एक ईसाई की आपबीती : रोजगार की तलाश का एक अनूठा अनुभव
"हेलो, क्या मैं जान सकती हूँ कि क्या इस समय आपके रेस्तरां को किसी स्टाफ की जरूरत है?"
"क्या आप कोई विदेशी भाषा बोल सकती हैं? क्या आपको काम का कोई अनुभव है?"
"नहीं, सॉरी, मैं कोई विदेशी भाषा नहीं बोल पाती, और मुझे काम का कोई अनुभव भी नहीं है।"
"अगर ऐसी बात है तो आय एम सॉरी, हम फिलहाल कुशल कर्मचारी चाहते हैं, नौसिखिए नहीं।"
टेलीफोन पर बात खत्म होते ही मेरे दिमाग में खलबली-सी मच गई, "हे प्रभु, यह नौकरी के लिए आज मेरी तीसरी कॉल है। अगर काम नहीं मिला तो मैं इस महीने का किराया नहीं दे पाऊँगी।"
नौकरी की निष्फल खोज के बारे में मेरी रूममेट मुझे सलाह देती है
मेरी रूममेट ने मुझे ठंडी साँसें भरते देखा तो मेरे पास चली आई। उसने कहा, "तुम कुछ ज़्यादा ही ईमानदार हो। जब भी कोई तुमसे कुछ पूछता है, तो तुम हमेशा सत्य बोलती हो, और इस तरह तो तुम्हें निश्चित रूप से कोई काम नहीं मिलेगा। तुम्हें सत्य को थोड़ा तोड़ना-मरोड़ना सीखना होगा। जब कोई तुमसे पूछे कि क्या तुम कोई विदेशी भाषा बोल पाती हो, तो तुम कहो, 'थोड़ी-बहुत।' जब वे तुमसे काम के अनुभव के बारे में पूछें, तो तुम कहो, 'मैं लंबे समय से तो काम नहीं कर रही हूँ।' क्या यह बेहतर नहीं होगा? पहले कोई काम हाथ में आने दो और फिर ईमानदारी के बारे में सोचो!" अपनी रूममेट की यह बात सुनकर मैं थोड़ी चिंता में पड़ गई, और मैंने कहा, "पर क्या यह झूठ बोलना नहीं होगा? मैं विदेशी भाषा में सिर्फ हाय-हेलो कह पाती हूँ और मैंने एक रेस्तराँ में बस एक शाम ही तो काम किया है, इसलिए मुझे काम का सचमुच कोई अनुभव नहीं है। इस तरह की बातें कहना ठीक नहीं होगा।" मेरी रूममेट अपनी बात पर अड़ी रही, और बोली, "तुम बहुत ज़िद्दी हो ज़िंग यू! तुम काम करोगी तो साथ-साथ भाषाएँ भी सीख सकती हो और तुम्हारा अनुभव भी धीरे-धीरे बढ़ता रहेगा। अगर तुम उन्हें नहीं बतातीं तो किसे पता चलता कि तुमने एक रेस्तराँ में सिर्फ़ एक शाम काम किया है? तुम्हारे पास इस समय किराया देने के भी पैसे नहीं हैं, और अगर तुमने जल्दी से कोई काम नहीं ढूंढा तो तुम यहाँ रह तक नहीं पाओगी।" अपनी रूममेट की सलाह सुनकर मेरा मन डगमगाने लगा, और मैंने सोचा, "वह सही कह रही है। जब मैं सत्य बोलती हूँ तो कोई भी मैनेजर मुझे नौकरी पर रखना नहीं चाहता है। अगर मैं अपनी गुज़र-बसर का इंतज़ाम करने के लिए बस एक बार झूठ बोल देती तो यह ठीक ही होता?" परंतु तभी मुझे ख़्याल आया कि परमेश्वर अपने वचनों में बार-बार हमें ईमानदार बनने, हमेशा सच बोलने और झूठ न बोलने और दूसरों को धोखा देने की कोशिश नहीं करने का आदेश देता है। मैं ईसाई हूँ, और मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के वचनों को ही अपने जीवन जीने के तौर-तरीक़ों का मानदंड बनाना चाहिए, क्योंकि केवल इसी रास्ते पर चलकर मैं परमेश्वर की महिमा बढ़ा सकती थी और उसकी गवाही दे सकती थी। "नहीं," मैंने सोचा, "सबसे अच्छा यही होगा कि मैं परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दूँगी और ईमानदार व्यक्ति बनूँगी।"
