परिवार की कैद से बच निकलना
मैंने 2005 में अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। उस दौरान सभाओं में हिस्सा लेकर और परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मैंने ऐसे कई सत्य और रहस्य जाने, जिनके बारे में पहले कभी नहीं सुना था : मैंने जाना कि परमेश्वर मानव जाति को कैसे प्रबंधित करता और बचाता है, मैंने मानव जीवन के उद्देश्य, मूल्य और अर्थ के साथ-साथ मनुष्य के परिणाम और गंतव्य के बारे में जाना। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं जीवन की कई समस्याओं और कठिनाइयों को हल कर पाई। परमेश्वर में आस्था रखने से बहुत अच्छा लगा, पर जब मेरे पति को पता चला तो वह मेरी आस्था का विरोध करने पर अड़ गया। मेरे चाचा को एक बार सीसीपी पुलिस ने प्रभु में आस्था के कारण गिरफ्तार किया था। मेरा पति जानता था कि सीसीपी सभी को परमेश्वर में आस्था रखने से रोकती है, उसे चिंता थी कि मुझे भी गिरफ्तार किया जाएगा और इससे पूरा परिवार फँसेगा, इसलिए वह मेरी आस्था का बहुत विरोधी था। साथ ही मैं तब एक स्थानापन्न शिक्षिका थी और उसे चिंता थी कि पता लगते ही स्कूल मुझे निकाल देगा, तो उसने मुझ पर काफी दबाव डाला और बाधित किया।
वह मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने या भजन सुनने नहीं देता था, सभाओं में जाने या कर्तव्य निभाने की अनुमति तो शायद ही कभी देता। मुझे याद है एक बार उसने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ते देखा और बेहद गुस्सा हो गया। उसने कहा : "हमारी सरकार तुम्हें आस्था रखने से रोकती है, फिर भी तुम विश्वास करती हो! यदि शिक्षा समिति के किसी सदस्य ने तुम्हें पकड़ लिया तो न केवल नौकरी जाएगी, तुम्हें जेल भी भेजा जाएगा। मेरे पास जमानत कराने के पैसे नहीं हैं, इसलिए बेहतर है कि तुम विश्वास रखना बंद कर दो!" फिर भी जब मैंने आस्था जारी रखी तो उसने मुझे यह कहते हुए धमकाया : "जब तक मेरी साँस में साँस है, आस्था का अभ्यास करने का सपना भी मत देखना!" यह सुनकर मेरा संकल्प कमजोर पड़ गया। मैंने सोचा : "मेरा पति किसी भी हाल में मुझे आस्था का अभ्यास नहीं करने देगा, फिर भी मेरा विश्वास रखने पर जोर है। तो वह मेरा क्या कर सकता है?" तभी मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : "तुम में मेरी हिम्मत होनी चाहिए, जब उन रिश्तेदारों का सामना करने की बात आए जो विश्वास नहीं करते, तो तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। लेकिन तुम्हें मेरी खातिर किसी भी अन्धकार की शक्ति से हार नहीं माननी चाहिए। पूर्ण मार्ग पर चलने के लिए मेरी बुद्धि पर भरोसा रखो; शैतान के किसी भी षडयंत्र को काबिज़ न होने दो। अपने हृदय को मेरे सम्मुख रखने हेतु पूरा प्रयास करो, मैं तुम्हें आराम दूँगा, तुम्हें शान्ति और आनंद प्रदान करूँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए बहुत प्रेरक थे। मैंने सोचा कि कैसे मेरे पति को धोखा देकर सीसीपी ने मुझे धमकवाया, मुझे अपनी आस्था त्यागने को मजबूर किया। ऊपर से लगता था कि मेरा पति मुझ पर परमेश्वर का अनुसरण करने से रोकने को दबाव डाल रहा था, पर असल में शैतान उसके जरिए मुझे परमेश्वर को धोखा देने और उसका उद्धार खोने को मजबूर कर रहा था। मैं शैतान के कुचक्र या समझौते के जाल में नहीं आ सकती थी। मुझे भरोसा था कि जब तक मैं परमेश्वर पर निर्भर हूँ और उसके वचनों के अनुसार कार्य करती हूँ, वह मेरे पति के दबाव से उबरने