अध्याय 39. बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर

स्वभाव में परिवर्तन के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? स्वभाव में परिवर्तन और व्यवहार में परिवर्तन के सार भिन्न-भिन्न हैं, और अभ्यास में बदलाव भी अलग हैं-सार में वे सभी अलग-अलग हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में व्यवहार पर विशेष जोर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, वे दूसरों के साथ बहस करना बंद कर देते हैं, वे लोगों से लड़ना और उन्हें अपमानित करना बंद कर देते हैं, वे धूम्रपान करना और शराब पीना छोड़ देते हैं, वे किसी भी सार्वजनिक संपत्ति की चोरी नहीं करते-चाहे वह एक कील या लकड़ी का एक टुकड़ा ही क्यों न हो-और यहाँ तक कि जब उन्हें कुछ नुकसान होता है या उनके साथ कुछ गलत होता है, वे इसे अदालतों में नहीं ले जाते। निश्चय ही, कुछ बदलाव उनके व्यवहार में होते हैं। क्योंकि, परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, सच्चे मार्ग को स्वीकार करना उन्हें विशेष रूप से अच्छा लगता है, और चूँकि उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य के अनुग्रह को भी चख लिया है, वे विशेष रूप से उत्साहित हैं, और यहाँ तक ​​कि कुछ भी ऐसा नहीं होता है जिसका वे त्याग नहीं कर सकते या जिसे वे कर नहीं सकते। फिर भी, तीन, पांच, दस या तीस साल के लिए विश्वास करने के बाद-चूँकि उनके जीवन-स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, अंत में वे पुराने तरीकों में लौट आते हैं, उनका अहंकार और दंभ बढ़ जाते हैं, और वे सत्ता और मुनाफे के लिए लड़ना शुरू करते हैं, वे चर्च के धन का लालच करते हैं, वे कुछ भी करते हैं जो उनके अपने हित के लिए होता है, वे पदवी और सुख चाहते हैं, और वे परमेश्वर के घर के परजीवी बन जाते हैं। विशेष रूप से, अधिकांश नेता बिगड़ जाते हैं। और ये तथ्य क्या साबित करते हैं? जो परिवर्तन व्यवहार से अधिक किसी बात में नहीं होते, वे देर तक नहीं टिकते हैं। अगर लोगों के जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता है, तो देर-सबेर उनका दुष्ट पक्ष स्वयं को दिखाएगा। क्योंकि उनके व्यवहार में परिवर्तन का स्रोत उत्साह है, पवित्र आत्मा द्वारा उस समय किये गए कुछ कार्य के साथ मिलकर, उनके लिए उत्साही बनना या कुछ समय के लिए अच्छा बनना बहुत आसान होता है। जैसा कि अविश्वासी लोग कहते हैं, "एक अच्छा काम करना आसान है, मुश्किल तो यह है कि जीवन भर अच्छे काम किए जाएँ।" लोग आजीवन अच्छे कर्म करने में असमर्थ हैं। उनका व्यवहार जीवन द्वारा निर्देशित होता है; जैसा भी उनका जीवन है, उनका व्यवहार भी वैसा ही होता है, और केवल वही जो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है जीवन का और किसी के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है। जो चीजें नकली हैं, वे टिक नहीं सकती। जब परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, यह मनुष्य को अच्छे व्यवहार के साथ सजाने के लिए नहीं होता-परमेश्वर का कार्य लोगों के स्वभाव को बदलने के लिए, उन्हें नए लोगों में पुनर्जीवित करने के लिए होता है। इस प्रकार, परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण, और मनुष्य का परिशोधन ये सभी उसके स्वभाव को बदलने के लिए हैं, ताकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता और निष्ठा पा सके, और परमेश्वर की सामान्य उपासना कर सके। यही परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। अच्छी तरह से व्यवहार करना परमेश्वर के प्रति आज्ञा-पालन करने के समान नहीं है, और यह मसीह के साथ सुसंगत होने के बराबर तो और भी नहीं है। व्यवहार में परिवर्तन सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और उत्साह से पैदा होते हैं—वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान पर या सच्चाई पर आधारित नहीं होते हैं, वे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में आश्रित तो और भी कम होते हैं। यद्यपि ऐसे मौके होते हैं जब लोग जो भी करते हैं उसमें से कुछ पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित होता