शेष वर्षों के लिए मेरा चुनाव

05 फ़रवरी, 2023

बचपन में मेरा परिवार काफी गरीब था। गाँव के लोग अक्सर हमें धमकियाँ देते रहते थे। उनकी धमकियों के कारण जब मैं अपनी माँ को रोते देखता तो मुझे बहुत बुरा लगता। मुझे लगता कि हमारी छोटी हैसियत के कारण लोग हमें हिकारत से देखते हैं, हमें कभी आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। उस दौरान मेरे माता-पिता अक्सर मुझसे कहते, "'गरीब बड़े शहरों में भी अकेले ही होते हैं, जबकि अमीरों से पहाड़ों पर भी लोग मिलने आते हैं,' तुम बड़े होकर नाम कमाना और अपने साथियों से आगे निकलकर परिवार का नाम रोशन करना।" यह बात मेरे दिल में समा गई। मैंने हैसियत और सम्मान पाने के लिए कड़ी मेहनत की।

1986 में, मैंने एक बड़ी राष्ट्रीय कंपनी के भर्ती प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लिया। प्रशिक्षण के दौरान, मैंने जमकर पढ़ाई की, हर महीने ग्रेड और व्यवहार दोनों में ऊँचे अंक हासिल किए। लेकिन फिर भी मुझे निम्न प्रवेश-स्तर का पद मिला, जबकि जिनके अंक मुझसे खराब थे, लेकिन पारिवारिक हैसियत ऊंची थी, उन्हें प्रबंधकीय पद मिल गए। मैं इस बात को सह नहीं पा रहा था, लगा कि अगर मुझे खुद को विशिष्ट दिखाना है, तो सिर्फ अच्छा काम करना काफी नहीं है, मुझे बॉस की चापलूसी करना भी सीखना होगा। तब से, मैं अक्सर बॉस के घर के काम में मदद करने लगा, जब वह बीमार होकर अस्पताल पहुँचा, तो मैं उसके हर काम के लिए वहां मौजूद रहा। बॉस की नजरों में चढ़ने के लिए, मैं दुनिया-भर की किताबें खरीदकर पढ़ने लगा ताकि अपना प्रबंधन कौशल सुधार सकूँ। कुछ ही सालों की मेहनत रंग लाई, मुझे पदोन्नति देकर वरिष्ठ प्रबंधन में जगह दी गई। कारखाने में, मजदूर सिर हिलाकर मेरा अभिवादन करते और जब काम से घर लौटता, तो पड़ोसी मुझसे मिलने आते थे। देखते ही देखते मैं अपने गाँव में बड़ा आदमी बन गया। लोग अपने काम के लिए मेरे पास आने लगे, यहां तक कि जो लोग पहले नाक-भौं सिकोड़ते थे, उनके भी सुर बदल गए थे, दोस्ताना व्यवहार करने लगे थे। सबके ध्यान का केंद्र बनना और भर-भरकर तारीफें पाना मन को बहुत संतोष देता था।

1998 में, 35 वर्ष की आयु में ही, मैं कारखाने का निदेशक बन गया। लेकिन हैसियत और अधिकार पाकर भी मेरे अंदर एक बेचैनी थी। चूँकि मैं ज्यादा लोगों को नहीं जानता था, इसलिए अगर मैंने काम अच्छा नहीं किया, तो शायद मैं अपनी मौजूदा हैसियत कायम न रख पाऊँ। तो मैं अपने काम में सावधानी बरतता, मानो तलवार की धार पर चल रहा हूँ, कुछ गलत होने पर नौकरी जाने का डर लगता। कारोबार को बढ़ाने के लिए, मैं अक्सर अपने ग्राहकों को दावतें देता, पीने-पिलाने और गाने-बजाने के लिए उन्हें क्लबों में ले जाता। मुझे पता चला कि कुछ प्रबंधक तो ग्राहकों को पैसों के साथ औरतें भी मुहैया कराते हैं। मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं था, लेकिन तमाम सोच-विचार के बाद आखिरकार मुझे हालात से समझौता करना ही पड़ा। उस दौरान, मैं परेशान रहने लगा और मुझे सोने में भी दिक्कत होने लगी। काम के दबाव और अपनी परेशानियों के चलते, मुझे मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियाँ हो गईं और मेरा कोलेस्ट्रॉल बढ़ गया। आगे चलकर, मेरी कंपनी पब्लिक से प्राइवेट एंटरप्राइज हो गई। दो-तीन सौ कर्मचारी कंपनी के शेयर खरीदकर मालिक बन गए। तीन साल बाद, कमाई बढ़ाने के लिए, हमने चेयरमैन की योजना के अनुसार, छोटे शेयरधारकों से शेयर खरीद लिए और बस ऐसे ही, मैं और कुछ अन्य प्रमुख शेयरधारक करोड़पति बन गए। हमारी कंपनी हमारे क्षेत्र में कर राजस्व का प्रमुख स्रोत बन गई। मुझे अक्सर प्रांत की महत्वपूर्ण बैठकों में भाग लेना पड़ता था, टीवी पर भी दिखता था। मेरे अहंकार को संतुष्टि मिल रही थी। दुनियावी नजरिए से तो मैं शीर्ष पर था और अमीरी का एक शानदार जीवन जी रहा था, लेकिन अंदर एक खालीपन और बेचैनी थी। रात को बिस्तर पर पड़ा अपने बारे में सोचा करता : "इतने साल मैंने मन और आत्मा काम में झोंककर, हैसियत और ख्याति तो पा ली, लेकिन गरिमा और स्वास्थ्य गँवा बैठा। क्या मुझे वाकई ऐसा जीवन जीना चाहिए? इस तरह जीवन जीने का क्या अर्थ है?"

