मुझेस्वर्ग के राज्य में प्रवेश का मार्ग मिल गया है
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : "जब यीशु मनुष्य के संसार में आया, तो उसने अनुग्रह के युग में प्रवेश कराया और व्यवस्था का युग समाप्त किया। अंत के दिनों के दौरान, परमेश्वर एक बार फिर देहधारी बन गया, और इस देहधारण के साथ उसने अनुग्रह का युग समाप्त किया और राज्य के युग में प्रवेश कराया। उन सबको, जो परमेश्वर के दूसरे देहधारण को स्वीकार करने में सक्षम हैं, राज्य के युग में ले जाया जाएगा, और इससे भी बढ़कर वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर का मार्गदर्शन स्वीकार करने में सक्षम होंगे। यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य किया, जो सिर्फ इंसान के पापों को क्षमा करने का कार्य था। उसने हमें हमारी पापी प्रकृति से छुटकारा नहीं दिलाया। हमारे लिए अभी भी प्रभु के अंत के दिनों में वापस आने की ज़रूरत है, न्याय और शुद्धिकरण का कार्य करने के लिए, हमें अधिक सत्य प्रदान करने और हमारी पापी प्रकृति का समाधान करने के लिए, ताकि हम पाप के बंधनों को पूरी तरह तोड़ कर फेंक सकें। फिर आगे हम पाप नहीं करेंगे या परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे, हम ऐसे लोग बन जाएंगे जो परमेश्वर की आज्ञा और उसका भय मानते हैं। परमेश्वर के राज्य में हमारे प्रवेश के योग्य बनने का सिर्फ यही एक रास्ता है। मैं पहले परमेश्वर के कार्य को नहीं समझती थी। सोचती थी कि प्रभु ने हमारे पापों को माफ़ कर दिया था, इसलिए आस्था द्वारा हम न्यायसंगत हो गये हैं और स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन दस साल से भी ज़्यादा समय तक आस्था रखने के बाद भी मैं पाप करती ही जा रही थी और प्रभु के वचनों का अभ्यास नहीं कर पा रही थी। परमेश्वर पवित्र है और कोई भी अपवित्र इंसान उसे नहीं देख सकता, तो क्या मुझ जैसी पाप करते हुए जीने वाली इंसान को प्रभु के आने पर परमेश्वर के राज्य में सचमुच आरोहित किया जायेगा? मैं घबरायी हुई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। सिर्फ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद ही मैं समझ पायी कि परमेश्वर के कार्य के सबसे अहम चरण का मुझे कोई अनुभव नहीं था— यानी परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला अंत के दिनों का न्याय का कार्य। हमारी आस्था में, हमें परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय से गुज़रना पड़ता है, ताकि हमारे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध किया जा सके। बचाये जाने और राज्य में प्रवेश करने का बस यही एकमात्र रास्ता है। इस बारे में मैं अपना अनुभव साझा करना चाहती हूँ।
मैं अपने माता-पिता के साथ कलीसिया जाते हुए बड़ी हुई। मुझे प्रभु के वचनों के बारे में भाई-बहनों की संगति को सुनना बहुत भाता था। शादी के बाद भी, मेरे पति और मैं कलीसिया के काम को ही अहमियत देते थे। हम कलीसिया के छोटे-बड़े सभी सेवा कार्यों में सक्रियता से हिस्सा लेते थे। लेकिन वक्त गुज़रने के साथ, मैंने महसूस किया कि पादरी के धर्मोपदेश बड़े नीरस हैं, वे सिर्फ निरर्थक बातें ही करते हैं, और हमेशा हमें चढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। उन्हें हमारी ज़िदगी से ज़्यादा पैसों की फ़िक्र थी। पादरी और एल्डर्स पीठिकाओं और अपने ओहदों के बारे में बहस करते रहते और एक-दूसरे के ख़िलाफ़ साज़िश करते रहते। सेवा कार्यों में आनेवाले भाई-बहनों की संख्या घटती जा रही थी, वे आते भी, तो मामूली गपशप करते या देह-सुख