स्नेह, सिद्धांतों के आड़े नहीं आना चाहिये
करीब छह महीने पहले, रूथी और मैं एक समूह में अपना कर्तव्य निभा रहे थे। रूथी समझदार, अच्छी काबिलियत वाली और बहुत कुशल थी। समूह में उसे काफी अहमियत दी जाती थी। लेकिन मुझसे तो, चाहे कैसे भी देखें, हमेशा कमी रह जाती थी। मैं अक्सर अपने कर्तव्य में असफल रहती और बेनकाब हो जाती थी, लेकिन रूथी ने कभी मेरा अपमान नहीं किया और ना ही मुझे नीचा दिखाया, वह हमेशा मुझे दिलासा देती और प्रोत्साहित करती थी। जब भी उसके मन में कुछ होता, तो वह आकर मुझसे बातें करती थी, जिसने मुझे बहुत भावुक किया और मैं उसे करीबी दोस्त मानने लगी। लेकिन मुझे पता था कि उसका स्वभाव थोड़ा अहंकारी था और उसे सुझाव पसंद नहीं थे, लेकिन उसके प्रति अपनी भावनाओं की वजह से, मैंने उसके साथ इन मुद्दों को कभी नहीं उठाया। मैंने इतना तक सोचा कि सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है और इस समस्या को रातों-रात सुलझाया नहीं जा सकता। कुछ समय तक, मैं अपने कर्तव्य में एक के बाद एक समस्या झेलती रही, और अपनी नकारात्मकता में, जब मैं हार मान लेना चाहती थी, तभी रूथी ने सक्रिय रूप से मेरे साथ भागीदारी की और मेरे तकनीकी मुद्दों में धैर्यपूर्वक मेरी मदद की। मैंने अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे देखे और अंत में राहत की सांस ले सकी। मुझे इस संकट से उबारने में मदद के लिए, मुझे लगा कि रूथी ने मुझ पर सच्ची दया दिखायी, और मैं उसकी सच में आभारी थी। कुछ समय बाद, वह एक अगुआ बन गई। मैं उसके लिए बहुत खुश थी और अक्सर उसे प्रोत्साहित करती थी।
एक शाम, जब मैं सोने जा रही थी, तभी रूथी ने अचानक मुझे एक संदेश भेजा जिसमें लिखा था कि उसे बर्खास्त कर दिया गया था और वह पूरी तरह से टूट चुकी थी। उससे बात करने पर, मुझे पता चला कि कुछ भाई-बहनों ने उसकी रिपोर्ट की थी। अगुआ ने उसे रिपोर्ट का ब्यौरा पढ़कर सुनाया था, जिसे सुनकर उसे बहुत बुरा लगा, उसे महसूस हुआ कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। जैसे, उन्होंने कहा था कि उसे इज्जत और रुतबे की बहुत लालसा थी, और भले ही उसने यह स्वीकार किया हो कि वह इन बातों को महत्व देती है, लेकिन उसने इसे उसकी बड़ी लालसा मानने से इनकार कर दिया। रिपोर्ट में यह भी था कि वह सौहार्दपूर्वक सहयोग नहीं करती थी या व्यावहारिक कार्य नहीं करती थी, और जब चीजें उसके अनुसार नहीं होतीं थीं, तो वह गुस्से में आकर कलीसिया के काम को बाधित करती थी। उसने अपने कर्तव्य में कुछ दिक्कतों को स्वीकारा था, लेकिन वो बातें इतनी गंभीर नहीं थीं। अपनी शिकायतों की बात करते हुए वह फूट-फूट कर रोने लगी। उसने यह भी कहा कि इस रिपोर्ट ने उसे बुरा इंसान बनाकर पेश किया था, वह रिपोर्ट करने वालों और मामले को संभालने वाले अगुआ के प्रति पक्षपाती हो गई थी। उसने माना कि अगुआ सिर्फ कहानी का एक पक्ष सुन रहे हैं। उसने यह भी कहा कि भले ही उसके कर्तव्य में दिक्कतें थीं, लेकिन किसी ने भी उसकी मदद करने के लिए इन बातों पर संगति नहीं की, और उसे अचानक बर्खास्त करना बिल्कुल गलत था। जितना वह बोलती जाती, उतना ही उसे यह सब अन्याय लगता था। उसे इतना दुखी देखकर मुझे दुख हुआ, और उसे दिलासा देते हुए मैंने मन ही मन सोचा : “क्या रिपोर्ट के दावे सच में बढ़ा-चढ़ाकर किये गए हैं? क्या वाकई उसे गलत तरीके से बर्खास्त किया गया था?” तभी रूथी ने अचानक कुछ ऐसा कहा जो मुझे बहुत अजीब लगा। उसने कहा, “मेरे नजरिये से देखें तो, यह रिपोर्ट सांस्कृतिक क्रांति की निंदा जैसी है। वे मुझे नीचा दिखाने और बदनाम करने के लिए मुझ पर ढेर सारे आरोप लगाना चाहते हैं।” मेरा दिल धक् से रह गया। मुझे लगा कि उसका यह कहना वाकई बहुत अजीब बात थी। रिपोर्ट किया जाना और बर्खास्त किया जाना गंभीर मुद्दे थे, फिर भी वह आत्मचिंतन करके सत्य नहीं खोज रही थी या कोई सबक नहीं सीख रही थी। उसने रिपोर्ट और बर्खास्तगी की तुलना सीसीपी के उत्पीड़न से भी की। उसे लगा कि वे उसे दंडित करने की कोशिश कर रहे थे। यह बहुत गंभीर बात थी! मैंने तुरंत उसे याद दिलाया कि वह ऐसी बातें ना कहे, और कहा कि उसे आत्मचिंतन करना चाहिए।