लेकिन व्यस्त जीवन में इन बातों पर सोचने का ज्यादा समय नहीं था। मैं अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा से इतनी बुरी तरह बंधा था कि आगे बढ़ते रहने के लिए मजबूर था।

लेकिन हैरानी की बात है, जब मैं अपने करियर के शिखर पर पहुंच रहा था तभी प्रबंधन में मेरी चूक के कारण हमारे एक उत्पाद में गुणवत्ता की बड़ी समस्या आ खड़ी हुई, जिससे कंपनी को लाखों युआन का नुकसान हुआ। उस समय मेरी हालत बहुत बुरी हो गई थी। उस कंपनी में इतने बरसों में, मैंने लगभग हर साल सुधार किए थे, लेकिन पिछले छह महीने जी-जान से काम करने के बावजूद, मैं अपनी प्रतिष्ठा बर्बाद कर बैठा। ऐसा लगा जैसे मैं पहाड़ की चोटी से रसातल में जा गिरा हूँ। मेरी पीड़ा और वेदना के उस दौर में, कुछ भाई-बहनों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार साझा किया। ईश-वचन कहते हैं : "मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। "मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर के हाथ में हैं, उसके जीवन की हर चीज़ परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह मानो या न मानो, कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। इन्हें पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि हमारा भाग्य और हर चीज परमेश्वर के हाथों में है। हम अपने करियर में सफल होंगे या नहीं, इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। इस पर गौर किया तो लगा कि यह सच है। शुरू-शुरू मेरा यही लक्ष्य था कि मैं अपने प्रयास से अपना करियर बनाऊंगा, लेकिन मैं बुरी तरह विफल रहा। इससे मुझे पता चला कि हमारा भाग्य हमारे नियंत्रण में नहीं है। मुझे ये वचन व्यावहारिक और सही लगे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर यकीन हुआ कि, ये ईश-कार्य है, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकार लिया।

फिर, मैंने ईश-वचनों का एक और अंश पढ़ा : "मैं सभी राष्ट्रों, सभी देशों, और यहाँ तक कि सभी उद्योगों के लोगों से विनती करता हूँ कि परमेश्वर की वाणी को सुनें, परमेश्वर के कार्य को देखें, और मानवजाति के भाग्य पर ध्यान दें, ताकि परमेश्वर को सर्वाधिक पवित्र, सर्वाधिक सम्माननीय, मानवजाति के बीच आराधना का सर्वोच्च और एकमात्र लक्ष्य बनाएँ, और संपूर्ण मानवजाति को परमेश्वर के आशीष के अधीन जीने की अनुमति दें, ठीक उसी तरह से, जैसे अब्राहम के वंशज यहोवा की प्रतिज्ञाओं के अधीन रहे थे और ठीक उसी तरह से, जैसे आदम और हव्वा, जिन्हें परमेश्वर ने सबसे पहले बनाया था, अदन के बगीचे में रहे थे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मैंने अपना आधा जीवन सफलता के लिए संघर्ष करते हुए बिताया था, हालाँकि मैंने अपने साथियों से श्रेष्ठ होने का लक्ष्य हासिल कर लिया था, नाम कमा लिया था और अपनी अहंकारी इच्छाएं भी पूरी कर ली थीं, फिर भी मुझे अंदर खालीपन और पीड़ा महसूस होती थी। मुझे एहसास हुआ कि सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आना, उसकी आराधना करना ही सही तरीका है, इसी से परमेश्वर का आशीर्वाद मिलेगा। मैंने परमेश्वर के आगे शपथ ली कि मैं आस्था का अभ्यास कर परमेश्वर का अनुसरण करूंगा।

