मुसीबतों से मिले लाभ
2019 के आखिर में, एक रिश्तेदार ने मेरे साथ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार साझा किया। मैंने देखा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों में अधिकार था, और वे सत्य थे। मुझे ऐसा लगा कि यह परमेश्वर की वाणी थी, इसलिए मैंने खुशी-खुशी परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार लिया। मैं हर रोज परमेश्वर के वचन पढ़ता था और एक भी सभा को छोड़ना नहीं चाहता था। कभी-कभी, मेरे इलाके में इंटरनेट या बिजली की सप्लाई की समस्या होती, तो मैं ऑनलाइन सभाओं में शामिल न हो पाता। मैं बहुत परेशान हो जाता, पर बाद में सभा के विवरणों पर तेजी से एक नजर दौड़ा लेता, और फिर परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी समझ समूह से साझा कर लेता, भाई-बहनों से बात करता, और अपनी योग्यता अनुसार अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाता।
कुछ समय बाद, मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया गया। शुरू में, मैं दो अन्य अगुआओं के साथ कलीसिया के काम की जिम्मेदारी संभाल रहा था, इसलिए यह मुझे ज्यादा मुश्किल या तनावपूर्ण नहीं लगा। जल्दी ही, मुझे बहुत-से कलीसियाओं के काम पर नजर रखने के लिए चुन लिया गया। शुरू में, मैं यह कर्तव्य नहीं करना चाहता था। इसका कारण यह था कि एक अगुआ के रूप में मेरा लंबा अनुभव नहीं था, मुझमें अभी भी कई कमियाँ थीं और बहुत-सी बातें मेरी समझ में नहीं आती थीं, इसलिए मुझे चिंता थी कि यह कर्तव्य मैं ठीक-से नहीं निभा पाऊँगा। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “नूह ने केवल कुछ ही संदेश सुने थे, और उस समय परमेश्वर ने ज्यादा वचन व्यक्त नहीं किए थे, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि नूह ने बहुत-से सत्य नहीं समझे थे। उसे न आधुनिक विज्ञान की समझ थी, न आधुनिक ज्ञान की। वह एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति था, मानवजाति का एक मामूली सदस्य। फिर भी एक मायने में वह सबसे अलग था : वह परमेश्वर के वचन सुनना जानता था, वह जानता था कि परमेश्वर के वचनों का अनुसरण और पालन कैसे करना है, वह जानता था कि मनुष्य की स्थिति क्या है, और वह परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करने और उनका पालन करने में सक्षम था—इससे अधिक कुछ नहीं। नूह को परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को क्रियान्वित करने देने के लिए ये कुछ सरल सिद्धांत पर्याप्त थे, और वह इसमें केवल कुछ महीनों, कुछ वर्षों या कुछ दशकों तक नहीं, बल्कि एक शताब्दी से भी अधिक समय तक दृढ़ता से जुटा रहा। क्या यह संख्या आश्चर्यजनक नहीं है? नूह के अलावा इसे और कौन कर सकता था? (कोई नहीं।) और क्यों नहीं कर सकता था? कुछ लोग कहते हैं कि इसका कारण सत्य को न समझना है—लेकिन यह तथ्य के अनुरूप नहीं है! नूह ने कितने सत्य समझे थे? नूह यह सब करने में सक्षम क्यों था? आज के विश्वासियों ने परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े हैं, वे कुछ सत्य समझते हैं—तो ऐसा क्यों है कि वे ऐसा करने में असमर्थ हैं? अन्य लोग कहते हैं कि यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण है—लेकिन क्या नूह का स्वभाव भ्रष्ट नहीं था? क्यों नूह इसे हासिल करने में सक्षम था, लेकिन आज के लोग नहीं हैं? (क्योंकि आज के लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते, वे न तो उन्हें सत्य मानते हैं और न ही उनका पालन करते