परमेश्वर के वचनों ने मेरी रक्षात्मकता और गलतफ़हमी को दूर कर दिया
2014 में जब मैं एक कलीसिया-अगुआ थी तो मैं अपना कर्तव्य निभाने में कुछ हद तक प्रभावी थी, मैंने कुछ अनुभव संचित किया था और मुझे ऐसा लगता था कि मैं सत्य समझती हूँ। जब मेरे सामने समस्याएँ आती थीं तो मैं सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करती थी और अक्सर वही करती थी जो मुझे अच्छा लगता था। उस समय किसी ने रिपोर्ट किया कि दो कलीसियाओं के अगुआओं में बुरी इंसानियत है और वे दूसरों को दबाते और विवश करते हैं। मैं पक्षपाती थी और वास्तविक स्थिति विस्तार से समझे बिना मैंने जो सुना, उस पर विश्वास कर लिया। तो मैंने उन अगुआओं में से एक को बर्खास्त कर दिया जो वास्तविक कार्य कर सकता था और दूसरे अगुआ को निष्कासित करने की गलती लगभग कर दी। इससे दोनों कलीसियाओं का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह और जिद्दी होने, चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुसार न सँभालने और लोगों को मनमाने ढंग से बर्खास्त और निष्कासित करने के लिए उच्च अगुआओं ने सख्ती से मेरी काट-छाँट की। लेकिन मैं वास्तव में खुद को नहीं जानती थी और मैंने उनके साथ तर्क-वितर्क करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश की। आखिर अपना कर्तव्य निभाने में कौन गलतियाँ नहीं करता? चूँकि मैंने सत्य नहीं स्वीकारा, अक्सर अपने काम में सिद्धांतों का उल्लंघन किया, लापरवाह और जिद्दी रही और कलीसिया का काम बाधित किया और बिगाड़ा, इसलिए उच्च अगुआओं ने मुझे बर्खास्त कर दिया। मुझे बर्खास्त करने के बाद उच्च अगुआओं ने मेरे लिए कोई कर्तव्य निभाने की व्यवस्था नहीं की और मुझे आत्मचिंतन करने दिया। उस समय मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझती थी और बहुत निराश थी। मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास के इन तमाम वर्षों में मैंने अपना परिवार और करियर छोड़ दिया और बीमार होने पर भी अक्सर अपना कर्तव्य निभाया। हो सकता है, मैंने ज्यादा योगदान न दिया हो, लेकिन मैंने कड़ी मेहनत जरूर की। बर्खास्त किया जाना एक बात है, लेकिन मुझे कोई कर्तव्य निभाने के लिए भी क्यों नहीं दिया गया? मैंने सिर्फ दो गलतियाँ कीं, तो क्या मेरे साथ ऐसा व्यवहार करना बहुत ज्यादा कठोरता नहीं थी? खासकर जब मैंने देखा कि कभी अगुआ न रहे भाई-बहन अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, जबकि मेरे, एक पूर्व अगुआ के पास निभाने के लिए बिल्कुल भी कोई कर्तव्य नहीं है, तो मैंने सोचा : “लगता है, मैं अगुआ नहीं बन सकती। एक अगुआ के तौर पर तुम्हें उच्च मानक और कड़ी अपेक्षाएँ पूरी करनी पड़ती हैं। अगर किसी दिन तुम थोड़े से भी लापरवाह हो गए, तो परमेश्वर के विश्वासी के रूप में तुम्हारा जीवन समाप्त हो सकता है। यह किसी अच्छे अंत और गंतव्य की ओर कैसे ले जा सकता है? चाहे कुछ भी हो जाए, मैं फिर कभी अगुआ नहीं बनूँगी।” अगले कुछ वर्षों तक मैंने हमेशा कलीसिया में लेखन का काम किया, और यद्यपि अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुनाव में खड़े होने के अवसर रहे, लेकिन मैं हमेशा उसमें भाग लेने से बची। उस समय मैं अपनी समस्याओं के बारे में नहीं जानती थी और सोचती थी कि ऐसा करना बुद्धिमानी है।
मई 2020 में कलीसिया अगुआओं का चुनाव करने जा रही थी। मेरे दिल में उथल-पुथल मची थी : “लेखन का मेरा काम बहुत अच्छा है और मैं चुनाव में भाग नहीं लेना चाहती। अगर मैं अगुआ के रूप में चुन ली गई, तो यह एक बुरी बात होगी। अगुआ होना एक कठिन, निरर्थक कार्य है। इसे अच्छी तरह से करने की अपेक्षा की जाती है, और अगर कलीसिया के कार्य में देरी होती है, तो अगुआ को जिम्मेदारी लेनी होती है। तो यह वास्तव में सच है कि ‘हर कोई लाभ उठाता है लेकिन केवल एक व्यक्ति दोष लेता है’। पहले जब मैं अगुआ थी, तो मैंने कुछ अपराध किए थे। अगर मैंने फिर