जेल में गुजरा युवावस्था का प्रथम काल
हर कोई कहता है कि हमारे यौवन के प्रथम वर्ष हमारे जीवन का सबसे शानदार और सबसे निर्मल समय होता है। शायद कई लोगों के लिए, वे वर्ष खूबसूरत यादों से भरे होते हैं, लेकिन जिस बात की मैंने कभी उम्मीद भी नहीं की थी वह यह थी कि मैंने अपनी युवावस्था का प्रथम काल श्रम शिविर में व्यतीत किया। इसके लिए आप लोग मुझे अजीब समझ सकते हो, लेकिन मुझे इसका अफसोस नहीं है। यद्यपि सलाखों के पीछे का वह समय कड़वाहट और आँसुओं से भरा था, किंतु वह मेरे जीवन का सबसे मूल्यवान उपहार था, और मुझे इससे बहुत कुछ प्राप्त हुआ।
अप्रैल 2002 में एक दिन, जब मैं गिरफ्तारी हुई तो मैं एक बहन के घर रह रही थी। सुबह तड़के 1:00 बजे, अचानक दरवाजे पर जोरदार दस्तक से हम लोग जाग उठे। हमने बाहर किसी को चिल्लाते हुए सुना, "दरवाजा खोलो! दरवाजा खोलो"! जैसे ही बहन ने दरवाजा खोला, कुछ पुलिस अधिकारी दरवाजा धकेलकर तेजी से अंदर घुस गए और सख्ती से बोले, "हम लोक सुरक्षा ब्यूरो से हैं"। "लोक सुरक्षा ब्यूरो" इन तीन शब्दों को सुनकर मैं तुरंत बहुत घबरा गई। क्या परमेश्वर में हमारे विश्वास के कारण वे हमें गिरफ्तार करने के लिए यहाँ आए थे? मैंने कुछ भाइयों और बहनों को उनके विश्वास के कारण गिरफ्तार किए जाने, और सताए जाने के बारे में सुना था; कहीं ऐसा तो नहीं कि यही अब मेरे साथ भी होने जा रहा था? बस तभी मेरा हृदय तेजी से धड़कने लगा और अपनी घबराहट में मुझे समझ में नहीं आया कि अब क्या करना चाहिए। इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं तुझसे मेरे साथ रहने की विनती करती हूँ। मुझे आस्था और साहस दे। चाहे कुछ भी हो, मैं हमेशा तेरे लिए गवाही देने को तैयार रहूँगी। मैं तुझसे यह भी याचना करती हूँ कि मुझे अपनी बुद्धि दे और मुझे वे शब्द प्रदान कर जो मुझे बोलने चाहिए, ताकि मैं तेरे साथ विश्वासघात न करूँ और न ही अपने भाइयों और बहनों के विरुद्ध कोई सौदेबाजी करूँ।" प्रार्थना करने के बाद, मेरा हृदय धीरे-धीरे शांत हो गया। मैंने उन चार-पाँच पुलिस वालों को डाकुओं की तरह कमरे की तलाशी लेते हुए, बिस्तरों में, प्रत्येक अलमारी में, संदूकों में, और यहाँ तक कि बिस्तर के नीचे रखी हर चीज में भी तब तक खोजबीन करते देखा जब तक कि उन्होंने परमेश्वर के कथनों की कुछ पुस्तकें और साथ ही भजनों की कुछ सी.डी. नहीं जुटा लीं। इसके बाद वे हमें पुलिस स्टेशन ले गए। जब हम कार्यालय में पहुँचे, तो हमारे पीछे-पीछे कई हट्टे-कट्टे अधिकारी आए और मेरे दाएँ-बाएँ खड़े हो गए। दुष्ट पुलिस के गिरोह का मुखिया मुझ पर चिल्लाया, "तेरा नाम क्या है? तू कहाँ से आई है? तुम कुल कितने लोग हो?" मैंने अभी अपना मुँह खोला ही था और जवाब देने ही वाली थी कि वह मुझ पर झपट पड़ा और मेरे चेहरे पर दो तमाचे जड़ दिए। मैं बिल्कुल गुमसुम रह गई। मैंने मन-ही-मन सोचा, "उसने मुझे क्यों मारा? मैंने अभी अपना जवाब भी पूरा नहीं किया था। तुम लोग इतने रूखे और असभ्य क्यों हो रहे थे, जनता की पुलिस की मैंने जो कल्पना की थी, उससे तुम बिल्कुल अलग क्यों हो?" इसके बाद, उसने मुझसे पूछा कि मैं कितने साल की हूँ, और जब मैंने ईमानदारी से जवाब दिया कि मैं सत्रह वर्ष की हूँ, तो उसने फिर से मेरे मुँह पर दो थप्पड़ मारे और झूठ बोलने के लिए मुझे डाँटा। उसके बाद, चाहे मैंने जो भी कहा, वह इस तरह अंधाधुंध मेरे चेहरे पर तमाचे जड़ता रहा कि मेरा चेहरा दर्द से जलने लगा। मुझे अपने भाई-बहनों का कहा याद आया कि इन दुष्ट पुलिसकर्मियों के साथ तर्क करने की कोशिश काम नहीं आती है। खुद अपने लिए यह अनुभव कर लेने के बाद, मैंने एक शब्द भी नहीं बोला, चाहे वे कुछ भी पूछते रहे। जब उन्होंने देखा कि मैं नहीं बोलूँगी, तो वे मुझ पर चिल्ला उठे, "कुतिया की बच्ची! तेरे साथ कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि तू सोचने पर मजबूर हो जाए, वरना तू हमें सच नहीं बताएगी!" जैसे ही यह कहा गया, उनमें से एक ने मेरी छाती में दो जोरदार घूँसे मारे, जिससे मैं लड़खड़ाकर फर्श पर गिर पड़ी। फिर उसने मुझे दो बार जोर से लातें मारीं, और मुझे फर्श से वापस खींचकर और