हैं।) और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में असमर्थ क्यों हैं? वे परमेश्वर के वचनों का पालन करने में असमर्थ क्यों हैं? (उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है।) तो जब लोगों में सत्य की समझ नहीं होती, और उन्होंने बहुत-से सत्य नहीं सुने होते, तो उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे उत्पन्न होगा? (व्यक्ति में मानवता और जमीर होना चाहिए।) यह सही है। लोगों की मानवता में दो सबसे कीमती चीजें अवश्य मौजूद होनी चाहिए : पहला है विवेक और दूसरा है सामान्य मानवता की भावना। इंसान होने के लिए विवेक और सामान्य मानवता की भावना का होना न्यूनतम मानक है; यह किसी व्यक्ति को मापने के लिए न्यूनतम, सबसे बुनियादी मानक है। लेकिन यह आज के लोगों में नदारद है, और इसलिए चाहे वे कितने ही सत्य सुन और समझ लें, वे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखने में सक्षम नहीं हैं। तो नूह के सार से आज के लोगों के सार में क्या अंतर है? (उनमें मानवता नहीं है।) और मानवता की इस कमी का सार क्या है? (जानवर और राक्षस।) ‘जानवर और राक्षस’ कहना बहुत अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह तथ्यों के अनुरूप है; इसे कहने का एक और विनम्र तरीका यह होगा कि उनमें कोई मानवता नहीं होती। बिना मानवता और समझ के लोग, लोग नहीं होते, वे जानवरों से भी नीचे होते हैं। नूह परमेश्वर की आज्ञा पूरी करने में सक्षम इसलिए था, क्योंकि जब नूह ने परमेश्वर के वचन सुने, तो वह उन्हें याद रखने में सक्षम था; उसके लिए परमेश्वर की आज्ञा एक जीवन भर की जिम्मेदारी थी, उसकी आस्था अटूट थी, उसकी इच्छा सौ वर्षों तक अपरिवर्तित रही। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था, वह एक वास्तविक व्यक्ति था, और उसे इस बात की अत्यधिक समझ थी कि परमेश्वर ने उसे जहाज के निर्माण का काम सौंपा है। नूह जितनी मानवता और समझ रखने वाले लोग बहुत दुर्लभ हैं, दूसरा नूह खोजना बहुत मुश्किल होगा” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। नूह ने कभी भी गूढ़ ज्ञान के संदेश नहीं सुने थे और वह बहुत-से सत्यों को नहीं समझता था, पर उसके पास परमेश्वर का भय मानने और उसका आज्ञापालन करने वाला दिल था। जब परमेश्वर ने नूह से कहा कि वह एक प्रलयकारी बाढ़ से मानवजाति को नष्ट करने जा रहा है और नूह को एक नाव बनानी है, तो नूह ने बिना किसी झिझक के इसे स्वीकार कर लिया। नूह जनता था कि परमेश्वर ने उसे जो आदेश दिया था, वह कोई आसान काम नहीं था, नाव बनाने के लिए पेड़ काटने पड़ेंगे और सही-सही माप लेने पड़ेंगे। पर बहुत बड़ा और मुश्किल काम होने पर भी, नूह पीछे नहीं हटा, क्योंकि उसे पता था कि यह उसके लिए परमेश्वर का आदेश था। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मुझमें नूह जैसी मानवता और समझ नहीं थी। जब अगुआ ने मुझे बहुत-सी कलीसियाओं का इंचार्ज बनाया था, तो मुझे परमेश्वर में आस्था नहीं थी और मैं सिर्फ अपनी योग्यताओं पर निर्भर रहा। मुझे लगता था मेरी कार्यक्षमता बहुत सीमित थी, एक कलीसिया अगुआ के रूप में मैंने ज्यादा अभ्यास नहीं किया था और मुझमें कई कमियाँ थीं। मुझे कर्तव्य ठीक-से न कर पाने की चिंता थी, इसलिए मैं इसे स्वीकारना नहीं चाहता था। परमेश्वर में मेरी नूह जैसी आस्था नहीं थी, न मेरे पास परमेश्वर का भय मानने और उसका आज्ञापालन करने वाला दिल था, नूह जैसी मानवता और समझ तो मुझमें और भी कम थी। इस एहसास के बाद, मैंने चिंता करना छोड़ दिया, मैं नूह की तरह ही आज्ञापालन करने और इस कर्तव्य को स्वीकारने के लिए तैयार हो गया।
