अब मुझे पता है शादी से कैसे पेश आना है
सोंग शियाओ, चीनजब मैं 18 साल का था, तब मेरी दादी ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार सुनाया था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
2005 के वसंत में मैं और मेरी पत्नी हुईजुआन इतने भाग्यशाली थे कि हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार प्राप्त हुआ, बाद में हम दोनों ने कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाने शुरू कर दिए। जब हमें अपने कर्तव्यों में मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा, हमने साथ मिलकर प्रार्थना की, खोज की और परमेश्वर के वचन पढ़े, हमने एक-दूसरे की मदद की और संगति की। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में हमें कुछ सत्य समझ में आए। हमें पता ही नहीं चला, दस साल से ज्यादा बीत गए, और हम दोनों उम्र के साठवें साल में पहुँच गए। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती गई, हमारा स्वास्थ्य बिगड़ता गया, खासकर मेरी पत्नी जिसे उच्च रक्तचाप हो गया था और उसे बार-बार दवा लेनी पड़ती थी। कभी-कभी जब उसकी हालत बहुत गंभीर हो जाती थी तो उसे चक्कर आने लगते थे और वह हिल-डुल नहीं पाती थी। उसका हृदय और पेट भी बहुत खराब स्थिति में था। अपने दैनिक जीवन में हम एक-दूसरे की देखभाल करते थे, संगति करते थे और एक-दूसरे का साथ देते थे और मुझे शांति और संतुष्टि महसूस होती थी।
सितंबर 2023 में एक दिन मुझे अगुआओं का एक पत्र मिला जिसमें मुझे कलीसिया के सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए कहा गया था। यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई और मुझे पता था कि यह परमेश्वर का अनुग्रह और मेरा उत्थान है। हालाँकि मैं कुछ सिद्धांतों को समझता था और सुसमाचार प्रचार का कुछ अनुभव भी था, फिर भी सत्य की संगति के विषय में मुझमें अभी भी बहुत कमी थी, अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने कहीं और गया तो मुझे प्रशिक्षण के ज्यादा अवसर मिलेंगे, मैं अक्सर भाई-बहनों से संवाद कर पाऊँगा और मैं बहुत तेजी से प्रगति करूँगा। इसके अलावा सुसमाचार कार्य परमेश्वर के घर का केंद्रीय कार्य है, परमेश्वर का सबसे तात्कालिक इरादा यह है कि ज्यादा से ज्यादा लोग उसके सामने आएँ और उसके उद्धार को स्वीकार करें, इसलिए मुझे परमेश्वर के इरादे पर विचार करना था और सुसमाचार कार्य में सहयोग करना था। यह सोचकर मैंने अपनी पत्नी की ओर देखा और सोचा, “अगर मैं चला गया तो उसका क्या होगा? वह घर पर बिल्कुल अकेली रह जाएगी। उसे पहले से ही उच्च रक्तचाप है, सिस्टोलिक दबाव लगभग 160 से 180 एमएमएचजी और डायस्टोलिक दबाव लगभग 120 से 130 एमएमएचजी है, जब वह बीमार होती है तो उसे ऐसा लगता है जैसे बिस्तर पलट रहा है और कमरा ढह रहा है, वह बिस्तर पर लेटी रहती है, हिलने-डुलने से भी डरती है। अगर मैं उसकी देखभाल करने के लिए उसके पास न रहा तो क्या वह खुद को सँभाल पाएगी?” मैं इन मुश्किलों और चिंताओं में डूबा हुआ था। मैंने अपनी पत्नी की आँखों में आँसू देखे और मैंने उससे पूछा, “क्या हुआ?” वह एक पल के लिए रुकी और फिर बोली, “अगर तुम चले गए तो मेरे पास अपनी बात कहने के लिए कोई नहीं होगा। मैं बूढ़ी हो रही हूँ और बीमार रहती हूँ, तुम्हारे साथ होने का मतलब है कि मेरे पास कोई है जिस पर मैं निर्भर रह सकती हूँ और जो मेरी देखभाल कर सकता है।” जो मैं मन ही मन सोच रहा था, मेरी पत्नी ने उसे शब्दों में बयां कर दिया : “अगर मैं चला गया तो क्या उसका दिल टूट जाएगा और वह दुखी हो जाएगी? अगर उसकी हालत बिगड़ गई और रक्तचाप अचानक बढ़ गया तो? हमारा बेटा अपने कर्तव्य कहीं और निभा रहा है और हमारे साथ नहीं रह सकता, लेकिन उसके पास रहकर मैं तो उसकी देखभाल कर सकता हूँ। लोग अक्सर कहते हैं, ‘जवानी में साथी, बुढ़ापे में साझेदार’ विचार कुछ ऐसा है कि जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, हमें साथ रहना चाहिए, एक-दूसरे की देखभाल करनी चाहिए।” यह सोचकर मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैं बार-बार इस बात पर विचार कर रहा था, लेकिन मैं कोई फैसला नहीं कर पा रहा था। पास में रहने वाली बहनें उससे मिलने आती थीं, लेकिन मैं बस यही सोचकर चिंतित था, “अगर वह बीमार पड़ गई और कुछ गड़बड़ हो गई तो क्या होगा? क्या वह मेरे बिना काम चला पाएगी? उसकी देखभाल कौन करेगा? शायद मुझे अगुआओं को एक पत्र भेजना चाहिए, जिसमें हम अपनी असली मुश्किलें बताएँ और उनसे किसी और को ढूँढ़ने का अनुरोध करें।