दो महीने बाद, मैं अपनी कलीसिया में समूह अगुआ बन गया, मैं समूह सभाओं के आयोजन का प्रभारी था। मैं उत्साहित था और परमेश्वर की इच्छा को मानने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार था। हमारा सभा-स्थल मेरे कार्य-स्थल के पास ही था, सभाओं में जाते समय अक्सर सहकर्मियों से मुलाकात हो जाती थी। समय बीतने के साथ-साथ मेरी घबराहट बढ़ने लगी। अगर बॉस को पता चल गया कि मैं विश्वासी हूँ, तो मेरी आलोचना होगी, शर्मिंदा होना पड़ेगा, यह भी हो सकता है कि मुझे कंपनी से ही निकाल दिया जाए। तब न प्रतिष्ठा बचेगी और न रुतबा, जिन्हें पाने के लिए मैंने अपना आधा जीवन खपा दिया था। पर फिर सोचा, "परमेश्वर में विश्वास रखकर, मुझे कुछ सत्य समझ आ गया है और मैं बहुत-सी बुराइयों से बच पाया हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि परमेश्वर में विश्वास रखना, सत्य खोजना और कर्तव्य-पालन करना ही सही मार्ग है, यही मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज है, तो चाहे जो हो, मैं इसे नहीं छोड़ सकता।" उसके बाद, मैंने बेबस महसूस करना बंद कर दिया और सभा आयोजित कर अपना कर्तव्य निभाता रहा। जैसा कि अनुमान था, कुछ समय बाद, बॉस को परमेश्वर में मेरी आस्था और सभाओं में भाग लेने का पता चल गया। एक बार मैं कंपनी की बैठक में नहीं गया, तो चेयरमैन ने मेरी तलाश में लोगों को भेजकर यह भी पता लगाने को कहा कि कलीसिया सभा कहां है। दूसरी बार, मैं एक सभा में जा रहा था, चेयरमैन को पता चला तो उसने जानबूझकर मध्य-प्रबंधकों की बैठक बुला ली और ठीक मेरे बगल में बैठ गया ताकि मैं जा न सकूँ। यह स्थिति मेरे लिए वाकई मुश्किल थी, मैं जब भी सभाओं में जाता, तो विवश महसूस करता। उस दौरान मुझे घुटन महसूस होती, मेरी वर्तमान स्थिति मुझे परमेश्वर में आस्था रखने और कर्तव्य निभाने से रोक रही थी, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मेरा मार्गदर्शन करे।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा: "तुम्हें जानना ही होगा कि अब तुम मुझे कैसे संतुष्ट कर सकते हो और तुम्हें किस तरह मेरे प्रति विश्वास में सही पथ पर आना चाहिए। अब मैं तुम्हारी निष्ठा और आज्ञाकारिता, तुम्हारा प्रेम और गवाही चाहता हूँ। यहाँ तक कि अगर तुम इस समय नहीं जानते कि गवाही क्या होती है या प्रेम क्या होता है, तो तुम्हें अपना सब-कुछ मेरे पास ले आना चाहिए और जो एकमात्र खजाना तुम्हारे पास है : तुम्हारी निष्ठा और आज्ञाकारिता, उसे मुझे सौंप देना चाहिए। तुम्हें जानना चाहिए कि मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और आज्ञाकारिता में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि विश्वासी होने के नाते जीवन में चाहे कैसे भी हालत का सामना करना पड़े, हमें समर्पण का अभ्यास कर परमेश्वर की आज्ञा माननी होगी, उसके लिए गवाही देनी होगी। उस वक्त, मुझे आस्था का अभ्यास करते दो साल हो गए थे, हालांकि मैंने बाहर से कर्तव्य निभाया, पर अपने काम के आगे बेबस महसूस करता था, हमेशा चिंता होती थी कि मुझे निकाल दिया जाएगा, मैं रुतबा खो दूँगा, तो मैं मन लगाकर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाया, कई बार तो अपनी सभाओं और कर्तव्य को अपने काम से प्रभावित होने दिया। मैंने गवाही कहाँ दी? फिर, परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। "परमेश्वर में अपने विश्वास में, पतरस ने प्रत्येक चीज़ में परमेश्वर को संतुष्ट करने की चेष्टा की थी, और उस सब की आज्ञा मानने की चेष्टा की थी जो परमेश्वर से आया था। रत्ती भर शिकायत के बिना, वह ताड़ना और न्याय, साथ ही शुद्धिकरण, घोर पीड़ा और अपने जीवन की वंचनाओं को स्वीकार कर पाता था, जिनमें से कुछ भी परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदल नहीं सका था। क्या यह परमेश्वर के प्रति सर्वोत्तम प्रेम नहीं था? क्या यह परमेश्वर के सृजित प्राणी के कर्तव्य की पूर्ति नहीं थी?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। अपनी आस्था में, पतरस ने परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उससे प्रेम किया। प्रभु यीशु का बुलावा आने पर, वह फौरन अपनी नाव छोड़कर उसके पीछे चला गया, परीक्षाओं और कठिनाइयों का सामना करके भी, उसने परमेश्वर की इच्छा पूरी करनी चाही। अंत में, उसे क्रूस पर उल्टा लटका दिया गया और उसने परमेश्वर का प्रेम पाया और मृत्यु तक आज्ञाकारी रहा, उसने परमेश्वर के लिए शानदार और जबरदस्त गवाही दी, उसने एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जिया। मैंने आस्था के अभ्यास और परमेश्वर के अनुसरण का फैसला किया था, मुझे परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने में पतरस का अनुसरण करना चाहिए—यही सही फैसला होगा। मैंने याद किया कि कैसे मैं अपनी आधी जिंदगी, रिश्वत लेता-देता रहा, पतित होता रहा, मैंने रुतबे और ताकत के लिए झूठ बोले, मेरे जीवन में बहुत दुख था। मेरी जवानी इसी तरह बीत गई। आखिर में परमेश्वर द्वारा सही मार्ग दिखाए जाने के बाद भी, मैं अपने काम के आगे बेबस था, आस्था का अभ्यास कर अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता था। इस तरह काम करता रहा, तो मेरे जीवन में प्रगति कैसे होगी? खास तौर से जब मैंने परमेश्वर के ये वचन याद आए : "समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता!" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X)। तो मुझमें जल्दबाजी की भावना आ गयी। इस धरती पर 50 साल रहने के बाद मुझे अंत के दिनों में परमेश्वर का अनुग्रह स्वीकारने, सत्य खोजने और परमेश्वर का उद्धार पाने का मौका मिला, यह परमेश्वर की दया से हुआ। मुझे अपनी आस्था में लापरवाही करना बंद करना होगा। इसके बाद, मैंने अपनी नौकरी छोड़ने की सोची ताकि अपना सारा समय और ऊर्जा सत्य खोजने और अपना कर्तव्य निभाने में लगा सकूँ।