हालांकि, जब मैंने काम शुरू किया तो एक नई समस्या मेरे सामने आई। मैंने देखा कि मुझे बहुत-से काम करने होते हैं। मिसाल के तौर पर, मुझे कलीसिया के अंदर भाई-बहनों की हालत को समझना पड़ता था, आम तौर पर सभाओं में न आने वालों की मदद करनी पड़ती थी, कर्तव्यों में लोगों की मुश्किलों को समझना और संगति करके उन्हें हल करना पड़ता था, साथ ही, लोगों को उनके कर्तव्य भी सिखाने पड़ते थे। मुझे ये सभी जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती थीं। मुझे इन समस्याओं का कोई सिरा समझ में नहीं आ रहा था, कि कहाँ से शुरू करूँ। मुझे यह काम ठीक-से करना नहीं आता था, मैं बहुत दबाव में था। इन मुश्किलों ने मुझे नकारात्मक बना दिया था, मैं बस अगुआ से कह देना चाहता था कि मैं इस कर्तव्य के योग्य नहीं हूँ क्योंकि मेरे पास अनुभव नहीं है और इसमें मुझे बहुत मुश्किलें आ रही हैं। बाद में, अगुआ को मेरी हालत का पता चला तो उसने मेरी मदद के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अतीत में जब परमेश्वर ने मूसा को इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले लाने के लिए भेजा, तो परमेश्वर द्वारा उसे ऐसा आदेश दिए जाने पर मूसा की क्या प्रतिक्रिया थी? (उसने कहा कि वह बोलने में निपुण नहीं है, बल्कि मुँह और जीभ का भद्दा है।) उसे यह एक, थोड़ा-सा संदेह था कि वह बोलने में निपुण नहीं, बल्कि मुँह और जीभ का भद्दा है। लेकिन क्या उसने परमेश्वर के आदेश का विरोध किया? उसने इसे कैसे लिया? वह जमीन पर लेटकर दंडवत हो गया। जमीन पर लेटकर दंडवत होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है समर्पित होकर स्वीकार करना। वह अपनी निजी प्राथमिकताओं की परवाह किए बिना परमेश्वर के सामने पूरा दंडवत हो गया, और उसने अपनी किसी भी संभावित कठिनाई का उल्लेख नहीं किया। परमेश्वर जो कुछ भी उससे कराए, वह उसे तुरंत करने के लिए तैयार था। यह महसूस करने के बाद भी कि वह कुछ नहीं कर सकता, वह परमेश्वर का आदेश स्वीकारने में सक्षम क्यों था? क्योंकि उसमें सच्चा भरोसा था। उसे सभी चीजों और मामलों पर परमेश्वर की संप्रभुता का कुछ अनुभव था और जंगल में अपने चालीस वर्षों के अनुभव में उसने जान लिया था कि परमेश्वर की संप्रभुता सर्वशक्तिमान है। इसलिए उसने परमेश्वर का आदेश पूरी तत्परता से स्वीकार लिया, और परमेश्वर ने उसे जो आदेश दिया था, उसे पूरा करने के लिए बिना कुछ बोले निकल पड़ा। इसका क्या अर्थ है कि वह निकल पड़ा? इसका अर्थ है कि वह परमेश्वर पर सच्चा भरोसा करता था, उस पर सच्चे मन से निर्भर था और उसके प्रति सच्चा समर्पण करता था। वह कायर नहीं था, और उसने अपनी पसंद नहीं चुनी या मना करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय उसे पूरा विश्वास था, और भरोसे से ओतप्रोत होकर वह परमेश्वर का आदेश कार्यान्वित करने निकल पड़ा। वह यह मानता था, ‘अगर परमेश्वर ने यह आदेश दिया है, तो यह सब परमेश्वर के कहे अनुसार किया जाएगा। परमेश्वर ने मुझे इस्राएलियों को मिस्र से बाहर लाने को कहा है, इसलिए मैं जाऊँगा। चूँकि यह आदेश परमेश्वर ने दिया है, इसलिए वही काम कराएगा, और वही मुझे शक्ति देगा। मुझे सिर्फ सहयोग करने की जरूरत है।’ यही अंतर्दृष्टि मूसा के पास थी। ... उस दौर के हालात इस्राएलियों या मूसा के लिए अनुकूल नहीं थे। मनुष्य के दृष्टिकोण से इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाना असंभव काम था, क्योंकि मिस्र की सीमा पर लाल सागर था, जिसे पार करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। क्या मूसा को सचमुच पता नहीं होगा कि इस आदेश को पूरा करना कितना कठिन है? वह दिल ही दिल में ये जानता था, फिर भी उसने केवल यही कहा कि वह बोलने-चालने में धीमा है और कोई भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं देगा। उसने परमेश्वर का आदेश दिल से खारिज नहीं किया। परमेश्वर ने जब इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने को कहा तो मूसा ने दंडवत होकर इसे स्वीकार कर लिया। उसने मुश्किलों का जिक्र क्यों नहीं किया? क्या ऐसा था कि चालीस साल जंगल में बिताने के बाद वह यह नहीं जानता था कि इंसानों की दुनिया के खतरे क्या हैं या मिस्र में चीजें किस स्थिति में पहुँच चुकी हैं या इस्राएलियों की वर्तमान दुर्दशा क्या है? क्या वह इन चीजों को साफ तौर पर नहीं देख पा रहा था? क्या यही हो रहा था? बिल्कुल भी नहीं। मूसा होशियार और बुद्धिमान था। वह ये सारी चीजें जानता था, इंसानों की दुनिया में इन्हें खुद भुगतकर अनुभव लेने के बाद वह इन्हें कभी नहीं भुला सकता था। वह उन चीजों को बखूबी जानता था। तो क्या वह जानता था कि परमेश्वर ने उसे जो आदेश दिया है, वह कितना कठिन है? (हाँ।) अगर वह जानता था तो वह उस आदेश को कैसे स्वीकार कर सका? उसे परमेश्वर पर भरोसा था। अपने जीवन भर के अनुभव से वह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास करता था, इसलिए उसने परमेश्वर के इस आदेश को जरा-भी संदेह किए बिना पूरे भरोसे के साथ स्वीकार लिया। ... मुझे बताओ, जंगल में बिताए चालीस वर्षों में, क्या मूसा यह अनुभव करने में सक्षम था कि परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है, कि मनुष्य परमेश्वर के हाथ में है? हाँ, बिलकुल सक्षम था—यह उसका सबसे सच्चा अनुभव था। जंगल में बिताए चालीस वर्षों में, ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जिनसे उसकी जान को खतरा था, और उसे नहीं पता था कि वह उनसे बच पाएगा या नहीं। वह रोज अपने जीवन के लिए संघर्ष और सुरक्षा के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करता था। यही उसकी एकमात्र इच्छा थी। उन चालीस वर्षों में जिस चीज का उसने सबसे गहराई से अनुभव किया, वह थी परमेश्वर की संप्रभुता और सुरक्षा। बाद में, जब वह परमेश्वर का आदेश स्वीकार रहा था, तब उसकी पहली भावना यही रही होगी : ‘परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। अगर परमेश्वर कहता है कि यह हो सकता है, तो यह निश्चित रूप से हो सकता है। चूँकि परमेश्वर ने मुझे ऐसा आदेश दिया है, इसलिए वह निश्चित करेगा कि यह पूरा हो—इसे वही करेगा, कोई मनुष्य नहीं।’ कार्य करने से पहले लोगों के लिए योजना बनाना और पहले से तैयारी करना जरूरी है। उन्हें पहले प्रारंभिक तैयारियाँ करनी चाहिए। क्या परमेश्वर के लिए भी कार्य करने से पहले ये चीजें करनी जरूरी हैं? उसे ऐसी कोई जरूरत नहीं है। प्रत्येक सृजित प्राणी, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली, कितना भी सक्षम या सामर्थ्यवान क्यों न हो, चाहे वह कितना भी उन्मत्त क्यों न हो, वह परमेश्वर के हाथ में है। मूसा को यह भरोसा, ज्ञान और अनुभव था, इसलिए उसके हृदय में तनिक भी संदेह या भय नहीं था। इसलिए, परमेश्वर में उसका भरोसा विशेष रूप से असली और शुद्ध था। कहा जा सकता है कि वह भरोसे से भरा हुआ था” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्चे समर्पण से ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ कर मुझे एहसास हुआ कि मैं एक