आखिर मुझे गलतफहमियों से मुक्ति मिली

18 अक्टूबर, 2022

कुछ साल पहले मैं कलीसिया के लिए वीडियो बनाती थी। एक ऐसा भी समय था जब मैं अपना कर्तव्य ठीक-से नहीं निभाती थी, मेरे बनाए दो वीडियो अस्थाई तौर पर रद्द कर दिए गए थे, क्योंकि उनके विचारों में कुछ समस्याएँ थीं। मैं उस समय बहुत उदास थी, क्योंकि मैं घबरा रही थी कि भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे। अपनी योग्यता साबित करने के लिए, मैंने बड़ी मेहनत से एक नए वीडियो की योजना बनाई, पर योजना को पढ़ने के बाद अगुआ ने कहा कि यह पुराना और अस्पष्ट कंसेप्ट है। चर्चा के बाद हर किसी को लगा कि योजना आगे बढ़ाने लायक नहीं है, इसलिए इसे कचरे में फेंक दिया गया। मुझे लगा मैं नाकाम हो गई, नकारात्मक हालत में अपने काम के लिए ऊर्जा नहीं जुटा पा रही थी। कुछ दिन बाद कलीसिया को एक वीडियो प्रॉडक्शन सुपरवाइजर का चुनाव करना था, अचानक मुझे पता चला कि कुछ भाई-बहन मुझे मंदबुद्धि और अस्पष्ट दिमाग की समझते हैं। मेरा दिल बैठ गया और मेरे मन में उथल-पुथल सी मच गई। "अगुआ ने कहा था कि मेरे विचार स्पष्ट नहीं थे, और भाई-बहन कह रहे थे मैं भ्रमित रहती हूँ। क्या इसका मतलब है मैं भ्रमित हूँ? क्या भ्रमित लोग परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं? क्या मुझे निकाल दिया जाएगा?" इस विचार ने मुझे नकारात्मक भावनाओं और यंत्रणा से भर दिया, मैं कहीं दूर भाग जाना चाहती थी।

अगले दिन मैंने रोते हुए अगुआ से कहा, "मेरी काबिलियत बहुत कम है, और यह कर्तव्य बहुत कठिन है। मुझे कोई दूसरा कर्तव्य निभाने दो।" मेरे अगुआ ने मेरे साथ संगति करते हुए कहा, "हम सभी में कमजोरियाँ होती हैं, हमें अपने काम में कुछ झटकों और नाकामियों का सामना करना पड़ता है। अगर कुछ समस्याएँ या चूकें हैं तो हमें उनकी समीक्षा करके उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज करनी पड़ती है, और अपनी कोशिशें जारी रखनी पड़ती हैं। जरूरी नहीं कि यह काम तुम्हारे लिए सचमुच नामुमकिन हो।" पर उस समय उसकी बात मेरी समझ में नहीं आई, और मैं बस यह काम छोड़ना चाहती थी। फिर, परमेश्वर के प्रति गलतफहमी और अपने भाई-बहनों से नाराजगी के साथ मैंने यह काम छोड़ दिया। इसके बाद, मैं सुसमाचार का प्रचार करने लगी। कुछ समय की मेहनत के बाद, मैं अपने काम में दिनोदिन ज्यादा असरदार होती चली गई, समूह के भाई-बहन अपना सवाल लेकर अक्सर मेरे पास आते रहते। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरा आत्मविश्वास लौट आया हो। मैं हर दिन अच्छे मूड में रहती और अपने काम के लिए भरपूर ऊर्जा महसूस करती।