और इसलिए, नौकरी की खोज में उस दिन का अपना चौथा कॉल करने और एक बार फिर अपनी स्थिति के बारे में उन्हें सच-सच बता देने के बाद, अंतिम नतीज़ा वही पहले की तरह था, और मुझे अस्वीकार कर दिया गया। मैंने अपना दिल बुझता और हिम्मत टूटती महसूस की। मेरी रूममेट ने मेरी तरफ़ देखा और अपना सिर हिलाते हुए कहा, "मैंने तुम्हें बताया था कि क्या करना है, किंतु तुम अब भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं। जब तुम समझना ही नहीं चाहतीं कि सच को कैसे तोड़ें-मरोड़ें तो तुम्हें कभी भी कोई नौकरी भला कैसे मिलेगी?" मैंने उसकी बात पर ग़ौर किया और एक बार फिर सोचा कि किस तरह, जब भी मैं किसी रेस्तराँ मालिक से फोन पर बात की, उन्होंने ज्यों ही मुझे यह कहते सुना कि मुझे कोई भी काम करना नहीं आता, उन्होंने झट-से मुझे इनकार कर दिया, और यहाँ तक कि मुझे परीक्षण की अवधि में काम करने का भी मौक़ा नहीं दिया। मैंने मन ही मन सोचा, "ओह प्रिय, अगर मैं नौकरी पाना और अपने आप को सहारा देना चाहती हूँ तो मुझे सत्य को तोड़ना-मरोड़ना सचमुच सीखना ही होगा।"
सत्य को तोड़ने-मरोड़ने के बाद मैं अपने बारे में चिंतन-मनन करने लगी
बाद में, मैंने एक और रेस्तराँ को फोन किया, और जब मालिक ने मुझसे पूछा कि मुझे काम का कोई अनुभव है या नहीं और क्या मैं कोई विदेशी भाषा बोल सकती हूँ, तो मैंने घबराहट भरे स्वर में कहा कि मुझे काम का कुछ अनुभव है और मैं विदेशी भाषा थोड़ी-सी बोल सकती हूँ। मैंने ज्यों ही यह कहा, मालिक ने तत्काल मुझे अगली शाम से ही काम शुरू कर देने के लिए कह दिया। मैं खुशी से झूम उठी, किंतु मैं बहुत चिंतित भी थी : "रेस्तराँ में वे जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं उसका एक शब्द भी मैं बोल नहीं सकती हूँ और जल्दी ही मेरा छल पकड़ लेंगे।" यह सोचकर कि कहीं यह नौकरी हाथ से न चली जाए, मैं अगले दिन सुबह उठी और रेस्तराँ में इस्तेमाल होने वाली भाषा का अभ्यास करने लगी। परंतु मुझे नहीं पता कि मेरे दिमाग़ के साथ क्या हो रहा था, क्योंकि मैं उस भाषा को जितना अधिक याद करना चाहती थी, उतना ही अधिक मेरा दिमाग़ खाली होता जाता था। यहाँ तक कि बहुतेरी कोशिश करने के बाद भी, मैं एक भी शब्द याद नहीं कर पाई। मुझे धुँधली-सी बेचैनी महसूस हुई और आत्म-धिक्कार की भावना मुझे पर हावी हो गई, और मैंने सोचा : "मैंने अब एक झूठ बोल दिया है, तो इस एक झूठ को बनाए रखने के लिए क्या मुझे झूठ पर झूठ नहीं बोलते रहना पड़ेगा? मैं विदेशी भाषा नहीं बोल सकती इसलिए जैसे ही कोई ग्राहक कुछ ऑर्डर देगा, खेल खत्म हो जाएगा। जब ऐसा होगा, न सिर्फ़ मुझे शर्मिंदा होना पड़ेगा, बल्कि रेस्तराँ के कारोबार पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा। किंतु अगर मैंने झूठ न बोला होता, तो मुझे यह नौकरी मिलती ही नहीं, और तब मैं अपनी गुज़र-बसर ही नहीं कर पाती।"
दुखी मन से, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, इस प्रश्न का उत्तर खोजने लगी कि मुझे यह नौकरी रखनी चाहिए या छोड़ देनी चाहिए। तभी मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आ गए : "लेकिन बेईमान लोग इस तरह काम नहीं करते हैं। वे शैतान के फलसफ़ों और अपनी धोखेबाज़ प्रकृति और सार के आधार पर जीते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें उन्हें सावधान रहना होता है कि कहीं दूसरे लोगों को उनके बारे में पता न चल जाए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपने असली चेहरे को छिपाने के लिए, उन्हें अपनी स्वयं की विधियाँ, अपनी स्वयं की बेईमान और कुटिल योजना का उपयोग करना पड़ता है, इस डर से कि देर-सवेर वे गलती से अपना राज़ खोल देंगे और जब वे अपना असली रंग दिखाते हैं तब वे चीज़ो को बदलने की कोशिश करते हैं। जब वे चीज़ों को बदलने की कोशिश करते हैं, तो कई बार यह आसान नहीं होता, और जब वे नहीं कर पाते, तो वे व्याकुल होने लगते हैं। उन्हें भय होता है कि दूसरे लोग उनके बारे में जान जाएँगे; ऐसा होने पर, उन्हें लगता है कि उन्होंने स्वयं को शर्मिंदा किया