बेहतर गवाह होने की कला सीखना

04 फ़रवरी, 2022

मोरान, चीन

पिछले साल जून में, मैं सिंचन कार्य की उपयाजक चुनी गई, मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने वाले नए सदस्यों के सिंचन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। मैंने मन-ही-मन सोचा, "परमेश्वर ने इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपकर मुझे ऊँचा उठाया है, तो मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर उसके प्रेम का मूल्य चुकाना होगा।" शुरुआत में, मेरे कार्य में बहुत सी परेशानियां आईं। कई भाई-बहन अपने कामों में इतने व्यस्त थे कि वे नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, कुछ लोग धार्मिक और सीसीपी के दुष्प्रचार के बहकावे में आकर सभाओं में आना नहीं चाहते थे, कुछ लोग अपने परिवार की रोक-टोक से इतने निढाल और कमज़ोर हो चुके थे कि अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पा रहे थे। इन चीज़ों के बारे में सोचकर मुझे काफी दबाव महसूस होता था। इन भाई-बहनों का अच्छे से सिंचन करने के लिए, बहुत सारा काम करना था, ताकि वे सत्य को समझकर सही मार्ग पर अपने कदम जमा सकें। उस दौरान, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती, उस पर भरोसा रखती, और भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज करती। कुछ समय बाद, ज़्यादातर भाई-बहन पहले की तरह बैठकों में आने लगे, और कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने का मतलब समझकर अपने लिए कोई काम लेने लगे। ऐसे नतीजे देखकर मुझे बहुत खुशी हुई, मैं खुद की प्रशंसा करने से न रह सकी। "मैं ज़रूर इस काम में अच्छी हूँ। नहीं तो ऐसे अच्छे नतीजे कहाँ से आते?" इसके बाद, जब भी भाई-बहन अपनी हालत और परेशानियों के बारे में बात करते, तो मैं अनजाने में ही दिखावा करने लगती कि मैं उनसे बेहतर और ज़्यादा अनुभवी हूँ।

एक बार, एक सभा में मैं कुछ बहनों के साथ थी जिन्होंने हाल ही में सिंचन कार्य शुरू किया था, बहनों ने बताया कि कुछ नए सदस्यों को सीसीपी के भारी दमन और गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा है, जिससे वे निराश, कमज़ोर, घबराई और डरी हुई महसूस कर रही हैं। ये बहनें इस समस्या को हल करने के लिए सहभागिता करना नहीं जानती थीं। मैंने सोचा, क्योंकि मैंने हाल ही में इन समस्याओं को हल करते हुए अच्छे नतीजे हासिल किए हैं, तो यह उन्हें दिखाने का अच्छा मौका है कि मैं इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर कैसे सहभागिता करती हूँ, कि मैं सत्य को सबसे अच्छी तरह समझती हूँ और सबसे काबिल कार्यकर्ता हूँ। मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा, "हाल ही में, मैंने कुछ भाई-बहनों का सिंचन किया था जिनकी हालत ऐसी ही थी। उस वक्त मैं बहुत चिंतित थी, अच्छे से सिंचन करने के लिए मैंने उनके साथ कई बैठकें की, परमेश्वर के वचन पढ़े और उनकी हालत के अनुसार सत्य पर सहभागिता की। मुझे कलीसिया आने-जाने के लिए रोज़ 50 किलोमीटर से ज़्यादा बाइक चलानी पड़ती थी। कुछ वक्त के सिंचन के बाद, उन्हें परमेश्वर के कार्य, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि का थोड़ा ज्ञान हुआ, परमेश्वर बड़े लाल अजगर को कैसे अपने कार्य में विषमता के रूप में इस्तेमाल करता है, यह समझकर परमेश्वर में उनका भरोसा बढ़ गया। अब वे सीसीपी के अत्याचार के आगे बेबस महसूस नहीं करते थे और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए सुसमाचार भी फैलाना चाहते थे...।" सहभागिता के दौरान, वे बहनें सम्मोहित नज़रों से मेरी ओर देखती रहतीं। मुझे बहुत संतुष्टि मिलती और बोलते हुए मेरा जोश और बढ़ जाता। मेरी बात पूरी होने पर, एक बहन ने उत्साहित होकर कहा, "अपने अनुभव के कारण आप समस्याओं को समझने में माहिर हैं। मैं तो कुछ नहीं समझ पाती।" दूसरी बहन ने ईर्ष्या के साथ कहा, "इन समस्याओं को हल करना आपके लिए कितना आसान है। अगर आपके पास और बेहतर अनुभव हैं तो हमें ज़रूर बताएं, ताकि हम आपसे सीख सकें।" उनकी प्रशंसा सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। हालांकि मैंने यही कहा कि मुझे अच्छे नतीजे अपनी मेहनत से नहीं, बल्कि सिर्फ परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही हासिल हुए, मगर अपने दिल में, मुझे लगा कि ऐसे नतीजों के लिए मैंने बहुत कष्ट उठाए हैं और कीमत चुकाई है। इसके बाद, मैं और भी ज़्यादा दिखावा करने लगी।

