अलग-थलग किए जाने के बाद आत्म-चिंतन

08 दिसम्बर, 2025

लोरेन, अमेरिका

मार्च 2023 में, हमारे जिले में जिला अगुआ चुनने के लिए उप-चुनाव हो रहा था। मैंने मन ही मन सोचा, “भले ही मेरा जीवन प्रवेश सबसे अच्छा नहीं रहा है, पर मैं हमेशा सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार रही हूँ, जिस काम का मैं पर्यवेक्षण कर रही थी, उसका दायरा छोटा नहीं था और काम से कुछ नतीजे भी मिले थे। जिला अगुआ के इस चुनाव में, भाई-बहनों को मुझे ही चुनना चाहिए, है न? हालाँकि मैं अभी सुसमाचार कार्य की पर्यवेक्षक हूँ, यह सिर्फ एक ही तरह का काम है और मुझे कुछ ही लोग जानते हैं। लेकिन जिला अगुआ होना एक अलग बात है। वे पूरे काम का पर्यवेक्षण करते हैं और ज्यादा लोग उनका आदर और प्रशंसा करते हैं। अगर मुझे चुन लिया गया तो भाई-बहन जरूर सोचेंगे कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ और मैं न केवल सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण कर सकती हूँ, बल्कि एक अगुआ भी बन सकती हूँ।” यह सोचकर मुझे बहुत खुशी हुई।

उन दिनों मैं अपने कर्तव्यों में बहुत सक्रिय थी, जब भी कोई समूह चैट में सवाल पूछता, तो मैं तुरंत जवाब देती थी और कभी-कभी, मैं अगुआओं से समस्याओं पर सलाह-मशविरा करती और जो समस्याएँ मुझे मिलतीं, उनके बारे में निजी तौर पर उन्हें बताती, चाहती थी कि वे सोचें कि मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व और जिम्मेदारी का एहसास है, ताकि वे चुनाव में मुझे वोट दें। मुझे यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि एक रात मैंने उच्च अगुआओं का एक संदेश देखा, जिसमें घोषणा की गई थी कि बहन शार्लेट को जिला अगुआ चुना गया है। जब मैंने वह नाम देखा, तो मैं बहुत परेशान हो गई। हालाँकि शार्लेट हमेशा अगुआई के कर्तव्य करती रही थी, वह अभी-अभी हमारे जिले में सुसमाचार का प्रचार करने आई थी और यहाँ की स्थिति से बहुत परिचित नहीं थी। तो उसे जिला अगुआ क्यों चुना गया? कुछ समय से मैं उसके काम का पर्यवेक्षण कर रही थी, लेकिन अब जब वह अचानक एक अगुआ चुन ली गई थी और मेरे काम का जायजा लेगी, तो मैं फिर अपना मुँह कैसे दिखा पाऊँगी? क्या भाई-बहन सच में मुझे इतना कमतर समझते थे? मैं सच में ऊपरी अगुआओं से जाकर बहस करना और पूछना चाहती थी कि आखिर मैं शार्लेट से किस मामले में कम थी। आखिर, जिस काम का मैंने पर्यवेक्षण किया, उसके दायरे के मामले में वह मुझसे बेहतर नहीं थी; कार्य अनुभव और सीखे हुए सिद्धांतों के मामले में भी वह मुझसे बेहतर नहीं थी; कष्ट सहने और कीमत चुकाने के मामले में भी मैंने बहुत कष्ट सहे थे। सुसमाचार कार्य पर्यवेक्षक के रूप में अपने समय के दौरान, कलीसिया ने मेरे लिए जो भी व्यवस्था की, मैंने वह किया और जब मुझे काम में समस्याएँ आईं, चाहे कितनी भी मुश्किल या दर्दनाक चीजें क्यों न हों, मैंने कभी शिकायत या बड़बड़ नहीं की। लेकिन मेरी इतनी मेहनत के बावजूद, शार्लेट को क्यों चुना गया और मुझे क्यों नहीं? क्या मुझमें कुछ गड़बड़ थी? क्या मैं जिला अगुआ बनने के लायक नहीं थी? क्या मैं सिर्फ एक ही तरह का काम करने के लायक थी? जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे असहज महसूस हुआ और मैंने अपने कर्तव्यों से अपना ध्यान खो दिया।

उस दौरान कलीसिया के सुसमाचार कार्य में कुछ कठिनाइयाँ और समस्याएँ आईं, संयोग से यह वही क्षेत्र था जिसका शार्लेट मुख्य रूप से पर्यवेक्षण कर रही थी। शार्लेट भाई-बहनों के साथ चर्चा करती कि इन समस्याओं को कैसे हल किया जाए। हालाँकि यह काम मेरे पर्यवेक्षण के दायरे से बाहर था, पर मैं लंबे समय से सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण कर रही थी, इसलिए मैं कुछ समस्याओं को समझ सकती थी और मुझे समाधानों पर चर्चा करने के लिए सभी के साथ सहयोग करना चाहिए था। लेकिन जब मैंने सोचा कि यह मेरे पर्यवेक्षण के काम के दायरे से बाहर है, तो मुझे लगा कि अगर मैंने सच में समस्याएँ हल कर दीं, तो ऊपरी अगुआ जरूर सोचेंगे कि यह शार्लेट की उपलब्धि है और कहेंगे कि उसमें कार्य क्षमताएँ हैं। जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मैं चर्चा में भाग नहीं लेना चाहती थी। कभी-कभी पूछे जाने पर भी मैं विनम्रता से बहाने बना देती, कहती, “आप सब चर्चा करें, मुझे इस बारे में ज्यादा नहीं पता।” मैं तो बहन शार्लेट की मुश्किलों और समस्याओं को ही मुद्दा बना लेती थी और कभी-कभार अपने आस-पास की बहनों से अपना असंतोष जाहिर करते हुए कहती, “सिद्धांतों को न समझना ठीक नहीं है। अभी काम में इतनी सारी समस्याएँ हैं, वह सिद्धांतों को समझे बिना काम का जायजा कैसे ले सकती है और समस्याओं को कैसे हल कर सकती है?” वे सुनतीं और सहमत होतीं, कहतीं, “हाँ, उसका सिद्धांतों को न समझना वाकई ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह वह समस्याएँ हल नहीं कर सकती।” यह सुनकर मैं मन ही मन खुश होती, सोचती, “जब तुम मुझे कुछ खास नहीं समझती, तो जिसे भी तुम चुनो, उसे ही यह कर्तव्य ठीक से करने दो। मैं देखना चाहती हूँ कि वह असल में कितना अच्छा काम कर सकती है। जब काम में समस्याएँ आएँगी, तो मैं तथ्यों से साबित कर दूँगी कि तुमने गलत चुना और मैं तुम्हें दिखा दूँगी कि मुझे न चुनने के क्या नतीजे होते हैं।” असल में उस दौरान मैं खुद को अंधकार और पीड़ा से भरी हुई पाती थी और जब मैं काम में पैदा हुई उन समस्याओं को देखती, तो कभी-कभी मुझे अपराध बोध भी होता, सोचती कि मुझे इन मुद्दों को जल्द से जल्द हल करने के लिए शार्लेट के साथ काम करना चाहिए। मैंने कई बार शार्लेट को संदेश भेजने की सोची, लेकिन जब मैंने सोचा कि कैसे मुझे जिला अगुआ के लिए नहीं चुना गया, तो मैं अपने अहं को नहीं छोड़ पा रही थी और कीबोर्ड से अपने हाथ पीछे खींच लेती थी। मेरा दिल तड़पता था, मेरा मन उधेड़बुन में पड़ा था; यह बहुत पीड़ादायक था। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत है और मुझे इसे तुरंत ठीक करना और बदलना चाहिए, फिर भी मैं अपने भाई-बहनों से संगति नहीं करना चाहती थी, शार्लेट से संगति करने के लिए अपना अहं छोड़ना तो दूर की बात थी। जब अगुआओं ने कुछ काम सौंपे, तो मैं उन्हें करने के लिए तैयार नहीं थी। सिद्धांतों पर पकड़ न होने के कारण, मेरे भाई-बहन अपना कर्तव्य निभाते हुए दिशाहीन होकर कठिनाइयों में जी रहे थे। जिस सुसमाचार कार्य का मैं पर्यवेक्षण कर रही थी, उसकी प्रभावशीलता कम हो गई। ऊपरी अगुआओं ने मेरे साथ संगति की और सुसमाचार कार्य का जायजा लेने में मेरी मदद करने के लिए मार्गदर्शन दिया, लेकिन मैं प्रतिष्ठा और रुतबे में डूबी हुई थी और मेरे विचार मेरे कर्तव्य पर नहीं थे। जब अगुआओं द्वारा व्यवस्थित किए गए कार्यों की बात आई, तो मैंने समय पर उनका जायजा नहीं लिया और न ही उन्हें पूरा किया। नतीजतन, सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता लगातार घटती गई, जब तक कि यह लगभग पंगु होने की स्थिति में नहीं पहुँच गया।