मैंने बाद में उसके सहकर्मियों से सुना कि एक अगुआ के रूप में, वह व्यावहारिक काम या सौहार्दपूर्ण सहयोग नहीं करती थी, और वह शायद ही कभी अपनी जिम्मेदारी वाले काम में शामिल होती थी। जब उसके अगुआ ने उसके काम की छानबीन कर समस्याएं निकालीं, तो उसने उसके साथ संगति कर उसका निपटारा किया, फिर भी वह प्रतिरोधी बनकर, इसे नहीं स्वीकार रही थी, वह हमेशा बहाने बनाती, दोष मढ़ती और कहती थी कि ये दूसरों के मुद्दे थे, और यहाँ तक कि अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह से नकार देती थी। इस जानकारी से मुझे यकीन हो गया कि रिपोर्ट की बातें सही थीं। तब मैंने सोचा कि कैसे रूथी ने कहा था कि उसे लगता है यह रिपोर्ट सांस्कृतिक क्रांति के संघर्ष के सत्र से निकली हो, और मैं जानती थी कि मामला कितना गंभीर हो गया था। वह वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी और जब अगुआ ने उसका निपटारा किया तो उसे अस्वीकार रही थी। वह सच में एक नकली अगुआ थी जो बर्खास्तगी के लायक ही थी। लेकिन उसने आत्मचिंतन नहीं किया, और वैध रिपोर्ट की तुलना सीसीपी के उत्पीड़न से की। यह ना केवल सच्चाई को खारिज करना था, बल्कि तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर वास्तविकता को गलत तरीके से पेश करना भी था! यह विरोध करके हंगामा खड़ा करना था, यह सकारात्मक चीजों का तिरस्कार था। इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँच रही थी! मैंने जितना सोचा, उतना ही डर गई। मुझे लगा कि उसका स्वभाव शातिर था, और अगर वह बिना आत्मचिंतन या पश्चात्ताप किए विरोध करती रही, तो लोगों को निकालने के कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार उसे निकाल दिया जायेगा। मैं विचार कर रही थी कि क्या मुझे उसकी वर्तमान स्थिति की और उसने मुझसे से जो कहा उसकी रिपोर्ट अगुआ को करनी चाहिये। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर अगुआ को उसकी हालत के बारे में पता चला और एक अगुआ के रूप में उसके व्यवहार के साथ उसे देखकर फैसला किया कि वह एक कुकर्मी है जो सच्चाई को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है, तो क्या उसे कलीसिया से निकाल दिया जाएगा?” ये बातें सोचकर मैं बहुत असहज महसूस कर रही थी। मैं ऐसा परिणाम नहीं देखना चाहती थी। मैंने उन सभी पलों के बारे में भी सोचा जो हमने साथ बिताये थे, कि वह मेरे साथ कितनी अच्छी थी, और मुझे उसकी ज्यादा मदद कर दिलासा देने की कोशिश करनी चाहिये। अगर उसे पता चला कि मैंने उन सारी बातों की रिपोर्ट कर दी जो उसने मुझ पर भरोसा करके अगुआ के बारे में कही थी, तो उसे बहुत बुरा लगेगा। उसने मुझसे ये बातें इतने खुले तौर पर कही थीं क्योंकि उसे मुझ पर भरोसा था, और अगर मैं अगुआ को उसकी रिपोर्ट करूँगी तो ये मेरी निर्दयता होगी। मैं इस मामले को मन में दोहराती रही, कुछ कह नहीं पा रही थी। मैंने सोचा कि ऐसा करना मेरी दोस्त के साथ विश्वासघात होगा, और यह समझदारी भी नहीं होगी। इसीलिए, मैंने उसका मुद्दा किसी और के सामने नहीं उठाया। जब भी मेरे पास समय होता, तो मैं उसे हाल-चाल पूछने एक संदेश भेजती या परमेश्वर के कुछ वचन भेज देती थी। मुझे उम्मीद थी कि वह अपनी गलत स्थिति को ठीक करके अपना कर्तव्य जल्द से जल्द सही से निभा सकेगी। भले ही मैं अपना रिश्ता बचा रही थी, फिर भी मुझे सुकून नहीं था। मैं जानती थी कि उसकी समस्याएँ बहुत गंभीर हैं, फिर भी मैं कुछ नहीं कह रही थी। क्या मैं उसे बचाने की कोशिश नहीं कर रही थी? मेरे अंदर उथल-पुथल मची थी। कुछ ना कहकर, मुझे अपनी अंतरात्मा दोषी ठहरा रही थी, लेकिन अगर मैं बोलती, तो शायद मैं रूथी को निराश कर देती। यह मामला मुझे परेशान कर रहा था, समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरा मार्गदर्शन करने को कहा और मुझे इस मामले में उसकी इच्छा को समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम बनाने को कहा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। “तुम लोगों को यह पहचानना सीखना चाहिए कि अच्छा व्यवहार क्या होता है, और सत्य का अभ्यास करना और अपना स्वभाव बदलना क्या होता है। अपना स्वभाव