है, और फिर उन्हें स्थिति को सुधारने के तरीके के बारे में सोचना पड़ता है" ('एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करते हुए, मैंने अपने आपको अत्यधिक धिक्कारा। क्या मेरी वर्तमान अवस्था और व्यवहार बिलकुल वैसा ही नहीं था जिसके बारे में परमेश्वर बात कर रहा था? मैंने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए झूठ बोला और धोखा दिया था : मुझे स्पष्ट रूप से काम का कोई अनुभव नहीं था, किंतु मैंने मालिक से कहा था कि मुझे था; मैं स्पष्ट रूप से विदेशी भाषा नहीं बोल सकती थी किंतु मैंने कहा था कि मैं थोड़ा-सी बोल सकती थी। क्या ऐसा करके मैंने मालिक के साथ छल और धोखा नहीं किया था? मैंने अब किसी जगह परीक्षण अवधि के काम का मौक़ा प्राप्त करने के लिए झूठ बोल दिया था, किंतु जब समय आएगा और यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुझे कोई काम करना नहीं आता, तो इसका मालिक के कारोबार पर बुरा असर पड़ेगा—क्या मैं ऐसा करके लोगों को नुक़सान नहीं पहुँचा रही थी? मैंने अपने स्वार्थ की ख़ातिर धोखे और छल-कपट का सहारा लिया था और स्वयं अपने फ़ायदे के लिए दूसरे व्यक्ति को नुक़सान पहुँचाया था। मुझमें सचमुच कोई ईमानदारी नहीं थी। प्रभु यीशु ने कहा है, "परन्तु तुम्हारी बात हाँ की हाँ, या नहीं की नहीं हो; क्योंकि जो कुछ इससे अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। झूठ और धोखा शैतान की देन होते हैं और परमेश्वर इनसे घृणा करता है। ईसाई होने के नाते, मुझे विशिष्ट स्तर पर आचरण करना चाहिए, मुझे सीधे-सच्चे तरीक़े से कार्य करना चाहिए, हमेशा सच बोलना चाहिए, और झूठ या धोखे का सहारा नहीं लेना चाहिए। केवल इसी तरीक़े से मैं सच्ची मानव सदृशता जी पाऊँगी, और पूरी तरह खुले, ईमानदार, जमीन से जुड़े और न्यायपूर्ण ढँग से रह पाऊँगी। और इसलिए, मैंने फैसला कर लिया कि शाम को जब मैं रेस्तराँ में जाऊँगी, तब मालिक को सत्य बता दूँगी।
मेरे आत्म-मान ने अपना घृणित सिर उठाया और मैं सच बोलने से कतरा गई
मैं उस शाम रेस्तरां के मालिक से मिली तो मेरा दिल बड़ी तेजी से धडक रहा था। मेरे मन में बार-बार यह ख्याल आ रहा था कि मेरे मुंह से सच सुनकर उसे कितना गुस्सा आएगा और वह मुझे धोखेबाज कहेगा। मैं इसी झिझक में थी कि उसने मुझे जगह को साफ करने और टेबल लगाने के लिए कहा। मैंने सोचा कि पहले मैं अपना काम कर लूँ और उसके बाद ही उससे बात करूँ। लेकिन ये काम पूरे होते ही अचानक एक के बाद एक ग्राहक आने लगे और मालिक उनके ऑर्डर लेने और उनके लिए कॉफी लाने में व्यस्त हो गया। मैंने मन-ही-मन अपने-आपसे कहा, "मालिक इतना व्यस्त है कि उसके पास मेरी बात सुनने का वक्त ही नहीं है। अच्छा होगा कि मैं अपना काम करती रहूँ और अपनी शिफ्ट खत्म होने के बाद ही उससे बात करूँ।" इसके बाद किचन से चीजें आने लगीं और मैं जल्दी-जल्दी उन्हें ग्राहकों तक पहुंचाने लगी। जब ग्राहक व्यंजनों के नाम पूछते तो मैं उनका मुंह ताकने लगती और मेन्यू देखने लगती। पर मुझे पता ही नहीं था कि जवाब कैसे देना है। मालिक ने जब यह देखा तो जल्दी से उनके पास आकर उन्हें व्यंजनों के नाम बताने लगा और मुझे उनके लिए ड्रिंक्स लाने के लिए बोला। पहले ग्राहक सिर्फ मिनरल वॉटर और कोला का ऑर्डर करते रहे। लेबलों को देखकर मैं यह अनुमाम लगाने में सफल रही कि ग्राहकों को कौनसा ड्रिंक चाहिए और उन्हें ठीकठाक निपटाती रही। लेकिन फिर बाद में ग्राहक सभी तरह के ड्रिंक्स के ऑर्डर करने लगे और मैं कुछ न समझकर उनके मुंह ताकने लगी। घबराहट के मारे मेरा यह हाल था कि मेरा