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करना एक भारी जिम्मेदारी है और चूँकि यह कर्तव्य मुझे मिला है, इसलिए यह परमेश्वर का इरादा है। अगर मैं यह काम करने नहीं जाऊँगा तो यह अवज्ञा होगी, लेकिन अगर मैं जाऊँगा तो मेरी पत्नी का क्या होगा? मैं उसकी भी उपेक्षा नहीं कर सकता।” इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं यह कर्तव्य करना चाहता हूँ, लेकिन मेरी पत्नी की बीमारी एक वास्तविक मुश्किल है। हे परमेश्वर, मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।” उसी क्षण मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “और सभी चीजों में पहले परमेश्वर के परिवार के हितों का ध्यान रखना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। मैं अपने दिल में समझ गया कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है और कलीसिया के कार्य को प्राथमिकता देनी है। सुसमाचार का प्रचार करना और अपने कर्तव्य निभाना एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे जी नहीं चुराया जा सकता और मुझे समर्पण करना है।
अगली सुबह मैंने अपनी पत्नी को बिस्तर पर लेटे हुए देखा। उसका रक्तचाप फिर से बढ़ गया था, उसे चक्कर आ रहा था, इसलिए वह उठ नहीं पा रही थी, उसका चेहरा पीला सा और थका हुआ था। मेरा दिल फिर से बेचैन हो गया और मैंने सोचा, “वह कभी भी बीमार पड़ सकती है—अगर वह दवा लेने के लिए पानी लेने उठे और बेहोश हो जाए तो और फिर इससे उसे दूसरी बीमारियाँ या लकवा मार जाए तो? उसकी ऐसी हालत में मुझे नहीं लगता कि मैं शांत अंतरात्मा से यहाँ से जा पाऊँगा! खासकर जैसे-जैसे वह उम्रदराज होगी, उसकी हालत बिगड़ने की आशंका और भी बढ़ जाएगी और उसे मेरी देखभाल की और भी ज्यादा जरूरत होगी। मैं अगुआओं को लिखकर पूछ सकता हूँ कि क्या मेरी पत्नी कर्तव्य करने मेरे साथ जा सकती है, वह मेजबानी का कर्तव्य निभा सकती है। इस तरह मुझे उसकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी।” बाद में मैंने एक पत्र लिखा, लेकिन जब मैंने अपने लिखे पत्र को देखा तो मुझे बहुत बेचैनी हुई। मैंने खुद से पूछा, “मैं यह पत्र क्यों लिख रहा हूँ? क्या मैं सिर्फ शर्तें नहीं रख रहा हूँ? मैं एक विश्वासी हूँ, फिर भी जब मुझे कोई ऐसा कर्तव्य मिलता है जो मेरी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होता तो मैं मना करने के बहाने बनाता हूँ। ऐसा करके मैं किस तरह समर्पण कर रहा हूँ? क्या मैं सिर्फ परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार काम करने के लिए नहीं कह रहा हूँ? क्या मेरे पास जरा भी विवेक है?” मैंने फिर देखा कि मेरी पत्नी कितनी बेचैनी में थी और मेरे मन में उथल-पुथल हो रही थी। एक तरफ सुसमाचार प्रचार करना मेरा कर्तव्य था और दूसरी तरफ मेरी पत्नी की बीमारी। मैं हमेशा उसके बारे में चिंतित रहता था, लेकिन मैं अपने कर्तव्य को त्यागना भी नहीं चाहता था। परमेश्वर का कार्य इस मुकाम पर पहुँच गया है, अगर मैं अब मना करने के बहाने बनाता हूँ तो क्या मेरे पास जरा भी अंतरात्मा है? उसी पल मेरी पत्नी को चक्कर आना कम हो गया और हम दोनों परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए घुटनों के बल बैठ गए। मैंने कहा, “परमेश्वर, मैं इस मुश्किल से बाहर निकलना चाहता हूँ और अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहता हूँ, लेकिन मेरा आध्यात्मिक कद इतना छोटा है कि अपनी पत्नी को अलग नहीं रख सकता। मेरा मार्गदर्शन करो।”
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर का इरादा कभी भी लोगों को मजबूर करने, बाँधने या हेरा फेरी करने का नहीं रहा है। परमेश्वर कभी भी लोगों को बाधित नहीं करता है या उन पर दबाव नहीं डालता है और वह लोगों को मजबूर तो बिल्कुल नहीं करता है। परमेश्वर लोगों को भरपूर आजादी देता है—वह लोगों को वह मार्ग चुनने की अनुमति देता है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। भले ही तुम परमेश्वर के घर में हो और भले ही तुम परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए हो, फिर भी तुम आजाद हो। तुम परमेश्वर की विभिन्न अपेक्षाओं और व्यवस्थाओं को अस्वीकार करना चुन सकते हो या तुम उन्हें स्वीकारना चुन सकते हो; परमेश्वर तुम्हें मुक्त भाव से चुनने का अवसर देता है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम क्या चुनते हो या तुम किस तरह से कार्य करते हो या तुम जिस मामले का सामना करते हो उसे सँभालने के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण क्या है या उसे हल करने के लिए अंत में तुम किन साधनों और