मगर फिर मुझे ख्याल आया कि मैं अपनी आधी जिंदगी कड़ी मेहनत करके एक बड़ा शेयरधारक बना था मेरा कई मिलियन युआन का पोर्टफोलियो था और मेरे बहुत-से प्रशंसक भी थे। अगर मैंने अपनी नौकरी छोड़ी, तो मैं मामूली इंसान बनकर रह जाऊँगा, फिर कौन मेरा सम्मान करेगा? मेरे दोस्त, रिश्तेदार, बॉस और सहकर्मी, सब मुझे नीची नजरों से देखेंगे और मुझे बेवकूफ कहेंगे। इस तरह मैं उनसे नजरें कैसे मिला पाऊँगा? यह ख्याल आते ही, मैं उलझन में पड़ गया, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे हिम्मत देने को कहा ताकि खुद को अपने काम की बेड़ियों और रुकावटों से मुक्त कर सकूँ। खोज के दौरान, मुझे ईश-वचनों का यह अंश दिखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्‍य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा। परंतु, धीरे-धीरे तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विकट बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि मैं अपना काम छोड़कर अपने कर्तव्य में सारी ऊर्जा इसलिए नहीं लगा पाया क्योंकि मैं यह देख नहीं सका कि कैसे शैतान शोहरत और धन की बेड़ियों से लोगों को बांधता और काबू में करता है—उसने मेरे लिए जाल बिछाया था। शैतान ने शोहरत और धन के इस्तेमाल से मुझे बहकाया और भ्रष्ट किया, जिसके कारण मैं इनके पीछे भागा, परमेश्वर से दूर हुआ और उसे धोखा दिया। मैं छोटा था तब मेरा परिवार गरीब था, उन्हें ताने सुनने पड़ते और दूसरों का अनादर सहना पड़ता था, "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो" और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है" जैसे शैतानी फलसफों का जहर मुझमें भरा था, मैंने इन धारणाओं को सर्वोच्च सत्य मान लिया और एक अमीर इंसान की तरह जीने की कसम खा ली। इसी कारण, मैं अपनी गरिमा भुलाकर अपने बॉस के सामने गिड़गिड़ाता और उसकी चापलूसी करता था। फिर जब मुझे रुतबा मिला, तो हमेशा यही चिंता सताती कि दूसरे मेरे खिलाफ साजिश रच रहे थे, तो रुतबा जमाने के लिए, मैंने अपने जमीर के खिलाफ जाकर क्लाइंट को पैसों और वेश्याओं की रिश्वत दी। मैं हमेशा आशंकित महसूस करता था, डरता था कि कभी-न-कभी मेरे पापों का घड़ा भर जायेगा। ऊंचा रुतबा पाने के लिए, मैंने बहुत कष्ट उठाकर एक कंपनी खड़ी की, पर यह बहती धारा में उल्टा तैरने जैसा था जहाँ मुझे एक पल का आराम नहीं था, आखिरकार मैं थककर बीमार पड़ गया। जब मेरे पास कोई रुतबा और ताकत नहीं थी, तो मैं इन्हें पाने की हर मुमकिन कोशिश करता था, पर जब मुझे यह सब मिल गया, तो मैं लोगों की खातिरदारी करने में जुट गया, मैं दुनिया के बुरे चलन अपनाने को मजबूर था, मुझे लगता ही नहीं था कि मैं इंसान हूँ। मैं जरा भी शांत और स्थिर नहीं था, हमेशा आशंकित रहता था, एक कष्टदायी और थकाऊ जीवन जी रहा था! शैतान ने मुझे सताने के लिए शोहरत और धन का इस्तेमाल किया। मैंने इस तथ्य पर भी विचार किया कि कैसे कुछ मशहूर और अमीर लोग दौलत-शोहरत होने और कामयाबी मिलने के बाद भी नशे करते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं या जेल चले जाते हैं। शोहरत और धन से भले ही उन्हें पल भर की प्रतिष्ठा मिल जाती हो, पर इससे उनके तन-मन में सिर्फ खोखलापन और कष्ट ही होता है। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि जिस शोहरत और धन की चाह शैतान हमारे अंदर डालता है वह एक नकारात्मक चीज है—यह हमारे साथ खेलने और हमें नुकसान पहुँचाने का शैतान का तरीका है, इससे इंसान केवल भ्रष्ट होकर नुकसान ही उठाता है। इससे लोगों की इंसानियत छिन जाती है, यह उन्हें राक्षस बना देती है। परमेश्वर के वचनों के पोषण और सिंचन का आनंद उठाकर समझा कि सिर्फ सत्य खोजकर, परमेश्वर में श्रद्धा रखकर, बुराई से दूर रहकर और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही मैं एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जी पाऊँगा। मैं शोहरत और धन के पीछे भागकर अपनी जिंदगी बर्बाद करने के जाल में नहीं फंस सकता। रुतबे और शोहरत के बंधनों से मुक्त होने के लिए मुझे परमेश्वर पर विश्वास रखना होगा, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना होगा, सत्य खोजकर सार्थक जीवन जीना होगा। इसका एहसास होने पर मैंने अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया।

