मैंने अपने बेटे के प्रति आभारी होने की भावना त्याग दी

16 दिसम्बर, 2025

सु ली, चीन

बचपन से ही मैं अपनी माँ की बहुत प्रशंसा करती थी। उसने मेरे और मेरे भाई-बहनों के लिए बहुत कष्ट सहे। जब कभी मैं आधी रात को जागती तो देखती कि वह एक छोटे से तेल के दीये की रोशनी में हमारे लिए सूती कपड़े सिल रही है और अगले दिन उसे खेती-बाड़ी का काम करने के लिए पहाड़ पर जाना पड़ता था। पूरे परिवार की देखभाल के लिए इतना काम करती कि बीमार पड़ जाती। मेरे पिता कोई बहुत जिम्मेदार इंसान नहीं थे और जब मेरा बड़ा भाई शादी की उम्र का हुआ तो मेरी माँ ने ही सब कुछ सँभाला। गाँव के सभी लोग मेरी माँ की एक अच्छी पत्नी और माँ के रूप में प्रशंसा करते थे। मन ही मन मैं माँ को अपना आदर्श मानती थी, मेरा मानना था कि उसके कामों से ही यह तय होता है कि एक योग्य माँ होने का क्या मतलब है। शादी के बाद मैं भी अपनी माँ की तरह ही हो गई—मैं हर चीज में अपने पति और बच्चों को प्राथमिकता देती थी और जब तक वे आराम से रहते थे, मेरा कोई भी कष्ट सहना सार्थक था। सर्दियों में मैं हमेशा जल्दी उठकर चूल्हा जलाती और खाना बनाती थी और अपने पति और बच्चों को नाश्ते के लिए तभी जगाती थी जब धूप खिलने से घर की ठंडक कम हो जाती। उनकी अच्छी तरह से देखभाल होते देखकर मुझे बहुत संतोष मिलता था। मेरी सास और जेठानी एक अच्छी पत्नी के रूप में मेरी प्रशंसा करती थीं और मैं भी मानती थी कि एक औरत को ऐसा ही करना चाहिए। अप्रत्याशित रूप से मेरे पति अचानक बीमार पड़ गए और उनका निधन हो गया और पूरे परिवार का बोझ अकेले मुझ पर आ पड़ा। मैंने मन में ठान लिया, “मुझे यह पक्का करना है कि बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करें और बस जाएँ।” इसलिए मैंने अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए बाजार में एक छोटा सा कारोबार शुरू किया।

1999 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं कई सत्य समझी और मैं अपने पति को खोने के दर्द से भी बाहर आ गई। बाद में मैंने अपनी क्षमता के अनुसार कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाया। 2003 में एक दुष्ट व्यक्ति के विश्वासघात के कारण स्थानीय पुलिस मुझे गिरफ्तार करने मेरे घर आई। सौभाग्य से मैं घर पर नहीं थी और इसलिए मैं इस मुसीबत से बच गई। सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किए जाने से बचने के लिए मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना पड़ा। अपने बच्चों को छोड़ने के खयाल से ही मेरा दिल पीड़ा से भर गया। मेरे पति का देहांत जल्दी हो गया था, इसलिए अगर मैं चली गई तो मेरे दोनों बच्चों का क्या होगा? मेरा बेटा 18 साल का हो चुका था और शादी की उम्र के करीब था और इसलिए मेरे जाने के बाद उसे घर बसाने में कौन मदद करेगा? लेकिन अगर मैं नहीं गई तो मुझे किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता था और तब भी मैं उनकी देखभाल नहीं कर पाती। मेरी बेटी ने भी कहा, “माँ, मैं आपको गिरफ्तार होते देखने के बजाय यह चाहूँगी कि आप हमें छोड़कर चली जाएँ।” अपनी समझदार बेटी को देखकर मेरा दिल और भी दुखने लगा और आखिर में मैं रोते हुए घर से निकल गई। हालाँकि मैं घर छोड़ चुकी थी, लेकिन मेरा दिल हमेशा मेरे दोनों बच्चों के पास था और मैं सोचती रहती, “क्या वे ठीक हैं? क्या उनके पास पर्याप्त पैसे हैं? क्या उन्हें काम मिल सकता है? मेरे बेटे की शादी का इंतजाम कौन करेगा? क्या वे मुझसे नाराज होंगे और कहेंगे कि मैंने उन्हें छोड़ दिया?” जब भी मैं इन बातों के बारे में सोचती तो मेरा दिल दुखता था। मुझे लगा कि मैंने एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं और मैंने सच में अपने बच्चों को निराश किया है। मैं सच में वापस जाकर उनकी देखभाल करना चाहती थी, लेकिन मुझे गिरफ्तार होने का डर था। मेरा दिल बहुत तड़प रहा था। उस समय मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “कौन वास्तव में पूरी तरह से मेरे लिए खप सकता है और मेरी खातिर अपना सब-कुछ अर्पित कर सकता है? तुम सभी अनमने हो; तुम्हारे विचार इधर-उधर घूमते हैं, तुम घर के बारे में, बाहरी दुनिया के बारे में, भोजन और कपड़ों के बारे में सोचते रहते हो। इस तथ्य के बावजूद कि तुम यहाँ मेरे सामने हो, मेरे लिए काम कर रहे हो, अपने दिल में तुम अभी भी घर पर मौजूद अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के बारे में सोच रहे हो। क्या ये सभी चीजें तुम्हारी संपत्ति हैं? तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल रोशन हो गया। क्या अपने बच्चों को परमेश्वर को सौंपना मेरी देखभाल करने से बेहतर नहीं होगा? सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और मेरे दोनों बच्चे ठीक हैं या नहीं, यह परमेश्वर के हाथों में है। यह सोचकर मुझे उतना दुख नहीं हुआ।

