आस्था कैसे पैदा होती है
अगस्त 2008 के अंत में, एक दिन मुझे एक कलीसिया अगुआ, भाई शियाओवू की गिरफ्तारी की सूचना मिली। भाई होंग और मैंने भाई-बहनों को फ़ौरन वहाँ से चले जाने को कहा, और हमने कलीसिया की संपत्ति वहाँ से हटा दी। उस दौरान, हम दो अन्य कलीसिया अगुआओं से भी मिले जिनके साथ मिलकर हम कलीसिया का कार्य करना चाहते थे। उस रात संगति के बाद वे लोग वापस घर चले गए, लेकिन अगले दिन उनसे हमारी बात नहीं हो पायी, क्योंकि उनके फोन बंद आ रहे थे। कुछ दिन बाद पता चला कि वे दोनों अगुआ और बीस से ज़्यादा भाई-बहन भी गिरफ्तार हो गए। मैंने सोचा कहीं मेरी निगरानी भी तो नहीं हो रही, क्योंकि मैं अक्सर भाई शियाओवू से मिला करती थी। लगा मैं किसी भी पल गिरफ्तार हो सकती हूँ। भयभीत मन से मैं मदद के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, कि इस मुश्किल घड़ी में मेरी मज़बूती बनी रहे। एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : "तुम सब लोगों को शायद ये वचन स्मरण हों : 'क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है।' तुम सब लोगों ने पहले भी ये वचन सुने हैं, किंतु तुममें से कोई भी इनका सच्चा अर्थ नहीं समझा। आज, तुम उनकी सच्ची महत्ता से गहराई से अवगत हो। ये वचन परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों के दौरान पूरे किए जाएँगे, और वे उन लोगों में पूरे किए जाएँगे जिन्हें बड़े लाल अजगर द्वारा निर्दयतापूर्वक उत्पीड़ित किया गया है, उस देश में जहाँ वह कुण्डली मारकर बैठा है। बड़ा लाल अजगर परमेश्वर को सताता है और परमेश्वर का शत्रु है, और इसीलिए, इस देश में, परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों को इस प्रकार अपमान और अत्याचार का शिकार बनाया जाता है, और परिणामस्वरूप, ये वचन तुम लोगों में, लोगों के इस समूह में, पूरे किए जाते हैं। चूँकि परमेश्वर का कार्य उस देश में आरंभ किया जाता है जो परमेश्वर का विरोध करता है, इसलिए परमेश्वर के कार्य को भयंकर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और उसके बहुत-से वचनों को संपन्न करने में समय लगता है; इस प्रकार, परमेश्वर के वचनों के परिणामस्वरूप लोग शुद्ध किए जाते हैं, जो कष्ट झेलने का भाग भी है। परमेश्वर के लिए बड़े लाल अजगर के देश में अपना कार्य करना अत्यंत कठिन है—परंतु इसी कठिनाई के माध्यम से परमेश्वर अपने कार्य का एक चरण पूरा करता है, अपनी बुद्धि और अपने अद्भुत कर्म प्रत्यक्ष करता है, और लोगों के इस समूह को पूर्ण बनाने के लिए इस अवसर का उपयोग करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या परमेश्वर का कार्य उतना सरल है जितना मनुष्य कल्पना करता है?)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पाई कि चूँकि परमेश्वर ने इंसान को बचाने के लिए अंत के दिनों में देहधारण किया है, और अपना कार्य करने के लिए वह बड़े लाल अजगर के देश में प्रकट हुआ है, जो घोर परमेश्वर-विरोधी है, जहाँ सीसीपी ने उसका पीछा किया और उसे सताया है, इसलिए परमेश्वर के अनुयायी होने के नाते हमारी नियति भी कष्ट सहना है। कष्ट सहकर हम उन मुश्किलों को महसूस करते हैं जो इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर सहता है। परमेश्वर यातनाओं और कष्टों के ज़रिए मेरे संकल्प को मज़बूत और मेरी आस्था को पूर्ण कर रहा था। यह स्थिति मुझे पूर्ण करने और आशीष देने का उसका तरीका थी। परमेश्वर पहले ही तय कर देता है कि किसको कितना कष्ट सहना है। मैं परमेश्वर की इच्छा से ही गिरफ्तार हो सकूँगी। मैं परमेश्वर के लिए गवाही दूँगी और उसे यहूदा की तरह कभी धोखा नहीं दूँगी!