कंपनी में मेरी जिम्मेदारी बड़ी थी, इसलिए मैं जानता था कि अगर मैंने सीधे इस्तीफा देकर निकलना चाहा तो चेयरमैन को यह मंजूर नहीं होगा, इसलिए मैंने चेयरमैन से बीमारी के लिए लंबी छुट्टी माँगने का फैसला किया। मगर शायद उसे मेरा इरादा मालूम पड़ गया और उसने कहा, "मैं इस पर साइन नहीं करूँगा। अगर मैंने तुम्हें बीमारी की छुट्टी दे दी, तो उसके बाद तुम इस्तीफा दे दोगे।" यह सुनकर समझ नहीं आया क्या बोलूँ। अगर चेयरमैन ने मुझे इस्तीफा नहीं देने दिया और मैंने बात आगे बढ़ाई, तो क्या वह मुझसे नाराज नहीं होगा? मेरा इक्विटी पूँजी अब भी कंपनी में लगी थी, अगर उसने मुश्किलें खड़ी करके निवेश के पैसे नहीं निकालने दिए, तो क्या होगा? उस दौरान, काम से इस्तीफा देना मेरे लिए बड़ी मुश्किल समस्या बन गई, मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ। तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने की विनती करता रहा।

एक दिन, परमेश्वर के वचनों का ये अंश याद आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब अब्राहम ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और अपने बेटे को मारने के लिए छुरी ली, तो क्या उसके कार्यकलाप परमेश्वर द्वारा देखे गए थे? वे देखे गए थे। समूची प्रक्रिया में—आरंभ से, जब परमेश्वर ने कहा कि अब्राहम इसहाक का बलिदान करे, उस समय तक जब अब्राहम ने अपने पुत्र का वध करने के लिए वास्तव में छुरी उठा ली—परमेश्वर ने अब्राहम का हृदय देखा, और पहले परमेश्वर के बारे में उसकी नासमझी, अज्ञानता और ग़लतफ़हमी चाहे जो रही हो, किंतु उस समय अब्राहम का हृदय परमेश्वर के प्रति सच्चा, और ईमानदार था, और वह परमेश्वर के द्वारा दिए गए पुत्र, इसहाक को सचमुच परमेश्वर को लौटाने जा रहा था। परमेश्वर ने उसमें आज्ञाकारिता देखी—ठीक वही आज्ञाकारिता जो उसने चाही थी" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। अब्राहम के अनुभव से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैंने देखा कि परमेश्वर बस यही चाहता है कि हम ईमानदार रहकर उसकी आज्ञा मानें। जब परमेश्वर ने अब्राहम को उसके इकलौते बेटे इसहाक का बलिदान देने को कहा, तो अब्राहम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कष्ट उठाकर अपने प्रिय बेटे का त्याग कर पाया। इससे, परमेश्वर ने देखा लिया कि अब्राहम का दिल उसके प्रति सच्चा था। फिर मैंने अपने बर्ताव पर चिंतन किया। भले ही मैं यह दावा करता था कि मेरी आस्था मेरे जीवन का सबसे जरूरी और बड़ा हिस्सा है, और यह कि मैं इस्तीफा देकर अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहता हूँ, ये बस निरर्थक बातें थीं, मैंने वास्तव में अपना सच्चा दिल नहीं सौंपा था। मुझे चिंता थी कि इस्तीफा देने पर जोर डालकर मैं चेयरमैन को नाराज कर दूँगा और अपने निवेश के पैसे वापस नहीं ले पाऊँगा। मुझे सिर्फ अपने फायदों की चिंता थी। अब्राहम ने परमेश्वर को अपना इकलौता बेटा सौंप दिया, मुझे तो बस अपनी नौकरी से इस्तीफा देना था, पर मैं यह भी नहीं कर सका। मेरा दिल परमेश्वर के लिए सच्चा नहीं था—क्या मैं बस उसे धोखा नहीं दे रहा