जैसे-जैसे मुझे घर से दूर रहते हुए ज्यादा समय हुआ, मेरा बेटा बीस-बाईस साल का और शादी की उम्र का हो चुका था और मुझे चिंता थी कि वह शादी कर पाएगा या नहीं। मेरे बच्चे पहले ही अपने पिता को खो चुके थे और मैं उनकी देखभाल के लिए वहाँ नहीं थी, इसलिए मुझे उनके लिए बहुत अफसोस हुआ। 2007 में एक जिला अगुआ के तौर पर मुझे इसलिए बरखास्त कर दिया गया क्योंकि मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व-बोध नहीं था। मैंने सुना कि मेरे बच्चे उस शहर में काम करने चले गए हैं जहाँ मेरे भाई-बहन रहते थे, इसलिए मैं उनके साथ रहने के लिए लौट आई। जब मेरे बेटे ने मुझे देखा तो वह बहुत रूखा था और मुझसे बात नहीं कर रहा था। उसने कहा कि मुझे सिर्फ अपनी आस्था की परवाह है और मैंने उन्हें छोड़ दिया है। मुझे बहुत अपराध बोध हुआ और लगा कि उसकी नाराजगी जायज है। मेरे छोटे भाई-बहन भी मुझसे मिलने आए। मेरे भाई ने मुझे डाँटते हुए कहा, “इतने सालों में जब तुम नहीं थीं, तुम्हारे बच्चों ने बहुत मुश्किल समय काटा है। इस बार तुम फिर से मत जाना। अब वे बड़े हो गए हैं, इसलिए तुम्हें जल्दी करके अपने बेटे की शादी कराने में मदद करनी चाहिए—असली बात यही है।” मेरी बहन ने कहा, “जितने साल तुम नहीं थीं, हम तुम्हारे बेटे के लिए चिंता करते रहे और हमने उसे नौकरी ढूँढ़ने में भी मदद की।” यह सुनकर मुझे और भी ज्यादा अपराध बोध हुआ और मैं परेशान हो गई। मुझे लगा कि मैं एक अच्छी माँ नहीं हूँ और मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं। मेरे बेटे को 17 या 18 साल की उम्र में ही अपनी रोजी-रोटी कमानी पड़ी और मेरी बेटी दुबली-पतली होने के बावजूद भारी मेहनत कर रही थी। अगर मैं घर पर होती तो उन्हें इतनी कम उम्र में काम शुरू नहीं करना पड़ता। उनकी भरपाई करने के लिए, मैंने उनका पसंदीदा खाना बनाने और उनके कपड़े धोने की पूरी कोशिश करती और मैं उनके लिए जो कुछ भी कर सकती थी, उसके लिए अपना पूरा प्रयास करती। अपने बेटे की शादी के लिए पैसे बचाने के लिए, मैंने घर पर पीस के हिसाब से कपड़े सिलने का काम ले लिया। मैं रात में काम करती और सुबह ऑर्डर पहुँचाती थी और दिन के दौरान मैं बिना किसी रुकावट के नए विश्वासियों को सींच सकती थी, सभाओं में शामिल हो सकती थी और अपना कर्तव्य निभा सकती थी। 2008 में मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया गया, लेकिन उस समय मैं बहुत दुविधा में थी। मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के इरादों पर विचार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए, लेकिन मुझे चिंता थी कि अगुआ बनकर मुझे ज्यादा समय देना पड़ेगा और पैसे कमाने के लिए समय नहीं बचेगा और बिना पैसे और घर के मेरे बेटे से शादी करने के लिए कौन तैयार होगा? मेरे पति का देहांत जल्दी हो गया था, इसलिए एक माँ के तौर पर मुझ पर और भी ज्यादा जिम्मेदारियाँ थीं। अगर मैंने अपने बेटे को पैसे बचाने में मदद नहीं की तो वह शादी नहीं कर पाएगा—तो क्या दूसरे लोग मुझे एक गैर-जिम्मेदार माँ नहीं कहेंगे? यह सोचकर मैंने अगुआ का कर्तव्य लेने से इनकार कर दिया और नए विश्वासियों को सींचना जारी रखा।

समय बीतता गया और जल्द ही 2010 आ गया। मेरा बेटा अब 25 साल का था और उसके सभी हमउम्र पहले ही शादी कर चुके थे, लेकिन उसने अभी तक नहीं की थी। मैं बहुत चिंतित रहती थी। हालाँकि मैं अपना कर्तव्य निभाने के साथ-साथ पैसे कमाने के लिए भी काम कर रही थी, लेकिन उसकी शादी के लिए मैंने जो पैसे बचाए थे, वे अभी भी काफी नहीं थे। अधिक पैसे बचाने के लिए मैंने और भी ज्यादा काम ले लिया। जैसे-जैसे और ज्यादा नए विश्वासियों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया, मैं दिन में अपना कर्तव्य निभाती और देर रात तक काम करती थी, इसलिए मेरे पास नए विश्वासियों को सींचने के लिए कम समय और ऊर्जा बचती थी और मैं शायद ही कभी इस बात पर विचार करती थी कि ऐसी संगति कैसे की जाए जिससे उन्हें सच्चे मार्ग पर जड़ें जमाने में मदद मिले और मुझमें नए विश्वासियों की मुश्किलों या समस्याओं को हल करने के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं था। क्योंकि मैं शाम 5 बजे ही काम शुरू कर देती थी, मैं कभी-कभी आधी रात या 1 बजे तक काम करती थी और फिर मुझे सुबह 4 बजे तक काम सौंपना होता था। अगले दिन अपना कर्तव्य निभाते समय मैं सुन्न और भ्रमित महसूस करती थी। कुछ समय बाद जिन नए विश्वासियों को मैं सींचती थी, उनमें से कुछ ने नियमित रूप से सभाओं में आना बंद कर दिया। चूँकि मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं था, आखिरकार मुझे बरखास्त कर दिया गया। मैं बहुत बेचैन हो गई। मैंने सोचा कि कैसे मैंने पहले अगुआ का कर्तव्य ठुकरा दिया था और अब मैंने नए विश्वासियों को सींचने का काम भी अच्छी तरह से नहीं किया था। मुझे प्रार्थना करने में भी बहुत शर्म आ रही थी। हालाँकि अब बिना कर्तव्य के मैं पूरा समय काम करके अपने बेटे के लिए पैसे बचा सकती थी, मेरा दिल अंधेरे से भर गया था और मैं बता नहीं सकती थी कि मुझे कैसा लग रहा है।

