सहयोग से सीखना
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यदि तुम समुचित ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सीखना चाहिए कि दूसरों के साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कैसे करें। अपने भाइयों और बहनों के साथ समन्वय करते समय तुम्हें निम्न बातों पर विचार करना चाहिए : सौहार्द क्या है? मैं जिस तरह उनसे बोलता हूँ, क्या वह सौहार्दपूर्ण है? क्या मेरे विचारों से उनके साथ सौहार्द उत्पन्न होता है? मैं जिस तरह काम कर रहा हूँ, क्या वह उनके साथ सौहार्द की ओर ले जाता है? विचार करो कि सौहार्दपूर्ण कैसे बनें। कई बार सौहार्दपूर्ण होने में धैर्य और सहनशीलता भी शामिल होती है, किंतु इसमें अपने विचारों पर दृढ़ और सिद्धांतों पर अडिग रहना भी शामिल है; इसका अर्थ सिद्धांतों की परवाह किए बिना मतभेद सुलझाना, या 'भला आदमी' बनने की कोशिश करना, या संयम के मार्ग से चिपके रहना नहीं है। विशेष रूप से इसका अर्थ किसी की ठकुरसुहाती करना नहीं है। ये सिद्धांत हैं। एक बार तुमने इन सिद्धांतों को अपना लिया, तो तुम अनजाने ही परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करोगे और सत्य की वास्तविकता को भी जिओगे; इस प्रकार तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ एकात्मता प्राप्त कर सकोगे। एक-दूसरे के साथ अपनी अंत:क्रियाओं में जब लोग जीवन-दर्शनों, अपनी धारणाओं, विचारों, इच्छाओं और स्वार्थपरता, और अपनी क्षमताओं, गुणों, विशिष्टताओं और चतुराई पर निर्भर रहते हैं, तब वे परमेश्वर के समक्ष एकात्मता प्राप्त करने में नितांत अक्षम होते हैं। चूँकि वे भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के अंदर रहकर जीवन-यापन और कार्य कर रहे होते हैं, इसलिए वे एकात्म नहीं हो सकते। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता। जब वह उन पर कार्य नहीं करता, और वे अपनी तुच्छ योग्यताओं, चतुराई, विशिष्टताओं पर, और उन्होंने जो बहुत थोड़ा-सा ज्ञान और कौशल प्राप्त किया है, उसी पर निर्भर बने रहते हैं, तब परमेश्ववर के घर में अपना पूर्ण उपयोग किए जाने को लेकर वे बहुत कठिन समय व्यतीत करते हैं, और उनके लिए परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना भी कठिन होता है, क्योंकि यदि परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं कर रहा है, तो तुम सत्य को अभ्यास में लाने अथवा चीज़ों को करने के सिद्धांत कदापि नहीं समझ सकते; अर्थात् तुम जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो, उसके पीछे निहित सिद्धांतों के सार या मूल को तुम कदापि नहीं समझ सकते, और न ही तुम जान सकते हो कि परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे कार्य करें या उसे आनंद पहुँचाने के लिए क्या करें। तुम यह भी नहीं जान सकते कि सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप कैसे कार्य करें। तुम इन सारभूत चीज़ों को नहीं समझ पाते; तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। अपना कर्तव्य पूरा करने के तुम्हारे संभ्रमित प्रयासों का विफल होना तय है, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें ठुकराया जाना निश्चित है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')।