था? यह एहसास होने पर, मैंने कसूरवार महसूस किया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं इस्तीफा देना चाहता हूँ, ताकि अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान दे सकूँ, पर मैं ऐसा कर नहीं पा रहा। हे परमेश्वर! अब मैं तुम्हें और धोखा नहीं देना चाहता। मैं अपनी नौकरी छोड़कर पूरे समय अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ।" प्रार्थना के बाद, मुझे चेयरमैन के साथ अपने इस्तीफे के बारे में चर्चा करने की हिम्मत मिली। अंत में, उसने मुझे छह महीनों की छुट्टी दे दी, पर मैंने इस्तीफा देने का मन बना लिया था।

इसी तरह छह महीने बीत गए, कंपनी के साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए मैंने अपनी छुट्टी बढ़वाने की सोची ताकि आगे जाकर अपने पैसे वापस ले सकूँ। मगर चेयरमैन ने कहा कि वह प्रांतीय राजधानी में हमारी सेल्स कंपनी में था और छुट्टी बढ़ाने के लिए मुझसे अकेले में मिलने को कहा। मगर जब हम मिले, तो उसने मेरी छुट्टी बढ़ाने की बात ही नहीं की, बस मुझे कंपनी के अलग-अलग विभागों की सैर कराने लगा। सभी दफ्तर शानदार ढंग से सजे थे और बहुत अच्छे थे, सभी लोग अपने काम में व्यस्त थे हर विभाग के मैनेजर ने मुझे "डायरेक्टर वांग" कहकर बुलाया। इससे पहले कि मुझे पता चलता, मैं फिर से लालच के जाल में फंस चुका था। मैंने सोचा : "छह महीनों तक कंपनी से दूर रहने के बाद भी यहाँ पर मेरा इतना प्रभाव है। इस कंपनी में मेरा बड़ा हिस्सा है और मैं आज भी इस कंपनी का लीडर हूँ! पिछले दो सालों में हमारी कंपनी ने बहुत मुनाफा कमाया है। अगर मैं अपना कर्तव्य त्याग कर यहाँ काम करता रहा, तो बहुत पैसे कमा पाऊँगा और धन-दौलत की जिंदगी बिताऊंगा—मेरी आने वाली पीढ़ियाँ भी इज्जत की जिंदगी जिएँगी।" यह ख्याल आने पर, मैं थोड़ा बहक गया। मगर फौरन पता लग गया कि मेरी हालत सही नहीं थी, और मैंने तुरंत अपने मन में परमेश्वर को पुकारा। तभी, मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आये : "तुम परमेश्‍वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते" (लूका 16:13)। मैंने बाइबल की वह कहानी भी याद की जिसमें शैतान प्रभु यीशु को ललचाने की कोशिश करता है : "फिर इब्लीस उसे एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर ले गया और सारे जगत के राज्य और उसका वैभव दिखाकर उससे कहा, 'यदि तू गिरकर मुझे प्रणाम करे, तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।' तब यीशु ने उससे कहा, 'हे शैतान दूर हो जा, क्योंकि लिखा है : तू प्रभु अपने परमेश्‍वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर'" (मत्ती 4:8-10)। क्या चेयरमैन अपने शानदार दफ्तर और काम के अच्छे माहौल का दिखावा करके मुझे कंपनी में बने रहने का लालच देने की कोशिश नहीं कर रहा था? परदे के पीछे रहकर क्या यह सब शैतान ही नहीं कर रहा था? शैतान रुतबे और धन से मेरी परीक्षा लेने और ललचाने की कोशिश कर रहा था, ताकि मैं परमेश्वर और अपने कर्तव्य को छोड़ दूँ, शैतान को अपने साथ खेलने और अपना शोषण करने दूँ। मुझे शैतान की धूर्त साजिश में नहीं फंसना था।