की बातें करते, धर्मोपदेशों के दौरान सो जाते। मैं खुद भी प्रभु के मार्गदर्शन का अनुभव नहीं कर पाती थी, कलीसिया के सेवाकार्यों में भाग लेना बेहद थकाऊ होने लगा था। मैं प्रभु के वचनों का अभ्यास नहीं कर पाती थी, और पाप करके कबूल करने की स्थिति में जी रही थी। जब मेरे पति काम से घर वापस आते, तो कुछ और किये बिना बस वे ऑनलाइन गेम खेलने में डूब जाते, मैं उनका सिर खाकर फटकारे बिना नहीं रह पाती, दबंग लहज़े में उन्हें इधर-उधर के काम करने का हुक्म देती। जब वो नहीं सुनते तो मुझे और ज़्यादा गुस्सा आ जाता। उनका कोई काम धीरे-धीरे करना भी मेरी बरदाश्त के बाहर होता, निकम्मेपन से काम करने पर मैं उनकी आलोचना करती। वे भी हर वक्त मेरी आलोचना करते और कहते, "तुम विश्वासी बनने के इतने साल बाद भी बिल्कुल नहीं बदली हो।" मैं ज़रूर दोषी महसूस करती और प्रभु यीशु के वचनों के बारे में सोचती : "तू क्यों अपने भाई की आँख के तिनके को देखता है, और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? जब तेरी ही आँख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से कैसे कह सकता है, 'ला मैं तेरी आँख से तिनका निकाल दूँ?'" (मत्ती 7:3-4)। प्रभु ने हमें सिखाया कि हमें हर वक्त दूसरों की कमियाँ नहीं देखनी चाहिए, बल्कि अपनी खुद की खामियों को ज़्यादा जांचना चाहिए। लेकिन जब मेरे पति ऐसा कुछ कहते या करते जो मुझे पसंद नहीं, तो मैं उसे बरदाश्त नहीं कर पाती। मैं हमेशा अपना आपा खो बैठती और उनसे झगड़ा करने लगती। हमारा रिश्ता खराब होता जा रहा था, और मैं बहुत दुखी थी। परमेश्वर ने कहा : "पवित्र बने रहो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:44)। परमेश्वर पवित्र है, और कोई भी अपवित्र इंसान प्रभु को नहीं देख सकता। लेकिन मैं प्रभु की शिक्षा का पालन नहीं कर पा रही थी और न ही उसके वचनों का अभ्यास कर पा रही थी। मैं पाप के बंधनों से निकल नहीं पा रही थी, निरंतर पाप कर रही थी। मुझ जैसी कोई इंसान स्वर्ग के राज्य में कैसे प्रवेश कर सकेगी? यह विचार मुझे बेचैन कर देता।
एक बार सेवा कार्य के बाद, मैंने पादरी से अपनी उलझन के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, "फ़िक्र मत करो। भले ही हम अक्सर पाप करते हैं, प्रभु यीशु ने हमारे सभी पापों को माफ़ कर दिया है। अगर हम प्रभु से प्रार्थना करते रहें, कबूल करते रहें, तो जब वह आयेगा, हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाएगा।" उनकी बातों से मेरी उलझन नहीं सुलझी। बाइबल में कहा गया है, "सबसे मेल मिलाप रखो, और उस पवित्रता के खोजी हो जिसके बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा" (इब्रानियों 12:14)। "क्योंकि सच्चाई की पहिचान प्राप्त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं" (इब्रानियों 10:26)। यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि यदि हम प्रभु के वचनों का अभ्यास नहीं करते हैं, यदि हम जान-बूझ कर पाप करते हैं, तो पापों के लिए और बलिदान नहीं होंगे। तो जो लोग निरंतर पाप करते हैं, क्या वे सचमुच स्वर्ग में आरोहित हो पायेंगे? मुझे नहीं मालूम था कि पाप करना कैसे बंद करूं, इसलिए मैंने प्रभु की सिखायी हुई सहनशीलता और क्षमा पर कड़ी मेहनत की, मगर मैं इसे अभ्यास में ला ही नहीं सकी। दुखी होकर मैं फिर से पादरी के पास गयी। उसने लाचारी में सिर हिलाया और कहा, "मेरे पास भी पाप करके कबूल करने की समस्या का कोई हल नहीं है। पौलुस ने भी कहा है, 'इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूँ, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता, वही