में मेरी अगुआई करेगा। उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों की किताबें छिपा दीं और केवल तभी पढ़ती, सभाओं में जाती या सुसमाचार का प्रसार करती जब वह घर से दूर होता। जुलाई 2008 में मेरे पति को पता चला कि मैं अब भी आस्थावान रहकर कर्तव्य निभा रही हूँ, वह अचानक फट पड़ा। उसने परमेश्वर के वचन की किताबें ढूंढने को पूरा घर उलट-पलट दिया और भजन सुनने वाला एमपी5 प्लेयर फेंक दिया। प्लेयर पर पैर रखकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। मुझे आस्था का अभ्यास करने से रोकने के लिए उसने ऊँची तनख्वाह की नौकरी से छुट्टी ली ताकि घर पर पूरे दिन मेरी गतिविधियों पर नजर रख सके। मैं सभाओं में नहीं जा सकती थी और सचमुच पीड़ा में थी, तो जब मौका मिला, अपने भाई-बहनों से मिलने निकल पड़ी। ताज्जुब यह कि उसने हमारी रिपोर्ट करने के लिए पुलिस बुला ली। सौभाग्य से उन्हें परमेश्वर के वचनों की कोई किताब या दूसरे सबूत नहीं मिले तो उन्होंने हमें गिरफ्तार नहीं किया। बाद में जब उसे पता चला कि बगल में मेरी बहन का घर सभा-स्थल है, तो उसने भाई-बहनों के इकट्ठा होने की तस्वीरें लीं और उनकी रिपोर्ट करने की धमकी दी। नतीजतन, अब भाई-बहन वहाँ इकट्ठे नहीं होते थे। जब भी वह मुझे मेरे भाई-बहनों से संपर्क करते पाता, या तो मुझे पीटता या डांटता था। उसने मुझे अनगिनत बार पीटा, मेरे एक कान में घंटियां बजने की आवाज आने लगी जो महीनों तक बनी रही।
उन दिनों मैं अक्सर यह भजन गुनगुनाती थी : "मैं अपना प्यार और अपनी निष्ठा परमेश्वर को अर्पित कर दूँगा और परमेश्वर को महिमान्वित करने के अपने लक्ष्य को पूरा करूँगा। मैं परमेश्वर की गवाही में डटे रहने, और शैतान के आगे कभी हार न मानने के लिये दृढ़निश्चयी हूँ। मेरा सिर फूट सकता है, मेरा लहू बह सकता है, मगर परमेश्वर-जनों का जोश कभी ख़त्म नहीं हो सकता। परमेश्वर के उपदेश दिल में बसते हैं, मैं दुष्ट शैतान को अपमानित करने का निश्चय करता हूँ। पीड़ा और कठिनाइयाँ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। मैं मृत्युपर्यंत उसके प्रति वफादार और आज्ञाकारी रहूँगा। मैं फिर कभी परमेश्वर के आँसू बहाने या चिंता करने का कारण नहीं बनूँगा" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ, परमेश्वर के महिमा दिवस को देखना मेरी अभिलाषा है)। मैंने सोचा कि कैसे केवल परमेश्वर के अपार प्रेम से मुझ जैसी सृजित प्राणी इतनी भाग्यशाली थी कि परमेश्वर का अनुसरण करे और वह मुझे बचाए। मेरे लिए शैतान के आगे झुकने से अच्छा था मर जाना, पर कभी परमेश्वर से धोखा न करना। पति मुझ पर जितना ज्यादा दबाव डाले, उतना ही मुझे परमेश्वर का अनुसरण करना था, दृढ़ रहकर शैतान को नीचा दिखाना करना था। बाद में कलीसिया को चिंता हुई कि सभाओं में शामिल होने या कर्तव्य निभाने पर पति मुझे पीटता रहेगा, और दूसरे भाई-बहनों की रिपोर्ट करेगा, तो उन्होंने मुझे सभाओं में जाने से रोक दिया और घर पर रहकर परमेश्वर के वचन पढ़ने को कहा।