चिल्लाकर मुझे घुटने टेकने के लिए कहा। मैंने इसका पालन नहीं किया, तो उसने मेरे घुटनों में कई बार लात मारी। तीव्र दर्द की एक लहर ने जो मेरे ऊपर छाने लगी थी, मुझे फर्श पर धड़ाम से घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। उसने मुझे बालों से पकड़ा और बलपूर्वक मेरा चेहरा नीचे खींचने लगा, और फिर एक झटके से मेरे सिर को पीछे खींच कर उसने मुझे ऊपर देखने के लिए मजबूर कर दिया। वह मेरे चेहरे पर कुछ और थप्पड़ जड़ते हुए मुझे गालियां देने लगा। मेरी एकमात्र सुध यह थी कि दुनिया गोल-गोल घूम रही थी। मैं फर्श पर गिर पड़ी। बस तभी, दुष्ट पुलिस के प्रमुख की नज़र अचानक मेरी कलाई की घड़ी पर पड़ी। इसे लालच से घूरते हुए वह चिल्लाया, "तूने यह क्या पहन रखा है?" एक पुलिसकर्मी ने मेरी कलाई पकड़ी और जबर्दस्ती घड़ी को खींच लिया, और फिर उसे अपने "उस्ताद" को दे दिया। एक दुष्ट पुलिसवाले ने मुझे कॉलर से पकड़ लिया जैसेकि वह किसी छोटी-सी मुर्गी को उठा रहा हो, और मुझे फर्श से ऊपर उठाकर मुझ पर गरजा, "तो तू काफी ढीठ है, है न? मैं तुझे बताऊँगा कि चुप रहने का क्या अंजाम होता है।" यह कहते ही, उसने मुझे कुछ और झापड़ जमाए, और एक बार फिर मैं फर्श पर लुढ़क गई। तब तक मेरे पूरे शरीर में असहनीय दर्द होने लगा था, और मुझमें संघर्ष करने की अब और ताक़त नहीं बची थी। मैं बस अपनी आँखें मूँद कर फर्श पर लेटी रही, बिना हिले-डुले। अपने हृदय में, मैंने झट से परमेश्वर से प्रार्थना की: "परमेश्वर, मुझे नहीं पता कि दुष्ट पुलिस का यह गिरोह मुझ पर और कौनसे अत्याचार करने जा रहा है। तू तो जानता है कि मैं कद-काठी में बहुत छोटी हूँ, और मैं शारीरिक रूप से भी कमजोर हूँ। मैं तुझसे मुझे बचाने की विनती करती हूँ। यहूदा बनने और तेरे साथ विश्वासघात करने के बजाय मैं मर जाना पसंद करुँगी।" मेरी इस प्रार्थना के बाद, परमेश्वर ने मुझे आस्था और शक्ति से भर दिया। यहूदा बनकर परमेश्वर से विश्वासघात करने और अपने भाई-बहनों से धोखा करने से पहले तो मैं मर जाना पसंद करूंगी। मैं मजबूती से परमेश्वर के लिए गवाही दूंगी। ठीक तभी, मैंने अपने बगल में किसी को यह कहते हुए सुना कि, "यह अब हिल-डुल क्यों नहीं रही है? क्या यह मर गई है?" उसके बाद, किसी ने जानबूझकर मेरे हाथ पर अपना पैर रख दिया और उसे जोर से दबाते हुए क्रूरता से चिल्लाया, "उठ, हम तुझे कहीं और ले जाने वाले हैं।"
बाद में, मुझे काउंटी लोक सुरक्षा ब्यूरो में ले जाया गया। जब हम पूछताछ के कमरे में पहुँचे, तो उन दुष्ट पुलिसकर्मियों के प्रमुख और दो अन्य अधिकारियों ने मुझे घेर लिया और मेरे आगे-पीछे घूमते हुए, बार-बार मुझसे सवाल करते रहे और मेरी कलीसिया के अगुआ और मेरे भाई-बहनों को फंसा देने के लिए मुझ पर दबाव डालने की कोशिश करते रहे। जब उन्होंने देखा कि मैं अभी भी वे जवाब नहीं दे रही थी जो वे सुनना चाहते थे, तो उन तीनों ने मेरे चेहरे पर बारी-बारी से थप्पड़ जमाने शुरू कर दिए। मुझे नहीं पता कि मुझे कितनी बार मारा गया; जो कुछ मैं सुन सकती थी वह केवल मेरे चेहरे पर पड़ने वाली चटाक-चटाक की आवाज थी, वह आवाज जो रात के सन्नाटे में खूब गूँज रही थी। जब उनके हाथ थक गए, तो दुष्ट पुलिस ने मुझे किताबों से मारा। उन्होंने मुझे तब तक मारा जब तक अंतत: मुझे और दर्द महसूस होना बंद हो गया; मेरे चेहरे पर सूजन आ गई थी और वह सुन्न पड़ गया था। आखिरकार, यह देखकर कि उन्हें मुझसे कोई भी मूल्यवान जानकारी नहीं मिल रही थी, पापी पुलिस ने एक फोन बुक निकाली और बहुत खुश दिखते हुए बोले, "हमें यह तेरे थैले में मिली है। भले ही तू हमें कुछ भी नहीं बताएगी, तब भी हमारे पास एक और चाल है"! अचानक, मुझे बेहद चिंता महसूस हुई : अगर मेरे किसी भाई या बहन ने फ़ोन पर जवाब दे दिया, तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था। यह कलीसिया को भी फंसा सकता था, और परिणाम बहुत विनाशकारी हो सकते थे। ठीक तभी, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "संसार में घटित होने वाली समस्त चीज़ों में से ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसमें मेरी बात आखिरी न हो। क्या