अगुआ बनने से इनकार करने के पीछे क्या है?

28 नवम्बर, 2024

क्रिस्टीना, यूएसए

जनवरी 2022 में, मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में काम करने के लिए चुना गया और मुख्य रूप से वीडियो बनाने की निगरानी का प्रभार सौंपा गया। उस समय मैं काफी उलझन में थी : एक तरफ मुझे अपने तकनीकी कौशल की कमी की चिंता थी, अगर मैं समर्पित होकर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाई, तो मैं बेनकाब हो जाऊँगी और मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ, अगर मैंने यह कर्तव्य निभाने से इनकार कर दिया, तो मुझे अपराध बोध होगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं उसका इरादा समझ सकूं। उस दिन, मैं एक भाई से मिली उसने मेरी अवस्था के बारे में सुनने के बाद मेरे साथ इस तरह संगति की : “तुम अगुआ के रूप में काम नहीं करना चाहती, इसकी मुख्य वजह यह है कि तुम्हें अपने भविष्य और नियति का ख्याल है। तुम्हें चिंता है कि तुम वास्तविक कार्य नहीं कर पाओगी, ऐसे में तुम्हें बेनकाब कर बर्खास्त कर दिया जाएगा। तुम्हारा यह नजरिया भी भ्रामक है कि अगुआ होना खतरनाक है, क्योंकि अगुआओं को बेनकाब कर हटाया जा सकता है। तुम परमेश्वर के प्रति सावधान हो और उसे गलत समझती हो। वास्तव में, कई अगुआओं के बेनकाब होने और हटाए जाने की वजह यह नहीं है कि वे उस पद पर थे, बल्कि यह है कि वे सत्य का अनुसरण करने और सही मार्ग पर चलने में नाकाम रहे और हमेशा रुतबे की चाहत में रहे और अंधाधुंध गलत काम करते रहे।” भाई की संगति से मैंने अपने सोचने के तरीके को ठीक से पहचाना और मुझे अपनी अवस्था के बारे में कुछ ज्ञान पाने में मदद मिली। फिर, मैंने खाने-पीने के लिए अपनी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की।

एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले : “जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत बहस, कुतर्क और अवज्ञा करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। ... वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपनी आशीषों की प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। ... ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों की किस्म के लोग एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देते हैं, जिसमें वे परमेश्वर के हाथों से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करते हैं। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और उचित चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इस हिसाब से देखें तो क्या मसीह-विरोधी दुष्ट नहीं हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं! यह उनकी दुष्टता की एक अभिव्यक्ति है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों ने उजागर किया कि कैसे मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। चाहे वे किसी भी परिस्थिति का सामना करें, वे हमेशा इसे अपने गंतव्य और आशीष की रोशनी में देखते हैं। यहाँ तक कि कर्तव्य में जरूरी बदलाव जैसे साधारण मामले में भी वे पूरी तरह समर्पण नहीं कर पाते, लेकिन इस बात पर विचार करते और तौलते हैं कि यह निर्णय उनके भविष्य की संभावनाओं को कैसे प्रभावित करेगा। अगर जरूरी बदलाव उनके हितों को साधता है और इससे उन्हें आशीष पाने में मदद मिलती है, तो वे इसे स्वीकार लेते हैं, लेकिन अगर यह बदलाव उनकी संभावनाओं और नियति को खतरे में डालता है, तो वे इससे बाहर निकलने का रास्ता खोजते हैं, वे डरते हैं कि कोई गलत कदम उठाने पर वे बेनकाब हो जाएँगे, निकाल दिए जाएँगे और उन्हें आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी। मैंने देखा कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार वास्तव में दुष्ट और धोखेबाज है! मैंने विचार किया कि मेरे कर्तव्य में जरूरी बदलाव के प्रति मेरा रवैया बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा था। जब मैंने सुना कि मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया है, तो सबसे पहले मैंने अपने भविष्य की संभावनाओं, नतीजों और गंतव्य के बारे में सोचा। मैंने यह देखने के लिए कर्तव्य का विश्लेषण किया कि क्या यह मेरे लिए लाभदायक होगा और अगुआ के रूप में सेवा शुरू करने से पहले ही, मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाने के सभी संभावित परिणामों पर विचार कर लिया। मैं परमेश्वर के प्रति संदेह और आशंका से भर गई थी और मैंने जरा भी समर्पण नहीं किया। मैंने कर्तव्य से बचने के लिए कुछ बड़े-बड़े बहाने भी सोचे—मैं कह सकती थी कि मेरे पास अगुआ बनने की काबिलियत नहीं है और मैं काम में देरी करूँगी। देखने में ऐसा लग सकता था कि मैं रुतबे की तलाश में नहीं हूँ और यह एकदम उचित है, लेकिन इन सबके पीछे एक अकथनीय मंशा थी : मैं एक अगुआ की जिम्मेदारियाँ उठाने से भयभीत थी और खराब काम करने पर बेनकाब होने और हटाए जाने का जोखिम भी था। इस तरह, मैं अपने भविष्य की संभावनाओं को सुनिश्चित करने के लिए कर्तव्य से बचना चाहती थी। परमेश्वर का इरादा हमें कर्तव्य का अभ्यास करने के अवसर देना है ताकि हमें सत्य समझने, वास्तविकता में प्रवेश करने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने और उद्धार पाने में मदद मिल सके। जब मुझे ऐसा अद्भुत अवसर दिया गया, तो मैं न सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह के लिए आभारी होने में नाकाम रही, मैंने वास्तव में परमेश्वर को गलत समझा और उससे आशंकित थी; मैं सौंपे गए कर्तव्य से बाहर निकलना और उसे ठुकरा देना चाहती थी। मैं वास्तव में स्वार्थी और धोखेबाज थी!