जल्द ही, मुझे बरखास्त कर दिया गया। फिर अगुआओं ने मुझे एक समूह के सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने का काम सौंपा। मैंने न केवल इस पर विचार नहीं किया कि मुझे क्यों बरखास्त किया गया, बल्कि मैंने शिकायत की कि अगुआओं को मुझे बरखास्त नहीं करना चाहिए था और मैं प्रतिरोध की भावनाओं में जीती रही, काम का जायजा लेने का मेरा कोई मन नहीं था। पर्यवेक्षक ने काम में समस्याओं को समय पर हल न करने और जायजा लेने के काम में इतनी सुस्ती दिखाने के लिए मुझे उजागर किया और मेरी काट-छाँट की, लेकिन मैं इसे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। एक महीने से कुछ ज्यादा समय के बाद, जिस काम का मैं पर्यवेक्षण कर रही थी, उसमें अभी भी कोई सुधार नहीं हुआ। पर्यवेक्षक ने देखा कि मैं लगातार सत्य को स्वीकारने और आत्म-चिंतन करने से इनकार कर रही थी, इसलिए उसने मुझे समूह अगुआ के पद से बरखास्त कर दिया। इसके बाद, मुझे एक साधारण कलीसिया में भेज दिया गया और मेरी दशा और भी खराब हो गई। मैं किसी से बात नहीं करना चाहती थी और सभाओं के दौरान भी नहीं बोलती थी। अगुआओं ने कई बार मेरी मदद करने की कोशिश की, लेकिन मैंने उनके फोन का जवाब देने से इनकार कर दिया। मुझे समूह अगुआ द्वारा मेरे काम का जायजा लेने पर प्रतिरोध महसूस हुआ और कई महीनों तक मुझे अपने कर्तव्यों में कोई नतीजा नहीं मिला। चार महीने बाद, अगुआओं ने अचानक मुझसे संपर्क किया और मेरी समस्या का गहन-विश्लेषण करते हुए कहा, “भाई-बहनों ने बताया कि तुम्हारे कर्तव्यों के प्रति तुम्हारा रवैया लापरवाह था, तुम्हें कोई असली नतीजा नहीं मिला और तुम्हारी मानवता में भी समस्याएँ थीं। जब से तुम्हें बरखास्त किया गया है, तुम एक नकारात्मक और प्रतिरोधी दशा में जी रही हो। तुम्हारा सत्य को स्वीकार करने का कोई रवैया नहीं रहा है और तुमने आत्म-चिंतन नहीं किया है। सिद्धांतों के अनुसार, तुम्हें चिंतन के लिए अलग-थलग किए जाने की जरूरत है।” जब मुझे पता चला कि मुझे अलग-थलग कर दिया जाएगा, तो मेरा दिमाग सुन्न हो गया। मैंने इस बारे में कभी नहीं सोचा था। मैंने इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था, अपने कर्तव्य के लिए अपने परिवार और करियर को त्याग दिया था और फिर भी अंत में मुझे अलग-थलग कर दिया गया। उन दिनों, मैं अक्सर सोचती थी कि अगुआओं ने मेरा गहन-विश्लेषण करते समय क्या कहा था, “तुम सत्य को स्वीकार करने वाली व्यक्ति नहीं हो। तुम्हारी मानवता में समस्याएँ हैं। तुममें कोई वास्तविक समर्पण नहीं है।” ये शब्द मेरे दिमाग में घूमते रहते थे और मैं खुद से पूछती रहती थी, “क्या मैं सच में गलत व्यक्ति हूँ? क्या मेरी आस्था की यात्रा समाप्त हो गई है?” मेरा दिल खाली महसूस कर रहा था और मैं रोना चाहती थी, लेकिन आँसू नहीं आ रहे थे। मुझे लगा कि मेरा कोई परिणाम नहीं होगा और मेरे मन में दुनिया में लौट जाने के विचार भी आए। जब मैं सच में जाना चाहती थी, तो मेरा दिल अपराध बोध से भर गया, मुझे याद आया कि मैंने एक बार परमेश्वर के सामने प्रतिज्ञा की थी कि चाहे मुझे किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, मैं परमेश्वर को नहीं छोड़ूँगी। मैंने इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखा था, मैंने परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए-पिए थे, उसके इतने अनुग्रह और आशीष का आनंद लिया था, इसलिए अगर मैं इस तरह चली गई तो मुझमें सच में अंतरात्मा की कमी होगी। लेकिन जब मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया ने मुझे पहले ही अलग-थलग कर दिया है, तो मैं बहुत नकारात्मक हो गई और मुझे नहीं पता था कि क्या करूँ। उस दौरान मैं किसी से मिलना नहीं चाहती थी और मैं अपने दिन एक चलती-फिरती लाश की तरह महसूस करते हुए बिताती थी।

एक दिन, मेरे दाँत में अचानक बहुत तेज दर्द हुआ और मैंने जो भी दवा इस्तेमाल की, उससे कोई फायदा नहीं हुआ। रात में, मैं केवल कंबल के नीचे अकेले रो सकती थी, मेरा दिल एक अवर्णनीय अकेलेपन और वीरानी से भर गया था। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहती थी, लेकिन मुझे उसका सामना करने में बहुत शर्म आ रही थी। मुझे लगा कि मैं ऐसी व्यक्ति नहीं हूँ जिसे परमेश्वर बचाएगा और मैं अब परमेश्वर से प्रार्थना करने के लायक नहीं थी। जितना मैंने परमेश्वर के लिए अपना दिल बंद किया, मेरा दाँत दर्द उतना ही बढ़ता गया। मैं केवल अपने दिल में पुकार सकती थी, “परमेश्वर, परमेश्वर...” जिस पल मेरा दिल परमेश्वर के लिए खुला, मैं उसके सामने घुटने टेककर प्रार्थना करने लगी, “परमेश्वर, मैं बहुत बुरी महसूस कर रही हूँ। मैं तुझ पर अपनी आस्था नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन अभी, मुझे नहीं पता कि क्या करूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों के ये अंश याद आए : “चूँकि तुम निश्चित हो कि यह रास्ता सही है, इसलिए तुम्हें अंत तक इसका अनुसरण करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखनी चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी वफादारी कायम रखनी चाहिए)। “तुम चाहे जो गलत मोड़ मुड़ गए हो, या तुमने कितने भी गंभीर अपराध किए हों, इन्हें वह बोझ या फालतू सामान मत बनने दो, जिसे तुम्हें परमेश्वर के बारे में ज्ञान की अपनी खोज में ढोना पड़े। आगे बढ़ते रहो(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मैं बहुत प्रभावित हुई। मुझे लगा कि परमेश्वर अभी भी मेरा मार्गदर्शन कर रहा है, मुझे हिम्मत न हारने और आगे बढ़ते रहने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और मुझे अपने दिल में एक बड़ी ताकत