके पास परमेश्वर को जानने का मौका है—यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण, और इसका सीधा संबंध इस बात से है कि तुम उद्धार पाओगे या नहीं। हालाँकि, इससे पहले तुम्हें अपने अतीत के गलत इरादों, विचारों और समझ के साथ-साथ उन चीजों को भी देखना होगा जिनका तुम मन ही मन पीछा करते हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनकी चीर-फाड़ करते हुए उन्हें जानना होगा। जब तुम इन चीजों को साफ-साफ देख सकोगे, तभी इनमें कमी लाने का अभ्यास करते हुए इन्हें छोड़ सकोगे। तुम जितनी अधिक सफाई और तीक्ष्णता के साथ इन चीजों को देख सकोगे, उतनी की अधिक चीजों को छोड़ सकोगे और फिर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम इन सब पुरानी, गलत चीजों को छोड़ सकोगे। तब तुम कहीं अधिक आराम महसूस करोगे, और जब तुम उन सत्यों को अभ्यास में लाओगे जिन्हें समझ चुके हो और उनकी गवाही देने में सक्षम होओगे तो धीरे-धीरे बदलने लगोगे। अब तुम्हें इस दिशा में अभ्यास और प्रशिक्षण शुरू कर देना चाहिए, और धीरे-धीरे तुम इन चीजों से नियंत्रित और परेशान होना बंद कर दोगे—तब तुम परमेश्वर पर विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश कर चुके होगे।

क्या तुम सभी मेरी बात समझ चुके हो? क्या तुम जानते हो कि नए युग में कैसे प्रवेश करना है? क्या यह जानते हो कि तुम्हें किन पहलुओं को बदलना है और किन पहलुओं से प्रवेश करना है? शायद तुम यह न समझते होंगे। यद्यपि लोगों ने अतीत में कुछ प्रवेश किया, फिर भी उनके अनेक पहलुओं में कमियाँ थीं और वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाए। अब लोगों को नए युग में प्रवेश कराने के लिए परमेश्वर इतने अधिक वचन व्यक्त करता है। ऐसा क्यों है कि लोग परमेश्वर के वचनों और कार्यों को लेकर हमेशा धारणाएँ पाले रहते हैं? यह दिखाता है कि उन्होंने पहले सत्य हासिल नहीं किया और उनके पास सत्य की वास्तविकता नहीं है। यद्यपि तुम अब परमेश्वर के वचन पढ़कर इन्हें स्वीकारने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन ऐसा क्यों है कि अपने वास्तविक जीवन में तुम सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, और इसके बजाय हमेशा परमेश्वर के प्रति विद्रोही बनकर उसका विरोध करते हो? ऐसा क्यों है कि जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो तुम अपने विचारों और अपनी इच्छा के अनुसार चलते हो लेकिन परमेश्वर की आज्ञा नहीं मान पाते हो? इसका कारण यह है कि तुम्हारे भीतर बहुत ज्यादा दैहिक और स्वेच्छाचारी चीजें हैं और तुम हमेशा यही सोचते रहते हो कि तुम्हारा रास्ता ही सही रास्ता है। उपदेश सुनते हुए तुम्हें बहुत अच्छा लगता है और तुम कोई धारणा भी नहीं पालते हो, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो तुम सत्य का अभ्यास तो करना चाहते हो लेकिन नियंत्रण खो बैठते हो, और तुम्हारे अंदर की विद्रोही चीजें सिर उठाने लगती हैं। मैं कहता हूँ कि तुम बहुत विद्रोही हो, और अगर मुझ पर भरोसा न हो तो तुम अपना रिकार्ड रख सकते हो। हर बार जब भी तुम परमेश्वर का कोई कथन सुनो तो यह बात दर्ज करो कि तुम्हारे मन में कौन-कौन सी धारणाएँ आती हैं और तुम्हारे विचार क्या हैं, और फिर अपने अंदर की चीजें बाहर निकालो, उनकी चीर-फाड़ करो, परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर उन्हें कसो, तभी जानोगे कि तुममें कितना अधिक विद्रोह भरा है। इस तरह का अभ्यास तुम्हारे जीवन-प्रवेश के लिए लाभकारी है। तुम्हें तथ्यों का सामना कर खुद को खोलने का साहस करना चाहिए। जब तुम खुद को खोल पाते हो यह साबित करता है कि तुम्हारा दिल सत्य स्वीकारना चाहता है और धारणाएँ छोड़कर परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहता है। तुम्हें अपनी इच्छाएँ त्यागनी होंगी; तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह में मत लगे रहो, क्योंकि यह गलत है। यह परमेश्वर पर विश्वास तो कराने से रहा, इससे उसकी आज्ञा का पालन भी नहीं सीख पाओगे। जब ऐसा समय आएगा कि तुम परमेश्वर का आज्ञापालन आसानी से कर सकोगे तो तब तुम्हारे दिल में शांति और आनंद का अनुभव होगा; तब परमेश्वर के वचन पढ़ोगे तो अतिशय आनंद से भर उठोगे, परमेश्वर से प्रार्थना करोगे तो कहने के लिए शब्द मिलेंगे, और तुम उसके करीब से करीब आते जाओगे। जो लोग परमेश्वर से विद्रोह करते रहते हैं वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो ये वचन उनके अंदर नहीं उतरते—उनके दिलों में कौन-सी शांति और कौन-सा आनंद आएगा? जब लोग समस्याओं का सामना करते हैं तो उनकी धारणाएँ और कपोल-कल्पनाएँ सतह पर आ जाती हैं, और वे उनसे बच नहीं पाते। तब तुम्हें चिंतन-मनन कर सोचना चाहिए, “यह समस्या कैसे आई? ऐसी धारणा कैसे उपजी? इसका मूल कहाँ है?” तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसके वचन पढ़ने चाहिए, समस्या को समझना चाहिए और जब इसका समाधान निकल जाएगा तो तुम्हें जीवन-प्रवेश हासिल हो जाएगा। अगर तुम इस तरीके से अपनी समस्याओं का व्यावहारिक समाधान नहीं करोगे, यही सोचते रहोगे कि कुछ धारणाएँ पालना कोई बड़ी बात नहीं है और वे कुछ दिन में अपने-आप मिट जाएंगी, और यह भी कि एक बार समस्याएँ मिट जाएंगी तो इसका मतलब होगा कि तुम कोई धारणा नहीं पाल रहे हो, तो तुम्हें हमेशा यही लगेगा कि तुममें कोई धारणा नहीं है जबकि वास्तव में जब धारणाएँ पनपीं तो तुमने अनदेखी कर उन्हें बिगड़ने दिया। तब तुम्हें लगा कि इससे कोई हानि तो हुई नहीं है, और उसके बाद तो तुम यह स्वीकारोक्ति तक नहीं करते कि तुममें ये धारणाएँ थीं भी। आम तौर पर जब लोग काट-छाँट और निपटान के दौर से नहीं गुजरते, जब उन्हें कोई विपरीत स्थिति नहीं संभालनी पड़ती है तो उनमें धारणाएँ नहीं होती हैं और वे भूल जाते हैं कि उनमें कभी कोई धारणा थी भी। वे खुद को बहुत अच्छा मानते हैं और यह भी कि उनमें वाकई कोई धारणा नहीं है। लेकिन जब कुछ बुरा घटित होता है तो धारणाएँ पनपने लगती हैं और वे परमेश्वर का विरोध करने लगते हैं, और कुछ समय बाद धारणाएँ गायब हो जाती हैं तो वे इन्हें भूल जाते हैं, और एक बार फिर उन्हें लगने लगता है कि वे बहुत अच्छी स्थिति में हैं और परमेश्वर को लेकर उनके मन में कोई धारणा नहीं है—उनकी समस्या क्या है? वह यह है कि वे सचमुच सत्य को नहीं समझते और उन्होंने अपनी धारणाओं का समूल समाधान नहीं किया है। इसीलिए इस प्रकार की धारणाएँ तब तक बार-बार पनपती हैं जब तक कोई उनके साथ सत्य पर गहराई से संगति न करे, तब जाकर उनकी धारणाएँ अच्छे से हल होती हैं। जब अपनी धारणाएँ दूर करने की बात हो तो सच्चे मन से सत्य खोजे बिना बात नहीं बनेगी—महज सिद्धांत समझना बेकार है। जो लोग सत्य को नहीं समझते उन्हें अपने बारे में सीमित और सरसरा ज्ञान होता है। कभी-कभी जब उनमें धारणाएँ पनपती हैं तो वे उन्हें न तो खोज पाते हैं, न महसूस ही कर पाते हैं। किसी व्यक्ति की किसी मामूली धारणा का अगर समाधान न हुआ तो वह उसके कारण गलती नहीं करेगा, लेकिन अगर किसी बड़ी धारणा का समाधान न हुआ तो वह तुरंत गलती कर बैठेगा। खुद को जानने के लिए तुम्हें पहले अपनी धारणाओं और कपोल-कल्पनाओं का समाधान करना होगा, और उन गलत विचारों का भी जो अक्सर सिर उठाते हैं। फिर अपने विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करो, पहले छोटी-मोटी फिर बड़ी-बड़ी और जटिल भ्रष्टता का, और ऐसा करके तुम धीरे-धीरे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करोगे। खुद को जानने की शुरुआत सबसे पहले अपने अंदर मौजूद धारणाओं और कपोल-कल्पनाओं को जानने से होती है। जैसे-जैसे तुम्हारी सत्य की समझ गहरी होती जाएगी, तुम खुद को भी पहले से कहीं ज्यादा गहराई से जानने लगोगे। खुद