बदलने में सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के वचन सुनना, परमेश्वर का आज्ञापालन करना और उसके वचनों के अनुसार जीना शामिल है। तो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उनके अनुसार जीने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? उदाहरण के लिए, मान लो, दो लोग हैं जो बहुत अच्छे दोस्त हैं। उन्होंने अतीत में एक-दूसरे की मदद की है, साथ में कठिन समय गुजारा है, और वे एक-दूसरे को बचाने के लिए अपनी जान तक दे सकते हैं। क्या यह सत्य का अभ्यास करना है? यह भाईचारा है, यह दूसरों को अपने से ज्यादा महत्व देना है, यह अच्छा व्यवहार है, लेकिन यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना है; यह परमेश्वर का आज्ञापालन करना और उसे संतुष्ट करना है। अच्छा व्यवहार दैहिक संबंध निभाने और भावनात्मक संबंध बनाए रखने से ताल्लुक रखता है। इसलिए, भाईचारा, रिश्तों की रक्षा करना, एक-दूसरे की मदद करना, एक-दूसरे को सहन और संतुष्ट करना, ये सभी निजी, व्यक्तिगत मामले हैं और इनका सत्य के अभ्यास से कोई लेना-देना नहीं है। तो परमेश्वर लोगों से दूसरों के साथ कैसा व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करता है? (परमेश्वर अपेक्षा करता है कि हम एक-दूसरे से सिद्धांतों के अनुसार पेश आएँ। अगर दूसरा व्यक्ति कुछ गलत करता है, कुछ ऐसा जो सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो हम उसकी बात नहीं सुन सकते, भले ही वह हमारी माता या पिता ही क्यों न हो। हमें सत्य के सिद्धांतों पर दृढ़ रहना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए।) (परमेश्वर अपेक्षा करता है कि भाई-बहन एक-दूसरे की मदद करें। अगर हम देखते हैं कि दूसरे व्यक्ति में कोई समस्या है, तो हमें उसे इंगित करना चाहिए, उस पर संगति करनी चाहिए और उसका समाधान करने के लिए मिलकर सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए। केवल ऐसा करके ही हम वास्तव में उसकी मदद करते हैं।) वह चाहता है कि एक-दूसरे के प्रति लोगों का व्यवहार सत्य के सिद्धांतों की नींव पर आधारित हो, चाहे उनका रिश्ता कोई भी हो। इन सिद्धांतों से बाहर की किसी भी चीज को सत्य का अभ्यास करना नहीं माना जाता। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति कुछ ऐसा करता है जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता है, जिसकी हर कोई आलोचना और विरोध करता है। उसका दोस्त कहता है, ‘तुम्हें उसे सिर्फ इसलिए उजागर करने की जरूरत नहीं, क्योंकि उसने गलती की है! मैं उसका दोस्त हूँ; सबसे पहले, मुझे उसे समझना चाहिए; मुझे उसके प्रति सहिष्णु होना चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए। मैं तुम्हारी तरह उसकी आलोचना नहीं कर सकता। मुझे उसे सांत्वना देनी चाहिए, उसे चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, और मैं उसे बताऊँगा कि यह गलती कोई बड़ी बात नहीं है। तुम लोगों में किसी ने भी फिर से उसकी आलोचना की और उसके लिए मुश्किल खड़ी की, तो तुम्हें पहले मुझसे निपटना होगा। तुममें से कोई भी मुझसे ज्यादा उसके करीब नहीं है। हम अच्छे दोस्त हैं। दोस्त एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं, और जरूरत पड़ी तो मैं उसका साथ दूँगा।’ क्या यह सत्य का अभ्यास करना है? (नहीं, यह जीने का एक फलसफा है।) इस व्यक्ति की मानसिकता एक अन्य सैद्धांतिक नींव पर भी आधारित है : वह मानता है कि ‘मेरे दोस्त ने मेरे जीवन में सबसे कठिन, सबसे कष्टमय समय में मेरी मदद की। बाकी सभी ने मुझे छोड़ दिया था, सिर्फ उसी ने मेरी देखभाल और मदद की। अब वह मुसीबत में है, और अब उसकी मदद करने की मेरी बारी है—मुझे लगता है कि जमीर और मानवता होने का यही मतलब है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुममें इतना थोड़ा-सा भी जमीर नहीं है, तो तुम खुद को इंसान कैसे कह सकते हो? क्या यह परमेश्वर पर तुम्हारी आस्था और सत्य के अभ्यास को खोखले शब्द नहीं बनाता?’ ये शब्द ऐसे लगते हैं, मानो सही हों। ज्यादातर लोग इनकी असलियत नहीं बता सकते—वह व्यक्ति भी नहीं, जिसने उन्हें कहा था, जो सोचता है कि उसके क्रियाकलाप सत्य से उत्पन्न होते हैं। लेकिन क्या वह जो करता है वह सही है? असल में, वह सही नहीं है। करीब से देखो, तो पता चलेगा कि उसका कहा हर शब्द नीतिशास्त्र, नैतिकता और जमीर से पैदा होता है। मानवीय नीतिशास्त्र के अनुसार, यह व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार है। अपने दोस्त के साथ इस तरह खड़ा होना उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाता है। लेकिन क्या कोई जानता है कि इस ‘अच्छे व्यक्ति’ के पीछे कौन-सा स्वभाव और सार छिपा है? वह परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं है। सबसे पहले, जब कुछ होता है, तो वह स्थिति को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखता। वह परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजता, बल्कि इस मामले को नैतिकता, नीतिशास्त्र और अविश्वासियों के जीवन-सिद्धांतों के अनुसार देखता है। वह शैतान के पाखंडों और भ्रांतियों को सत्य समझता है और परमेश्वर के वचनों को किनारे कर देता है। ऐसा करके वह सत्य का मजाक उड़ाता है और परमेश्वर के वचनों में कही गई बातों को नजरअंदाज करता है। यह दर्शाता है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता। वह सत्य का स्थान जीवन के शैतानी सिद्धांतों और मनुष्य की धारणाओं, नीतिशास्त्र और नैतिकता को दे देता है और शैतानी फलसफों के अनुसार कार्य करता है। यहाँ तक कि वह यकीन के साथ कहता है कि यह सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर की इच्छा पूरी करना है, कि यह कार्य करने का धार्मिक तरीका है। क्या वह धार्मिकता के इस वेश का उपयोग सत्य का उल्लंघन करने के लिए नहीं कर रहा है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का सटीक खुलासा किया। मैंने पिछले कुछ दिनों के अपने विचारों पर आत्मचिंतन किया। भले ही मुझे पता था कि रूथी ने सच्चाई को नहीं स्वीकारा और वह छिपकर नकारात्मकता और झूठ फैला रही थी, फिर भी मैं उसे बचाकर उसकी रिपोर्ट नहीं कर रही थी। इसकी वजह थी कि मैं “अपने दोस्तों के लिए खुद को कुर्बान करो” जैसे शैतानी विचारों से प्रभावित थी और सोच रही थी कि अपने आचरण में स्नेह और परोपकार को प्राथमिकता देना नैतिकता है। एक अविश्वासी के रूप में, मैंने टीवी पर और कहानियों में उन सभी किरदारों को देखा था जो अपने दोस्तों के लिए पूरी तरह समर्पित थे और मैं उनकी काफी प्रशंसा करती थी। मुझे लगा कि यह ईमानदारी है और एक अच्छा इंसान बनने का यही तरीका है। वे सब मेरे आदर्श थे। मैंने खुद से कहा कि मैं एक ऐसी व्यक्ति बनूँगी जो वफादारी और दोस्ती को महत्व दे, कि अगर दूसरे मेरे साथ उदार रहें, तो मुझे उनका दुगना प्रतिफल देना चाहिये, और मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती जिससे वे निराश हों, वरना मैं विवेकहीन कहलाऊँगी और तिरस्कृत हो जाऊँगी। विश्वासी बनने के बाद, ऐसे विचार मेरे साथ बने रहे। अगर कोई मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता या मेरी खास परवाह करता, तो मैं इसे ध्यान में रखती थी और फिर चाहे उन्हें कितनी भी कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करना पड़े, मैं हमेशा उनकी मदद करती और ऐसा कुछ नहीं करती जिससे हमारी दोस्ती खतरे में आ जाये। क्योंकि मैं इन तथाकथित “नैतिकताओं” से बंधी हुई थी, हालांकि मुझे पता था कि रूथी की समस्याएं हैं और मुझे उसकी रिपोर्ट करके सिद्धांतों को बरकरार रखना चाहिए, लेकिन मैं सत्य के अभ्यास का कदम उठा ही नहीं सकी। मैं सोचती रही कि उसने मुझ पर विश्वास करके जो कुछ कहा है, अगर मैं बता दूँगी, तो यह उसे नीचा दिखाना होगा। ये शैतानी फलसफे मुझे नियंत्रित कर रहे थे, जिससे मुझे सही-गलत में फर्क नहीं दिख रहा था, और इसने मुझे पूरी तरह से सिद्धांतहीन बना दिया था। जितना मैं आत्मचिंतन करती, उतना ही मैं देखती कि मैं कितनी मूर्ख और भ्रमित थी। भले ही मैंने परमेश्वर पर विश्वास किया हो और उसके वचन पढ़े हों, फिर भी जब मेरे साथ कुछ हुआ तब मैं शैतानी फलसफों पर निर्भर हो गई। मैंने आखिरकार देखा कि मेरी हालत सच में दयनीय थी और मेरे पास कोई सच्चाई नहीं बची थी!