किया करता हूँ' (रोमियों 7:18-19) हम पाप किये बिना नहीं रह सकते, इसलिए प्रभु के सामने बस और ज़्यादा प्रायश्चित करो और कबूल करो, मैं भी तुम्हारे लिए और अधिक प्रार्थना करूंगा।" पादरी से यह सुनकर बहुत निराशा हुई। दुखी होकर मैंने प्रभु से प्रार्थना की : "हे प्रभु, मैं पाप नहीं करना चाहती, मगर मैं सचमुच बहुत लाचार हूँ। मेरे लिए पाप में जीना वाकई दर्दनाक है, लेकिन इससे निकलने का कोई भी तरीका मुझे नहीं मालूम। मुझे डर है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो तुम मुझे त्याग दोगे। हे प्रभु, मुझे बचा लो।"
जहाँ इंसान की नहीं चलती वहां परमेश्वर अपना काम करता है। मई 2018 में एक दिन बहन सूज़न से मेरी ऑनलाइन मुलाक़ात हुई। हमने बहुत देर तक बाइबल के बारे में संगति की। बाइबल के बारे में उसकी अंतर्दृष्टि बहुत अनूठी थी और उसकी संगति वाकई प्रबोधन देने वाली थी, इसलिए मैंने खोज की दृष्टि से अपनी चिंताएं और उलझनें उसके साथ साझा कीं। मैंने कहा, "मैंने कई सालों से प्रभु में विश्वास किया है, लेकिन मुझसे क्षमा और सहनशीलता का अभ्यास भी नहीं हो पाता है। मैं हमेशा पाप करती रहती हूँ। मुझे फ़िक्र है कि मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी। हमारे पादरी कहते हैं कि प्रभु यीशु ने हमारे सभी पापों को क्षमा कर दिया है, अगर हम प्रभु से अक्सर प्रार्थना करते रहें और कबूल करते रहें, तो जब वह आयेगा तो हमें स्वर्ग में ले जाएगा। लेकिन मेरा दिल अभी भी नहीं मानता। इस बारे में तुम क्या कहती हो?" बहन सूज़न ने कहा, "यह सच है कि प्रभु यीशु ने हमारे पापों को माफ़ कर दिया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम शुद्ध हो गये हैं, या हम पाप से मुक्त हो गये हैं। प्रभु यीशु ने कहा था, 'जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता; पुत्र सदा रहता है' (यूहन्ना 8:34-35)। 'जो मुझ से, "हे प्रभु! हे प्रभु!" कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है' (मत्ती 7:21)। प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहा कि हमारे पापों को क्षमा मिल जाने के कारण हम स्वर्ग में प्रवेश कर सकेंगे, उसने हमें बड़े स्पष्ट रूप से बताया है कि सिर्फ पिता की इच्छा पूरी करने वाले लोग ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।" "हम देख सकते हैं कि पापों को क्षमा मिल जाने के कारण हमारा परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर पाना इंसान की धारणा और कल्पना मात्र है। परमेश्वर के वचनों में इसका कोई आधार नहीं है। अनेक वर्षों की अपनी आस्था में हमने एक बात ज़रूर समझी है : लोग जब आस्था रखते हैं और पापों के लिए क्षमा कर दिये जाते हैं, तो भी वे पाप करने, फिर कबूल करने, कबूल करने, फिर पाप करने की दशा में ही जीते रहते हैं। इससे पता चलता है कि प्रभु में विश्वास करना और पापों के लिए क्षमा पाना और पाप के बंधनों और बाध्यताओं को तोड़ फेंकना, दोनों एक ही चीज़ नहीं है, इसका कतई यह मतलब नहीं है कि हम शुद्ध कर दिये गये हैं। परमेश्वर पवित्र है। वह कभी भी किसी ऐसे इंसान को अपने राज्य में नहीं आने देगा जो अभी भी पाप और उसका विरोध कर सकता हो। सिर्फ वही लोग जो परमेश्वर की आज्ञा मान कर उसकी इच्छा पूरी कर सकते हों, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।" उसकी संगति को सुनकर, मैंने सोचा, "बिल्कुल सही। अगर परमेश्वर सदा पाप करने वाले हम लोगों को स्वर्ग के राज्य में आने दे, तो उसकी पवित्रता कैसे व्यक्त होगी?"
