मैंने परमेश्वर का प्रकटन देखा है

04 फ़रवरी, 2022

जीयनझेंग, दक्षिण कोरिया

मैं एक कोरियाई प्रेस्बिटेरियन कलीसिया का सदस्य हुआ करता था। मेरी बेटी बीमार पड़ी तो मेरे परिवार के सभी लोग विश्वासी बन गए। उसके बाद वह दिन-ब-दिन स्वस्थ होने लगी। मैं प्रभु यीशु की दया के लिए अत्यधिक आभारी था। मैंने कसम खाई कि मैं अब से निष्ठापूर्वक प्रभु का अनुसरण करूँगा, मैं वो बनूँगा जिसकी उसे जरूरत है, जो उसे प्रसन्न करता है। चाहे मैं काम में कितना भी व्यस्त होता पर मैं कलीसिया की हर सभा में जाता, मैं हमेशा दान और भेंट देता था, और कलीसिया की गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेता था। मेरा अधिकांश समय बाइबल पढ़ने और कलीसिया की गतिविधियों में भाग लेने में जाता था, और मैं शायद ही कभी परिवार, दोस्तों, सहकर्मियों आदि द्वारा आयोजित रात्रि-भोजों और समारोहों में जाता था। इससे वे मुझसे नाराज हो गए। विश्वासी बनने के बाद जब मैंने शराब और सिगरेट पीना, दोस्तों के साथ पार्टी में जाना छोड़ दिया, तो वे मुझे ताना मारते और कहते, "तुम्हें कलीसिया जाना बहुत पसंद है, तो हमें बताओ, रोजाना कलीसिया जाने से तुम्हें क्या मिलता है? तुम्हारे इस विश्वास का क्या फायदा है?" सच कहूँ तो, एक के बाद एक सवाल किए जाने पर, मैं सच में समझ नहीं पाता था कि क्या कहूँ। लेकिन उनके सवालों के ही कारण मैं वास्तव में सोचने लगा : मेरा विश्वास वास्तव में किसलिए है? क्या यह परमेश्वर से बेटी का अच्छा स्वास्थ्य या परिवार की सलामती मांगने के लिए है? क्या विश्वास होना केवल बाइबल पढ़ना और रोज कलीसिया जाना है? मैं वास्तव में नहीं जानता था। मैंने ये सवाल अपनी कलीसिया के पादरियों के सामने उठाए। उनके जवाब काफी हद तक एक जैसे थे : हमारा विश्वास प्रभु के उद्धार के अनुग्रह के लिए है, जब वह लौटेगा, तो वह हमें अनंत जीवन के लिए स्वर्ग में ले जाएगा। इस तरह के जवाब से मेरी उलझन दूर होती लगी, लेकिन इसने एक और सवाल खड़ा कर दिया : फिर मैं स्वर्ग में कैसे जाऊँ? उन्होंने मुझे बताया, "रोमियों 10:10 कहता है, 'क्योंकि धार्मिकता के लिये मन से विश्‍वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुँह से अंगीकार किया जाता है।' इसका अर्थ है कि हमारे पाप प्रभु द्वारा क्षमा किए जाते हैं, इसलिए हम विश्वास द्वारा बचाए जाते हैं, और जब प्रभु लौटेगा, तब वह हमें सीधे राज्य में ले जाएगा। इसलिए, अगर आपके पास विश्वास है, तो आपको स्वर्ग में जाने की चिंता करने की जरूरत नहीं है।" मैं सोच रहा था कि परमेश्वर पवित्र है, और बाइबल कहती है "पवित्रता के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा" (ब्रानियों 12:14)। प्रभु चाहता है कि हम पवित्र बनें, लेकिन मैं पाप में जी रहा हूँ और उसके वचनों पर अमल नहीं कर पा रहा। मैं राज्य के योग्य कैसे हूँ? प्रभु यीशु ने हमें बताया था : "तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)। लेकिन दैनिक जीवन में, प्रेम करने की साधारण आवश्यकता भी मैं पूरी नहीं कर सकता था, चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ। मैं प्रभु से कहीं अधिक अपने परिवार से प्रेम करता था, और दूसरों से वैसा प्रेम नहीं करता था जैसा खुद से करता हूँ। जब मेरे दोस्तों और परिवार ने मेरा मजाक उड़ाया, तो मैं सहिष्णु और धैर्यवान होने के बजाय उनसे नाराज हो गया। मैंने इब्रानियों 10:26 के बारे में भी सोचा, जो कहता है "क्योंकि सच्‍चाई की पहिचान प्राप्‍त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं।" मैं प्रभु की अपेक्षा जानता था लेकिन उसे पूरा नहीं कर सका। मैं पाप में जीता रहा, और पाप की मजदूरी मृत्यु है। यदि ऐसा है, तो मेरा परिणाम अविश्वासियों से भिन्न कैसे हो सकता है, मैं ये समझ नहीं पाया। इसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि राज्य में प्रवेश करना उतना आसान नहीं हो सकता, जितना पादरियों ने कहा था, लेकिन मैं अभी भी नहीं जानता था कि मैं स्वर्ग में प्रवेश और अनंत जीवन कैसे पा सकता हूँ। मेरे पास अभी भी कोई मार्ग नहीं था। मैं पादरियों और अपने कलीसिया के दोस्तों से सवाल पूछता रहा, पर कोई भी साफ जवाब नहीं दे पाया। उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना पूछा कि मैं अचानक ये अजीब सवाल क्यों पूछ रहा हूँ, लोगों ने सदियों से इसी तरह विश्वास का अभ्यास किया है। मैं अभी भी हमेशा की तरह भ्रमित था, इसलिए यह सोचकर कि प्रभु यीशु के वचनों में उत्तर होना चाहिए, मैंने चारों सुसमाचार फिर से पढ़ने का निश्चय किया।