पद्धतियों का उपयोग करते हो, तुम्हें अपने क्रियाकलापों की जवाबदेही लेनी चाहिए। तुम्हारा अंतिम परिणाम तुम्हारे व्यक्तिगत फैसलों और परिभाषाओं पर आधारित नहीं है, बल्कि परमेश्वर तुम्हारा लेखा-जोखा रख रहा है। परमेश्वर द्वारा बहुत सारे सत्य व्यक्त कर दिए जाने और लोगों द्वारा बहुत सारे सत्य सुन लिए जाने के बाद परमेश्वर हर व्यक्ति के सही और गलत को सख्ती से मापेगा और परमेश्वर ने जो कहा है, वह जो अपेक्षा करता है और उसने लोगों के लिए जो सिद्धांत तैयार किए हैं उनके आधार पर वह हर व्यक्ति का अंतिम परिणाम निर्धारित करेगा। इस मामले में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ परमेश्वर द्वारा लोगों के साथ हेरफेर करना या उसके द्वारा लोगों को बाँधना नहीं है—तुम आजाद हो। तुम्हें परमेश्वर से चौकस रहने की जरूरत नहीं है और न ही तुम्हें डरने या बेचैन होने की जरूरत है। तुम शुरू से आखिर तक एक आजाद व्यक्ति हो। परमेश्वर तुम्हें एक स्वतंत्र परिवेश, स्वतंत्र चयन करने की इच्छा और मुक्त भाव से चुनने का अवसर देता है, वह तुम्हें अपने लिए चुनने की अनुमति देता है और अंत में तुम जो भी परिणाम प्राप्त करते हो वह पूरी तरह से तुम्हारे द्वारा चुने गए मार्ग से निर्धारित होता है। यह उचित है, है ना? (हाँ।) अगर अंत में तुम्हें बचा लिया जाता है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और परमेश्वर के अनुरूप है और तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है, तो यह वही है जो तुम्हें अपने सही चयनों के कारण मिलता है; अगर अंत में तुम्हें नहीं बचाया जाता है और तुम परमेश्वर के अनुकूल होने में समर्थ नहीं हो और तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाते हो और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है तो वह भी तुम्हारे अपने चयनों के कारण ही है। इसलिए परमेश्वर अपने कार्य में लोगों को चुनने के बहुत अवसर देता है और वह लोगों को पूरी आजादी भी देता है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे आखिरकार यह एहसास हुआ : “परमेश्वर ने मुझे स्वतंत्र रूप से चुनाव करने की इच्छाशक्ति दी है और ऐसी स्थितियों में परमेश्वर मेरे चुनावों और मेरे द्वारा चुने गए मार्ग पर नजर रखता है—मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण कर एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता हूँ या अपने कर्तव्य को त्यागकर अपनी पत्नी की देखभाल के लिए घर पर रहता हूँ। अगुआओं ने मुझे सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए कहा है। इससे मुझे अपने कर्तव्य में प्रशिक्षण का का अवसर मिलेगा और इसके पीछे परमेश्वर का इरादा है। आपदाएँ और भी गंभीर होती जा रही हैं, बहुत से लोगों ने अभी भी परमेश्वर की वाणी नहीं सुनी है और अभी भी शैतान की यातना और नुकसान से पीड़ित हो रहे हैं। परमेश्वर उन्हें विपत्ति में गिरते हुए नहीं देखना चाहता और उसे आशा है कि अधिक लोग सुसमाचार का प्रचार करेंगे और अंत के दिनों के उसके कार्य की गवाही देंगे।” लेकिन भले ही मुझे पता था कि सुसमाचार कार्य में मेरे सहयोग की सख्त जरूरत है, मुझे चिंता थी कि मेरी पत्नी बीमार पड़ सकती है, इसलिए मैं घर पर रहकर उसकी देखभाल करना चाहता था और अपने कर्तव्य को मना करना और उससे बचना चाहता था। उसे कष्ट से बचाने के लिए मैं चाहता था कि वह मेरे साथ आए ताकि वह मेजबानी का कर्तव्य निभा सके, हालाँकि मुझे पता था कि वह अपनी हालत के कारण यह कर्तव्य नहीं निभा सकती। मेरे व्यवहार में सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण का पूर्ण अभाव था। अगर मैं अपनी पत्नी की देखभाल करने के लिए अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता तो न केवल मैं परमेश्वर द्वारा मुझमें लगाए गए दिल के खून का बदला चुकाने में असफल हो जाता, बल्कि मैं अपना कर्तव्य करने और सत्य प्राप्त करने का प्रशिक्षण लेने का अवसर भी खो देता और मेरे जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचता। परमेश्वर के प्रति मेरी कोई वफादारी या समर्पण नहीं होता और वह मुझे स्वीकार नहीं करता। मुझे कलीसिया के कार्य को प्राथमिकता देनी थी और अपने कर्तव्य को सक्रिय रूप से स्वीकार करना था, क्योंकि एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए।