उसने अपनी संगति जारी रखी। "भले ही हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं, कबूल करते हैं और उसकी शिक्षाओं का अभ्यास करने की बड़ी कोशिश करते हैं, मगर हम चाहे कड़ी-से-कड़ी मेहनत क्यों न कर लें, पापों के कारण लाचार ही रहते हैं। इसकी असली वजह क्या है?" फिर उसने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। "यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।" "क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है।... मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है।" "न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाय यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्धिकरण का कार्य है" (वचन देह में प्रकट होता है)।
इसे पढ़ने के बाद बहन सूज़न ने संगति जारी रखी। "भले ही हमें प्रभु यीशु ने छुटकारा दिलाया है और हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया है, मगर हमें पाप की ओर धकेलने वाली शैतानी प्रवृत्तियों का समाधान नहीं हो पाया है। यही कारण है कि हम हर वक्त पाप किये बिना और परमेश्वर का विरोध किये बिना नहीं रह सकते, हम प्रभु के वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते। अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने सिर्फ छुटकारे का कार्य किया, हमें पापों से छुटकारा दिलाने के लिए ताकि हम दंडित होने और व्यवस्था के बंधन से बच सकें, परमेश्वर के सामने आने लायक बन सकें और उसके दिये हुए अनुग्रह और उल्लास का आनंद ले सकें। भले ही प्रभु यीशु ने हमारे पापों को माफ़ कर दिया हो, हमारे शैतानी स्वभाव और प्रकृति का समाधान नहीं हो पाया। हम अभी भी बहुत घमंडी, खुदगर्ज़, कुटिल, स्वार्थी और घिनौने हैं। हम खुद को बहुत बड़ा समझते हैं, और चाहते हैं कि हर बात में हमेशा हमारा ही फैसला अंतिम हो, दूसरे हमारे कहे अनुसार ही काम करें। जब कोई व्यक्ति ऐसा कुछ करता है जो हमें पसंद नहीं है, तो हम उसे फटकार कर दबा देते हैं। साथ ही, हम निरंतर झूठ बोलते हैं और धोखा देते हैं, परमेश्वर से हमारी प्रार्थनाएं महज खोखले शब्दों, खोखले वायदों का पुलिंदा होती हैं। हम परमेश्वर की आज्ञा मानने और उससे प्रेम करने की बातें करते हैं, मगर असलियत में, हम सब-कुछ अपने फायदे के लिए करते हैं। हम सिर्फ आशीष पाकर उसके राज्य में प्रवेश करने की इच्छा से, परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं और त्याग करते हैं। प्रभु का अनुग्रह पाकर हम खुश होते हैं, लेकिन जब मुश्किलों या परीक्षाओं से हमारा सामना होता है, तो हम निराश होकर शिकायत करते हैं। यहाँ तक कि हम परमेश्वर को नकार सकते हैं या उसे धोखा दे सकते हैं। ये शैतानी स्वभाव बदतर हैं और हममें पाप से भी ज़्यादा गहरे पैठे हुए हैं। अगर इनको निकाला नहीं गया, तो शायद हम