मुझे याद है, तीन साल पहले हमें एक शो के लिए एक डांस कोरियोग्राफ करना था। गाने की धुन वाकई बहुत दमदार थी, इसलिए हाव-भाव और संरचनाओं में एक ख़ास जोश और जूनून होना ज़रूरी था, और हमें दस से ज़्यादा डांसरों की ज़रूरत थी। सभी डांसरों का चयन हो जाने के बाद, हमने रिहर्सल शुरू किये। शुरुआत में जब हम हाव-भाव के बारे में चर्चा कर रहे थे, तो हर किसी ने मेरी सोच और विचारों को स्वीकार किया। मैं मन-ही-मन संतुष्ट होकर सोचने लगी : "लगता है मैं बहुत प्रतिभाशाली कोरियोग्राफर हूँ।" इसी तरह मैं हमेशा सोचा करती थी कि मेरी हर राय सही होती है, मैं अपने भाई-बहनों के विचारों पर कम-से-कम ध्यान देती। मुझे याद है, एक बार हम गाने के बोल पर हाव-भाव की रिहर्सल कर रहे थे। हर किसी ने अपने विचार बताये, मैंने भी उनको अपनी राय दी। मैंने सोचा चूंकि यह गाने का चरम-बिंदु है, इसलिए हमें एक शानदार, तालमेल वाली संरचना बनानी चाहिए, लेकिन मेरी बात ख़त्म होते ही, एक और बहन ने अपने विचार रखे। उसने कहा : "बोल के अर्थ के अनुसार, हमें प्रभु के आगमन के लिये विश्वासियों की ललक को व्यक्त करना चाहिए, इसलिए मेरा ख्याल है कि हमें प्रार्थना की संरचना में एक-साथ आना चाहिए, ताकि हम प्रभु के आगमन के प्रति उनकी लालसा की ईमानदारी को व्यक्त कर सकें।" उसकी बात ख़त्म होते ही मैंने सोचा : "क्या? जब संगीत अपने चरम पर पहुंचे, तब प्रवाह और फैलाव दिखाने के बजाय हम गतिहीन रहेंगे? क्या इससे आवश्यक प्रभाव हासिल हो पायेगा?" मैंने उसकी राय को तुरंत ठुकरा दिया। मैंने देखा कि बह थोड़ी शर्मिंदा हो गयी, लेकिन मैंने उसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया। मेरा ख़याल था कि अगर तुम्हें कोई चीज़ ग़लत लगे, तो तुम्हें बता देना चाहिए। तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति ज़िम्मेदार होना चाहिए। दोपहर के भोजन के वक्त, घर जाते समय, एक भाई ने मुझसे कहा कि मुझे दूसरों के विचारों को इस तरह बिना सोचे-विचारे नहीं ठुकराना चाहिए, मुझे उनकी जांच करनी चाहिए। मुझे लगा कि उसकी बात ठीक है, लेकिन फिर मैंने सोचा : "मुझे नहीं लगता कि उसका प्रस्ताव ठीक रहेगा। यही नहीं, मेरा प्रस्ताव व्यावहारिक सोच पर आधारित है, इसलिए ज़रूर सही होगा। यह सही है या नहीं, तभी पता चलेगा जब सभी लोग इसे आजमायेंगे।" उस वक्त मुझे बहुत विश्वास था। लेकिन मुझे यह देख कर हैरत हुई कि उसकी रिहर्सल देखने पर, मेरा प्रस्ताव बिल्कुल सपाट और नीरस दिखाई पड़ा, जोशीले हाव-भाव या ऐसा कुछ भी न होने के बावजूद, उसके प्रस्ताव ने प्रभु के आगमन के प्रति विश्वासियों की लालसा को खूबसूरती से व्यक्त किया। वह दृश्य बहुत प्रेरक था और संगीत के बिल्कुल उपयुक्त था। सभी लोगों ने उसके प्रस्ताव को पसंद किया। मैंने थोड़ा अपमानित अनुभव किया। मुझे लगा कि अपनी कल्पना के आधार पर किसी दूसरे के विचार को इस तरह ठुकरा कर मैंने नासमझी दिखायी थी, लेकिन मुझे अब भी लगा कि मैंने इस मसले को ग़लत ढंग से संभाला। मैंने अपने व्यवहार को लेकर आत्मचिंतन करने पर ध्यान नहीं दिया।