2008 में एक दिन मैंने ये पद पढ़े : "यीशु ने उससे कहा, 'पुनरुत्थान और जीवन मैं ही हूँ; जो कोई मुझ पर विश्‍वास करता है वह यदि मर भी जाए तौभी जीएगा, और जो कोई जीवित है और मुझ पर विश्‍वास करता है, वह अनन्तकाल तक न मरेगा। क्या तू इस बात पर विश्‍वास करती है?'" (यूहन्ना 11:25-26)। ये पद पढ़कर मैं उलझन में पड़ गया। प्रभु क्यों कहेगा कि हमें उसमें जीना और विश्वास करना चाहिए? विश्वासियों के रूप में क्या हम सभी उसमें नहीं जी रहे और विश्वास कर रहे? क्या किसी वजह से प्रभु हमें मरा हुआ समझेगा? इससे मेरे सामने बहुत सारे सवाल खड़े हो गए। कुछ दिनों तक मैंने हर खाली पल यही सोचते हुए बिताया, लेकिन मैं इसका सही अर्थ कभी नहीं समझ पाया। मैं अपने प्रश्नों के साथ फिर से पादरियों और कलीसिया के अन्य सदस्यों के पास गया, न केवल उनके पास कोई उत्तर नहीं था, बल्कि उन्होंने हँसकर मेरा मजाक भी उड़ाया। लेकिन मैं यह महसूस करता रहा कि प्रभु ने जो कहा, उसमें कोई गहरा अर्थ छिपा है।

फिर एक बार मैंने मत्ती के सुसमाचार में यह पढ़ा : "एक और चेले ने उससे कहा, 'हे प्रभु, मुझे पहले जाने दे कि अपने पिता को गाड़ दूँ।' यीशु ने उससे कहा, 'तू मेरे पीछे हो ले, और मुरदों को अपने मुरदे गाड़ने दे।'" (मत्ती 8:21-22)। जब मैंने यह वाक्यांश देखा, "मुरदों को अपने मुरदे गाड़ने दे," तो मैं थोड़ा उलझन में पड़गया। प्रभु उन लोगों को मरा हुआ क्यों कहेगा, जो उस समय जीवित थे? प्रभु हमें जीवित समझता है या मृत? मैंने बाइबल के इस कथन के बारे में सोचा कि पाप की मजदूरी मृत्यु है, और मैं पाप में जी रहा था। क्या प्रभु का "मुरदों" से यही आशय था? यदि हाँ, तो मैं कैसे जिंदा हो सकता हूँ और कैसे राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ? मेरा दिल उन सवालों से भरा हुआ था, जिनका सिर-पैर कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन मन ही मन मुझे एक बात स्पष्ट थी : चूँकि प्रभु ने ये बातें कही हैं, इसलिए इनका उत्तर कहीं न कहीं बाइबल में होना चाहिए। इसलिए मैंने विश्वास नहीं खोया, बल्कि उत्तर की तलाश में लगा रहा।

मैं प्रभु के मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ। कुछ महीने बाद मैंने उसकी कही एक और बात पढ़ी : "मैं तुम से सच सच कहता हूँ वह समय आता है, और अब है, जिसमें मृतक परमेश्‍वर के पुत्र का शब्द सुनेंगे, और जो सुनेंगे वे जीएँगे" (यूहन्ना 5:25)। इसे पढ़कर मुझे तुरंत स्पष्ट हो गया कि मुरदे परमेश्वर की आवाज सुनकर फिर से जिंदा हो जाते हैं। मैं निश्चित हो गया कि यही वह उत्तर है, जिसकी मुझे तलाश थी! लेकिन मैं यह सोचकर अभी भी थोड़ा भ्रमित था कि मैंने बहुत समय पहले प्रभु की आवाज सुनी थी, लेकिन मैं अभी भी पाप के बंधन से मुक्त नहीं हुआ। क्या मैं जीवितों में शामिल हूँ? "जो सुनेंगे वे जीएँगे" वास्तव में किसे संदर्भित करता है? लोग जिंदा कैसे होते हैं? क्या प्रभु जब लौटेगा, तो उसके पास कहने के लिए और अधिक बातें होंगी, जिसे हमें सुनने की जरूरत होगी? यदि हाँ, तो हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुन सकते हैं? हम उसे कहाँ सुन सकते हैं? मुझे इसका पता नहीं चल पाया, इसलिए मैंने प्रभु से प्रार्थना की, "हे प्रभु, कृपया मुझे यथाशीघ्र अपनी वाणी सुनने दो। मैं मरना नहीं चाहता। कृपया जीने में मेरी मदद करो।"

उसके बाद जब मैं कलीसिया की सेवा में गया, तो मैंने इस बात पर ध्यान देना शुरू कर दिया कि क्या पादरी कभी अपने उपदेशों में प्रभु की वापसी या प्रभु की वाणी के बारे में कुछ कहते हैं। मेरे लिए यह वास्तव में निराशाजनक था कि उन्होंने सिर्फ हमें विधर्म से बचने और प्रतीक्षा करने के लिए कहा, लेकिन प्रभु की वापसी के बारे में कुछ नहीं कहा। मैंने इन चीजों के बारे में कलीसिया के प्रभारी कुछ प्रमुख लोगों से भी पूछा, लेकिन उन्होंने कहा कि मेरा लगातार ये सवाल पूछना विश्वास की कमी से है, कि मैं थोमा की तरह हूँ। उन्होंने मेरा बहिष्कार शुरू कर दिया। फिर कलीसिया के उन सदस्यों ने, जिनके साथ मैं हमेशा रहता था, मुझसे दूर करना और मुझे अलग करना शुरू कर दिया। आखिर मुझे वह कलीसिया छोड़नी पड़ी, जिसका मैं 18 वर्षों से अंग था। मैं इस उम्मीद में दिन भर सीबीएस और सीटीएस नेटवर्क से कार्यक्रम देखता रहता, कि प्रसिद्ध पादरियों के उपदेशों से परमेश्वर की वाणी सुनने को मिलेगी। मैंने लगभग छह