उस दौरान मैं काम करते हुए भजन सुनती थी। परमेश्वर के वचनों का एक भजन इस प्रकार है : “नज़र रखो! नज़र रखो! बीता हुआ समय फिर कभी नहीं आएगा, यह याद रखो! दुनिया में ऐसी कोई दवाई नहीं है जो पछतावे का इलाज कर सके! तो, मैं तुम लोगों से कैसे बात करूँ? क्या मेरे वचन इस योग्य नहीं कि तुम उन पर सावधानीपूर्वक बार-बार सोच-विचार करो?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 30)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बेहद प्रेरित किया। परमेश्वर ने इतना कुछ और इतनी ईमानदारी से कहा है, फिर भी मैं इतनी हठी और बदलने को तैयार क्यों नहीं थी? मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे इस अवस्था से बाहर निकाले। मैं खुद से पूछती रही, “क्या मुझे सिर्फ अपने बेटे की शादी के लिए पैसे कमाने के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देना चाहिए?” मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया जो इस प्रकार है : “यह अहसास किए बिना तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हारे पास अभी भी परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर होगा?” “यदि जीवन में तुम सत्य के लिए कष्ट नहीं उठाते हो, या इसे पाने की खोज नहीं करते, तो क्या तुम मरने के समय पछताना चाहते हो? यदि ऐसा है, तो फिर परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो?” फिर मुझे पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों के ये दो अंश मिले। परमेश्वर कहता है : “संकल्प रखने वाले और परमेश्वर से प्रेम करने वाले हर व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसके इरादों को कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुममें ऐसा संकल्प और दृढ़ता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है और तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए और उस मार्ग में अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए। यह अहसास किए बिना तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हारे पास अभी भी परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर होगा? क्या मनुष्य मरने के बाद परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही संकल्प और जमीर होना चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए और तुम्हें अपने साथ खेल नहीं खेलने चाहिए! एक मनुष्य के रूप में और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले एक व्यक्ति के रूप में तुम्हें अपने जीवन पर विचार करने और इससे निपटने में सक्षम होना चाहिए—यह विचार करना चाहिए कि तुम्हें अपने-आपको परमेश्वर के सम्मुख कैसे अर्पित करना चाहिए, तुममें परमेश्वर के प्रति और अधिक अर्थपूर्ण आस्था कैसे होनी चाहिए और चूँकि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, इसलिए तुम्हें उससे कैसे प्रेम करना चाहिए कि यह ज्यादा निष्कलंक, ज्यादा सुंदर और ज्यादा अच्छा हो। ... पारिवारिक सामंजस्य का आनंद लेने के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए और तुम्हें अस्थायी आनन्द के लिए जीवन भर की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है और तुम्हें जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम ऐसा साधारण और सांसारिक जीवन जीते हो और आगे बढ़ने के लिए तुम्हारा कोई अनुसरण नहीं है तो क्या इससे तुम्हारा जीवन बर्बाद नहीं हो रहा है? ऐसे जीवन से तुम्हें क्या हासिल हो सकता है? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों का त्याग करना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। “इस मार्ग पर बहुत से लोग बहुत ज्ञान व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन मृत्यु के समय उनकी आँखें आँसुओं से भर आती हैं और वे इस बात से घृणा करते हैं कि उन्होंने अपना पूरा जीवन बेकार कर दिया और बुढ़ापे तक जीना व्यर्थ हो गया। वे केवल सिद्धांत समझते हैं, लेकिन सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, न परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, इसके बजाय वे बस सतह पर इधर-उधर दौड़ते रहते हैं, मधुमक्खी की तरह व्यस्त दिखते हैं, और केवल मृत्यु के कगार पर ही वे अंततः देख पाते हैं कि उनमें सच्ची गवाही का अभाव है, वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते हैं। क्या तब बहुत देर नहीं हो गई होती है? फिर तुम वर्तमान समय का लाभ क्यों नहीं उठाते और उस सत्य की खोज क्यों नहीं करते जिसे तुम