को जानने के लिए तुम्हें अति-सावधान रहना होगा। अगर तुम खुद को जानने में सक्षम नहीं रहते तो तुम्हें जीवन-प्रवेश नहीं मिलेगा; जीवन-प्रवेश खुद को जानने से शुरू होता है। अगर तुम जीवन-प्रवेश चाहते हो तो फिर तुम्हें शुद्ध अंत:करण से सत्य खोजना होगा, अपनी समस्याएँ हल करने के मौकों का फायदा उठाना होगा, और एक भी मौका हाथ से नहीं जाने होगा। एक बार जब तुम अपनी धारणाओं को दर्ज कर लो तो तुम्हें सत्य खोजना होगा, खुद को खोलकर संगति करनी होगी, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनकी चीर-फाड़ करनी होगी। जब तुम सत्य को समझ जाओगे तो इस तरह की धारणाएँ पूरी तरह मिट जाएंगी। अगर ऐसे ही मसलों से तुम्हारा फिर से सामना हो और तुम्हारा दिल इनसे नियंत्रित होने लगे तो यह दिखाता है कि तुम सत्य को पूरी तरह नहीं समझ पाए हो, बल्कि सिर्फ सिद्धांत समझ सके हो, इसलिए तुम्हारी धारणाएँ कायम हैं। जब तुम सत्य को सचमुच समझोगे, केवल तभी तुम्हारी धारणाएँ पूरी तरह दूर होंगी, और भले ही वे भविष्य में दुबारा सिर उठाएँ, वे आसानी से हल हो जाएंगी और तुम उनके वश में नहीं आओगे, क्योंकि तुम सत्य को समझते हो। बताओ, क्या इस तरह खुद को समझना और सत्य में प्रवेश करना कठिन है? क्या इसके लिए बहुत प्रयास करना पड़ेगा? करना पड़ेगा! यदि तुम्हारे आत्मज्ञान में केवल सतही चीजों की सरसरी पहचान शामिल है—अगर तुम केवल कहते हो कि तुम अभिमानी और दंभी हो, कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो और उसका विरोध करते हो—तो यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि सिद्धांत है। तुम्हें इसमें तथ्य एकीकृत करने चाहिए : जिस किसी मामले में तुम्हारे गलत इरादे और विचार हों या बेतुके दृष्टिकोण हों, उन्हें संगति और चीर-फाड़ के लिए प्रकाश में लाना चाहिए। केवल यही वास्तव में खुद को जानना है। तुम्हें केवल अपने कार्यों से अपने बारे में समझ हासिल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें समस्या का मर्म समझकर समूल समाधान करना चाहिए। कुछ समय बीतने के बाद तुम्हें आत्मचिंतन कर यह सारांश निकालना चाहिए कि तुम किन समस्याओं का समाधान कर चुके हो और कौन-सी अभी बची हुई हैं। इसी तरह इन समस्याओं का भी समाधान करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा। तुम्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, ऐसा न हो कि किसी काम को करने या राजी करने के लिए तुम्हें हमेशा दूसरों की जरूरत पड़े, न अपनी लगाम दूसरों को सौंपो; जीवन में प्रवेश के लिए तुम्हारे पास अपना रास्ता होना चाहिए। तुम्हें अक्सर यह परीक्षण करना चाहिए कि तुमने जो बातें कही हैं या जो चीजें की हैं उनमें से कौन-सी सत्य के विरुद्ध हैं, तुम्हारे कौन-से इरादे गलत हैं और तुमने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है। अगर तुम हमेशा इसी रास्ते अभ्यास और प्रवेश करते हो—अगर खुद से सख्त मांगें करते हो—तो फिर तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने में सक्षम हो जाओगे और जीवन-प्रवेश कर लोगे। जब सचमुच सत्य को समझ लोगे तो जान जाओगे कि तुम वास्तव में कुछ भी नहीं हो। इसका एक कारण यह है कि तुम्हारा बहुत ही भ्रष्ट स्वभाव है; दूसरा यह कि, तुममें बहुत ज्यादा कमी है, और तुम कोई भी सत्य नहीं जानते हो। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब तुम ऐसा आत्म-ज्ञान पा लो तो तुम्हें अहंकार छू भी नहीं सकेगा, कई मामलों में तुम समझदार बन जाओगे, और आज्ञापालन करने लायक भी बन सकोगे। इस समय सबसे महत्वपूर्ण मामला क्या है? धारणाओं के सार पर संगति और चीर-फाड़ के जरिए लोग यह समझने लगे हैं कि उनकी धारणाएँ किन कारणों से बनती हैं; वे कुछ धारणाओं का समाधान करने में सक्षम होते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे हर धारणा का सार स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, इसका अर्थ यह है कि उनमें कुछ आत्म-ज्ञान तो है लेकिन उनके ज्ञान में पर्याप्त गहराई या स्पष्टता नहीं है। दूसरे शब्दों में, वे अभी भी न तो अपनी प्रकृति और स्वभाव को देख पा रहे हैं, न ही यह देख सकते हैं कि उनके दिल में कौन-कौन से भ्रष्ट स्वभावों ने जड़ें जमा ली हैं। इस तरीके से कोई व्यक्ति अपने बारे में कितना ज्ञान हासिल कर सकता है, इसकी भी एक सीमा है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे पता है कि मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी है—क्या इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं खुद को जानता हूँ?” ऐसा ज्ञान बहुत सतही है; इससे समस्या हल नहीं हो सकती। अगर तुम सचमुच खुद को जानते हो तो फिर अभी भी व्यक्तिगत उन्नति की तलाश क्यों करते हो, अभी तक रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए क्यों लालायित हो? इसका मतलब है कि तुम्हारी अहंकारी प्रकृति मिटी नहीं है। इसलिए बदलाव तुम्हारे सोच-विचार और तुम्हारी कथनी-करनी के पीछे छिपे इरादों से शुरू होना चाहिए। क्या तुम सभी स्वीकारते हो कि लोग जो कहते हैं उसमें से अधिकांश चुभने वाला और विषैला होता है, और यह भी कि उनके लहजे में अहंकार का पुट होता है? उनके शब्द उनके इरादों और व्यक्तिगत राय से लदे होते हैं। अंतर्दृष्टि वाले लोग इसे सुनकर उचित-अनुचित का फर्क समझ सकेंगे। कुछ लोगों के अंदर से जब अहंकार नहीं छलक रहा होता है तो वे अधिकांश समय एक खास तरीके से बात करते हैं और खास भाव-भंगिमाएँ दिखाते हैं, लेकिन अहंकार प्रकट होने पर उनका व्यवहार बहुत अलग होता है। कभी-कभी वे अपने आडंबरपूर्ण विचारों के बारे में उबाऊ बातें करते जाएँगे, कभी-कभी वे अपने नुकीले दाँत और पंजे दिखाकर तन जाते हैं। वे खुद को पहाड़ का राजा मान लेते हैं, जिससे शैतान का बदसूरत चेहरा उजागर हो जाता है। हर व्यक्ति के तमाम तरह के इरादे और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। जिस तरह चालाक लोग बात करते वक्त आँख मारते हैं और लोगों को कनखियों से देखते हैं—इन हरकतों में भ्रष्ट स्वभाव छिपा होता है। कुछ लोग छलावे वाली बातें करते हैं, और दूसरे लोग उनका मतलब कभी जान ही नहीं पाते। उनके शब्द गूढ़ और कपटपूर्ण होते हैं लेकिन बाहर से वे बहुत शांत और धीरोदात्त होते हैं। ऐसे लोग और भी अधिक फरेबी होते हैं, और उनके लिए सत्य को स्वीकारना और भी कठिन होता है। उन्हें बचाना बहुत मुश्किल है।

पहले लोग जब परमेश्वर पर विश्वास करते थे तो इतने भर से संतोष कर लेते थे कि उनके पास एक सुकून-भरा घर हो और उनका कामकाज आराम से चलता रहे, और वे मानते थे कि ऐसे जीवन का मतलब ही यह है कि परमेश्वर उनसे वाकई प्यार करता है और खुश है। अगर तुम सिर्फ इन्हीं चीजों से संतुष्ट हो गए तो सत्य के अनुसरण का मार्ग कभी नहीं पकड़ सकोगे। इसी बात से संतुष्ट होकर मत बैठ जाओ कि तुम्हारा जीवन बाहर से कितना ठीकठाक या आराम से चल रहा है; ये सतही चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। अब परमेश्वर से उद्धार पाने में यह शामिल है कि लोगों के अंदर शैतान से संबंधित गहरी पैठी चीजों को शुद्ध कर बदला जाए, उन्हें जड़ समेत उखाड़कर मनुष्य के सार और प्रकृति से बाहर निकाला जाए। परमेश्वर हमेशा मनुष्य के विचारों और इरादों की चीर-फाड़ क्यों करता रहता है? इसका कारण यह है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत ज्यादा जकड़ी हुई है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम चीजों को कैसे करते हो या तुम कैसे दिखते हो या तुम कितने लंबे हो, न वह यह देखता है कि तुम्हारा परिवार किस प्रकार का है या फिर तुम्हारे पास नौकरी है या नहीं—परमेश्वर इन चीजों को नहीं देखता है। परमेश्वर तुम्हारे सार को देखता है