महीने तक ऐसा किया, और रोजाना लगभग 10 या अधिक घंटे ये कार्यक्रम देखे। मैंने वास्तव में बहुत प्रवचन सुने, लेकिन मुझे अभी भी वो जवाब नहीं मिले जो चाहिए थे। मैं बस उन्हें यही कहते सुनता रहा कि प्रभु बहुत जल्दी लौटने वाला है और हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। लेकिन मैं सवालों से भरा हुआ था। सभी पादरी कह रहे थे कि प्रभु लौटने वाला है, लेकिन कब? और हमने अभी तक उसका स्वागत क्यों नहीं किया? मैं उन दिनों लगातार प्रभु से यह प्रार्थना कर रहा था, "प्रभु! मैं पूरे समय तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा हूँ, मुझे अपने जीवन-काल में तुम्हारा स्वागत करने, तुम्हारी वाणी सुनने की बहुत आशा रही है। हे प्रभु, तुम कब आ रहे हो? कृपया मुझे अपनी वाणी सुनने दो।"

मार्च 2013 में एक दिन हमारे घर के दरवाजे पर लगभग 70 साल के एक बुजुर्ग ने मेरे पास आकर पूछा कि क्या मैं चोसुन इल्बो अखबार की सदस्यता लेना चाहूँगा। मैंने सोचा इस जमाने में सबके पास सेलफोन और कंप्यूटर हैं, अखबार कौन पढ़ता है? इसलिए मैंने उसे तुरंत मना कर दिया। लेकिन कई दिनों तक हर बार जब भी वह मुझे देखता, सदस्यता लेने के लिए कहता। मैं मना करता रहा। लेकिन हैरत हुई कि, एक महीने बाद वही आदमी अचानक मुझे लिफ्ट में मिला। लगा, जैसे वह मेरा ही इंतजार कर रहा हो। मुझे देखकर वह मुस्कुराया और नमस्ते की, फिर मुझसे सदस्यता लेने के लिए कहा। मैंने सोचा, यह आदमी इतने लंबे समय से मुझे अखबार बेचने की कोशिश क्यों कर रहा है। अच्छा बनने की कोशिश करते हुए मैं ग्राहक बन गया, लेकिन विभिन्न कारणों से कुछ समय तक मुझे अखबार पढ़ने का समय नहीं मिला। फिर मई के शुरू में एक सुबह अखबार आने पर मैंने उसे उठाया और जल्दी से सुर्खियों पर नजर डाली, जैसा मैं हमेशा करता था। एक खबर ने फौरन मेरा ध्यान खींच लिया। खबर यह थी "प्रभु यीशु लौटा—राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर वचन व्यक्त कर रहा है।" मैं चौंक पड़ा—क्या? प्रभु लौट आया? सर्वशक्तिमान परमेश्वर? राज्य का युग? क्या यह वास्तव में सच हो सकता है? उस समय मुझमें भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा—मैं वास्तव में उत्साहित था। अंतत: मुझे प्रभु की वापसी का समाचार मिल ही गया। लेकिन फिर मैंने सोचा, यह कहीं झूठा समाचार न हो। मैंने पृष्ठ के निचले हिस्से में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया का फोन नंबर और पता और कलीसिया की पुस्तकों के कुछ नाम देखे। मुझे लगा, इसकी जाँच करना जरूरी है, क्योंकि प्रभु की वापसी वास्तव में एक बड़ी बात है। मैंने तुरंत अखबार से मिले उस नंबर पर फोन किया। जवाब में एक बहन की आवाज सुनकर मैंने उससे कहा, "क्या मैं पूछ सकता हूँ, इस अखबार में जो छपा है, वह वास्तव में सच है? क्या प्रभु लौट आया है? क्या ये वचन वास्तव में परमेश्वर के वचन हैं?" उसने कहा, "यह सच है।" सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बहनों किम और पियाओ ने मुझसे मिलने के लिए एक समय तय किया और उन्होंने परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बारे में मेरे साथ संगति की। बहन किम ने कहा, "जब से आदम और हव्वा को शैतान ने भ्रष्ट किया था, तब से मनुष्य शैतानी ताकतों के अधीन पाप में जी रहा है, शैतान उनसे खिलवाड़ कर रहा है, उन्हें चोट पहुँचा रहा है। परमेश्वर ने इंसान को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह बचाने के लिए तीन चरणों में कार्य किया है, जो व्यवस्था का युग, अनुग्रह का युग और राज्य का युग हैं। ये कार्य के तीन भिन्न चरण हैं, लेकिन ये सभी एक ही परमेश्वर द्वारा किए गए हैं। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण भ्रष्ट मानवता की आवश्यकताओं पर आधारित है, और प्रत्येक चरण पिछले चरण पर निर्मित है, ताकि अधिक गहन और उन्नत कार्य किया जा सके।" फिर उसने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी एक चरण अकेला तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, बल्कि संपूर्ण कार्य के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। यह तथ्य कि उसने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया था, यह प्रमाणित नहीं करता कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अंतर्गत ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए उसके लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित कीं और उसे आज्ञाएँ दीं; जो कार्य उसने किया, वह केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है। उसके द्वारा किया गया यह कार्य यह प्रमाणित नहीं करता कि केवल वही परमेश्वर, परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहता है, या वह बस मंदिर में परमेश्वर है, या बस वेदी के सामने परमेश्वर है। ऐसा कहना झूठ होगा। व्यवस्था के अधीन किया गया कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही कार्य किया होता, तो मनुष्य ने यह कहते हुए परमेश्वर को निम्नलिखित परिभाषा में सीमित कर दिया होता, 'परमेश्वर मंदिर में ही परमेश्वर है और परमेश्वर की सेवा करने के लिए हमें याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।' यदि अनुग्रह के युग का कार्य कभी न किया जाता और व्यवस्था का युग ही वर्तमान समय तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयालु और प्रेमपूर्ण भी है। यदि व्यवस्था के युग में कोई कार्य न किया जाता और केवल अनुग्रह के युग में ही कार्य किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और उसके पाप क्षमा कर सकता है। वह केवल इतना ही जान पाता कि परमेश्वर पवित्र और निर्दोष है, और वह मनुष्य के लिए अपना बलिदान करने और सलीब पर चढ़ने में सक्षम है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और उसे अन्य किसी चीज़ की कोई समझ न होती। अतः प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि व्यवस्था के युग में किन पहलुओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है, अनुग्रह के युग में किन पहलुओं का, और इस वर्तमान युग में किन पहलुओं का : केवल तीनों युगों को पूर्ण एक में मिलाने पर ही वे परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को प्रकट कर सकते हैं। केवल इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही मनुष्य इसे पूरी तरह से समझ सकता है। तीनों चरणों में से एक भी चरण छोड़ा नहीं जा सकता। कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी संपूर्णता में देखोगे। यह तथ्य कि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया, यह प्रमाणित नहीं करता कि वह केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर है, और इस तथ्य का कि उसने छुटकारे का कार्य किया, यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर सदैव मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह के युग के समाप्ति पर आ जाने पर तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सबंध रखता है, और केवल सलीब ही परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा करना परमेश्वर को परिभाषित करना होगा। वर्तमान चरण में परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परंतु इससे तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और वह बस ताड़ना और न्याय लाया है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट करता है, जिन्हें मनुष्य द्वारा समझा नहीं गया था, ताकि मानवजाति की मंज़िल और अंत प्रकट किया जा सके और मानवजाति के बीच उद्धार का समस्त कार्य समाप्त हो सके। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य द्वारा समझे न गए सभी रहस्यों को प्रकट किया जाना आवश्यक है, ताकि मनुष्य उन्हें उनकी गहराई तक जान सकें और उनके हृदयों में उनकी एक पूरी तरह से स्पष्ट समझ उत्पन्न हो सके। केवल तभी मानवजाति को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। केवल छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना पूर्ण होने के बाद ही मनुष्य परमेश्वर का स्वभाव उसकी संपूर्णता में समझ पाएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन-योजना समाप्ति पर आ गई होगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))। फिर सिस्टर किम ने मेरे साथ और अधिक संगति साझा की और मैंने जाना कि परमेश्वर की 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना तीन युगों, तीन चरणों में विभाजित है—व्यवस्था का युग, अनुग्रह का युग, और राज्य का युग। व्यवस्था के युग में यहोवा ने व्यवस्था जारी की, ताकि लोग जान सकें कि पाप क्या है। अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु ने छुटकारे का कार्य पूरा किया। वह मनुष्य के लिए क्रूस पर चढ़ा, और हमारे पाप क्षमा किए हमें व्यवस्था के तहत दंड और मृत्यु से मुक्ति दिलाई। राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर न्याय का कार्य कर रहा है, ताकि मनुष्य के पाप की जड़ मिटा सके, हमें पूरी तरह से शुद्ध करके बचा सके और हमें परमेश्वर के राज्य में ले जा सके। कार्य के तीन चरण अलग-अलग युगों में बंटे हुए हैं और उनमें अलग-अलग चीजें शामिल हैं, लेकिन यह सब एक ही परमेश्वर ने किया है। एक ही परमेश्वर ने अलग-अलग युगों में अलग-अलग कार्य किया है। यह समझना मेरे लिए वास्तव में प्रबुद्ध करने वाला था।

