जब मेरी रिपोर्ट कर दी गई

20 मार्च, 2022

क्षिणरुई, दक्षिण कोरिया

2016 की बात है, मुझे अचानक एक पत्र मिला जिसमें मेरी रिपोर्ट की गई थी। यह पत्र उन दो बहनों ने लिखा था जिन्हें मैंने हटा दिया था। रिपोर्ट में लिखा था कि मैं कलीसिया में मनमाने ढंग से काम करती हूँ, मैंने दो झूठे अगुआ चुने हैं, और एक झूठी अगुआ झांग, कुकर्मी है, जिसने रुकावट डालकर पूरी कलीसिया के काम को रोक दिया था। उनका कहना था कि अगर मैंने उस समय उनकी सलाह मानी होती या भाई-बहनों से पूछताछ की होती, तो मैं उन झूठे अगुआओं को चुनकर कलीसिया के कार्य का नुकसान न करती। मैं तो सन्न रह गई। सोचा, "ऐसा कैसे हो सकता है? ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है।" मैं वाकई डर गई, लेकिन फिर भी मैं उस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाई। पत्र लिखने वाली दोनों बहनों के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं थी, मुझे लगा वे जानबूझकर मुझसे बदला ले रही हैं। वे मूलत: कलीसिया अगुआ थीं, उनकी क्षमता खराब थी और वे असल काम नहीं करती थीं। वे झूठे अगुआओं का बचाव कर रिपोर्ट करने वालों की निंदा करती थीं, तो आखिरकार मुझे उन्हें हटाना पड़ा। झांग को चुनते समय मैंने उनकी राय मांगी थी। उन्होंने बस इतना कहा कि झांग अच्छी इंसान नहीं है, वह लोगों से सहयोग नहीं करती। उन्होंने उसके कुकर्मी होने की बात कभी नहीं कही। लेकिन अब जब झांग उजागर हो गई है, तो वे मेरी रिपोर्ट कर रही हैं। खैर, अब सब समझ आ गया। बर्खास्तगी के कारण नाखुश होकर वे मुझसे बदला चाहती हैं। ऊपर से, उस समय, सीसीपी इतनी गिरफ्तारियां कर रही थी कि हम चुनाव भी नहीं करा सके, कोई उपयुक्त उम्मीदवार ही नहीं था। झांग में कम से कम दूसरों से बेहतर काबिलियत और समझ तो थी, तो उस स्थिति में, मैं और किसे चुनती? किसी को तो अगुआ चुनना ही था। मैंने कई लोगों से झांग के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन किसी ने नहीं कहा कि वह कुकर्मी है। काम में हर किसी से गलती होती है। पहली नज़र में किसी के सार को कौन समझ सकता है? गलत अगुआओं का चुना जाना एक सामान्य बात है। सही व्यक्ति ही चुना जाएगा इसकी गारंटी कौन दे सकता है? वो दोनों बाल की खाल निकालकर परेशानी पैदा करना चाह रही हैं। उस वक्त मैं खुद को सही ठहराने की कोशिश करती रही। उस रिपोर्ट पर मुझे सख्त एतराज़ था। लेकिन उसमें साफ लिखा था कि दोनों अगुआ झूठी साबित हुई थीं, और झांग कुकर्मी साबित हुई थी, उन्होंने अगुआओं के तौर पर कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने लोगों के जीवन-प्रवेश का बहुत नुकसान किया था। तथ्यों के मद्देज़र, मैं इसे सही नहीं ठहरा सकती थी। मैंने बेमन से स्वीकारा कि मैं उन्हें पहचान नहीं पाई, मैं अहंकारी हूँ, बिना विचारे लोगों का इस्तेमाल करती हूँ। पर मैंने आत्म-मंथन करके अपनी समस्याओं को नहीं समझा, और आखिरकार बात आई-गई हो गई।

जब मेरे अगुआ को इसका पता चला, तो उसने मुझे उजागर किया कि मैंने कुकर्मी को अगुआ चुना, चेतावनी नहीं सुनी और मैं अहंकारी हूँ। तब जाकर मुझे यह बात समझ आने लगी। क्या मैंने सच में गलती की थी? क्या मैं वाकई बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट थी? लेकिन उस स्थिति में, मैं और क्या करती? मुझे अपनी गलती समझ में ही नहीं आई। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "जितना अधिक तुम महसूस करते हो कि तुमने किसी निश्चित क्षेत्र में अच्छा कर लिया है या सही चीज़ को कर लिया है, और जितना अधिक तुम सोचते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकते हो या तुम कुछ क्षेत्रों में शेखी बघारने में सक्षम हो, तो उतना ही अधिक उन क्षेत्रों में अपने आप को जानना तुम्हारे लिए उचित है, और यह देखने के लिए कि तुम में कौन सी अशुद्धियाँ हैं और साथ ही तुममें कौन सी चीजें परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सकती हैं उतना ही अधिक उनमें गहन परिश्रम करना तुम्हारे लिए उचित है। ... इसका कारण यह है कि तुमने, यह देखने के लिए कि क्या उनमें ऐसी चीजें समाविष्ट हैं या नहीं जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, निश्चित रूप से अपने उन पहलुओं की खोज नहीं की है, उन पर ध्यान नहीं दिया है, या उनका विश्लेषण नहीं किया है जिन्हें तुम अच्छा समझते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्‍वयं को जान सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगाया, अभ्यास का मार्ग दिया। फिर समय मिलने पर मैंने इस मामले पर विचार किया, और आत्म-चिंतन करके मुझे लगा कि मैं वाकई बहुत अहंकारी हूँ। जब पत्र मिला, तो मैं खुद को बचाने में लगी थी। मुझे लगा भयंकर उत्पीड़न के चलते, हम चुनाव नहीं करा