कोई ऐसी चीज़ है, जो मेरे हाथ में न हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 1)। मैंने सोचा, "यह सही है, सभी चीज़ें और घटनाएं परमेश्वर के हाथों आयोजित और व्यवस्थित होती हैं। यहाँ तक कि एक फोन कॉल भी लगेगा या नहीं, इसका फैसला पूरी तरह से परमेश्वर पर है। मैं परमेश्वर से आशा रखने, उस पर भरोसा करने और उसके आयोजनों को समर्पित होने को तैयार हूँ।" इसलिए मैंने बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना की, इन भाइयों और बहनों की सुरक्षा के लिए उससे विनती की। परिणामस्वरूप, जब उन्होंने उन फोन नंबरों को एक-एक करके मिलाया तो कुछ में घंटी तो बजी लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया, जबकि अन्य नंबर बिल्कुल नहीं लग सके। अंत में, निराशा में कोसते हुए, दुष्ट पुलिस ने फोन बुक को मेज पर फेंक दिया और प्रयास करना बंद कर दिया। मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिए और उसके प्रति प्रशंसा व्यक्त किए बिना नहीं रह सकी।
फिर भी, उन्होंने हार नहीं मानी, और कलीसिया के मामलों के बारे में मुझसे पूछताछ करते रहे। मैंने जबाब नहीं दिया। झुँझलाकर और बौखलाकर, उन्होंने मुझे पीड़ा देने की कोशिश में एक और भी अधिक घृणित तरीका अपनाया : एक दुष्ट पुलिसवाले ने जबरन मुझे फर्श पर एक घुटने पर बिठाया और मुझे अपने कंधों के समानांतर अपनी बाहों को सीधे फैलाने के लिए कहा, मुझे बिलकुल भी हिलने की अनुमति नहीं थी। जल्दी ही मेरी टाँगें थरथराने लगीं, मैं अपनी बाहों को बाहर की ओर अब और सीधा नहीं रख सकी, और मेरे शरीर ने बिना मेरे चाहे ही पीछे की ओर सहारे के साथ खड़े होना शुरू कर दिया। पुलिसकर्मी ने लोहे की एक छड़ ली और जैसे कोई बाघ अपने शिकार को देखता है, उस तरह मुझे घूरने लगा। जैसे ही मैं खड़ी होने लगती, वह क्रूरता से मेरे पैरों पर मारता, जिससे मुझे इतना दर्द होता था कि मैं लगभग अपने घुटनों पर वापस गिर जाती थी। अगले आधे घंटे में, जब भी मेरी टाँगें या बाँहें जरा-सा भी हिलतीं, तो वह तुरंत मुझे उस छड़ से मारता। मुझे नहीं पता कि उसने मुझे कितनी बार मारा। इतनी लंबी अवधि के लिए एक घुटने पर बैठने के कारण, मेरी दोनों टाँगें बेहद सूज गई थीं और उनमें असहनीय पीड़ा होने लगी थी, मानो वे टूट गई हों। जैसे-जैसे समय बीता, मेरी टांगें और भी अधिक काँपने लगीं और मेरे दाँत लगातार किटकिटाने लगे। बस तभी मुझे ऐसा लगा कि मेरी ताकत जवाब देने जा रही है। पर दुष्ट पुलिस सिर्फ मेरा मजाक उड़ा रही थी, लगातार उपहास कर रही थी और कुटिलतापूर्वक मेरी हँसी उड़ा रही थी, जैसे लोग क्रूरतापूर्वक किसी बंदर को खेल दिखाने के लिए मजबूर कर रहे हों। जितना अधिक मैं उनके बदसूरत, घृणास्पद चेहरों को देखती, उतनी ही अधिक इन दुष्ट पुलिसकर्मियों से मुझे नफरत महसूस होती थी। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "जब लोग अपने जीवन का त्याग करने के लिए तैयार होते हैं, तो हर चीज तुच्छ हो जाती है, और कोई उन्हें हरा नहीं सकता। जीवन से अधिक महत्वपूर्ण क्या हो सकता है? इस प्रकार, शैतान लोगों में आगे कुछ करने में असमर्थ हो जाता है, वह मनुष्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 36)। इसलिए मैं अचानक खड़ी हो गई और उनसे ऊँची आवाज में बोली, "मैं अब नीचे नहीं बैठूँगी। चलो, मुझे मौत की सजा दे दो! आज मेरे पास खोने को कुछ नहीं है! मैं अब मरने से भी नहीं डरती हूँ, तो मैं तुमसे क्यों डरूँ? तुम लोग इतने बड़े आदमी हो, फिर भी तुम बस मेरे जैसी एक छोटी सी लड़की को धौंस देना ही जानते हो!" मुझे आश्चर्य हुआ जब मेरे यह कहने के बाद, दुष्ट पुलिस के गिरोह ने सिर्फ कुछ और गालियाँ बकीं और फिर मुझसे पूछताछ करनी बंद कर दी।
