हमेशा लोगों को खुश करने से क्या होता है
मैं कलीसिया में सुसमाचार का काम देखती हूँ। बहन वांडा और मैं समूह अगुआओं के तौर पर मिलकर काम करते हैं। शुरू-शुरू में, मैंने देखा कि वांडा अपना काम पूरे जोश से करती थी और काफी प्रभावी थी। मुझे लगा कि वह दायित्व निभाने वाली एक जिम्मेदार इंसान है। लेकिन फिर धीरे-धीरे वह अपने काम में निष्क्रिय होती चली गई। समस्याएँ हल करना तो दूर, उसने उन पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। पहले जब हम अपने काम का सार प्रस्तुत करते थे, तो वह आकर मुझे समस्याओं या भटकावों का सार बताती थी और चर्चा करती थी कि उन्हें कैसे हल करना है। लेकिन इस बार उसकी तरफ से एकदम सन्नाटा था। आम तौर पर, हम अपने समूह में काम का बड़ा हिस्सा साथ मिलकर पूरा करते थे और समय पर समस्याओं का सार प्रस्तुत करते थे। इससे समस्याएँ बेहतर ढंग से हल होती थीं और काम की प्रभावशीलता भी सुधरती थी। लेकिन अब वांडा समूह की समस्याओं पर पूरे दिल से ध्यान नहीं दे रही थी। मुझे लगा, "वह समूह अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रही है। यह स्वीकार्य नहीं है, मुझे इसके बारे में उसके साथ संगति करनी होगी।" लेकिन फिर ख्याल आया, "वांडा के साथ मेरे काफी अच्छे संबंध हैं। अगर मैं उसे सीधे कह दूं कि वह सिर्फ हल्का-फुल्का दायित्व ही निभा रही है और कोई वास्तविक काम नहीं कर रही, कहीं वह शर्मिंदा तो नहीं होगी? अगर मेरे ऐसा कहने से माहौल बिगड़ता है, तो फिर हम साथ काम कैसे कर पाएँगे? जाने दो। मैं क्यों जोखिम उठाऊँ। उसे परेशान करना ठीक नहीं।" उस वक्त, मैं मन ही मन लगातार खुद को कोस रही थी, "क्या इस दौरान बहन वांग की स्थिति खराब नहीं चल रही? ऐसा ही चलता रहा तो उसका जीवन कष्टमय होगा और उसके काम पर भी बुरा असर पड़ेगा। क्या मुझे जल्दी ही उसके साथ संगति नहीं करनी चाहिए? लेकिन अगर मैं सीधे ही कह दूँ कि वह दायित्व नहीं निभा रही, तो क्या वह इस बात से बेबस महसूस नहीं करेगी कि मैं उसके काम पर नजर रखती हूँ? शायद सिर्फ अगुआ को बताना काफी है ताकि वह वांडा की मदद कर सके। तब मुझसे उसकी कोई नाराजगी नहीं होगी।" लेकिन फिर सोचा, "अगर मैं अगुआ से कहूँ और वांडा को पता चला, वह ऐसा तो नहीं कहेगी कि मैं चुगली कर रही हूँ? नहीं, कुछ न कहना ही बेहतर है।" इसी उधेड़बुन के चलते मुझे इस मामले में कोई तसल्ली नहीं मिली। ऐसी मानसिक स्थिति के चलते मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि सत्य खोजने में मुझे राह दिखाए ताकि मेरी समस्या का समाधान हो सके।
एक बार एक सभा में मैंने परमेश्वर के ये वचन सुने, "जब तुम लोग कोई समस्या देखते हो, उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते, उसके बारे में संगति नहीं करते, उसे सीमित करने की कोशिश नहीं करते और इसके अलावा, तुम उसे अपने वरिष्ठों को रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि 'नेक व्यक्ति' होने का नाटक करते हो, तो क्या यह विश्वासघात की निशानी है? क्या नेक लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं? बिल्कुल नहीं होते। ऐसा व्यक्ति न केवल परमेश्वर के प्रति विश्वासघाती होता है, बल्कि वह शैतान का सहयोगी, उसका अनुचर और अनुयायी होता है। वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी में निष्ठावान नहीं होते, बल्कि शैतान के प्रति वफादार होते हैं। समस्या का सार इसी में निहित है। जहाँ तक व्यावसायिक अयोग्यता की बात है, अपना कर्तव्य निभाते हुए निरंतर सीखना और अपने अनुभवों को एक-साथ लाना संभव है। ऐसी समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है। परंतु जिस चीज़ का हल निकालना सबसे कठिन है, वह है मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव। अगर तुम सत्य का अनुसरण या अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं करते, बल्कि हमेशा अच्छे व्यक्ति होने का दिखावा करते हो, और उन लोगों से नहीं निपटते