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा। “उन लोगों में अच्छाई कैसे हो सकती है, जो सत्य से प्रेम नहीं करते? उन लोगों में धार्मिकता कैसे हो सकती है, जो केवल देह से प्रेम करते हैं? क्या धार्मिकता और अच्छाई दोनों सत्य के संदर्भ में नहीं बोली जातीं? क्या वे उन लोगों के लिए आरक्षित नहीं हैं, जो परमेश्वर से संपूर्ण हृदय से प्रेम करते हैं? जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जो केवल सड़ी हुई लाशें हैं—क्या वे सभी लोग बुराई को आश्रय नहीं देते? जो लोग सत्य को जीने में असमर्थ हैं—क्या वे सब सत्य के शत्रु नहीं हैं? और तुम्हारा क्या हाल है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल पूर्ण बनाया गया मनुष्य ही सार्थक जीवन जी सकता है)। “तुम अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पत्नी (या पति), बेटे-बेटियों और माता-पिता के प्रति अत्यंत सौम्य और निष्ठावान हो सकते हो, और शायद कभी दूसरों का फायदा न उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के साथ संगत नहीं हो पाते, उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब-कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम दुष्ट हो, और इतना ही नहीं, शातिर चालों से भरे हुए हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि सच्ची धार्मिकता और भलाई किसी एक व्यक्ति के प्रति वफादारी नहीं है। आप किसी मित्र या परिवार के सदस्य के प्रति कितने ही मित्रवत या वफादार हों, या दूसरे आपको कितना भी अच्छा कहें या समाज आपकी कितनी भी प्रशंसा करे, इससे आप धार्मिक या अच्छे नहीं कहलाएंगे। सच्ची धार्मिकता और अच्छाई केवल सत्य के सन्दर्भ में बोली जाती है, और ये चीजें सत्य के अनुरूप होती हैं। समस्याएं आने पर सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करने, सिद्धांतों को बनाये रखने में भावनाओं को अलग रखने, और कलीसिया के काम की रक्षा करने की क्षमता धार्मिकता और सत्य के लिए प्रेम को दिखाती है, और इससे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। मैंने सोचा कि कैसे बाइबिल में, एक अहम पल में, लूत ने अपनी दो बेटियों को देकर दो दूतों की रक्षा की थी और कैसे इस आचरण को परमेश्वर ने धार्मिक माना। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर की आज्ञा मिलने पर, नूह ने बड़े जहाज को बनाने में 100 से अधिक बरस लगा दिये, और कैसे उस दौरान उसने बहुत कष्ट, निन्दा, और आलोचना का अनुभव किया, लेकिन फिर भी वह परमेश्वर के वचन पर ध्यान देकर परमेश्वर के आदेश को पूरा करने में सफल हुआ। यह धार्मिकता थी। मैं समझ गई कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करके, व्यक्ति उसके वचन के अनुसार पूर्ण रूप से अभ्यास कर सकता है, चाहे कोई भी कष्ट क्यों ना हो या भले ही जीवन त्यागना पड़े, फिर भी वह परमेश्वर के आदेश को पूरा कर उसके घर के कार्य की रक्षा कर सकता है। इसे ही धार्मिकता और अच्छाई कहा जा सकता है। मैंने हमेशा दूसरों के साथ अपने संबंधों और स्नेह की रक्षा की थी। मुझे पता था कि रूथी छिपा कर नकारात्मकता और झूठ फैला रही थी, फिर भी मैंने उसकी रिपोर्ट नहीं की। मैंने उसके लिए अपने स्नेह को प्राथमिकता दी और कलीसिया के काम की कीमत पर भी उसकी रक्षा की। मैंने अपनी भावनाओं को सबसे पहले रखा और सत्य का उल्लंघन किया। यह कैसी धार्मिकता या अच्छाई थी? असल में, मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी और उसकी दोषी हो गई थी। इस बात पर, मुझे अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ और मेरा हृदय भय से जकड़ गया। मैं भावनाओं को क़ाबू में नहीं रख सकी। मुझे रूथी की रिपोर्ट करके सत्य और सिद्धांतों पर टिके रहना था। इसीलिए, मैंने रूथी की समस्यायों का एक तथ्यात्मक लेख तैयार किया और उसे अगुआ के पास भेज दिया।
जल्दी ही, अगुआ ने मुझसे कहा, “रूथी की समस्याएं काफी गंभीर हैं। अपनी बर्खास्तगी के बाद से, उसने आत्मचिंतन नहीं किया है, वह अवज्ञाकारी और रुष्ट है, धारणाएँ और नकारात्मकता फैला रही है, सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही है। उसकी समस्याओं को फिर से उजागर करना होगा। अगर उसे इन समस्याओं की गंभीरता का एहसास नहीं हुआ, तो वह नकारात्मकता फैलाना जारी रखकर कलीसिया जीवन को बिगाड़ सकती है!” अगुआ ने मुझे भी इसमें भाग लेने के लिए कहा। मैं अचानक घबरा गई और फिर से दुविधा महसूस करने लगी : “अगर रूथी की दिक्कतों को बेनकाब करने की यह सहभागिता कई लोगों के सामने होगी, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह मुझसे नफरत करेगी? क्या उसे दुख होगा? क्या वह सोचेगी कि वह मुझसे अब बात नहीं कर सकती और मुझे अनदेखा करने लगेगी?” मैं उसके खुलासे के दृश्य की