बाद में मैंने सोचा, “मैं अपनी पत्नी को अपने दिल से क्यों नहीं निकाल पाता? मुझे डर है कि वह अकेली पड़ जाएगी या बीमार हो जाएगी, मैंने उसकी देखभाल करने के लिए अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाने के बारे में भी सोचा है।” चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि यह भावनाओं का प्रभाव है। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मैं लोगों को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं देता, क्योंकि मैं दैहिक भावनाओं से रहित हूँ, और चरम सीमा तक लोगों की भावनाओं से घृणा करने लगा हूँ। लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मुझे एक तरफ कर दिया गया है, और इस तरह मैं उनकी नजरों में ‘दूसरा’ बन गया हूँ; यह लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही है कि मैं भुला दिया गया हूँ; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह अपने ‘विवेक’ को पाने के अवसर का लाभ उठता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह हमेशा मेरी ताड़नाओं से विमुख रहता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह मुझे गलत और अन्यायी कहता है, और कहता है कि मैं चीजें सँभालने में मनुष्य की भावनाओं से बेपरवाह रहता हूँ। क्या पृथ्वी पर मेरे भी सगे-संबंधी हैं? किसने कभी, मेरी तरह, अपनी पूरी प्रबंधन-योजना के लिए बिना खाने या सोने के बारे में सोछे, दिन-रात काम किया है? मनुष्य की तुलना परमेश्वर से कैसे हो सकती है? मनुष्य परमेश्वर के साथ सुसंगत कैसे हो सकता है? परमेश्वर, जो कि सृजन करता है, उस मनुष्य की तरह का कैसे हो सकता है, जिसे सृजित किया गया है? मैं कैसे पृथ्वी पर मनुष्य के साथ हमेशा रह सकता हूँ और उसके साथ मिलकर कार्य कर सकता हूँ? मेरे हृदय के लिए चिंता कौन महसूस कर सकता है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 28)। “कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं। रोजाना वे जो कुछ भी कहते हैं, जैसा आचरण करते हैं और जिस भी तरह से मामलों से निपटते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं। वे इस या उस व्यक्ति के प्रति कुछ महसूस करते हैं और वे अपने दिन रिश्तों और भावनाओं के मामलों पर ध्यान देते हुए बिताते हैं। अपने सामने आने वाली सभी चीजों में वे भावनाओं के दायरे में रहते हैं। ... उसकी भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं। तुम कह सकते हो कि भावनाएं इस व्यक्ति का घातक दोष है। वह सभी मामलों में अपनी भावनाओं से विवश होता है, वह सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में अक्षम होता है, और उसमें अक्सर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है। भावनाएँ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी, उसका घातक दोष होती हैं, और उसकी भावनाएँ उसे तबाहो-बरबाद करने में पूरी तरह से सक्षम होती हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होते हैं। वे देह-सुख में लिप्त रहते हैं, और मूर्ख और भ्रमित होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति अत्यधिक भावुक होने की होती है और वह भावनाओं से जीता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य की प्रकृति को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि परमेश्वर लोगों के बीच मौजूद भावनाओं से क्यों घृणा करता है। अपनी पत्नी के प्रति अपनी भावनाओं के कारण ही मैं अपने कर्तव्य से बचना चाहता था। किसी भी स्थिति का सामना करने पर मैं भावनाओं को सबसे पहले रखता था और अपनी पत्नी की भलाई के बारे में सोचता था, मैं परमेश्वर के इरादे या अपने किए जाने वाले कर्तव्य के बारे में नहीं सोचता था। अब परमेश्वर का सुसमाचार कार्य सभी राष्ट्रों में फैल रहा है, भाई-बहन सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं और परमेश्वर के कार्य की गवाही दे रहे हैं। मुझे सुसमाचार प्रचार से संबंधित सत्यों और सिद्धांतों की कुछ समझ थी, और मुझे अपने सुसमाचार कार्य में कुछ नतीजे मिले थे, इसलिए मुझे अपना कर्तव्य निभाना था। लेकिन मैं परमेश्वर के इरादे पर विचार नहीं कर रहा था, बल्कि अपनी पत्नी के स्वास्थ्य की चिंता कर रहा था। मुझे चिंता थी कि वह घर पर अकेली रह जाएगी और अगर वह बीमार पड़ गई तो उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। मैं अपनी भावनाओं से नियंत्रित था और सुसमाचार कार्य के बारे में बिल्कुल भी विचार नहीं कर रहा था। मैं बहाने बनाना चाहता था और घर पर रहकर अपनी पत्नी की देखभाल करने के लिए अपने कर्तव्य को मना करना चाहता था। हालाँकि मुझे पता था कि परमेश्वर के घर का हित सर्वोपरि है, अगले दिन जब मैंने अपनी पत्नी को बीमार और बिस्तर पर हिलने-डुलने में असमर्थ देखा, मैं भावनाओं में बह गया, सोचने लगा कि मेरी