दुष्ट पुलिस के इस झुंड ने लगभग पूरी रात मुझे यातनाएँ दी थीं; वे रुके तो सुबह हो चुकी थी। उन्होंने मेरे हस्ताक्षर लिए और कहा कि वे मुझे हिरासत में रखने जा रहे हैं। उसके बाद, एक बुजुर्ग पुलिसकर्मी ने दयालुता का नाटक करते हुए मुझसे कहा, "मिस, देखो; तुम बहुत छोटी हो—खिलते यौवन में हो—इसलिए बेहतर होगा कि तुम जल्दी करो और तुम जो भी जानती हो, वह बता दो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तुम्हें उनसे रिहा करवा दूँगा। यदि तुम्हें कोई परेशानी हो, तो मुझे बताने में संकोच मत करो। देखो; तुम्हारा चेहरा पाव रोटी की तरह फूल गया है। क्या तुम काफी पीड़ा नहीं उठा चुकी हो?" उसे इस तरह से बोलते सुनकर, मैं समझ गई कि वह मुझे किसी तरह से अपराध स्वीकारने के लिए फुसला रहा था। मुझे वह भी याद आया जो मेरे भाइयों और बहनों ने सभाओं के दौरान कहा था : जो वे चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिए दुष्ट पुलिस इनाम और सजा दोनों का उपयोग करेगी और तुम्हें धोखा देने के लिए सभी तरह की चालें चलेगी। यह सब सोचते हुए, मैंने उस बुजुर्ग पुलिसकर्मी को जवाब दिया, "ऐसा नाटक मत करो मानो तुम बड़े अच्छे इंसान हो; तुम सभी एक ही समूह के हिस्से हो। तुम मुझसे क्या कबूल करवाना चाहते हो? तुम जो कुछ भी कर रहे हो उसे धमकी देकर कबूल करवाना कहा जाता है। यह अवैध सजा है!" इसे सुनकर उसने निर्दोष होने का दिखावा किया और दलील देने लगा, "लेकिन मैंने तुम्हें एक बार भी नहीं मारा है। ये तो वे लोग हैं जिन्होंने तुम्हें मारा था।" मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन और सुरक्षा के लिए आभारी थी, जिसने मुझे शैतान के प्रलोभन पर एक बार फिर से विजयी होने दिया था।
काउंटी लोक सुरक्षा ब्यूरो छोड़ने के बाद, उन्होंने मुझे सीधे हिरासत केंद्र में बंद कर दिया। जैसे ही हम अगले द्वार से भीतर गए, मैंने देखा कि यह स्थान बहुत ऊँची दीवारों से घिरा हुआ था, जिनके ऊपर बिजली के काँटेदार तार लगे थे, और चारों कोनों में चौकसी के लिए एक-एक मीनार बनी हुई थी। उन पर सशस्त्र पुलिसकर्मी पहरेदारों के रूप में तैनात थे। यह सब बहुत खतरनाक और डरावना महसूस हो रहा था। एक के बाद एक लौह-द्वारों से गुजरते हुए, मैं एक कोठरी में पहुँची। जब मैंने सोने के लिए बने बर्फ-से ठंडे चबूतरे पर रखी और सन के कपड़े से ढकी रजाइयों को देखा, जो कि काली और गंदी दोनों ही थीं, और उनसे आने वाली तीखी बदबू को सूँघा, तो मैं घृणा की एक लहर महसूस किए बिना न रह सकी। भोजन के समय, प्रत्येक कैदी को केवल एक छोटी उबली हुई पाव रोटी दी जाती थी जो खट्टी और आधी कच्ची होती थी। भले ही आधी रात तक पुलिस वालों ने मुझे यातना दी थी और मैंने कुछ भी नहीं खाया था, पर इस भोजन को देखकर सचमुच मेरी भूख ही मिट गई। इसके अलावा, पुलिस द्वारा की गई पिटाई से मेरा चेहरा बहुत सूज गया था और ऐसा कसा हुआ महसूस होता था मानो उस पर कोई टेप लपेट दिया गया हो। खाने की तो बात ही छोड़ो, सिर्फ बात करने के लिए अपना मुँह खोलने में भी पीड़ा महसूस होती थी। इन परिस्थितियों में, मैं बहुत निराशाजनक मनोदशा में थी और अपने साथ बहुत ज्यादा अन्याय हुआ महसूस कर रही थी। इस विचार ने कि मुझे वास्तव में यहाँ रहना होगा और इस तरह के अमानवीय अस्तित्व को सहन करना होगा, मुझे इतना भाव-विह्वल बना दिया कि बरबस ही मेरे आँसू निकल आए। जो बहन मेरे साथ गिरफ्तार हुई थी उसने मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति की और मुझे यह समझ में आ गया कि परमेश्वर ने मुझे इस परिवेश में डाला था, और वह मेरी परीक्षा ले रहा था कि मैं गवाही दे सकती हूँ या नहीं। वह इस अवसर का उपयोग मेरी आस्था को पूर्ण करने के लिए कर रहा था। इसे समझते हुए, मैंने अपने साथ किए गए अन्याय को महसूस करना बंद कर दिया, और मैं अपने भीतर कठिनाई का सामना करने का संकल्प जुटाने लगी।
आधा महीना बीत गया, और उन दुष्ट पुलिसकर्मियों का मुखिया फिर से मुझसे पूछताछ करने आया। मुझे स्थिर और शांतचित्त देखकर, और यह देखकर कि मुझे बिल्कुल भी डर नहीं था, वह मेरा नाम लेकर चिल्लाया, "मुझे सच-सच बता : इससे पहले तुझे और कहाँ गिरफ्तार किया गया था? यह निश्चित है कि यह तेरा पहली बार अंदर आना नहीं है; वरना तू इतनी शांत और परिपक्व कैसे हो सकती है, जैसेकि तुझे जरा-सा भी कोई भय न हो?" जब मैंने उसे यह कहते हुए सुना, तो मैं अपने हृदय में परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी प्रशंसा किए बिना न रह सकी। परमेश्वर ने मुझे सुरक्षित रखा था और मुझे