प्रेम करते हो? कल तक का इंतज़ार क्यों? यदि जीवन में तुम सत्य के लिए कष्ट नहीं उठाते हो, या इसे पाने की खोज नहीं करते, तो क्या तुम मरने के समय पछताना चाहते हो? यदि ऐसा है, तो फिर परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है)। परमेश्वर के कार्य का यह चरण मानवता को बचाने का अंतिम कार्य है। मैं इसमें शामिल तो हो गई थी, लेकिन मैंने इसे संजोया नहीं और जिस दिन परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा, अगर मैं तब अपना कर्तव्य ठीक से करना चाहूँगी तो कोई मौका नहीं मिलेगा और तब भी क्या मुझे निकाल नहीं दिया जाएगा? परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर में विश्वास करना, सत्य का अनुसरण करना और सत्य पाना जीवन में सबसे बड़ी चीजें हैं और वे सबसे सार्थक चीजें भी हैं। लेकिन मैंने एक अच्छी माँ होने के लिए अगुआ का कर्तव्य टाल दिया, क्योंकि मुझे डर था कि अगुआ का कर्तव्य निभाने से मेरे बेटे के लिए पैसे कमाने में देरी होगी। जिन नए विश्वासियों ने अभी-अभी परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया है, उनकी कई धारणाएँ होती हैं जिन पर संगति करने और उन्हें हल करने की जरूरत होती है, लेकिन मैं सिर्फ यही सोचती रही कि अपने बेटे को निराश करने की भरपाई कैसे करूँ। मैं नए विश्वासियों की समस्याओं को हल करने में ज्यादा समय नहीं लगाना चाहती थी और मैं सभाओं में बस खानापूर्ति कर रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि नए विश्वासी नियमित रूप से सभाओं में नहीं आते थे। मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का बहुत आनंद लिया था और परमेश्वर ने मुझे उद्धार का एक मौका भी दिया था—लेकिन मैंने परमेश्वर को बदले में क्या दिया था? अपना कर्तव्य ठुकराने के अलावा मैं लापरवाह और गैर-जिम्मेदार भी रही थी। मुझमें तो जरा भी इंसानियत नहीं बची थी! अब जब मैंने अपना एकमात्र कर्तव्य भी खो दिया था, तो इस तरह जीने का क्या मतलब था? इस तरह जीना—अपना कर्तव्य निभाने के साथ-साथ अपने बच्चों को भी संतुष्ट करने की कोशिश करना, अपने कर्तव्य के प्रति बेवफा होना और दोनों नावों पर पैर रखने की कोशिश करना—अंत में मुझे क्या हासिल होगा? परमेश्वर का कार्य किसी का इंतजार नहीं करता और अगर मैंने अभी इसका अनुसरण नहीं किया तो मुझे दूसरा मौका नहीं मिलेगा। मुझे अपने स्नेह को एक तरफ रखकर सत्य का अनुसरण करना था। जल्द ही मैंने अपना कर्तव्य फिर से शुरू कर दिया।

2011 में मुझे एक सिंचन उपयाजक के रूप में चुना गया। उस समय भी मैं कुछ दुविधा में थी। सिंचन उपयाजक होना एक बड़ी जिम्मेदारी होती और मेरे पास अपने बेटे के लिए पैसे कमाने का समय कम होता। हालाँकि मैंने यह भी सोचा कि पिछले कुछ सालों से मैं अपने बेटे की शादी के लिए कितनी बेताबी से पैसे कमा रही थी—मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं था, मैंने कलीसिया के काम में देरी की थी और मेरे अपने जीवन को भी नुकसान हुआ था—फिर भी कलीसिया ने मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य करने के लिए चुना। मैं अब और परमेश्वर के खिलाफ और ज्यादा विद्रोह नहीं कर सकती थी और मुझे इसे अपनी पूरी क्षमता से करना था। इसलिए मैंने इसे स्वीकार कर लिया। मुझे हमेशा चिंता रहती थी कि हमारे पास पैसे न होने के कारण शायद मेरा बेटा शादी न कर पाए। 2014 में मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे इस चिंता को कुछ हद तक एक तरफ रखने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परिपक्व होने के बाद, व्यक्ति अपने माता-पिता को छोड़ने और अपने बलबूते पर कुछ करने में सक्षम हो जाता है, और इसी मोड़ पर वह सही मायने में अपनी भूमिका निभाना शुरू करता है, धुंध छंटने लगती है और उसके जीवन का ध्येय धीरे-धीरे स्पष्ट होता जाता है। नाममात्र के लिए वह अभी भी अपने माता-पिता के साथ घनिष्ठता से जुड़ा रहता है, किन्तु जो ध्येय और भूमिका वह अपने जीवन में निभाता है, उसका उसके माता-पिता के साथ कोई लेना-देना नहीं होता, इसलिए इंसान धीरे-धीरे स्वावलंबी होता जाता है, यह घनिष्ठ बन्धन टूटता जाता है। जैविक परिप्रेक्ष्य में, लोग तब भी अवचेतन रूप में माता-पिता पर ही निर्भर होते हैं, लेकिन सच कहें, तो बड़े होने पर उनका जीवन अपने माता-पिता से बिल्कुल भिन्न होता है, और वे उन भूमिकाओं को निभाते हैं जो उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनायी हैं। जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बाहर से महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनियत करने के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्वनियत किया जा चुका होता है, किसी के भाग्य को उसके माता-पिता भी नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते और जब उस