जनवरी 2009 में एक दिन दोपहर को, मैं घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ रही थी कि अचानक मैंने ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ सुनी, कोई चिल्लाया : "पब्लिक सिक्युरिटी ब्यूरो। दरवाज़ा खोलो!" मेरा दिल धड़का और मैं तुरंत परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें छिपाने के लिए दौड़ी। मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि मुझे हौसला और आस्था दे। दरवाज़ा खोलते ही दस पुलिसवाले धड़धड़ाकर चिल्लाते हुए अंदर आए। "हिलना मत, दीवार के सहारे खड़ी हो जाओ!" वे मेरी अलमारियों और ड्रॉअर की छानबीन करने लगे और मेरे कपड़े इधर-उधर फेंकने लगे। उन्होंने मेरा लैपटॉप, सेल फोन और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें ज़ब्त कर लीं। एक महिला पुलिस अधिकारी मेरी तलाशी लेने के लिए मुझे बाथरूम में ले गयी। मैंने सोचा : "लगता है ये लोग पूरी तैयारी से आए हैं। शायद मैं उनके निशाने पर काफी ऊपर थी। वरना इतने सारे अधिकारियों को क्यों भेजते? अगर ऐसा है, तो ये मुझे आसानी से नहीं छोड़ेंगे। क्या पता मुझे कैसे यातना देंगे।" मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, मुझे पता था कि मेरी गिरफ्तारी परमेश्वर की इच्छा से हुई है। परमेश्वर मेरा इम्तहान ले रहा था—मुझे उस पर भरोसा करके उसके लिए गवाही देनी चाहिए। उन्होंने मुझे हथकड़ी लगायी और मेरा चेहरा ढककर, जानकारी उगलवाने के लिए मुझे काउंटी पब्लिक सिक्युरिटी ब्यूरो ले गए। उस रात उन्होंने मुझे नज़रबंदी गृह भेज दिया। हथकड़ियों के अलावा, 11 पाउंड की बेड़ियाँ भी डाल दी गयीं। जब वो मुझे मेरी कोठरी में ले जा रहे थे, तो बेड़ियाँ भारी होने की वजह से मुझे उन्हें हाथों से उठाकर घिसटते हुए चलना पड़ रहा था। पाँव उठ नहीं रहे थे।
कोठरी में, उन्होंने मेरी हथकड़ियों को दो फुट की पट्टियों के बीच ज़ंजीर से बाँध दिया और फिर ज़ंजीर को दीवार के निचले हिस्से से जुड़े लोहे के रिंग से बाँधकर ताला लगा दिया। उन्होंने दीवार के पास एक चैंबर पॉट रख दिया ताकि अगर बाथरूम भी जाऊँ तो भी बँधी रहूँ। कँपकँपा देने वाली ठंड थी, वॉर्डन ने मेरी लंबी जैकेट निकाल ली, मेरे पास कंबल तक नहीं था। मैं रात भर फर्श पर गठरी बनी ठिठुरती रही। अगले दिन, काउंटी नेशनल सिक्युरिटी ब्रिगेड के दो अधिकारी मुझे हथकड़ी लगाकर और मेरा चेहरा ढककर किसी दूर-दराज़ के इलाके में ले गए। वहाँ अंदर कहीं पहुँचकर ही मेरे चेहरे से नकाब हटाया गया। फिर उन्होंने मुझे लोहे की एक कुर्सी से बाँध दिया। कुर्सी के सामने बीस इंच लंबी और बारह इंच चौड़ी एक मेटल प्लेट रखी थी, और मेरे पैरों के पास दो अर्ध-गोलाकार मेटल रिंग रखे थे। मेरे पैर उस मेटल रिंग से बाँध दिए गए और मेरे हाथ मेरे सामने की ओर बाँध दिए गए। शाम को सात बजे के करीब, तीन अधिकारी आए। एक ने मुझसे कलीसिया के बारे में सवाल पूछे, और एक तस्वीर दिखाकर पूछा क्या मैं उसे पहचानती हूँ। मैं तस्वीर देखकर पहचान गयी कि यह मेरे सहकर्मी भाई होंग हैं। मुझे झटका लगा—मैंने सोचा भी नहीं था कि भाई होंग भी गिरफ्तार हो जाएँगे। सीसीपी ज़रूर हम पर काफी समय से नज़र रख रही होगी। मैंने कहा मैं इन्हें नहीं जानती। एक अधिकारी ने उकताकर कहा : "यह वक्त ज़ाया कर रही है, इसे सीधे यातना दो!" दूसरे ने धमकी देते हुए कहा : "हम तुम्हें प्यार से मौका दे रहे हैं, लेकिन अगर ज़बान नहीं खोली, तो हम तुम्हारी ज़बान खुलवाना जानते हैं!" उसकी यह बात सुनकर, मैंने सोचा, पहले भी हमारे कितने ही भाई-बहनों को गिरफ्तार करके यातनाएँ दी गयी हैं, उन्हें बुरी तरह से पीटा और अपाहिज बनाया गया है, हत्या की गयी है, मैं डर गयी और सोचने लगी, "अगर मैंने मुँह नहीं खोला, तो ये मुझे कैसी यातनाएँ देंगे? अपाहिज बना दी जाऊँगी या मार दी जाऊँगी?" मन ही मन मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्रिय परमेश्वर! पता नहीं ये लोग मुझे कैसी यातना देंगे, मेरी रक्षा करना। मैं तेरे लिए गवाही देने को तैयार हूँ, मर जाऊँगी लेकिन यहूदा नहीं बनूँगी!" प्रार्थना