पर एक साल बाद अचानक ही, काम की जरूरतों को देखते हुए, अगुआ ने मुझे फिर से वीडियो बनाने के लिए कहा। शुरू में, मैं अपने काम में असरदार रही और कोई बंधन महसूस नहीं किया। पर बाद में जब वीडियो प्रॉडक्शन में कुछ नया करने की जरूरत पड़ी, तो मेरी सोच हमेशा वक्त से पीछे रही और मेरी योजनाएँ ठुकराई जाती रहीं, और मैं एक बार फिर नकारात्मक अवस्था में चली गई। मैं खुद को कम काबिल, मंदबुद्धि और काम के अयोग्य मानने लगी। समूह अगुआ ने मुझे अपने कर्तव्य में निष्क्रिय-सी और कोई जिम्मेदारी न उठाते देखा तो उसने सत्य पर संगति करके मेरी मदद की और मेरा साथ दिया, और आखिर में मुझसे कहा, "तुम और भाई यांग लगभग एक ही अवधि से वीडियो बना रहे हो, वह बहुत संजीदा है, अध्ययन और समीक्षा में माहिर है, और अपने काम में अच्छी प्रगति कर रहा है, पर तुम उतना अच्छा नहीं कर रही हो, तुम्हें कड़ी मेहनत करने की जरूरत है।" पर मैं यह बात सुनकर बेचैन हो गई। सोचने लगी, "तुम मेरे काम में समस्या बता रहे हो, तो ठीक है मैं इसे बदल लूँगी। पर तुम भाई यांग के साथ मेरी तुलना क्यों कर रहे हो? उसमें अच्छी काबिलियत और सुलझी हुई सोच है, और उसका हमेशा से पोषण किया जाता रहा है। मेरी सोच व्यवस्थित नहीं है, मेरा स्तर उसके जैसा नहीं है। कोई तुलना ही नहीं है।" मैं समूह अगुआ के सुझावों और मदद का प्रतिरोध करती रही, और मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। करीब एक हफ्ते बाद, समूह अगुआ ने देखा कि बहन झाऊ और मैं मिल-जुलकर काम नहीं कर रहे हैं, तो उसने मेरे साथ संगति की, "तुम्हारी और बहन झाऊ की जोड़ी बनाई गई है। उसका दिमाग ज्यादा लचीला है और तुम्हारे तकनीकी कौशल बेहतर हैं, इसलिए तुम दोनों एक-दूसरे के पूरक हो। तुम्हें उसके साथ ज्यादा चर्चा करनी चाहिए, उसकी राय को ध्यान से सुनना चाहिए और उसकी खूबियों से सीखना चाहिए। इसी तरह तुम आगे बढ़ोगी। हाल ही में तुम्हारे काम के नतीजे अच्छे नहीं रहे, और वीडियो के लिए तुम्हारा आइडिया बड़ा पुराना होता है। क्या तुम्हें नहीं लगता तुम्हें आत्मचिंतन की जरूरत है?" समूह अगुआ को मेरी समस्याएँ इस तरह उजागर करते देख मैं उदास हो गई। मुझे लगा वह मुझे कमतर और तुच्छ समझता है। कुछ दिन पहले ही उसने मेरी समस्याएं बताई थी, उस झटके से उबरने से पहले ही वह मुझे उजागर करने लगा। इस बारे में मैंने जितना सोचा, उतना ही दुखी और कुंठित महसूस करती रही और रोने लगी। मैं ऐसी बात कहने से नहीं रुक पाई जिसका मुझे आज भी पछतावा है। मैंने कहा, "समूह में ऐसा लगता है जैसे मैं बेकार हूँ, किसी काम की नहीं हूँ, फिर भी तुम मुझे वहाँ रखे हुए हो।" यह सुनकर समूह अगुआ दंग रह गया। उसने कहा, "तुम ऐसी बात कैसे कह सकती हो? कोई भी तुम्हें ऐसा नहीं समझता! हमें अपने कर्तव्य में समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोजना पड़ता है। हम नकारात्मक होकर इसका प्रतिरोध नहीं कर सकते।" समूह अगुआ कैसी भी संगति करता रहा, मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मुझे लगता था मैं भ्रमित हूँ, परमेश्वर मुझसे नाखुश है, भाई-बहन पसंद नहीं करते, तो मैं समूह में एक बेकार और हाशिये पर रहने वाली चीज हूँ। जितना सोचती उतना ही लगता कि मेरे साथ गलत हुआ है, मैं नकारात्मक और गलतफहमी की हालत में जीती रही। परमेश्वर के साथ मेरे संबंध बिगड़े हुए थे, और मेरा आत्मविश्वास लगातार कम हो रहा था। "मेरी काबिलियत कम है" मेरा जीवन-मंत्र बन गया।