भूमिका की बात आती है जो किसी के भी माता-पिता जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि व्यक्ति का जन्म चाहे जिस परिवार में होना पूर्वनियत हो और वह चाहे जिस परिवेश में बड़ा हो, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते और इसी तरह किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका अच्छे से निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के जीने के परिवेश में अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी वस्तुपरक स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनियत है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृष्टिकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही मानवजाति के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में अपनी भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनियत करने की खातिर उसकी संप्रभुता की खातिर सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को रोशन कर दिया। मैं समझ गई कि मेरी जिम्मेदारी केवल अपने बच्चों को इस दुनिया में लाने भर की थी, उन्हें बड़े होने के लिए एक माहौल देना और उन्हें वयस्क होने तक पालना था। लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उनका जीवन अपने माता-पिता से पूरी तरह अलग हो जाता है। हम सभी के अपने-अपने उद्देश्य होते हैं। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मेरा दायित्व एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना है, न कि हमेशा अपने बच्चों के लिए जीना। उन सालों में मैंने अपने बेटे के प्रति महसूस किए गए कर्ज की भरपाई करने के लिए कड़ी मेहनत से पैसा कमाया था, मुझे उम्मीद थी कि इससे उसे शादी करने और घर बसाने में मदद मिलेगी, यह सोचा था कि केवल ऐसा करके ही मैं उसकी भरपाई कर सकती हूँ। पैसे कमाने के लिए मैंने अगुआ का कर्तव्य भी ठुकरा दिया था और नए विश्वासियों को सींचने में गैर-जिम्मेदारी दिखाई थी। इससे मेरे जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम में नुकसान हुआ। अब मैं समझ गई कि मेरा बेटा शादी कर पाएगा या नहीं, यह मुझ पर निर्भर नहीं था, उसके लिए कार या घर खरीदने की खातिर पैसा कमाना उसकी शादी होने की गारंटी नहीं देता था और परमेश्वर ने मेरे बेटे की शादी पहले ही पूर्व-निर्धारित कर दी थी। मैं इसे बदल नहीं सकती थी। मैंने एक पड़ोसी के बारे में सोचा : पति-पत्नी दोनों विकलांग थे और उनके पास न तो घर था न ही कार, फिर भी उनके बेटे ने कम उम्र में ही शादी कर ली और अपना घर बसा लिया। मेरे एक रिश्तेदार हैं जिनके परिवार के पास लाखों की बचत है और कार और घर दोनों हैं, लेकिन उनका बच्चा 30 साल से ऊपर का है और अभी भी अविवाहित है। इससे मैंने देखा कि शादी दौलत से तय नहीं होती और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। यह समझने से मेरे दिल को बहुत सुकून मिला और मैंने अपना कर्तव्य ठीक से करने का फैसला किया, अपने बेटे की शादी को पूरी तरह से परमेश्वर को सौंपने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का फैसला किया।

2017 में मेरे बेटे ने शादी कर ली और अपनी पत्नी के परिवार के साथ रहने लगा। मेरी बहू ने सगाई के तोहफे नहीं माँगे और न ही कोई माँग की। मैंने उसे केवल 30,000 युआन दिए और कोई औपचारिक विवाह समारोह नहीं हुआ। रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए बस एक भोज समारोह रखा गया और कार्यक्रम सादे तरीके से संपन्न हो गया। मुझे खुश होना चाहिए था, लेकिन मेरे दिल में अभी भी अपराध बोध की भावना थी, मुझे लग रहा था कि मैंने अपने बेटे के लिए एक भव्य शादी का आयोजन नहीं किया था, मैंने केवल एक मामूली सी रकम दी थी और एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया था, जिससे मुझे अफसोस हो रहा था। 2019 में मेरी बहू गर्भवती हो गई और उसने मुझसे अपनी देखभाल करने के लिए कहा। उस समय मैं कई कलीसियाओं के पाठ आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार थी और इसलिए अगर मैं अपनी बहू की देखभाल करने जाती तो मेरे कर्तव्यों में देरी होती। लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैंने इतने सालों में अपने बेटे को ज्यादा कुछ नहीं दिया है। अब मेरा बेटा पैसे कमाने के लिए बाहर काम कर रहा था और मुझे लगा कि मुझे अपनी गर्भवती बहू की देखभाल करनी चाहिए और अगर इस बार मैं उसका बोझ कम करने में मदद नहीं कर सकी तो मैं उसे निराश कर दूँगी। तो क्या मेरे रिश्तेदार मुझे सच में एक गैर-जिम्मेदार माँ नहीं कहेंगे? मैं खुद को शांत नहीं कर पा रही थी और अपने कर्तव्यों पर अपना दिल केंद्रित नहीं कर पा रही थी, जिससे मेरे कर्तव्य पालन की प्रभावशीलता में थोड़ी कमी आई। पर्यवेक्षक को इस बारे में पता चला और फिर उसने मेरी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के कुछ वचन मेरे लिए ढूँढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है और उसने अंतरात्मा और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर दिया है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और वे नेक औरत नहीं हैं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, ‘मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।’ इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति समर्पित रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आते हैं? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पाती तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझी? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में ‘अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ’ की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी भक्ति दिखा लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने बच्चों और पति की देखभाल करने के मौके तलाश करोगी, उनकी और अधिक भरपाई करना चाहोगी और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़े तो भी यह ठीक है, बशर्ते तुम्हारे पास मन की शांति हो। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने गलत विचारों को जानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। “शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, जिससे तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हो; तुम पूरी तरह शैतान की इन चीजों के काबू में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो गए हो। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में बाधा पैदा करती हैं, तुमसे सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध कराती हैं और तुम्हें अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंकने के लिए शक्तिहीन बना देती हैं। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने के बारे में कुछ नहीं सोचते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं चीजों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के दोषारोपण झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उसे परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने गलत विचारों को जानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही अवस्था का वर्णन किया। “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ” का पारंपरिक चीनी सांस्कृतिक विचार एक ऐसी जंजीर है जिससे शैतान ने महिलाओं को बाँध रखा है, जो लोगों को यह विश्वास दिलाता है कि एक अच्छी महिला को अपने पति और बच्चों के लिए जीना चाहिए और हमेशा उन्हें पहले रखना चाहिए और जब तक वह अपने पति और बच्चों को संतुष्ट कर सकती है, चाहे कोई काम कितना भी कठिन या थकाऊ क्यों न हो, उसे वह करना चाहिए और अगर वह ऐसा करने में विफल रहती है तो वह एक अच्छी पत्नी या प्रेममयी माँ नहीं है और दूसरों द्वारा उसका उपहास किया जाएगा। बचपन से ही मैंने अपनी माँ को हमारे परिवार के आराम के लिए सुबह से शाम तक काम करते देखा और उसने मेरे बड़े भाई की शादी की तैयारियाँ भी सँभाली। सभी गाँववाले मेरी माँ की एक अच्छी पत्नी और माँ के रूप में प्रशंसा करते थे। अपनी माँ से प्रभावित होकर, शादी के बाद मैंने अपने पति और बच्चों की बहुत देखभाल की। मेरा पति कहता था कि मैं एक सुघड़ पत्नी हूँ और मेरे बच्चे कहते थे कि मैं एक अच्छी और प्रेममयी माँ हूँ। मेरे पति के निधन के बाद मैंने एक पिता की जिम्मेदारियाँ भी निभाईं और मैंने अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए पैसे कमाने की खातिर कड़ी मेहनत की और चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आई हों, मैंने अकेले ही सब कुछ सहा। परमेश्वर को पाने के बाद सीसीपी के उत्पीड़न के कारण मुझे घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और हालाँकि मैं कहीं और अपना कर्तव्य निभा रही थी, मेरा दिल हमेशा मेरे बच्चों में पड़ा रहता था और मैं हमेशा खुद को उनका कर्जदार मानती थी। खासकर जब मैंने अपने बेटे को शादी लायक होते देखा और मैं उसे आर्थिक सहायता नहीं दे सकी, मुझे और भी दृढ़ता से महसूस हुआ कि मैं एक माँ के रूप में असफल रही हूँ। जब मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया तो मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के इरादों पर विचार करना चाहिए, लेकिन मुझे अपने बेटे की शादी के लिए पैसे कमाने में देरी होने का डर था, इसलिए मैंने यह कर्तव्य ठुकरा दिया। नए विश्वासियों को सींचते समय भी मेरा दिल उसमें नहीं लगता था, क्योंकि मेरा सारा ध्यान अपने बेटे के लिए पैसे कमाने पर रहता था, जिससे नए विश्वासियों को समय पर