फिर बहन पियाओ ने मुझे इस बात पर संगति दी कि कैसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपने न्याय के कार्य द्वारा लोगों को शुद्ध करता है। उसने परमेश्वर के वचनों साझा किए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों का मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन तमाम विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है)। फिर बहन पियाओ ने मुझसे कहा, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर लोगों का न्याय करने और उन्हें शुद्ध करने के लिए सत्य का उपयोग करता है। उसने लाखों वचन व्यक्त किए हैं, जो बाइबल के रहस्य प्रकट करते हैं और परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हैं, और वे मनुष्य के पाप की जड़ और हमारी भ्रष्टता का सत्य उजागर करते हैं। कुछ वचन स्वभावगत परिवर्तन और जीवन-प्रवेश के बारे में हैं, और कुछ लोगों का परिणाम निर्धारित करने के बारे में हैं, आदि। यह सब सच है और यह सब परमेश्वर से आता है। यह हमें परमेश्वर का धार्मिक और पवित्र स्वभाव और उसकी बुद्धि दिखाता है। जो कोई भी उसके वचन पढ़ता है, वह उनका अधिकार और सामर्थ्य महसूस कर सकता है। परमेश्वर सब देखता है, केवल वही भ्रष्ट मनुष्य को गहराई से जानता है। परमेश्वर हमारा हर विचार, दृष्टिकोण, मत और भ्रष्ट स्थिति को बहुत स्पष्टता से और व्यावहारिक शब्दों में उजागर करता है। वह इस भ्रष्टता के सार को भी प्रकट और विश्लेषित करता है, और मानव-जाति की पापमयता और परमेश्वर के विरोध को जड़ से मिटा देता है।" उसने यह भी कहा, "परमेश्वर के वचनों के न्याय, प्रकाशनों और शोधनों के माध्यम से, हम अपनी शैतानी भ्रष्टता के सत्य की कुछ समझ प्राप्त करते हैं। फिर हम देखते हैं कि हम कितने घमंडी, कुटिल, स्वार्थी और नीच हैं, हम जो कुछ भी कहते और करते हैं, वह भ्रष्टता पर आधारित होता है और हम एक इंसान की तरह बिलकुल नहीं जीते। नाम और हैसियत के लिए लड़ना, साजिश करना, झूठ बोलना और धोखा देना, ईर्ष्यालु और द्वेषपूर्ण होना, परमेश्वर के प्रति समर्पित हुए बिना विश्वास करना, फालतू इच्छाओं से भरे होना, परीक्षण या कठिनाइयाँ आने पर परमेश्वर को दोष देना और उसका विरोध करना इसके उदाहरण हैं। हम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के माध्यम से कुछ सत्य समझ लेते हैं और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर करना जान जाते हैं। हम परमेश्वर के कोई अपमान न सहने वाले धार्मिक स्वभाव के बारे में भी और अधिक जान जाते हैं, और धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखने और समर्पण करने लगते हैं। हम पश्चात्ताप करने, उसका न्याय और ताड़ना स्वीकारने और उसके वचन पूरे करने में सक्षम हो जाते हैं।" उसने यह भी कहा, "परमेश्वर के वचनों से उजागर हुए बिना, केवल प्रार्थना और पाप स्वीकारने के भरोसे, हम चिंतन के जरिये वैसी समझ कभी नहीं पाएँगे, न अपने पाप की जड़ मिटा पाएँगे। अनुभव के माध्यम से हम यह भी देखते हैं कि परमेश्वर का न्याय मनुष्य के लिए उसका सच्चा प्रेम और सर्वोत्तम उद्धार है, और उस व्यावहारिक कार्य के बिना हमारे भ्रष्ट स्वभाव कभी भी शुद्ध नहीं किए जा सकते। इसलिए अंत के दिनों के परमेश्वर के न्याय-कार्य को स्वीकार करना ही राज्य में प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग है।" फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचनों के न्याय की अपनी व्यक्तिगत गवाही के बारे में बताया। यह सब बहुत व्यावहारिक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य ही वो था जिसकी मुझे आध्यात्मिक रूप से आवश्यकता थी, कि अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य वास्तव में लोगों को बदल और शुद्ध कर सकता है, और राज्य में जाने का एकमात्र तरीका परमेश्वर का न्याय स्वीकारना है।