पूरा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। ग्राहकों के बार-बार के प्रश्नों से मुझे ऐसा लगने लगा कि मुझे मालिक को सच बताना ही होगा, नहीं तो मेरी वजह से उसके कारोबार पर बुरा असर पड़ेगा। पर जब मैंने देखा कि रेस्तरां खचाखच भर गया है तो सच बताने की मेरी हिम्मत जवाब दे गई। मुझे लगा कि मालिक सबके सामने मुझे फटकारने लगेगा और इसे बर्दाश्त करना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, इसलिए मैं मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी।
मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "स्वयं का विश्लेषण करने और स्वयं को प्रकट करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। जब कोई अन्य व्यक्ति आस-पास नहीं होता है, तो चाहे तू परमेश्वर के सामने प्रार्थना करे, या तू अपनी गलतियों को स्वीकार करे, पश्चाताप करे, या अपने भ्रष्ट स्वभाव का परमेश्वर के सामने विश्लेषण करे, तू जो भी चाहे वह कह सकता है, क्योंकि अपनी बंद आँखों से तू कुछ भी नहीं देख सकता है, यह हवा से बात करने के जैसा है, और इसलिए तू खुद को प्रकट करने में सक्षम हो जाता है; फिर तू जो कुछ भी सोचता है उसके बारे में, या उस समय जो कुछ भी तूने कहा और साथ ही अपनी प्रेरणाओं और अपनी धोखेबाज़ी के बारे में भी बोल सकता है। मगर यदि तुझे खुद को किसी दूसरे व्यक्ति के सामने प्रकट करना हो, तो तू अपना साहस खो सकता है, और तू ऐसा करने का अपना संकल्प खो सकता है, क्योंकि तू चेहरा बचाना चाहता है, और इसलिए इन चीज़ों को व्यवहार में लाना बहुत मुश्किल है" ('एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचनों ने यह समझने में मेरी मदद की कि मैं एक ईमानदार इंसान होने की सच्चाई को इसलिए व्यवहार में नहीं ला पा रही थी क्योंकि मेरा दंभ और अपने मान-सम्मान को लेकर मेरी भावना बहुत प्रबल थे, और क्योंकि मैं हमेशा यह चाहती थी कि लोग एक खास तरह से मुझे देखें और मेरे बारे में सोचें। मुझे डर था कि अगर मैंने मालिक को सच बता दिया तो वह सबके सामने कहेगा कि मैंने उसे धोखा दिया, और यह मेरे लिए बहुत शर्मिंदगी की बात होगी। इसलिए अपनी स्थिति और अपने मान को बचाने के लिए मैं बार-बार मालिक को खुलकर और सीधे-सीधे सच बताने से बचती रही। इसका परिणाम यह था कि मैं ग्राहकों को संभाल नहीं पा रही थी और मुझे बार-बार मालिक के बीच में आने और मेरी मदद करने की जरूरत पड़ रही थी। क्या यह सब करके मैं मामले को और नहीं बिगाड़ रही थी? अगर मैंने अपने मान को इतनी तूल न दी होती और मालिक को पहले ही सच बता दिया होता तो वह किसी और को ढूंढ लेता या मुझे कोई दूसरा काम दे देता। तो फिर मैं इस तरह की शर्मिंदगी की स्थिति में न होती। और तभी मुझे यह अहसास हुआ कि अपने मान के चक्कर में और सच्चाई और ईमानदारी का अभ्यास न करके मैंने खुद को तो तमाशा बना ही लिया था, साथ ही रेस्तरां के कारोबार पर भी बुरा असर डाला था। जब इसका मूल कारण और इसके परिणाम मुझे साफ-साफ दिखाई देने लगे तो मैंने अपने मान का परित्याग करने और एक ईमानदार इंसान की तरह जीने का अभ्यास करने का संकल्प कर लिया। रेस्तरां का मालिक मेरे बारे में कुछ भी क्यों न सोचे या मेरे साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न करे, मैंने उसे सच बताने की ठान ली थी।
मैं पूरी पवित्रता से खुली हुई और ईमानदार हूँ और मेरी आत्मा शांत है