एक बार सभा में, एक बहन सिंचन कार्य में अच्छे नतीजे हासिल न कर पाने के कारण निराश महसूस करने लगी, उसने अपनी कई समस्याओं के बारे में बताया। मैंने सोचा, "अगर मैंने कहा कि मुझे भी इन्हीं समस्याओं और कमियों का सामना करना पड़ा था, तो लोग मुझे छोटा नहीं समझने लगेंगे? उसके काम की ज़िम्मेदारी मुझ पर है, इसलिए मैं उसे अपने सफल अनुभवों के बारे में ही बताऊँगी, और दिखाऊँगी कि अपने सामने आने वाली ऐसी समस्याओं और परेशानियों को हल करने के लिए मैं कैसे सत्य पर सहभागिता करती हूँ। इस तरह उनकी समस्या भी हल हो जाएगी और वे मेरे बारे में ऊंचा भी सोचेंगे।" ऐसा सोचने के बाद, मैं अपनी कमजोरियों और कमियों के बारे में बात करने से बचती रही और अपने काम में प्रभावशाली होने के बारे में शेख़ी बघारने लगी। मैंने कहा, "इस दौरान, मैंने पांच भाई-बहनों का सिंचन करके उनकी मदद की। कुछ लोग धार्मिक धारणाओं वाले थे, कुछ को पैसों की चाह थी, और वे आम तौर पर सभाओं में नहीं आते थे, कुछ लोग घर की परेशानियों के कारण कमज़ोर और निराश थे। मैं एक-एक कर उन सबके पास गई, कुछ कठिनाइयों को हल किया, परमेश्वर के वचनों की खोज की, और इन समस्याओं को हल करने के लिए हरेक के साथ सहभागिता करती रही, जब तक कि वे सत्य को समझकर और अपनी धारणाओं को त्यागकर नियमित रूप से सभाओं में नहीं आने लगे और पूरे मन से अपना कर्तव्य नहीं निभाने लगे। हमारे बीच एक काबिल पेशेवर भाई भी थे, जो दुनियावी रुतबे और नाम के चक्कर में शायद ही कभी सभाओं में आते थे। मुझे उनकी मदद करने में बहुत परेशानी हुई, मगर मैंने परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए और परमेश्वर की इच्छा पर सहभागिता की। इससे उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वालों के लिए सत्य की खोज का महत्व समझने में मदद मिली, वे समझ गए कि नाम और रुतबे के पीछे भागने का कोई फायदा नहीं, और केवल परमेश्वर का अनुसरण करके ही वे सत्य और जीवन पाकर परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं, इसलिए वे सत्य की खोज करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो गए।" सहभागिता के बाद, मैंने अपनी बहनों के चेहरे पर प्रशंसा और आदर के भाव देखे, उन्होंने मेरी सहभागिता में शामिल परमेश्वर के वचनों के अंश नोट कर लिए। एक बहन ने जोर देकर कहा, "आपने सत्य के इस्तेमाल से उनकी समस्याएँ हल कीं, परमेश्वर की इच्छा को समझने, उसका अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने में उनकी मदद की, अगर आपके पास सत्य की वास्तविकता नहीं होती तो आप ऐसा कभी नहीं कर पातीं।" दूसरी बहन ने सराहना करते हुए कहा, "अगर मेरे सामने ये समस्याएँ आतीं, तो मैं उन्हें कभी हल नहीं कर पाती। आप हमसे ज़्यादा अनुभवी हैं, इसलिए आप इन समस्याओं को हमसे बेहतर हल कर सकती हैं।" उस वक्त मुझे भी इस बात की भनक थी। हमारी बातचीत के बाद, एक बहन थोड़ी नकारात्मक महसूस करने लगीं, उन्हें लगा उनकी काबिलियत कम है और वे सत्य के इस्तेमाल से नए सदस्यों की समस्याएँ नहीं हल कर पा रही थीं। मैंने सोचा, "क्या मैं अपने सफल अनुभवों के बारे में कुछ ज़्यादा ही बोल रही हूँ? मेरे लिए उनकी समस्याओं को हल करना चुटकी बजाने जैसा आसान है। क्या इसलिए वे खुद को अक्षम और मुझे ऊँचा समझने लगी हैं, और अपनी समस्याओं को हल करने के लिए मुझ पर निर्भर रहती हैं?" मैंने प्रशंसा करने और प्रशंसा पाने के नुकसानों पर विचार किया। मगर फिर मैंने सोचा, "मैं उन्हें अपने व्यावहारिक अनुभवों के बारे में बता रही हूँ, इसमें तो कोई बुराई नहीं है।" उस वक्त, मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया और बात टल गई। कुछ समय बाद, मैं दो बहनों से उनके सिंचन कार्य को लेकर बात करने के लिए मिली। मेरे वहां पहुंचते ही, उनमें से एक ने जोश से कहा, "अच्छा हुआ जो आप आ गईं। हमारे पास भाई-बहनों की कुछ समस्याएँ हैं जो हमसे हल नहीं हो पा रहीं हैं। अब आप आ गई हैं, तो हम आपसे पूछ सकती हैं।" उनकी आँखों में अपेक्षा देखकर मैं रोमांचित भी थी और चिंतित भी। रोमांचित इसलिए क्योंकि वे मुझे ऊंचा समझ रही थीं, और चिंतित इसलिए क्योंकि मुझे लगा कहीं हमेशा अपने काम में अच्छे नतीजे हासिल करने की बात करते रहने से ही वो मेरी प्रशंसा तो नहीं करने लगी हैं। फिर मुझे खयाल आया, "मैं उनसे हमेशा अपनी कामयाबी की बात करती हूँ, ताकि उन्हें अभ्यास का मार्ग मिल सके, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा होती है। और फिर, मैं तो सिर्फ अपने वास्तविक अनुभवों की ही बात करती हूँ, बढ़ा-चढ़ाकर कुछ नहीं कहती।" इसलिए, मैंने फिर से अपने सफल अनुभवों पर ही सहभागिता की। उन्होंने पहले की ही तरह मुझे प्रशंसा और ईर्ष्या भरी नज़रों से देखा, जिससे मुझे खुशी हुई।