सके थे, और कोई उपयुक्त उम्मीदवार भी नहीं था। ऐसे में, झांग ही सबसे अच्छी उम्मीदवार थी, और चूँकि उसके कुकर्मी होने के कोई सुबूत नहीं थे, मुझे लगा मैंने बेहतरीन चयन किया है। कौन कह सकता था कि वह बाद में वह कुकर्मी निकलेगी। मैंने जानबूझकर कुकर्मी को परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालने के लिए नहीं चुना था। तो पहली बार पत्र देखकर, लगा कि मैंने कुछ गलत नहीं किया है, विचार और आत्म-चिंतन करने की कोशिश नहीं की, बल्कि पत्र लिखने वाली दोनों बहनों का विरोध कर उनसे नफरत की। बदला लेने और जानबूझकर मुझमें गलती ढूँढ़ने के लिए उनकी निंदा की। अब सोचती हूँ तो लगता है, जब मैंने झांग को चुना, तो इन दोनों ने झांग के अच्छी इंसान न होने की बात कही थी। उन्हें चिंता थी कि गलत इंसान को अगुआ चुनने से परमेश्वर के घर के काम को नुकसान होगा, लेकिन वो सही से झांग का सार नहीं देख पाईं, इसलिए उसे कुकर्मी कहने की हिम्मत नहीं की। लेकिन मैं उस समय बहुत अहंकारी थी, उन्हें हिकारत से देखती थी। मुझे लगा कि उनके द्वारा चुने गए अधिकतर अगुआ वैसे भी उपयुक्त नहीं थे, उन्हें लोगों की पहचान नहीं थी, तो उनकी सलाह का कोई मतलब नहीं। इतने प्रयासों के बाद, कोई काम संभालने वाला मिला है तो वो नकचढ़ी बनकर मना कर रही हैं। इसलिए मैंने भी उनकी एक नहीं सुनी। शांत मन से आत्म-चिंतन कर जब सत्य खोजा, तो महसूस हुआ कि मेरे द्वारा अगुआओं के चयन में वाकई समस्याएं थीं। बिना चुनाव के भी, झांग को चुनने से पहले उन लोगों से सहमति लेनी चाहिए थी जो सत्य समझते थे। उस समय, मैंने केवल अपने साथी के साथ इस पर चर्चा की, कुछ अन्य लोगों से पूछा कि झांग के बारे में उन्हें क्या लगता है। उनमें से, रिपोर्ट करने वाली दोनों बहनें मेरी पसंद से सहमत नहीं थीं, फिर भी मैंने आगे कोई जांच नहीं की। मैंने अपने विचारों पर भरोसा करके, खुद ही तय कर लिया कि झांग एक उपयुक्त अगुआ है। इस मामले में, एक ओर तो, मैंने जानकार लोगों से झांग के बर्ताव के बारे में अधिक जानकारी नहीं ली, और दूसरी ओर, मैंने सत्य समझने वालों या ऊपरवालों से कोई राय-मशविरा नहीं किया। अहम बात यह है कि जब अलग-अलग सुझाव आए तो मैंने दूसरों की राय को नकारा, उन्हें अनदेखा किया, मनमाने ढंग से झांग को अगुआ नियुक्त कर दिया। मैं पागलों की तरह पेश आ रही थी। इसके अलावा, परमेश्वर के घर ने बार-बार कहा है कि कुकर्मी और कपटी अगुवा नहीं चुने जा सकते। जब उन दो बहनों ने कहा कि झांग अच्छी इंसान नहीं है, तो अगर मैं सचमुच परमेश्वर से डरती, तो उसे जानने वाले और लोगों से भी पूछती, झांग की अच्छाई-बुराई का पता लगाती, तब तय करती कि वह कुकर्मी तो नहीं है। अगर जांच के बाद भी मैं निश्चित नहीं होती और कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिलता, झांग ही सबसे अच्छी उम्मीदवार लगती, तो उस पर नज़र रखते हुए मैं उसे चुन सकती थी, ये पता लगने पर कि वो बुरी है, गलत मार्ग पर है, उसे बर्खास्त कर सकती थी। इससे परमेश्वर के घर के काम में रुकावट नहीं आती। ये वैसा न होता जो मैंने किया, किसी का यूं ही चयन कर संतुष्ट हो गई, फिर उधर ध्यान ही नहीं दिया। अपनी सोच को सही ठहराना, पूरी तरह से मेरे अपने विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित था। मैं आत्म-तुष्ट होकर अपने विचारों पर अड़ी थी, नतीजतन मैंने एक कुकर्मी को सालभर अगुआ बनाए रखा, जिससे कलीसिया का सारा काम लगभग ठप्प हो गया। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैंने अगुआ चुनने में एक छोटी-सी गलती नहीं बल्कि दुष्टता की थी, परमेश्वर का विरोध करने की भयंकर भूल की थी। परमेश्वर के चुने लोग उसका अनुसरण कर सत्य का पालन करें और बचाए जाएँ इसके लिए उन्हें अच्छा अगुआ चाहिए, लेकिन मैंने अगुआ के चुनाव को कोई गंभीर मामला नहीं माना। मेरे मन में परमेश्वर का भय नहीं था। मैं भाई-बहनों के लिए अच्छा अगुआ नहीं चुन पाई, बल्कि एक कुकर्मी चुनकर परमेश्वर के चुने लोगों को नुकसान पहुँचाया। मैं न भाई-बहनों के जीवन का दायित्व लिया, न उनकी परवाह की। कर्तव्य के प्रति ऐसे दृष्टिकोण के होते हुए मैं अगुआ बनने योग्य कैसे थी? अगुआ के चयन में मैं बेहद उतावली, असावधान और लापरवाह थी, मैं इतनी अहंकारी और आत्म-तुष्ट थी कि लोगों की चेतावनी के बावजूद मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। मैं निरंकुश और स्वेच्छाचारी थी, उससे कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बहुत ज़्यादा नुकसान हुआ। अपने किए को अब मैं पलट नहीं सकती थी। भाई-बहनों के लिए एक दुष्ट अगुआ चुनकर मैंने बहुत बुरा किया, लेकिन बहनों के मुझे उजागर करने पर, मेरे अंदर अपराधबोध या पछतावा नहीं था, बल्कि मैंने अपना बचाव किया। मैं बेहद ज़िद्दी और नीच थी!