पत्नी को मेरी देखभाल की जरूरत है, मैंने अगुआओं को यह भी लिखा कि मैं अब अपना कर्तव्य करने के लिए बाहर नहीं जाऊँगा या फिर मेरी पत्नी मेरे साथ मेजबानी का कर्तव्य करे ताकि मैं उसकी देखभाल कर सकूँ। यह सोचते हुए कि मेरी पत्नी की तबियत इतनी खराब है और वह बीमार होने पर अपना ख्याल रखने में असमर्थ है, वह मेजबानी का कर्तव्य कैसे कर पाएगी? उसका मेजबानी का कर्तव्य करना पूरी तरह से सिद्धांतों के खिलाफ था, लेकिन अपनी वैवाहिक भावनाओं के कारण मैंने उन सिद्धांतों पर विचार नहीं किया जिनके अनुसार परमेश्वर के घर में लोगों का उपयोग किया जाता है। मैंने बस यही सोचा कि अगर हम साथ रह सकें और अगर मैं उसकी देखभाल कर सकूँ तो यही काफी होगा। मुझे एहसास हुआ कि मेरी पत्नी के लिए मेरी भावनाएँ बहुत प्रबल थीं और मैं अपने कर्तव्य को बोझ समझता था। मेरे दिल में अपनी पत्नी के लिए मेरी भावनाएँ परमेश्वर के घर और मेरे कर्तव्य के हितों से कहीं ज्यादा थीं। फिर मेरे दिल में परमेश्वर का कोई स्थान कैसे होगा? मैं अपनी भावनाओं के अनुसार जीता था और मैं हर तरह से उनसे बेबस था। मैं अपने कर्तव्य नहीं कर पा रहा था, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की तो बात ही दूर है। ऐसा व्यवहार परमेश्वर को घृणित लगता है। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरी भावनाएँ मेरी घातक कमजोरी बन गई हैं, अपनी भावनाओं के कारण मैं सचमुच तुम्हारे प्रति समर्पण नहीं कर पा रहा हूँ और मैं अपने कर्तव्य से भी बचना चाहता हूँ। मुझमें न तो कोई मानवता है और न ही विवेक! हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे अपनी भावनाओं की बाधाओं से मुक्त होने और तुम्हारे इरादे पूरे करने के लिए अपने कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करने में मेरा मार्गदर्शन करो।”
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और मेरा हृदय उज्ज्वल हो गया। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की और तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। शादी के बाद भी परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी पहचान और दर्जा नहीं बदलता है—तुम अब भी तुम ही हो। अगर तुम महिला हो तो शादी के बाद भी तुम परमेश्वर के सामने एक महिला ही रहोगी; अगर तुम पुरुष हो तो शादी के बाद भी परमेश्वर के सामने तुम एक पुरुष ही रहोगे। लेकिन तुम दोनों के बीच एक चीज समान है, और वह यह है कि चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम सभी सृष्टिकर्ता के सामने एक सृजित प्राणी हो। शादी के ढाँचे में, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो और एक-दूसरे के प्रति सहनशील रहते हो, तुम एक दूसरे की मदद और सहयोग करते हो, और यही तुम्हारे लिए जिम्मेदारियाँ निभाना है। लेकिन, परमेश्वर के सामने, जो जिम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए और जो मकसद तुम्हें पूरा करना चाहिए उसकी जगह अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियाँ नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब भी अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और परमेश्वर के समक्ष रहकर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को निभाने के बीच टकराव की स्थिति हो, तो तुम्हें अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बजाय एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम्हें यही दिशा और यही लक्ष्य चुनना चाहिए, और बेशक, यही मकसद पूरा करना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोग गलती से वैवाहिक सुख की तलाश, या अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने, उसका ध्यान रखने, उसकी देखभाल करने और उससे प्यार करने को अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं, और वे अपने साथी को अपना आसमान, अपनी नियति बना लेते हैं—यह गलत है। ... इसलिए, शादी के ढाँचे में किसी भी कीमत पर वैवाहिक सुख की तलाश करने वाले पति या पत्नी का कोई भी कार्य या कोई भी त्याग परमेश्वर याद नहीं रखेगा। चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाओ, या अपने साथी की उम्मीदों पर खरा उतरो—दूसरे शब्दों में, चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपना वैवाहिक सुख बनाए रखते हो, या चाहे यह कितना ही बेहतरीन हो—इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा कर लिया है, और न ही इससे साबित होता है कि तुम ऐसे सृजित प्राणी हो जो मानक के अनुरूप है। हो सकता है कि तुम एक आदर्श पत्नी या एक आदर्श पति हो, लेकिन यह बस शादी के ढाँचे तक ही सीमित है। तुम कैसे इंसान हो, सृष्टिकर्ता इसे इस आधार पर मापता है कि तुम उसके समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाते हो, तुम किस मार्ग पर चलते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या है, जीवन में तुम किस चीज का अनुसरण करते हो, और एक सृजित प्राणी होने का मकसद कैसे पूरा करते हो। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग और तुम्हारी मंजिल निर्धारित करता है। वह इन चीजों को इस आधार पर नहीं मापता है कि तुम पत्नी या पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को कैसे पूरा करते हो; न ही इस आधार पर कि अपने साथी के प्रति तुम्हारा प्यार परमेश्वर को खुश रखता है या नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से उन जिम्मेदारियों की संगति करते हैं जो पति-पत्नी को एक-दूसरे के प्रति निभानी चाहिए। जब अपने कर्तव्यों में देरी से बचा जा सकता है तो पति-पत्नी एक-दूसरे का ध्यान रख सकते हैं, देखभाल कर सकते हैं, एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं और उन्हें सहारा दे सकते हैं। यह जिम्मेदारी पति-पत्नी को निभानी चाहिए। जैसे पहले जब मैं अपने कर्तव्यों में देरी नहीं करता था, जब मेरी पत्नी की तबीयत खराब होती थी तो मैं उसके साथ रहता था और उसकी देखभाल करता था, इस तरह मैं एक पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को अच्छे से पूरा कर रहा था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मैं एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभा रहा था। जब कलीसिया ने मुझसे अपना कार्य करने की अपेक्षा की, मुझे कलीसिया के कार्य को एक ऐसा कर्तव्य मानकर प्राथमिकता देनी थी जिससे जी नहीं चुराया जा सकता, एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को अच्छे से पूरा करना था। कहने का मतलब है कि जब मेरी पत्नी की देखभाल मेरे कर्तव्यों के साथ टकराती है तो मुझे अपने कर्तव्य करना चुनना चाहिए। यह सही चुनाव है और यही कर्तव्य और जिम्मेदारी है जिसे मुझे अच्छे से पूरा करना चाहिए। इस समय सुसमाचार कार्य में लोगों के सहयोग की तत्काल आवश्यकता है, सुसमाचार का प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना मेरी जिम्मेदारी और मिशन है। मुझे अपने कर्तव्यों का पालन करने का दृढ़ निश्चय करना होगा, क्योंकि मुझे यही अभ्यास करना चाहिए। लेकिन मैं “पति-पत्नी को एक-दूसरे से गहरा प्रेम करना चाहिए” और “जवानी में साथी, बुढ़ापे में साझेदार” जैसे शैतानी विचारों में डूबा हुआ था, मैंने पति-पत्नी के बीच भावनात्मक बंधन को हर चीज से ऊपर रखा, मेरा सोचना था कि जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, हम पति-पत्नी को साथ रहना चाहिए, एक-दूसरे का साथ देना चाहिए, एक-दूसरे की देखभाल करनी चाहिए, मदद करनी चाहिए और एक-दूसरे का साथ देना चाहिए और हमें हमेशा साथ रहना चाहिए। खासकर जब मेरी पत्नी की तबियत खराब थी तो मैंने सोचा कि उसकी देखभाल करके, मैं एक पति के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूँ, मेरे साथ रहने से ही उसे सुकून मिलेगा और हम बुढ़ापे में खुशी का अनुभव कर पाएँगे। मेरा मन अपनी पत्नी की बीमारी और भविष्य के जीवन के विचारों से भरा हुआ था, मैंने परमेश्वर के घर के सुसमाचार कार्य के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा, न ही मैंने यह सोचा कि सुसमाचार प्रचार और परमेश्वर की गवाही देने के मिशन को कैसे पूरा किया जाए। मैंने एक पत्र भी लिखा जिसमें मैंने अपने कर्तव्य को मना करने की इच्छा जताई या फिर अपनी पत्नी को अपने साथ अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए ले जाने की इच्छा जताई, सोचा कि यही उचित है। मैं पति-पत्नी के बीच जिम्मेदारियों को पूरा करने को सत्य का अभ्यास मानता था, मैंने अपनी पत्नी की देखभाल करना और उसका साथ देना ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझा। भले ही परमेश्वर के वचनों ने मुझे उसके इरादे को समझने के लिए प्रबुद्ध किया था, फिर भी मैंने पत्नी की देखभाल करने के लिए घर पर उसके साथ रहना ही चुना। अपनी दिल में मैंने अपनी पत्नी को ही सबसे ऊपर रखा, यहाँ तक कि परमेश्वर से भी ऊपर। मैं सचमुच विद्रोही था! मैं चीजों को “जवानी में साथी, बुढ़ापे में साझेदार” के शैतानी दृष्टिकोण से देखता था, मैं परमेश्वर की आवश्यकताओं और कर्तव्यों को वैकल्पिक मानता था। बल्कि मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध करना