साहस दिया था, इस प्रकार उसने मुझे इन दुष्ट पुलिसकर्मियों का पूरी निर्भयता से सामना करने दिया था। ठीक तभी, मेरे हृदय के भीतर से आक्रोश उमड़ पड़ा : लोगों को उनकी धार्मिक मान्यताओं के कारण यातना देकर, जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें अकारण गिरफ्तार करके, धमकाकर और चोट पहुँचाकर तुम अपने अधिकार का दुरूपयोग कर रहे हो। तुम्हारा कार्य पृथ्वी और स्वर्ग दोनों के कानून के खिलाफ़ है। मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, और सही रास्ते पर चल रही हूँ; मैंने कानून नहीं तोड़ा है। मुझे तुमसे क्यों डरना चाहिए? मैं तुम्हारे गिरोह की बुरी ताकतों के सामने परास्त नहीं होऊँगी! फिर मैंने उसे मुँहतोड़ जवाब दिया, "क्या तुम्हें लगता है कि दूसरी हर जगह इतनी उबाऊ थी कि मैं वास्तव में यहाँ आना चाहूँगी? तुमने मेरे साथ अन्याय किया है और मेरे साथ जोर-जबर्दस्ती की है। धमकी दे कर मुझसे कोई बात कबूल करवाने या झूठे आरोप लगाने की तुम्हारी कोई भी कोशिशें आगे भी व्यर्थ जाएँगी।" यह सुनकर वह इतना आग-बबूला हो गया मानो उसके कानों से धुआँ निकलने ही वाला हो। वह चिल्लाया, "तू हमें कुछ भी न बताने की जिद ठाने है। तू नहीं बोलेगी, है न? मैं तुझे तीन साल की सजा देने जा रहा हूँ, और फिर हम देखेंगे कि तू सच बताएगी या नहीं। मैं तुझे जिद्दी बने रहने की चुनौती देता हूँ!" लेकिन तब तक मेरा आक्रोश थम चुका था। मैंने ऊँची आवाज़ में जवाब दिया, "मैं अभी जवान हूँ; तीन साल मेरे लिए क्या हैं? पलक झपकते ही मैं जेल से बाहर आ जाऊँगी।" अपने क्रोध में, वह दुष्ट पुलिस अफसर तेजी से उठ खड़ा हुआ और अपने अनुचरों पर गुर्राया, "मैं इससे तंग आ गया हूँ; आगे अब तुम ही इससे पूछताछ करो।" वह दरवाजा पटक कर चला गया। जो कुछ हुआ था उसे देखकर, उन दो पुलिसकर्मियों ने मुझसे और सवाल नहीं किए; उन्होंने मेरे हस्ताक्षर लेने के लिए एक बयान लिखने का काम पूरा किया और फिर बाहर चले गए। दुष्ट पुलिस की इस हार ने मुझे बहुत खुश कर दिया। अपने हृदय में मैंने शैतान पर परमेश्वर की विजय की प्रशंसा की। पूछताछ के दूसरे दौर के दौरान, उन्होंने अपनी चालें बदल दीं। जैसे ही वे दरवाजे से भीतर आए, उन्होंने मेरे बारे में चिंतित होने का नाटक किया: "तुम इतने लंबे समय से यहाँ हो। तुम्हारे परिवार के सदस्यों में से कोई भी तुम्हें देखने क्यों नहीं आया है? उन्होंने अवश्य तुम्हारा ख्याल करना छोड़ दिया होगा। क्यों न तुम खुद उन्हें फोन कर लो और उन्हें यहाँ तुमसे मिलने के लिए आने को कहो?" यह सुनकर मैं बहुत उदास और विचलित महसूस करने लगी। मैं खुद को बहुत अकेली और असहाय महसूस कर रही थी। मुझे घर की याद आ रही थी और मैं अपने माता-पिता की बेहद कमी महसूस कर रही थी, और जेल से आजाद होने की मेरी इच्छा अधिकाधिक तीव्र हो रही थी। बिना चाहे ही, मेरी आँखें आँसुओं से भर गईं, लेकिन मैं दुष्ट पुलिस के इस गिरोह के सामने रोना नहीं चाहती थी। चुपचाप, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं इस वक्त बहुत दुखी और पीड़ित महसूस कर रही हूँ, और मैं बहुत असहाय महसूस कर रही हूँ। कृपया मेरी मदद कर। मैं शैतान को अपनी कमजोरी नहीं दिखाना चाहती हूँ। फिर भी, अभी मैं तेरे इरादे को समझ नहीं पा रही हूँ। मुझे प्रबुद्ध करने और मेरे मार्गदर्शन के लिए मैं तुझसे अनुनय करती हूँ।" प्रार्थना करने के बाद, एक विचार अचानक मेरे दिमाग में कोंध गया : यह तो शैतान की चाल थी; मुझे अपने परिवार के लोगों से संपर्क कराने की कोशिश कुछ पैसा कमाने के अपने गुप्त अभिप्राय को पूरा करने के लिए उनसे कुछ फिरौती मँगवाने की चाल भी हो सकती है, या इससे वे यह पता लगा सकते हैं कि मेरे परिवार के सभी सदस्य भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं और वे उन्हें गिरफ्तार करने के लिए इस अवसर का उपयोग कर सकते थे। ये दुष्ट पुलिसकर्मी षड़यंत्रों से भरे हुए हैं। यदि परमेश्वर से प्रबुद्धता नहीं मिलती, तो मैंने घर पर फोन कर लिया होता। तब क्या मैं अप्रत्यक्ष रूप से यहूदा न बन गई होती? इसलिए, मैंने चुपके-से शैतान से घोषणा की : "नीच शैतान, मैं तुझे तेरी धोखाधड़ी में कामयाब नहीं होने दूँगी।" इसके बाद मैंने विरक्त भाव से कहा, "मुझे नहीं पता कि मेरे परिवार के सदस्य मुझसे मिलने क्यों नहीं आए हैं। तुम मेरे साथ अब चाहे जैसा भी व्यवहार करो, मुझे बिल्कुल भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।" दुष्ट पुलिस के पास अब और कोई चालें नहीं बची थीं। उसके बाद, उन्होंने मुझसे दोबारा कोई पूछताछ नहीं की।