और इस तरह, मैं मालिक के पास गई और अपनी हिम्मत बटोरते हुए मैंने उससे कहा, "मुझे बहुत अफसोस है! दरअसल सीधी-सादी दुआ-सलाम के अलावा मुझे किसी विदेशी भाषा में और कुछ भी बोलना नहीं आता। और इससे पहले मैंने सिर्फ एक रेस्तरां में काम किया है। मुझे डर था कि आप मुझे नहीं रखेंगे, इसलिए मैंने आपसे झूठ बोल दिया था।" मेरा ख्याल था कि मालिक मुझे दरवाजा दिखा देगा, पर मुझे हैरान करते हुए उसने शांत स्वर में कहा, "ओह, कोई बात नहीं, अगर तुम विदेशी भाषा नहीं बोल पाती तो सिर्फ सफाई करो और टेबल लगाओ और कप-गिलास धोओ। मैं बाकी काम के लिए विदेशी भाषा बोलने वाले वेटर रख लूँगा।" उसकी यह बात सुनकर मैं भाव-विभोर हो उठी और मेरे दिल का बोझ अचानक ही हल्का हो गया। इसके बाद मैं वही सब करने लगी जो उसने कहा था। जब कोई ग्राहक अपना खाना-पीना खत्म करता तो मैं जल्दी से जाकर टेबल साफ कर देती। जब मैं किचन में कपों और गिलासों का ढेर लगा देखती तो मैं जल्दी से उन्हें धोने लगती। मुझे पता भी न चला कि कब मेरी शिफ्ट का समय पूरा हो गया। मालिक ने मुझसे कहा, "अब और कुछ धोने की जरूरत नहीं है। मैं थोड़ी देर में खुद कर लूँगा। कुछ ही मिनट में दरवाजे पर एक बस आएगी। अपना काम खत्म करके घर जाओ, नहीं तो अगली बस के लिए तुम्हें 20 मिनट इंतजार करना पड़ेगा।" इसके बाद मालिक ने मुझे उस शाम के काम का वेतन दिया और मैं यह देखकर हैरान रह गई कि उसने मुझे एक कुशल कर्मचारी के रेट पर भुगतान किया था। बस में एक सहकर्मी ने मुझसे कहा, "आज रेस्तरां खचाखच भरा था और मैंने देखा कि तुम बिना रुके लगातार काम कर रही थी। तुम सचमुच एक भरोसेमंद इंसान हो।" मुझे बहुत अच्छा लगा यह सुनकर। मैं जानती थी कि आज की इस परिस्थिति के पीछे परमेश्वर का हाथ था। परमेश्वर ने इस परिस्थिति का इस्तेमाल करके मुझे यह समझाया था कि मेरी मान-सम्मान की भावना कितनी प्रबल थी, और परमेश्वर ने मुझे अपने खुद के दोषपूर्ण स्वभाव को समझने का अवसर दिया था, ताकि मैं सच्चाई के रास्ते पर चलकर एक ईमानदार इंसान की तरह जी सकूँ। घर पहुँचने के बाद मैंने मालिक को एक संदेश भेजकर एक बार फिर अपने झूठ के लिए क्षमा-याचना की। उसने अपने जवाब में लिखा, "कोई बात नहीं। मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम्हारी उम्र की कोई लड़की इतनी ईमानदार और भरोसेमंद हो सकती है।" मुझे यह पढ़कर शर्म-सी महसूस होने लगी। सच्चाई यह थी कि ईमानदार और भरोसेमंद मैं नहीं थी, बल्कि ये गुण परमेश्वर के वचनों को समझने और उन्हें व्यवहार में लाने के बाद मुझे प्राप्त हुए थे।
इस अनुभव के जरिए मैंने यह भी जाना कि शैतान ने कितनी गहराई तक मुझे भ्रष्ट कर दिया था। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है और वह हमसे ईमानदारी की अपेक्षा करता है, और फिर भी मैं अपने स्वार्थ की खातिर झूठ बोलने और धोखा देने के लिए तैयार हो गई थी। इससे परमेश्वर को कितना दुख पहुंचा होगा! परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और मार्गदर्शन से ही मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को कुछ-कुछ समझने में सक्षम हुई थी और मुझे अभ्यास के लिए एक स्पष्ट रास्ता दिखाई दिया था। जब मैंने अपने मान और दंभ की भावना का त्याग करके परमेश्वर के वचनों के अनुरूप एक ईमानदार इंसान की तरह व्यवहार किया, तो मैंने न सिर्फ अपनी नौकरी नहीं खोई बल्कि मुझे अपने मालिक और सहकर्मी का अनुमोदन भी मिला और प्रशंसा भी। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर के वचनों का ही फल था। मैं अपने दिल की गहराइयों से यह समझने में सफल रही कि एक ईमानदार इंसान के रूप में ही जीने से ही मेरी आत्मा शांत और सुखी महसूस कर सकती है।
कोई दूसरी नौकरी मिल रही हो तो क्या तब भी मुझे ईमानदार रहना चाहिए?