करने पर, मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आए : "जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्ट कर सकता है" (मत्ती 10:28)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। मैंने सोचा, "अधिकारी कितने भी क्रूर क्यों न हों, वे सिर्फ़ मेरे शरीर को चोट पहुँचा सकते हैं। मेरी आत्मा परमेश्वर के हाथ में है। अगर मैं गवाही देकर परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूँ, तो भले ही मर जाऊँ, लेकिन परमेश्वर की प्रशंसा पा लूँगी। लेकिन अगर मैंने परमेश्वर को दगा देकर यहूदा वाली शर्मनाक हरकत की, तो मेरा तन और मेरी आत्मा, दोनों दंडित होंगे और धिक्कारे जाएँगे।" यह सोचकर, मेरा डर थोड़ा कम हुआ। मुझे ज़बान खोलता न देख, अधिकारी मुझे दूसरे कमरे में ले जाकर यातना देने लगे। उन्होंने मेरे दोनों हाथों को पीछे करके तौलिए में लपेट दिया और रस्सी से कसकर बाँध दिया। फिर मेरी बाँहों और पीठ के बीच में एक लकड़ी का डंडा फँसा दिया। एक अधिकारी ने मुझे उठाया, डंडे को एक छह फुट ऊँचे स्टूल पर लटका दिया और फिर मुझे छोड़ दिया, मैं स्टूल से लटक गयी और मेरा सारा वज़न मेरी बाँहों पर आ गया। मैं दर्द से चीख उठी। लगा जैसे मेरा सीना फट जाएगा, मेरी बाहें और कंधे पीड़ा से जल रहे थे। साँस लेना मुश्किल हो रहा था, लगा जैसे दम घुट रहा हो। बाहें पीछे बँधी होने के कारण मैं सिर ऊपर नहीं उठा पा रही थी। माथे से पसीना टपकने लगा। मेरे हाथ-पैर सुन्न पड़ गए थे। एक अधिकारी कुटिलता से ठहाका लगाकर बोला, "अब तो तुम चाहकर भी नहीं बोल सकती। अच्छा होगा तुम अपने परमेश्वर से प्रार्थना करो!" तुरंत मेरे माथे से पसीना टपकने लगा, और अधिकारी को लगा मैं रो रही हूँ। वह सिर तिरछा करके तंज़ कसते हुए बोला : "देखूँ तो, पसीने हैं या आँसू?" मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही : "सर्वशक्तिमान परमेश्वर! मैं यह नहीं कहती कि मुझे इस यातना से मुक्ति दे, सिर्फ यह कहती हूँ कि मुझे शक्ति दे ताकि मैं ये सब सह सकूँ।" प्रार्थना के बाद भी, शरीर का दर्द कम नहीं हुआ, लेकिन मैंने बहुत कष्ट महसूस नहीं किया। उन्होंने मुझे आधा घंटे के बाद नीचे उतारा। मेरी बाज़ुएँ सुन्न और बेजान हो चुकी थीं।
फिर उन्होंने मुझे मेटल की कुर्सी पर बैठाया और मेरी बाँहों और कलाइयों को ज़ोर से खींचा, और मेरी बाँहों को सामने की आयताकार प्लेट के चारों ओर लपेट दिया, और कुर्सी को आगे की ओर झुकाने से पहले मेरे हाथों में हथकड़ी डाल दी। अब मेरी पीठ को किसी चीज़ का सहारा नहीं मिल रहा था, तो पूरे शरीर का वज़न मेरी बाँहों पर आ गया। मेटल की प्लेट मेरी बाँहों में चुभ रही थी और फिर उनमें दर्द शुरू हो गया। करीब आधे घंटे के बाद, वे लोग वापस आए, मुझे मेरे पैरों पर खड़ा किया और डंडे के सहारे मुझे फिर से लटका दिया। मेरे पूरे शरीर में भयंकर तकलीफ हो रही थी, मुझे साँस लेने में दिक्कत हो रही थी, लगता था मेरा दम घुट जाएगा। पर एक अधिकारी ने हँसते हुए कहा : "यह पतली है न, शायद इसलिए ज़्यादा तकलीफ नहीं हो रही। होंग मोटा था। उसे तो लटकाते ही लकड़ी टूट गयी थी। वो इतनी ज़ोर से गिरा कि उसकी चीख निकल गयी और उसने सब सच उगल दिया।" भाई होंग को जिस ढंग से उन्होंने यातना दी, उससे मुझे बड़ा गुस्सा आया। लेकिन मुझे थोड़ी चिंता भी थी : "क्या भाई होंग ने वाकई परमेश्वर को धोखा देकर मेरे बारे में सब बता दिया? अगर मेरे बारे में सब बता दिया होगा, तो इन्हें कलीसिया में मेरे काम के बारे में भी पता चल गया होगा, फिर तो ये मुझे आसानी से नहीं छोड़ेंगे। क्या पता ये लोग मुझे क्या यातनाएँ देंगे। क्या मुझे इन्हें गैर-ज़रूरी बातें बता देनी चाहिए?" तभी मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "मेरे लोगों को, मेरे लिए मेरे घर के द्वार की रखवाली करते हुए, शैतान के कुटिल कुचर्क्रों से हर समय सावधान रहना चाहिए; ... ताकि शैतान के जाल में फँसने से बच सकें, और तब पछतावे के लिए बहुत देर हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 3)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि इनका ये कहना कि भाई होंग ने सब बता दिया, शैतान की एक धूर्त चाल है। यह हमारे बीच फूट डलवाकर परमेश्वर को धोखा दिलवाना चाहता है। शैतान बेहद नीच और दुष्ट है! परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन का धन्यवाद! मैंने संकल्प लिया : "पुलिसवाले मुझे यातना देने को चाहे कोई भी हथकंडा अपनाएँ, मैं कभी परमेश्वर को धोखा देकर यहूदा नहीं बनूँगी।"
पुलिस अधिकारी ने मेरी बुरी हालत देखकर कहा : "बहुत तकलीफ हो रही है? अगर तुमने ज़बान नहीं खोली, तो पहले तुम्हें आधा घंटा लटकाएँगे और फिर एक घंटा, और ऐसे ही बढ़ाते जाएँगे।" फिर तो ऐसा लगा कि मेरा शरीर टूटने की कगार पर आ गया है, मैंने स्टूल से निकली एक कील पर पाँव रखने की कोशिश की ताकि खड़ी होने की थोड़ी जगह मिल सके और थोड़ा चैन मिले, लेकिन तभी उस अधिकारी की नज़र पड़ गयी। उसने ज़ोर से मेरे पैर पर लात मारी और चीखा : "किसने कहा उस पर पैर रखने के लिए? खबरदार!" मेरा शरीर अपने आप ही इधर-उधर झूलने लगा, इससे मेरी बाँहों में और भी दर्द बढ़ गया। दर्द इतना बढ़ा कि पूरा शरीर पसीने में भीग गया, सिर उठाने की ताकत भी नहीं बची। एक-एक पल एक-एक युग जैसा लग रहा था। पता नहीं कितना वक्त हुआ होगा, लेकिन अचानक लगा कि मेरा दायाँ कंधा नीचे सरक आया है। तभी बायाँ कंधा भी नीचे उतर आया और मेरा पूरा शरीर ही निढाल हो गया। पता चला कि मेरे दोनों कंधों की हड्डियाँ सरक गयी हैं। मैं चिल्लाई : "मेरे कंधे उतर गए हैं!" तब जाकर उन्होंने मुझे उतारा। जब उन्होंने रस्सी खोली, तो मेरी दोनों अकड़ी हुई बाँहें झूल कर पीछे से आगे की ओर आ गयीं। वो सुन्न होकर फूल गयी थीं। जैसे ही मैं खड़ी हुई, बाँहें दोनों ओर लटक गयीं। वे न तो अपने आप हिल पा रही थीं और न ही कोहनी से मुड़ पा रही थीं। मानो कंधों से लकड़ी के दो डंडे लटक रहे हों। उन्होंने फिर से मुझे हथकड़ी लगाकर बाँहों को झुलाना शुरू कर दिया। वो लोग मेरी बाँहों को सिर के पीछे ले जाकर बड़ी तेज़ी से झटका दे रहे थे, उन्हें जितना हो सके पीछे खींच रहे थे, फिर उन्होंने मेरी बाँहों को बायीं ओर कसकर खींचा, ये देखने के लिए कि मेरे चेहरे पर दर्द की शिकन आती है या नहीं। मेरी बाहें एकदम सुन्न हो चुकी थीं, कुछ देर दबाने पर भी जब उन्हें मेरी शिकन नहीं दिखी तो वो चिल्लाए : "दर्द न होने का ढोंग बंद कर!" मैं अपनी बाँहें ऊपर उठाना चाहती थी, लेकिन मैं ज़रा भी नहीं हिला पायी। मैंने सोचा, "कहीं ये सचमुच उतर तो नहीं गयी हैं? क्या मैं अपाहिज हो जाऊँगी? अब से मैं कैसे खा पाऊँगी और कैसे बाथरूम जा पाऊँगी?" उस रात, उन्होंने मुझे फिर हथकड़ियाँ डाल दीं और मेरी बेड़ियों को बिस्तर के अगले हिस्से से बाँध दिया। रात भर बिना सोए, बिस्तर पर पड़ी रही। सुन्न पड़ी बाँहों में असह्य पीड़ा हो रही थी। सोचती रही कि क्या ये पुलिसवाले मुझे कल फिर यही यातना देंगे? दर्द और तकलीफ के बारे में सोचकर मैं डर गयी। पता नहीं सह भी पाऊँगी या नहीं। कष्टों के बीच, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्रिय परमेश्वर! मेरी रक्षा कर, मुझे आस्था और शक्ति दे। चाहे कितनी भी तकलीफें आएँ, मैं न तो तुझे धोखा दूँगी और न ही भाई-बहनों के राज़ ज़ाहिर करूँगी।" प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा जिन्होंने गहरी पीड़ा के दिनों में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई है, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी ही दूर तक है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं है जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे व्यक्ति जो भी हो, मेरा स्वभाव यही है। मुझे तुम लोगों को अवश्य बता देना चाहिए कि जो कोई भी मेरा दिल तोड़ता है, उसे दूसरी बार मुझसे क्षमा प्राप्त नहीं होगी, और जो कोई भी मेरे प्रति निष्ठावान रहा है वह सदैव मेरे हृदय में बना रहेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे उसके धार्मिक, प्रतापी और अपमान न किए जा सकने योग्य स्वभाव का बोध कराया। परमेश्वर