महसूस हुई। जब मैंने यह सोचा, तो मुझे बहुत अपराध बोध हुआ। साफ था कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागी थी, सही मार्ग पर नहीं चली थी, कलीसिया के काम में गड़बड़ी की थी और बाधा डाली थी। जब मैं प्रतिष्ठा या रुतबा हासिल नहीं कर पाई, तो मैं नकारात्मक और विरोधी हो गई, कलीसिया के काम की उपेक्षा करने लगी। मेरे व्यवहार को देखते हुए, कलीसिया ने मेरे साथ जैसा भी व्यवहार किया, वह उचित था। फिर भी अलग-थलग किए जाने के बाद, मैं हठी और प्रतिरोधी बनी रही, यहाँ तक कि परमेश्वर की इच्छा को गलत समझकर उसके साथ विश्वासघात करना चाहती थी। मैंने देखा कि मुझमें अंतरात्मा और विवेक की कितनी ज्यादा कमी थी। मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखा था, मैंने उसके इतने सारे वचन खाए-पिए थे, मैं जानती थी कि यही सच्चा मार्ग है, इसलिए मुझे अपनी आस्था में दृढ़ रहना चाहिए, भले ही मेरा कोई अच्छा अंजाम न हो, मुझे अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने गलती की है और मैं बहुत विद्रोही रही हूँ। मैं इस स्थिति तक पहुँची हूँ, यह मेरी अपनी गलती है। परमेश्वर, मैं गंभीरता से आत्म-चिंतन करने और जहाँ से मैं गिरी हूँ, वहाँ से उठने के लिए तैयार हूँ। कृपया मुझे मत त्यागना। मुझे प्रबुद्ध कर और मेरा मार्गदर्शन कर, ताकि मैं अपनी समस्याओं को समझ सकूँ।” उन दिनों, मैं इसी तरह परमेश्वर को पुकारती रही।

अपनी एक भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ये लोग कपटी, चालाक और दुष्ट ही नहीं, बल्कि अत्यधिक क्रूर भी होते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनका रुतबा खतरे में है या जब वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देते हैं, जब वे इन लोगों का समर्थन और स्नेह खो देते हैं, जब लोग उनका आदर-सम्मान नहीं करते और वे बदनामी के गर्त में गिर जाते हैं तो वे क्या करते हैं? वे अचानक पक्षद्रोही हो जाते हैं। जैसे ही वे अपना रुतबा खो देते हैं, वे कोई भी कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होते, वे जो कुछ भी करते हैं अनमने होकर करते हैं और उनकी कुछ भी करने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। लेकिन यह सबसे खराब अभिव्यक्ति नहीं होती। सबसे खराब अभिव्यक्ति क्या होती है? जैसे ही ये लोग अपना रुतबा खो देते हैं और कोई उनका सम्मान नहीं करता, कोई भी उनसे गुमराह नहीं होता तो उनकी घृणा, ईर्ष्या और प्रतिशोध बाहर आ जाता है। उनके पास न केवल परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं रहता, बल्कि उनमें समर्पण का कोई अंश भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, यह संभावना होती है कि वे परमेश्वर के घर, कलीसिया, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से घृणा करेंगे; वे दिल से चाहते हैं कि कलीसिया के कार्य में समस्याएँ आ जाएँ या वह ठप हो जाए; वे कलीसिया और भाई-बहनों पर हँसना चाहते हैं। वे हर उस व्यक्ति से भी घृणा करते हैं जो सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर का भय मानता है। वे हर उस व्यक्ति पर हमला करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं जो अपने कर्तव्य में निष्ठावान है और कीमत चुकाने को तैयार है। यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है—और क्या यह क्रूर नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा, तो मैं बहुत व्यथित हुई। मुझे लगा, परमेश्वर ने जिस भी व्यवहार को उजागर किया है, वह मानो मेरा ही वर्णन कर रहा है, खासकर जब मैंने परमेश्वर के वचन देखे, जिनमें कहा गया है कि मसीह-विरोधी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को किसी भी चीज से ज्यादा सँजोकर रखते हैं और उनमें परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण या भय नहीं होता। वे रुतबा पाने के लिए हर तरह की तिकड़म लगाते हैं और कोई भी तरीका अपनाते हैं और एक बार जब वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा या लोगों का समर्थन और प्रशंसा खो देते हैं, तो वे तुरंत शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं, नकारात्मक बन जाते हैं और अपने काम में ढीले पड़ जाते हैं, उनके दिलों में ईर्ष्या और घृणा पैदा हो जाती है। वे चाहते हैं कि कलीसिया के काम में समस्याएँ आएँ ताकि वे कलीसिया पर हँस सकें। फिर मैंने अपने व्यवहार को देखा—क्या वह बिल्कुल वैसा ही नहीं था? अतीत में, जिला अगुआ चुने जाने और भाई-बहनों का आदर पाने के लिए, जब मैं भाई-बहनों को सवाल पूछते हुए संदेश भेजते देखती, तो मैं तुरंत जवाब देने के लिए कूद पड़ती, ताकि अगुआओं का ध्यान खींच सकूँ। लेकिन जब मुझे पता चला कि शार्लेट को जिला अगुआ चुना गया है, तो मैंने इस पर विचार नहीं किया कि मुझमें कहाँ कमी थी। इसके बजाय, क्योंकि मुझे नहीं चुना गया था और क्योंकि मैं रुतबा या ज्यादा लोगों की प्रशंसा नहीं पा सकी, मैं प्रतिरोधी हो गई और अपने दिल में तर्क करने लगी। मैंने सोचा कि मेरे पास शार्लेट से ज्यादा अनुभव है और मैंने उससे ज्यादा समय तक सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण किया है, इन्हीं बातों को अपनी पूँजी मानकर, मैं असंतुष्ट और नाराज हो गई और मैंने अपनी भड़ास निकालने के लिए अपने कर्तव्यों का इस्तेमाल किया। जब मैंने देखा कि शार्लेट द्वारा पर्यवेक्षित सुसमाचार कार्य में समस्याएँ आ रही हैं, मैंने न केवल समस्याओं को हल करने में मदद नहीं की, बल्कि मैं इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं पर खुश हो रही थी। मैं तो यह भी चाहती थी कि ये समस्याएँ हल न हों ताकि भाई-बहन देख सकें कि शार्लेट सच में मुझसे बेहतर नहीं है और ताकि वह उनके सामने अपमानित हो। इतना ही नहीं, मैंने अपने आस-पास की बहनों के सामने भी अपना असंतोष जाहिर किया। मैंने शार्लेट के कर्तव्यों में कुछ छोटी-मोटी समस्याओं को पकड़ लिया, और उसकी पीठ पीछे मैंने आलोचना की कि उसमें कार्य क्षमताओं की कमी है, इस उम्मीद में कि भाई-बहन मेरा पक्ष लेंगे और सोचेंगे कि कलीसिया ने गलत व्यक्ति को चुना है और मेरी प्रतिभा को दबा दिया है। मैंने देखा कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने में किसी भी हद तक जा सकती थी और मेरा स्वभाव दुर्भावनापूर्ण और क्रूर था। बरखास्त किए जाने के बाद भी, मैंने न केवल आत्म-चिंतन नहीं किया और न ही खुद को जाना, बल्कि मैं प्रतिरोध करती रही और समर्पण करने से इनकार करती रही और जब अगुआओं ने मेरे साथ संगति करने की कोशिश की, तो मैं शामिल होने को तैयार नहीं थी। मेरे पास सच में ऐसा दिल नहीं था जो परमेश्वर के प्रति समर्पित हो या उसका भय मानता हो और सत्य को खोजने या स्वीकार करने का तो मेरा कोई रवैया ही नहीं था। उस पल, मुझे अचानक एहसास हुआ कि अगुआ न चुना जाना वास्तव में मेरे लिए एक सुरक्षा थी। क्योंकि मेरा स्वभाव क्रूर था और मैं रुतबे पर बहुत ज्यादा ध्यान देती थी, जब मुझे रुतबा नहीं मिला, तो मैं घृणा से भर गई, दूसरों पर हँसी, यहाँ तक कि दूसरों की आलोचना की और उन्हें नीचा दिखाया। अगर मुझे सच में रुतबा मिल गया होता, तो जो कोई भी मेरी बात नहीं सुनता, मैं उसे जरूर दबाती और बाहर कर देती, मैं तो और भी बड़े बुरे कर्म करती। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी स्थिति कितनी खतरनाक थी। फिर भी मैं पूरी तरह से बेखबर थी और हठी और अडिग बनी रही थी। अगर मुझे अलग-थलग न किया गया होता, तो मैं हठी बनी रहती और पश्चात्ताप नहीं करती। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, तेरे मार्गदर्शन के लिए तेरा धन्यवाद। अब मुझे अपने बारे में थोड़ी समझ है और मैं देखती हूँ कि मैं एक चट्टान के किनारे पर खड़ी हूँ। मुझे निष्कासित नहीं किया गया, यह पहले से ही तेरी दया है और तूने मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दिया है। परमेश्वर, मैं सच में पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं रुतबे के पीछे भागने के सार और परिणामों की असलियत देख सकूँ।”

अपनी एक भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का अनुराग साधारण लोगों से कहीं ज्यादा होता है और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा उनका जीवन होते हैं और वह लक्ष्य होते हैं जिसका वे जीवन भर अनुसरण करते हैं। ... यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, ये कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं है; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते हैं। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। यूँ तो मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के समकक्ष देखते हैं और दोनों चीजों को समान पायदान पर रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर पर उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण ही प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है तो प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है; प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करना सत्य और जीवन हासिल करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रसिद्धि, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनका आदर नहीं करता, सम्मान नहीं करता या उनका अनुसरण नहीं करता है तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने की कोई तुक नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था एक असफलता है? क्या मैं बिना आशा के नहीं हूँ?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी चीजों का हिसाब-किताब लगाते हैं। वे यह हिसाब-किताब लगाते हैं कि वे कैसे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, वे कैसे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, जब वे बात करें तो वे कैसे खुद को सुनने के लिए लोगों को जुटा सकते हैं और जब वे कार्य करें तो वे कैसे अपने सहारे के लिए लोगों को जुटा सकते हैं, वे जहाँ कहीं भी हों वे कैसे अपना अनुसरण करने के लिए लोगों को जुटा सकते हैं और उनके पास कैसे कलीसिया में एक प्रभावी आवाज हो सकती है और उनके पास कैसे शोहरत, लाभ और रुतबा हो सकता है—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि एक मसीह-विरोधी का प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना अस्थायी नहीं होता है, बल्कि यह उसकी प्रकृति और सार में शामिल होता है। मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने को अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। वे मानते हैं कि प्रतिष्ठा और रुतबा पाकर, वे सब कुछ पा लेते हैं और एक बार जब वे प्रतिष्ठा और रुतबा खो देते हैं, तो जीवन का कोई मतलब नहीं रह जाता। मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल ऐसी ही थी। बचपन से ही, मैं “सबसे अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का लक्ष्य रखो” और “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी” जैसे शैतानी जहरों के अनुसार जीती रही। स्कूल में, मैंने कक्षा में अव्वल आने और सबसे अच्छी छात्रा बनने की कोशिश की, मैंने सोचा कि इससे मुझे अपने शिक्षकों और सहपाठियों की प्रशंसा मिलेगी। शादी के बाद, जब मैंने देखा कि मेरे पति के पक्ष के कई रिश्तेदार और पड़ोसी हमसे बेहतर स्थिति में हैं, तो मैं पीछे नहीं रहना चाहती थी। शादी के तुरंत बाद, मैंने अपने पति के साथ एक व्यवसाय शुरू किया, गाँव में एक अमीर व्यक्ति बनना चाहती थी और भीड़ से अलग दिखना चाहती थी। परमेश्वर को पाने के बाद भी, मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को ही अपने अनुसरण का उद्देश्य बनाए रखा, सोचती थी कि अगुआ बनकर मेरी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ जाएगा और ज्यादा लोग मेरी प्रशंसा और मेरा आदर करेंगे। मेरा मानना था कि यही एक सार्थक और मूल्यवान जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। रुतबा और प्रशंसा पाने के लिए, मैंने अपनी कोशिशों में पूरा दिमाग लगा दिया। लेकिन जब मुझे एक अगुआ के रूप में नहीं चुना गया और मैं अपने भाई-बहनों की प्रशंसा और समर्थन नहीं पा सकी, तो मैं असंतुष्ट और नाराज हो गई, मैंने अपनी मर्जी से नवनिर्वाचित अगुआ की आलोचना की। यहाँ तक कि जब मैंने सुसमाचार कार्य में समस्याएँ देखीं, तो मैंने उन्हें नजरअंदाज कर दिया और मैं दूसरों पर हँसी भी। जब मुझे एक पर्यवेक्षक के रूप में बरखास्त किया गया, तो मैं नकारात्मक और विरोधी बनी रही और जब दूसरों ने मेरे काम का जायजा लिया, तो मुझे तब भी प्रतिरोध महसूस हुआ। यहाँ तक कि जब मुझे