आगे बढ़ते हुए, मैंने अपने भ्रामक दृष्टिकोण से संबंधित परमेश्वर के वचनों के और अंशों की तलाश की। मुझे ये अंश मिले : “बताओ भला, एक बार भ्रष्ट लोगों को हैसियत हासिल हो जाए—चाहे वे कोई भी हों—तो क्या वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं? क्या यह परम सत्य है? (अगर वे सत्य नहीं खोजेंगे तो मसीह-विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य खोजते हैं तो मसीह-विरोधी नहीं बनेंगे।) यह पूरी तरह से सही है : यदि लोग सत्य का अनुसरण न करें, तो वे यकीनन मसीह-विरोधी बन जाएँगे। तो क्या जो लोग मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं, क्या वे ऐसा हैसियत के कारण करते हैं? नहीं, वे ऐसा मुख्यतः सत्य से प्रेम न होने के कारण करते हैं, क्योंकि वे सही लोग नहीं होते। लोगों के पास हैसियत हो या न हो, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे मसीह-विरोधी मार्ग पर चलते हैं। उन्होंने चाहे जितने भी उपदेश सुने हों, ऐसे लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, वे सही मार्ग पर नहीं चलते, बल्कि कुटिल मार्ग की ओर चलने पर तुले हुए हैं। यह कुछ वैसी ही बात है कि लोग कैसा खाना खाते हैं : कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते जो उनके शरीर को पोषण दे सके और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सके, बल्कि वे ऐसी चीजों का सेवन करने पर तुले रहते हैं जो उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं, अंत में, वे खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। क्या वे ऐसा खुद ही नहीं चुनते हैं? हटा दिए जाने के बाद, कुछ अगुआ और कर्मी यह कहकर धारणाएँ फैलाते हैं, ‘अगुआ मत बनना, और रुतबा हासिल मत करना। रुतबा मिलते ही लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उनका खुलासा कर देता है! खुलासा होने के बाद, वे लोग साधारण विश्वासी की पात्रता भी नहीं रखते, और उन्हें फिर किसी भी तरह का आशीर्वाद नहीं मिलता।’ यह किस तरह की बात हुई? हल्के में लें, तो यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी दर्शाती है; गंभीरता से लें तो यह ईश-निंदा है। यदि तुम सही मार्ग पर नहीं चलते, सत्य का अनुशीलन और परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, बल्कि मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने पर अड़े रहते हैं और पौलुस के मार्ग पर पहुँच जाते हो, तो अंततः तुम्हारा वही हश्र होता है, वही अंत होता है जो पौलुस का हुआ, फिर भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर को अधार्मिक कहते हो, तो क्या तुम मसीह-विरोधी होने के असली पात्र नहीं हो? ऐसे व्यवहार को धिक्कार है!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें)। “कुछ लोग सोचते हैं, ‘जो भी अगुआई करता है वह मूर्ख और अज्ञानी है और खुद अपने आप को बर्बाद कर रहा है, क्योंकि एक अगुआ के रूप में कार्य करने से लोग अनिवार्य रूप से परमेश्वर के सामने भ्रष्टता प्रकट करने को मजबूर हो जाते हैं। अगर वे यह काम नहीं करते तो क्या इतनी बड़ी भ्रष्टता सामने आती?’ कितना बेतुका विचार है! यदि तुम एक अगुआ के रूप में कार्य नहीं करते, तो क्या तुम भ्रष्टता का खुलासा नहीं करोगे? क्या अगुआ न होने का मतलब यह है कि भले ही तुम कम भ्रष्टता दिखाओ, तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया है? इस तर्क के अनुसार तो क्या वे सभी जो अगुआओं के रूप में सेवा नहीं करते, जीवित रह सकते हैं और बचाए जा सकते हैं? क्या यह कथन बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? जो लोग अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्गदर्शन देते हैं। यह उच्च अपेक्षा और मानक है, इसलिए यह अपरिहार्य है कि पहली बार प्रशिक्षण शुरू करने पर अगुआ कुछ भ्रष्ट अवस्थाएँ प्रकट करेंगे ही। यह सामान्य है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। इसकी निंदा करना तो दूर रहा, परमेश्वर इन लोगों को प्रबुद्ध और रोशन कर उनका मार्गदर्शन भी करता है, और उन पर अतिरिक्त बोझ डालता है। अगर वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं तो वे सामान्य लोगों की तुलना में जीवन में तेजी से प्रगति करेंगे। यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं तो वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं। यही वह चीज है जिस पर परमेश्वर का सबसे अधिक आशीष होता है। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं। मानवीय समझ के अनुसार चाहे कोई अगुआ कितना भी बदल जाए, परमेश्वर परवाह नहीं करेगा; वह केवल यह देखेगा कि अगुआ और कार्यकर्ता कितनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और इसके आधार पर ही उनकी निंदा करेगा। और जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं वे चूँकि भ्रष्टता प्रकट नहीं करते, इसलिए चाहे वे खुद को न भी बदलें तो भी परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? यदि तुम अपने हृदय में इतनी गहराई से परमेश्वर का विरोध करते हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तुम्हें नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों के परिणाम मुख्य रूप से इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य और सच्ची गवाही है या नहीं, और यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं या नहीं हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने अपराध के लिए न्याय और ताड़ना दिए जाने के बाद वे सच में पश्चात्ताप कर पाते हैं, तो जब तक वे ऐसे शब्द नहीं कहते या ऐसी चीजें नहीं करते हैं जिनसे परमेश्वर की ईशनिंदा हो, वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होंगे। तुम लोगों की कल्पनाओं के अनुसार सभी सामान्य विश्वासी जो अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, और जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं, उन सभी को हटा दिया जाना चाहिए। यदि तुम लोगों से अगुआ बनने के लिए कहा जाए, तो तुम सोचोगे कि ऐसा न करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन अगुआ के रूप में काम करना पड़ा तो अनजाने में ही भ्रष्टता प्रकट होगी और यह बिल्कुल अपनी गर्दन कटाने जैसी बात है। क्या यह सब सोचने का कारण परमेश्वर के बारे में तुम लोगों की गलतफहमियाँ नहीं है? यदि लोगों के परिणाम उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता के आधार पर निर्धारित किए जाते, तो किसी को भी नहीं बचाया जा सकता। उस स्थिति में परमेश्वर द्वारा उद्धार कार्य करने का क्या मतलब होगा? यदि सचमुच ऐसा ही हो तो परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ दिखेगी? मानवजाति परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने में असमर्थ रहेगी। इसलिए तुम सब लोगों ने परमेश्वर के इरादों को गलत समझा है, जो दर्शाता है कि तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों को इसलिए बेनकाब नहीं किया गया और हटाया नहीं गया क्योंकि वे अगुआ के रूप में सेवा कर रहे थे, बल्कि इसलिए क्योंकि वे रुतबा पाने के बाद सत्य का अनुसरण करने और सही मार्ग पर चलने में असफल रहे थे। इसके अलावा, उन्होंने कलीसिया के काम में बाधा डाली और उसे बिगाड़ा और दूसरों ने चाहे उन्हें कितना भी काटा-छाँटा हो, उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया—यही असली वजह है कि उन्हें बेनकाब किया गया और हटा दिया गया। परमेश्वर एक भ्रष्टता के बेनकाब होने या एक ही गलती के आधार पर लोगों की निंदा नहीं करता; वह उनके प्रकृति सार और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग को ध्यान में रखता है। भले ही हम कई मौकों पर अपने भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं और कुछ अपराध करते हैं, अगर हम सत्य की खोज और सच्चा पश्चात्ताप करेंगे, तो परमेश्वर हमें एक और मौका देगा। परमेश्वर केवल उन मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को हटाता है जो सत्य से विमुख हैं और जो सत्य से घृणा करते हैं और चाहे वे कितने भी अपराध करें, कभी पश्चात्ताप नहीं करते। मैंने उन झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें परमेश्वर ने अतीत में बेनकाब किया और हटाया था। कुछ लोग सिर्फ वचनों और धर्म-सिद्धांतों की बात करते थे और आदेश देते थे लेकिन वास्तविक मुद्दों को हल करने में नाकाम होते थे और अपने रुतबे के लाभों की लालसा करते थे। अंततः उन्हें झूठे अगुआ करार देकर बर्खास्त कर दिया गया। अन्य लोग काम करते समय सिर्फ रुतबा और प्रतिष्ठा चाहते थे, दूसरों के साथ प्रसिद्धि के लिए होड़ करते थे, मनमाने ढंग से लोगों को दबाते और सताते थे, कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाते थे और अपनी योजनाओं के अनुसार चलते थे, एक “स्वतंत्र राज्य” स्थापित करते थे, लोगों को फंसाते थे, पश्चात्ताप करने से पूरी तरह इनकार करते थे और अंततः वे मसीह-विरोधी राक्षसों के रूप में बेनकाब हुए और निष्कासित कर दिए गए। ये ऐसे लोग हैं जो बेनकाब होते हैं और हटा दिए जाते हैं। इसका एहसास होने पर मुझे समझ आया कि लोग इस आधार पर बेनकाब नहीं किए जाते और हटाए नहीं जाते कि वे क्या कार्य करते हैं, बल्कि इस आधार पर कि वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं और उनकी मानवता का सार अच्छा है या बुरा। अगर कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है और उसमें मानवता की कमी है, तो भले ही वह अगुआ न हो, वह अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाएगा; अगर वह काम करते समय हमेशा आलस करता है, अनमने ढंग से काम करता है और स्वीकार्य श्रम भी नहीं करता है, तो उसे भी अंततः हटा दिया जाएगा। मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया लोगों को बड़े सैद्धांतिक तरीके से संभालता और व्यवस्थित करता है, परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और कलीसिया सत्य और धार्मिकता से चलता है। हालाँकि, मैंने इस तथ्य को नहीं देखा था और मेरी यह भ्रामक सोच थी कि अगुआ होने से मैं बर्बाद हो जाऊँगी। मेरे विचार बहुत बेतुके थे!

एक बार अपनी भक्ति के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और शापित किए जाएँगे। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे और भी स्पष्टता महसूस हुई। किसी के कर्तव्य करने और आशीष पाने या शापित होने के बीच कोई संबंध नहीं है। इस तथ्य से निष्कर्ष निकलता है कि हम सृजित प्राणी हैं और हमें अपने कर्तव्यों को निभाना चाहिए। अगर कोई अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ है, तो उसे सृजित प्राणी नहीं कहा जा सकता। जैसे बच्चों के लिए अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सही और उचित है; चाहे वे अंततः उन्हें अपनी संपत्ति दें या न दें, बच्चों को अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने चाहिए। मेरे लिए अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया कैसा था? जब मैंने सोचा कि मुझे एक अगुआ के रूप में ज्यादा जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी और अगर मैंने खराब काम किया तो मेरी संभावनाएँ और भाग्य खतरे में होंगे, तो मैं कर्तव्य से बचने और इसे अस्वीकार करने के बहाने तलाशना चाहती थी। मैंने इस काम को एक ऐसी जिम्मेदारी या दायित्व नहीं माना, जिसे मुझे जरा-सा भी करना चाहिए। बल्कि मैंने उस काम को एक तरह का लेन-देन माना और उन्हें इस आधार पर चुना कि वे मेरे लिए आशीष लाएँगे या शाप। मेरे अंदर अपने कर्तव्य के प्रति उतनी भी समझ नहीं थी जितनी एक सृजित प्राणी में होनी चाहिए। इतना ही नहीं, भ्रमवश मैंने यह भी मान लिया चूँकि मैं पेशेवर नहीं हूँ और मेरे पास वीडियो प्रोडक्शन का तकनीकी कौशल नहीं है, इसलिए मैं अपना काम ठीक से नहीं कर पाऊँगी। फिर भी, परमेश्वर स्पष्ट कहता है : “वास्तव में, अगुआ होने के नाते, कार्य की व्यवस्था करने के बाद, तुम्हें कार्य की प्रगति का अनुवर्तन करना चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो तब भी—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई भी जानकारी न हो तब भी—तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो जो इस पर सचमुच पकड़ रखता हो, जो विचाराधीन पेशे को समझता हो, चीजों का पुनरीक्षण कर सकता हो और सुझाव दे सकता हो। उनके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांतों की पहचान कर सकते हो, और इस तरह तुम काम के अनुवर्तन में सक्षम हो