एक महीना बीत गया। एक दिन, मेरे अंकल अचानक मुझसे मिलने आए, और बोले कि वे कुछ दिनों के बाद मुझे रिहा करवाने की कोशिश में हैं। जब मैं मुलाकात कक्ष से बाहर निकली, तो मैं बहुत खुश थी। मैंने सोचा कि मैं आखिरकार दिन की रोशनी, साथ ही साथ अपने भाइयों, बहनों और प्रियजनों को भी देख सकूँगी। तो मैंने दिवास्वप्न देखने शुरू कर दिए और अपने अंकल की मुझे लेने आने की प्रतीक्षा करने लगी; हर दिन, मैं संतरियों की इस आवाज के लिए अपने कान खुले रखती कि अब मेरी रिहाई का समय आ गया है। निश्चित रूप से, एक सप्ताह बाद, एक संतरी मुझे बुलाने आया भी। जब मैं खुशी से मुलाकात कक्ष में पहुँची तो ऐसा लग रहा था कि मेरा हृदय मेरे सीने से बाहर उछलने वाला है। पर जब मैंने अपने अंकल को देखा, तो उसने अपना सिर नीचे झुका लिया। काफी समय बाद उसने निराशाजनक स्वर में कहा, "उन्होंने पहले ही तुम्हारे मामले को अंतिम रूप दे दिया है। तुम्हें तीन साल की सजा सुना दी गई है।" जब मैंने यह सुना, तो मैं अवाक् रह गई। मेरा मन पूरी तरह से भावशून्य हो गया। मैंने अपने आँसुओं को रोका, और किसी तरह रोने से बची रही। इसके बाद ऐसा लगा कि मैं अपने अंकल की कोई भी बात सुन नहीं पा रही हूँ। मैं बेसुध-सी हालत में मुलाकात कक्ष से बाहर निकली तो ऐसा लग रहा था मानो मेरे पाँवों में सीसा भर दिया गया हो। एक-एक कदम उठाना भारी पड़ था। मुझे कुछ भी याद नहीं था कि मैं अपनी कोठरी तक कैसे लौटी। जब मैं वहाँ पहुँची, तो मैं फर्श पर ढेर हो गई। मैंने मन-ही-मन सोचा, "पिछले एक महीने के इस अमानवीय अस्तित्व का प्रत्येक दिन मुझे एक वर्ष की तरह लंबा महसूस हुआ है; मैं ऐसे तीन वर्षों को कैसे गुजार पाऊँगी?" जितना अधिक मैं इस पर विचार करती, मेरा दुख उतना ही बढ़ता जाता, और मेरा भविष्य उतना ही अधिक अस्पष्ट और अज्ञेय महसूस होने लगता। अपने आँसुओं को अब रोक पाने में असमर्थ होकर, मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। मुझे लगा था कि चूँकि मैं नाबालिग हूँ इसलिए मुझे कभी सजा नहीं होगी, या ज्यादा से ज्यादा कुछ महीनों की जेल होगी। मुझे लगा था कि मुझे थोड़ी और पीड़ा और कठिनाई सहनी है, कुछ दिन और टिके रहना है, फिर सब खत्म हो जाएगा; मुझे यह ख्याल ही नहीं आया था कि मुझे जेल में तीन साल तक बिताने पड़ सकते हैं। अपने दुख में, मैं फिर से परमेश्वर के सामने आ गई थी। मैंने उसके सामने अपना दिल खोलते हुए कहा, "परमेश्वर, मुझे पता है कि सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं, लेकिन अभी मेरा हृदय पूरी तरह से खाली महसूस कर रहा है। मुझे लगता है कि मैं अब टूटने वाली हूँ; मुझे लगता है कि जेल में तीन साल तक पीड़ा सहना मेरे लिए बहुत मुश्किल होने जा रहा है। परमेश्वर, मैं तुझसे विनती करती हूँ कि तू मुझ पर अपनी इच्छा प्रकट कर, और मैं विनती करती हूँ की तू मेरी आस्था और ताकत को बढ़ा, ताकि मैं तेरे सामने पूरी तरह से समर्पण कर सकूँ और मुझ पर जो आन पड़ा है, उसे साहसपूर्वक स्वीकार कर सकूँ।" इस प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : "इन अंतिम दिनों में, तुम्हें अवश्य ही परमेश्वर के प्रति गवाही देनी है। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हारे कष्ट कितने बड़े हैं, तुम्हें अपने अंत की ओर बढ़ना है, अपनी अंतिम सांस तक भी तुम्हें अवश्य ही परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और उसकी कृपा पर बने रहना चाहिए; केवल यही वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करना है और केवल यही सशक्त और जोरदार गवाही है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी और मैं समर्पण करने को तैयार हो गई। चाहे मुझ पर जो भी मुश्किल पड़े, या मुझे कितनी भी पीड़ा झेलनी पड़े, मैं परमेश्वर को ज़रा-भी दोष नहीं दूँगी; मैं उसके लिए गवाही दूँगी। दो महीने बाद, मुझे एक श्रम शिविर में ले जाया गया। जब मुझे मेरे फैसले के कागजात प्राप्त हुए और मैंने उन पर हस्ताक्षर किए, तो मुझे पता चला कि तीन साल की सजा एक वर्ष में बदल दी गई थी। अपने हृदय में मैंने बार-बार परमेश्वर को धन्यवाद दिया और उसकी स्तुति की। यह सब परमेश्वर के आयोजन का परिणाम था, और इसमें मैं अपने लिए उसके प्रचुर प्रेम और उसकी सुरक्षा को देख सकती थी।