अलग-थलग कर दिया गया था, तब भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया, मैंने तो परमेश्वर से विश्वासघात करने और उसके घर को छोड़ने के बारे में भी सोचा। मैंने देखा कि मैं पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। उस पल, मुझे अपने अंदर गहराई से यह एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने ने मुझे सच में बहुत नुकसान पहुँचाया है। प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने में, मैंने सबसे बुनियादी मानवता और विवेक खो दिया था। मैंने कलीसिया के काम में गड़बड़ी की और अपने आस-पास के लोगों को नुकसान पहुँचाया; प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना मुझे परमेश्वर से और भी दूर ही ले जाता और इससे मुझमें मनुष्य जैसा होने की छवि और भी कम होती जाती। इस बारे में सोचकर, मुझे इस प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने से जल्दी छुटकारा पाने की इच्छा हुई और मुझमें सत्य का अनुसरण करने का संकल्प जागा।

मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है—यह मार्ग सत्य की खोज के बिल्कुल विपरीत दिशा में है। संक्षेप में, तुम्हारी खोज की दिशा या उद्देश्य चाहे जो भी हो, यदि तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इसे दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है तो वह तुम्हारे जीवन प्रवेश को प्रभावित करेगा। जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और अनुसरण के लक्ष्य को नियंत्रित और प्रभावित करने में पूरी तरह से सक्षम होगा; ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव लाने की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह बेशक स्पष्ट है। इसके अलावा यदि तुम रुतबे के पीछे भागना कभी नहीं त्याग पाते तो इससे तुम्हारे मानक स्तर के अनुरूप कर्तव्य करने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए मानक स्तर का सृजित प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा सँजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन सभी में थोड़ा-सा परमेश्वर-विरोधी होने का गुण नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, ताकि वे अंततः मानक स्तर के सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बन जाएँ—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें। और इसलिए इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है और परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे। तुम इसे समझते हो, है न?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है और परमेश्वर इसी से सबसे ज्यादा घृणा करता है। परमेश्वर लोगों को कर्तव्य देता है, रुतबा नहीं और उसका इरादा है कि लोग सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य मानक स्तर तक निभाएँ, न कि वे रुतबे और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति बनें। यदि लोग लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के विरुद्ध जाता है और मूलतः यह परमेश्वर का विरोध करना है, इसका अंतिम परिणाम परमेश्वर द्वारा बेनकाब करके हटा दिया जाना है। सुसमाचार कार्य पर्यवेक्षक के रूप में अपनी पिछली सेवा पर विचार करते हुए, मैंने देखा कि मुझ पर बहुत सारी जिम्मेदारियाँ थीं, लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया कि अपना मुख्य काम अच्छी तरह से कैसे किया जाए। इसके बजाय, मैं असंतुष्ट थी, ऊँचा रुतबा पाने के लिए जिला अगुआ चुने जाने और ज्यादा लोगों से प्रशंसा पाने की चाहत रखती थी। मैंने शुरुआत में महादूत के बारे में सोचा। परमेश्वर ने उसे स्वर्गदूतों पर शासक बनाया, लेकिन वह असंतुष्ट था और परमेश्वर के बराबर होना चाहता था, अंत में, परमेश्वर ने उसे हवा में नीचे फेंक दिया। मेरा व्यवहार बिल्कुल महादूत जैसा था; मैं हमेशा एक ऊँचा पद पाना चाहती थी, ताकि ज्यादा लोग मेरी प्रशंसा और आराधना करें। सार रूप में, मैं लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ लगा रही थी, उनके दिलों में जगह बनाना चाहती थी। जब मुझे जिला अगुआ नहीं चुना गया और मेरी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, तो मैं असंतुष्ट और नाराज हो गई, परमेश्वर द्वारा आयोजित स्थिति के प्रति समर्पित नहीं हुई और मैंने अपनी हताशा काम पर निकाली और परमेश्वर का विरोध किया। मैंने कलीसिया के काम की कीमत पर अपने असंतोष की भड़ास निकाली और यह परमेश्वर का प्रतिरोध करना था! उस पल, मुझे इस बारे में कुछ समझ आने लगी कि परमेश्वर ने प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने को एक बंद गली क्यों कहा है। जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मैं उस स्थिति के लिए वास्तव में आभारी थी जो परमेश्वर ने मेरे लिए व्यवस्थित की थी। अगर मुझे अलग-थलग नहीं किया गया होता, तो मैं समय पर नहीं जागती, मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति और परिणामों का पता नहीं चलता। कलीसिया ने मुझे निष्कासित नहीं किया और केवल अलग-थलग किया, यह पहले से ही मेरे प्रति परमेश्वर की दया थी।

एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मैं जान गई कि मुझे इस तथ्य को कैसे लेना चाहिए कि मुझे जिला अगुआ नहीं चुना गया था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि तुम अगुआई के लिए खुद को उपयुक्त मानते हो, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे अंदर प्रतिभा, क्षमता और मानवता होते हुए भी परमेश्वर के घर ने तुम्हें पदोन्नत नहीं किया और भाई-बहनों ने तुम्हें नहीं चुना है तो तुम्हें इस मामले में कैसे पेश आना चाहिए? अभ्यास का एक मार्ग है जिसका तुम अनुसरण कर सकते हो। तुम्हें अपने आप को भली-भांति जानना चाहिए। देखो कि अंततः कहीं तुम्हारी मानवता में कोई समस्या तो नहीं है या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन का कोई पहलू लोगों में घृणा तो नहीं पैदा करता; या कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे अंदर सत्य वास्तविकता न हो और दूसरे लोग तुमसे आश्वस्त न होते हों, या तुम्हारा कर्तव्य निष्पादन अधोमानक तो नहीं है। तुम्हें इन सब बातों पर चिंतन कर देखना चाहिए कि वास्तव में तुममें क्या कमी है। ... तुम्हें जीवन में प्रवेश करना चाहिए, पहले अपनी असाधारण इच्छाएँ नियंत्रित करो, स्वेच्छा से अनुयायी बनो और बिना कुड़कुड़ाए, परमेश्वर चाहे जो भी आयोजन करे या व्यवस्था बनाए, उसका पालन करो। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद ऐसा बन जाएगा तो तुम्हारा अवसर आ जाएगा। यह अच्छी बात है कि तुम भारी बोझ उठाना चाहते हो और तुम पर यह बोझ है। यह दर्शाता है कि तुममें एक अग्रगामी हृदय है जो प्रगति करना चाहता है और तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना और परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण करना चाहते हो। यह कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि एक सच्चा भार है; यह सत्य का अनुसरण करने वालों का दायित्व है और उनके अनुसरण का लक्ष्य भी है। तुम्हारे कोई स्वार्थी उद्देश्य नहीं हैं और तुम अपने लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने निकले हो तो यही वह चीज है जिसे परमेश्वर का सर्वाधिक आशीष प्राप्त है, वह तुम्हारे लिए उपयुक्त व्यवस्था कर देगा। ... परमेश्वर का इरादा अधिक लोगों को प्राप्त करने का है जो उसके लिए गवाही दे सकें; उसकी इच्छा उन सभी को पूर्ण करने की है जो उससे प्रेम करते हैं और जल्द से जल्द ऐसे लोगों को पूरा करने का है जो एकदिल और एकमन से उसके साथ हों। इसलिए, परमेश्वर के घर में सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों के लिए भरपूर संभावनाएँ हैं, जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उनके लिए असीम संभावनाएँ हैं। सभी को परमेश्वर के इरादे समझने चाहिए। इस भार को वहन करना वाकई एक सकारात्मक बात है। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक है, उन्हें इसे वहन करना चाहिए, लेकिन जरूरी नहीं कि हर कोई भारी बोझ वहन कर सके। यह विसंगति कहाँ से आती है? तुम्हारी क्षमता या योग्यता कुछ भी हो, तुम्हारा बौद्धिक स्तर कितना भी ऊँचा हो, यहाँ महत्वपूर्ण है तुम्हारा लक्ष्य और वह मार्ग जिस पर तुम चलते हो(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (6))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया का अगुआओं का चुनाव सिद्धांतों पर आधारित है। एक अगुआ के रूप में, व्यक्ति को समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम होना चाहिए और उसकी मानवता भी मानक स्तर की होनी चाहिए। उसमें कुछ कार्य क्षमताएँ भी होनी चाहिए और उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए। यदि यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और गलत मार्ग पर चलता है, तो भले ही वह अगुआ बन जाए, वह ज्यादा दूर नहीं जाएगा। लेकिन मैं किसी व्यक्ति के अगुआ बनने की योग्यता को केवल उसकी जिम्मेदारी वाले कर्तव्यों के दायरे के आधार पर आँकती थी, सोचती थी कि उसने कितना कष्ट सहा और उसे कितने समय तक प्रशिक्षित किया गया था। मेरे मानक परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह से असंगत थे। पीछे मुड़कर सोचूँ तो भले ही मैंने सुसमाचार का प्रचार करने के प्रशिक्षण में लंबा समय बिताया और मैं सुसमाचार प्रचार के कुछ सिद्धांत समझती थी, मेरे काम के नतीजे हर महीने बेहतर हो रहे थे, मैंने अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं किया और मैं हर दिन बस व्यस्त रहने से ही संतुष्ट थी। मैंने जिन चीजों का सामना किया उनको लेकर शायद ही कभी आत्म-चिंतन किया और न ही खुद को जाना और मैंने शायद ही कभी सत्य सिद्धांतों पर विचार किया। मैं बिल्कुल भी ऐसी व्यक्ति नहीं थी जो सत्य से प्रेम करती हो या उसका अनुसरण करती हो। एक अगुआ की मुख्य जिम्मेदारी सत्य समझने, परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने में भाई-बहनों की अगुआई करना है। मैंने आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने पर ध्यान नहीं दिया, केवल बाहरी काम पर ध्यान दिया, इसलिए मैं अगुआ बनने के योग्य नहीं थी। अगर मुझे सच में एक अगुआ के रूप में चुन लिया जाता लेकिन मैं वास्तविक काम नहीं कर पाती, तो क्या मैं एक झूठी अगुआ नहीं होती? इसके अलावा, अगुआ बनने के लिए, काम के सभी पहलुओं का अवलोकन करने और कुछ कार्य क्षमताएँ रखने की जरूरत होती है। मैं उस समय केवल सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण कर रही थी, कभी-कभी जब बहुत ज्यादा काम होते थे, तो मैं उन्हें सँभाल नहीं पाती थी। मुझमें अगुआ बनने के लिए काबिलियत या कार्य क्षमताएँ थीं ही नहीं। शार्लेट पहले हमेशा एक अगुआ रही थी, वह मुझसे ज्यादा स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति करती थी और हालाँकि उसे सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने का अनुभव कम था, उसका दिल सही जगह पर था, वह अभ्यास करने और सीखने को तैयार थी, उसे अगुआ के रूप में चुनना एक ज्यादा उपयुक्त विकल्प था और मुझे शार्लेट के काम का समर्थन करना चाहिए था। इस मामले पर विचार करने के बाद, मुझे अगुआ के रूप में न चुने जाने पर ज्यादा शांति महसूस हुई।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सृजित मानवता के एक सदस्य के रूप में, तुम्हें अपनी उचित स्थिति बनाए रखनी चाहिए और अनुशासित आचरण करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है उस पर कर्तव्यपरायणता से टिके रहो। अनुचित कार्य मत करो, न ही ऐसे कार्य करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। एक महान व्यक्ति, अतिमानव या एक भव्य व्यक्ति बनने का अनुसरण मत करो और परमेश्वर बनने का अनुसरण मत करो। ये सब ऐसी इच्छाएँ हैं जो लोगों में नहीं होनी चाहिए। महान व्यक्ति या अतिमानव बनने का अनुसरण करना बेतुका है। परमेश्वर बनने का अनुसरण करना तो और भी ज्यादा शर्मनाक है; यह घृणित और निंदनीय है। जो सचमुच मूल्यवान है और जिस पर सृजित प्राणियों को किसी भी चीज से ज्यादा कायम रहना चाहिए, वह है एक सच्चा सृजित प्राणी बनना; यही एकमात्र लक्ष्य है जिसका सभी लोगों को अनुसरण करना चाहिए(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएँ तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग जमीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीजें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएँ और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। ... तुम