अभी ज्यादा समय नहीं बीता था कि किसी कारण मुझे एक दूसरे शहर में चले जाना पड़ा। मैं एक बार फिर गुजर-बसर के लिए कोई काम ढूँढने लगी। सौभाग्य से, एक महिला, जिससे मैं पिछली बार भी नौकरी की तलाश के दौरान मिल चुकी थी और जो एक रेस्तरां मालिक की पत्नी थी, ने मुझे फोन करके कहा कि उन्हें सप्ताहांत के दिनों में काम करने के लिए किसी की जरूरत है, और अगर मैं चाहूँ तो फौरन काम शुरू कर सकती हूँ। फोन पर बात खत्म होने के बाद मुझे यह अहसास करने में काफी देर लग गई कि दरअसल क्या हुआ था। "क्या मैंने सही सुना था?" मैं अपने मन में सोचने लगी, "मुझे कोई विदेशी भाषा बोलनी नहीं आती और मेरे पास अनुभव की भी कमी है, तो यह महिला अपने-आप मुझे काम पर क्यों बुला रही है?" अपनी सत्य की खोज के दौरान मुझे यह स्पष्ट बोध होने लगा कि यह परमेश्वर की तरफ से एक परीक्षा थी कि क्या मैं सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान की तरह व्यवहार करने में सक्षम हो पाऊँगी। क्या मैं अपनी स्थिति के बारे में सच बताने का साहस कर पाऊँगी और कुछ और दिखाने या लोगों को धोखा देने की कोशिश नहीं करूंगी? यह सोचते हुए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, हालांकि इस महिला ने विदेशी भाषा की जानकारी या काम के अनुभव को लेकर मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछा, लेकिन मैं वहाँ काम शुरू करते हुए किसी को धोखे में नहीं रखूंगी। मैं जानती हूँ कि अगर मैंने सच्चाई छिपाए रखी तो यह ईमानदारी नहीं होगी, और न ही ऐसा करना तुम्हारी इच्छा के अनुरूप होगा। हे परमेश्वर, मैं अपने हितों पर ध्यान न देकर सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना चाहती हूँ। भले ही वह महिला मुझे काम न दे, पर मुझे कोई पछतावा तो नहीं होगा। हे परमेश्वर, मुझे सत्य का अभ्यास करने की शक्ति दो।"
यह प्रार्थना करने के बाद मैंने मालिक की पत्नी को फोन किया और उसे अपनी स्थिति के बारे में सच-सच बताते हुए उसे एक बार फिर सोच लेने के लिए कहा। पर मेरी बात सुनकर वह महिला हंसने लगी तो मैं हैरान रह गई। उसने कहा, "तुम कितनी ईमानदार हो! और तुमने अभी-अभी मुझसे जो कुछ कहा है उसी के कारण मैं तुम्हें काम पर रख रही हूँ। आ जाओ और मैं तुम्हें वह सब सिखा दूँगी जो तुम्हें नहीं आता।" बात पूरी होते ही मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता की भावना से भर उठी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि परमेश्वर के वचनों के अनुरूप एक ईमानदार इंसान की तरह जीने से इतनी आसानी से नौकरी मिल जाएगी।
आजमाइश की अवधि के दौरान गलतियाँ करके भी मैं सच बोलने के कारण नौकरी पाने में सफल रही
मैं उस सप्ताहांत काम पर पहुंची तो मुझे वहाँ दो लड़कियां मिलीं जो मेरी ही तरह ट्रायल पीरियड पर काम कर रही थीं। हमने एक-दूसरे को अपना परिचय दिया तो मुझे पता चला कि वे दोनों विदेशी छात्राएँ थीं। हालांकि उन्हें काम का कोई अनुभव नहीं था, पर वे बहुत अच्छी अंग्रेजी बोल लेती थीं। इससे मैं थोड़ी विचलित हो गई और मैं सोचने लगी, "इनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है और ये बिना किसी परेशानी के ग्राहकों से बात कर सकती हैं, जबकि मैं कोई भी विदेशी भाषा नहीं बोल पाती। कोई भी रेस्तरां मालिक मेरी बजाय ऐसी लड़की को चुनेगा जो विदेशी भाषा बोल सकती हो। हे प्रभु, लगता है आज के बाद मेरे लिए ये दरवाजे बंद हो जाएंगे।" यह सोचते हुए मैं कुछ निराश-सी हो गई। काम करते समय मैं जितना अच्छा करने की कोशिश करती, उतनी ही गलतियाँ होती रहीं। जब मैं व्यंजन लेकर ग्राहकों के पास गई तो दो टेबलों पर भूल से एक-दूसरे के व्यंजन रख दिए, और उन्हें बहुत-से व्यंजनों में से छांटकर सही टेबल पर रखना भी