अपने प्रति निष्ठावान लोगों से प्रेम करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है। वे तमाम परेशानियों और कष्टों में भी, उसके प्रति निष्ठावान रहकर उसके लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग ही परमेश्वर के राज्य में रह सकते हैं। जो लोग यहूदा की तरह परमेश्वर को धोखा देते हैं, उनका परिणाम अच्छा नहीं होता, बल्कि परमेश्वर उनकी आत्मा और शरीर को दंड देता है और धिक्कारता है। अगर मैं सिर्फ तन के अस्थायी कष्टों से बचने के लिए परमेश्वर को धोखा दे दूँ, तो मैं अपने उद्धार का अवसर हमेशा के लिए गँवा दूँगी। मैंने यह भी विचार किया कि जब अधिकारियों ने चाल चली जिससे कि मैं परमेश्वर को धोखा दूँ, तो परमेश्वर ने मुझे विवेक-बुद्धि दी ताकि मैं शैतान की चाल को समझ सकूँ। पुलिसवालों की यातना से, मेरे शरीर को कुछ हद तक तकलीफ़ ज़रूर हुई, लेकिन परमेश्वर ने मेरी रक्षा की और मुझे शक्ति दी, ताकि मैं तन की कमज़ोरियों से ऊपर उठ सकूँ। मैंने अपने लिए परमेश्वर के प्रेम को अनुभव किया है, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और प्रभुता देखी है। मैं अपनी अंतरात्मा से दगा नहीं कर सकती—चाहे कितने भी कष्ट आएँ, मुझे परमेश्वर के लिए गवाही देनी है और उसे संतुष्ट करना है।
तीसरे दिन, करीब सुबह नौ बजे, पुलिसवाले मुझे एक बड़े-से कमरे में लेकर आए और मुझे फिर एक मेटल की कुर्सी पर बैठा दिया। एक पुलिसवाली ने मेरे सिर से मुँह तक एक तौलिया लपेटा और उसे झटके से पीछे की ओर खींचने लगी। जहाँ मेरे कंधे मेटल की कुर्सी में गड़ रहे थे, वहाँ तेज़ दर्द हुआ, कुर्सी के पीछे जाने के साथ ही मेरे पैर भी ज़मीन से ऊपर उठ गए। मुँह पर तौलिया होने की वजह से, मुझे साँस लेने में दिक्कत होने लगी। मैं मुश्किल से नाक से साँस ले पा रही थी, मेरे गले में इतना भयंकर दर्द हो रहा था कि मैं थूक भी नहीं निगल पा रही थी। फिर एक अधिकारी ने सरसों तेल से भरा एक सिरिंज उठाया और मेरे दायें नथुने में तेल भर दिया। लगा जैसे पूरी नाक में आग भर गयी हो, साँस लेते ही तेल भी गले में चला गया। उस तेल को निगलने में मुझे बहुत तलकीफ हुई। साँस लेने की हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन न लूँ तो दम घुटता था। उस खौफ़नाक एहसास को बयाँ नहीं किया जा सकता। मैं पूरी ताकत से संघर्ष कर रही थी, लेकिन उन्होंने भी तौलिए को पूरी ताकत से मेरे मुँह पर कस रखा था, इसलिए मैं कुछ नहीं कर पा रही थी। सरसों तेल के तीखेपन की वजह से मेरी आँखों में आँसू आ गए। वक्त जैसे थम-सा गया था, एक-एक पल बेहद तकलीफ़ से गुजर रहा था। उन्होंने अपनी पकड़ तभी ढीली की, जब मैंने तेल का आखिरी कतरा तक निगल लिया। उस अग्नि-परीक्षा से उबरने में मेरी गर्दन को काफी समय लगा। मुझे उबकाई आ रही थी, मैंने कुर्सी पर झुककर किसी तरह से अपनी नाक साफ की। तीखेपन की वजह से मेरे पूरे चेहरे और नाक में जलन हो रही थी। दर्द और जलन भयंकर थी। एक अधिकारी मुझे उल्टी करने की मुद्रा में देख चिल्लाया : "रोक कर रख!" उन हैवानों की टोली से मुझे नफरत हो गयी! दर्द की इंतहा हो गयी थी, समझ नहीं आ रहा था कि और झेल भी पाऊँगी या नहीं। पता नहीं मुझे और कितनी यातना देने की उनकी योजना थी, मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्रिय परमेश्वर, पता नहीं ये लोग मुझे और कितनी बार यातना देना चाहते हैं, लेकिन मैं अपने तन की कमज़ोरी के कारण तुझे धोखा नहीं दूँगी। मेरे दिल की रक्षा कर, मुझे आस्था और शक्ति दे ताकि मैं इस पूरी अग्नि-परीक्षा में सफल हो सकूँ।" प्रार्थना के बाद मुझे थोड़ा बेहतर लगा। मुझे पता था कि परमेश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनकर मेरा कष्ट कम कर दिया है। मैंने मन ही मन परमेश्वर का धन्यवाद किया! करीब दस मिनट के बाद, उन्होंने फिर मेरी नाक में सरसों का तेल डाल दिया। उस दिन सुबह, कुल मिलाकर उन्होंने मेरी नाक में तीन बार तेल डाला। हर बार मैं नारकीय यातना से गुज़री। एक अधिकारी ने क्रूरता से तंज़ कसते हुए कहा : "हम तुझे मार डालेंगे, एक बड़ा-सा