सब लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य किस तरह के लोगों को बचाता है, और उसके उद्धार का क्या अर्थ है। परमेश्वर लोगों को अपने वचन सुनने, सत्य को स्वीकारने, भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए अपने सामने आने, और परमेश्वर के कथन और उसकी आज्ञा के अनुसार अभ्यास करने को कहता है। इसका अर्थ है उसके वचनों के अनुसार जीना, न कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीना या इंसानी ‘आनंद’ का अनुसरण करना। जो कोई भी परमेश्वर के वचन नहीं सुनता या सत्य नहीं स्वीकारता है, बल्कि अभी भी पश्चात्ताप किए बिना शैतान के फलसफों के अनुसार और शैतानी स्वभाव के साथ जीता है, तो इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर नहीं बचा सकता। तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, मगर बेशक यह भी इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है—मगर परमेश्वर द्वारा तुम्हें चुने जाने का क्या अर्थ है? यह तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है, जो परमेश्वर पर भरोसा करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग सकता है, और जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में सक्षम है; जिसने अपना शैतानी स्वभाव त्याग दिया है, जो अब शैतान का अनुसरण नहीं करता या उसकी सत्ता के अधीन नहीं जीता है। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसके घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, फिर भी हर मामले में सत्य का उल्लंघन करते हो, और उसके वचनों के अनुसार अभ्यास या अनुभव नहीं करते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध भी करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें स्वीकार सकता है? बिल्कुल नहीं। इससे मेरा क्या आशय है? अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में कठिन नहीं है, और न ही इसे लगन से और मानक स्तर तक करना कठिन है। तुम्हें अपने जीवन का बलिदान या कुछ भी खास या मुश्किल नहीं करना है, तुम्हें केवल ईमानदारी और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों और निर्देशों का पालन करना है, अपने खुद के विचार नहीं जोड़ने हैं और न ही अपना खुद का उद्यम चलाना है, बल्कि सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चलना है। अगर लोग ऐसा कर सकते हैं, तो उनमें मूल रूप से एक मानव जैसी समानता होगी। जब उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण होता है, और वे ईमानदार व्यक्ति बन जाते हैं, तो वे एक सच्चे मनुष्य के समान होंगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य के उचित निर्वहन के लिए सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है)। परमेश्वर हमसे ईमानदारी और स्थिरता से आचरण करने के लिए कहता है, एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर बने रहने और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए कहता है। यही वे लक्ष्य हैं जिनका हमें अनुसरण करना चाहिए, यही वह समानता है जो एक सच्चे इंसान में होनी चाहिए। यदि कोई कभी सत्य का अनुसरण नहीं करता और न ही उसे कभी स्वीकार करता है, तो चाहे उसका रुतबा या प्रतिष्ठा कितनी भी बढ़ जाए, परमेश्वर की नजर में वह तुच्छ और मूल्यहीन है और उसे उसकी स्वीकृति नहीं मिल सकती। मैं इसका एक जीता-जागता उदाहरण थी। मैं पहले काफी विस्तृत काम के लिए जिम्मेदार थी, लेकिन मैं केवल लोगों की प्रशंसा पाने के लिए प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागी और मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया। जब मुझे जिला अगुआ नहीं चुना गया और मैं ज्यादा लोगों की प्रशंसा और समर्थन नहीं पा सकी, तो मैं समर्पण नहीं कर सकी, मैंने काम पर अपनी भड़ास निकाली और अनजाने में, मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर चल पड़ी और मुझे बरखास्त कर दिया गया। मैंने यह भी सोचा कि कैसे कुछ मसीह-विरोधी ऊँचे रुतबे वाले थे और उनमें से कुछ अगुआ थे, लेकिन वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागे, सत्य का अनुसरण नहीं किया। उन्होंने सिद्धांतों को खोजे बिना अपने कर्तव्य किए। उन्होंने काट-छाँट स्वीकार करने से बिल्कुल इनकार कर दिया और अंत में, उनके अनगिनत बुरे कर्मों के कारण उन्हें कलीसिया द्वारा निष्कासित किया गया और हटा दिया गया। इन तथ्यों से, मैंने परमेश्वर की धार्मिकता को और भी स्पष्ट रूप से देखा। किसी के पास रुतबा है या लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि ये चीजें सब कुछ तय नहीं कर सकतीं। प्रतिष्ठा और रुतबा किसी व्यक्ति को सत्य समझने और बचाए जाने में मदद नहीं कर सकते, क्योंकि परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम को इस आधार पर मापता और निर्धारित करता है कि वह अंततः सत्य को प्राप्त कर सकता है या नहीं, न कि इस आधार पर कि उसका रुतबा कितना ऊँचा है। अगर मैं सत्य का अनुसरण किए बिना सिर्फ दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करती और मैंने अपने सामने आने वाली चीजों में परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित नहीं करती, तो भले ही मैं अंत तक विश्वास करती, मुझे फिर भी हटा दिया जाता। केवल अपने कर्तव्यों को पूरा करने और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होने से ही कोई व्यक्ति परमेश्वर की नजरों में अनमोल होता है। परमेश्वर के घर में, कलीसिया विवेकपूर्ण ढंग से यह निर्धारित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति किस कर्तव्य के लिए उपयुक्त है और उसकी खूबियों और काबिलियत के आधार पर उसे काम सौंपती है। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित होना चाहिए, अपनी सही जगह पर खड़ा होना चाहिए और अपने मौजूदा कर्तव्य में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना चाहिए। भले ही मैं एक कोने में खड़ी सबसे छोटी होती, मुझे अपने कर्तव्य पर बने रहना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए। यह समझ हासिल करने के बाद, मुझे ज्यादा शांति और मुक्ति महसूस हुई, अब मैं इस स्थिति को ठीक से सँभालने में सक्षम थी। इसलिए, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं तेरे द्वारा व्यवस्थित की गई स्थिति के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। चाहे कोई मेरी सराहना करे या न करे, चाहे दूसरों के बीच मेरा रुतबा कुछ भी हो, भले ही मेरा कर्तव्य आकर्षक न हो, भले ही मुझे एक कोने में डाल दिया जाए, मुझे फिर भी अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए और जो कुछ भी मैं कर सकती हूँ, वह करना चाहिए।” मैं अक्सर अपने दिल में चुपचाप परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना करती थी। धीरे-धीरे, मेरी पिछली नकारात्मक, निष्क्रिय और प्रतिरोधी भावनाएँ कम होती गईं, मेरी दशा में भी सुधार हुआ और मेरे कर्तव्यों के नतीजे धीरे-धीरे बेहतर होते गए।