उसके बाद जब कभी हम लोगों ने विचारों पर चर्चा की, मैं तब भी अक्सर सोचती कि मेरी राय सही है और मेरे विचार अच्छे हैं। कभी-कभार मैं किसी दूसरे का ऐसा प्रस्ताव सुनती जिससे मैं सहमत नहीं होती, तो मैं उसे तुरंत ठुकरा देती। कभी-कभार दूसरे लोग मेरे चुने हुए प्रस्तावों से अलग दूसरे प्रस्ताव चुनते, तो मैं उन्हें मंज़ूर नहीं करती। मैं सोचती : "तुम लोग आखिर क्या सोचते हो? मैंने जो प्रस्ताव चुना है उस में वैसा ही जोश है जो हमें चाहिए। तुम लोगों को ढंग की चीज़ पसंद करना नहीं आता!" इसलिए मैं उनसे ज़ोर देकर कहती रहती कि मेरा प्रस्ताव ही सही है। दूसरों के चुने हुए प्रस्ताव मुझे ठीक नहीं लगते, और मैं उन्हें अलग रख देती : "ये बेकार है।" "वो बेकार है।" समय के साथ, कुछ भाई-बहनों को लगने लगा कि मैं नियंत्रण कर रही हूँ, फिर उन लोगों ने अपने विचार व्यक्त करना बंद कर दिया। चर्चाओं में कम-से-कम लोग आने लगे और रिहर्सल भी धीमी गति से होने लगे। कई बार तो हम घंटों कुछ भी नहीं कर पाते। ऐसा लगता जैसे सभी रास्ते बंद हो गये हैं। जब प्रभारियों को पता चला, तो उन्होंने हम सबको एक बैठक के लिए बुलाया। वहां हमने परमेश्वर के वचनों के जो दो अंश पढ़े, वो मुझे स्पष्ट रूप से याद हैं। "इन दिनों, कई लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि दूसरों के साथ समन्वय करते समय क्या सबक सीखे जाने चाहिये। मैंने देखा है कि तुम लोगों में से कई लोग दूसरों के साथ सहयोग करते समय बिलकुल सबक नहीं सीख पाते; तुममें से ज़्यादातर लोग अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं। कलीसिया में काम करते समय, तुम अपनी बात कहते हो और दूसरे लोग उनकी बातें कहते हैं। एक की बात का दूसरे की बात से कोई संबंध नहीं होता है; दरअसल, तुम लोग बिलकुल भी सहयोग नहीं करते। तुम सभी लोग सिर्फ़ अपने परिज्ञान को बताने या उस 'बोझ' को हल्का करने में लगे रहते हो जिसे तुम भीतर ढोते हो और किसी मामूली तरीके से भी जीवन नहीं खोजते हो। ऐसा लगता है कि तुम केवल लापरवाही से काम करते हो, तुम हमेशा यह मानते हो कि कोई और व्यक्ति चाहे जो भी कहता या करता हो, तुम्हें अपने ही चुने मार्ग पर चलना चाहिये। तुम सोचते हो कि चाहे दूसरे लोगों की परिस्थितियां कैसी भी हों, तुम्हें पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार सहभागिता करनी चाहिये। तुम दूसरों की क्षमताओं का पता लगाने में सक्षम नहीं हो और ना ही तुम खुद की जाँच करने में सक्षम हो। तुम लोगों की चीज़ों की स्वीकृति वास्तव में गुमराह और गलत है। यह कहा जा सकता है कि अब भी तुम लोग दंभ का काफी प्रदर्शन करते हो, मानो कि तुम्हें वही पुरानी बीमारी फिर से लग गई है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। "जब भी किसी चीज़ से तुम्हारा सामना होता है, तुम लोगों को एक दूसरे से सहभागिता करनी चाहिये ताकि तुम्हारे जीवन को लाभ मिल सके। इसके अलावा, तुम लोगों को किसी भी चीज़ के बारे में कोई भी निर्णय लेने से पहले, उसके बारे में ध्यान से सहभागिता करनी चाहिये। सिर्फ़ ऐसा करके ही तुम लापरवाही से काम करने के बजाय कलीसिया की जिम्मेदारी उठा सकते हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "या उस 'बोझ' को हल्का करने में लगे रहते हो जिसे तुम भीतर ढोते हो," और "अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं," तो