ताकि तुम्हारे सार की समस्याओं का समाधान कर उन्हें जड़ से उखाड़ सके। इसलिए इतना भर सोचकर संतुष्ट मत हो जाओ कि तुम्हारे पास एक सुकून-भरा घर है और सब कुछ आराम से चल रहा है, और इसका मतलब ही यह है कि परमेश्वर तुम्हें धन्य कर रहा है—यह गलत है। इन बाहरी चीजों के पीछे मत भागो, इनमें मत फँसो। अगर तुम इन्हीं चीजों से संतुष्ट हो गए तो यह दिखाता है कि परमेश्वर पर विश्वास का तुम्हारा लक्ष्य बहुत छोटा है, और तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने से बहुत पीछे छूट गए हो। तुम्हें अपना स्वभाव बदलने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और इसकी शुरुआत अपने स्वभाव और अपनी मानवता के साथ ही साथ अपने इरादों और परमेश्वर पर विश्वास करने संबंधी अपने विचारों को बदलने से करनी चाहिए। इस तरीके से जब तुम उन लोगों के संपर्क में आओगे जिन्होंने अभी-अभी परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है या जिन्होंने अभी तक उसे स्वीकार नहीं किया है, तो वे तुम्हारी झलक पाकर यह देख सकेंगे कि तुममें परिवर्तन हो चुका है और तुम जिसका अनुसरण कर रहे हो, वह अलग है। वे कहते हैं, “परमेश्वर पर अपने विश्वास के तहत हम और अधिक धन कमाने, रुतबा हासिल करने, अपने बच्चों को कॉलेज में प्रवेश दिलाने और बेटियों के लिए उपयुक्त जीवनसाथी खोजने में लगे रहते हैं। तुम इन चीजों को पाने की कोशिश क्यों नहीं करते? तुम इन चीजों को निरा गोबर और बिल्कुल बेकार मानते हो। फिर तुम कैसे परमेश्वर पर विश्वास करते हो?” फिर तुम उनके साथ इस बारे में संगति करते हो कि तुम्हारा अनुभव कैसा है, तुम्हारा कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव है, परमेश्वर कैसे तुम्हारी काट-छाँट और निपटारा करता है, तुम्हें ताड़ना देता है और तुम्हारा न्याय करता हैं, तुम कैसे आत्म-चिंतन करते हुए चीजों को समझते हो, और पश्चात्ताप कर खुद को बदलते हो। जब तुम लोगों से मिलते हो तो उन्हें यह दिखेगा कि तुम्हारी संगति कितनी व्यावहारिक है, इससे कुछ न कुछ पाकर उन्हें लाभ होता है, और यह भी कि लोगों को मनाने और प्रोत्साहित करने के लिए तुम महज सतही उपदेश नहीं दे रहे हो। तुम जीवन-प्रवेश और आत्म-ज्ञान के बारे में बात करने में सक्षम होगे, और यह साबित करेगा कि तुम वास्तव में नए युग के व्यक्ति हो, वास्तव में एक नए व्यक्ति हो। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अभी भी अतीत की बातें छेड़कर कहते हैं, “मैं प्रभु यीशु में विश्वास करता था, और मैं जहाँ कहीं कार्य करने जाता था, पवित्र आत्मा ने महान कार्य किया। जब मैंने सुसमाचार फैलाया तो बहुत सारे लोग मुझे सुनने को तैयार थे, और जिस किसी के लिए मैंने प्रार्थना की वह तेजी से ठीक हो गया…।” वे अभी तक इन चीजों के बारे में बातचीत करते हैं, और यह कितना पिछड़ापन है! तुम लोगों को जीवन में प्रवेश करने, स्वभाव में परिवर्तन और स्वयं को जानने जैसी जीवन-प्रवेश से जुड़ी जरूरी चीजों के बारे में बातचीत में अधिक समय लगाना चाहिए। जिन मामलों का सत्य से कोई सरोकार न हो, उनकी बात न करो। यदि तुम अक्सर इसका अभ्यास करते हो, तो तुम लोग कुछ-कुछ सत्य की वास्तविकता हासिल कर लोगे। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद में तुम लोग उस कार्य को करने में सक्षम नहीं हो जो जीवन के लिए प्रावधान देता है, न ही तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग कर सकते हो। तुम केवल लोगों को समझा-बुझा और प्रोत्साहित कर यह नसीहत दे सकते हो : “परमेश्वर की अवज्ञा या प्रतिरोध मत करो। इसके बावजूद कि हम बहुत भ्रष्ट हैं, परमेश्वर हमें बचाता है, इसलिए हमें परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना चाहिए और उसके सम्मुख समर्पण करना चाहिए।” यह सुनने के बाद, लोग इसे धर्म-सिद्धांत के तौर पर समझ लेते