से अगुआ के रूप में काम किया और कुछ ऐसा कर दिया जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ और कलीसिया के काम को भारी नुकसान पहुँचा, तो सबसे अनुकूल स्थिति में मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। सबसे बुरी स्थिति में मुझे निष्कासित कर दिया जाएगा और मैं बचाए जाने का अपना अवसर खो दूँगी।” इन विचारों को ध्यान में रखते हुए मैंने एक बहाना खोजा और कहा कि हाल ही में मेरे दिल की हालत खराब हो गई है, इसलिए मैं चुनाव में भाग नहीं ले सकती। उस समय मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ। “क्या यह चुनाव से परहेज करना नहीं है?” लेकिन मुझे लगा कि मैं वाकई अगुआ बनने लायक नहीं हूँ, और मुझे वाकई हाल ही में दिल की कुछ परेशानी हुई थी, इसलिए मेरे पास चुनाव न लड़ने का एक कारण था। इस तरह सोचने से मुझे जो भी बेचैनी और अपराध-बोध हुआ था, वह गायब हो गया। बाद में जब एक और चुनाव हुआ, तब भी मैंने यह महसूस करते हुए उसमें भाग नहीं लेना चाहा कि अगुआ होना खतरनाक है! इसमें ढेर सारा काम करना पड़ता है और बहुत सारी समस्याओं से निपटना पड़ता है, और मैं किसी भी समय उजागर हो सकती हूँ। मेरे आसपास के कुछ भाई-बहन जब अगुआ नहीं थे, तो उन्हें कोई समस्या नहीं थी। लेकिन जब वे अगुआ बन गए, तो कुछ को नकली अगुआओं के रूप में उजागर कर बर्खास्त कर दिया गया, जबकि कुछ को दुष्ट या मसीह-विरोधी के रूप में उजागर कर बाहर कर दिया गया या निकाल दिया गया। ऐसा लगता था कि रुतबा वाकई लोगों की असलियत उजागर कर देता है! अंत में मैंने हथियार डाल दिए और चुनाव में खड़ी नहीं हुई।
घर आने के कुछ देर बाद ही अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई। मुझे दस्त लग गए और बुखार हो गया और दवा लेने से कोई फायदा नहीं हुआ। कई दिनों तक बीमार रहने के बाद आखिरकार मैं ठीक हो गई। लेकिन फिर मेरे हाथ और गर्दन छोटे-छोटे लाल चकत्तों से ढक गए। मेरी हालत ज्यादा से ज्यादा गंभीर होती गई, और जैसे ही मुझे पसीना आने लगा, मुझे अपने पूरे शरीर में जलन महसूस होने लगी। कुछ दिनों बाद मैं अपनी बीमारी से जूझते हुए पूरी तरह से थक गई और मुझे एहसास हुआ कि मेरी बीमारी कोई संयोग नहीं थी—यह परमेश्वर का अनुशासन था। लेकिन मुझे नहीं पता था कि आत्मचिंतन करने और समझने के लिए क्या करूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मेरा खुद को जानने और सबक सीखने में मार्गदर्शन करने के लिए कहा।
जब मेरी अगुआ को पता चला कि मैं बीमार हूँ, तो उसने मुझे चुनाव के प्रति अपने रवैये पर चिंतन करने की याद दिलाई और मेरी स्थिति के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा : “एक बार जब शैतानी प्रकृतिवाले लोगों को हैसियत मिल जाती है, तो वे खतरे में पड़ जाते हैं। तो क्या किया जाना चाहिए? क्या उनके पास कोई मार्ग नहीं है जिस पर वे चल सकें? एक बार उस खतरनाक स्थिति में पड़ जाने के बाद क्या उनके लिए वापसी का कोई मार्ग नहीं रहता? बताओ भला, एक बार भ्रष्ट लोगों को हैसियत हासिल हो जाए—चाहे वे कोई भी हों—तो क्या वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं? क्या यह परम सत्य है? (अगर वे सत्य नहीं खोजेंगे तो मसीह-विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य खोजते हैं तो मसीह-विरोधी नहीं बनेंगे।) यह पूरी तरह से सही है : यदि लोग सत्य का अनुसरण न करें, तो वे यकीनन मसीह-विरोधी बन जाएँगे। तो क्या जो लोग मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं, क्या वे ऐसा हैसियत के कारण करते हैं? नहीं, वे ऐसा मुख्यतः सत्य से प्रेम न होने के कारण करते हैं, क्योंकि वे सही लोग नहीं होते। लोगों के पास हैसियत हो या न हो, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं। उन्होंने चाहे जितने भी उपदेश सुने हों, ऐसे लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे सही मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि कुटिल मार्ग की ओर चलने पर तुले हुए हैं। यह कुछ वैसी ही बात है कि लोग कैसा खाना खाते हैं : कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते जो उनके शरीर को पोषण दे सके और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सके, बल्कि वे ऐसी चीजों का सेवन करने पर तुले रहते हैं जो उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं, अंत में, वे खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। क्या वे ऐसा खुद ही नहीं चुनते हैं? हटा दिए जाने के बाद, कुछ अगुआ और कर्मी यह कहकर धारणाएँ फैलाते हैं, ‘अगुआ मत बनना, और रुतबा हासिल मत करना। रुतबा मिलते ही लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उनका खुलासा कर देता है! खुलासा होने के बाद, वे लोग साधारण विश्वासी की पात्रता भी नहीं रखते, और उन्हें फिर किसी भी तरह का आशीर्वाद नहीं मिलता।’ यह किस तरह की बात हुई? हल्के में लें, तो यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी दर्शाती है; गंभीरता से लें तो यह ईश-निंदा है। यदि तुम सही मार्ग पर नहीं चलते, सत्य का अनुशीलन और परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, बल्कि मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने पर अड़े रहते हैं और पौलुस के मार्ग पर पहुँच जाते हो, तो अंततः तुम्हारा वही हश्र होता है, वही अंत होता है जो पौलुस का हुआ, फिर भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर को अधार्मिक कहते हो, तो क्या तुम मसीह-विरोधी होने के असली पात्र नहीं हो? ऐसे व्यवहार को धिक्कार है! जब लोगों को सत्य की समझ नहीं होती, तो वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीते हैं, अक्सर परमेश्वर को गलत समझते हैं, उन्हें लगता है कि परमेश्वर के कार्य उनकी धारणाओं के विपरीत हैं और इस कारण उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं; इसकी वजह है लोगों में भ्रष्ट स्वभाव का होना। वे नकारात्मक चीजें इसलिए कहते और इसलिए शिकायत करते हैं क्योंकि उनका विश्वास बहुत ही तुच्छ होता है, उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और सत्य की उनकी समझ बहुत कम होती है—ये सारी बातें क्षमा-योग्य हैं, परमेश्वर इन बातों को याद नहीं रखता। फिर भी, ऐसे लोग होते हैं जो सही मार्ग पर नहीं चलते, जो जानबूझकर कपट करने, विरोध करने, परमेश्वर को धोखा देने और उससे लड़ने के मार्ग पर चलते हैं। इन लोगों को अंततः परमेश्वर दंड और शाप देता है, वे तबाही और विनाश में जा गिरते हैं। वे इस हद तक कैसे पहुँचते हैं? क्योंकि उन्होंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया, स्वयं को नहीं जाना, वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते, लापरवाह और दुराग्रही होते हैं, पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं, खुलासा करके हटाए जाने पर यह कहकर परमेश्वर के बारे में शिकायत भी करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) उन्हें नहीं बचाया जा सकता। तो क्या जिसका भी खुलासा कर हटा दिया जाता है, उसका उद्धार नहीं हो सकता? यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उसे कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें सत्य की बहुत कम समझ होती है, वे युवा और अनुभवहीन होते हैं—जो, अगुआ या कर्मी बनकर हैसियत पा लेने के बाद, अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होते हैं, वे रुतबे के पीछे भागते हैं और इस रुतबे का आनंद लेते हैं, और स्वाभाविक रूप से मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि उजागर और न्याय किए जाने के बाद, वे आत्मचिंतन कर पाते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर पाते हैं, नीनवे के लोगों की तरह दुष्टता त्यागकर पहले की तरह बुराई के मार्ग पर चलना बंद कर देते