दिल में दर्द महसूस हुआ। मुझे हमेशा लगता था कि आगे बढ़ कर अपने विचार व्यक्त करना दूसरों को ग़लत करते देख उस बारे में बोलना, अपने कर्तव्य के प्रति ज़िम्मेदार होना है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने बर्ताव पर आत्मचिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है कि जब हम दूसरों के साथ काम करते हैं, तो हमें साथ मिलकर सत्य के सिद्धांतों को खोजना चाहिए, और दूसरों से सीख कर अपनी कमियों को पूरा करना चाहिए, तभी हम अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं। पुरानी बातें याद कर लगा कि मैं सिर्फ़ अपने विचारों को व्यक्त करने और यह साबित करने की परवाह करती हूँ कि मैं ही सही हूँ। मैं शांत रह कर दूसरों के विचारों को नहीं सुनती, न ही सिद्धांतों के अनुसार उनकी उपयुक्तता को आंकती। अगर मुझे लगता कि वे ग़लत हैं तो मैं उन्हें ठुकरा देती। ऐसा करके मैं अपने भाई-बहनों के साथ मिल-जुल कर काम नहीं कर रही थी। यह मेरा कर्तव्य के प्रति ज़िम्मेदार होना नहीं था।
फिर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "आत्मतुष्ट मत बनो; अपनी कमियों को दूर करने के लिए दूसरों से ताकत बटोरो, और देखो कि दूसरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे जीते हैं; और देखो कि क्या उनके जीवन, कर्म और बोल अनुकरणीय हैं। यदि तुम दूसरों को अपने से कम मानते हो, तो तुम आत्मतुष्ट और दंभी हो और किसी के भी काम के नहीं हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)। फिर मैंने अपने व्यवहार पर आत्मचिंतन करके परमेश्वर के वचनों से उसकी तुलना की। मुझे हमेशा लगता कि मेरे विचार दूसरों के विचारों से बेहतर हैं, हर बात में मैं ही सही हूँ। जब कभी कोई दूसरा व्यक्ति एक अलग प्रस्ताव लेकर आता, तो मैं इस बात पर विचार किये बिना कि परिणाम बेहतर होंगे या नहीं या क्या इससे परमेश्वर के वचनों का अर्थ बेहतर ढंग से व्यक्त हो पायेगा, मैं सरसरे तौर पर भी ध्यान दिये बिना उसे ठुकरा देती, आखिर में लोगों के साथ बहस कर उनके विचारों में कमियाँ निकालती। तभी मैंने देखा कि मैं वाकई कोई ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही थी, बल्कि बस अपना अहंकारी स्वभाव दिखाती थी। अपना कर्तव्य निभाने और अपने विचारों को बल देने के लिए मैं अपने अहंकारी स्वभाव पर भरोसा करती। मैं दूसरों की सलाह को मंज़ूर नहीं करती, यह नहीं सोचती कि परमेश्वर के घर के कार्य को कैसे लाभ पहुंचाया जाए, जिससे सबको लगने लगा कि वे मेरे द्वारा नियंत्रित हैं, इसलिए वे अब अपने विचार व्यक्त नहीं करना चाहते थे। कोरियोग्राफी बंद पड़ गयी, इससे फिल्मांकन के काम पर असर पड़ा। क्या मैं परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित कर शैतान की भूमिका नहीं निभा रही थी? जब यह विचार मेरे मन में कौंधा, तो मुझे बहुत बुरा लगा। यह एक सच्चाई है कि हरेक इंसान की सोच और विचार अलग होते हैं, हर कोई चीज़ों को अपने नज़रिये से देखता है। मुझे कम-से-कम उनके प्रस्तावों को सुनकर उन पर विचार करना चाहिए था, यह देखने के लिए कि उनमें कोई बात है या नहीं, वे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से आये हैं या