अगले तीन साल मैं पति के बाहर जाने पर ही चुपचाप परमेश्वर के वचन पढ़ पाती थी, कभी-कभी बगल में बहन के साथ संगति करती और मित्रों और परिवार के लोगों के बीच सुसमाचार फैलाती। पिंजरे में बंद पंछी की तरह मुझ पर रोक थी। दूसरे भाई-बहनों के साथ बिताए अपने समय के बारे में सोचती, सत्य की संगति करते, परमेश्वर की स्तुति में भजन गाते, वह कितना सुखद और अद्भुत समय था! मैंने यह भी सोचा कि अंत के दिनों में मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य कितनी दुर्लभ घटना थी, और वह मौका चुटकी बजाते चला जाएगा, तो मैं चूक नहीं सकती थी। मैं सामान्य कलीसियाई जीवन जीने, सुसमाचार फैलाने और दूसरों के साथ परमेश्वर की गवाही देने की लालसा रखती थी, पर ये सब बस कोरी आशाएँ बनकर रह गई थीं। मैं बहुत उदास और व्यथित महसूस करती और अक्सर छिपकर रोती थी। मैं चिल्लाना चाहती थी : "परमेश्वर में आस्था रखना सही रास्ते पर चलना है। मैंने सही फैसला किया है। तो यह मेरे काम क्यों नहीं आ रहा?" तब मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा। "हजारों सालों से यह भूमि मलिन रही है। यह गंदी और दुःखों से भरी हुई है, चालें चलते और धोखा देते हुए, निराधार आरोप लगाते हुए,[1] क्रूर और दुष्ट बनकर इस भुतहा शहर को कुचलते हुए और लाशों से पाटते हुए प्रेत यहाँ हर जगह बेकाबू दौड़ते हैं; सड़ांध ज़मीन पर छाकर हवा में व्याप्त हो गई है, और इस पर जबर्दस्त पहरेदारी[2] है। आसमान से परे की दुनिया कौन देख सकता है? शैतान मनुष्य के पूरे शरीर को कसकर बांध देता है, अपनी दोनों आंखों पर पर्दा डालकर, अपने होंठ मजबूती से बंद कर देता है। शैतानों के राजा ने हजारों वर्षों तक उपद्रव किया है, और आज भी वह उपद्रव कर रहा है और इस भुतहा शहर पर बारीकी से नज़र रखे हुए है, मानो यह राक्षसों का एक अभेद्य महल हो; इस बीच रक्षक कुत्ते चमकती हुई आंखों से घूरते हैं, वे इस बात से अत्यंत भयभीत रहते हैं कि कहीं परमेश्वर अचानक उन्हें पकड़कर समाप्त न कर दे, उन्हें सुख-शांति के स्थान से वंचित न कर दे। ऐसे भुतहा शहर के लोग परमेश्वर को कैसे देख सके होंगे? क्या उन्होंने कभी परमेश्वर की प्रियता और मनोहरता का आनंद लिया है? उन्हें मानव-जगत के मामलों की क्या कद्र है? उनमें से कौन परमेश्वर की उत्कट इच्छा को समझ सकता है? फिर, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि देहधारी परमेश्वर पूरी तरह से छिपा रहता है : इस तरह के अंधकारपूर्ण समाज में, जहाँ राक्षस बेरहम और अमानवीय हैं, पलक झपकते ही लोगों को मार डालने वाला शैतानों का सरदार, ऐसे मनोहर, दयालु और पवित्र परमेश्वर के अस्तित्व को कैसे सहन कर सकता है? वह परमेश्वर के आगमन की सराहना और जयजयकार कैसे कर सकता है? ये अनुचर! ये दया के बदले घृणा देते हैं, लंबे समय पहले ही वे परमेश्वर से शत्रु की तरह पेश आने लगे थे, ये परमेश्वर को अपशब्द बोलते हैं, ये बेहद बर्बर हैं, इनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी सम्मान नहीं है, ये लूटते और डाका डालते हैं, इनका विवेक मर चुका है, ये विवेक के विरुद्ध कार्य करते हैं, और ये लालच देकर निर्दोषों को अचेत कर देते हैं। प्राचीन पूर्वज? प्रिय अगुवा? वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं! उनके हस्तक्षेप ने स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अंधेरे और अराजकता की स्थिति में छोड़ दिया है! धार्मिक स्वतंत्रता? नागरिकों के वैध अधिकार और हित? ये सब पाप को छिपाने की चालें हैं!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (8))। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मैंने सीसीपी राक्षसों की परमेश्वर के प्रतिरोध की सच्चाई जानी। मैंने पाया कि सत्ता संभालने के बाद से सीसीपी ने यह कहकर नास्तिकता का प्रचार किया कि "सभी चीज़ें प्राकृतिक रूप से विकसित हुईं," "मनुष्य वानरों से विकसित हुआ," "कभी भी कोई उद्धारकर्ता नहीं हुआ है" आदि। उन्होंने इन बेतुके सिद्धांतों से लोगों को धोखा दिया, ताकि लोग परमेश्वर को ठुकराएं और धोखा दें, उनके साथ परमेश्वर का विरोध करें और आखिर में परमेश्वर उन्हें नष्ट कर कब्र में पहुंचा दे। अंत के दिनों में जब परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण किया है, सीसीपी पागलों की तरह मसीह के पीछे पड़ी है, और ईसाइयों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार कर सता रही है, अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को दबाने के लिए चीन में नास्तिक सत्ता स्थापित करने में जुटी है। सीसीपी एक राक्षसी सेना है जो परमेश्वर को अपना शत्रु मानती है। यह हत्यारी और शैतान की परमेश्वर-विरोधी अवतार है। मेरा पति आस्था के अभ्यास में बाधा डालकर मुझ पर इसलिए दबाव डाल रहा था, क्योंकि सीसीपी के नास्तिक फलसफे से उसका मन बदल दिया गया था। उसका परमेश्वर में विश्वास नहीं था, उसे डर था कि अगर मुझे सीसीपी ने गिरफ्तार किया तो वह फँस जाएगा, इसलिए उसने परमेश्वर में मेरी आस्था का कड़ा विरोध किया। मैं जिस पीड़ा से गुजर रही थी, उसकी जिम्मेदार सीसीपी की करतूत थी। मैं इस राक्षसी कबीले से भरपूर नफरत करती थी। परमेश्वर में आस्था रखने के बाद से ही मेरा पति मुझे सीसीपी के साथ मिलकर सता रहा है, उसने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में जाने या कर्तव्य निभाने से रोका, अनगिनत बार पीटा और यहां तक कि मेरी और मेरे भाई-बहनों की पुलिस में रिपोर्ट की। यह जानकर कि मेरे पति की प्रकृति और सार सत्य से घृणा करने और परमेश्वर को ठुकराने वाला था, और अगर मैंने घर पर आस्था का अभ्यास किया तो मैं हमेशा सताई जाऊँगी, मैंने कई बार उसे तलाक देने, घर छोड़कर आस्था का अभ्यास करने और कर्तव्य निभाने की सोची। लेकिन जब भी मैं घर छोड़ने के बारे में सोचती तो मुझे बेटे की चिंता होती। वह अभी एक किशोर था—अपनी माँ को खोना उसके लिए कितना कठिन होगा! घर में रहकर मैं उसे बाइबल की कहानियाँ सुना सकती थी, परमेश्वर के वचनों पर संगति कर सकती थी, उसे परमेश्वर के सामने ला सकती थी। मेरे जाने के बाद कौन आस्था में उसे रास्ता दिखाएगा? जब भी मैंने यह सोचा, खास तौर पर खुद को कमजोर पाया, पति को तलाक देने की हिम्मत न हुई और चुपचाप कैद में जीवन बिताती रही। जब दुख से टूट जाती, तो प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आती और चुपके से परमेश्वर के वचन पढ़ती। तभी मुझे कुछ सुकून महसूस होता।
अक्टूबर 2011 में मैं चुपचाप कुछ सभाओं में भाग लेने निकली। मेरे पति ने भाई-बहनों को धमकाते हुए कहा कि अगर उन्होंने मुझे बुलाया तो वह अगली बार उनके साथ नरमी नहीं बरतेगा। उसने मुझे यह कहते हुए धमकाया : "जब तक तुम यहाँ हो, तुम्हें परमेश्वर में आस्था नहीं रखने दूँगा! अगर तुम आस्था रखना चाहती हो, तो तुम्हें यह घर छोड़ना होगा!" उसे यह कहते सुनना बहुत निराशाजनक था। जरा सोचो, वह मुझे परमेश्वर में आस्था के कारण मेरे साथ बिताए वक्त पर जरा भी सोचे बिना मुझे निकाल देगा। तब मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : "पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचन जीवन के प्रति इतने सच्चे थे। लोगों के बीच सच्चा प्रेम नहीं होता। पति-पत्नी के बीच प्रेम आपसी फायदे की सोच पर खड़ा है। परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले पति ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया था। मगर जब उसे परमेश्वर में आस्था के कारण मेरी गिरफ्तारी और उसके फँसने की चिंता हुई, तो उसने शादी में बीते हमारे इतने सालों की जरा भी नहीं सोची, मुझे पीटा और यहाँ तक कि घर से निकालने की धमकी दी। क्या ऐसी बेरहमी वह सिर्फ अपने हितों के लिए नहीं कर रहा था? यह समझ आते ही मैंने सोचा : "चूँकि वह मुझे दूर करने की कोशिश में है, तो मैं भी परमेश्वर में आस्था रखने और कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ छोड़कर आजाद हो सकती हूँ।" बाद में जब मेरा बेटा अपनी मौसी से ट्यूशन ले रहा था, मैं करीब 50 किलोमीटर दूर एक कलीसिया के लिए निकल गई, और कलीसिया जीवन से जुड़कर कर्तव्य निभाने में सक्षम हो गई। पर उस वक्त भी मुझे अपने बेटे की चिंता थी। जब भी मेरे पास खाली समय होता या छुट्टियों में जब मैं बच्चों को स्कूल के बाद अपने माता-पिता के पास घर लौटते देखती, तो सोचती कि मुझे घर पर न पाकर मेरे बच्चे को कितना दुख होता होगा, और मैं उसे देखने घर जाना चाहती थी। मगर मुझे चिंता थी कि मेरे पति मुझे पीटेंगे, प्रताड़ित करेंगे और डांटेंगे, तो लौटने की हिम्मत नहीं हुई। मैं बस चुपचाप आँसू बहाती रही।
फिर सितंबर 2012 में एक दिन, मेरी अपने देवर से सड़क पर मुलाकात हुई, उसने मुझे घर लौटने को मजबूर किया। मेरे घर लौटने पर मेरे पति ने पूरे परिवार की बड़ी बैठक बुलाई। उसने अपने छोटे और बड़े भाई को बुलाया, मेरे सौतेले पिता और बहनोई भी आए और मुझे मनाने की कोशिश की। मेरे देवर ने धमकाते हुए कहा : "अगर आप मेरी भाभी न होतीं, तो मैं एक कॉल करता और आपको सार्वजनिक सुरक्षा ब्यूरो में भेज देता।" मेरे सौतेले पिता ने आग में घी डालते हुए मेरे पति को उकसाया कि वह मुझे दबाकर रखे। यह सब देखकर मुझे चिंता हुई कि इतने सारे लोग परमेश्वर में मेरी आस्था के खिलाफ हैं, मेरा पति भविष्य में मुझे और ज्यादा सताएगा, तो मैंने चालाकी से कहा कि मैं अपना जीवन जीने घर ही आ रही थी। तब जाकर मेरे परिजन शांत हुए। घर लौटने के तीसरे दिन मैंने देखा कि मेरी कलीसिया की अगुआ बगल में मेरी बहन के दरवाजे पर आई, तो कलीसिया की सभाओं के बारे में पूछने के लिए मैं उत्साह से उसके पास चली गई। ताज्जुब यह कि मेरा पति भी मेरे पीछे आ गया और घर लौटने के लिए मुझ पर जोर से चिल्लाया। मैं बहनों को परेशानी में नहीं डालना चाहती थी, तो जल्दी से घर लौट गई। जब कलीसिया अगुआ मेरी बहन के घर से निकली, तो मेरे पति ने उसे फावड़े से धमकाते हुए कहा : "अगर तुम यहाँ फिर आई तो मैं अगली बार छोड़ूँगा नहीं!" फिर रसोई का चाकू लेकर छुरा घोंपने के इरादे से वह मेरी बहन के घर में घुस गया, मैंने और बहन के पति ने जल्दी से उसे पकड़ लिया। उसके बाद मैंने अपने भाई-बहनों को नुकसान होने के डर से उनसे मिलना बंद कर दिया।
उस दौरान मैंने काफी मानसिक पीड़ा झेली, और मैं अक्सर छिपकर रोया करती थी। एक बार मेरे पति के बाहर जाने के बाद मैं एक बहन से बात करने घर से निकली, पर लौटते समय कार से आते हुए मेरे पति ने मुझे सड़क पर देख लिया। मुझे झिड़कते हुए वह बोला : "क्या तुम जानती हो कि मैं तुम्हें इस कार से कुचल सकता हूँ?" यह सुनकर मैं कांप गई। परमेश्वर में आस्था के कारण वह मुझे अपनी कार से कुचलना चाहता था। इससे मैं और साफ देख पाई कि मेरा पति परमेश्वर से घृणा करने वाला राक्षस था और वह मुझे कभी सताना नहीं छोड़ेगा। मैं उस घर में अपनी आस्था का अभ्यास नहीं कर पाऊंगी, तो घर छोड़ना ही अकेला विकल्प