गड्ढा खोदकर, उसमें दफ़्न कर देंगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा!" मैंने सोचा, जो लोग मुझे इस हद तक यातना दे रहे हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। मैंने अपने आपको एक बड़े से गड्ढे में फेंके जाने और ऊपर से मिट्टी डाले जाने की कल्पना की। मैं बेहद मुसीबत में थी, मैंने सोचा : "क्या मैं वाकई इतनी छोटी-सी उम्र में ही मर जाऊँगी?" यातना के दौरान, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "संसार में घटित होने वाली समस्त चीजों में से ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसमें मेरी बात आखिरी न हो। क्या कोई ऐसी चीज है, जो मेरे हाथ में न हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 1)। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन से मुझे एहसास हुआ कि मेरा जीवन परमेश्वर के हाथ में है, सब-कुछ उस पर निर्भर है। ये पुलिसवाले चाहे कितने भी क्रूर क्यों न हों, परमेश्वर की अनुमति के बिना, ये मेरा जीवन नहीं ले पाएँगे। मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और प्रभुत्व की असली समझ नहीं थी, उसके प्रति मेरी आस्था भी दुर्बल थी, तो जब पुलिसवालों ने मुझे मारकर दफ़्न करने की धमकी दी, तो मैं कायर और डरपोक बन गयी। मैं ज़रा भी गवाही नहीं दे रही थी! इसका एहसास होने पर, मेरी कायरता और डर जाते रहे, और मैंने मन बना लिया कि अगर मैं मर भी जाऊँ, तो भी गवाही देकर शैतान को शर्मिंदा करूँगी।
दोपहर को, अधिकारी फिर से पूछताछ के लिए आए। एक अधिकारी लगातार मुझे देखता रहा; उसे मेरी बाहों के सुन्न होने का यकीन नहीं हुआ, इसलिए वह जान-बूझकर मेरी उँगलियों के नाखूनों में एक तीली चुभोता रहा। हालाँकि खून पहले से ही बह रहा था, लेकिन मुझे उँगलियों में ज़्यादा दर्द का एहसास नहीं हुआ। तीली चुभोते वक्त वह मेरे हावभाव देख रहा था। जब मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी, तो बोला : "तो तुम्हारी बाहें सुन्न पड़ी हैं? चलो तुम्हें थोड़ी इलेक्ट्रोथेरेपी देते हैं!" एक अधिकारी दौड़कर बिजली का एक तार ले आया, उसने उसका एक सिरा टेज़र से जोड़ दिया और दूसरा मेरे पंजों से और मुझे करंट देने लगा। मेरे दिल कि धड़कन बढ़ गयी, मेरा शरीर ऐंठने लगा, पीठ पीछे की ओर चली गयी और पाँव छटपटाने लगे। मैं असहनीय दर्द से चीख उठी। वे थोड़ी देर के लिए रुके और फिर करंट देने लगे और लगातार कलीसिया के बारे में पूछताछ करते रहे। वो लोग पता नहीं मुझे कब तक करंट देते रहे। उनकी क्रूरता के आगे मैं बेबस थी। अब दर्द और पीड़ा बर्दाश्त से बाहर हो चले थे। मुझे डर था कि अगर वो मुझे ऐसे ही करंट देते रहे, तो कहीं मैं हमेशा के लिए अपाहिज न हो जाऊँ। मुझे तभी थोड़ी राहत मिली, जब वो लोग खाना खाने चले गए। एक अधिकारी ने मेरी ज़ंजीरें खोलीं और खड़ा होने को कहा। मुझे हैरानी हुई कि खड़े होते समय, मुझे ज़रा भी दर्द महसूस नहीं हुआ। लगा जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं। न ही मुझे शरीर में कमज़ोरी का एहसास हुआ। मैं अच्छी तरह समझ गयी कि परमेश्वर ने ही मेरी रक्षा की है और मेरा दर्द कम कर दिया है। पहले मुझे इसकी केवल सैद्धांतिक समझ थी कि हर चीज़ पर परमेश्वर का ही प्रभुत्व है, लेकिन अब मैंने खुद परमेश्वर के चमत्कारिक कर्मों का अनुभव कर लिया था। मैंने अपने प्रति परमेश्वर का प्रेम और दया देखी, मेरा दिल उसके प्रति आभार और प्रशंसा से भर गया। मेरे अंदर पुलिसवालों की यातना सहने का एक नया विश्वास पैदा हो गया। वो लोग शाम के सात बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक मुझे करंट देते रहे। चौथे दिन सुबह, उन्होंने फिर मेरी नाक में सरसों का तेल डाल दिया। फिर वही असहनीय दर्द और पीड़ा महसूस हुई। उस सुबह तो उन्होंने मेरी नाक में चार सिरिंज भरकर डाल दिए थे। दोपहर को खाने के वक्त, मैंने एक गिलास पानी माँगा। एक अधिकारी ने क्रूरता से मेरा मज़ाक उड़ाया : "इसे पानी मत दो, वरना इसे बाथरूम जाना पड़ेगा।" दूसरे अधिकारी ने कहा : "तेल ने शायद इसके पेट और आँतों को सड़ा दिया है।" यह सुनकर मैंने सोचा : "सही बात है, इन्होंने जबरन मेरे गले में भर-भरकर सरसों का तेल डाल दिया है। आम हालात में तो इससे बहुत दिक्कतें हो जातीं, लेकिन बस प्यास लगने के अलावा, मेरे पेट में और कोई परेशानी नहीं थी।" मेरे अंदर यह बात अच्छी तरह बैठ गयी थी कि परमेश्वर चुपचाप मेरी रक्षा कर रहा है, मेरा दिल उसके प्रति कृतज्ञता से भर गया।