सिंचन नहीं मिल पाता था। अब जब अपनी बहू की देखभाल करने की बात आई, हालाँकि मैं उसके पास नहीं गई थी, मेरा दिल पहले ही परमेश्वर से दूर हो चुका था। मैं अपने बेटे के प्रति कर्जदार होने की भावना में जी रही थी और मेरा कर्तव्य निभाने में मन नहीं लगता था। इससे मेरे कर्तव्य पालन की प्रभावशीलता में गिरावट आई। मैं “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ” होने के पारंपरिक विचार से बँधी हुई थी, इसलिए जब भी मेरा कर्तव्य इससे टकराता, मेरे विचार हमेशा अपने बच्चों को निराश न करने पर होते थे और मुझे कलीसिया के हितों की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था और उसके वचनों के इतने सिंचन और पोषण का आनंद लिया था, फिर भी मैं ऐसे काम कर रही थी जो उसके खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध करते थे। मुझमें सच में कोई इंसानियत नहीं थी! अब मैं समझ गई कि ये पारंपरिक सांस्कृतिक विचार शैतान द्वारा लोगों को बाँधने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले औजार हैं, जो मुझे केवल एक अच्छी माँ की प्रतिष्ठा पाने के लिए जीने पर मजबूर करते हैं और जिसके कारण मैं अंततः एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल होने की वजह से निकाल दी जाती हूँ। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शैतान के बुरे इरादों को पहचानने में मदद की। मैं अब और पारंपरिक संस्कृति से बँधी और बाधित नहीं रह सकती थी और मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना था।

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर का यह कहने का क्या अर्थ है, ‘परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है’? इसका अर्थ हर व्यक्ति को यह एहसास कराना है : हमारा जीवन और हमारे प्राण परमेश्वर ने रचे हैं, ये हमें उसी से मिले हैं—वे हमारे माता-पिता से नहीं आते, प्रकृति से तो बिल्कुल भी नहीं, ये चीजें हमें परमेश्वर ने दी थीं; बात बस इतनी है कि हमारी देह हमारे माता-पिता से उत्पन्न हुई है और हमारे बच्चे हमसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन हमारे बच्चों की किस्मत पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में है। हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना वह कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए जो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में निभाना ही चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही वह मुख्य चीज और प्रधान बात है जिसे लोगों को अपने जीवन में पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाती हो तो तुम मानक स्तर की सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान हो, जिसने उसके खिलाफ विद्रोह किया है, जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया है, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर उसे पूरा नहीं किया, जिसने उसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने गलत विचारों को जानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा तो मेरा दिल रोशन हो गया। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करना मेरी जिम्मेदारी है। अगर मैं अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से नहीं निभा सकती तो मैं परमेश्वर का उद्धार पाने के योग्य नहीं हूँ। भले ही मैं एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं सत्य का अभ्यास कर रही हूँ और यह परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है। पहले मैं पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीती थी, हमेशा एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ होने और अपने कर्तव्यों को निभाने के बीच संघर्ष करती रहती थी। इसने मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से थका दिया था और मैं असहनीय पीड़ा में थी। अब मैं परमेश्वर का इरादा समझ गई। एक व्यक्ति के जीवन में सब कुछ परमेश्वर से आता है, मैं किसी भी व्यक्ति की कर्जदार नहीं थी और मुझ पर सबसे बड़ा कर्ज परमेश्वर का था। सत्य का अनुसरण करना और अपने कर्तव्यों को पूरा करना ही सबसे सार्थक है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी बहू को परमेश्वर के हाथों में सौंपते हुए पहले अपना कर्तव्य अच्छे से करना चुना। बाद में मुझे पता चला कि मेरी बहू के बच्चे के जन्म के समय सब कुछ सुचारू रूप से हो गया और मेरे बेटे और बहू ने भी उनकी देखभाल करने न जाने के लिए मुझे दोष नहीं दिया। मैंने अपने दिल में परमेश्वर का धन्यवाद किया!