या उनकी मदद नहीं करते जिन्हें तुमने सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखा है, न ही उन्हें उजागर या प्रकट करते हो, बल्कि हमेशा पीछे हट जाते हो, जिम्मेदारी नहीं लेते, तो तुम जैसे कर्तव्य निभाते हो, उससे केवल कलीसिया के काम का नुकसान और उसमें देरी ही होगी" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। "लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? सत्य का अभ्यास करना खोखले शब्द बोलना और निर्धारित वाक्यांशों का पाठ करना नहीं है। जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी चीज से हो, यदि यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और तब उन्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए; इस तरह का अभ्यास करने वाले ही सत्य के मार्ग पर चलते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना और सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से बातचीत करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि तुम्हें किसी को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए, बल्कि शांति बनाए रखनी चाहिए और किसी को भी शर्मिंदा करने से बचना चाहिए, ताकि भविष्य में, हर कोई साथ मिलकर चल सके। इस दृष्टिकोण के दायरे में, जब तुम किसी को कुछ बुरा करते हुए देखो, गलती करते हुए देखो या कोई ऐसा कार्य करते हुए देखो जो सिद्धांतों के विरुद्ध हो, तो तुम उस व्यक्ति के साथ इस मामले को उठाने के बजाय, उसे सह लोगे। अपने दृष्टिकोण से सीमित होकर, तुम किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। तुम किसी के साथ भी जुड़ो, चूँकि तुम प्रतिष्ठा, भावनाओं या बरसों के मेलमिलाप से विकसित हुए जज्बात के विचारों से बाधित हो, तुम हमेशा उस व्यक्ति को खुश करने के लिए अच्छी-अच्छी बातें कहोगे। जहाँ तुम्हें कुछ चीजें असंतोषजनक लगती हैं, तुम उन्हें सह लेते हो। तुम अकेले में अपनी भड़ास निकाल लेते हो, उसकी आलोचना कर लेते हो, लेकिन जब उससे मुलाकात होती है, तो तुम उसके साथ अपने संबंध खराब नहीं करते बल्कि मधुरता बनाए रखते हो। ऐसे आचरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या ऐसा व्यक्ति जी-हुजूरी करने वाला नहीं है? क्या यह अस्थिर होना नहीं है? यह आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन है; तो क्या इस तरह से कार्य करना नीचता नहीं है? ऐसा करने वाले न तो अच्छे लोग होते हैं और न ही नेक होते हैं। तुमने चाहे कितने भी कष्ट सहे हों, कोई भी कीमत चुकाई हो, यदि तुम्हारा आचरण सिद्धांतों से रहित है, तो तुम असफल हो गए हो और परमेश्वर के सामने तुम्हें कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी, न तो परमेश्वर तुम्हें याद करेगा और न ही वह तुमसे प्रसन्न होगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना, मेरा यह दृष्टिकोण एकदम गुमराह करने वाला है कि लोगों से हमेशा मधुर संबंध बनाए रखने चाहिए। अगर मैं लोगों की गलतियाँ उजागर करती रहूँगी, तो इससे वे नाराज होंगे, उनके आत्म-सम्मान और हमारे संबंध दोनों को ठेस पहुंचेगी, जिससे साथ काम करना मुश्किल हो जाएगा। जब मैंने इस दृष्टिकोण की तुलना परमेश्वर के वचनों से की, तो देखा कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है और एक इंसान होने के सिद्धांतों के विरुद्ध भी है। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच, अस्थिर और धोखेबाज होते हैं। ऐसे लोग मधुर संबंध बनाए रखने के लिए किसी के साथ समस्या होने पर चुप रहते हैं, बस उसकी चापलूसी और प्रशंसा करते रहते हैं। वे मेलजोल में निष्ठाहीन होते हैं और सच्ची मदद नहीं करते, बल्कि वे लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में नीच होते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। जैसा कि वांडा के साथ मेरा व्यवहार था—मुझे साफ दिख रहा था कि वह अपने काम का कोई दायित्व नहीं उठा रही और वास्तविक कार्य