फिर मैंने आत्म-चिंतन किया : मैं इतनी अहंकारी और निरंकुश क्यों थी कि मैं सलाह नहीं मान सकी, सत्य के सिद्धांत नहीं खोज पाई? यह कैसा स्वभाव था? परमेश्वर इस बारे में क्या कहता है? एक दिन, मुझे उसके वचनों के ये अंश मिले : "कुछ लोग हमेशा दंभी होते हैं और यह कहकर अपने ही तौर-तरीक़ों पर ज़ोर देते हैं, 'मैं किसी की बात नहीं सुनूँगा। अगर मैं ऐसा करूँगा भी, तो यह केवल दिखाने के लिए करूँगा—मैं नहीं बदलूँगा। मैं अपने ढंग से ही काम करूँगा; मुझे लगता है कि मैं सही हूँ, मैं पूरी तरह उचित हूँ।' तुम वास्तव में सही हो सकते हो और संभव है, तुम जो करते हो उसमें कोई बड़ा दोष न हो; हो सकता है तुमने कोई ग़लती न की हो और किसी मुद्दे के तकनीकी पहलुओं की तुम्हारी समझ दूसरों से बेहतर हो, परंतु जब दूसरे तुम्हें इस ढंग से व्यवहार और आचरण करते देख लेते हैं, तो वे कहेंगे : 'इस व्यक्ति का स्वभाव अच्छा नहीं है! जब उसके साथ कोई बात हो जाती है, तो वह दूसरे व्यक्ति की बात को अनसुना कर देता है, चाहे उसकी बात सही हो या ग़लत, वह उसे स्वीकारने से मना कर देता है, सिरे से खंडित कर देता है। ऐसा व्यक्ति सत्य स्वीकार नहीं करता।' और यदि अन्य सभी लोग कहते हैं कि तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो परमेश्वर क्या सोचेगा? परमेश्वर तुम्हारे ये व्यवहार देखने में सक्षम है या नहीं? परमेश्वर यह सब कुछ स्पष्ट रूप से देख सकता है। परमेश्वर न केवल मनुष्य के सबसे गहरे अंतर्मन में झाँकता है, बल्कि तुम किसी भी समय और किसी भी स्थान पर जो कहते और करते हो, उस सब पर भी दृष्टि रखता है। और जब वह यह सब देखता है, तो वह क्या कहेगा? वह कहेगा : 'तुम कठोर हो। जब तुम सही होते हो तो अपनी बात पर अड़े रहते हो, और ऐसी स्थितियों में बदलने से इनकार कर देते हो जब तुम बहुत अच्छी तरह जानते हो कि तुम गलत हो। कोई कुछ भी सुझाव दे, तुम निष्क्रिय प्रतिरोध करते हो। तुम दूसरों के सुझावों को ज़रा भी स्वीकार नहीं करते। तुम्हारे पूरे हृदय में अंतर्विरोध, घेराबंदी और अस्वीकृति भरी पड़ी है। तुम सच में कठिन हो!' कठिनाई कहाँ है? तुम्हारे बारे में कठिनाई यह है कि तुम्हारा व्यवहार चीजों को करने का गलत तरीका या गलत प्रकार का आचरण नहीं है, बल्कि वह एक खास तरह के स्वभाव को उजागर करता है। वह किस तरह के स्वभाव को उजागर करता है? तुम सत्य से घृणा करते हो और सत्य को शत्रुता की दृष्टि से देखते हो। जब तुम सत्य के प्रति शत्रुता रखने की ठान लेते हो, तो परमेश्वर की नजर में तुम संकट में हो। जहाँ तक लोगों की बात है, सबसे बुरा यही हो सकता है कि वे कह सकते हैं, 'इस व्यक्ति का स्वभाव अच्छा नहीं है—यह अड़ियल और ढीठ है! इसके साथ मिलजुलकर रहना मुश्किल है, यह सत्य को व्यवहार में नहीं लाता, न तो यह सत्य से प्रेम करता है और न ही कभी उसे स्वीकारेगा।' सबसे बुरा यही हो सकता है कि सभी तुम्हारा आकलन इसी प्रकार करेंगे, लेकिन क्या ऐसा आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला करने में सक्षम होगा? लोग आकलन करके तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर पाएँगे, लेकिन एक बात तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए, और वह यह कि परमेश्वर इंसान के हृदय में देखता है, और साथ ही वह वो सब-कुछ भी देखता है, जो इंसान करता और कहता है। यदि परमेश्वर सिर्फ इतना कहने के बजाय कि तुममें कुछ भ्रष्ट स्वभाव है और तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, तुम्हारे बारे में निश्चय कर लेता है और कहता है कि तुम सत्य के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हो—तो यह एक बड़ा मामला होगा या छोटा? (यह बड़ा मामला होगा।) ऐसे में, आगे तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी है। इस मुसीबत का संबंध इस बात से नहीं है कि लोग तुम्हें कैसे देखते हैं या वे तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, बल्कि इससे है कि परमेश्वर सत्य के प्रति शत्रुता रखने वाले तुम्हारे इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो फिर, परमेश्वर तुम्हें किस नजर से देखेगा? क्या वह कहेगा, 'वह सत्य को शत्रुता की दृष्टि से देखता है; वह सत्य से प्रेम नहीं करता'? क्या परमेश्वर तुम्हें इसी तरह देखेगा? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतीक है? (यह परमेश्वर का प्रतीक है।) ठीक है, तो इस पर गहन विचार करो, कि यदि कोई सत्य को शत्रुता से देखता है, तो यह परमेश्वर को कैसा लगेगा? (उसे लगेगा कि वह परमेश्वर का शत्रु है।) क्या यह गंभीर मामला नहीं होगा? जो व्यक्ति सत्य को शत्रुता की दृष्टि से देखता है, वह अपने हृदय में परमेश्वर को शत्रुता की दृष्टि से देखता है। मैं यह क्यों कहता हूँ कि वह परमेश्वर को शत्रुता की दृष्टि से देखता है? क्या इस व्यक्ति ने परमेश्वर को कोसा? क्या उसने उसके सम्मुख उससे विद्रोह किया? क्या उसने उसकी पीठ पीछे कुछ कहा? नहीं, उसने ऐसा नहीं किया। तुममें से कुछ लोग कह सकते हैं, 'जब कोई इस प्रकार का स्वभाव प्रकट करता है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह परमेश्वर को शत्रुता की दृष्टि से देखता है? क्या यह तिल का ताड़ बनाना नहीं है?' यह वास्तव में परमेश्वर को शत्रुता की दृष्टि से देखना है, और ऐसी स्थितियों के गंभीर परिणाम निकलते हैं। अर्थात्, जब किसी व्यक्ति का स्वभाव ऐसा होता है, तो वह किसी भी समय और किसी भी स्थान पर इस प्रकार के स्वभाव को प्रकट करने में सक्षम होता है, और यदि वह इस पर निर्भर रहने की स्थिति में जीता रहता है, तो वह परमेश्वर का विरोध करेगा या नहीं? जब सत्य से जुड़ा कोई मुद्दा उसके सामने आता है, जिसमें उसके द्वारा किए गए विकल्प शामिल हों, तब यदि वह सत्य स्वीकार न कर पाए, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर रहने की स्थिति में जीता रहे, तो वह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का विरोध करेगा और उसके साथ विश्वासघात करेगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव कुछ और नहीं, बल्कि एक ऐसा स्वभाव है, जो परमेश्वर और सत्य को शत्रुता की दृष्टि से देखता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अगर तुम हमेशा परमेश्‍वर के समक्ष नहीं रह सकते तो तुम अविश्‍वासी हो')। परमेश्वर के वचनों ने समस्या के सार और मूल को दिखाया, और मेरी धारणाओं पर प्रहार किया, विशेष रूप से इन वचनों ने : "तुम्हारा व्यवहार चीजों को करने का गलत तरीका या गलत प्रकार का आचरण नहीं है, बल्कि वह एक खास तरह के स्वभाव को उजागर करता है। वह किस तरह के स्वभाव को उजागर करता है? तुम सत्य से घृणा करते हो और सत्य को शत्रुता की दृष्टि से देखते हो।" इस भाग ने मेरे दिल को भेध दिया, गहरा आघात पहुँचाया। मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर के लिए मेरा यह अहंकारी स्वभाव सत्य से घृणा, उसका तिरस्कार और उसे नकारने वाला था। यह एक कुकर्मी और मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर परमेश्वर मुझे सत्य से घृणा और तिरस्कार करने वाला कहता है, तो मैं एक शैतान और राक्षस हूँ जिसे बचाया नहीं जा सकता। उस पल से मुझे डर लगने लगा। हालाँकि मुझे पता था कि मेरा स्वभाव अहंकार और आत्म-तुष्टि का है, मैं किसी की सलाह नहीं मानना चाहती, इस कारण बहुत से अपराध किए हैं, फिर भी मैंने इसे बस मान लिया। कभी-कभी तो सोचती थी कि अहंकार भ्रष्ट लोगों का एक सामान्य लक्षण है जिसे बदलना आसान नहीं, इसलिए मैंने खुद को माफ कर दिया, मुझे यह इतनी गंभीर समस्या नहीं लगी जिसे दूर करना ज़रूरी हो। इस वजह से, काम करते समय अक्सर मेरा अहंकारी स्वभाव उजागर हो जाता था, मगर मैं परवाह न करती। काट-छाँट और निपटारे के समय ज़रूर मुझे थोड़ा पछतावा और बेचैनी हुई, मगर न चाहते हुए भी अक्सर यह उजागर हो ही जाता था। मेरे परिचित मुझे अहंकारी और आत्म-तुष्ट समझते थे, अगुआ मुझे काम देते समय, अहंकारी और आत्म-तुष्ट न होने और दूसरों की राय सुनने की हिदायत अक्सर ही देते रहते थे। उन्हें डर था कि मेरे अहंकार से परमेश्वर के घर के काम को नुकसान होगा। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से मुझे पता चला कि मैं अहंकारी हूँ और सत्य को नकारती हूँ, परमेश्वर के घर के काम के लिए लोगों की सलाह कितनी भी सही या फायदेमंद हो, मैं अपने ही विचारों पर अड़ी रहती थी, अगर कोई सत्य के सिद्धांतों पर संगति करता या धारणाओं के विरुद्ध सुझाव देता, तो मैं उसे नापसंद कर उसका विरोध करती। जो मुझे उजागर करता, मैं उससे घृणा करती, उसे बर्दाश्त न करती। इससे पता चला कि मुझमें सत्य से घृणा और उसका तिरस्कार करने का मसीह-विरोधी स्वभाव है। दोनों बहनों ने अगुआ चुने गए व्यक्ति के बारे मुझे चेताया था कि कहीं मैं कुकर्मी को कलीसिया का नुकसान करने की छूट न दे दूँ, लेकिन मैंने उनकी एक नहीं सुनी अपने विचारों पर ही अड़ी रही। अब जबकि दोनों बहनें मेरे पद के कारण बेबस नहीं थीं, उन्होंने मेरी समस्याएँ रिपोर्ट कर दीं, उन्होंने कलीसिया के काम की रक्षा के लिये ऐसा किया, लेकिन यह मेरे लिये एक चेतावनी भी थी। फिर भी मैंने विचार या खुद को जानने की कोशिश नहीं की, बल्कि उनका तिरस्कार कर, उन्हें निकाल दिया, मेरे दोष उजागर करने के लिए उनकी आलोचना और निंदा भी की। मेरा रवैया सत्य से घृणा और तिरस्कार का था। फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : "तुम लोगों के विचार में किस तरह के लोग सत्य से घृणा करते हैं? क्या वे वो लोग होते हैं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करते हैं? हो सकता है कि वे खुलकर परमेश्वर का विरोध न करें, लेकिन उनकी प्रकृति और सार परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले होते हैं, जो परमेश्वर से खुले तौर पर यह कहने के समान है, 'मुझे तुम्हारी बातें सुनना पसंद नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करता, और चूँकि मैं नहीं मानता कि तुम्हारे वचन सत्य हैं, इसलिए मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता। मैं उस पर विश्वास करता हूँ, जो मेरे लिए फायदेमंद और लाभकारी है।' क्या यह अविश्वासियों का रवैया है? (हाँ।) यदि सत्य के प्रति तुम्हारा यह रवैया है, तो क्या तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता नहीं रखते? और यदि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? (नहीं।) परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले सभी लोगों के प्रति परमेश्वर के कोप का यही कारण है। सत्य से घृणा करने वाले ऐसे लोगों का सार परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखने का सार है। परमेश्वर ऐसे सार वाले लोगों को मनुष्य नहीं समझता। वह उन्हें क्या समझता है? वह उन्हें दुश्मन और दानव समझता है। वह उन्हें कभी नहीं बचाएगा; अंत में वे आपदा में डूबकर नष्ट हो जाएँगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्‍य को उचित ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य की समझ अत्‍यन्‍त महत्त्वपूर्ण है')। परमेश्वर कहता है कि सत्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण है, तो सत्य से घृणा और बैर करके मैंने परमेश्वर के प्रति घृणा और बैर दिखाया। सत्य से घृणा करने वाले कुकर्मी, राक्षस हैं, शैतान के असली नुमाइंदे हैं। अगर बहनों की सलाह पवित्र आत्मा की प्रेरणा से थी, सत्य के अनुसार थी और उससे परमेश्वर के घर के काम को लाभ हो रहा था, तो भी मैंने अहंकार दिखाकर, उसे नकारा और सत्य न खोजा, तो यह पवित्र आत्मा के प्रबोधन के विरुद्ध जाना था, जो परमेश्वर का विरोध और उसके स्वभाव का अपमान कर रहा था। इस बात को समझकर, मैं और भी डर गई, क्योंकि मुझे पता था कि मेरी समस्या गंभीर है। यह मामला मेरी सोच जैसा नहीं था, बस अहंकारी होने और दूसरों की सलाह न मानने जितना सरल नहीं था। इसमें पवित्र आत्मा के कार्य, परमेश्वर के प्रति मेरा दृष्टिकोण और उसके प्रति मेरा प्रतिरोध शामिल था।

फिर, मेरे अगुआ ने इस मामले में मेरा विश्लेषण किया और कहा, "जब तुमने कुकर्मी को चुना, तो लोगों ने तुम्हें चेताया कि इस व्यक्ति की गंभीर समस्याएं हैं, फिर भी तुमने नहीं सुनी, अपने ही विचारों पर भरोसा किया। अगर तुम्हारे विचारों का आधार परमेश्वर के वचन हैं, तो तुम खुद पर भरोसा कर सकती हो। अगर ऐसा नहीं है, और आधार तुम्हारी बेतुकी धारणाएं हैं, तो खुद पर भरोसा करना तुम्हारी मानवता के साथ समस्या है। तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर रही थी, तुममें ईमानदार मानवता की कमी है। तुम तर्कहीन और गलत थी।" अगुआ का विश्लेषण वाकई मेरे दिल को बेध गया। लगा मेरा स्वभाव अहंकारी ही नहीं, बल्कि मेरी मानवता में भी समस्या है, मैंने लोगों से उचित व्यवहार नहीं किया। किसी को चुनने का तय करने के बाद, उसके बारे में किसी की आलोचना नहीं मानी। सुझाव देने वालों को मैं हिकारत से देखती थी और बर्खास्त कर दिया था, तो अहंकार से मैंने उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया। लगा