कोई आसान काम न था। जब मैं किसी दूसरे ग्राहक के पास सुशी लेकर जा रही थी तो इतनी घबराई हुई थी कि मेरा पाँव फिसल गया और सुशी फर्श पर गिर गई। ग्राहक ने मुंह बनाया और मेरी तरफ कोफ्त से देखा। मैं शर्मिंदगी के मारे बार-बार माफी मांगने के अलावा और कुछ न कर सकी। मैं इसके बारे में झट से मालिक की पत्नी को बता देना चाहती थी और ग्राहक के लिए सुशी की दूसरी प्लेट ले जाना चाहती थी। लेकिन जैसे ही मैं मुड़ी मुझे अचानक यह ख्याल आया कि दोनों विदेशी छात्राएँ मुझसे कितना बेहतर प्रदर्शन कर रही थीं। अगर मैंने मालिक की पत्नी को बता दिया कि मेरे हाथ से सुशी की प्लेट गिर गई है तो क्या उसे मेरे बेढंगेपन पर गुस्सा नहीं आएगा और क्या वह मुझे अगले दिन से न आने के लिए नहीं कहेगी? अगर उसने सबके सामने मुझे डांट दिया तो मेरी कितनी बेइज्जती होगी। इसलिए मुझे लगा कि मालिक की पत्नी को कुछ न बताना ही ठीक था, इसकी बजाय किचन स्टाफ से बात करना बेहतर होगा; आखिर उसने मुझे प्लेट गिराते तो नहीं देखा था। पर जब मैं यह सब सोच रही थी तो मेरे दिल में बेचैनी-सी होने लगी और मुझे यह अहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपने हित की खातिर धोखा देने की कोशिश करने जा रही थी। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "यदि तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर विश्वास करें, तो पहले तुमको ईमानदार बनना होगा। एक ईमानदार व्यक्ति होने के नाते तुम्हें अपना दिल खोलना चाहिए, ताकि हर कोई उसके अंदर देख सके, तुम्हारे विचारों को समझ सके, और तुम्हारा असली चेहरा देख सके; अच्छा दिखने के लिए तुम्हें तुम खुद भेष धारण करने या खुद को आकर्षक बनाने का प्रयास न करो। लोग तभी तुम पर विश्वास करेंगे और तुमको ईमानदार मानेंगे। यह ईमानदार होने का सबसे मूल अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति होने की शर्त है" ('एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचनों ने स्पष्ट रूप से मुझे वह रास्ता दिखा दिया जिस पर मुझे चलना चाहिए था। अगर मुझे दूसरों का विश्वास जीतना था तो मुझे उन्हें धोखा नहीं देना चाहिए था। अगर मुझसे कोई गलती हुई थी तो गलती हुई थी और मुझे साहस और ज़िम्मेदारी की भावना से इसे स्वीकार करना चाहिए, न कि इसे छिपाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करके ही मैं एक ईमानदार इंसान और दूसरों के भरोसे के काबिल हो सकती थी। अगर अपनी नौकरी बचाने के लिए मैं धोखेबाजी का सहारा लेती हूँ और मालिक की पत्नी को सच नहीं बताती हूँ, तो भले ही मैं अपनी नौकरी बचा लूँ, पर धोखा देने और सच पर पर्दा डालने की मेरी यह हरकत घृणित और बेईमानी भरी होगी। मैं मैं अपनी सामान्य मानवता खो बैठूँगी और परमेश्वर मुझे असीम घृणा की दृष्टि से देखेगा। परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं को समझ लेने के बाद मैं सीधी मालिक की पत्नी के पास गई। मैंने उसे ईमानदारी से अपनी गलती के बारे में बता दिया और इस घटना को लेकर अपनी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने की इच्छा जताई। उसने मुझे कुछ बुरा-भला कहने की बजाय सिर्फ इतना कहा कि मैं थोड़ी ज्यादा सावधानी बरतूँ। उसकी बात सुनकर मैं हैरान रह गई और खुशी से झूम उठी। मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर के वचनों पर अमल करने का फल था, जो परमेश्वर के आशीष के रूप में मुझे प्राप्त हुआ था।