किसी भी पल दुष्टता और परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं। हम अभी भी शैतान की किस्म के हैं। हम परमेश्वर के राज्य के लायक कैसे हो सकते हैं? इसी वजह से प्रभु यीशु ने वापस आने का वायदा किया था। अंत के दिनों का मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है। उसने इंसान को शुद्ध करने और पूरी तरह से बचाने के लिए समस्त सत्य व्यक्त किया है। वह परमेश्वर के घर से शुरू करके न्याय का कार्य करता है। यह मुख्य रूप से भ्रष्ट इंसान के शैतानी स्वभाव और प्रकृति को सुधारने के लिए है, निरंतर पाप करने और परमेश्वर का विरोध करने की हमारी समस्या को उखाड़ फेंकने के लिए है, हमें अच्छी तरह से शुद्ध करके बचाने और हमें स्वर्ग के राज्य में लाने के लिए है।" "सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य और वचन प्रभु यीशु की इन भविष्यवाणियों को पूरा करते हैं : 'मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा' (यूहन्ना 16:12-13)। 'मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा' (यूहन्ना 12:47-48)। "और 1 पतरस में कहा गया है : "क्योंकि वह समय आ पहुँचा है कि पहले परमेश्वर के लोगों का न्याय किया जाए" (1 पतरस 4:17)। अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करके, हम सत्य को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे शैतानी स्वभाव को शुद्ध किया जा सकता है, और तभी हम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।"
मैंने देखा कि बहन सूज़न की संगति प्रकाश से परिपूर्ण और पूरी तरह से बाइबल के अनुरूप थी। मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गयी थी। मैं समझ सकी कि अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु ने केवल छुटकारे का कार्य किया था, वह इंसान की पापी प्रकृति को दुरुस्त करने का कार्य नहीं था। प्रभु में हमारी आस्था सिर्फ हमारे पापों के लिए क्षमा दिला सकती है, हमें अपनी पापी प्रकृति को जड़ से उखाड़ फेंकने, पाप से दूर रहने और शुद्ध होने के लिए अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय-कार्य से गुज़रना होगा। मेरी आँखें खुल गयीं। मैंने देखा कि परमेश्वर के कार्य का एक ऐसा चरण भी है जिसका मैंने अपनी आस्था में अनुभव नहीं किया है। मैंने इस बहन को संगति करते हुए सुना कि प्रभु यीशु पहले ही लौट आया है उसने इंसान को शुद्ध करके बचाने और आखिरकार परमेश्वर के राज्य में ले जाने की खातिर परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय-कार्य करने के लिए अनेक सत्य व्यक्त किये हैं। मैं बहुत जोश में थी, इसलिए मैंने खोज की दृष्टि से बहन सूज़न से तुरंत पूछ लिया, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर हमें शुद्ध करने के लिए अपना न्याय का कार्य कैसे करता है?"
उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़कर मुझे सुनाये। "वर्तमान देहधारण में परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से ताड़ना और न्याय के द्वारा अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इस नींव पर निर्माण करते हुए वह मनुष्य तक अधिक सत्य पहुँचाता है और उसे अभ्यास करने के और अधिक तरीके बताता है और ऐसा करके मनुष्य को जीतने और उसे उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने का अपना उद्देश्य हासिल करता है। यही वह चीज़ है, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के पीछे निहित है।" "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन देह में प्रकट होता है)।
फिर बहन सूज़न ने अपनी संगति को जारी रखा। "अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर न्याय का कार्य करने के लिए सत्य व्यक्त करता है। उसने इंसान को शुद्ध करने और पूरी तरह से बचाने के लिए पूरा सत्य व्यक्त किया है, और परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के सभी रहस्यों को प्रकट किया है। उसने शैतान द्वारा इंसान को भ्रष्ट किये जाने के सार और सत्य को प्रकाशित किया है, और परमेश्वर का विरोध करने की हमारी शैतानी प्रकृति को उजागर कर उसका विश्लेषण किया है, उसने यह बताया है कि हमारी प्रकृति में किस प्रकार का शैतानी स्वभाव और ज़हर है, इस शैतानी ज़हर से किस प्रकार की भ्रष्ट दशा और सोच पैदा होती है, और इन चीज़ों को कैसे दुरुस्त किया जाए। परमेश्वर के प्रति समर्पण क्या होता है, परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम क्या होता है, ईमानदार इंसान कैसे बनें, परमेश्वर के वचन इन सब सवालों के साथ सत्य के हर पहलू को स्पष्ट करते हैं। ये हमें अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग कर पूर्ण उद्धार प्राप्त करने का रास्ता दिखाते हैं। ये इंसान के सामने परमेश्वर का पवित्र, धार्मिक, अपमानित न हो सकनेवाला स्वभाव प्रकट करते हैं। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुज़र कर हम धीरे-धीरे सत्य को समझ सकते हैं, और शैतान द्वारा हमें भ्रष्ट किये जाने के सार और सत्य को समझ सकते हैं। फिर हम इस बात से नफ़रत कर सकते हैं कि शैतान ने हमें कितनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया है, परमेश्वर के सामने दंडवत होकर प्रायश्चित कर सकते हैं, सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। हमारे भ्रष्ट स्वभाव को धीरे-धीरे शुद्ध कर बदला जा सकता है, हम परमेश्वर के लिए थोड़ा आदर और आज्ञाकारिता हासिल कर सकते हैं। फिर हमारा पाप करना और परमेश्वर का विरोध करना कम होता जाएगा।" बहन सूज़न ने अपना निजी अनुभव भी मेरे साथ साझा किया। उसने कहा कि वह हमेशा खुद को दूसरों से ज़्यादा काबिल मानती थी, हर चीज़ में आत्म-केंद्रित थी और लोगों से अपने ही विचार मनवाने पर उतारू रहती थी। जो कोई भी उसका साथ नहीं देता था, उसे अलग कर भला-बुरा कहती थी। हर किसी के लिए यह दिल दुखाने वाला और दमघोंटू होता था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से, उसने महसूस किया कि वह "मैं ही सबसे ऊपर हूँ" और "दुनिया मेरे इशारों पर चलती है" वाली शैतानी व्यवस्था और तर्क के अनुसार जी रही है।" वह बहुत ज़्यादा अहंकारी और किसी के आगे न झुकने वाली इंसान थी, चाहती थी कि दूसरे हमेशा उसका कहा मानें और उसके विचारों पर चलें, मानो यही बातें सत्य हैं। उसमें परमेश्वर के प्रति ज़रा भी आदर का भाव नहीं था और वह पूरी तरह से अविवेकी थी। इससे परमेश्वर को घृणा हुई, और लोग दूर होते गये। वह चाहती कि दूसरे लोग हमेशा उसकी बात सुनें, यह एक निर्धारित शैतानी स्वभाव है। शैतान अहंकारी और दंभी होता है, हमेशा परमेश्वर के साथ बराबरी चाहता है। वह चाहता है कि लोगों पर नियंत्रण करे, लोग उसकी बात सुनें और उसका आदर करें, इसलिए वह परमेश्वर द्वारा अभिशप्त होता है। समस्या की प्रकृति और परिणामों को समझ लेने के बाद उसे डर लगा, फिर उसने खुद से नफ़रत करना और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना शुरू किया। दूसरों से संवाद में वह ज़्यादा विनम्र हो गयी। उसने पहले की तरह उनको नीची नज़रों से देखना और दबाकर रखना छोड़ दिया। जब दूसरे लोग सही होते, उनके विचार सत्य के अनुरूप होते, तो अक्सर वह उन्हें स्वीकार कर लेती, वह लोगों के साथ मिल-जुल कर रहने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों और उसके अनुभव के बारे में उसकी संगति सुनकर मेरे दिल में उजियारा छा गया। मैं जान सकी कि परमेश्वर हमारे भ्रष्ट स्वभाव के साथ न्याय कर उसे शुद्ध करने के लिए वचन बोल रहा है। हमें बचाने के लिए परमेश्वर का इस प्रकार कार्य करना बहुत व्यावहारिक है! मैं बरसों से विश्वासी रही हूँ, लेकिन पाप के बंधनों से छूट नहीं सकी। मैं भयंकर दुख-दर्द में जी रही थी, मगर आखिरकार मुझे रास्ता मिल गया है!