जल्द ही, अगुआओं ने मुझे एक समूह अगुआ बनने और एक छोटे समूह की सभा का पर्यवेक्षण करने के लिए कहा। मैंने बहुत आभारी महसूस किया, परमेश्वर को मुझे प्रशिक्षित होने का एक और अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। संयोग से, एक बहन जिसका मैंने कभी पर्यवेक्षण किया था, उसे कलीसिया अगुआ के रूप में चुन लिया गया और मुझे कुछ निराशा हुई, यह सोचकर कि मैं सिर्फ एक समूह अगुआ थी और मुझमें कलीसिया अगुआ वाली चमक-दमक नहीं थी, मुझे चिंता हुई कि दूसरे मुझे किस नजर से देखेंगे। मुझे एहसास हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा फिर से सिर उठा रही थी, इसलिए मैंने अपने दिल में चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “सृजित मानवता के एक सदस्य के रूप में, तुम्हें अपनी उचित स्थिति बनाए रखनी चाहिए और अनुशासित आचरण करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है उस पर कर्तव्यपरायणता से टिके रहो। अनुचित कार्य मत करो(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। “लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, ताकि वे अंततः मानक स्तर के सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बन जाएँ—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मेरा दिल रोशन हो गया और मुझे एहसास हुआ कि जब यह मामला मेरे सामने आया, तो परमेश्वर मेरे दिल की पड़ताल कर रहा था। अतीत में, मैं हमेशा चाहती थी कि लोग मेरा आदर करें और मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को अपनी जान से भी ज्यादा महत्व दिया। जब मुझे जिला अगुआ नहीं चुना गया, तो मैंने पाया कि मैं अपने कर्तव्य की उपेक्षा कर सकती थी और अपने भाई-बहनों का मजाक उड़ा सकती थी, जिससे कलीसिया के काम में देरी हुई। यह मुझ पर एक कभी न मिटने वाला कलंक था और मेरे दिल में एक स्थायी दर्द था। मैं स्पष्ट रूप से समझ गई कि रुतबे की तुलना में जिम्मेदारियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इस बार, मैं पहले की तरह रुतबे के पीछे नहीं भाग सकती थी, मैंने अपना कर्तव्य ठीक से निभाने का पक्का इरादा कर लिया था। भले ही मुझे सबसे साधारण कोने में डाल दिया जाए, मैं फिर भी अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगी, एक सच्चा और कर्तव्यनिष्ठ सृजित प्राणी बनूँगी और अतीत के अपने कर्ज को चुकाऊँगी। मैं अब और शैतान के उपहास का पात्र नहीं बन सकती थी, परमेश्वर को तो बिल्कुल भी निराश नहीं कर सकती थी। आगे बढ़ते हुए, अपने कर्तव्य में, मैंने सक्रिय रूप से अगुआओं के साथ सहयोग किया। मैंने पूछा कि समूह में किन समस्याओं को हल करने के लिए मेरी मदद की जरूरत है और कभी-कभी, जब अगुआ मुझसे भाई-बहनों की दशाओं की जाँच करने के लिए कहते, तो मैं सक्रिय रूप से ऐसा करती थी। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे बहुत सहज महसूस हुआ। बाद में, मैंने सुना कि मेरे आस-पास के कुछ भाई-बहनों को पदोन्नत किया जा रहा है, जिनमें से कुछ तो ऐसे व्यक्ति थे जिनका मैंने पहले पर्यवेक्षण किया था। भले ही मुझे थोड़ी बेचैनी हुई, पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और इस मामले को सही ढंग से सँभाला। कुछ भाई-बहनों को कठिनाइयों का सामना करते देख, मैंने उनके साथ संगति करने और उनकी मदद करने की पूरी कोशिश की और हमारे कर्तव्यों के नतीजे और भी बेहतर होते गए। कुछ समय बाद, कलीसिया अगुआ ने मुझे बताया कि मुझे कलीसिया में वापस स्वीकार कर लिया गया है। यह खबर सुनकर, मेरे दिल में एक अवर्णनीय एहसास हुआ। मैं बहुत भावुक हो गई, लेकिन उससे भी ज्यादा, मुझे अपराध बोध हुआ। परमेश्वर ने मुझे इस स्थिति में इसलिए नहीं डाला था कि वह मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करे या मेरा मजाक उड़ाए, बल्कि इसलिए कि वह मेरी समस्याओं को पहचानने और उन्हें समय पर हल करने में मेरी मदद करे। फिर भी शुरुआत में, मैंने खुद को नहीं जाना और लगभग परमेश्वर को छोड़ ही दिया था। यह सोचकर, मेरा मन हुआ कि मैं खुद को थप्पड़ मारूँ। मैंने परमेश्वर के सामने आकर सच्चे मन से उसका आभार जताया और उसकी स्तुति की।

इन चीजों का अनुभव करने के बाद, मुझे सच में एहसास हुआ कि परमेश्वर लोगों को चाहे किसी भी स्थिति में रखे, उसकी हमेशा यही आशा होती है कि लोग सच में पश्चात्ताप करें और सही मार्ग पर चलें। भले ही किसी को बरखास्त कर दिया जाए या अलग-थलग कर दिया जाए, परमेश्वर उसे कभी नहीं त्यागता बल्कि उसका मार्गदर्शन और देखभाल करता रहता है। वह लोगों के दिलों को जगाने और उन्हें बदलने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करता है। इस अनुभव के माध्यम से, मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की कुछ समझ मिली। जब मैं लगातार परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध करती रही, तो उसका क्रोध मुझ पर आ पड़ा। उसने मेरे आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से सख्ती से मेरी काट-छाँट की, मुझे अनुशासित किया और मुझे एक तरफ कर दिया; जिस पल मैं उसके सामने पश्चात्ताप करने को तैयार हुई, परमेश्वर ने अपने वचनों का उपयोग मुझे लगातार प्रबुद्ध करने और मेरा मार्गदर्शन करने के लिए किया; जब मैं सच में परमेश्वर की ओर मुड़ी और उसके वचनों के अनुसार अभ्यास किया, तो कलीसिया ने मुझे वापस स्वीकार कर लिया। परमेश्वर का स्वभाव जीवंत और वास्तविक है, लोगों को बचाने में उसका दिल सच्चा और अच्छा है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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