नहीं। अगर मैं दूसरों के सुझावों को सुन सकती, तो मैं उनके प्रस्तावों की अच्छी बातें सीख कर अपनी कमियों को दूर कर पाती। इसके अलावा, किसी के प्रस्ताव रखने भर से कोई विचार कभी भी पक्का और पूरी तरह तैयार नहीं हो जाता। अगर सिद्धांत और दिशा सही हैं, तो हर कोई अपने विचार जोड़ कर अंत में उसे और बेहतर बना सकता है। लेकिन मैं हमेशा लोगों के प्रस्तावों में बुराइयां और कमियां निकालने की कोशिश करती थी, इसे दूसरों के साथ मिल-जुल कर काम करना और अपना कर्तव्य निभाना नहीं कहा जा सकता। अब मेरी समझ थोड़ी बेहतर हुई है। अब मैं अपने विचारों को अपने अहंकार का सहारा नहीं दे रही हूँ। मुझे सत्य को खोजना सीखना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाते समय उसे स्वीकार करना चाहिए। किसी के भी पास कोई विचार या प्रस्ताव हो जो परमेश्वर की गवाही दे सके, तो हमें उसके विचारों को स्वीकार करना चाहिए। स्वयं का त्याग करना, दूसरों के साथ काम करना और उनके प्रस्तावों को सशक्त बनाना सीख कर ही— हम पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाकर अच्छे परिणाम हासिल कर सकते हैं। इसके बाद मैंने सीखना शुरू किया कि कैसे स्वयं का त्याग करूं और रिहर्सलों के दौरान सभी के विचारों को गंभीरता से सुनूं। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरी अपेक्षा दूसरे लोग चीज़ों पर अक्सर पूरी तरह से विचार करते थे, जबकि मेरे अपने विचार पक्के नहीं होते थे। पहले, जब दूसरे अपनी राय व्यक्त करते, तो मैं बस सुनने का बहाना करती, जबकि वास्तव में मैं अपनी ही सोच में मगन रहती। कभी-कभार मैं ऐसे प्रस्ताव के बारे में सोचती जो मुझे बहुत बढ़िया लगता, फिर किसी और के बोलते समय उसे टोक कर अपना लंबा भाषण देती। मैं बहुत अहंकारी थी। मुझमें ज़रा भी समझ नहीं थी। फिर मैंने सीखना शुरू किया कि खुद को कैसे नकारूं। जब कभी मैं अपने विचार पर कायम रह कर दूसरों के प्रस्तावों को ठुकराना चाहती, तब मैं सोचती : "क्या मेरा विचार बिल्कुल सही है? क्या मैं उनके प्रस्तावों से कुछ सीख सकती हूँ?" जब मैं याद करती कि किस तरह मेरे प्रस्ताव हमेशा सही नहीं होते थे, तब मैं सचेत होकर स्वयं का त्याग करती और परमेश्वर से प्रार्थना करती। मैं खुद को अलग रख कर परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने और चीज़ों को स्पष्ट करने के लिए प्रार्थना करती। उन कुछ दिनों के दौरान मैंने अपना दृष्टिकोण कम व्यक्त किया, दूसरों की राय को अधिक सुना और उन पर अधिक विचार किया। सभी के साथ मिल कर काम करने से मेरी कमियाँ दूर हुईं। मैंने दूसरों के प्रस्तावों के बारे में सोच-विचार कर उनमें सुधार करने में मदद की। मुझे लगा कि अपने कर्तव्य को इस तरह से निभा कर, मैं दूसरों के साथ एकमत हो सकूंगी। मेरे दिल में बहुत सुकून और आनंद का अनुभव हुआ। उस दौरान, हममें से 10 से अधिक लोगों ने मिल-जुल कर काम करने के सत्य में प्रवेश किया, हमने कोरियोग्राफी में अच्छी तरक्की की। जल्दी ही, हमने सभी हाव-भावों को कोरियोग्राफ कर लिया।