डरपोक इंसान था, जिसे न तो परमेश्वर पर भरोसा था और न ही उसमें कोई आस्था थी। परमेश्वर ने मूसा को इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने के लिए कहा, ताकि वे गुलाम न रहें। मूसा के पास फिरौन के खिलाफ लड़ने के लिए सेना नहीं थी, और इस आदेश को पूरा करना बहुत मुश्किल था, पर मूसा परमेश्वर के वचन का पालन करने में सफल रहा, और यह मानता रहा कि परमेश्वर खुद अपने लोगों को मिस्र से बाहर ले जाएगा। अपने बारे में फिर से सोचते हुए, मुझे इतना सारा काम नजर आ रहा था जो मैं नहीं कर सकता था, इसलिए मैं इस कर्तव्य को छोड़ देना चाहता था, क्योंकि मैं बहुत ज्यादा दबाव महसूस कर रहा था, कि यह कर्तव्य मुझ पर एक बोझ है, और मैं इसे पूरा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर पर भरोसा नहीं था और उसमें मेरी आस्था नहीं थी। मुझे सिर्फ अपनी सीमित योग्यताओं पर भरोसा था। मैं सोचता था कि अच्छा काम करने की मेरी योग्यता का संबंध मेरी काबिलियत और अनुभव से था। मैं ऐसा नहीं मानता था कि सारा काम परमेश्वर करता है और हम सिर्फ सहयोगी भूमिका निभाते हैं। मैं सचमुच अहंकारी था। दरअसल परमेश्वर की अनुमति से ही मैं वह कर्तव्य निभाने में सक्षम था। सब कुछ परमेश्वर द्वारा शासित और व्यवस्थित है। व्यवहारिक सहयोग के लिए मुझमें आस्था होनी चाहिए। अब, मैं इस कर्तव्य को ठुकरा नहीं सकता था। मुझे विश्वास था अगर मैं परमेश्वर पर निर्भर रहूँगा, तो वह मेरा मार्गदर्शन और मदद करेगा, हर तरह की मुश्किल में मुझे सत्य को जानने और कर्तव्य निभाने के सभी तरह के सिद्धांतों को समझने देगा, और मैं धीरे-धीरे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना जान जाऊँगा। मैंने यह भी जाना कि यह कर्तव्य करने का अवसर मिलने मतलब था कि परमेश्वर मुझे अभ्यास का मौका दे रहा था; अपनी आस्था को सुदृढ़ करके और अपनी कमियों की भरपाई करके मैं अपने कंधों पर भारी बोझ उठा सकता था और अपनी भूमिका निभा सकता था, इस तरह परमेश्वर मेरे साथ था।
चूँकि हाल के वर्षों में वेनेजुएला में, पानी, बिजली, इंटरनेट और अर्थव्यवस्था की समस्याएँ रही हैं, इसलिए हमें अपने परिवार की गुजर-बसर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। मैं और मेरे पिता हर सुबह तीन बजे मछली पकड़ने निकल जाते थे, और दोपहर को तीन-चार बजे से पहले नहीं लौट पाते थे। समुद्र में सारा दिन गुजारकर मैं बहुत थक जाता था, पर घर लौटने के बाद मैं आराम करना नहीं चाहता था, क्योंकि अपने कर्तव्य में मैं अभी भी बहुत सारे काम नहीं कर पाता था, मुझे वचन पढ़ने, अपने कर्तव्य की तैयारी करने और अपनी कमियों की भरपाई के लिए ज्यादा समय की जरूरत थी, ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकूँ। अगर मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभाया तो यह परमेश्वर को निराश करना होगा। मैंने अनुग्रह के युग के संतों के बारे में सोचा। वे सब प्रभु यीशु के अनुयायी थे। उन्होंने सुसमाचार फैलाया, अपने कर्तव्य निभाए, बहुत-सी मुश्किलें और खतरे झेले, और काफी कष्ट उठाए। उनकी तुलना में मेरे कष्ट भला क्या हैं? इसलिए, घर लौटने के बाद सबसे पहले मैं अपना फोन उठा कर देखता था कि क्या-क्या काम करने हैं और क्या निर्देश हैं। मैं भाई-बहनों को भी संदेश भेज कर पूछता था क्या उनकी कोई परेशानी है। अगर किसी को पता नहीं होता था कि अपना कर्तव्य कैसे निभाएँ, तो मैं उनकी मदद करता था और अपने कर्तव्य निर्वाह के दौरान सीखी बातें बताता था। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान मैंने परमेश्वर पर निर्भर रहना सीखा और जब भाई-बहन मुश्किलों का सामना करते थे तो मैं प्रार्थना करके परमेश्वर से राह दिखाने, और उनकी मदद करने वाले वचन ढूँढने में मदद करने के लिए कहता था। परमेश्वर के वचनों को साझा करने और अपने अनुभव और समझ पर उनके साथ संगति करने के बाद, उनकी हालत में कुछ बदलाव आता। भाई-बहनों की मदद करने से सत्य की मेरी समझ पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गई। मेरी समझ में आया कि चाहे कोई भी मुश्किल हो, अगर हम तहेदिल से परमेश्वर पर भरोसा करते हैं तो वह हमें राह दिखाएगा। भले ही मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं, पर अब मैं पहले की तरह कमजोर नहीं था। जल्दी ही, एक दूसरी बड़ी समस्या मेरे सामने आ गई। मेरे इलाके में इंटरनेट कमजोर होने के कारण मैं भाई-बहनों के साथ नियमित रूप से बातचीत या सभाओं में शिरकत नहीं कर पाता था, और अपना कर्तव्य निभाने का कोई तरीका नहीं था। मैं जानता था कि यह मसला मेरे हाथ में नहीं था, इसलिए मैं काफी देर तक परमेश्वर से मुझे राह दिखाने के लिए प्रार्थना करता रहा। प्रार्थना के बाद मेरा मन धीरे-धीरे शांत हो गया। फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब तुम्हारा सबसे कठिन दौर चल रहा हो, जब तुम परमेश्वर को सबसे कम महसूस कर पाते हो, जब तुम सर्वाधिक कष्ट में और अकेले होते हो, जब तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर से दूर हो, तो वह इकलौती चीज क्या है जो तुम्हें सबसे पहले करनी चाहिए? परमेश्वर को पुकारना। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें शक्ति मिलती है। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें उसका अस्तित्व महसूस होता है। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें उसकी संप्रभुता महसूस होती है। जब तुम परमेश्वर को पुकारते हो, परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और अपना जीवन उसके हाथों में सौंपते हो तो तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर तुम्हारे बगल में है और उसने तुम्हें छोड़ा नहीं है। जब तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ा नहीं है, जब तुम वास्तव में महसूस करोगे कि वह तुम्हारे बगल में है तो क्या तुम्हारा भरोसा बढ़ेगा? अगर तुम सच्चा भरोसा रखते हो तो क्या यह समय के साथ नष्ट होकर मिट पाएगा? बिल्कुल भी नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्चे समर्पण से ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है)। जब तुम मुश्किलों का सामना करो तो दिल से परमेश्वर को पुकारो, इससे तुम्हें आस्था और शक्ति मिलेगी। इंसान की क्षमताएँ सीमित हैं। हम अपनी नजर के पार कुछ भी नहीं देख सकते, इसलिए हम सामने खड़ी मुश्किलों से घबरा जाते हैं। परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है, अगर हम सच्चे दिल से परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं तो वह हमें राह दिखाता है और कर्तव्य निभाने में मदद करता है। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। मैं तमाम मुश्किलों के बीच अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकता था। इन मुश्किलों से उबरने के लिए मुझे प्रार्थना करके परमेश्वर पर भरोसा रखना था और अपने कर्तव्य के निर्वाह में और कड़ी मेहनत करनी थी। फिर मैं ज्यादा स्थिर इंटरनेट कनेक्शन की तलाश में निकलने लगा, ताकि मैं सभाओं में शामिल हो सकूँ। कई बार जब मैं सभा की मेजबानी कर रहा होता तो रात 8 बजे के आसपास सड़क पर निकल जाता, और साढ़े दस या ग्यारह बजे के आसपास ही सभा खत्म होने के बाद घर लौटता। वापसी में मुझे बहुत डर भी लगता, क्योंकि मैं एक खतरनाक जगह में रहता था, और मुझे डर था कि कोई मेरा फोन छीन लेगा, जिसके बाद मैं न सभाओं में शामिल हो पाऊँगा और न ही अपना कर्तव्य निभा पाऊँगा। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करता था और मुश्किलों के बीच मुझे डटे रहने की शक्ति देने की विनती करता था। जल्दी ही मुझे एक संदेश मिला। एक भाई को मेरी हालत का पता चला, तो उसने मदद के लिए मुझे यह संदेश भेजा : “भाई, मैं जानता हूँ कि तुम इस समय बड़ी मुसीबत से गुजर रहे हो, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए देर रात को सड़क पर निकल जाते हो। यह बहुत खतरनाक है। मेरे पास एक बाइक है, जब भी जरूरी हो मैं तुम्हें इस्तेमाल के लिए दे सकता हूँ। इससे तुम्हें कहीं आने-जाने में आसानी होगी।” मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना। मैंने इन मुश्किलों से बहुत कुछ सीखा है, और मैंने परमेश्वर पर भरोसा रखना भी सीखा है। मुझे यह एहसास हो गया है कि हर चीज पर परमेश्वर की सत्ता है, और परमेश्वर ही हम सभी के लिए माहौल बनाता है। मैंने परमेश्वर के कार्यों को सचमुच देखा था, अब परमेश्वर में मेरी आस्था और भी मजबूत हो गई थी। जब दूसरे लोग मेरे जैसी मुश्किलों का सामना करते थे, तो मैं उनके साथ परमेश्वर के वचन साझा करता था, अपने कुछ अनुभवों पर संगति करके उनकी मदद करता था, और परमेश्वर में उनकी आस्था जगाता था।
हर दिन मछली पकड़कर लौटने के बाद मैं घर पर ही रहता और परमेश्वर के वचन पढ़ता था, और जब सभा का समय होता तो मैं बाइक पर सवार होकर अच्छे इंटरनेट वाले इलाके में पहुँच जाता था। मैं जब भी परमेश्वर से प्रार्थना करता, तो अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए राह दिखाने को कहता था। अब मुझे अपने मुश्किल हालात की चिंता नहीं होती थी। मैं परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं के अनुसार बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहता था। अगर मुझे ज्यादा मुश्किलों का भी सामना करना पड़ता, तो भी मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए तैयार था, परमेश्वर द्वारा बनाए माहौल का अनुभव करने और परमेश्वर के दिल को संतुष्ट करने के लिए तैयार था। कुछ समय बाद, भाई-बहनों ने एक उपयुक्त घर ढूँढने में मेरी मदद की, जहां ज्यादा भरोसेमंद इंटरनेट था। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर का आभारी था, क्योंकि यहाँ मैं बेहतर ढंग से अपना कर्तव्य निभा सकता था, और परमेश्वर के मार्गदर्शन में मैंने अपने कर्तव्य में काफी प्रगति की थी। इसके बाद, अगुआ ने मुझे फिर से कहा, कि मुझे और ज्यादा काम की जिम्मेदारी दी जाएगी, मेरा बोझ और भी बढ़ जाएगा, मुझे और ज्यादा काम करने होंगे, और पहले से ज्यादा भाई-बहनों की देखभाल और मदद करनी होगी। पर अब मुझे कोई चिंता या शिकायत नहीं होती। अगर परमेश्वर में मेरा विश्वास और भरोसा है, तो अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन और मदद करेगा।