हैं, तो उनके पास अभी भी बचाए जाने का अवसर होता है। लेकिन ऐसे अवसर की शर्तें क्या होती हैं? उन्हें सच्चा प्रायश्चित्त करने और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए। अगर वे ऐसा कर सकें, तो उनके लिए अभी भी आशा की किरण बची है। यदि वे आत्मचिंतन करने में सक्षम नहीं हैं, सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, न ही सच्चा प्रायश्चित्त करने का उनका कोई इरादा है, तो उन्हें पूरी तरह हटा दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरी अगुआ ने मुझे याद दिलाया : “तुम हमेशा सोचती हो कि एक अगुआ के रूप में उजागर किया जाना, बर्खास्त किया जाना या हटा दिया जाना आसान है। क्या यह सही दृष्टिकोण है? लोगों को उजागर किया जाना या हटाया जाना इस बात पर निर्भर करता है कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं और वे कौन-सा मार्ग अपनाते हैं। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि वे अगुआ हैं या नहीं। अगर कोई व्यक्ति अगुआ है, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करता या सही मार्ग पर नहीं चलता, अगर वह बुराई करता है, कलीसिया के काम में बाधा डालता और उसे बिगाड़ता है और पश्चात्ताप करने से इनकार करता है, तो उसे निश्चित रूप से उजागर कर हटा दिया जाएगा। हालाँकि कुछ अगुआ अपना कर्तव्य निभाने में भटककर अपराध कर बैठते हैं, लेकिन अगर वे सत्य स्वीकार सकें, आत्मचिंतन कर सकें और खुद को जान सकें और सच में पश्चात्ताप कर सकें, तो कलीसिया उन्हें अभ्यास जारी रखने के अवसर देगी। यहाँ तक कि अगर उनमें कम क्षमता है और वे अगुआ बनने योग्य नहीं हैं, तो भी उन्हें कोई उचित कर्तव्य निभाने के लिए स्थानांतरित कर दिया जाएगा। कलीसिया में इतने सारे अगुआओं के होते हुए क्यों कुछ अगुआ अधिक से अधिक सत्य समझते हैं और अपना कर्तव्य बेहतर से बेहतर ढंग से निभाते हैं? क्यों कुछ लोग बार-बार बुरे काम करते हैं, नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के रूप में उजागर किए जाते हैं और फिर हटा दिए जाते हैं? क्या उनकी असफलताओं का अगुआ होने से कोई लेना-देना है? कलीसिया ने बहुत-से बुरे लोग हटाए हैं, जिनमें से कई अगुआ नहीं थे। उन्हें इसलिए हटाया गया क्योंकि उनकी प्रकृति सत्य के प्रति विमुख और शत्रुतापूर्ण थी, वे सही मार्ग पर नहीं चलते थे और अपना कर्तव्य निभाते समय बेतहाशा बुरे काम करते थे और गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करते थे। क्या इसका अगुआ होने से कोई लेना-देना है?”
अगुआ की संगति सुनने के बाद मैं द्रवित हो गई। वह सही थी—सिर्फ इसलिए कि कोई अगुआ बन जाता है और उसके पास रुतबा हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि वह उजागर कर हटा दिया जाएगा। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि रुतबा हासिल करने के बाद लोग सही मार्ग पर नहीं चलते और सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे सिर्फ रुतबे के लाभों का लोभ करते हैं, जैसा चाहते हैं वैसा करते हैं, लापरवाही से कार्य करते हैं और गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करते हैं। इससे वे नकली अगुआ और मसीह-विरोधी बन जाते हैं, जिन्हें बर्खास्त कर हटा दिया जाता है। मैंने भाई फैंग शुन के बारे में सोचा, जिसे कुछ समय पहले बर्खास्त कर दिया गया था। अगुआ के रूप में वह हमेशा दिखावा करता था, और जिन भाइयों के साथ वह काम करता था, उन्हें नीचा दिखाकर हाशिए पर डाल देता था। इससे वे विवश महसूस करते, इसलिए अपने कर्तव्य सामान्य रूप से न निभा पाते। अगुआओं ने कई बार फैंग शुन के साथ संगति की। लेकिन वह कभी नहीं बदला, इसीलिए उसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया। जब मुझे अगुआ के पद से बर्खास्त किया गया था, तो वह भी इसलिए किया गया था क्योंकि मैं अक्सर लापरवाह और जिद्दी रहती थी। जब भाई-बहनों ने कलीसिया के दो