कोरियोग्राफी का काम पूरा कर लेने के बाद, हमने रिहर्सल करने पर ध्यान देना शुरू किया। हाव-भाव की स्पष्टता और सुंदरता पक्की करने के लिए हमें हर हाव-भाव की कई-कई बार रिहर्सल करनी पड़ी, जब तक कि सभी ने उसमें महारत हासिल नहीं कर ली, और ग़लतियाँ नहीं रहीं, उसके बाद ही हम दूसरे हाव-भाव की ओर बढ़ सके। मुझे याद है रिहर्सल के एक मौके पर, मुझे लगा कि मैंने अच्छा डांस किया है और अब हम अगले हाव-भाव की ओर बढ़ सकते हैं। लेकिन जो बहन हमें निर्देश दे रही थी उसने किसी से कहा, "सुनो, फिर ग़लत किया। चलो फिर से शुरू करें।" मुझे यह बिल्कुल मंज़ूर नहीं था। मैं ग़लती करने वाले भाई या बहन को हिकारत और गुस्से से देखती और सोचती, "हमने इस हाव-भाव का इतनी बार अभ्यास किया। तुम अभी भी इसे कैसे ख़राब कर रहे हो? तुम इसे गंभीरता से नहीं ले रहे या बस आलसी हो गये हो?" जब मैं ताल से पहले या बाद में, ताल को लेकर किसी भाई या बहन के तालमेल में अंतर देखती, तो मैं और भी ज़्यादा नाराज़ होकर मन-ही-मन सोचती, "कई महीनों से हम इसकी रिहर्सल कर रहे हैं। यह संगीत हम अनगिनत बार सुन चुके हैं। अब तक तुम्हें ये करना आ जाना चाहिए, ठीक है? फिर भी तुम ग़लती क्यों कर रहे हो? तुम कमज़ोर काबिलियत वाले हो।" उनमें से कुछ लोग सही जगह की समझ न होने से ग़लत जगह पर खड़े हो जाते। निर्देश देने वाली बहन उनमें से एक से कहती, "अरे, सुनो! तुम फिर ग़लत जगह पर खड़े हो।" तब मैं और भी ज़्यादा नाराज़ होकर सोचती, "सही जगह पर खड़े होने के लिए अपने चारों तरफ तो देख लिया करो। बहुत मुश्किल काम नहीं है।" हालांकि कभी-कभार मेरे मन में आता कि मुझे दूसरों को नीची नज़र से नहीं देखना चाहिए, मगर हर बार जब उनमें से कोई ग़लती करता या अच्छा डांस नहीं करता, तो अपने चेहरे पर नाराज़गी दिखाये बिना मैं नहीं रह पाती।
एक दिन एक बहन ने मुझसे कहा : "हाल के दिनों में तुम्हारे कारण मैं बहुत बेबस महसूस करती रही हूँ। जब कभी मैं कोई हाव-भाव ठीक से नहीं निभा पाती या दूसरा कोई व्यक्ति कोई ग़लती करता है, तो तुम्हारे चेहरे पर हमेशा नाराज़गी और हिकारत होती है, मानो इस काम में तुम बहुत अच्छी हो और तुमसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता। हर बार जब मैं तुम्हारे चेहरे पर ऐसे भाव देखती हूँ, मुझे बहुत बुरा लगता है।" उसने मुझे यह बताया तो मैंने सहज रूप से उसका विरोध किया और कहा कि वह गलत है, लेकिन बाद में मैं बहुत परेशान हुई। उसकी बात मुझे कचोटती रही। वह बिल्कुल सही थी। हाल ही में, रिहर्सलों के दौरान मैं अपना गुस्सा दिखा रही थी। भले ही मैंने कुछ भी न कहा हो, लेकिन मेरे हाव-भाव मेरे अहंकारी स्वभाव को दिखा रहे थे, दूसरों को बेबस महसूस करा रहे थे। इस बारे में सोच कर मैं उदास हो गयी। मैंने सोचा, "मेरा अहंकारी स्वभाव अब तक कैसे नहीं बदला?" फिर कुछ दिनों बाद एक बैठक में, सभी लोग रिहर्सलों की समस्याओं और अपनी दशा के बारे में खुल कर बोलने लगे। एक भाई ने कहा कि उसने ऐसा डांस पहले कभी नहीं सीखा, हालांकि वह इसे अच्छी तरह करना चाहता है, मगर उसका शरीर साथ नहीं दे रहा। जब कभी वह देखता कि उसकी ग़लती की वजह से दूसरों को दोबारा अभ्यास करना पड़ रहा है, तो वह परेशान होकर खुद को दोष देता। कुछ बहनों ने कहा कि उन्हें संगीत की समझ नहीं है, जब कोई डांस शुरू होता, तो वे हाव-भाव के बारे में सोचती रहतीं और समय का ख़याल नहीं रख पातीं। कुछ और बहनों ने कहा कि