नहीं कर रही है, लेकिन मैंने उसे उसकी समस्याएँ न बताकर सत्य का अभ्यास नहीं किया। मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं उसकी समस्या बता सकूं। मुझे तो बस बहन के साथ मधुर संबंध बनाए रखने की फिक्र थी। मुझे लगता था कि किसी की समस्याओं को उजागर करने से उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। हालाँकि इससे काम पर असर पड़ रहा था, फिर भी मैं देह-सुख को नकारकर सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं थी। मैं एक कपटी खुशामदी थी! पता चलने पर भी मैंने बहन की समस्या उजागर नहीं की। हालाँकि मैंने अपने संबंध बनाए रखे, लेकिन इससे उसके जीवन प्रवेश को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि कलीसिया का सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ। ऐसा करके, मैं लोगों को और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा रही थी।
इसके बाद, मैंने विचार किया कि लोगों के साथ मेलजोल के सिद्धांत क्या होने चाहिए। इस पर परमेश्वर के वचन कहते हैं, "तुम लोगों को सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—तभी तुम जीवन में प्रवेश कर सकते हो, जीवन में प्रवेश करने के बाद ही तुम दूसरों का पोषण और अगुआई कर सकते हो। अगर यह पता चले कि दूसरों के कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो हमें प्रेम से सत्य के लिए प्रयास करने में उनकी मदद करनी चाहिए। अगर दुसरे लोग सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों, और उनके काम करने के तरीके में सिद्धांत हों, तो हमें उनसे सीखने और उनका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। यही पारस्परिक प्रेम है। कलीसिया के अंदर तुम्हें इस तरह का परिवेश रखना चाहिए—हर कोई सत्य पर ध्यान केंद्रित करे और उसे पाने का प्रयास करे। लोग कितने भी बूढ़े अथवा युवा हों या वे पुराने विश्वासी हों। न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम है। इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। सत्य के सामने सभी बराबर हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि सही और सत्य के अनुरूप कौन बोल रहा है, परमेश्वर के घर के हितों की कौन सोच रहा है, कौन सबसे अधिक परमेश्वर के घर का कार्यभार उठा रहा है, सत्य की अधिक स्पष्ट समझ किसे है, धार्मिकता की भावना को कौन साझा कर रहा है और कौन कीमत चुकाने को तैयार है। ऐसे लोगों का उनके भाई-बहनों द्वारा समर्थन और सराहना की जानी चाहिए। ईमानदारी का यह परिवेश, जो सत्य का अनुकरण करने से आता है, कलीसिया के अंदर व्याप्त होना चाहिए; इस तरह से, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा, और परमेश्वर तुम्हें आशीष और मार्गदर्शन प्रदान करेगा" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। कलीसिया में सत्य का शासन चलता है; कलीसिया के सदस्यों को अपने मेलजोल में सत्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। अगर कोई सिद्धांतों का उल्लंघन करे, तो उसके साथ प्रेम से पेश आते हुए उसका निपटान और मदद करनी चाहिए ताकि वह सत्य के प्रति प्रेरित हो सके। जो भी सत्य के अनुसार बोलता और कार्य करता है, वह ईमानदार है और कलीसिया के काम की रक्षा करता है, तो उसका समर्थन और रक्षा करनी चाहिए। जब हर कोई सत्य खोजकर उसका अभ्यास करेगा और कलीसिया में सत्य का बोलबाला होगा, तभी पवित्र आत्मा अपना कार्य कर सकता है। इन बातों को समझ लेने पर, मेरा मन प्रफुल्लित हो गया, अब मेरे पास अभ्यास का एक मार्ग था। मुझे यह भी ख्याल आया कि दरअसल, परमेश्वर का हर सच्चा विश्वासी अपना कार्य अच्छे से करते हुए उसके प्रेम का प्रतिफल देना चाहता है। लेकिन काम के दौरान कोई भी अपनी भ्रष्टता और कमियाँ दिखाने से बच नहीं सकता। भाई-बहनों को इस पर एक-दूसरे की मदद और सुधार करना चाहिए। किसी की समस्या बताकर उजागर करना उसे शर्मिंदा करने के लिए नहीं किया जाता और न ही