हैं, लेकिन फिर भी उनमें ऊर्जा की कमी के कारण उन्हें नहीं पता होता कि परमेश्वर के शब्दों का अभ्यास या अनुभव कैसे करें। यह साबित करता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में तुम लोगों के पास अभी सत्य की वास्तविकता नहीं है। अगर तुमने खुद प्रवेश हासिल नहीं किया है तो दूसरों का निर्वाह कैसे करोगे? तुम अन्य लोगों की कठिनाइयों और भ्रष्ट स्वभावों की जड़ तक नहीं पहुँच सकते हो, तुम मूल बात को समझ नहीं सकते हो, क्योंकि तुम अभी भी खुद को नहीं जानते हो। इस प्रकार कलीसिया के अपने कार्य में जीवन प्रदान करना तुम लोगों की क्षमता से परे है, और केवल लोगों को प्रोत्साहित करके और उन्हें अच्छे बनने और ईमानदारी से आज्ञापालन करने की नसीहत देकर तुम असली समस्याएँ हल करने लायक नहीं हो। यह इस बात का पर्याप्त सबूत है कि तुम लोगों ने सत्य को सही रूप में नहीं समझा है या कोई जीवन-प्रवेश हासिल नहीं किया है। तुममें से अधिकांश लोग केवल धर्म-सिद्धांत और खोखले धर्मशास्त्र का प्रचार करना जानते हैं, लेकिन तुम जीवन का प्रावधान नहीं दे सकते हो; इसलिए तुम सभी का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। परमेश्वर में आस्था के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में अभी परिवर्तन होना बाकी है। तुम्हारी समझ और तुम्हारे इरादे पहले जैसे ही हैं। अगर तुमने अपनी ही समस्याएँ नहीं सुलझाईं तो क्या दूसरों को बदलने की सलाह देकर भविष्य का रास्ता बता सकोगे? क्या तुम दूसरों के काम आ सकोगे? क्या उनकी समस्याएँ सुलझा सकोगे? अगर खुद को न बदल सके तो क्या दूसरों को सलाह देकर कोई परिणाम हासिल कर सकोगे? अगर तुम लोगों को सिखाने और प्रोत्साहित करने के लिए केवल सैद्धांतिक उपदेश दे सकते हो तो क्या दूसरों को सत्य समझा सकोगे? अगर तुम्हें खुद ही परमेश्वर के कार्य की कोई समझ नहीं है तो क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग तुम्हारी संगति सुनकर उसके कार्य को समझ सकेंगे? अगर तुम खुद ही अपने कर्तव्य को सिद्धांतों के बिना निभाओगे तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अच्छे से कर्तव्य निभाने के लिए कैसे तैयार करोगे? परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए वे कैसे ताकत जुटाएंगे? जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं उन्हें कलीसिया के उन तमाम तरह के लोगों की दशाओं को समझने में पारंगत होना चाहिए जिसने पास खुद भी परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में अनुभव और समझ है, और जो सच्चा आत्म-ज्ञान रखते हैं और सच्चे मन से पश्चात्ताप भी करते हैं। जो अगुआ और कार्यकर्ता इन चीजों में पारंगत हैं वे कुछ व्यावहारिक कार्य करने में भी सक्षम होंगे। जिन लोगों के साथ तुम काम कर रहे हो, अगर वे भी तुम्हारी तरह बिल्कुल भी आत्म-ज्ञान हासिल किए बिना दूसरों को पट्टी पढ़ा रहे हैं तो फिर यह साबित करता है कि तुम्हारे पास भी सत्य की वास्तविकता नहीं है, कि तुम खुद को नहीं जानते और तुममें कोई फर्क है ही नहीं। क्या तुमने इन चीजों के बारे में पहले कभी सोचा है? तुम केवल यह जानते हो “मुझे यहाँ शक्ति सौंपी गई है, मेरे पास रुतबा है, मैं कलीसिया में अधिकारी हूँ और अब मैं ऐसे मुकाम पर हूँ जहाँ मैं दूसरों को पढ़ा सकता हूँ।” तुम केवल अपने रुतबे और प्रतिष्ठा, दूसरों को पट्टी पढ़ाने और उपदेश देने, दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए जुटाने, खुद को कई कलीसियाओं में प्रभाव और उच्च प्रतिष्ठा दिलाने और अपनी स्थिति मजबूत करने पर ध्यान देते हो। सिर्फ इन्हीं चीजों पर ध्यान देना यह साबित करता है कि तुम भटक चुके हो। पुराने युग से नए युग में प्रवेश करने का अर्थ केवल यही नहीं है कि लोगों के काम करने और कहने के तरीके बदलें, बल्कि यह भी जरूरी है कि लोग उच्च प्रवेश