था। पर छोड़कर जाने के बारे में सोचकर मुझे बेहद दुख हुआ। मैं बस बेटे के लिए ही आई थी और अगर फिर चली गई तो उसके लिए बहुत मुश्किल होगा! मेरे चले जाने पर परमेश्वर में आस्था रखने और सही मार्ग पर चलने के लिए कौन उसे रास्ता दिखाएगा? जितना मैंने सोचा, उतना ही मैं बेटे को छोड़ना सहन नहीं कर पाई। मैं केवल लगातार परमेश्वर के सामने प्रार्थना करती रही : "प्रिय परमेश्वर! मेरा पति मुझ पर अत्याचार करता और बाधा डालता रहता है। मैं यहाँ से जाना चाहती हूँ ताकि आस्था का अभ्यास कर सकूँ पर बेटे को नहीं छोड़ पाती। प्रिय परमेश्वर! मैं तय नहीं कर पा रही कि क्या करूँ या कैसे प्रार्थना करूँ कि तुम मुझे प्रबुद्ध कर मार्गदर्शन करो।" उसके बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन मिला : "क्या लोग इतने से समय के लिए अपनी देह की इच्छाओं को अलग रखने के काबिल नहीं हैं? कौन सी बातें मनुष्य और परमेश्वर के प्रेम में दरार पैदा कर सकती हैं? कौन है जो मनुष्य और परमेश्वर के बीच के प्रेम को अलग कर सकता है? क्या माता-पिता, पति, बहनें, पत्नियाँ या पीड़ादायक शोधन ऐसा कर सकते हैं? क्या अंतःकरण की भावनाएँ मनुष्य के अंदर से परमेश्वर की छवि को मिटा सकती हैं? क्या एक-दूसरे के प्रति लोगों की कृतज्ञता और क्रियाकलाप उनका स्वयं का किया है? क्या इंसान उनका समाधान कर सकता है? कौन अपनी रक्षा कर सकता है? क्या लोग अपना भरण-पोषण कर सकते हैं? जीवन में बलवान लोग कौन हैं? कौन मुझे छोड़कर अपने दम पर जी सकता है? परमेश्वर बार-बार ऐसा क्यों कहता है कि सभी लोग आत्म-चिंतन करें? परमेश्वर क्यों कहता है, 'किसके कष्ट खुद उसके हाथों से पैदा किए गए हैं?'" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ, क्या इंसान इस थोड़े समय के लिए अपनी देह की इच्छाओं का त्याग नहीं कर सकता?)। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा असर पड़ा और मैंने खुद को दोषी महसूस किया। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण किया है, और वह सत्य व्यक्त करके बड़ी सहनशीलता के साथ मनुष्यों के बीच कार्य करता है, गहरा अपमान सहता है, और मानवजाति पर अपना सारा प्रेम उड़ेल रहा है, जो उसके उद्धार का उद्देश्य है। मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर ने जो कष्ट सहा है उसके बारे में सोचकर लगा कि उसका प्रेम कितना व्यावहारिक है। परमेश्वर को उम्मीद है कि हम खड़े होकर उसकी इच्छा पर ध्यान देंगे, सुसमाचार फैलाने और उसकी गवाही के लिए सब कुछ दरकिनार कर देंगे। यह हमारे लिए परमेश्वर का प्रेम है। पर मैं स्वार्थी होकर केवल यह सोच रही थी कि मेरे जाने से बेटे की देखभाल कौन करेगा, और परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान नहीं दे पाई। खुद के कमजोर, बेकार, विवेकहीन, और परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब कुछ छोड़ने में नाकाम रहने से मुझे घृणा हुई। मैं अपने बेटे को नहीं छोड़ पा रही थी, इसलिए मुझे घर में फँसे रहने, पति की पिटाई झेलने, पिंजरे में कैद होने, परमेश्वर के वचन न पढ़ पाने को स्वीकारना पड़ा, सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का मौका तो मिला ही नहीं। मुझमें सत्य के अनुसरण और परमेश्वर से प्रेम का जरा भी संकल्प नहीं था। इब्राहीम अपने इकलौते बेटे को परमेश्वर को भेंट के रूप में सौंपने को तैयार था, तो मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए कुछ समय के लिए