और घर पर रहकर अपनी पत्नी की देखभाल करने के लिए अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ना पसंद किया और अपने कर्तव्यों को दरकिनार कर दिया। मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना स्वार्थी हूँ! मुझे यह भी एहसास हुआ कि चाहे मैं अपनी पत्नी की कितनी भी अच्छी तरह देखभाल करूँ, यह सिर्फ एक जीवनसाथी की जिम्मेदारी और दायित्व है, सत्य का अभ्यास नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करना है, सुसमाचार कार्य में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना और अपने मिशन को पूरा करना ही मेरे जीवन को मूल्य और अर्थ देता है और यही वे लक्ष्य हैं जिनका मुझे अनुसरण करना चाहिए। मैंने विचार किया कि परमेश्वर ने मुझे उस पर विश्वास करने और उद्धार पाने का अवसर दिया, अपने कर्तव्यों में प्रशिक्षण पाने और सत्य प्राप्त करने का अवसर दिया, फिर भी मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए अपने कर्तव्य ठीक नहीं निभा पाया। मैं शैतानी विचारों से भी चिपका रहा और परमेश्वर के प्रति मेरी कोई वफादारी या समर्पण नहीं था। मुझमें वाकई अंतरात्मा और मानवता की कमी थी। इससे न केवल परमेश्वर मुझसे घृणा करता, बल्कि यह आखिरकार मुझे बर्बादी की ओर ले जाता।
बाद में, मुझे यह भी एहसास हुआ कि अपनी पत्नी को छोड़ न पाने की मेरी असमर्थता, और यह सोचना कि सिर्फ उसके साथ रहकर ही मैं उसकी अच्छी देखभाल कर सकता हूँ, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता में मेरे विश्वास की कमी को दर्शाता है। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : भले ही मनुष्य अपनी ओर से भाग-दौड़ करता रहे और व्यस्त रहे के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम्हें तब भी एक सृजित प्राणी कहा जाता?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। “कौन वास्तव में पूरी तरह से मेरे लिए खप सकता है और मेरी खातिर अपना सब-कुछ अर्पित कर सकता है? तुम सभी अनमने हो; तुम्हारे विचार इधर-उधर घूमते हैं, तुम घर के बारे में, बाहरी दुनिया के बारे में, भोजन और कपड़ों के बारे में सोचते रहते हो। इस तथ्य के बावजूद कि तुम यहाँ मेरे सामने हो, मेरे लिए काम कर रहे हो, अपने दिल में तुम अभी भी घर पर मौजूद अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता के बारे में सोच रहे हो। क्या ये सभी चीजें तुम्हारी संपत्ति हैं? तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा? तुम हमेशा अपने दैहिक परिवार के बारे में परेशान क्यों रहते हो और तुम हमेशा अपने प्रियजनों के लिए चिंता क्यों महसूस करते हो? क्या तुम्हारे दिल में मेरा कोई निश्चित स्थान है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास दिलाया कि मेरा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, मेरी पत्नी का भाग्य भी परमेश्वर के हाथों में है और मैं उसके भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकता। उसकी शारीरिक स्थिति, वह बीमार पड़ेगी या नहीं, या उसकी बीमारी बिगड़ेगी या नहीं, ये सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं, ऐसा नहीं है कि उसके साथ रहकर उसकी देखभाल करने से वह बीमार नहीं पड़ेगी। इस बिंदु पर मैं हर दिन उसके साथ रहकर उसकी देखभाल कर रहा था, लेकिन उसे अभी भी उच्च रक्तचाप, चक्कर आना और चलने में मुश्किल हो रही थी, है न? मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर की संप्रभुता को सही मायने में नहीं समझता था, न ही मैं वाकई विश्वास या समर्पण करता था, जब मेरी पत्नी की बीमारी की बात आती थी तो मैं हमेशा उसे खुद नियंत्रित करने और परमेश्वर की संप्रभुता से मुक्त होने की कोशिश करना चाहता था। मैं सचमुच कितना विवेकहीन था! आम तौर पर मैं बस शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलता था, कहता था कि परमेश्वर सब पर संप्रभु है, लेकिन परमेश्वर के लिए मेरे हृदय में कोई स्थान नहीं था, मैं परमेश्वर की संप्रभुता या अधिकार को सही मायने में नहीं समझता था और जब वास्तविक स्थितियाँ आती थीं तो मेरे पास कोई गवाही नहीं होती थी। मुझे विश्वास नहीं था कि मेरी पत्नी की बीमारी परमेश्वर के हाथों में है और मैं उसे परमेश्वर को सौंपने की हिम्मत नहीं कर पाता था। किस तरह से मुझे परमेश्वर में सच्ची आस्था थी? परमेश्वर सब पर नियंत्रण रखता है और सब पर संप्रभु है और मेरी पत्नी को कितने कष्ट सहने होंगे, उसे क्या अनुभव होंगे, उसे कितनी असफलताओं का सामना करना पड़ेगा, क्या उसकी बीमारी बिगड़ेगी या उसे लकवा मार