करें, ऊँची कीमत चुकाएँ, अपनी देह की इच्छाओं को सदा-सदा के लिए त्याग सकें, दैहिक इच्छाओं के लिए अनुराग भी त्याग दें, अपने जीवन के रूप में सिर्फ सत्य का अनुसरण करें और सच्चे मानव के रूप में जीवन जीएँ। सिर्फ इसी तरीके से वे आमूलचूल परिवर्तन ला सकेंगे। नए कार्य में परमेश्वर मनुष्य से अवश्य ही नई माँगें करेगा, और मनुष्य अपनी पुरानी, पारंपरिक धारणाओं को पकड़े रखकर सिर्फ गति अवरोधक बनता है। कुछ लोग बाइबल पर अंध विश्वास करते हैं और कभी भी उससे दूर नहीं जा सकते—क्या वे ऐसा करके जीवन को हासिल करने और परमेश्वर को जानने में सक्षम हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। कई-कई पीढ़ियों तक फरीसियों ने बाइबल पढ़ी, और आखिरकार उन्होंने उस प्रभु यीशु को सूली पर टाँग दिया जो सत्य व्यक्त कर रहा था—ऐसा कैसे हो सकता था? अगर उन्होंने बाइबल को सचमुच समझा होता तो वे परमेश्वर को भी जानते, और जब प्रभु यीशु आया तो उसकी निंदा करने की बजाय उसका स्वागत किया होता। अब भी ऐसे अनेक लोग हैं जो इस मामले में पैनी समझ नहीं रखते हैं। वे अपने मन में हमेशा यही सोचते रहते हैं कि परमेश्वर ने चाहे जितने कथन कहे हों, उन्हें अभी भी बाइबल पढ़नी चाहिए और इससे दूर नहीं जाना है। इसका मतलब यह है कि उन्हें बाइबल में लिखी गई बहुत-सी बातें तो याद रह जाती हैं लेकिन परमेश्वर जिन सत्यों को अब व्यक्त कर रहा है उन्हें वे समझ नहीं पाते या अभ्यास में नहीं ला पाते हैं। अंत में वे अपने अनुभवों की सच्ची गवाही बिल्कुल नहीं दे पाते और त्याग दिए जाते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है? असलियत में अब भी ऐसे अनेक लोग हैं जो अक्सर बाइबल पढ़ते हैं लेकिन परमेश्वर के वचन बहुत ही कम पढ़ते हैं—ऐसा करना होशियारी है या मूर्खता? पहले जब वे प्रभु पर विश्वास करते थे तो लोग मानते थे कि अति उत्साह का मतलब उत्तम जीवन और अच्छी आस्था है। अब जब यह कहा जाता है कि स्वभाव बदले बिना केवल उत्साह दिखाकर कोई व्यक्ति परमेश्वर की सराहना नहीं पाएगा तो कुछ लोग हमेशा यही सोचते हैं कि परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है। मैं ऐसी सोच रखने वाले कुछ लोगों का पहले निपटारा कर चुका हूँ और उनमें से कुछ ने इसे स्वीकारा नहीं और ऐसे लोगों का बचाव करते हुए कहा, “ये लोग इतने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास करते आए हैं। उन्होंने कीमत चुकाई है और बहुत कष्ट भोगे हैं, और भले ही उन्होंने कोई योगदान न दिया हो लेकिन कड़ी मेहनत तो की ही है। तुम उनसे इस तरह कैसे पेश आ सकते हो?” कुछ लोग अपने विचारों को सुधार नहीं पाते। क्या इसे समझना मुश्किल है? लोग यह देखते हैं कि दूसरे लोग बाहरी तौर पर चीजें कैसे करते हैं जबकि परमेश्वर उनका सार देखता है, और यह बहुत कठिन चीज है। तुम केवल यह देखते हो कि कोई व्यक्ति बाहर से कैसे पवित्र दिखता है, वह कितनी अच्छी तरह बोल सकता है, कितनी भाग-दौड़ कर सकता है और कीमत चुका सकता है। तुम यह क्यों नहीं कह सकते कि ऐसे लोग कितनी धारणाएँ पाल रहे हैं, या वे कितने आत्म-तुष्ट और अहंकारी हैं? तुम इन चीजों को क्यों नहीं देखते? इसीलिए मैं कहता हूँ कि चीजों को लेकर तुम्हारे विचार अभी भी बहुत पुराने और पिछड़े हुए हैं। परमेश्वर अब यह नहीं देखता कि लोग बाहरी तौर पर कितनी कीमत चुकाते हैं; वह न तो चुकाई गई कीमत या तुम्हारी पूँजी के बारे में बात करता है, न यह कि तुमने कितना कष्ट भोगा है—वह तुम्हारे सार को देखता है। पहले वाले युग में लोगों को काम में लाने के सिद्धांत क्या थे? जो कोई खूब उत्साही होता, दौड़-भाग कर खुद को खपा पाता, सबसे लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा होता और सबसे बूढ़ा और अविवाहित होता—इस ब्योरे पर जो कोई ज्यादा खरा उतरता, उसकी उतनी ही ज्यादा प्रतिष्ठा होती और वह अगुआ बनने के लिए उतना ही काबिल होता। ये बातें अब बिल्कुल महत्वपूर्ण नहीं रहीं। अब तो व्यक्ति का सार ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि परमेश्वर पर विश्वास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि व्यक्ति का सार कैसा है, क्या वह परमेश्वर की स्तुति करने और परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने में सक्षम है या नहीं। अब जबकि परमेश्वर देहधारण कर चुका है, अगर तुम उसे नहीं जानोगे तो यह तुम्हारे बारे में क्या जताता है? क्या यह बात नहीं है कि तुम्हारा सार परमेश्वर का विरोध करता है? यह इस बात पर निर्भर है कि तुम्हारे विचार और इरादे परमेश्वर के अनुरूप हो सकते हैं या नहीं? अगर तुम सच्चा मार्ग स्वीकारने और पुराने इरादे और पुरानी धारणाएँ त्यागने में सक्षम हो सको तो तुम्हारे जैसे लोग परमेश्वर द्वारा स्वीकारे और धन्य किए जा सकेंगे। परमेश्वर लोगों को अपने काम में कैसे लाता है, इसके सिद्धांत हैं। वह तुम्हारी पूँजी, पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठा या रुतबा नहीं देखता है। जो उसका विरोध करते हैं, वह उन्हें उपयोग में नहीं लाता है—क्या यह उसके कार्य में देरी नहीं करेगा? लोग हमेशा अपनी पूँजी के बारे में बात करते रहते हैं और उनके अहंकार का कोई हिसाब नहीं होता—वे दुष्ट हैं! हम ऐसी चीजों के बारे में बात नहीं करते, जैसे नजराने, खुद को खपाना, पूँजी और प्रतिष्ठा—इन चीजों की बात करना फिजूल है! जो कोई परमेश्वर के प्रति सबसे निष्ठावान और उसकी आज्ञापालन का इच्छुक होगा, वही सत्य की वास्तविकता पा सकेगा, और हमें ऐसे ही लोग मंजूर हैं। क्या बाहरी चीजों को देखने में कोई तुक है? किसी व्यक्ति की बाहरी चीजें बदल सकती हैं, लेकिन उनकी प्रकृति की अनेक चीजें नहीं बदल पाएंगी, और किसी न किसी समय वे उभरेंगी। इसीलिए तुम्हें इन चीजों को जानना और खोजकर बाहर निकालना होगा। किसी व्यक्ति की प्रकृति में कई चीजें होती हैं! बेशक मनुष्य की प्रकृति अहंकारी, आत्म-तुष्ट और विद्रोही होती है, और ये सबसे बड़ी और सबसे गहरी समस्याएँ हैं। इनके अलावा मनुष्य के अंदर कई प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव भी होता है। इसलिए खुद को जानना आसान काम नहीं है। कुछ-कुछ काबिल लोग जब कुछ गलत या पाप करते हैं तो आसानी से इसे जान और समझ लेंगे। लेकिन अपनी प्रकृति, अपने स्वभावगत चीजें, खासकर जो चीजें उनकी बड़ी कमजोरियों से संबंधित हैं, उन्हें देखना और जानना उनके लिए सबसे कठिन होता है। यह मत समझो कि जब तुम कुछ गलत करके परमेश्वर से प्रार्थना कर लेते हो या कोई पाप करके इसे परमेश्वर के सामने कबूल लेते हो तो इसका मतलब यह है कि तुम खुद को जानते हो—यह आत्म-ज्ञान से एकदम अलग है! अगर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते तो फिर आगे बढ़ो और देखो। शायद एक दिन ऐसा आएगा जब तुम किसी समस्या का सामना करते हुए गिर पड़ो या गिरफ्तार कर लिए जाओ और रातोरात यहूदा बन जाओ, तो तुम खुद भी हतप्रभ रह जाओगे। अगर तुम जीवन में प्रवेश चाहते हो तो पहले खुद को जानना होगा; अगर तुम स्वभावगत बदलाव करना चाहते हो तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए और भी अधिक आत्म-चिंतन कर खुद को जानना होगा। जब तुम्हें आत्म-ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता मिलेगा, जब तुम्हारा आत्म-ज्ञान बढ़ेगा, जब तुम सत्य को अभ्यास में लाने का तरीका सीख जाओगे तो तुम्हें अपने आप जीवन में प्रवेश मिल जाएगा। स्वभावगत बदलाव इस बिंदु पर भी शुरू होता है। अगर तुम सचमुच खुद को जानने में सक्षम हो गए तो फिर तुम्हारे सामने जीवन-प्रवेश और स्वभावगत बदलाव के साथ आगे बढ़ने का रास्ता होगा, और ये चीजें तुम्हारी लिए आसान बन जाएंगी।

1995 के अंत में

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