अगले कुछ दिनों में बहनों ने मुझे यह भी बताया कि क्यों धार्मिक दुनिया इतनी उजाड़ है और पादरियों के उपदेश नीरस हैं। उन्होंने बाइबल के पीछे की वास्तविक कहानी, परमेश्वर के देहधारणों के रहस्य और अर्थ भी बताए। मुझे ऐसा लगा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में बहुत-कुछ है और उन्होंने मुझे बहुत सारे रहस्य भी समझाए। इसकी जाँच करके मैंने खुशी-खुशी सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का उद्धार स्वीकार लिया।

इन बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचनों की कुछ पुस्तकें दीं। घर पहुँचकर मैंने उनमें से एक पुस्तक खोली, मेमने द्वारा खोली गई पुस्तक। पहली चीज जो मैंने देखी, वह थी प्रस्तावना में परमेश्वर के कुछ वचन : "यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग 'परमेश्वर' शब्द और 'परमेश्वर का कार्य' जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करनेको गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। 'परमेश्वर में विश्वास' का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है: इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही 'परमेश्वर में विश्वास' कहा जा सकता है" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचन विस्तृत और व्यावहारिक हैं, और परमेश्वर में विश्वास का सही अर्थ बताते हैं। मैंने महसूस किया कि विश्वास के लिए परमेश्वर के वचनों और कार्य का अनुभव करना आवश्यक है ताकि हम भ्रष्टता दूर कर सत्य पा सकें और परमेश्वर को जान सकें। केवल यही सच्चा विश्वास है। मैं सोचा करता था कि विश्वास मतलब रोज प्रार्थना करना और कलीसिया जाना। अफसोस, मुझे कभी पता नहीं चला कि मैं विश्वास के सही मार्ग पर हूँ या नहीं, इसलिए मैं तब तक बस लड़खड़ाता ही रहा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे लगा कि अपने विश्वास में मैं पहले जिस मार्ग पर चला था, वह पूरी तरह से गलत था। फिर मैंने विषय-सूची में यह शीर्षक देखा "क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो जीवित हो उठा है?" इसने मुझे आकर्षित कर लिया और मैं तुरंत उसकी ओर मुड़ गया। इसमें परमेश्वर के ये वचन थे : "परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की, लेकिन शैतान ने मनुष्य को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया कि मनुष्य को 'मृत मनुष्य' बना दिया। लेकिन बदलने के बाद, तुम इन 'मृत मनुष्यों' जैसे नहीं रह जाओगे। परमेश्वर के वचन लोगों की आत्मा में नई जान डाल देते हैं और उनका पुनर्जन्म हो जाता है, जब लोगों की आत्मा नया जन्म ले लेगी तो वे जीवित हो उठेंगे। जब मैं 'मृत मनुष्य' की बात करता हूँ तो मैं उन शवों की बात करता हूँ जिनमें आत्मा नहीं होती, उन लोगों की बात करता हूँ जिनकी आत्मा मर चुकी है। जब लोगों की आत्मा फिर से जागती है, तो वे पुनर्जीवित हो उठते हैं। जिन संतों की बात पहले की गई है, ये वे लोग हैं जो जीवित हो उठे हैं, जो शैतान के अधिकार में थे परंतु उन्होंने शैतान को हरा दिया है। ...

"... 'मृतक' वे हैं जो परमेश्वर का विरोध और उससे विद्रोह करते हैं, ये वे लोग हैं जिनकी आत्मा संवेदन-शून्य हो चुकी है और जो परमेश्वर के वचन नहीं समझते; ये वे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर के प्रति ज़रा भी निष्ठा नहीं रखते, ये वे लोग हैं जो शैतान के अधिकार-क्षेत्र में रहते हैं और शैतान द्वारा शोषित हैं। मृतक सत्य के विरुद्ध खड़े होकर, परमेश्वर का विरोध और नीचता करते हैं, घिनौना, दुर्भावनापूर्ण, पाशविक, धोखेबाजी और कपट का व्यवहार कर स्वयं को प्रदर्शित करते हैं। अगर ऐसे लोग परमेश्वर का वचन खाते और पीते भी हैं, तो भी वे परमेश्वर के वचनों को जीने में समर्थ नहीं होते; वे जीवित तो हैं, परंतु वे चलती-फिरती, सांस लेने वाली लाशें भर हैं। मृतक परमेश्वर को संतुष्ट करने में पूर्णतः असमर्थ होते हैं, पूर्ण रूप से उसके प्रति आज्ञाकारी होने की तो बात ही दूर है। वे केवल उसे धोखा दे सकते हैं, उसकी निंदा कर सकते हैं, उससे कपट कर सकते हैं और जैसा जीवन वे जीते हैं उससे उनकी शैतानी प्रकृति प्रकट होती है। अगर लोग जीवित प्राणी बनना चाहते हैं, परमेश्वर के गवाह बनना चाहते हैं, परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करना चाहिए; उन्हें आनंदपूर्वक उसके न्याय व ताड़ना के प्रति समर्पित होना चाहिए, आनंदपूर्वक परमेश्वर की काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार करना चाहिए। तभी वे परमेश्वर द्वारा अपेक्षित तमाम सत्य को अपने आचरण में ला सकेंगे, तभी वे परमेश्वर