बेटे से अलग क्यों नहीं हो पाई? मैं बेटे से दूर नहीं जा सकती इसलिए अपने कर्तव्य इरादे की अनदेखी नहीं कर सकती। मुझे पता था कि परमेश्वर का उद्धार कार्य समाप्त होने को है और बड़ी विपत्तियाँ जल्द ही आएंगी। घर पर मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में भाग लेने या कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी; यदि यूँ ही चलता रहता तो मैं सत्य हासिल नहीं कर पाती और न ही अच्छे कर्मों की तैयारी कर पाती। मैं आने वाली किसी भी आपदा में नष्ट हो जाती। फिर मैं अपने बेटे को सही रास्ते पर कैसे लाती? क्या मेरे बेटे की किस्मत भी परमेश्वर के हाथ में नहीं थी? मेरा इस पर कोई काबू नहीं था कि उसे कितना कष्ट सहना होगा या वह सही रास्ते पर कदम रख सकेगा। इसे समझकर मेरी बेचैनी कुछ कम हुई।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े, सत्य के बारे में और सीखा और आखिर बेटे की चिंताओं को छोड़ दिया। मैंने यह अंश पढ़ा। "जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा, बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बस एक औपचारिक परिवेश प्रदान करना है, क्योंकि सृजनकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज़ का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है, और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को नहीं रोक सकते या उस भूमिका पर जरा-सा भी प्रभाव नहीं डाल सकते जिसे वह जीवन में निभाता है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना नियत होता है, और वह परिवेश जिसमें वह बड़ा होता है, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए, किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते, किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के परिवेश में रहते हुए अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी अन्य निष्पक्ष स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृजनकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही लोगों के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृजनकर्ता के पूर्वनिर्धारण के लिए, उसकी संप्रभुता के लिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा कि एक बच्चे के भाग्य का संबंध उसके माता-पिता से नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता से तय होता है। मेरे बेटे का भाग्य परमेश्वर के हाथ में था। यह मेरे काबू में नहीं था कि बेटे को कितना कष्ट होगा या वह सही रास्ते पर जाएगा या नहीं—यह सब परमेश्वर की व्यवस्था के निर्देशों के अधीन था। मुझे यूसुफ की याद आई : उसे कम उम्र में ही मिस्र में गुलामी के लिए बेचा गया, उसे अपने माँ-बाप की देखभाल और मार्गदर्शन नहीं मिला, पर यहोवा परमेश्वर उसके साथ खड़ा था। फिरौन के पहरेदार की पत्नी के कप्तान ने उसे चाहे जितना भी बहकाया, उसने कभी धोखा नहीं खाया। यूसुफ ने मिस्र में भी कई कठिनाइयां झेलीं, मगर इससे वास्तव में उसका संकल्प और मजबूत हुआ और उसे परमेश्वर पर भरोसा करना आया। मैंने उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जिन्होंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने घर नहीं छोड़े—उन्होंने अक्सर अपने बच्चों को आस्था के अभ्यास और सही रास्ते पर चलने को बढ़ावा दिया, और इनमें से कुछ बच्चों ने आस्था का अभ्यास कर सही रास्ते पर परमेश्वर का अनुसरण किया, पर कई अन्य बच्चे