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि हमें अपने वयस्क बच्चों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी गरिमा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक ऐसे सृजित प्राणी नहीं हो जो मानक स्तर का है और तुम अत्यंत विद्रोही हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। अगर तुम्हारा जीवन और समय सिर्फ तुम्हारी देह और वात्सल्य पर खर्च होते हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए कर्तव्य पर नहीं, तो तुम्हारा जीवन गैर-जरूरी है, मूल्यहीन है। तुम जीने के योग्य नहीं हो, तुम उस जीवन और हर उस चीज का आनंद लेने के योग्य नहीं हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने तुम्हें बच्चे सिर्फ इसलिए दिए कि तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का आनंद ले सको, इससे माता-पिता के रूप में जीवन अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर सको, मानव जीवन में कुछ विशेष और असाधारण अनुभव पा सको और फिर अपनी संतानों को फलने-फूलने दे सको...। बेशक, यह माता-पिता के रूप में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए भी है। यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए माता-पिता के रूप में अगली पीढ़ी के प्रति पूरी करने और साथ ही माता-पिता के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए नियत की है। एक ओर, यह बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की असाधारण प्रक्रिया से गुजरना है, और दूसरी ओर, यह अगली पीढ़ियों की वंशवृद्धि में भूमिका निभाना है। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए और तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँ या वे बेहद कामयाब हो जाएँ या साधारण और सरल व्यक्ति रह जाएँ, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनकी नियति तुम नियत नहीं करते, न ही तुम चुनाव कर सकते हो, और यकीनन तुमने उन्हें यह नहीं दिया है—यह परमेश्वर द्वारा नियत है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत है, इसलिए तुम्हें इसमें दखल नहीं देना चाहिए या उनके जीवन या जीवित रहने में अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। उनकी आदतें, दैनिक दिनचर्या, जीवन के प्रति उनका रवैया, जीवित रहने की उनकी रणनीतियाँ, जीवन के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य, संसार के प्रति उनका रवैया—इन सबका चयन उन्हें खुद करना है, और ये तुम्हारी चिंता का विषय नहीं हैं। उन्हें सुधारना तुम्हारा दायित्व नहीं है, न ही तुम हर दिन उनकी खुशी सुनिश्चित करने हेतु उनके स्थान पर कोई कष्ट सहने को बाध्य हो। ये तमाम चीजें गैर-जरूरी हैं। ... इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन तुम्हें एक तथ्य समझना होगा : तुम चाहे जो भी मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई सारभूत चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करके ही मेरे जीवन का मूल्य और अर्थ हो सकता है। मुझे अपना जीवन सिर्फ अपने बच्चों को संतुष्ट करने के लिए या सिर्फ उनके लिए कीमत चुकाने और खुद को खपाने के लिए नहीं जीना चाहिए। जब मेरे बच्चे छोटे थे, मैंने उनकी ध्यान से देखभाल की; जब वे बड़े हो गए तो एक माता-पिता के रूप में मेरी जिम्मेदारियाँ पूरी हो गईं और तब मुझे उन्हें छोड़ देना चाहिए और उन्हें जीवन का अनुभव करने देना चाहिए। उसके बाद उन्हें कैसे जीना चाहिए या उनका जीवन क्या मोड़ लेता है, इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर मैं सक्षम हूँ तो मुझे मदद करनी चाहिए, लेकिन अगर नहीं कर सकती तो मुझे कर्जदार महसूस नहीं करना चाहिए। क्योंकि एक व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित होता है, माता-पिता अपने बच्चों का भाग्य नहीं बदल सकते। अब मुझे अपनी सारी ऊर्जा अपने कर्तव्यों पर केंद्रित करनी चाहिए, अपनी कमियों को पूरा करने के लिए खुद को और अधिक सत्य सिद्धांतों से युक्त करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल करने के लिए सत्य का अनुसरण करना चाहिए, सत्य का अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए। यही परमेश्वर को प्रसन्न करता है।

इसका अनुभव करने के बाद मैं समझ गई कि अगर लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को नहीं देखते हैं और अगर वे खुद को शैतान की पारंपरिक सांस्कृतिक सोच, सांसारिक व्यवहार के फलसफों और शैतानी विष से मुक्त करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते हैं, तो वे कभी भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाएँगे। परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने से ही कोई शैतान के बंधनों और बाधाओं से मुक्त हो सकता है, सच्ची मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। उद्धार करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!

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