के उद्धार को पा सकेंगे और सचमुच जीवित प्राणी बन सकेंगे। जो जीवित हैं वे परमेश्वर द्वारा बचाए जाते हैं; वे परमेश्वर द्वारा न्याय व ताड़ना का सामना कर चुके होते हैं, वे स्वयं को समर्पित करने और आनंदपूर्वक अपने प्राण परमेश्वर के लिए न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं और वे प्रसन्नता से अपना सम्पूर्ण जीवन परमेश्वर को अर्पित कर देते हैं। जब जीवित जन परमेश्वर की गवाही देते हैं, तभी शैतान शर्मिन्दा हो सकता है। केवल जीवित ही परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार कर सकते हैं, केवल जीवित ही परमेश्वर के हृदय के अनुसार होते हैं और केवल जीवित ही वास्तविक जन हैं" (वचन देह में प्रकट होता है)। इस अंश को पढ़ने के बाद, मैंने अपने दिल में जान लिया कि यही वह उत्तर है, जिसकी मुझे इतने वर्षों से तलाश थी। मैं अंतत: जान गया कि "मुरदा" या "जिंदा" होने का क्या अर्थ है। जब परमेश्वर ने आदम और हव्वा को बनाया, तो वे परमेश्वर को सुन, उसे अभिव्यक्त और महिमामंडित कर सकते थे। वे आत्माओं से युक्त जीवित लोग थे। फिर शैतान ने उन्हें परमेश्वर को धोखा देने का प्रलोभन दिया और वे शैतान की ताकत के अधीन पाप में जीने लगे, और इस तरह मानव-जाति अधिकाधिक भ्रष्ट हो गई, जिससे शैतान के सभी प्रकार के जहर हमारे अंदर बहने लगे। हम पाप में और गहरे डूब गए हैं, परमेश्वर को नकारते और उसका विरोध करते हैं, शैतानी स्वभाव जीते हैं। हम वैसे नहीं हैं, जैसा परमेश्वर ने हमें शुरुआत में बनाया था। परमेश्वर पाप में और शैतान की ताकत के अधीन जीने वाले हर व्यक्ति को मुरदा समझता है, और मुरदे शैतान के होते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे उसके राज्य के योग्य नहीं हैं। जीवित वे हैं, जिन्हें परमेश्वर ने बचाया है। उनकी भ्रष्टता परमेश्वर के न्याय और ताड़ना द्वारा शुद्ध की गई है। वे पाप और शैतान की ताकतों को त्याग देते हैं, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और विरोध नहीं करते। परमेश्वर चाहे जैसे भी बोले और काम करे, वे सुनकर आज्ञापालन कर सकते हैं। जीवित लोग परमेश्वर की गवाही और महिमा दे सकते हैं, और केवल वे ही परमेश्वर का अनुमोदन पाकर उसके राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। जीवित होने के लिए हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों को स्वीकारना, उसके न्याय का अनुभव करना, अंतत: शुद्ध होना और अपनी चेतना और विवेक को पुन: प्राप्त करना, सृष्टिकर्ता का आज्ञापालन और उसके वचनों को व्यवहार में लाना, परमेश्वर का सम्मान करना होगा और गवाही देनी होगी। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में फिर से से जीवित हुआ होता है, जो राज्य में प्रवेश और अनंत जीवन प्राप्त कर सकता है। उस समय मैं समझ गया कि प्रभु के इस कथन का क्या अर्थ है "पुनरुत्थान और जीवन मैं ही हूँ; जो कोई मुझ पर विश्‍वास करता है वह यदि मर भी जाए तौभी जीएगा, और जो कोई जीवित है और मुझ पर विश्‍वास करता है, वह अनन्तकाल तक न मरेगा" (यूहन्ना 11:25-26)। इसका यही अर्थ है। मैं यह सब लेने पर लगा जैसे मेरा दिल उजला हो गया है।

उसके बाद मैंने एक और लेख पढ़ा, जिसका शीर्षक है "केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है।" इसने मुझ पर बहुत गहरी छाप छोड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों का मसीह जीवन लेकर आता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लेकर आता है। यह सत्य वह मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यह एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते हो, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के फाटक में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे, क्योंकि तुम इतिहास की कठपुतली और कैदी दोनों ही हो। वे लोग जो नियमों से, शब्दों से नियंत्रित होते हैं, और इतिहास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, न तो कभी जीवन प्राप्त कर पाएँगे और न ही जीवन का शाश्वत मार्ग प्राप्त कर पाएँगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास, सिंहासन से प्रवाहित होने वाले जीवन के जल की बजाय, बस मैला पानी ही है जिससे वे हजारों सालों से चिपके हुए हैं। वे जिन्हें जीवन के जल की आपूर्ति नहीं की गई है, हमेशा के लिए मुर्दे, शैतान के खिलौने, और नरक की संतानें बने रहेंगे। फिर वे परमेश्वर को कैसे देख सकते हैं? यदि