उस दोपहर, जब मैंने उनके सवालों के जवाब नहीं दिए, तो पब्लिक सिक्युरिटी विभाग के प्रादेशिक डायरेक्टर, गुओ ने टेज़र लेकर मुझे पीठ में करंट दिया। मैं तुरंत फ़र्श पर गिर पड़ी। फिर उसने मुझे मेटल की कुर्सी पर बिठाकर मेरी बाँहों में करंट दिया। टेज़र देते ही मेरी बाँहों में हरकत होती और फिर लटक जातीं। उसने मेरी हथेलियों में भी कई बार टेज़र से करंट दिया। वो दो घंटों तक मुझे करंट देता रहा और तभी रुका जब टेज़र की बैटरी ख़त्म हो गयी। फिर उसने कुछ अखबारों को गोल करके एक डंडे की तरह मेरे चेहरे पर मारा और चिल्लाया : "तुम ज़बान खोलोगी या नहीं! मैं तुम्हारी ज़बान खुलवाकर रहूँगा!" चोट से मेरे चेहरे पर भयंकर दर्द हो रहा था। अखबार के फट जाने तक भी मैंने ज़बान नहीं खोली, तो वह मुँह लटकाकर चला गया। एक महिला अधिकारी ने अंदर आकर मेरा सूजा हुआ लाल चेहरा देखा और मक्कारी से हँसते हुए बोली : "चेहरे पर तमाचे पड़े हैं न?" फिर धमकी देते हुए बोली : "अगर अब भी तुमने ज़बान नहीं खोली, तो पहले दिन ये लोग लटकाते हैं, दूसरे दिन टेज़र देते हैं और तीसरे दिन कोई एक बंदा तुम्हारे साथ मज़े लेगा!" उसकी बातों से मुझे घिन आने लगी। अधिकारियों की यह टोली ज़रूर बेहद दुष्ट होगी जो यातना देने की ऐसी नीच और निर्लज्ज तरकीब भी सोचती है। मेरे मन में थोड़ा डर बैठ गया। अगर वो सचमुच ऐसी नीचता पर उतर आए, तो मैं क्या करूँगी? तभी मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे तुम डरो। शैतान हमारे पैरों के नीचे हैं..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। मैंने सोचा, "सही है। क्या सब कुछ परमेश्वर के हाथ में ही नहीं है? अगर परमेश्वर न चाहे, तो ऐसा कुछ नहीं हो सकता। वो लोग केवल मुझे डरा रहे हैं ताकि मैं परमेश्वर को धोखा दूँ, भाई-बहनों के राज़ खोल दूँ और कलीसिया के पैसों के बारे में बता दूँ। वो लोग चाहे जो चालबाज़ी अपनाएँ, मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दूँगी।" पुलिसवालों ने और भी कई बार मुझसे पूछताछ की, लेकिन मैंने फिर भी ज़बान नहीं खोली, उन्होंने मुझे वापस नज़रबंदी गृह भेज दिया।
फरवरी 2009 में, सीसीपी ने मुझे डेढ़ साल की सज़ा सुनाकर, मुझे लेबर कैंप में भेज दिया। लेबर कैंप के सेक्शन चीफ़ ने एक अधिकारी से पूछा : "यह काम कर सकती है क्या?" मैंने कहा, "मेरी बाँहें काम नहीं करतीं, मैं कुछ उठा नहीं सकती।" अधिकारी को लगा कि लेबर कैंप कहीं मुझे लेने से इंकार न कर दे, इसलिए वह बोला : "इसकी बाँहें सही हैं, बस नाटक कर रही है।" लेबर कैंप में खाने के दौरान, जब मैं अपने हाथ से चम्मच नहीं उठा पायी, तो एक बहन ने खाने में मेरी मदद करने की कोशिश की, लेकिन वॉर्डन ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने स्टूल पर बैठकर, एक हाथ में चम्मच ली, कलाई और बाँह को मेज़ पर टिकाया और शरीर को थोड़ा आगे झुकाकर, कलाई और बाँह के सहारे चम्मच से खाना मुँह में डालने की कोशिश की। मेरी यह हालत देखकर वो बहन रो पड़ी। मैं खाना खत्म भी नहीं कर पायी थी कि वॉर्डन ने हमें नीचे जाकर कतार में खड़े होने को कहा। उस बहन ने देखा कि मेरे पास खाने को कुछ खास नहीं है, तो उसने चुपके से एक रोटी मेरी तरफ़ बढ़ा दी। उसके बाद तो हर रोज़ वो बहन मुझे चुपके से रोटियाँ मेरी ओर बढ़ा देती। दो बहनें हर रात बारी-बारी से मेरी बाँहों की मालिश करतीं और मेरा ध्यान रखतीं। वो मुझे हौसला दिलाने के लिए चुपके से परमेश्वर के वचनों पर संगति करतीं। मुझे पता था यह सब परमेश्वर का आयोजन है और मेरे लिए उसके प्रेम का संकेत है, मैंने तहेदिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया!