उसके बाद, मैंने एक फोन ऐप पर हर दिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ना, सुसमाचार की फ़िल्में देखना और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के भजनों को सुनना शुरू किया। मैं परमेश्वर के वचनों पर संगति करने के लिए भाई-बहनों के साथ सभाओं में भी शामिल होने लगी। मुझे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन का वाकई एहसास होने लगा था। अनेक वर्षों तक आस्था रखने के बावजूद जिन कई रहस्यों और सत्य को मैं नहीं जान पायी थी, उनको मैंने समझ लिया। मुझे वाकई आनंद आ रहा था। मेरा दिल जनता था कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है!
फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और भी वचनों को पढ़ा और अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में और समझ हासिल की। मैंने देखा कि मैं अक्सर दूसरों को नीचा दिखाती और फटकारा करती थी, इसमें मैं अपना शैतानी स्वभाव प्रकट करती थी। यह ऐसी चीज़ है जिससे परमेश्वर नफ़रत करता है। मैंने प्रायश्चित करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। मैं अब अपने शैतानी स्वभाव के आधार पर कार्य नहीं करना चाहती थी या हमेशा दूसरे लोगों की ग़लतियों पर ही ध्यान नहीं देना चाहती थी। यह बहुत ही अविवेकी है। जब मैं अपने पति को गेम खेलते या ऐसा कुछ करते देखती जो मुझे पसंद नहीं था, तो मैं अपने दिल के सुकून के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करती ताकि मैं उनसे शांत होकर बात कर सकूं। एक दिन मेरे पति ने अचानक मुझसे कहा, "तुम बदल गयी हो! सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद से तुम अलग लगने लगी हो। तुम अब पहले की तरह नाराज़ होकर मुझे झिड़कती नहीं हो, अगर कोई बात अच्छी न लगे तो ढंग से बात करके निपटा लेती हो।" मैंने मन-ही-मन परमेश्वर को बार-बार धन्यवाद दिया। मैं जान गयी थी कि यह सब मुझे परमेश्वर के वचनों के जरिये हासिल हुआ है। मुझे सच में तब हैरत हुई जब मेरे पति ने मुझमें ये बदलाव देखे, उन्होंने भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ना शुरू कर दिया और परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मेरे पति ने बाद में परमेश्वर के वचनों से महसूस किया कि ऑनलाइन गेम लोगों को लुभाने, उन पर काबू करने और भ्रष्ट बनाने के शैतान के तरीके हैं। उन्होंने ऑनलाइन गेम खेलने के सार और खतरे को समझना शुरू कर दिया, अब वे उनसे पहले जितना मोहित नहीं होते थे। हम लोग अब बहस में नहीं उलझते। हम दोनों एक साथ परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और आपस में संगति करते हैं। जब हमारे सामने कोई दिक्कत या समस्या पेश आती है, तो हम समाधान के लिए परमेश्वर के वचनों में सत्य को खोजते हैं। मैं सच्चे दिल से महसूस करती हूँ कि मुझे बस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य की ही ज़रूरत है, यह हमें शुद्ध करने और बचाने के लिए अहम है। मैंने आखिरकार शुद्ध किये जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का मार्ग पा लिया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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