कल्पना करने की हिम्मत नहीं कर सकी और बस भाग जाना चाहती थी। अगुआ ने मेरी झिझक देखी और कहा, “अगर तुम्हें अजीब लग रहा है, तो इसमें भाग लेने की जरूरत नहीं है। इस पर विचार करो।” मैंने कुछ नहीं कहा। उसके बाद, मुझे बहुत अजीब लग रहा था और मैं सोच रही थी, “रूथी का सामना करने से मुझे इतना डर क्यों लग रहा है? मुझमें उसे उजागर करने की हिम्मत क्यों नहीं है? मैं अभी भी अपनी भावनाओं के अनुसार जी रही हूँ और अपने रिश्तों की रक्षा करना चाहती हूँ।” यह समझकर मैं बहुत दोषी महसूस करने लगी और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी मदद करो। मुझे शैतान के काले प्रभाव से मुक्त होने का साहस दो। मैं सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ।”
प्रार्थना के बाद, मैंने अपनी हालत से जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। “एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कार्य करते समय लापरवाह और अनमना होता है या कलीसिया के काम में बाधा डालता और हस्तक्षेप करता है, तो तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि जो कोई कलीसिया के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर की ओर से बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान किया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, ‘मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस दुष्ट बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।’ यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित होने वालों में ही उसका भय मानने वाला हृदय होता है)। “कलीसिया में मेरी गवाही में दृढ़ रहो, सत्य पर टिके रहो; सही सही है और गलत गलत है। काले और सफ़ेद के बीच भ्रमित मत होओ। तुम शैतान के साथ युद्ध करोगे और तुम्हें उसे पूरी तरह से हराना होगा, ताकि वह फिर कभी न उभरे। मेरी गवाही की रक्षा के लिए तुम्हें अपना सब-कुछ देना होगा। यह तुम लोगों के कार्यों का लक्ष्य होगा—इसे मत भूलना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं अंदर तक हिल गई और शर्म से भर गई। मैंने अपने हाल के व्यवहार पर विचार किया। मेरे जैसे लोगों को ही परमेश्वर ने विश्वासघाती, कलीसिया के काम की रक्षा ना करने वाले और सत्य का त्याग करने वाले लोग बताकर उजागर किया था। मुझे पता था कि रूथी ने अपनी बर्खास्तगी के बाद आत्मचिंतन या पश्चात्ताप नहीं किया था, और वह उसकी रिपोर्ट करने वाले लोगों से भी घृणा करती थी। मुझे पता था कि वह धारणाएँ फैला रही थी, नकारात्मक और प्रतिरोधी थी। वह पहले से ही सत्य से नफरत करने की प्रकृति उजागर कर चुकी थी; इसका सार था कि वह एक कुकर्मी थी। अगर कोई व्यक्ति, जो परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देता हो और उसमें धार्मिकता की भावना हो और उसने ऐसा व्यवहार देखा होता, तो वह कलीसिया के काम की रक्षा करने और शैतान के कामों को रोकने के लिए उठ खड़ा होता। वह कलीसिया के जीवन या कार्य को बाधित नहीं होने देता। लेकिन प्रत्यक्ष ज्ञान होते हुए भी, मैं हिचकिचायी, डगमगायी, रूथी को उजागर करने की हिम्मत नहीं की, मुझे भय था कि हमारे बीच के स्नेह को नुकसान पहुँचेगा। इस अह्म पल में, मैंने कलीसिया के कार्य पर विचार नहीं किया या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की। मैं शैतानी फलसफों को सुनती रही, शैतान के साथ प्रेम और स्नेह को प्राथमिकता देती रही, एक कुकर्मी को बचाने के लिए उसके पक्ष में खड़ी रही। मेरे इस आचरण का सार दुष्ट था। सत्य के सामने, मेरे सभी कार्य सच में निंदनीय थे। जितना मैंने परमेश्वर के वचन पर विचार किया, उतनी ही मुझे अपनी समस्या स्पष्ट दिखने लगी। मैंने यह भी सोचा कि कैसे अपने घर आने के लिए परमेश्वर ने मुझे चुना, और कैसे उसने लगातार मेरा मार्गदर्शन और सहयोग किया। उसने मुझे सत्य पर चलने और बचाये जाने का मौका दिया था, लेकिन अहम पल में, मैंने उसकी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया और शैतान की रक्षा करना चुना। मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी। परमेश्वर को निराश कर रही थी! अब मैं अपनी भावनाओं को प्राथमिकता नहीं दे सकती थी या अपने रिश्तों की रक्षा नहीं कर सकती थी। फिर चाहे इससे लोगों को ठेस ही क्यों ना पहुँचे; सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का अपमान करना पूरी तरह से मानवता की कमी को दर्शाता है! मुझे याद आया कि परमेश्वर का वचन कहता है : “लोगों के साथ तुम्हारे संबंध शरीर के स्तर पर स्थापित नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर स्थापित होते हैं। इनमें शरीर के स्तर पर लगभग कोई अंतःक्रिया नहीं होती, लेकिन आत्मा में संगति, आपसी प्रेम, आपसी सुविधा और एक-दूसरे के लिए