इसके बाद से, हर बैठक में, मैं अपने कष्टों और कर्तव्य में चुकाई गई कीमत के बारे में बात करती, यह बताती कि कैसे मैंने समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता की, और अपने सभी सफल अनुभवों के बारे में बताती। धीरे-धीरे, मेरे सभी भाई-बहन मेरी आराधना करने लगे, वे अपनी सभी समस्याएं हल करने के लिए मेरा इंतज़ार करते, और मुझे भी उनकी नज़रों में ऊँचा दिखने और पूजे जाने में मजा आने लगा। बैठक के बाद घर जाते वक्त, अपने भाई-बहनों के प्रशंसा और श्रद्धा भरे भावों को याद करके, मुझे बहुत गर्व होता था। अपने कर्तव्य में थोड़े समय में ही, इतने सारे लोग मेरी प्रशंसा करने और मुझे ऊँचा समझने लगे थे, और इस विचार से मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए भरपूर शक्ति और प्रेरणा मिलती। मगर जब मैं दूसरों द्वारा अपनी आराधना के आनंद में डूबी हुई थी, तभी अचानक मुझे काट-छाँट और निपटान का सामना करना पड़ा।

एक दिन, कलीसिया के अगुआ ने आकर मुझसे कहा, "इस कलीसिया के चुनाव में मैंने भाई-बहनों को आपका मूल्यांकन करने के लिए कहा था, और सभी का ये मानना है कि आपको दिखावा करना पसंद है।" यह सुनते ही मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। मैंने सोचा, "वो ऐसा कैसे कह सकते हैं कि मुझे दिखावा करना पसंद है? अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? अब मैं लोगों का सामना कैसे कर पाऊँगी?" मैंने उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की, "मैं मानती हूँ कि मैं थोड़ी अहंकारी हूँ, और कभी-कभी अनजाने में दिखावा भी करती हूँ, मगर मैं जानबूझकर ऐसा नहीं करती। मैं सिर्फ अपने अनुभव और ज्ञान का ही सच्चा बखान करती हूँ।" यह देखकर कि मैं खुद को नहीं जानती, मेरी अगुआ ने कहा, "आप अपने अनुभव के बारे में बात करती हैं, तो सभी भाई-बहन परमेश्वर पर भरोसा करके सत्य की खोज करने के बजाय आपको ऊँचा समझकर आप पर भरोसा क्यों करते हैं? आप कहती हैं कि आप जानबूझकर दिखावा नहीं करतीं, तो फिर आप अपनी खुद की भ्रष्टता, कमियों, नकारात्मकता, कमजोरी या अपनेअसली अंदरूनी विचारों के बारे में बात क्यों नहीं करतीं? आप अपनी भ्रष्टता या कमजोरी की नहीं बल्कि सिर्फ अपनी अच्छाई की बात करती हैं। इससे यह प्रभाव पड़ता है कि आप सत्य की खोज करती हैं, और इसका अनुभव करना जानती हैं। क्या इसे खुद को ऊँचा उठाना और दिखावा करना नहीं कहा जाएगा?" मेरी अगुआ ने मेरी जो कमियां उजागर करके मेरी आलोचना की थी, उनका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मुझे याद आया कि मैं आम तौर पर बैठकों में अपने सफल अनुभवों की ही बातें किया करती थी, मैंने अपने कर्तव्य में आए उतार-चढ़ावों और विफलताओं के बारे में कभी चर्चा नहीं की। मैं वाकई दिखावा कर रही थी। यह सोचकर कि कैसे मैंने इतने सारे भाई-बहनों के सामने दिखावा किया, और कैसे अब वे सब मुझे पहचान चुके हैं, मैं शर्म के मारे ज़मीन में गड़ जाना चाहती थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही मुझे दुख होता रहा, और मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक दिए और प्रार्थना की, "परमेश्वर, अब मैं बिल्कुल भी दिखावा करना नहीं चाहती। मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान सकूँ।"

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "स्वयं का उत्कर्ष करना और स्वयं की गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे स्वयं का उत्कर्ष करते और गवाही देते हैं? वे इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? एक तरीक़ा इस बात की गवाही देना है कि उन्‍होंने कितना अधिक दुःख भोगा है, कितना अधिक काम किया है, और स्वयं को कितना अधिक खपाया है। वे इन बातों की चर्चा निजी पूँजी के रूप में करते हैं। अर्थात, वे इन चीज़ों का उपयोग उस पूँजी की तरह करते हैं जिसके द्वारा वे अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मज़बूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्‍हें मान दें, सराहना करें, सम्मान करें, यहाँ तक कि श्रद्धा रखें, पूज्‍य मानें, और अनुसरण करें। यह परम प्रभाव है। इस लक्ष्‍य—पूर्णतया अपना उत्कर्ष करना और स्वयं अपनी गवाही देना—को प्राप्त करने के लिए वे जो चीज़ें करते हैं, क्‍या वे तर्कसंगत हैं? वे नहीं है। वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं। इन लोगों में कोई शर्म नहीं है : वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, और विशेष दक्षताओं तक पर, या अपने आचरण की चतुर तकनीकों और लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों तक पर इतराते हैं। स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे पाखण्‍ड और छद्मों का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ, और नाकामियाँ छिपाते हैं ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने परमेश्‍वर के घर को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह स्वयं अपना उत्कर्ष करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या स्वयं अपना उत्कर्ष करना और अपनी गवाही देना सामान्‍य मानवता की तर्कसंगत सीमाओं में आता है? यह नहीं आता है। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकारी स्वभाव मुख्‍य अभिव्यंजनाओं में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनकी कहानियाँ पूरी तरह अकाट्य होती हैं; उनके शब्‍दों में अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, और उन्‍होंने इस तथ्‍य को छिपाने का तरीक़ा ढूँढ़ निकाला होता है कि वे दिखावा कर रहे हैं, लेकिन वे जो कुछ कहते हैं उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को अब भी यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव ही है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन ने मेरे दिल को छू लिया। क्या मैं भी उसी तरह दिखावा करते हुए खुद की गवाही नहीं दे रही थी, जैसा परमेश्वर के वचनों में बताया गया है? मुझे एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य निभाते वक्त, मैं सिर्फ अपने कष्टों और अच्छे नतीजों के बारे में ही बात करती थी। बैठकों में, जब मेरे भाई-बहनों ने उन समस्याओं का ज़िक्र किया जो वे नहीं सुलझा पा रहे थे, तो मैंने सत्य पर सहभागिता नहीं की, न ही परमेश्वर की इच्छा को समझने में उनकी मदद की, और न ही परमेश्वर पर भरोसा रखने को कहा। बजाय इसके, मैं अपने कष्टों और समस्याएं हल करने की अपनी काबिलियत की गवाही देती रही। मैं हमेशा यही बताती कि मैंने लोगों के सिंचन के लिए कितनी दूर तक यात्रा की, कितनी कीमत चुकाई। मैंने कभी उस कमजोरी या कमियों की बात नहीं की जो समस्याओं के दौरान उजागर हो रही थीं। आम तौर पर, मैं बैठकों में केवल सकारात्मक प्रवेश की बात करती थी, यह बताती थी कि कैसे मैंने जिम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखा, कैसे मैंने अपने भाई-बहनों की समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज की, या मेरे सिंचन और सहयोग से कितने लोग बैठकों में आने लगे और अपना कर्तव्य निभाने लगे, ताकि सबको यही लगे कि मुझे सत्य की समझ है और मैं समस्याएं हल कर सकती हूँ। यह बात बिल्कुल साफ थी कि परमेश्वर के वचनों के कारण ही उनमें सत्य को समझने, आस्था रखने और अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा जगी थी। ये नतीजे परमेश्वर के वचनों से ही हासिल हुए हैं। मगर मैंने न तो परमेश्वर की प्रसंशा की और न ही उसके कार्य और वचन की गवाही दी। मेरे अनुभव सुनकर किसी को भी परमेश्वर का ज्ञान नहीं मिला, बल्कि वे मेरी ही आराधना करने लगे। समस्याएं आने पर उन्होंने परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया या सत्य की खोज नहीं की। बल्कि, उन्हें सुलझाने के लिए वे मेरी सहभागिता पर निर्भर रहे। वे मुझे ही अपने जीवन की रक्षक समझ बैठे थे। मैं लोगों को खुद के सामने ला रही थी। यह लोगों को बहकाकर परमेश्वर के साथ रुतबे के लिए होड़ करना था। फिर भी, मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं खुद को ऊँचा उठाने या दिखावा करने में लगी थी। मुझे यही लगता था कि मैं सिर्फ अपने सच्चे अनुभव बता रही हूँ। पर अब मैं जान गई थी कि अपने अनुभवों का ज़िक्र करते हुए मेरी घृणित मंशाएं होती थीं। मैं लोगों के दिलों में अपने लिए एक ऊँची जगह बनाना चाहती थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही मैं खुद को नीच और बेशर्म महसूस करती रही। परमेश्वर ने सिंचन का कार्य सौंपकर मुझे ऊँचा उठाया था, ताकि मैं समस्याओं को हल करने और लोगों को परमेश्वर के करीब लाने के लिए उसके वचनों पर सहभागिता कर सकूँ, सत्य को समझकर परमेश्वर को जानने में उनकी मदद कर सकूं। मगर अपने कर्तव्य में, मैंने हर जगह दिखावा किया ताकि लोग मेरी आराधना करें। मैंने पवित्र आत्मा के कार्य के नतीजों को अपनी मेहनत का फल समझकर अपने बारे में डींगे हांकने के लिए इस्तेमाल किया। मैंने परमेश्वर की महिमा चुराकर अपने भाई-बहनों से खुद की प्रशंसा और आराधना करवाई, मगर मुझे ज़रा सी भी शर्म नहीं आई। मुझमें रत्ती भर भी अंतरात्मा या विवेक नहीं था! परमेश्वर ने मेरे साथ काट-छाँट और निपटान करने के लिए एक बहन को भेजा, ताकि मैं अपने गलत मार्ग पर विचार करके समय रहते अपनी गलतियाँ सुधार सकूँ, यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार ही था। मैं समझ गई कि मैं परमेश्वर को और दुख नहीं पहुँचा सकती। मुझे प्रायश्चित करना होगा।