श्रम शिविर में, मैंने दुष्ट पुलिस का एक और भी अधिक कुत्सित और बर्बर रूप देखा। हम सुबह बहुत जल्दी उठकर काम पर जाते थे, और हम पर हर दिन काम का बहुत सारा अतिरिक्त बोझ डाला जाता था। हमें हर दिन बहुत लंबे समय तक श्रम करना पड़ता था, और कभी-कभी तो कई दिनों तक दिन-रात लगातार काम करना पड़ता था। कुछ क़ैदी बीमार पड़ जाते थे और उन्हें ड्रिप (आईवी) लगाने की आवश्यकता पड़ती थी, और तब उनके ड्रिप की गति तीव्रतम निशान तक कर दी जाती थी ताकि जैसे ही यह समाप्त हो जाए, वे जल्दी से कार्यशाला में वापस आकर काम में लग जाएँ। इसका नतीज़ा यह हुआ कि अधिकांश कैदियों को बाद में कुछ बीमारियाँ हो गईं जिसका उपचार बहुत मुश्किल था। कुछ लोग, क्योंकि वे धीमे कार्य करते थे, बार-बार संतरियों से गालियाँ खाते थे; उनकी अश्लील भाषा सुनना भी बर्दाश्त से बाहर था। काम करते समय कुछ लोग नियमों का उल्लंघन करते थे, इसलिए उन्हें दंडित किया जाता था। उदाहरण के लिए, उन्हें रस्सी पर रखा जाता था, जिसका मतलब था कि उन्हें जमीन पर घुटने के बल बैठना पड़ता था और उनके हाथों को उनकी पीठ के पीछे बाँध दिया जाता था, और उनकी बाहों को बलपूर्वक दर्दनाक ढंग से गर्दन के स्तर तक ऊपर उठा दिया जाता था। अन्य लोगों को कुत्तों की तरह लोहे की जंजीर से पेड़ों के साथ बाँध दिया जाता था, और एक चाबुक से निर्दयतापूर्वक पीटा जाता था। कुछ लोग, जो इस अमानवीय यातना को सहन करने में असमर्थ होते थे, खुद को भूखा रख कर मारने का प्रयत्न करते थे, किंतु परिणाम केवल यह होता था कि दुष्ट संतरी उनके दोनों टखनों और कलाइयों में बेड़ियाँ डालकर और फिर उनके शरीर को अपने घुटनों के नीचे दबा कर, उनके मुंह में नलियों द्वारा तरल भोजन ठूँस देते थे। वे डरते थे कि कहीं ये कैदी मर न जाएँ। ऐसा इसलिए नहीं था कि वे उनके जीवन को प्यारा समझते थे, बल्कि इसलिए था कि उन्हें चिंता थी कि वे कहीं इतने सस्ते श्रमिकों को न खो दें। जेल के संतरियों द्वारा किए गए, दुष्कर्मों की कोई गिनती नहीं थी, और इसी तरह भयानक रूप से हिंसक और खूनी घटनाओं की भी कोई गिनती नहीं थी। इन सबने मुझे बहुत स्पष्ट रूप से यह दिखा दिया कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार शैतान का मूर्त रूप है, जो आध्यात्मिक दुनिया में सक्रिय है; यह सभी शैतानों में से दुष्टतम है और इसके शासन के तहत जेलें पृथ्वी पर मौजूद नर्क हैं—सिर्फ नाम से ही नहीं, बल्कि असलियत में भी। जिस कार्यालय में मुझसे पूछताछ की गई थी उसकी दीवार पर लिखे कुछ शब्दों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था, जो मुझे अब भी याद हैं : "मनमाने ढंग से लोगों को पीटना और उन्हें अवैध दंड देना निषिद्ध है, और यातना के माध्यम से ज़ुर्म कबूल करवाना तो और भी निषिद्ध है।" बहरहाल, वास्तविकता में, उनके काम साफ तौर पर इस निर्देश के विरुद्ध थे। उन्होंने मुझे, एक लड़की को जो अभी वयस्क भी नहीं थी, निर्दयतापूर्वक पीटा था, और मुझे अवैध दंड़ की भागी बनाया था; और इससे भी बढ़कर, उन्होंने मुझे केवल परमेश्वर में मेरे विश्वास की वजह से सजा सुनाई थी। इस सबने मुझे स्पष्ट रूप से यह दिखा दिया था कि सीसीपी सरकार लोगों को झाँसा देने के लिए चालबाजियों का इस्तेमाल करती है, और शांति और समृद्धि का झूठा दिखावा करती है। यह ठीक वैसा ही था जैसाकि परमेश्वर ने कहा था : "शैतान मनुष्य के पूरे शरीर को कसकर बांध देता है, उसकी दोनों आंखें बाहर निकालकर उसके होंठ मज़बूती से बंद कर देता है। शैतानों के राजा ने हज़ारों वर्षों तक उपद्रव किया है, और आज भी