है, यह जीवन की अभिव्यक्ति नहीं है, और यह बात परमेश्वर को जानने के समान तो और भी नहीं है; चाहे किसी व्यक्ति का व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह इसे साबित नहीं करता कि वे परमेश्वर के प्रति आज्ञा-पालन करते हैं, या वे सच्चाई का अभ्यास करते हैं। व्यावहारिक परिवर्तन क्षणिक भ्रम हैं, वे पुरजोशी की अभिव्यक्ति हैं, और वे जीवन की अभिव्यक्ति नहीं हैं। इसलिए जब तुम लोग कुछ ऐसे लोगों को देखते हो जो, जब वे उत्साह के बीच होते हैं, परमेश्वर के घर के लिए कुछ भी कर सकते हैं और चीजों का भी त्याग कर सकते हैं, तो कभी उनकी प्रशंसा मत करो। तुम इतना ही कर सकते हो कि इन लोगों का मार्गदर्शन सच्चाई की दिशा में, जीवन के मार्ग की ओर करो-तुम उनके उत्साह को ठंडा नहीं कर सकते। उत्साही लोग अक्सर अत्यधिक प्रेरित होते हैं और उनकी आकांक्षाएँ होती हैं; उनमें से ज्यादातर सच्चे मार्ग की लालसा रखते हैं, और वे वो लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित किया है और चुना है। अधिकांश उत्साही लोग परमेश्वर के नेक विश्वासी होते हैं; यदि कोई नया आस्तिक है और उत्साही नहीं है, तो यह परेशानी की बात है। वे ही जो उत्साही हैं, अधिक आसानी से सही रास्ते पर ले जाए जाते हैं। लोग अच्छी तरह से व्यवहार कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके पास सच्चाई है। लोगों का उत्साह उनसे केवल सिद्धांतों का अनुसरण और नियम का पालन करवा सकता है; जो लोग सच्चाई से रहित हैं उनके पास मूलभूत समस्याओं का समाधान करने का कोई रास्ता नहीं होता, और सिद्धांत सत्य के स्थान पर खड़ा नहीं हो सकता। जिन लोगों ने अपने स्वभाव बदल दिए हैं, वे इससे अलग हैं। उनके भीतर सत्य है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाओं को प्रकट किया जाता है, तो वे विवेकी बन सकते हैं और देहासक्ति को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन को इस प्रकार व्यक्त किया जाता है। स्वभाव में परिवर्तन के बारे में मुख्य बात यह है कि उनके पास सच्चाई और स्पष्टता दोनों होती हैं, और जब चीज़ों को पूरा किया जीता है, तो वे सच्चाई का आपेक्षिक सटीकता के साथ अभ्यास करते हैं और उनकी भ्रष्टता इतनी अधिक प्रकट नहीं होती है। सामान्यतया, कोई व्यक्ति जिसका स्वभाव बदल गया है वह काफी उचित और विवेकपूर्ण प्रतीत होता है, और सच्चाई की उसकी अपनी समझ के परिणामस्वरूप, आत्म-तुष्टि और दंभ उतने अधिक प्रकट नहीं होते हैं। वे सब कुछ स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, इसलिए वे इस स्पष्टता को प्राप्त करने के बाद अभिमानी नहीं बनते हैं। मनुष्य का क्या स्थान है, कैसे उचित व्यवहार करना है, कर्तव्यनिष्ठ होना है, क्या कहना और क्या नहीं कहना है, और किन लोगों के साथ क्या कहना और क्या करना है, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। यही कारण है कि ऐसा कहा जाता है कि इन प्रकार के लोग अपेक्षाकृत उचित होते हैं। जो लोग अपने स्वभाव को बदलते हैं, वे वास्तव में एक मानव की सदृशता को जीते हैं, और उनके पास सच्चाई होती है; वे दूसरों के प्रभाव के अधीन नहीं होते। जिनके स्वभाव में बदलाव हो चुके हैं वे लोग स्थिर होते हैं, वे असंतुलित नहीं होते, और चाहे वे किसी भी स्थिति में हों, वे जानते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्य को सही ढंग से करना है और कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम किये जाएँ। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि सतही तौर पर स्वयं को अच्छा दिखाने के लिए क्या किया जाए-उनमें आंतरिक स्पष्टता होती है कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसे न लगें कि वे कुछ बहुत अच्छा कर चुके हैं, लेकिन जो कुछ भी वे करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और इसके व्यावहारिक परिणाम होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके पास निश्चित रूप से बहुत सच्चाई होती है-इस बात की पुष्टि चीज़ों में उनके दृष्टिकोणों और कार्यों में उनके उसूलों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों के पास सच्चाई नहीं है, उनमें स्वभाव