उस वक्त, मुझे परमेश्वर के वचनों का ये अंश याद आया, "'अनुभव साझा करने और संगति करने' का अर्थ है अपने हृदय के हर विचार, अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था, अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान, और अपने भीतर के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में बोलना, फिर अन्य लोगों को इन्हें समझने देना, सकारात्मक को स्वीकार करने और जो नकारात्मक है उसे पहचानने देना। केवल यही साझा करना है, और केवल यही वास्तव में संगति करना है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं समझ गई कि अनुभव पर सहभागिता करते हुए हमें खुद की मंशाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के बारे में नहीं सोचना चाहिए। चाहे मैं सकारात्मक हूँ या नकारात्मक, मुझे हमेशा अपने भाई-बहनों से अपनी वास्तविक हालत के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए, ताकि वे मेरे अनुभव से सीख लेकर सकारात्मक चीज़ों को अपना सकें और नकारात्मक चीज़ों को पहचान सकें, वो देख पाएँ कि मैं भी विद्रोही और भ्रष्ट हूँ, और वो मुझे ऊंचा समझकर मेरी प्रशंसा न करें। इस तरह, वे मेरे अनुभव से सीख लेकर मेरी गलतियों को नहीं दोहराएंगे। अगले दिन की बैठक में, मुझे अपनी हालत के बारे में चर्चा करने की हिम्मत मिली। मैंने विश्लेषण करके सबको बताया कि मैं कैसे दिखावा किया करती थी ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें, और कैसे मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान पाई। उस बैठक में मैंने खुद को बहुत सुरक्षित और खुश महसूस किया।

एक बार, मुझे पता चला कि एक बहन बहुत उदास रहती थीं। बात करने पर, उन्होंने कहा, "बैठकों में, मैं हमेशा प्रभावशाली तरीके से दूसरों की मदद करने के आपके अनुभव को सुनती हूँ, मगर मेरे पास सत्य की वास्तविकता नहीं है, और मेरी काबिलियत भी बहुत कम है। मैं समस्याओं को हल नहीं कर पाती। इससे मुझे काफी तनाव रहता है। मैं ये काम नहीं संभाल सकती।" उसकी बात सुनकर, मैं बहुत शर्मिंदा हुई। मैंने सोचा, "उसकी नकारात्मकता का कारण कोई और नहीं बल्कि मैं ही हूँ। मैंने अपने कर्तव्यों में परमेश्वर की प्रसंशा नहीं की, मैंने अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में आने वाली व्यवहारिक समस्याओं को हल नहीं किया, मैंने हमेशा बढ़ा-चढ़ाकर बातें की और दिखावा किया, जिससे वो अनजाने में ये समझ बैठी कि मेरे पास सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद-काठी है। मैं अपनी गलती नहीं दोहरा सकती। मुझे अपने बारे में उसे सब कुछ सच-सच बताना होगा।" तो मैंने उसे सब कुछ बता दिया, कि मेरी हालत कैसी है, कैसे मैं इतने दिनों से दिखावा कर रही थी। मैंने उसे बताया कि मेरे पास सत्य की वास्तविकता नहीं है, कि मेरे काम के सभी नतीजे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन से आए थे, और मैं अपने आप कुछ हासिल नहीं कर सकती थी। मेरी बहन ने भावुक होकर कहा, "मैं सत्य की खोज नहीं करती, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, मैं सिर्फ बाहरी गुणों पर ध्यान देती रही, मुझे पता नहीं था कि यह सब परमेश्वर का कार्य और मार्गदर्शन है। मैं नकारात्मकता और कमजोरी में नहीं जीना चाहती। मैं परमेश्वर पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।"

इसके बाद, मैं आत्म-चिंतन करने लगी। यह जानते हुए भी कि दिखावा करने का मतलब परमेश्वर का विरोध करना है, क्यों मैं अनजाने में इस मार्ग पर चल पड़ी थी? मुझे क्या हो गया था? बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का ये अंश पढ़ा, "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचन के प्रकाशन से, मैं समझ गई कि मुझे अपने भाई-बहनों के सामने दिखावा करना और उनके मुँह से अपनी प्रशंसा सुनना बहुत पसंद था, क्योंकि मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के काबू में थी, और यह परमेश्वर के विरोध का मार्ग है। अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण ही, अपने काम में कुछ अच्छे नतीजे मिलने पर मैं खुद की प्रसंशा करने लगी थी। सभाओं में, मैं हमेशा बढा-चढ़ाकर बातें करती थी और अपने काम के नतीजों का दिखावा करती रहती थी, ताकि ये साबित कर सकूं कि मैं काबिल हूँ और लोग मुझे ऊँचा समझकर मेरी प्रशंसा करें। अपने कामों में समस्याएं आने पर मैं कमज़ोर पड़ जाती थी, विद्रोही स्वभाव और भ्रष्टता दिखाती थी, मगर मैंने कभी भी इनके बारे में नहीं बताया, ताकि खुद को असाधारण और श्रेष्ठ दिखा सकूँ, ताकि सब मुझे ऊँचा समझकर मेरी और भी ज़्यादा आराधना करें। अपने भाई-बहनों की प्रशंसा पाकर मुझे बहुत खुशी मिलती थी, मैं बेशर्मों की तरह उनकी