सांसारिक बुराइयों में फँस गए और नीचे गिरते चले गए। मैंने देखा कि जिस चीज के कारण बच्चा सही रास्ते पर चला, वह माता-पिता का साथ नहीं था, बल्कि यह था कि क्या सत्य से प्यार करना उनकी प्रकृति में था और क्या परमेश्वर ने उनके लिए ऐसा तय किया था। अगर मेरे बेटे में मानवता होती और वह परमेश्वर के उद्धार का पात्र होता, तो उसके पक्ष में मेरे न रहते हुए भी वह स्वस्थ रहकर बड़ा होता और परमेश्वर में आस्था रखता। यह सब परमेश्वर के हाथ में था—मुझे इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं थी। विश्वासी के बतौर वर्षों मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का काफी आनंद लिया था, पर अपने बेटे के प्रति लगाव के कारण मैं सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य नहीं निभा रही थी। कितनी स्वार्थी थी मैं! मुझे सुसमाचार फैलाने, परमेश्वर की गवाही देने और लोगों को उसके घर में लाने के जरिए परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना था। फरवरी 2013 में, मैंने अपना परिवार छोड़ा और दूर के शहर की एक कलीसिया के लिए ट्रेन पकड़ ली।
जब ट्रेन मेरे बेटे के स्कूल से आगे निकली, तो मैं उस इमारत को देखती रही, जहाँ मेरा बेटा पढ़ने जाता था और सोचने लगी : "कौन जाने मैं उसे फिर कब देख पाऊँगी।" मैं अपने आँसू नहीं रोक सकी। इससे मुझे राक्षस शैतान की निरंकुश सत्ता से और ज्यादा घृणा हुई। इसने मुझे मेरे परिवार से दूर कर आजादी से आस्था का अभ्यास करने और कर्तव्य निभाने लायक होने से रोका था। तब मैं भविष्य में मसीह की सर्वोच्च सता होने पर आनंद और आजादी के समय की ज्यादा लालसा रखती थी, इसने सत्य के अनुसरण और प्रकाश के लिए कोशिश करने के मेरे हौसले को तेजी दी। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर के वचनों का एक भजन गाया : "तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ, सबसे सार्थक जीवन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ, परमेश्वर ने पहले ही तय किया था कि मैं उसका अनुसरण करूँ और प्रतिकूल माहौल में भी कर्तव्य निभाऊँ—इसी मार्ग पर परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन कर रहा था। एक सृजित प्राणी के रूप में मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने, सत्य खोजने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और शैतान को नीचा दिखाने के लिए निष्ठा के साथ काम करने को तैयार थी। यह एहसास होने पर मुझे बहुत शांति और सुकून मिला। मैंने पति की कैद से आजादी के लिए रास्ता दिखाने, सृजित प्राणी के नाते कर्तव्य निभाने और सही रास्ते पर चलने देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद किया।
उसके बाद, मैं घर से दूर एक कलीसिया में कर्तव्य निभाती रही। इन वर्षों में मैंने परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव किया, कुछ सत्य समझा और पाया कि मैंने काफी कुछ हासिल किया है। मेरे मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!
फुटनोट :
1. "निराधार आरोप लगाते हुए" उन तरीकों को संदर्भित करता है, जिनके द्वारा शैतान लोगों को नुकसान पहुँचाता है।
2. "ज़बर्दस्त पहरेदारी" दर्शाता है कि वे तरीके, जिनके द्वारा शैतान लोगों को यातना पहुँचाता है, बहुत ही शातिर होते हैं, और लोगों को इतना नियंत्रित करते हैं कि उन्हें हिलने-डुलने की भी जगह नहीं मिलती।
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