वह उपद्रव कर रहा है और इस भुतहा शहर पर बारीक नज़र रखे हुए है, मानो यह राक्षसों का एक अभेद्य महल हो; इस बीच रक्षक कुत्ते चमकती हुई आंखों से घूरते हैं, वे इस बात से अत्यंत भयभीत रहते हैं कि कहीं परमेश्वर अचानक उन्हें पकड़कर समाप्त न कर दे, उन्हें सुख-शांति के स्थान से वंचित न कर दे। ऐसे भुतहा शहर के लोग परमेश्वर को कैसे देख सके होंगे? क्या उन्होंने कभी परमेश्वर की प्रियता और मनोहरता का आनंद लिया है? उन्हें मानव-जगत के मामलों की क्या कद्र है? उनमें से कौन परमेश्वर की उत्कट इच्छा को समझ सकता है? फिर, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि देहधारी परमेश्वर पूरी तरह से छिपा रहता है : इस तरह के अंधकारपूर्ण समाज में, जहां राक्षस बेरहम और अमानवीय हैं, पलक झपकते ही लोगों को मार डालने वाला शैतानों का सरदार, ऐसे मनोहर, दयालु और पवित्र परमेश्वर के अस्तित्व को कैसे सहन कर सकता है? वह परमेश्वर के आगमन की सराहना और जयजयकार कैसे कर सकता है? ये अनुचर! ये दया के बदले घृणा देते हैं, ये लंबे समय से परमेश्वर का तिरस्कार करते रहे हैं, ये परमेश्वर को अपशब्द बोलते हैं, ये बेहद बर्बर हैं, इनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी सम्मान नहीं है, ये लूटते और डाका डालते हैं, इनका विवेक मर चुका है, ये विवेक के विरुद्ध कार्य करते हैं, और ये लालच देकर निर्दोषों को अचेत देते हैं। प्राचीन पूर्वज? प्रिय अगुवा? वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं! उनके हस्तक्षेप ने स्वर्ग के नीचे की हर चीज़को अंधेरे और अराजकता की स्थिति में छोड़ दिया है! धार्मिक स्वतंत्रता? नागरिकों के वैध अधिकार और हित? ये सब पाप को छिपाने की चालें हैं!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (8))।
दुष्ट पुलिसकर्मियों के उत्पीड़न का अनुभव करने के बाद, परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों के इस अंश से मैं पूरी तरह से आश्वस्त हो गई थी, और अब मुझे इसका कुछ वास्तविक ज्ञान और अनुभव हो चुका था: सीसीपी सरकार वास्तव में एक शैतानी सेना है जो परमेश्वर से नफरत करती है, उसका विरोध करती है, दुष्टता और हिंसा की वकालत करती है। शैतानी शासन के दमन में जीना मानवीय नर्क में रहने से भिन्न नहीं है। इसके अलावा, श्रम शिविर में, मैंने स्वयं अपनी आँखों से सभी प्रकार के लोगों की कुरूपता को देख लिया था : चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले उन अवसरवादी साँपों के घिनौने चेहरे जिन्हें प्रमुख संतरियों की कृपा प्राप्त थी, खूंखार रूप से हिंसक लोगों के वे राक्षसी चेहरे जो कमजोर लोगों पर धौंस जमाते थे, इत्यादि। मेरी बात करें तो, जिसने अभी तक एक वयस्क के रूप में जीवन की शुरुआत भी नहीं की थी, जेल के जीवन के इस एक वर्ष के दौरान, मैंने अंततः स्पष्ट रूप से मानव जाति की भ्रष्टता को देख लिया था। मैंने लोगों के दिलों के छल-कपट को देख लिया था, और यह महसूस किया था कि मानव संसार कितना अधिक भयावह हो सकता है। मैंने सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफ़ेद, सही और ग़लत, अच्छे और बुरे, तथा महान और घृणास्पद के बीच अंतर करना भी सीख लिया था; मैंने स्पष्ट रूप से देख लिया था कि शैतान कुरूप, दुष्ट तथा क्रूर है, और केवल परमेश्वर ही पवित्रता और धार्मिकता का प्रतीक है। केवल परमेश्वर ही सौंदर्य और भलाई का प्रतीक है; केवल परमेश्वर ही प्रेम और उद्धार है। परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा में, वह अविस्मरणीय वर्ष मेरे लिए बहुत जल्दी बीत गया। अब, पीछे मुड़कर देखने पर, मैं यह देखती हूँ कि यद्यपि जेल के जीवन के उस एक वर्ष के दौरान मैं कुछ शारीरिक कष्टों से गुजरी थी, किंतु परमेश्वर ने मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करने के लिए अपने वचनों का उपयोग किया था, और इस तरह मेरे जीवन को परिपक्व होने में सक्षम बनाया था। यह कष्ट और परीक्षण मेरे लिए परमेश्वर का विशिष्ट आशीष है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
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