प्रावधान की भावना रहती है। यह सब ऐसे हृदय की बुनियाद पर होता है, जो परमेश्वर को संतुष्ट करता हो। ये संबंध मानव जीवन-दर्शन के आधार पर नहीं बनाए रखे जाते, बल्कि परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करने के माध्यम से बहुत ही स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसके लिए मानव-निर्मित प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें बस परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन ने मुझे समझाया कि आपसी संबंधों को सांसारिक फलसफों के साथ नहीं चलाना चाहिये। बल्कि, लोगों को परमेश्वर के वचन के अनुसार जीना चाहिये। जीवन प्रवेश के मामलों पर मिलकर आपस में संगति करना, एक-दूसरे की मदद और सहयोग करना, जब कोई सिद्धांतों का उल्लंघन करे या गलत रास्ते पर चले, तो उससे संगति करना, मदद करना, उसकी निगरानी करने और चेतावनी दे पाना और कलीसिया के काम में बाधा डालने वालों को उजागर कर रोक पाना—लोगों को इन सिद्धांतों के आधार पर ही मेलजोल करना चाहिये। रूथी की समस्याओं के सामने, मैंने उसके प्रति अपनी भावनाओं और वफादारी को प्राथमिकता दी थी। यह तर्कहीन था और सच्चाई के अनुरूप नहीं था। ये एक गैर-विश्वासी के कार्य थे। मुझे अब कोई दुविधा नहीं हुई, अब मुझमें सत्य का अभ्यास करने का साहस था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचन के कुछ और अंश पढ़े जिसने “दोस्तों के लिए अपने को कुर्बान करो” जैसे पारंपरिक विचारों के नुकसान को उजागर किया। इससे मेरा दिल रोशन हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, घृणित जीवन-दर्शन, बिलकुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की प्रभुता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। “शैतान ने कई लोक-कथाएँ और इतिहास की पुस्तकों में मिलने वाली कहानियाँ गढ़ी हैं, जिनसे लोगों पर पारंपरिक संस्कृति या अंधविश्वासी शख्सियतों की गहरी छाप छोड़ी जाती है। उदाहरण के लिए, चीन में ‘समुद्र पार करने वाली आठ अमर हस्तियाँ,’ ‘पश्चिम की यात्रा,’ जेड सम्राट, ‘नेझा की अजगर राजा पर विजय,’ और ‘देवताओं का अधिष्ठापन।’ क्या इन्होंने मनुष्य के मन में गहराई से जड़ें नहीं जमा ली हैं? भले ही तुम में से कुछ लोग पूरा विवरण न जानते हों, फिर भी तुम आम कहानियाँ जानते हो, और यह सामान्य विषयवस्तु ही है जो तुम्हारे हृदय और मस्तिष्क में बैठ जाती है, ताकि तुम उन्हें भुला न सको। ये ही वे विभिन्न विचार या किंवदंतियाँ हैं, जिन्हें शैतान ने बहुत समय पहले मनुष्य के लिए तैयार किया था और जिन्हें विभिन्न समय पर फैलाया गया है। ये चीजें सीधे लोगों की आत्माओं को हानि पहुँचाती और नष्ट करती हैं और लोगों को एक के बाद दुसरे सम्मोहन में डालती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तुम ऐसी पारंपरिक संस्कृति, कथाओं या अंधविश्वास भरी चीजों को स्वीकार कर लेते हो, जब वे तुम्हारे मन में बैठ जाती हैं, और जब वे तुम्हारे हृदय में अटक जाती हैं, तो तुम सम्मोहित-से हो जाते हो—तुम इन सांस्कृतिक जालों में, इन विचारों और पारंपरिक कथाओं में उलझ जाते हो और उनसे प्रभावित हो जाते हो। वे तुम्हारे जीवन को, जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये को और चीजों के बारे में तुम्हारे निर्णय को प्रभावित करती हैं। इससे भी बढ़कर, वे जीवन के सच्चे मार्ग के तुम्हारे अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं : यह वास्तव में एक दुष्टतापूर्ण सम्मोहन है। तुम जितनी भी कोशिश कर लो, लेकिन उन्हें झटककर दूर नहीं कर सकते; तुम उन पर चोट तो करते हो, लेकिन उन्हें काटकर नीचे नहीं गिरा सकते; तुम उन पर प्रहार तो करते हो, लेकिन उन पर प्रहार करके उन्हें दूर नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त, जब लोगों पर अनजाने ही इस प्रकार का सम्मोहन डाला जाता है, तो वे अनजाने ही शैतान की आराधना करना आरंभ कर देते हैं, जिससे उनके अपने दिलों में शैतान की छवि को बढ़ावा मिलता है। दूसरे शब्दों में, वे शैतान को अपने आदर्श के रूप में, अपनी आराधना और आदर के पात्र के रूप में स्थापित कर लेते हैं, यहाँ तक कि वे उसे परमेश्वर मानने की हद तक भी चले जाते हैं। अनजाने ही ये चीजें लोगों के हृदय में हैं और उनके शब्दों और कर्मों को नियंत्रित कर रही हैं। इतना ही नहीं, तुम पहले तो इन कहानियों और किंवदंतियों को झूठा मानते हो, लेकिन फिर अनजाने ही उनका अस्तित्व स्वीकार कर लेते हो, उन्हें वास्तविक चीजें बना देते हो, और उन्हें वास्तविक, विद्यमान चीजों में बदल लेते हो। अपनी अनभिज्ञता में तुम अवचेतन रूप से इन विचारों को और इन चीजों के अस्तित्व को ग्रहण कर लेते हो। अवचेतन रूप में तुम दुष्टात्माओं, शैतान और मूर्तियों को भी अपने घर और हृदय में