प्रशंसा और आराधना का आनंद उठाने लगी थी। क्या मैं लोगों के दिलों में शासक की जगह पाने के लिए परमेश्वर से होड़ नहीं कर रही थी? मैंने पौलुस के बारे में सोचा कि कैसे उसे सभाएं करने और उपदेश देने में आनंद आता था, कैसे वह पवित्र आत्मा के कार्य के प्रभावों को अपनी खुद की पूंजी बताया करता था, कैसे वह लोगों को बहकाने के लिए हमेशा खुद की बड़ाई और दिखावा किया करता था, और कैसे वह सभी विश्वासियों को अपने करीब ले आया था, जिससे आज 2,000 साल बाद भी पूरा धार्मिक संसार पौलुस की भक्ति और प्रसंशा करता है, उसके शब्दों को परमेश्वर के वचन मानता है, और उन्हें प्रभु यीशु का ज़रा सा भी ज्ञान नहीं है। पौलुस अहंकारी और दंभी था, उसमें परमेश्वर के लिए कोई सम्मान नहीं था; वह परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलता रहा। उसने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह खुद की जगह बना ली और उसके धार्मिक स्वभाव का भारी अपमान किया, जिससे वह परमेश्वर द्वारा दंडित और शापित किया गया। क्या मैं पौलुस जैसी ही नहीं थी? मैं भी अहंकारी और दंभी थी, मुझे खुद की प्रशंसा सुनना, दिखावा करना, और लोगों से घिरे रहना बहुत पसंद था। इसी वजह से, अपने "प्रदर्शन" के कई महीनों बाद, सभी लोग मुझे ऊँचा समझकर मेरी प्रशंसा करने लगे, और उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। समस्याएं आने पर वे सहभागिता और समाधान के लिए परमेश्वर के बजाय मेरी खोज करने लगे। क्या मैं परमेश्वर का विरोध करके अपने भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुंचा रही थी? मैंने परमेश्वर की आज्ञा स्वीकार कर ली, मगर उसके ख़िलाफ़ खड़ी होकर उसकी दुश्मन बन गई, और परमेश्वर का विरोध करने वाले पौलुस के मसीह-विरोधी मार्ग पर चल पड़ी। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो मेरा अंत भी पौलुस जैसा ही होगा। परमेश्वर मुझे हटाकर दंडित करेगा। तब जाकर मुझे समझ आया कि मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के काबू में थी। मैं अक्सर बेशर्मों की तरह खुद की बड़ाई और दिखावा किया करती थी, अपने भाई-बहनों को बहकाकर खुद की भक्ति करवाती थी, कभी-कभी तो मेरे अंदर घृणित मंशाएं होती थीं या मैं दिखावा करने की तरकीबें आजमाती थी। मैं कितनी दुष्ट थी! मुझे खुद से घृणा और नफरत होने लगी, मैंने कसम खाई कि मैं दोबारा कभी दिखावा नहीं करूंगी।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचन के पाठ का यह वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के स्वभाव के बारे में, तथा जो उसके पास है और जो वह स्वयं है उसके बारे में, तुम्हारी क्या समझ है? उसके अधिकार तथा उसकी सर्वशक्तिमानता और बुद्धि के बारे में तुम्हारी क्या समझ है? क्या कोई जानता है कि परमेश्वर पूरी मानवजाति और सभी चीज़ों के बीच कितने वर्षों से काम करता रहा है? किसी को भी पता नहीं है कि परमेश्वर सटीक रूप से कितने वर्षों से सारी मानवजाति के लिए काम, और उसका प्रबंधन करता रहा है; वह मानवजाति को ऐसी बातों का विवरण नहीं देता। पर अगर शैतान थोड़ी देर भी ऐसा काम करे, तो क्या वह इसकी घोषणा करेगा? वह निश्चित रूप से इसकी घोषणा करेगा। शैतान अपनी शेखी बघारना चाहता है, ताकि वह अधिक लोगों को धोखा दे सके और उनमें से अधिक लोग उसे श्रेय दें। परमेश्वर इस दायित्व का विवरण क्यों नहीं देता है? परमेश्वर के सार का एक पहलू है जो विनम्र और छिपा हुआ है। कौन-सी चीजें विनम्रता और छिपाव के विपरीत होती हैं? अहंकार, धृष्टता और महत्वाकांक्षा। ... मसीह-विरोधी शैतान से अलग नहीं हैं : वे अपने द्वारा किए गए हर छोटे-मोटे काम के बारे में सबके सामने शेखी बघारते हैं। उनकी बात सुनकर लगता है कि वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं—लेकिन अगर तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें पता चलेगा कि वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहे, बल्कि दिखावा कर रहे हैं, खुद को स्थापित कर रहे हैं। उनकी बातों के पीछे की प्रेरणा और सार चुने हुए लोगों और हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ होड़ करना है। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, जबकि शैतान खुद का दिखावा करता है। क्या कोई अंतर है? क्या शैतान को विनम्र कहा जा सकता है? (नहीं।) उसके दुष्ट स्वभाव और सार को देखते हुए, वह एकदम तुच्छ और निकृष्ट है; शैतान के लिए दिखावा न करना एक असाधारण बात है। शैतान को 'विनम्र' कैसे कहा जा सकता है? 