कि ढंग से काम न करने पर बर्खास्त हो चुके लोग मुझे कौन-सी अच्छी सलाह दे सकेंगे। मैं दोनों बहनों को पूरी तरह से नकार चुकी थी। मैं घमंडी की तरह पेश आ रही थी। मैं लोगों से अपनी भावनाओं के अनुसार ही पेश आती और उन्हें चुनती थी। उनसे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार सही व्यवहार नहीं करती थी। इससे पता चलता है कि मेरी मानवता, चरित्र और स्वभाव में समस्याएं थीं। अगर मैं अगुआ के पद पर बनी रही, तो मैं एक झूठी अगुआ या मसीह-विरोधी बन जाऊँगी, इससे बस परमेश्वर के चुने हुए लोगों का नुकसान होगा। जितना विचार करती, उतनी मुझे समस्या गंभीर लगती। अपने अहंकार के कारण, मैं कलीसिया के काम और प्रमुख मुद्दों पर भाई-बहनों की सलाह नहीं मानती थी, जिसकी वजह से परमेश्वर के घर के काम को भारी नुकसान पहुंचा। परमेश्वर में मेरे विश्वास में ये एक धब्बा और कुकर्म था। मैं दोषी और बेचैन महसूस कर रही थी।

सोचने लगी कि मैं इतनी अहंकारी क्यों थी। मैं अनजाने में कुकर्म और परमेश्वर का विरोध क्यों करती रही? मूल कारण क्या था? इसका उत्तर मुझे परमेश्वर के वचनों में मिला : "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। सही बात है। मैं बहुत ही अहंकारी बहुत ही ज्यादा बेतुकी थी। मुझे अपने आप पर बहुत भरोसा था, मानो मेरे विचार और राय सही हैं, मैं लोगों को सवाल नहीं करने देती थी, अलग सुझाव तो बिल्कुल नहीं देने देती। जैसे, अगुआ चुनने के मामले में, परमेश्वर के घर के साफ निर्देश हैं कि दुष्ट और धोखेबाज लोगों को अगुआ नहीं चुना जा सकता। यह निषिद्ध और एक बहुत ही गंभीर मसला है। जब दोनों बहनों ने मुझे बताया कि झांग अच्छी इंसान नहीं है, तो मैंने जाँचने के लिए कुछ ही लोगों से पूछा, निजी धारणाओं के कारण, मैंने उनकी सलाह सिरे से ठुकरा दी। सत्य की समझ रखने वालों से पूछताछ नहीं की, न मैंने खराब मानवता वाले या कुकर्मी के सार वाले के बीच का अंतर सीखा, न ही ये पता लगाया कि झांग लोगों से सहयोग क्यों नहीं कर पाती, यह स्वभावगत समस्या थी या दुष्ट मानवता का मामला था। अगर यह मात्र भ्रष्ट स्वभाव का मामला था और वो सत्य स्वीकार सकती थी, तो वो बदल सकती थी, फिर उसे बुरा नहीं कहा जाता। अगर वह द्वेषपूर्ण और सत्य से घृणा करने वाली थी, तो फिर वह कुकर्मी थी। फिर उसके कुकर्मों के लिए कैसे भी निपटा जाए, वह उसे नहीं स्वीकारती, न ही वह कभी ईमानदारी से प्रायश्चित करती। अगर मैंने उस समय सत्य खोजा होता, और कुकर्मियों के सार के अनुसार झांग के व्यवहार को आँका होता, तो मैं उसे पहचान जाती, उसका चयन करने पर न अड़ी होती, कलीसिया के कार्य को इतने बड़े नुकसान से बचा लेती। इन नतीजों का जिम्मेदार मेरा अहंकारी होना और सत्य के सिद्धांतों की खोज न करना था। मुझे परमेश्वर का थोड़ा-सा भी भय होता, मैं उसके प्रति आज्ञाकारी होती, तो ऐसी भूल और दुष्टता न करती। भाई-बहनों को न तो कष्ट उठाना पड़ता, न ही उनके जीवन को नुकसान होता, और मैं ऐसा अपराध न करती जिसकी भरपाई न हो। मैं बहुत कठोर और ज़िद्दी थी। स्वयं से घृणाकर मैंने खुद को धिक्कारा। परमेश्वर से प्रार्थना कर प्रायश्चित की इच्छा जताई।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़कर अभ्यास का मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुमने कुछ ऐसा किया है, जो सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर को अप्रसन्न करता है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश कैसे करनी चाहिए? जब तुम उसे करने जा रहे थे, तब क्या तुमने उससे प्रार्थना की थी? क्या तुमने कभी यह सोचा, 'यदि यह बात परमेश्वर के सामने लाई जाएगी, तो उसे कैसी लगेगी? अगर उसे इसका पता चलेगा, तो वह खुश होगा या कुपित? क्या वह इससे घृणा करेगा?' तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की, है ना? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोगों ने तुम्हें याद भी दिलाया, तो तुम तब भी यही सोचोगे कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और यह किसी भी सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाता और न ही कोई पाप है। परिणामस्वरूप, तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज़ कर दिया और उसे बहुत क्रोध करने के लिए उकसाया, इस हद तक कि उसे तुमसे नफ़रत हो जाए। यदि तुमने जानने की कोशिश की होती और जाँच की होती, और करने से पहले मामले को स्पष्ट रूप से देखा होता, तो क्या तुम इसे सँभाल न पाते? भले ही ऐसा भी समय आ सकता है जब लोगों की स्थिति अच्छी न हो, या नकारात्मक हो, लेकिन अगर वे जो कुछ करने की योजना बना रहे हैं, उसे प्रार्थना में पहले निष्ठापूर्वक परमेश्वर के सामने ले आते हैं, और फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य खोजते हैं, तो वे कोई बड़ी भूल नहीं करेंगे। सत्य का अभ्यास करते समय लोगों के लिए भूल करने से बचना कठिन होता है, लेकिन अगर चीज़ों को करते समय तुम जानते हो कि उन्हें सत्य के अनुसार कैसे करना है, लेकिन फिर भी तुम उन्हें सत्य के अनुसार नहीं करते, तो फिर समस्या यह है कि तुम्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है। सत्य के प्रति प्रेम से रहित व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलेगा। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को ठीक से नहीं समझ पाते, और नहीं जानते कि अभ्यास कैसे करना है, तो तुम्हें दूसरों के साथ सहभागिता करनी चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए। और अगर दूसरे भी संघर्ष कर रहे हों, तो तुम्हें साथ मिलकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर से जानने की कोशिश करनी चाहिए, परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करते हुए इस बात का इंतजार करना चाहिए कि वह निकलने का कोई रास्ता खोले। तुम भी अच्छी तरह से कोई समाधान निकाल सकते हो, जो तुम्हें निकलने का अच्छा रास्ता दे दे, और यह पवित्र आत्मा के प्रबोधन से हो सकता है। यदि तुम्हें अंततः यह पता चले कि इसे इस तरह से करने में तुमने थोड़ी-सी भूल कर दी है, तो तुम्हें जल्दी से उसे सही कर लेना चाहिए, और तब परमेश्वर इस भूल को पाप के रूप में नहीं गिनेगा। चूँकि इस मामले को व्यवहार में लाते समय तुम्हारे इरादे सही थे, और तुम सत्य के अनुसार अभ्यास कर रहे थे और केवल स्पष्ट रूप से सिद्धांतों को नहीं जानते थे, और तुम्हारे कार्यों के परिणामस्वरूप कुछ भूलें हो गईं, तो यह एक अपराध घटाने वाली परिस्थिति थी। किंतु, आजकल बहुत-से लोग काम करने के लिए केवल अपने दो हाथों पर, और बहुत-कुछ करने के लिए केवल अपने मन पर भरोसा करते हैं, और वे शायद ही कभी इन सवालों पर कोई विचार करते हैं : क्या इस तरह से अभ्यास करना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या परमेश्वर खुश होगा? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या परमेश्वर मुझ पर भरोसा करेगा? अगर मैं इसे इस तरह से करूँगा, तो क्या मैं सत्य को अभ्यास में लाऊँगा? यदि परमेश्वर इसके बारे सुनेगा, तो क्या वह कह सकेगा, 'तुमने यह सही तरह से और उपयुक्त तरीके से किया है। इसे जारी रखो'? क्या तुम अपने हर काम की सावधानीपूर्वक जाँच करने में सक्षम हो? क्या इस बात की संभावना है कि तुम अपने हर काम पर चिंतन करने के लिए परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं का आधार के रूप में उपयोग करो, इस बात पर विचार करो कि इस प्रकार कार्य करना परमेश्वर को प्रिय है या वह इससे घृणा करता है, और जब तुम ऐसा करोगे तो परमेश्वर के चुने हुए लोग क्या सोचेंगे, वे इसका मूल्यांकन किस रूप में करेंगे? तुम्हें इसका पता लगाने की कोशिश करते रहना चाहिए। यदि तुम अच्छी तरह से जानते हो कि इस मामले में तुम्हारे अपने इरादे शामिल हैं, तो तुम्हें इस पर विचार करना चाहिए कि इसे करने के पीछे तुम्हारा क्या उद्देश्य है, इसके परिणाम क्या होंगे, यह खुद को संतुष्ट करने के लिए है या परमेश्वर को, ऐसा करना तुम्हारे लिए फायदेमंद है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए...। जब तुम ऐसी बातों पर विचार करने, अपने आपसे ये प्रश्न पूछने और खोजने में अधिक समय व्यतीत करोगे, तो तुम्हारी गलतियाँ छोटी से छोटी होती जाएँगी। चीज़ों को इस तरह करना यह साबित करेगा कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो वास्तव में सत्य की तलाश करता है और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखता है, क्योंकि तुम चीज़ों को उस निर्देशन के अनुसार कर रहे हो जो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित है और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास के सिद्धांत दिए : भविष्य में, मैं चाहे जो करूँ, मुझे दिल से परमेश्वर का भय मानना चाहिए, सत्य और सिद्धांत खोजकर कार्य करना चाहिए। खासकर परमेश्वर के घर के काम और हितों से जुड़े मामलों में, आँखें मूँदे अपने मन से काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि अगर मैंने परमेश्वर के घर को नुकसान पहुंचाया या उसके काम में बाधा डाली, तो यह दुष्टता और परमेश्वर के विरुद्ध पाप होगा। मैं अकेले यह तय नहीं कर सकती कि कर्तव्य-पालन कैसे करना है, न ही मैं निरंकुशता से काम कर सकती हूँ। मुझे अपने सहयोगियों से चर्चा करनी चाहिए, सत्य समझने वालों के साथ खोजना चाहिए, और दूसरों की राय भी सुननी चाहिए। किसी की हैसियत कुछ भी हो, उसमें हुनर या प्रतिभा हो या न हो, मुझे विनम्रता से सबको सुनना चाहिए। जिन मामलों की मुझे समझ न हो, उन्हें अगुआओं के साथ खोजना चाहिए, उनमें शामिल सिद्धांत सीखने चाहिए, सत्य के अनुसार और परमेश्वर को ठेस पहुँचाए बिना काम करना सीखना चाहिए। इस तरह मैं परमेश्वर के स्वभाव को बिना ठेस पहुँचाए, बिना दुष्टता किए, अपने अहंकार की समस्या को दूर कर सकती हूँ। महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे खुद को नकारना सीखना चाहिए। मैं किसी चीज़ को जितना सही मानती हूँ, उतना ही मुझे खोजना चाहिए कि वह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। पहले खुद को न जानने के कारण, मैं खुद पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा करती थी। इस कष्टमय सबक के बाद ही मैंने देखा कि जब मुझे खुद पर यकीन था, नहीं लगता था कि मैं गलत हो सकती हूँ, जब खुद को सही मानने का आधार भी मज़बूत था, तो तथ्य बताते हैं कि मैं गलत होने के साथ-साथ, हद से ज्यादा और घृणास्पद तरीके से गलत थी, जिसके परिणाम विनाशकारी थे। अतीत में, मैंने अपने अहंकार के कारण बहुत से अपराध किए हैं। उस समय मुझे लगता था कि मैं सही हूँ, कभी-कभी परमेश्वर के वचनों को भी आधार बनाया, लेकिन बाद में तथ्यों से साबित हो गया कि मैं गलत थी, क्योंकि मुझे न तो परमेश्वर के वचनों की समझ थी और न ही सिद्धांतों की, विवेकहीनता से परमेश्वर के वचन इस्तेमाल करती थी। इसका एहसास होने पर, मैंने माना कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, मैं लोगों या मामलों को ठीक से समझ ती नहीं, और मेरे कुछ विचार बेतुके और हास्यास्पद थे। इसके अलावा, मुझमें क्षमता की कमी थी, मैं चीजों और सत्य को अच्छे से समझती नहीं थी। थोड़े-बहुत सिद्धांत जानकर नियमों का पालन करती थी। उस समय, मैंने पूरी तरह समर्पण कर दिया। मुझे लगा मैं बेकार और दयनीय हूँ, अब मैं अपने विचारों पर अड़ना नहीं चाहती थी।

अब जब लोग अलग-अलग सुझाव देते हैं, और मैं अपनी बात पर अड़ना चाहती हूँ, तो इस सबक को याद करती हूँ। बहुत-से ऐसे विचार जिन्हें मैं सही मानती थी, वे हर तरह से गलत थे, परमेश्वर भी उनकी निंदा करता था। अब मैं अपने विचारों पर नहीं अड़ती, दूसरों के विचार और सलाह भी मांगती हूँ। कभी-कभी चर्चा के दौरान, अनजाने में लोगों की बात नकारना चाहती हूँ, लेकिन इसका एहसास होते ही मैं तुरंत पूछती हूँ कि अधिकांश लोगों के क्या विचार हैं, क्योंकि मुझे डर है कि मैं सही सलाह न मानकर, परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुंचा दूँगी। जिन मामलों में मुझे लगता है कि मैंने सही किया है, वहाँ भी मैं खुद निर्णय नहीं लेती, उस मामले में अपने साथियों से सलाह लेती हूँ या अपने अगुआओं और सहकर्मियों की राय लेती हूँ। ऐसा करके मुझे सुकून मिलता है, इस तरह मनमानी से परमेश्वर के घर के काम को होने वाला नुकसान भी नहीं होता। हालाँकि कभी-कभी मेरा अहंकारी स्वभाव उजागर हो जाता है, लेकिन फिर भी कुछ सुधार तो हुआ है।

परमेश्वर के वचनों का न्याय और प्रकाशन न होता, भाई-बहनों ने उजागर न किया होता, या बार-बार परमेश्वर उजागर कर मेरा निपटारा न करता, तो मैं खुद को न जान पाती, खुद को नकारने की बात तो दूर है। आज अगर मुझमें थोड़ा-बहुत बदलाव आया है, कुछ इंसानियत और विवेक है, तो वह परमेश्वर के कार्य की वजह से ही है! यह भी परमेश्वर के वचनों के न्याय का ही परिणाम है। मुझे बचाने के लिए मैं तहेदिल से परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ।

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