उस दौरान भी मैं अपनी बाँहें बिल्कुल नहीं उठा पाती थी। एक बार, मैंने डॉक्टर से पूछा : "मेरी बाँहों के लिए कोई दवा है क्या?" डॉक्टर ने कहा : "अगर किसी की बाँहें करीब तीन महीने तककाम न करें, तो माँसपेशियाँ बेजान हो जाती हैं और वो इंसान अपाहिज हो जाता है। इसका कोई इलाज नहीं है, इसमें कोई इंजेक्शन भी काम नहीं करता। सबसे अच्छा यही है कि आप अपनी बाँहों को उँगलियों के सहारे दीवार पर ऊपर की तरफ चलाने का अभ्यास करें।" तो उस दौरान मैं अपनी उँगलियों को "दीवार पर चलाने" का अभ्यास करती। मैं अपनी बाँहें नहीं उठा पाती थी, तो मैं अपने हाथों को झुलाकर दीवार पर कर लेती और उँगलियों से दीवार को पकड़कर धीरे-धीरे उन्हें ऊपर की ओर चलाने का अभ्यास करती। मेरे हाथ एक फुट से ऊपर नहीं जा पाते थे, तो मैं उन्हें नीचे कर लेती और फिर वैसे ही अभ्यास करती। पहले तो मुझे यह भरोसा और उम्मीद थी कि एक दिन कोई चमत्कार होगा, मैं अपने हाथ उठा पाऊँगी और एक सामान्य जीवन जी पाऊँगी। लेकिन तीन महीने बाद भी, मेरे हाथ नहीं उठते थे, और यह सोचकर हताश हो गयी, "क्या कभी मेरे हाथ ठीक भी होंगे? अगर नहीं हुए, तो यहाँ से बाहर निकलकर सामान्य जीवन कैसे जी पाऊँगी? अभी तीस साल की ही तो हूँ, क्या जीवन भर किसी और पर आश्रित रहना पड़ेगा?" कष्टों और मायूसी के बीच, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर, मुझे राह दिखा, मुझे शक्ति और आस्था दे। उस रात, जब वो बहन मेरी मालिश कर रही थी, तो उसके आगे मैंने अपनी हालत बयाँ की। बहन ने मुझे तसल्ली दी और कहा : "परमेश्वर हमारे साथ है, तो हमें डरने की ज़रूरत नहीं है। बस तुम कसरत करती रहो और हम तुम्हारी मालिश करती रहेंगी। किसी बात की चिंता मत करो।" बहन की बातों से मेरी आँखों में आँसू आ गए। फिर मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "परीक्षणों से गुज़रते हुए, लोगों का कमज़ोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा पर या अभ्यास के लिए उनके मार्ग पर स्पष्टता का अभाव होना स्वाभाविक है। परन्तु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा अवश्य होना चाहिए, और परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमज़ोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई थी, और यहोवा ही उन्हें वापस ले सकता है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने अपना विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभव में, तुम परमेश्वर के वचनों के द्वारा चाहे जिस भी प्रकार के शोधन से गुज़रो, संक्षेप में, परमेश्वर को मानवजाति से जिसकी अपेक्षा है वह है, परमेश्वर में उनका विश्वास और प्रेम। इस तरह से, जिसे वो पूर्ण बनाता है वह है लोगों का विश्वास, प्रेम और अभिलाषाएँ। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, जिसे वे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितयों में तुम्हारे विश्वास की आवश्यकता होती है। लोगों के विश्वास की आवश्यकता तब होती है जब किसी चीज को नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है, और तुम्हारे विश्वास की तब आवश्यकता होती है जब तुम अपनी स्वयं की धारणाओं को नहीं छोड़ पाते हो। जब तुम परमेश्वर के कार्यों के बारे में स्पष्ट नहीं होते हो, तो आवश्यकता होती है कि तुम विश्वास बनाए रखो और तुम दृढ़ रवैया रखो और गवाह बनो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि कमज़ोरी और दुख में भी अय्यूब ने परमेश्वर में अपनी आस्था का त्याग नहीं किया था। परमेश्वर के हर परीक्षण में, उसने उसके महान सामर्थ्य की प्रशंसा की, उसने कभी परमेश्वर को दोषी नहीं ठहराया और उसके लिए गवाही दी। तीन महीने के बाद भी जब मेरी बाँहें ठीक नहीं हुईं, तो मेरी आस्था कमज़ोर पर गई और मैंने अपने आगे के जीवन के बारे में सोचना शुरू कर दिया। मैं नकारात्मकता और दुख में जीने लगी। मैंने जाना कि परमेश्वर में मेरी आस्था अभी भी कच्ची है, मेरी आस्था सच्ची नहीं है। परमेश्वर मुझे शुद्ध करने, बदलने और मेरी आस्था को पूर्ण बनाने के लिए इस पीड़ा और शोधन का इस्तेमाल कर रहा था। मुझे नकारात्मकता और गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। उसके बाद, बहनें अक्सर मेरे साथ संगति और मेरी मदद करने लगीं, और मैं अपने आपको समर्पित करने और इन हालात का अनुभव करने की स्थिति में आ गयी। समर्पण के बाद, मैंने फिर से परमेश्वर के चमत्कारी कर्म देखे। धीरे-धीरे मैं अपना दायाँ हाथ उठाने लग गयी। करीब दो महीनों में ही मैं अपना बायाँ हाथ भी उठाने लगी। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। डॉक्टर ने कहा था कि तीन महीने काम न करने के बाद, मेरे हाथ बेकार हो जाएँगे, लेकिन परमेश्वर की कृपा से मैं चमत्कारिक रूप से ठीक हो गयी। यह सब परमेश्वर के प्रेम और सुरक्षा के कारण संभव हुआ।
जून 2010 में मुझे रिहा कर दिया गया। सीसीपी की क्रूरता और यातनाएँ झेलकर, मैंने साफ तौर पर उसका परमेश्वर-विरोधी शैतानी सार देख लिया, और मैंने पूरे दिल से उसको नकार दिया। मैंने खुद परमेश्वर के प्रेम को भी अनुभव किया। जब मैं हैवानों की माँद में फँस गयी और मुझे उन पुलिसवालों की बर्बरता और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा, तो परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे आस्था और शक्ति दी, उस मुश्किल घड़ी में मुझे राह दिखायी। इन सबसे गुज़रकर, मैं परमेश्वर के और भी करीब आ गयी हूँ। मैंने जाना कि परमेश्वर इंसान के लिए जो कुछ भी करता है वह उसका प्रेम और उद्धार होता है। भविष्य में मैं चाहे किसी भी उत्पीड़न या मुश्किल का सामना करूँ, मैं हमेशा अपनी आस्था में अडिग रहूँगी और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करूँगी।
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