इसके बाद, मैंने तीन महीने की और छुट्टी ले ली। जब ये तीन महीने खत्म होने को आये, तो मैंने सोचा : "मैं इस तरह छुटियाँ माँगता नहीं रह सकता। अगर मुझे शांति से अपना कर्तव्य निभाने के लिए कंपनी के साथ अपने संबंध तोड़ने हैं, तो मुझे अपने शेयर बेचने होंगे, पर साल में एक ही दिन ऐसी बिक्री की अनुमति होती है। अगर चेयरमैन ने मुझे अपने शेयर नहीं बेचने दिए तो? उसके पास इक्विटी पूंजी में अब भी मेरे 1.5 मिलियन रखे हैं, अगर उसने मुझे वह वापस नहीं किया तो मैं कंगाल हो जाऊँगा। मैंने अपनी जवानी का खून, पसीना और आँसू लगाकर वो पैसे कमाए थे!" उस दौरान, मैं पूरे दिन यही सोचता रहता था, अच्छी तरह कर्तव्य न निभा पाने के कारण बहुत दुखी भी रहता था। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, खुद को इस उलझन से आजाद करने के लिए उसे मुझे रास्ता दिखाने को कहा।

बाद में, अपने शेयर बेचने के बारे में चर्चा करने के लिए मैं चेयरमैन से मिला, पर उसने मुझे शेयर नहीं बेचने दिए। उसने मेरे लिए मुश्किलें खड़ी करते हुए कहा : "अगर तुम कंपनी छोड़ना चाहते हो, तो तुम्हें अपने कुछ शेयर कंपनी के पास छोड़ने होंगे।" मुझे सैकड़ों हजार युआन कंपनी के पास छोड़ना मंजूर नहीं था, मैंने यह पैसे कमाने में बहुत मेहनत की थी! उस पल, मुझे एहसास हुआ कि शैतान फिर से मुझे ललचाने की कोशिश कर रहा था। मुझे ईश-वचन का अंश याद आया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अपने हृदय में, अय्यूब गहराई से मानता था कि उसके पास जो कुछ भी था वह सब परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया था, और उसके अपने श्रम की उपज नहीं था। इस प्रकार, वह इन आशीषों को कोई ऐसी चीज़ के रूप में नहीं देखता था जिसका लाभ उठाया जाए, बल्कि इसके बजाय उसने अपने जीवित रहने के सिद्धांतों का सहारा लेकर उस मार्ग को अपनी पूरी शक्ति से थामे रखा जो उसे थामना ही चाहिए था। उसने परमेश्वर की आशीषों को सँजोकर रखा और उनके लिए धन्यवाद दिया, किंतु वह आशीषों से आसक्त नहीं था, न ही उसने और अधिक आशीषों की खोज की। ऐसी थी उसकी प्रवृत्ति संपत्ति के प्रति। उसने आशीष प्राप्त करने की ख़ातिर न तो कभी कुछ किया था, न ही वह परमेश्वर के आशीषों के अभाव या हानि से चिंतित या व्यथित था; वह परमेश्वर के आशीषों के कारण न तो ख़ुशी से पागल या उन्मत्त हुआ था, न ही उसने बारंबार आनंद लिए गए इन आशीषों के कारण परमेश्वर के मार्ग की उपेक्षा की या परमेश्वर का अनुग्रह विस्मृत किया था। अपनी संपत्ति के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति लोगों के समक्ष उसकी सच्ची मानवता को प्रकट करती है : सबसे पहले, अय्यूब लोभी मनुष्य नहीं था, और अपने भौतिक जीवन में संकोची था। दूसरे, अय्यूब को कभी यह चिंता या डर नहीं था कि परमेश्वर उसका सब कुछ ले लेगा, जो उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की उसकी प्रवृत्ति थी; अर्थात, उसकी कोई माँगें या शिकायतें नहीं थीं कि परमेश्वर उससे कब ले अथवा ले या नहीं, और उसने कारण नहीं पूछा कि क्यों ले, बल्कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन भर करने की चेष्टा की। तीसरे, उसने कभी यह नहीं माना कि उसकी संपत्तियाँ उसकी अपनी मेहनत से आई थीं, बल्कि यह कि वे परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई थीं। यह परमेश्वर में अय्यूब की आस्था थी, और उसके दृढ़विश्वास का संकेत है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि कैसे अय्यूब ने इतना सारा धन कमाया, पर कभी उससे लगाव नहीं रखा। बल्कि, उसने परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने को महत्व दिया। अपनी सारी धन-दौलत खोकर भी वह परमेश्वर की स्तुति और गुणगान कर पाया। मुझे अय्यूब की कहानी बहुत प्रेरक लगी। मैं जानता था कि मुझे भी अय्यूब की तरह धन-दौलत से लगाव छोड़कर परमेश्वर को संतुष्ट करना होगा। ऐसा करने का मन बनाकर, मैं 200,000 युआन के शेयर छोड़ने को राजी हो गया, पर चेयरमैन को लगा कि इतना काफी नहीं था, उसने मुझे और शेयर छोड़ने को कहा। इतने सारे पैसे छोड़ना मेरे लिए आसान नहीं था, तो मैंने मन में परमेश्वर से प्रार्थना की। तभी, मुझे एहसास हुआ कि इस बार शैतान मुझे रोकने और काबू में करने के लिए पैसों का इस्तेमाल कर रहा था। मुझे अपनी दौलत खोने की कीमत पर शैतान के बहकावे में नहीं आना चाहिए, मुझे अडिग रहकर गवाही देनी होगी और शैतान को नीचा दिखाना होगा। फिर, मैंने 500,000 युआन के शेयर कंपनी के पास छोड़ दिए, फिर उसने मुझे कंपनी से निकल जाने दिया। उसके बाद, मैं आखिरकार आस्था का अभ्यास कर कर्तव्य निभाने में ध्यान लगा पाया।