तुम केवल अतीत को पकड़े रखने की कोशिश करते हो, केवल जड़वत खड़े रहकर चीजों को जस का तस रखने की कोशिश करते हो, और यथास्थिति को बदलने और इतिहास को खारिज करने की कोशिश नहीं करते हो, तो क्या तुम हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध नहीं होगे? परमेश्वर के कार्य के चरण उमड़ती लहरों और गरजते तूफानों की तरह विशाल और शक्तिशाली हैं—फिर भी तुम निठल्ले बैठकर तबाही का इंतजार करते हो, अपनी नादानी से चिपके रहते हो और कुछ भी नहीं करते हो। इस तरह, तुम्हें मेमने के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति कैसे माना जा सकता है? तुम जिस परमेश्वर को थामे हो उसे उस परमेश्वर के रूप में सही कैसे ठहरा सकते हो जो हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं होता? और तुम्हारी पीली पड़ चुकी किताबों के शब्द तुम्हें नए युग में कैसे ले जा सकते हैं? वे परमेश्वर के कार्य के चरणों को ढूँढ़ने में तुम्हारी अगुआई कैसे कर सकते हैं? और वे तुम्हें ऊपर स्वर्ग में कैसे ले जा सकते हैं? तुम अपने हाथों में जो थामे हो वे शब्द हैं, जो तुम्हें केवल अस्थायी सांत्वना दे सकते हैं, जीवन देने में सक्षम सत्य नहीं दे सकते। तुम जो शास्त्र पढ़ते हो वे केवल तुम्हारी जिह्वा को समृद्ध कर सकते हैं और ये दर्शनशास्त्र के वचन नहीं हैं जो मानव जीवन को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं, तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने की बात तो दूर रही। क्या यह विसंगति तुम्हारे लिए गहन चिंतन का कारण नहीं है? क्या यह तुम्हें अपने भीतर समाहित रहस्यों का बोध नहीं करवाती है? क्या तुम परमेश्वर से अकेले में मिलने के लिए अपने आप को स्वर्ग को सौंप देने में समर्थ हो? परमेश्वर के आए बिना, क्या तुम परमेश्वर के साथ पारिवारिक आनंद मनाने के लिए अपने आप को स्वर्ग में ले जा सकते हो? क्या तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो? तो मेरा सुझाव यह है कि तुम स्वप्न देखना बंद कर दो और उसकी ओर देखो जो अभी कार्य कर रहा है—उसकी ओर देखो जो अब अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने का कार्य कर रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं करोगे, और न ही कभी जीवन प्राप्त करोगे" (वचन देह में प्रकट होता है)। इसका मुझ पर सच में बहुत प्रभाव पड़ा। मुझे लगा, यह इतना अधिकारपूर्ण और सामर्थ्यवान है, कि ये वचन केवल परमेश्वर से ही आ सकते हैं। मुझे प्रभु यीशु की यह बात याद आई "मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता" (यूहन्ना 14:6)। यही बात है। परमेश्वर के अलावा, राज्य के द्वार पर कौन शासन कर सकता था? यदि हम अनंत जीवन चाहते हैं, तो हमें अंत के दिनों के मसीह द्वारा लाया गया अनंत जीवन का मार्ग स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ है वापस लौटे प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्य, और राज्य में प्रवेश करने की अपनी आशाएँ साकार करने का यही एकमात्र तरीका है। मैंने बहुत भाग्यशाली महसूस किया कि मैं राज्य का मार्ग पाने में सफल रहा। मैं बहुत रोमांचित था। मैंने परमेश्वर के वचनों को ऐसे पढ़ा, जैसे वे भूखे आदमी के लिए भोजन हों, और उन्होंने मुझ पर इतना गहरा प्रभाव डाला। जितना अधिक मैंने पढ़ा, उतना ही मैंने जाना कि वे सत्य हैं, कि वे किसी पादरी या धर्मशास्त्री से आए हुए नहीं हो सकते। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने मेरी भटकती, भूखी आत्मा को पोषित किया, फिर मुझे उस अखबार बेचने वाले बूढ़े आदमी का ख्याल आया। वह मुझसे ग्राहक बनने के लिए कहता रहा, जिससे अंतत: मैंने परमेश्वर की वाणी सुनी। मैं उसे धन्यवाद देना चाहता था, पर वह मुझे फिर कभी नहीं मिला। तब मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के अद्भुत कार्य के कारण ऐसा हुआ। वह आदमी मुझसे ग्राहक बनने लिए कह रहा था, जिससे मैं परमेश्वर की वाणी सुन पाया और प्रभु की वापसी का स्वागत कर पाया। यह मेरे लिए परमेश्वर का मार्गदर्शन और प्रेम था। मैं वास्तव में परमेश्वर का आभारी हूँ। मैं बहुत धन्य महसूस करता हूँ कि मैं अपने जीवन-काल में परमेश्वर की वाणी सुनने और उसके प्रकट होने का साक्षी रहा हूँ। यह परमेश्वर की दया और अनुग्रह, और उससे भी बढ़कर, मेरे लिए उसका उद्धार है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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