अगुआओं के साथ समस्याओं की रिपोर्ट की, तो मैंने सिद्धांतों का पालन न कर उन रिपोर्टों की जाँच और सत्यापन नहीं किया। इसके बजाय मैंने आँख मूँदकर उनकी निंदा की, यहाँ तक कि एक को बर्खास्त और दूसरे को लगभग निष्कासित कर दिया। नतीजतन मैंने दोनों अगुआओं को नुकसान पहुँचाया और कलीसियाओं में अराजकता पैदा कर दी। अब इस पर विचार करते हुए, मैंने जो कुछ भी किया वह बुरा था, उससे कलीसिया का काम बाधित हुआ और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा। सौभाग्य से इन दो गलतियों का पता लगाकर उन्हें ठीक कर दिया गया। वरना नतीजे विनाशकारी होते! मुझे एहसास हुआ कि वास्तव में मेरी बर्खास्तगी का रुतबे या अगुआ होने से कोई लेना-देना नहीं था। मुझे इसलिए बर्खास्त किया गया था, क्योंकि मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था, समस्याओं का सामना करते हुए मैं सत्य की खोज नहीं करती थी और सिद्धांतों के आधार पर काम नहीं करती थी। इसके बजाय मैं मनमाने ढंग से और बिना सोचे-विचारे बुरे काम करती थी और कलीसिया के काम में बाधा डालती थी। और जब मेरी काट-छाँट की गई, तो मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मेरी बर्खास्तगी सिद्धांतों के अनुरूप है और परमेश्वर की धार्मिकता दर्शाती है। लेकिन शुरू से ही मैं खुद को नहीं जानती थी। मैं हमेशा परमेश्वर के प्रति रक्षात्मक रही, उसे गलत समझा और सोचा कि मुझे इसलिए उजागर किया गया, क्योंकि मैं अगुआ थी। मैं कितनी बेतुकी और अविवेकी थी! सिर्फ अभी मुझे यह एहसास हुआ है कि उस समय अगर मुझे तुरंत बर्खास्त कर बुराई करने से न रोका जाता, तो अपने अहंकारी स्वभाव को देखते हुए मैंने कहीं ज्यादा बड़ी बुराई की होती! मेरी बर्खास्तगी परमेश्वर का मेरी रक्षा करने का तरीका था और मेरे लिए आत्मचिंतन करने और खुद को जानने का एक अच्छा अवसर भी। मैंने बहन वांग रुई के बारे में भी सोचा, जिसके साथ मैंने पहले काम किया था। उसे भी बर्खास्त कर दिया गया था, लेकिन अपनी नाकामी के बाद वह आत्मचिंतन करने, खुद को जानने, सबक आत्मसात करने और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने में सक्षम रही। बाद में जब वह फिर से अगुआ बनी, तो वह सत्य खोजने और सिद्धांतों के आधार पर काम करने में सक्षम रही और उसने स्पष्ट रूप से प्रगति की। इन बातों पर विचार करने के बाद मैं समझ गई कि यह व्यक्ति का रुतबा नहीं है, जो उसके बेनकाब कर हटा दिए जाने का कारण बनता है—वह तो अपने भ्रष्ट स्वभाव का शिकार होता है। अगर भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं किया जाता, तो भले ही व्यक्ति अगुआ न हो और अगुआ की हैसियत से बुराई न करता हो, तब भी उसे सत्य का अनुसरण न करने के कारण हटा दिया जाएगा। यह जान लेने पर मेरी अवस्था थोड़ी बदल गई, लेकिन मेरी अभी भी कुछ चिंताएँ थीं : “सत्य के बारे में मेरी समझ उथली है। कलीसिया में कई मुद्दे होते हैं, जिनके बारे में अगुआओं को निर्णय लेने की आवश्यकता होती है, और अगर चीजें अच्छी तरह से व्यवस्थित नहीं की जातीं और कलीसिया का कार्य बाधित होता और बिगड़ता है, तो अपराध हो सकते हैं। अगर व्यक्ति अगुआ नहीं है और ऐसे कार्य में शामिल नहीं है, तो वह कार्य उन्हें बुराई करने या परमेश्वर का विरोध करने के लिए प्रेरित नहीं करेगा। इसलिए अच्छा हुआ कि मैं चुनाव में खड़ी नहीं हुई।” इसके बाद अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश दिखाया : “मैं किसी को ऐसा महसूस करते हुए नहीं देखना चाहता, मानो परमेश्वर ने उसे बाहर ठंड में छोड़ दिया हो, या परमेश्वर ने उसे त्याग दिया हो या उसका तिरस्कार कर दिया हो। मैं बस हर एक व्यक्ति को बिना किसी गलतफहमी या बोझ के, केवल सत्य की खोज करने और परमेश्वर को समझने का प्रयास करने के मार्ग पर साहसपूर्वक दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ते देखना चाहता हूँ। चाहे तुमने जो भी गलतियाँ की हों, चाहे