ग्रहण कर लेते हो—यह वास्तव में एक सम्मोहन है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि तथाकथित प्राचीन साधु-संतों के कहे वचन और मशहूर कहानियों में व्यक्त किए गए विचार जिन्होंने एक के बाद एक पीढ़ियों को प्रभावित किया है वे सब शैतान की उपज हैं। इन वचनों और विचारों से शैतान मानवजाति को नियंत्रित करता है। ये विचार मनुष्य के हृदय में गहरी जड़ें जमाये हुए हैं और उनका प्रभाव बहुत गहरा है। ठीक उसी विचार की तरह जिसके हिसाब से लोगों को अपने दोस्तों के लिए खुद को कुर्बान करना चाहिये; बाहरी तौर पर, इसे वफादारी को महत्व देना कहा जाता है, मानो किसी मित्र के लिए किसी की जान जोखिम में डालना कोई महान बात हो। जब लोग ऐसे विचार को स्वीकारने लगते हैं, तब उन्हें अपने दोस्तों की मदद करनी पड़ती है, फिर चाहे वे कुछ सही करें या गलत, और इस हद तक कि उनकी मदद के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दें। यह सिद्धांतहीन है और इसमें सही-गलत में अंतर नहीं किया जाता है। दोस्त कुछ गलत भी करे, तो भी उसे अपनी जान जोखिम में डालकर उसकी रक्षा करनी होगी, यह धार्मिक और वफादारी समझी जाती है। असल में, यह तर्कहीन और भावनाओं में बहकर व्यवहार करना है। मैं अब वफादारी को ऊँचे दर्जे की चीज नहीं मानती हूँ। इसके बजाय, मुझे लगता है कि ऐसी मानसिकता वाले लोग दयनीय होते हैं। उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं है और उनकी मृत्यु का कोई अर्थ नहीं है। मैंने सोचा कि इससे मुझे कितना गहरा नुकसान पहुँचा है। आपसी स्नेह की रक्षा के लिए, मैंने जान-बूझकर सत्य का अभ्यास नहीं किया। मैंने यह भी सोचा कि मैं वफादार थी, और मुझमें अच्छी-खासी मानवता थी। मैं कितनी मूर्ख थी। शैतान से सराहे जाने वाले ये विचार जहर ही हैं। इन विचारों ने मुझे सही-गलत में फर्क करने में नाकाम बना दिया, मैं सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर नहीं कर पा रही थी। उन्होंने मेरे दिमाग को संकुचित और विकृत कर दिया। उन्होंने मुझे सामान्य आपसी संबंध रखने से रोक दिया। मुझे याद आया कि परमेश्वर का वचन कहता है : “मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भ्रष्ट स्वभावों का मूल कारण शैतान का धोखा, भ्रष्टता और जहर है। मनुष्य को शैतान द्वारा बाँधा और नियंत्रित किया गया है, और शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि और समझ को जो गंभीर नुकसान पहुँचाया है, उसे वह भुगतता है। शैतान ने इंसान की मूलभूत चीजों को भ्रष्ट कर दिया है, और वे बिल्कुल भी वैसी नहीं हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से उन्हें बनाया था, ठीक इसी वजह से मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं स्वीकार पाता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। इससे पहले, मैंने केवल सिद्धांत रूप में स्वीकारा था कि मुझे शैतान ने इतनी गहराई से भ्रष्ट किया था कि मेरी सारी मानवता खो गई थी, लेकिन मैं यह नहीं समझ पायी कि इंसान की गहरी भ्रष्टता कहाँ प्रकट होती है। अब मैं इसे थोड़ा बेहतर समझती हूँ। शैतान के जहर और पारंपरिक संस्कृति के विचार अब मनुष्य का स्वभाव बन चुके हैं। उन्होंने मनुष्य के विचारों को कुचलकर विकृत कर दिया है, मनुष्य की सामान्य मानवता और सोच खो गई है। उसके सभी विचार परमेश्वर विरोधी हैं और सत्य के विरुद्ध हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा अपने उद्धार-कार्य में व्यक्त किए गए सत्य के बिना, जो इन सांसारिक फलसफों, शैतानी जहर और पारंपरिक संस्कृति का सार दिखाते हैं, और उनका एक-एक कर विश्लेषण करते हैं, मैं इन बातों को कैसे समझ पाती? इस तरह तो शैतान मुझे भ्रष्ट करता और नुकसान पहुँचता रहता। मुझे और भी ज्यादा लगा कि केवल परमेश्वर का वचन ही सत्य है, और केवल परमेश्वर का वचन ही लोगों को बदलकर बचा सकता है। परमेश्वर का वचन बहुत अनमोल है। पारंपरिक संस्कृति और ये शैतानी फलसफे लोगों को भ्रष्ट करते और नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर के वचन में सत्य की खोज करके, चीजों को देखकर और परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करके ही व्यक्ति की सोच और मानवता अधिक सामान्य हो सकती है।
कुछ दिनों बाद, अगुआ ने रूथी को बुलाया। मैंने उसमें जो भी समस्या देखी थी उन सभी के बारे में बेझिझक बात की। उसे उजागर करते हुए मुझे शांति महसूस हुई। मैं जानती थी कि ऐसा करना सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है, फिर चाहे वह मेरे बारे में जो भी सोचे, या मुझसे फिर कभी ना मिलना चाहे, मैं सत्य का अभ्यास कर रही थी, इसीलिए मुझे शांति का अनुभव हुआ और अपने कार्यों पर कभी पछतावा नहीं होगा।
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