जाएगा, ये सब परमेश्वर के हाथ में है। अगर परमेश्वर ने तय किया है कि उसकी बीमारी बिगड़ेगी या उसे लकवा मार जाएगा तो अगर मैं उसके साथ रह भी जाऊँ तो भी मैं शक्तिहीन रहूँगा। अगर उसे लकवा मारना तय है तो उसे मारेगा। अगर परमेश्वर ने यह नियत नहीं किया है कि उसकी बीमारी और बिगड़ेगी या उसे लकवा मार जाएगा तो अगर मैं उसकी देखभाल करने के लिए वहाँ न भी रहूँ तो भी उसकी हालत और नहीं बिगड़ेगी। मैंने एक अस्पताल के निदेशक के बारे में सोचा, जिसे मैं पहले जानता था। उसकी पत्नी एक दिन बिल्कुल ठीक थी, लेकिन अगले ही दिन उसकी तबियत खराब हो गई और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, जाँच के बाद पता चला कि उसे कैंसर की गंभीर बीमारी है। यह निदेशक एक चिकित्सा विशेषज्ञ था, और भले ही वह अपनी पत्नी के साथ रहा, फिर भी वह शक्तिहीन था और आखिरकार इलाज नाकाम होने पर उसकी पत्नी की मौत हो गई। मेरे साथ काम करने वाला एक भाई था। वह 70 साल का था। उसकी पत्नी का देहांत हो चुका था और उसके बच्चे कहीं और काम करते थे। जब कभी वह बीमार पड़ता तो उसके साथ कोई नहीं होता था, लेकिन वह सबक सीखने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहता था, अपने कर्तव्य सामान्य रूप से करता था और उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता था। इससे मैंने देखा कि लोग न तो अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते हैं, न ही दूसरों के भाग्य को। हर किसी का भाग्य परमेश्वर के हाथ में है। मैंने फिर सोचा कि मेरी पत्नी ने परमेश्वर पर विश्वास किया है, जिसका मतलब था कि जब उसकी हालत खराब होती थी या वह बीमार होती थी तो वह परमेश्वर से प्रार्थना कर सकती थी और सत्य की खोज कर सकती थी, केवल परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबोधन से ही उसके हृदय को शांति और स्थिरता मिल सकती थी, चाहे मैं उसकी कितनी भी अच्छी देखभाल क्यों न करूँ, जब वह बीमार होती थी तो मैं उसकी मदद करने में असमर्थ होता था। मुझे अपनी पत्नी की बीमारी परमेश्वर को सौंपनी थी और उसकी ओर देखना था। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में मैंने अपनी पत्नी की बीमारी के बारे में चिंता और व्याकुलता छोड़ दी, मेरा हृदय हल्का और मुक्त हो गया। मेरी पत्नी की हालत में भी काफी सुधार हुआ, वह परमेश्वर से प्रार्थना करने और अभ्यास में इसका अनुभव करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने को तैयार थी, उसने मेरे जाने और अपना कर्तव्य करने के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया। इसलिए मैंने अगुआओं को पत्र लिखकर जाने और अपना कर्तव्य करने की इच्छा व्यक्त की।
बाद में मेरी पत्नी की सेहत में थोड़ा सुधार हुआ, उसे एहसास हुआ कि उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी और वह परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करती थी। वह नहीं चाहती थी कि मैं जाऊँ क्योंकि वह मेरे सहारे ही सुरक्षित महसूस करती थी। उन दिनों उसकी बार-बार की बीमारी ने उसे आत्मचिंतन करने पर मजबूर कर दिया, वह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हो गई, और चाहे मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए जहाँ भी जाऊँ, वह मेरा साथ देगी और नहीं चाहेगी कि मैं उसकी चिंता करूँ। उसने कहा कि वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगी, उसके वचनों का अनुभव करने के लिए उस पर भरोसा करेगी और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करेगी। बाद में मैं सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने गया, कुछ ही समय बाद मैंने सुना कि मेरी पत्नी की बीमारी में काफी सुधार हुआ है और वह अपना कर्तव्य यथासंभव सर्वोत्तम तरीके से निभा रही है।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी भावनाओं को बहुत ज्यादा महत्व दे रहा था, अपनी भावनाओं के कारण ही मैं अपने कर्तव्य से इनकार कर रहा था, बल्कि परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर रहा था, जिससे पता चलता है कि परमेश्वर के प्रति मेरी कोई वफादारी या समर्पण नहीं था। मैं यह भी समझ गया था कि अपनी पत्नी की बीमारी को कैसे देखना है, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और सुसमाचार प्रचार करने के अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देने के लिए तैयार हो गया था। मेरे प्रति परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए उसका धन्यवाद!
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