सकते हो(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने सीधे मेरी धारणाओं का खंडन कर दिया—परमेश्वर ने कभी नहीं चाहा कि अगुआ बनने के लिए हमें किसी क्षेत्र विशेष में हर तकनीकी कौशल में महारत हो। भले ही हमें किसी क्षेत्र-विशेष में कोई पेशेवर अनुभव न हो, हम हमेशा तकनीकी ज्ञान वाले भाई-बहनों से सहयोग पा सकते हैं और इस तरह सिद्धांतों की तलाश कर हम काम करने में सक्षम होंगे, अगर फिर भी हम कुछ न समझ पाएँ, तो वरिष्ठ अगुआओं की मदद ले सकते हैं। लेकिन अगर मैंने अपनी जान लगा दी और पूरी कोशिश की, फिर भी मेरा ओहदा बहुत छोटा पड़े, मेरी काबिलियत में कमी रहे और मैं इस काम के लिए जरा भी लायक नहीं रहूँ, तो मैं इस्तीफा दे सकती थी और अलग काम ले सकती थी। परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, मुझे इस मामले में बहुत स्पष्टता महसूस हुई और मैंने अपनी चिंता और घबराहट छोड़ दी।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अन्य अंश मिले जो कहते हैं : “जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर की इच्छाओं को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। क्या वह आपदा से खुद को बचाने में सहायता करने के लिए यह कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने में कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। “एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना नूह ने परमेश्वर के बहुत वचन नहीं सुने थे और उसने पहले कभी जहाज नहीं बनाया था, लेकिन जब परमेश्वर का आदेश हुआ, तो उसने उसका विश्लेषण या जाँच नहीं की और उसने परमेश्वर की इच्छाओं का अनुमान लगाने की कोशिश नहीं की। बल्कि उसने बस आज्ञा मानी, उसने समर्पण किया और परमेश्वर ने जो भी करने को कहा वह किया, बिना यह सोचे कि इसका उसके हितों पर क्या असर होगा। नूह की मासूमियत और ईमानदारी का मुझ पर गहरा असर हुआ और मैंने काफी शर्मिंदगी और लज्जित महसूस किया। मैंने सोचा कि कैसे मेरे भाई-बहनों ने मुझे अगुआ चुना था, लेकिन जब इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य सामने आया, तो मैं सिर्फ अपने हितों के बारे में सोच रही थी और मैंने उन सभी संभावित नतीजों पर भी विचार किया जो इस कर्तव्य को निभाने से हो सकते थे। मैंने देखा कि मैं कितनी धोखेबाज थी—नूह जैसे इंसान की तुलना में मेरी मानवता कुछ भी नहीं थी। इस तरह के रवैये से मैं अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकती थी? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें कहा गया है : “किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे गहराई से छुआ—मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने भविष्य की संभावनाओं पर सोचना बंद करना होगा। मुझे अगुआ के रूप में चुना गया था, इसलिए मुझे परमेश्वर के इरादे पर विचार करना चाहिए, इस बड़ी जिम्मेदारी को लेने का साहस करना चाहिए और अपने कर्तव्य को ईमानदारी और शुद्ध हृदय से पूरा करने में नूह का अनुकरण करना चाहिए। पहले मुझे पता नहीं पता था कि अपना काम कहाँ से शुरु करूँ, इसलिए मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी। मुझे अपनी साथी बहन से धैर्यपूर्वक समर्थन और अन्य भाई-बहनों से प्रोत्साहन मिलता था। जब कभी जब मेरे सामने मुश्किलें आतीं, तो मैं उन भाई-बहनों को खोजती जिन्हें अपने काम में अच्छे नतीजे मिले थे, वे खुले दिल से वो सिद्धांत बताते जो उन्होंने समझे थे और जो प्रभावी तरीके मेरे साथ अपनाए थे। मैं बहुत प्रभावित हुई। धीरे-धीरे, मैंने कुछ सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को समझना शुरू किया और अपने काम में और अधिक प्रभावी हो गई। मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस किया और परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से आभारी हुई। मुझमें अभी भी कई कमियाँ हैं और मैं जानती हूँ कि मुझ पर बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन मैं अब पीछे हटना नहीं चाहती—मैं सुधार के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखूँगी!

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