उस पर हमला करने के लिए, बल्कि इसलिए कि उसे समस्याएँ समझने में मदद मिले और वह अपनी गलत स्थिति में सुधार करे। यही सच्चा प्यार और आपसी प्रेम की अभिव्यक्ति है। इससे कलीसिया के काम की रक्षा होती है। इसके विपरीत, जब तुम दूसरों की समस्या देखकर भी मौन रहते हो, अपने हितों की रक्षा के लिए शैतान के फलसफे पर चलते हो, तो यह लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया कार्य के प्रति गैर-जिम्मेदाराना हरकत है। इस तरह जीना स्वार्थ और नीचता है। मैंने वांडा के साथ अपने मेलजोल पर विचार किया। मैंने उसके कार्य में समस्याएँ देखीं, लेकिन उसे कोई मदद नहीं की क्योंकि मुझे केवल अपनी छवि बचाने की चिंता थी, मैंने न तो उसके जीवन प्रवेश का सोचा, न ही कलीसिया के काम के बारे में सोचा। मैं स्वार्थी और नीच थी, मुझमें कोई इंसानियत नहीं थी! मैंने खुद को फटकारा, मैं परमेश्वर के वचनों का पालन करने और बहन के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने को तैयार हो गई।
मैंने वांडा के पास जाकर उससे खुलकर संगति की। एक-एक कर उसकी सारी समस्याएं बताईं। वह परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर भावुक हो गई, और बोली कि हाल ही में उसकी स्थिति बहुत खराब थी, प्रार्थना के दौरान भी उसके पास कहने को कुछ नहीं था। यह सुनकर मैं चौंक गई और खुद को दोषी ठहराया। अगर मैंने उसे यह बात बताकर तुरंत उसकी मदद की होती, तो शायद वह अपनी गलत स्थिति में सुधार ले आती और उसके काम पर कोई बुरा असर न पड़ता। मैंने देखा कि मैं सत्य का अभ्यास न करके और खुशामदी बनकर, बहन के साथ अपने संबंधों को बचा रही थी, दरअसल मैं उसको नुकसान पहुंचा रही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और संकल्प लिया कि भविष्य में लोगों के साथ मेलजोल में मैं सत्य के अभ्यास पर ध्यान दूंगी अगर कोई समस्या दिखाई दी तो मैं उसके बारे में बताऊंगी और खुशामदी बनने के बजाय तुरंत मदद करूंगी।
तब से वांडा अपने कर्तव्य में अधिक सक्रिय हो गई। लेकिन कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वह अपने काम में सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। अगर कोई बुरी मानवता वाला इंसान हो और सुसमाचार साझा करने के सिद्धांतों के अनुरूप न हो, तो भी वह उसके साथ सुसमाचार साझा कर मेहनत बर्बाद करती है। मैं उलझन में पड़ गई। वांडा काफी समय से सुसमाचार का प्रचार कर रही थी। उसे सिद्धांतों के हर पहलू की बेहतर समझ होनी चाहिए। वह इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकती थी? क्या उसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ? शायद मुझे उसे चेताना चाहिए। पर फिर मैंने सोचा, "मैं पहले भी उसकी मदद कर चुकी हूँ। उसे बार-बार सुधारना ठीक नहीं। इससे परेशानी होगी। अगर मैं उसे बार-बार सुधारूँगी, तो कहीं वह ऐसा न सोचे कि मैं अहंकारी इंसान हूँ, हमेशा दूसरों की समस्याओं में मीन-मेख निकालती हूँ या मैं लोगों से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करती हूँ? इससे तो मेरी छवि खराब ही होगी। मुझे इसे ऐसे ही छोड़ देना चाहिए।" इस तरह, मैंने देखा कि काम के दौरान वांडा की स्थिति और हालत ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी मैंने आंखें मूंद लीं, न तो उस ओर इशारा किया और न ही उसकी मदद की। कुछ समय बाद, वांडा को बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह काफी समय से अपने काम में सुस्त और अप्रभावी थी। मैंने खुद को दोषी माना। मुझे साफ तौर पर पता था कि बहन के काम में समस्याएँ हैं, लेकिन फिर भी मैंने ध्यान नहीं दिया। मैंने आंखें मूंद लीं, न तो उसे चेताया और न ही उसकी कोई मदद की। उसकी बर्खास्तगी के लिए क्या मैं भी जिम्मेदार नहीं थी? मुझे दुख हुआ और समझ नहीं आया कि क्या करूँ। मैं हमेशा लोगों की खुशामद करती हूँ, मैं सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाती? इस समस्या की जड़ क्या थी?
आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने पर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "जीवन जीने के दर्शनों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, 'अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।' इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—दूसरे की गरिमा पर हमला न करने या उनकी कमियाँ उजागर न करने के सिद्धांत बनाए रखने चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपने मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। चूँकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे द्वारा दोष उजागर किए जाने या चोट पहुँचाए जाने के बाद दुश्मन बनकर कोई तुम्हें किस तरह से नुकसान पहुँचाएगा, और तुम खुद को ऐसी स्थिति में नहीं डालना चाहते, इसलिए तुम जीवन जीने के दर्शनों के ऐसे सिद्धांत इस्तेमाल करते हो, 'किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों को कभी छोटा मत कहो।' इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, वे एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिलकुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न वे जो चाहते हैं वह कह सकते हैं, न ही जो उनके दिल में होता है, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, उन्हें जोर से कह सकते हैं। इसके बजाय, वे कर्णप्रिय शब्दों का चयन करते हैं, ताकि दूसरे को चोट न पहुँचे। वे दुश्मन नहीं बनाना चाहते। इसका लक्ष्य अपने आसपास के लोगों को खतरा न बनने देना है। जब कोई उनके लिए खतरा नहीं बन रहा होता, तो वे अपेक्षाकृत आराम और शांति से रहते हैं। क्या 'किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ' इस वाक्यांश का प्रचार करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, और जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे कुछ भी कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, स्वार्थी और रणनीतिक होते हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? इसके मूल में, 'किसी की कमजोरी पर प्रहार मत करो, और दूसरों की कमियाँ मत गिनाओ' का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (8))। "मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में इन फलसफों से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही उनके बारे में अवगत नहीं होते और उन्हें नहीं समझते; फिर भी तुम्हारे जीवन का हर पल इन चीजों पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि ये फलसफे बहुत सही और तर्कसम्मत हैं, और बिलकुल भी गलत नहीं है। यह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान के फलसफे लोगों की प्रकृति बन गए हैं और वे पूरी तरह से उनके अनुसार जी रहे हैं, इस तरह से जीने को अच्छा मानते हैं और उनमें जरा-सा भी पश्चात्ताप का भाव नहीं होता। इसलिए, वे लगातार अपनी शैतानी प्रकृति प्रकट कर रहे हैं, और हर पहलू से वे निरंतर शैतानी फ़लसफ़े के अनुसार जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है, और वह मनुष्य की प्रकृति और सार है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के जरिए, मैं समझ गई। मेरे खुशामदी होने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि मैं शैतान के हाथों बुरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी थी। मेरे अंदर शैतान के फलसफे और नियम भरे हुए थे, जैसे "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए," और "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," आदि। ये चीजें मेरे जीवन का मूल मंत्र बन चुकी थीं। इन शैतानी फलसफों के अधीन, मुझे लगता था कि अपनी कथनी और करनी से लोगों को नाराज न करना, अच्छे संबंध और शांति बनाए रखना जीने का एक बुद्धिमान तरीका है। वांडा को अपने कर्तव्य में लापरवाही और सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखकर और इसका उसके काम पर असर पड़ते देखकर भी, मैं उसे उजागर करने या सुधारने को तैयार नहीं थी। मैंने अपने संबंधों को बनाए रखने के लिए सुसमाचार कार्य का नुकसान होने दिया। मैं शैतान के फलसफों से इतनी ज्यादा चिपकी हुई थी कि सत्य का अभ्यास ही नहीं कर पा रही थी, मेरे अंदर नाम-मात्र को भी विवेक या समझ नहीं थी! परमेश्वर के वचन कहते हैं, "स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, और जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है।" मैं अंदर तक हिल गई। परमेश्वर के वचनों ने सही जगह चोट करके शैतानी फलसफों के अनुसार जीने के मेरे नीच इरादों को उजागर कर दिया। पहले मुझे लगता था कि बहन को न सुधार पाने का कारण यह है कि ऐसा करने से कहीं वह बेबस न महसूस करे। लेकिन दरअसल, यह मेरे लिए सत्य का अभ्यास न करने का सिर्फ एक बहाना था। मुझे लगता था, अगर मैं उसे बार-बार टोकूँगी, तो वह नाराज हो जाएगी, मुझे अहंकारी समझेगी और सोचेगी कि मुझे मीन-मेख निकालने की आदत है और मैं लोगों से उचित व्यवहार नहीं कर सकती। मैंने उसकी समस्याओं से आंखें मूंद लीं, ताकि उसकी नजर में मेरी छवि अच्छी बनी रहे, नतीजा यह हुआ कि वह भ्रष्टता में ही जीती रही और अपने आपसे अनजान बनी रही। मैं औरों के साथ अपने मेलजोल में सच्ची नहीं थी, बस दिखावा करने और चालें चलने में लगी रहती थी। मैं बेहद अस्थिर और धोखेबाज थी! मैंने सोचा कि जब मैं वांडा के साथ मिलकर काम कर रही थी, तो उस तरह सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी जैसे करना चाहिए था और अपनी जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा रही थी। अब उसे बर्खास्त कर दिया गया था और मुझे बेहद अफसोस था। मैंने अनुभव किया कि कैसे शैतानी फलसफे के अनुसार जीना लोगों और खुद को आहत करता है। जीवन नीच और निंदनीय हो जाता है। मैं अब उन फलसफों के अनुसार नहीं जीना चाहती थी। मैं सत्य खोजकर कर्तव्य-निर्वहन करना चाहती थी।
बाद में, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "थोड़ा और सटीक कहूँ तो : ईमानदार व्यक्ति होना ऐसा व्यक्ति होना है, जो सरल और खुला होता है, जो खुद को छिपाता नहीं, जो झूठ या परोक्ष रूप से नहीं बोलता, जो सीधा व्यक्ति है, जिसमें न्याय की भावना है और जो ईमानदारी से बोलता है। यह पहली चीज है, जिसे करने की जरूरत है। ... धोखेबाज लोग वे होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। अगर तुम शैतान का प्रभाव दूर करना और बचाए जाना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होने, सच्ची और वास्तविक बातें कहने, भावनाओं से विवश न होने, खुद को ढोंग और छल से मुक्त करने और सिद्धांतों के साथ बोलने और कार्य करने से शुरुआत करनी चाहिए। इस तरह जीना आजाद और सुखी होना है, और तुम परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होते हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। "मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है जो शुद्ध, सच्चे और ईमानदार होते हैं, जो सीधी बात करते हैं, अपनी कथनी और करनी में धोखेबाज नहीं होते। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने योग्य होते हैं। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा तय किया गया है। जरा सोचो कि कैसे गैर-विश्वासियों की दुनिया में, सारा मेलजोल बस एक दिखावा होता है। दूसरों के सामने केवल मनभावन और चापलूसी भरी बातें बोली जाती हैं। ईमानदारी का एक शब्द नहीं होता। जब बातें जमीर और नैतिकता के विरुद्ध होती हैं, तब अधिकांश लोग अपनी रक्षा करने का विकल्प चुनते हैं, सोचते हैं कि मधुमक्खी के छत्ते में कौन हाथ डाले। उनमें ईमानदारी का एक शब्द बोलने की हिम्मत नहीं होती। वे पाखंडी और विश्वासघाती होते हैं, उनमें निष्ठा या दृढ़ता नहीं होती। मैं भी जब लोगों के साथ बातचीत करती तो इन्हीं शैतानी फलसफों का सहारा लेती। कोई समस्या दिखने पर मैं उसे उजागर या कोई मदद न करती। बस लोगों के साथ अपने संबंधों की हिफाजत करती। इस तरह जीना बहुत अस्थिर और धोखेबाज होना है। परमेश्वर को इससे चिढ़ और घृणा है। इस बिंदु पर मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर पवित्र है और उसका सार विश्वसनीय है। देहधारी परमेश्वर लोगों के साथ वास्तविक रूप से मेलजोल कर रहा है। वह सत्य व्यक्त कर रहा है, न्याय कर रहा है और हर समय हर जगह लोगों को उजागर कर रहा है, यह सब वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाओं के अनुसार कर रहा है। विशेष रूप से, परमेश्वर के न्याय और उजागर करने वाले वचन सीधे हमारी भ्रष्टता के मूल और सार पर प्रहार कर रहे हैं। हालाँकि उसके वचन कठोर और कटु हैं, लेकिन वे ऐसे इसलिए हैं ताकि हम स्वयं को जानें, पश्चात्ताप करें और खुद को बदलें। परमेश्वर के वचन दृढ़ और स्पष्ट हैं। वे दिल से