'विनम्रता' परमेश्वर का अंग है। परमेश्वर की पहचान, सार और स्वभाव उदात्त और आदरणीय हैं, लेकिन वह कभी दिखावा नहीं करता। परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, वह लोगों को यह नहीं देखने देता कि उसने क्या किया है, लेकिन जब वह गुप्त रूप से कार्य करता है, तब निरंतर लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और उन्हें पोषण और मार्गदर्शन मिलता है—और इन सब चीजों की व्यवस्था परमेश्वर द्वारा की जाती है। क्या यह गोपनीयता और विनम्रता है कि परमेश्वर इन बातों को कभी प्रकट नहीं करता, कभी उनका उल्लेख नहीं करता? परमेश्वर विनम्र है क्योंकि वह यह सब काम करने में सक्षम है, लेकिन कभी उनका उल्लेख या कभी उन्हें प्रकट नहीं करता, लोगों के साथ उन बातों की चर्चा नहीं करता। जब तुम ऐसा करने के योग्य ही नहीं हो तो तुम्हें विनम्रता की बात करने का क्या अधिकार है? तुमने इनमें से कोई भी काम नहीं किया, फिर भी उनका श्रेय लेने की जिद पर अड़े रहते हो—इसे बेशर्म होना कहा जाता है। मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसे महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत विशाल है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, 'मेरी क्षमता असाधारण है।' वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और सूर्य के प्रकाश को या मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी दृष्टिगोचर भौतिक वस्तुओं को लो—ये सभी बिना रुके प्रवाहित होती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह प्रश्नातीत है। तो, अगर शैतान ने कुछ अच्छा किया, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। यह कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधियों के जैसा ही है, जिन्होंने पहले खतरनाक काम किया था, या कभी कोई ऐसा काम किया था जो उनके अपने हितों के लिए हानिकारक था, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे इन बातों को कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने तुच्छ हैं! लोग तुच्छ हैं, और शैतान बेशर्म है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, उसके पास अधिकार और सामर्थ्य है, उसका रुतबा सबसे ऊँचा है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर खुद देहधारण करके हमारे बीच आया, लोगों को पोषण देने और बचाने के लिए वह बिना कुछ कहे सत्य व्यक्त करता है। परमेश्वर सर्वोच्च और शक्तिशाली होकर भी कभी अपने रुतबे का दावा नहीं करता। वह कभी दिखावा नहीं करता कि उसने मानवजाति को बचाने के लिए कितना काम किया है या कितना अपमान और कष्ट सहा है। वह तो लोगों के बीच दीन-हीन बनकर गुप्त रूप से अपना कार्य करता है। ऐसा करना किसी भ्रष्ट इंसान के लिए मुमकिन नहीं। यह देखकर कि परमेश्वर का सार कितना पवित्र और खूबसूरत है, मुझे खुद को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और दिखावा करने वाले अपने अहंकारी, दंभी स्वभाव पर और भी ज़्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई। मैं बेहद घिनौनी इंसान हूँ जिसे शैतान गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, परमेश्वर की नज़रों में बहुत मामूली होने के बावजूद, मैंने बेशर्मों की तरह खुद की बड़ाई की, दिखावा किया और सबको मुझे ऊंचा समझने और मेरी भक्ति करने पर मजबूर किया। मैं इतनी अहंकारी थी कि मैंने अपना विवेक खो दिया, मैं वाकई परमेश्वर के सामने जीने के काबिल नहीं थी! शर्मिंदगी में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, तुम्हारे न्याय और प्रकाशन से, मुझे पता चल गया कि मैं इंसान की तरह नहीं जी रही थी, और अब मैं और ज्यादा ऐसे जीना नहीं चाहती। परमेश्वर, मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं सत्य का अभ्यास करके अपने शैतानी स्वभाव के बंधन और बेड़ियों से मुक्त हो सकूं।"

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, तो तुमको मुख्य रूप से इस बारे में अधिक बात करनी चाहिए कि परमेश्वर कैसे न्याय करता है और लोगों को कैसे दंड देता है, लोगों का शोधन करने और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए किन परीक्षणों का उपयोग करता है। तुमको इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि तुमने कितना सहन किया है, तुम लोगों के भीतर कितने भ्रष्टाचार को प्रकट किया गया है, और आखिरकार परमेश्वर ने कैसे तुमको जीता था; इस बारे में भी बात करो कि परमेश्वर के कार्य का कितना वास्तविक ज्ञान तुम्हारे पास है और तुमको परमेश्वर के लिए कैसे गवाही देनी चाहिए और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य कैसे चुकाना चाहिए। तुम लोगों को इन बातों को सरल तरीके से प्रस्तुत करते हुए, इस प्रकार की भाषा का अधिक व्यावहारिक रूप से प्रयोग करना चाहिए। खोखले सिद्धांतों की बातें मत