बाद में, मुझे सुनने में आया कि भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोप में एक काउंटी कमिटी सेक्रेटरी को जेल हो गयी, जेल जाने के तनाव से उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। मैंने मन-ही-मन सोचा : "शोहरत और धन के पीछे भागने के यही नतीजे होते हैं।" मैंने याद किया कि कैसे मैं रुतबा पाने के लिए भी तोहफे दिया करता था, रिश्वत लेता-देता था, पतन और भ्रष्टाचार में गिरता जा रहा था। अगर मैंने कंपनी नहीं छोड़ी होती, तो शायद मेरा भी यही अंत होता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों ने मुझे शोहरत और धन के बंधनों से मुक्त किया और शैतान की लालच से बचाये रखा। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह और सुरक्षा के लिए तहेदिल से उसका धन्यवाद किया।

बीते सालों में मैंने लगातार अपना कर्तव्य निभाया है, भाई-बहनों के साथ मिलकर अक्सर परमेश्वर के वचनों पर सभा और संगति की है। मैं काफी सारा सत्य जान चुका हूँ, मुझे कई सांसारिक चीजों की परख हो गयी है। मैं इन ईश-वचनों पर अक्सर मनन करता हूँ : "लोगों का पूरा जीवन परमेश्वर के हाथों में हैं और अगर परमेश्वर के सामने लिया गया उनका संकल्प नहीं होता, तो मनुष्यों की इस खोखली दुनिया में व्यर्थ रहने के लिए कौन तैयार होता? कोई क्यों परेशानी उठाता? दुनिया में अंदर और बाहर भागते हुए, अगर वो परमेश्वर के लिए कुछ न करे, तो क्या उसका पूरा जीवन व्यर्थ नहीं चला जाएगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 39)। सच में, जिंदगी बहुत छोटी है। मैंने अपनी आधी जिंदगी शैतान के प्रभाव-क्षेत्र में बिता दी। मैं धन और शोहरत के पीछे भागता रहा, सबसे बेहतर बनना चाहा। शैतान ने मेरे साथ खिलवाड़ कर मेरा शोषण किया, मैं एक खोखला, दुखी, और निरर्थक जीवन जी रहा था। परमेश्वर की दया और अनुग्रह से ही मुझे उसके अंत के दिनों का उद्धार मिल पाया, मैं उसके लिए खुद को खपा सका, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सका। परमेश्वर के बिना मैं अपना सारा जीवन बर्बाद कर देता। कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाकर, भले ही मेरा रुतबा और धन-दौलत पहले जैसा न हो, पर अब मैं एक मुक्त, आजाद जीवन जीता हूँ, मेरा मन भी शांत हो गया है। मुझे लगता है कि मैं इंसान की तरह जीवन बिता पाया हूँ। यह सब परमेश्वर द्वारा मुझे सही मार्ग दिखाये जाने से ही मुमकिन हुआ। मैं परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए उसका धन्यवाद करता हूँ!

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