तुम कितनी भी दूर तक भटक गए हो या तुमने कितने भी गंभीर अपराध किए हों, इन्हें वह बोझ या फालतू सामान मत बनने दो, जिसे तुम्हें परमेश्वर को समझने की अपनी खोज में ढोना पड़े। आगे बढ़ते रहो। हर वक्त, मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का इरादा कभी नहीं बदलता। यह परमेश्वर के सार का सबसे कीमती हिस्सा है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। मैं परमेश्वर के वचनों से बहुत प्रभावित हुई। परमेश्वर लोगों को उनकी क्षणिक नाकामियों और अपराधों के कारण बचाने से नहीं चूकेगा। इसके बजाय वह उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देता है। अपना कर्तव्य निभाने में लोगों द्वारा गलतियाँ और अपराध किए जाने में डरने की कोई बात नहीं है। अगर लोग बदल सकें, तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता रहेगा। हालाँकि मैंने कुछ अपराध किए थे, फिर भी कलीसिया ने मुझे आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करने का अवसर दिया। उसने उन अपराधों के कारण मेरी निंदा नहीं की और मुझे हटाया नहीं। लेकिन मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, परमेश्वर के प्रति रक्षात्मक बनी रही और उसे गलत समझा, और अगुआ या कार्यकर्ता बनने को तैयार नहीं हुई। मैं बहुत जिद्दी थी! इसका एहसास होने पर मुझे पश्चात्ताप और अपराध-बोध हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं बहुत विद्रोही हूँ। मैं अब तुम्हें गलत नहीं समझना चाहती और तुम्हारे प्रति रक्षात्मक नहीं रहना चाहती। अब मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मैं तुमसे मेरा मार्गदर्शन करने, और जहाँ मैं गलत हूँ वहाँ मुझे ठीक करने की विनती करती हूँ।”
तब मैंने सोचा कि क्यों मैंने परमेश्वर को गलत समझा और हमेशा उसके प्रति रक्षात्मक रही। इसका मूल कारण क्या था? उस समय मेरी अगुआ ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जो मेरे लिए बहुत लाभदायक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझा दिया कि मुझमें परमेश्वर के प्रति कुछ रक्षात्मकता थी और मैंने उसे गलत समझा, क्योंकि मेरी प्रकृति बहुत कपटी थी। एक बार बर्खास्त किए जाने के बाद मैंने अपने पिछले मार्ग के बारे में आत्म-चिंतन नहीं किया जिसके कारण मुझे नाकामी मिली थी, या सीखे जाने वाले सबक आत्मसात नहीं किए, ताकि मैं वही गलतियाँ दोहराने से बच सकती। इसके बजाय, मैंने सोचा कि अगुआ होने का मतलब है कि मुझे आसानी से उजागर कर हटाया नहीं जाएगा, इसलिए यह “अगुआ” उपाधि थी जिसने मुझे शिकार बनाया। मैंने तो यह तक कल्पना की थी कि परमेश्वर किसी सांसारिक शासक की तरह है, जो लोगों के कोई छोटी-सी गलती करने पर उन्हें मौत की सजा दे देता है। इसलिए जैसे ही कोई चुनावों का जिक्र करता, मैं घबरा जाती और मुझे डर लगता कि अगर मुझे अगुआ के रूप में चुन लिया गया, तो मेरी थोड़ी-सी भी लापरवाही मुझे उजागर करवा देगी और मुझे अच्छी मंजिल नहीं मिलेगी। इसलिए मैं ध्यान से देखती रहती और अपना बचाव जारी रखती। मैंने स्थिति से बचने के लिए बहाने के बाद बहाना बनाया और चुनाव में खड़े होने से मना कर दिया। मैं बहुत कपटी थी! कलीसिया द्वारा अगुआओं और कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किए जाने का कारण उन्हें अभ्यास करने के अवसर देना है, ताकि वे सत्य समझ सकें और यथाशीघ्र वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। लेकिन मैं वास्तव में सोचती थी कि परमेश्वर का इरादा मुझे उजागर कर हटाना है। क्या यह परमेश्वर को गलत समझना और उसकी निंदा करना नहीं था? मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी, लेकिन मैंने हमेशा उसे अधार्मिक नजरों से देखा, उस पर संदेह किया और उसके प्रति रक्षात्मक होकर अपना शैतानी स्वभाव प्रकट किया। क्या परमेश्वर में इस तरह का विश्वास वास्तव में परमेश्वर का विरोध करने जैसा नहीं है?