करो। वास्तविक बातें अधिक किया करो; दिल से बातें किया करो। तुम्हें इसी प्रकार अनुभव करना चाहिए। अपने आपको बहुत ऊंचा दिखाने की कोशिश न करो, और खोखले सिद्धांतों के बारे में बात न करो; ऐसा करने से तुम्हें बहुत घमंडी और तर्क हीन माना जाएगा। तुम्हें अपने असल अनुभव की वास्तविक, सच्ची और दिल से निकली बातों पर ज़्यादा बात करनी चाहिए; यह दूसरों के लिए बहुत लाभकारी होगा और उनके समझने के लिए सबसे उचित होगा। तुम लोग परमेश्वर के सबसे कट्टर विरोधी थे और उनके प्रति समर्पित होने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन अब परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम जीत लिए गए हो, इसे कभी नहीं भूलो। इन मामलों पर तुम्हें और विचार करना और सोचना चाहिए। एक बार जब लोग इसे ठीक से समझ जाएँगे, तो उन्हें गवाही देने का तरीका पता चल जाएगा; अन्यथा वे और अधिक बेशर्मी भरे मूर्खतापूर्ण कृत्य कर बैठेंगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला। मैं समझ गई कि दिखावा करने की समस्या हल करने के लिए, मुझे सच्चे मन से परमेश्वर की प्रशंसा करके उसकी गवाही देनी होगी, परमेश्वर के कार्य, उसके स्वभाव, और लोगों से उसकी अपेक्षाओं की गवाही देनी होगी, मुझे अपने विद्रोही, भ्रष्ट स्वभाव और अपनी घृणित मंशाओं को उजागर करते हुए उनके नतीजों के बारे में बात करनी होगी, और यह बताना होगा कि कैसे मैंने परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करके खुद को पहचाना, ताकि दूसरों को मेरी भ्रष्टता की पहचान और परमेश्वर के कार्य का ज्ञान हो सके, और वे लोगों के लिए परमेश्वर के उद्धार को देखकर उसके प्रेम की गवाही दे सकें। साथ ही, अपने अनुभवों की चर्चा करते वक्त मुझे बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना, दिखावा करना या खुद को दूसरों से ऊंचा दिखाना छोड़कर, ईमानदारी से और सच्चे मन से बात करना सीखना होगा। अभ्यास के इन मार्गों को समझ लेने के बाद, मैं सच्चे मन से इनका अभ्यास करने लगी। एक बार सभा में, किसी भाई ने अपने कर्तव्य में नाम और रुतबे के पीछे भागने के बारे में बात की। हरेक से अपनी तुलना करने पर, उन्हें बहुत दुख हुआ, मगर वे इस समस्या का हल नहीं जानते थे। उन्हें अपनी हालत के बारे में बात करते सुनकर, मैंने सोचा, "अगर मैंने उनकी समस्या हल कर दी, तो भविष्य के अपने अनुभवों में वे यही कहेंगे कि मेरी सहभागिता के कारण ही उनकी हालत में सुधार आया। सभी भाई-बहन मुझे ऊंचा समझकर यही कहेंगे कि मेरे पास सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद-काठी है। मुझे अपनी सहभागिता में शब्दों और विचारों को गढ़कर उस भाई को अपने अनुभव के बारे में बताना होगा।" उसी वक्त, मुझे अचानक ही यह एहसास करके बहुत अफ़सोस हुआ, कि मैं दोबारा अपना शैतानी प्रदर्शन करने जा रही थी। कुछ ही देर पहले अपने मन में आए ख़याल से मुझे इतनी घृणा हुई जैसे मैंने कोई मरी हुई मक्खी निगल ली हो, मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि वह मुझे खुद की इच्छाओं का त्याग करके परमेश्वर का गुणगान करने और उसकी गवाही देने की शक्ति दे। मैंने अपने भाई को बताया कि कैसे मैं भी पहले नाम और रुतबे के पीछे भागती थी, मैंने दौलत और शोहरत के लिए लड़ने, असफल होने और पद से हटाए जाने के अनुभव का ज़िक्र किया, यह बताया कि कैसे परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशनों से मैं आत्म-चिंतन करके खुद को पहचान पाई और अपने आप में कुछ बदलाव ला सकी। सहभागिता के बाद, मेरे भाई को एहसास हुआ कि उनकी प्रकृति भी बहुत अहंकारी थी, उन्हें पता चला कि नाम और रुतबे के पीछे भागना एक मसीह-विरोधी का मार्ग है, अब वे पश्चाताप करना चाहते थे। अपने भाई की सहभागिता सुनकर, मैंने मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद किया। यह परमेश्वर के मार्गदर्शन का फल था।

इसके बाद, सभाओं में अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता के दौरान, भले ही मैं कभी-कभार अब भी दिखावा कर देती थी, मगर यह पहले की तरह खुलकर या गंभीर नहीं होता था। कभी-कभी मुझे दिखावा करने का ख़याल आता, मगर इसका एहसास होते ही मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके खुद की इच्छाओं का त्याग कर देती। धीरे-धीरे, मैंने दिखावा करना कम कर दिया, खुद की बड़ाई करने की मेरी इच्छा भी खत्म होने लगी, मैं जानती हूँ कि परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, काट-छाँट और निपटान की वजह ही मैं खुद को बदल पाई। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के उद्धार की बहुत आभारी हूँ!

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