में बिलकुल कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ होता है। कहने का अर्थ यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को जिसे अपनी मानवता के अभ्यास में बहुत अधिक अनुभव है, उसके स्वभाव में बदलाव अवश्य ही होगा; बहुत सम्भावना है कि यह तब होता है जब किसी व्यक्ति की प्रकृति के भीतर रहे शैतानी विषों में से कुछ परमेश्वर के ज्ञान और सच्चाई की उनकी समझ के कारण बदल जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि उन विषों को शुद्ध कर दिया जाता है और परमेश्वर द्वारा व्यक्त की गई सच्चाई व्यक्ति के भीतर जड़ पकड़ लेती है, उसका जीवन बन जाती है, और उसके अस्तित्व की नींव बन जाती है। तभी वह एक नया व्यक्ति बन जाता है, और इसीलिए उसका स्वभाव बदलता है। यह नहीं कहा जा रहा है कि उनके बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में नम्र हैं, कि वे अभिमानी थे लेकिन अब उनके शब्द उचित हैं, कि वे पहले किसी की भी नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात सुन सकते हैं-ये बाहरी परिवर्तन स्वभाव के परिवर्तन नहीं कहे जा सकते हैं। बेशक स्वभाव के परिवर्तन में ये स्थितियाँ शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि उनका आंतरिक जीवन बदल गया है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त की गई सच्चाई ही उनका जीवन बन जाती है, भीतर के कुछ शैतानी विष हटा दिए जाते हैं, व्यक्ति का दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल गया है, और इसमें से कोई भी संसार के जैसा नहीं है। वह स्पष्ट रूप से बड़े लाल अजगर की योजनाओं और विषों को देखता है; उसने जीवन का सच्चा सार समझ लिया है। इससे उसके जीवन के मूल्य बदल गए हैं-यह सबसे मौलिक परिवर्तन है और स्वभाव में बदलाव का सार है। इससे पहले लोग किस आधार पर रहते थे? सभी लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। परमेश्वर पर विश्वास, और उससे भी अधिक आशीर्वाद प्राप्त करना, अपने लिए किया जाता है। परमेश्वर के लिए चीजों को छोड़ देना, परमेश्वर के लिए स्वयं को लगाना और परमेश्वर के प्रति वफादार होना-ये सब स्वयं के लिए किया जाता है। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और यह आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही है कि कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है। हालांकि, जिन लोगों के स्वभाव में परिवर्तन हुआ है वे भिन्न होते हैं। कैसे उन्हें अर्थपूर्ण ढंग से रहना चाहिए, मानव कहलाने के लिये कैसे उन्हें एक व्यक्ति के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, कैसे उन्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, और कैसे उन्हें परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना और उसे संतुष्ट करना चाहिए-उनका मानना है कि यह एक मानव होने का आधार है और स्वर्ग और पृथ्वी के अपरिवर्तनीय सिद्धांतों के अनुसार, उनका दायित्व है। अन्यथा, वे मानव कहलाए जाने के योग्य नहीं होंगे, सब निरर्थक होगा, और वे खालीपन से परिपूर्ण होंगे। लोगों को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करने के लिए जीना चाहिए और एक सार्थक जीवन जीना चाहिए, ताकि जब वे मर भी जाएँ, तो वे जरा-से भी अफसोस के बिना संतुष्ट महसूस करेंगे, और वे व्यर्थ में जिए नहीं होंगे। इन दो प्रकार की परिस्थितियों की तुलना करने से, हम देखते हैं कि बाद वाला वह व्यक्ति है जिसका स्वभाव बदल गया है, और चूँकि उसका जीवन-स्वभाव बदल चुका है, जीवन पर दृष्टिकोण निश्चित रूप से बदल गया है। इन अलग मूल्यों के साथ, वह फिर कभी खुद के लिए नहीं जीएगा, और परमेश्वर पर उसका विश्वास फिर कभी अपने लिए आशीर्वाद पाने के उद्देश्य के लिए नहीं होगा। वह इसे कहने में सक्षम होगा, "परमेश्वर को जानने के बाद, मेरे लिए मृत्यु क्या है? परमेश्वर को जानने से मुझे एक सार्थक जीवन जीने की अनुमति मिली है। मैं व्यर्थ में नहीं जिया हूँ और मैं पछतावे के साथ नहीं मरूँगा-मुझे कोई शिकायत नहीं है।" क्या यह जीवन पर एक परिवर्तित दृष्टिकोण नहीं है? इसलिए, किसी के जीवन स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण सच्चाई का भीतर होना है, और परमेश्वर का ज्ञान होना है; जीवन पर एक व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाता है, और मूल्य पहले से भिन्न हो जाते हैं। यह परिवर्तन भीतर से, और जीवन से शुरू होता है; यह निश्चित रूप से सिर्फ एक बाहरी परिवर्तन नहीं है। कुछ नए विश्वासियों ने, परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, लौकिक संसार को पीछे छोड़ दिया है; जब वे अविश्वासियों से मिलते हैं तो वे कुछ नहीं बोलते हैं, और वे शायद ही कभी अपने रिश्तेदारों और मित्रों से मिलते हैं, और अविश्वासियों का कहना होता है, "यह व्यक्ति सचमुच बदल चुका है।" इसलिए वे सोचते हैं, "मेरा स्वभाव सचमुच बदल गया है- अविश्वासियों ने कहा है कि मैं बदल गया हूँ।" सच कहें तो, क्या उनके स्वभाव में वास्तव में बदलाव आया है? नहीं आया है। ये केवल बाह्य परिवर्तन हैं। उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, और उनकी पुरानी प्रकृति उनके भीतर बनी हुई है, पूरी तरह अछूती रही है। कभी-कभी, लोग पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से उत्साह की गिरफ़्त में आ जाते हैं; कुछ बाहरी परिवर्तन होते हैं, और वे कुछ अच्छे कर्म करते हैं। लेकिन यह स्वभाव में परिवर्तन के बराबर नहीं है। तुम बिना सच्चाई के हो, चीजों के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, यहाँ तक ​​कि यह अविश्वासी लोगों से भी अलग नहीं है, और जीवन के बारे में तुम्हारे मूल्य और दृष्टिकोण नहीं बदले हैं। तुम्हारे पास एक ऐसा हृदय भी नहीं है जो परमेश्वर का सम्मान करे, जो कि न्यूनतम है जिसे तुम्हारे पास होना चाहिए। तुम्हारे स्वभाव में बदलाव हुआ ही नहीं है। स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने के लिए, सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर की समझ का अनुसरण करना और उसके बारे में सच्ची समझ का होना। पतरस को देखो—जब परमेश्वर उसे शैतान को सौंपना चाहता था, तो उसने कहा, "तुम मुझे शैतान को दे सकते हो। तुम परमेश्वर हो, तुम सर्वशक्तिमान हो। सब कुछ तुम्हारे हाथों में है; तुम जो कुछ करते हो, उसके लिए मैं कैसे तुम्हारी प्रशंसा न करूँ? लेकिन इससे पहले कि मैं मर जाऊं अगर मैं तुम्हें जान सकूँ, तो वह बेहतर होगा।" उसने महसूस किया कि लोगों के जीवन में, परमेश्वर को जान लेना सबसे महत्वपूर्ण था; परमेश्वर को जान लेने के बाद किसी भी तरह की मृत्यु ठीक होगी, और जिस तरह भी परमेश्वर इसे संभाले, वह ठीक होगा। उसने महसूस किया कि परमेश्वर को जानना सबसे महत्वपूर्ण बात थी; यदि वह सच्चाई को प्राप्त नहीं करता है, तो वह कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता, लेकिन वह परमेश्वर से शिकायत भी नहीं करेगा। पतरस की इस भावना के साथ, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने की इतनी उत्कंठा के साथ, जीवन पर उसका दृष्टिकोण वास्तव में बदल गया। इस बयान से हम देख सकते हैं कि उसका स्वभाव बदल गया, वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसका स्वभाव बदला था, और इस अनुभव के अंत में, परमेश्वर ने कहा कि वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसे परमेश्वर की सर्वाधिक समझ थी, और वह एक ऐसा था जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता था।

अगर किसी के पास सच्चाई नहीं है, तो उसके स्वभाव को कभी भी बदला नहीं जा सकता है। यहाँ तक कि अगर वे कलीसिया में एक अगुआ हैं, वे एक अगुआ के वास्तविक काम को करने में सक्षम नहीं होंगे; वे केवल नाम मात्र के लिए कार्य करेंगे, और वे केवल प्रशासनिक काम कर रहे होंगे। केवल उन लोगों के पास सच्चाई है, जो सच्चाई और जीवन की आपूर्ति करने के लिए वास्तव में कलीसिया का सिंचन कर सकते हैं। अभी तुम लोग, अपने प्रवेश के समय, प्रशिक्षण काल में हो। जब वह समय आएगा कि तुम सच्चाई में वास्तव में प्रवेश कर चुके हो, केवल तब तुम अन्य लोगों की अगुआई करने में सक्षम होगे। जिनके पास सच्चाई है और जिनके जीवन-स्वभाव बदल गए हैं, केवल वे ऐसे अगुआ हैं जो उस नाम के योग्य हैं।

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