उन्होंने पहले हमेशा सिर्फ़ एक ही जगह पर डांस किया है, यह पहली बार है कि उन्हें एक संरचना में आगे बढ़ना पड़ रहा है, इसलिए वे उलझन में पड़ जाते। जब मैंने सभी को अपने मन की बातें कहते सुना, तो बहुत शर्मिंदा महसूस किया और खुद को दोष दिया। दूसरों से ग़लतियाँ होने पर अपने चेहरे पर हिकारत का भाव लाने के बारे में सोच कर, मैंने और भी बुरा महसूस किया। वे सब इन समस्याओं को लेकर बेचैन थे और भरसक कोशिश कर रहे थे। लेकिन मैंने न कोई सहानुभूति दिखायी, न ही इन कठिनाइयों से उबरने में उनकी मदद की, बल्कि मैंने उनसे रूखा व्यवहार किया और उन पर नाराज़ हुई। मैंने उन्हें बेबस और आहत महसूस कराया। मेरी इंसानियत कहाँ थी? इस तरह से मैं उनके साथ कैसे मिल-जुल कर काम कर सकती हूँ?
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। अंत में तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद ही मैं अपनी अहंकारी प्रकृति की थोड़ी समझ हासिल कर पायी। अपनी अहंकारी प्रकृति से नियंत्रित होकर, मैं खुद के बारे में बहुत ऊंचा सोचती, मानो मैं बाकी सब लोगों से बेहतर हूँ। जब दूसरे लोग अलग प्रस्ताव लेकर आते, तो मैं खुद को सही मानकर, अपने ही प्रस्तावों के बारे में सोचती रहती। मैं अपने विचारों से मज़बूती से चिपकी रहती और दूसरों के प्रस्तावों को ठुकरा देती, और-तो-और उनसे बहस में उलझ जाती। इससे हमारी प्रगति धीमी हो गयी और परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट पैदा हो गयी। बाद में, भले ही मैं दूसरों के विचारों को यूं ही नहीं ठुकराती, फिर भी हर बार जब मैं किसी को छोटी-सी ग़लती करते देखती, या उन्हें सधा हुआ नहीं पाती, तो मैं अपनी नाराज़गी और उन्हें नीचा दिखाये बिना नहीं रह पाती थी, इससे वे बेबस और दबे हुए महसूस करते। मैं बहुत अहंकारी थी। मेरी इंसानियत कहाँ थी? दूसरों को बेबस महसूस करवाते हुए, परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी पैदा करते हुए, इस अहंकारी प्रकृति के साथ जीने के बारे में सोच कर, मुझे बहुत अधिक पछतावा हुआ। तब मैंने जाना कि अगर मैंने अपनी अहंकारी प्रकृति का हल नहीं निकाला, तो न चाह कर भी मैं बुराई करूंगी, और अपने भाई-बहनों के साथ ठीक से काम नहीं कर सकूंगी।
फिर रिहर्सलों के दौरान, मैंने दूसरों की कमियों पर रोड़े अटकाना बंद कर दिया। धीरे-धीरे, मुझे एहसास हुआ कि मेरे अपने हाव-भावों के साथ भी बहुत-सी समस्याएँ हैं। अक्सर मैं स्थिर खड़ी नहीं रह पाती या सही ढंग से तालमेल नहीं बिठा पाती, मुझे हाव-भावों का बार-बार अभ्यास करना पड़ता। शेखी बघारने के लिए मुझमें भी कुछ नहीं था। पहले मैं सत्य को नहीं समझ पाती थी और अपने अहंकार में फंसी रह जाती थी। मैं खुद को नहीं जानती थी। हमेशा सोचती कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ। मैं बहुत संवेदनहीन थी! फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए; यह तथ्य है। यह हर उस व्यक्ति का सबसे उपयुक्त रवैया भी है, जो अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों को सही ढंग से देखता है; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू से सन्नद्ध हो और इसकी वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। "तुम