बाद में परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने के बाद मुझे उसके इरादे की कुछ हद तक बेहतर समझ प्राप्त हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें प्रकट करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें हटा दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। ... दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने स्वार्थ से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा। वे हमेशा सोचते हैं, ‘अगर परमेश्वर मुझे प्रकट कर देता है, हटा देता है और नकार देता है, तो क्या होगा?’ यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; यह सिर्फ तुम्हारी एक-तरफा अटकलबाजी है। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। जब वह लोगों को प्रकट करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता। लोगों को इसलिए प्रकट किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपने प्रकृति सारों का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ बन सकें; इस कारण, लोगों को प्रकट इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। शुद्ध समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा प्रकट किए जाने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम्हें हटा ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर, चूँकि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और भ्रष्टता प्रकट करने पर वे सत्य में समाधान नहीं ढूँढ़ते, इसलिए परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए, कभी-कभी, वह लोगों को प्रकट कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, जिससे वे खुद जान जाते हैं, इससे उनके जीवन को विकसित होने में मदद मिलती है। लोगों को प्रकट करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : बुरे लोगों के लिए, प्रकट किए जाने का अर्थ है उन्हें हटाया जाना। जो लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उनसे आत्मचिंतन कराया जाता है और उन्हें उनकी वास्तविक दशा दिखाई जाती है और उन्हें पथभ्रष्ट और लापरवाह होने से रोका जाता है, क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को प्रकट करना उन्हें चेताना है, अन्यथा वे अपने कर्तव्य निर्वहन में वे भ्रमित और लापरवाह हो जाते हैं, चीजों को गंभीरता से लेने में असफल हो जाते हैं, थोड़े-से परिणाम पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की माँगों के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, और फिर भी वे खुद से संतुष्ट रहते हैं और मानते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर याद दिलाता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता प्रकट करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उन्हें याद दिलाने के लिए है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, तुममें विद्रोह शामिल है, तुममें बहुत अधिक नकारात्मक तत्व हैं, जो कुछ भी तुम करते हो वह अनमना होता है, और यदि तुम अब भी पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो न्यायसंगत रूप से तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदा-कदा, परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित करता है या प्रकट करता है, तो इसका मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं होता कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें हटा भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से चिंतन और पश्चात्ताप करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं काफी द्रवित हो गई और मैंने विशेष रूप से लज्जित और दोषी महसूस किया। परमेश्वर लोगों को इसलिए उजागर करता है, इसलिए उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें अनुशासित करता है, ताकि वे स्वयं को समझ सकें, पश्चात्ताप कर सकें और बदल सकें। जब मेरी काट-छाँट की गई और मैंने हताशा और नाकामी अनुभव की, तो मुझे मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के अच्छे इरादों की कोई समझ नहीं थी। मैं बस शैतान के कपटों और शैतानी बातों से चिपकी रही, जैसे “जो जितना बड़ा होता है, उतनी ही जोर से गिरता है” और “ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे।” मैंने कल्पना की थी कि कलीसिया में अगुआ होना लौकिक दुनिया में अधिकारी होने जैसा है, और जितना ऊँचा किसी का पद होगा, उसका जोखिम उतना ही अधिक होगा, और जो जितने ज्यादा समय तक अगुआ होगा, उतनी ही तेजी से उसे उजागर कर हटा दिया जाएगा। पिछले कुछ वर्षों में मैंने परमेश्वर को हमेशा गलत समझा और उसके प्रति रक्षात्मक रही, और मेरा दिल शुरू से ही परमेश्वर के लिए बंद रहा। मैंने बार-बार अगुआओं के चुनाव में खड़े होने से मना किया। भले ही मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन मुझे संदेह रहे, इसलिए मैं अपना सर्वस्व नहीं दे पाई और सत्य का अनुसरण करने के प्रति मैंने हमेशा उदासीन रवैया रखा। मैं शैतान के जाल में फँस गई थी और मैंने शैतान के हाथों सहा, और मुझे यह भी नहीं पता था कि वह मेरे जीवन को कितना नुकसान पहुँचा रहा था। अब मैं खतरे में थी और अब परमेश्वर को गलत समझने और चोट पहुँचाने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने प्रायश्चित करना चाहती हूँ और चुनावों को सही ढंग से लेना चाहती हूँ। चाहे मैं चुनी जाऊँ या नहीं, मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होऊँगी।”