अगले कुछ घंटों तक मैं जी-जान से अपने काम में जुटी रही। जब मैं कोई ऐसा शब्द सुनती जो मेरी समझ से बाहर होता तो मालिक की पत्नी मुझे इसका मतलब समझाती। जब मैं किसी ग्राहक से बात न कर पाती तो मेरी सहकर्मी मेरे पास चली आतीं और कहे बिना ही मेरी मदद करने लगतीं। कुछ ही देर में मेरी व्यस्त शिफ्ट खत्म हो गई। मालिक की पत्नी ने हम सबको हमारा वेतन दिया और फिर मुझसे बोली, "अब अगली बार मिलेंगे।" इसके बाद उसने दोनों विदेशी छात्राओं की तरफ मुड़ते हुए उनसे कहा कि फिलहाल रेस्तरां को किसी और स्टाफ की जरूरत नहीं है और व्यस्तता बढ्ने पर वह उन दोनों से फिर से संपर्क करेगी। उसके मुंह से यह बात सुनकर मैं दंग रह गई। मैं मन-ही-मन सोचने लगी, "मैं कोई विदेशी भाषा नहीं बोल पाती, और न ही मुझे इस काम का कोई अनुभव है, उल्टे पहले दिन ही मैं गलती पर गलती करती रही हूँ। तो फिर इसने मुझे क्यों चुना? ये दोनों विदेशी छात्राएँ कितनी अच्छी विदेशी भाषा बोलती हैं, तो फिर यह इन्हें क्यों निकाल रही है?" मेरे चेहरे पर आश्चर्य के भाव देखकर मालिक की पत्नी ने मुझसे कहा, "जब हम किसी को काम पर रखते हैं तो हम अच्छे नैतिक चरित्र पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। समय के साथ अनुभव हासिल किया जा सकता है। मुझे ऐसे लोग नहीं चाहिए जो विदेशी भाषा तो बोल लेते हैं पर काम में ढीले और सुस्त होते हैं। तुम एक भरोसेमंद लड़की हो और ईमानदार भी हो। मैं खुश हूँ कि तुम यहाँ काम कर रही हो।" उसकी बात सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैं जानती थी कि मुझे इसलिए नहीं रखा गया था कि मैं दूसरों से बेहतर थी, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं सत्य का अभ्यास करती थी और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप एक ईमानदार इंसान थी। यह मुझ पर परमेश्वर की कृपा का, उसके अनुग्रह और उसके आशीष का फल था।
इस नौकरी में, जब मुझे कोई शब्द समझ नहीं आता था तो मैं अपने सहकर्मियों से पूछती थी और वे मुझे खुशी-खुशी सब कुछ सिखाते थे। उनका कहना था कि वे मेरे सरल स्वभाव से बहुत खुश थे। जब वे मुझे बहुत व्यस्त देखते तो मेरी मदद के लिए चले आते, और हम सबके बीच बहुत अच्छी जम रही थी। बाद में मैं दूसरी जगह चली गई और वहाँ काम जारी नहीं रख पाई, पर मालिक की पत्नी बार-बार मुझे फोन करके वापस आने के लिए कहती रहती थी। वह मुझे अपने जैसे कुछ भरोसेमंद दोस्तों से मिलवाने के लिए भी कहती रहती थी, जो उसके रेस्तरां में काम कर सकें। उसे अपनी इतनी तारीफ करते देख मैं बहुत भाव-विभोर हो उठती थी, पर मैं अच्छी तरह से जानती थी कि परमेश्वर के वचनों के कारण ही मुझमें यह बदलाव आया था और मैंने अपने निजी हितों की परवाह न करके सत्य का अभ्यास करना, एक ईमानदार इंसान के रूप में जीना, और दूसरों का भरोसा जीतना सीख लिया था। मैं इसके लिए परमेश्वर को बार-बार धन्यवाद देती थी और उसका गुणगान करती थी।
अपने खुद के अनुभवों ने मेरे दिल को कृतज्ञता से भर दिया है
इन अनुभवों ने मुझे सिखा दिया कि चाहे कोई भी क्यों न हो, हर इंसान एक ईमानदार इंसान को पसंद करता है। इसका कारण यह है कि ईमानदार लोग किसी को धोखा नहीं देते; वे जमीन से जुड़े हुए भरोसेमंद लोग होते हैं और दूसरे लोग उन पर विश्वास कर सकते हैं। मैं अब सही अर्थों में यह भी समझ गई थी कि सिर्फ ईमानदार लोग ही एक असली मनुष्य का जीवन जी सकते हैं, और एक सच्चाई और गरिमा भरा जीवन जी सकते हैं; सिर्फ ईमानदार लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा और उसका आशीष प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर का लाख-लाख धन्यवाद। मैं अपने भविष्य के जीवन में भी सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए एक ईमानदार इंसान की तरह जीना चाहती हूँ, और मैं एक ऐसी इंसान बने रहना चाहती हूँ जिससे परमेश्वर और दूसरे इंसान दोनों ही खुश रहें, एक ऐसी इंसान जिस पर परमेश्वर और दूसरे इंसान दोनों ही विश्वास कर सकें।
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