जो कुछ भी करो, उस सबमें तुम्हें एकचित्त होना चाहिए। और तुम एकचित्त कैसे हो सकते हो? तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए; केवल तभी तुम लकड़ियों के गट्ठर की तरह मज़बूत बन पाओगे—सब एक-साथ, और सब एकचित्त" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मानव सदृशता पाने के लिए आवश्यक है अपने समूचे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य सही-सही पूरा करना')। फिर मैंने समझा कि अगर हम दूसरों के साथ ठीक से काम करना चाहते हैं, तो हमें उनके साथ सही ढंग से पेश आना चाहिए। जब हमें किसी में कमियाँ नज़र आयें, तो उसे नीचे नहीं गिराना चाहिए, बल्कि एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। इस प्रकार हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष मिलेगा और हम अच्छे परिणाम पा सकेंगे। मैं हमेशा दिखावा करती और लोगों को नीची नज़र से देखती, जबकि असलियत में, ऐसा कोई तरीक़ा नहीं था कि यह डांस मैं अपने ही बूते पर कर पाती। दरअसल हम क़रीब 10 भाई-बहनों को साथ मिलकर इसे करना था। थोड़े-से समय में सभी को एक स्तर पर लाने के अपने उद्देश्य तक पहुँचने के लिए, हम सबके हाव-भावों को एक-समान करने के लिए, हमें साथ मिल कर अच्छे-से काम करना था, एक-दूसरे की कमियों को दूर करना था।
फिर हमने एक-दूसरे को अपने अनुभव बताना शुरू किया, जैसे कि किस चीज़ पर ध्यान दें, कुछ हाव-भाव को ठीक से निभाने के लिए किन समस्याओं से बचें। जब हममें से किसी को अपने हाव-भाव के साथ समस्या होती, तो हम उसे बताते, अभ्यास करने के सही तरीके के बारे में बात करते। किसी संरचना में होने पर, हम एक-दूसरे का ख़याल रखते, सिर्फ अपनी ही जगह की फ़िक्र नहीं करते, बल्कि खुद को पूर्ण का एक अंश मानते। अगर कोई अपनी जगह से हट जाता, तो मैं उनकी ग़लती ठीक करने के लिए अपनी जगह बदल लेती, ताकि पूरी संरचना एक सीध में हो। धीरे-धीरे, हमारे हाव-भाव काफ़ी हद तक एकरूप हो गये, संरचना बेहतर और बेहतर होती चली गयी। फिल्मांकन का दिन आ गया, और काम पूरा कर लेने के बाद, हम सबने संपादित किये हुए वीडियो को देखा, उसे इतना अच्छा बना हुआ देख कर सब चकित रह गये। सिर्फ़ अपने डांस कौशल से हम इतनी सुंदर प्रस्तुति नहीं कर सकते थे। यह सब परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण संभव हो पाया। अच्छे-से साथ-साथ काम करके और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करके ही हम ये पूरा कर पाये।
जब मैं डांस के रिहर्सलों के उन तीन-चार महीनों के बारे में सोचती हूँ, तो समझ आता है कि परमेश्वर के वचन और उसके द्वारा बनाये हालात के कारण ही हमें साथ मिल-जुल कर काम करने के सत्य को समझने में मदद मिली। सत्य का अभ्यास करते हुए मैंने जाना कि खुद को अलग रख कर दूसरों की मज़बूतियों और कमज़ोरियों के साथ कैसे पेश आना चाहिए, मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के बारे में और ज़्यादा जानने लगी। मुझे सचमुच में समझ में आने लगा कि दूसरों के साथ मिल-जुल कर एक लक्ष्य ध्यान में रखे बिना हम अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। परमेश्वर का धन्यवाद!
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