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर की इच्छा को तुम जितना अधिक ध्यान में रखोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक दायित्व डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह बोझ दिया जाएगा, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय सभी संबंधित सत्य पर ध्यान दोगे। यदि तुम्हारे ऊपर भाई-बहनों की स्थिति से जुड़ा बोझ है तो यह बोझ परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, और तुम प्रतिदिन की प्रार्थना में इस बोझ को हमेशा अपने साथ रखोगे। परमेश्वर जो करता है वही तुम्हें सौंपा गया है, और तुम वो करने के लिए तैयार हो जिसे परमेश्वर करना चाहता है; परमेश्वर के बोझ को अपना बोझ समझने का यही अर्थ है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। “कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और निष्ठापूर्वक उसका निर्वाह करते रहते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझा हूँ कि परमेश्वर हमें ऐसे बोझ नहीं देगा जो हम न उठा सकें, परमेश्वर को हमारे आध्यात्मिक कद और हमारी कार्यक्षमता का पता है। हम परमेश्वर की इच्छा का जितना ज्यादा पालन करेंगे, उतने ही बोझ हमारे कर्तव्य में होंगे। हमारे अनुभव जितने समृद्ध होंगे, हमें परमेश्वर की उतनी ही गहरी समझ होगी। इन मुश्किलों से गुजरने के बाद, अब मैं समझ गया हूँ कि मुश्किलों का सामना करते हुए मैं खुद को और परमेश्वर के कर्मों को बेहतर समझ सकता हूँ, और परमेश्वर में मेरी आस्था बढ़ सकती है। जब मैंने यह कर्तव्य निभाना शुरू किया था तो मुझमें आस्था की कमी थी, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करना या उस पर भरोसा करना नहीं जानता था, और उसका मार्गदर्शन नहीं लेता था। मैं अपने कर्तव्य में अपनी प्रतिभाओं पर ही भरोसा करता था। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे उसकी इच्छा समझ में आने लगी, तो मुझमें आस्था आई और मैं अपने कर्तव्य में मेहनत करने लगा। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करता और उस पर निर्भर रहता, और अगुआओं से मिलकर बातचीत करता, अपने कर्तव्य के लिए जरूरी सिद्धांतों का पता करता और कलीसिया के काम के कुछ तरीकों और कार्य-प्रणाली को जानने की कोशिश करता। इन सब अनुभवों से गुजरने के बाद, अब मैं नकारात्मक हालत में नहीं हूँ, और अब मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकता। हर रोज जब कोई समस्या आती है तो मैं सत्य की खोज करके अपना कर्तव्य कर्मठता से निभाने की कोशिश करता हूँ, और जब मैं मुश्किलों का सामना करता हू तो परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, परमेश्वर इन तमाम परिवेशों और मुश्किलों से गुजरने में मेरा मार्गदर्शन और मदद करता है। मुझे अब ऐसा भी नहीं लगता कि मेरी मुसीबतें या काम के दबाव भारी-भरकम हैं। अगर मैं इन मुश्किलों से न गुजरा होता तो मुझे परमेश्वर की प्रबुद्धता न मिलती, मेरे पास ये एहसास और फायदे नहीं होते, न ही मेरे पास कोई सच्चा अनुभव होता। ऐसे में, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं करता। अब मैं परमेश्वर के इन वचनों का मतलब समझ गया हूँ : “परमेश्वर की इच्छा को तुम जितना अधिक ध्यान में रखोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए मैं और बोझ उठाना चाहूँगा।
आजकल, वेनेजुएला में अर्थव्यवस्था, जन सेवाओं और इंटरनेट को लेकर कई मुश्किलें हैं। हालांकि कभी-कभी मैं दबाव महसूस करता हूँ, पर मैंने परमेश्वर पर भरोसा करना, उसकी तरफ देखना और उसमें आस्था रखना सीख लिया है। अगर मैं इन मुश्किलों से न गुजरता, तो मुझे अपने कर्तव्य का महत्व समझ में न आता, न ही मुसीबत में परमेश्वर की तरफ देखने का महत्व समझ पाता। परमेश्वर का धन्यवाद कि उसने मुझे ये लाभ और ज्ञान प्राप्त करने दिया।
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