जब चुनाव का समय आया, तब भी मैं असमंजस में थी : “इस बार अगर वे वास्तव में मुझे चुनते हैं, तो मुझे यह पद स्वीकार लेना चाहिए। लेकिन काम करने की मेरी काबिलियत और मेरी क्षमता औसत हैं, इसलिए अगर मैं अच्छा प्रदर्शन नहीं करती, तो क्या होगा? बेहतर है, इसे किसी और को करने दिया जाए। इस तरह मैं फिर से उजागर नहीं होऊँगी।” अपनी दुविधा में मैंने अचानक परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “जब परमेश्वर के लोग राज्य में अपना कर्तव्य निभाते हैं, और सभी सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के सामने अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उन्हें परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ शांति से आगे बढ़ना चाहिए। उन्हें लड़खड़ाते हुए, पीछे हटते हुए, या डर-डर कर नहीं चलना चाहिए। अगर तुम जानते हो कि यह दशा गलत है, और इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश करने की बजाय लगातार इसके बारे में परेशान होते हो, तो तुम इसके आगे लाचार और इससे बँधे हुए हो और तुम अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने अनुस्मारक का काम किया। मैं चुनावों को लेकर हमेशा चिंतित रहती थी और महत्वपूर्ण क्षण में पीछे हटना और फिर से भाग जाना चाहती थी। सृजित प्राणियों के लिए अपना कर्तव्य निभाना सही और उचित है—यह एक सम्मान है। लेकिन वास्तव में मैं जिम्मेदारी से बचती थी, डरपोक, रक्षात्मक और शंकालु थी। यह कितना मूर्खतापूर्ण और दयनीय था! मुझे परमेश्वर की ओर मुड़ना था, एक सरल और ईमानदार व्यक्ति बनना था, अपने भविष्य और अंतिम गंतव्य के बारे में चिंता करना बंद करना था और अपना दिल उसे देना था। चाहे मैं चुनी जाऊँ या नहीं, मैं अब और भागकर छिप नहीं सकती थी। अगर मैं चुनी गई तो मुझे इसे स्वीकारना होगा और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना होगा। जब मैं इस मानसिकता के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हो गई, तो मुझे लगा कि मेरे दिल से एक बड़ा बोझ हट गया है, और मैं अपने बोझ से मुक्त हो गई।
इस बार जब चुनाव के नतीजे आए, तो मुझे और एक और बहन को चुन लिया गया। मैं अब परमेश्वर के प्रति गलतफहमी और रक्षात्मकता में नहीं फँसी थी और मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभा पाने पर हटा दिए जाने का डर नहीं था। इसके बजाय मैं इस अवसर को सँजोना चाहती थी, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने का भरसक प्रयास करना चाहती थी और परमेश्वर का मुझ पर जो ऋण था, उसे चुकाना चाहती थी। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या तुम लोग मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से डरते हो? (हाँ।) क्या डर अपने आप में उपयोगी है? नहीं—अकेले डर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने से डरना एक सामान्य बात है। यह दिखाता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, सत्य के लिए प्रयास करने और उसका अनुसरण करने को तैयार है। यदि तुम्हारे मन में भय है, तो तुम्हें सत्य की खोज कर उसके अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ना चाहिए। तुम्हें इसकी शुरुआत लोगों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग करना सीखने से करनी चाहिए। यदि कोई समस्या आए, तो उसे संगति और चर्चा से हल करो, ताकि सभी को सिद्धांतों की जानकारी हो, साथ ही उसके समाधान के बारे में विशिष्ट तर्क और कार्यक्रम का पता चल सके। क्या यह तुम्हें अकेले ही फैसले लेने से नहीं रोकता है? साथ ही, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल है, तो तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल पाने में सक्षम होगे, पर तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी को स्वीकार करना भी सीखना होगा, जिसके लिए तुममें सहिष्णुता और स्वीकृति होनी जरूरी है। ... पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चल पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम खुद ही करने या खुद ही फैसला लेने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? हाँ, यह सही है—यही तुम्हारी सुरक्षा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन अभ्यास के उस सिद्धांत की ओर इशारा करते हैं, जो गलत मार्ग पर जाने से बचने में मदद करता है : चाहे तुम जिन भी समस्याओं का सामना करो, सत्य की तलाश करो, भाई-बहनों के साथ मिलकर चीजों पर चर्चा करो, सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करो और अपना कर्तव्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार निभाओ; अपने अहंकारी स्वभाव के आधार पर मनमानी न करो और एकतरफा निर्णय न लो, और अपना कर्तव्य निभाते समय अपने भाई-बहनों की निगरानी स्वीकार करो। अगर तुम अपना कर्तव्य सिर्फ इसलिए नहीं करते कि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने और उजागर होने से डरते हो, तो यह न सिर्फ समस्याएँ हल करने में विफल होगा, बल्कि सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने के तुम्हारे अवसर भी नष्ट कर देगा। क्या यह श्वसन-मार्ग में अवरोध होने के डर से खाना पूरी तरह से छोड़ देने जैसा नहीं है? इसके बाद मैंने अपनी पिछली असफलताओं के सबक आत्मसात किए, और जब मैंने अपना कर्तव्य निभाया तो मेरा रवैया कहीं ज्यादा सही था। अगर मैं समस्याओं में पड़ जाती, तो मैं सचेत रूप से सभी के साथ चर्चा कर सकती थी, सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकती थी और एक-साथ सत्य सिद्धांतों की खोज कर सकती थी। कुछ समय बाद मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन देखा और अपना कर्तव्य प्रभावी ढंग से निभाया।
इस अनुभव ने मुझे आत्मचिंतन कर अपना भ्रष्ट स्वभाव जानने के लिए मजबूर किया, जिसने मुझे परमेश्वर के इरादे समझने, परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमी और उसके प्रति रक्षात्मकता दूर करने और अपना कर्तव्य आसानी से निभाने दिया। परमेश्वर का धन्यवाद!
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