निकले वचन हैं। परमेश्वर का हृदय लोगों के प्रति बेहद ईमानदार और विश्वसनीय है। अगर परमेश्वर ने हमें साफ तौर पर ये वचन न दिए होते, अगर शैतान के हाथों हमारी भयंकर भ्रष्टता की सच्चाई उजागर न की होती, तो हम खुद को कभी न जान पाते। फिर हम अपने आपको अच्छा मानकर अपनी ही कल्पनाओं में जी रहे होते। हमारा भ्रष्ट स्वभाव कभी न बदलता और हम कभी भी उद्धार प्राप्त न कर पाते। परमेश्वर को लगता है कि हम उसके न्याय और उजागर करने वाले वचनों से अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को पहचान सकते हैं और उसके सामने पश्चात्ताप कर उसके वचनों के अनुसार जीते हुए एक ईमानदार इंसान बनने का प्रयास कर सकते हैं। यह लोगों के प्रति परमेश्वर का प्रेम है। इन सब पर विचार कर, मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला। मैंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करते हुए एक शुद्ध, सच्चा और ईमानदार व्यक्ति बनने का संकल्प लिया।
एक बार अगुआ, बहन बेलिंडा, हमारे साथ काम पर चर्चा कर रही थी। मुझे लगा उसने जो काम सौंपा है उसमें एक भटकाव है और मैं उसे बताना चाहती थी। लेकिन फिर सोचा, "यह बहन अगुआ है। अगर मैंने उसके काम में कोई चूक या भटकाव बताया, तो क्या वह शर्मिंदा होगी? अगर उसे लगा कि मैं उसके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कर रही हूँ और बाद में उसने मुझसे बदला लिया तो? मैंने सोचा जाने दो, कुछ नहीं कहना चाहिए। गलतियां तो सबसे होती हैं।" तब मुझे लगा कि मेरी खुशामदी प्रवृत्ति फिर से सिर उठा रही है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह सत्य के सिद्धांतों का अभ्यास करने में मेरा मार्गदर्शन करे। बाद में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "अगर तुम्हारे पास एक 'नेक व्यक्ति' होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम गैर-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, तुम्हें समर्थ बनाए कि तुम सिद्धांत का पालन करो, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीजों को सिद्धांत के अनुसार संभालो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक 'नेक व्यक्ति' होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखते हो और कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, सिद्धांतों का पालन नहीं करते, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुममें न तो आस्था होगी और न ही शक्ति होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य की वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि अगर लोग शैतानी फलसफों के सहारे जीते हुए लोगों की खुशामद करते रहेंगे, तो उन्हें कभी सत्य नहीं मिलेगा और अंततः कभी उनका उद्धार नहीं होगा। साथ ही, मैं यह भी समझ गई कि अगर तुम खुशामदी होने की आदत से बचना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना होगा, हिम्मत माँगनी होगी, देह-सुख त्यागना होगा, निजी हितों को छोड़कर कलीसिया के कार्य पर विचार करना होगा। इस तरह अभ्यास करने से, तुम धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाधाओं से छुटकारा पा सकते हो। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं हो, तो तुम्हें उजागर करके त्याग दिया जाएगा। यह सोचकर मुझे सत्य का अभ्यास करने का साहस और प्रेरणा मिली। मैं खुशामदी बनकर नहीं रह सकती जिसमें न विवेक हो और न ही मानवता। मैंने अपनी अगुआ के आगे इस मुद्दे को उठाया। उसे बताने के बाद, मुझे बड़ी राहत मिली। बाद में एक सभा में, अगुआ ने ऐसी समस्या आने पर अपने चिंतन और उससे मिले लाभों पर संगति की। बहन के अनुभव और एहसास के बारे में सुनकर मुझे बहुत प्रेरणा मिली और मैंने सत्य का अभ्यास करने की मिठास का अनुभव किया! इस अनुभव के बाद सत्य के अभ्यास में मेरा विश्वास बढ़ गया। इसके बाद जब मुझे ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा, तो भले ही मैं अभी भी अक्सर लोगों से खुशामदी व्यवहार करने लगती थी, लेकिन पीड़ा और संघर्ष की अनुभूति पहले से कम होती गई। मैं सजग रहकर खुद की इच्छाओं का त्याग कर सत्य का अभ्यास कर रही थी। इस प्रकार सत्य का अभ्यास करने से, मेरे मन को बहुत सुकून और शांति मिली। मुझे यह परिणाम परमेश्वर के वचनों की कृपा से मिला था। परमेश्वर का धन्यवाद!
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