बाद में, अपनी भागीदार के साथ वीडियो बनाते हुए, जब भी चर्चा के दौरान उसका विचार मुझसे अलग होता तो मैं उसकी बात मान लेती, और कहती, "मेरी काबिलियत कम है और मेरे विचार इतने अच्छे नहीं हैं। तुमने समस्या को बिल्कुल ठीक समझा है, तो उसी हिसाब से चलना चाहिए।" फिर मैं अपना सुझाव मिटा देती। मेरी भागीदार यह देखकर हैरान रह गई, "तुमने इसे क्यों मिटा दिया? मुझमें बहुत-सी कमियाँ हैं, जरूरी नहीं कि मैं भी समस्याओं को सही तरीके से समझ पाऊँ।" बाद में वह अपनी हालत के बारे में मुझसे बात करने आई। उसने कहा कि मेरे साथ काम करते हुए उसका स्वभाव अहंकारी रहता था, वह मुझे थोड़ा कमतर समझती थी। उसने इस पर आत्मचिंतन किया था। उसकी यह बात सुनकर मैं ऊपर से शांत रही, पर बहुत व्यथित हो गई मैं उसके साथ गहराई से बात करना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने मुश्किल से कहा, "तुम्हें अहंकार दिखाने के लिए माफ किया जा सकता है, कौन नहीं ऐसा करेगा, जब मेरे जैसी कम काबिलियत वाली इंसान के साथ काम करना पड़ रहा हो? तुम्हारी जगह मैं होती, तो मैं भी ऐसा ही करती।" उस समय, वह उलझन में पड़ गई और समझ नहीं पाई कि क्या कहे, इस तरह, मैं नकारात्मक और गलतफहमी की हालत में जीती रही। मेरा दिल यंत्रणा और पीड़ा से तड़प रहा था, और अपना कर्तव्य निभाना मुश्किल हो रहा था, खासकर कोई वीडियो पूरा हो जाने के बाद, जब हमें वीडियो के पीछे का विचार समझाना और हरेक से टिप्पणी करने को कहना पड़ता था। मैं शायद ही कभी कुछ कहती, और चर्चाओं में हिस्सा लेने से कतराती थी, ऐसे अवसरों पर मैं बस अपनी भागीदार का मुंह देखती थी। उन दिनों तो मेरी हालत बेहद खराब थी। जब मैं रात को सो न पाती तो सोचती, "मैं अपने कर्तव्य में हमेशा खुद को रोके क्यों रखती हूँ, मुझमें आत्मविश्वास क्यों नहीं होता? मुझे हमेशा छोटा समझे जाने से डर क्यों लगता है? मेरे लिए जिंदगी एक यंत्रणा क्यों है?" अब मैं और ज्यादा अवसाद में नहीं रहना चाहती थी। मैं दूसरों की तरह सकारात्मक हालत में जीना चाहती थी, और सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाना चाहती थी। पर मैं इस नकारात्मक हालत से उबर नहीं पा रही थी। मैं बस परमेश्वर के सामने रोकर उसे मुझे बचाने और इस दुविधा से बाहर निकालने के लिए कह सकती थी।

कुछ दिन बाद एक सभा में मैंने अगुआ को परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ते हुए सुना, जिससे मुझे अपनी समस्या का एहसास हुआ और मैं अपनी हालत को बदलने में सफल रही। परमेश्वर कहते हैं, "जब लोग परमेश्वर से दूर होकर ऐसी स्थिति में जीते हैं जिसमें वे परमेश्वर को गलत समझ लेते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं, परमेश्वर के खिलाफ जाकर उससे बहस करते हैं, तो वे पूरी तरह से परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा से बाहर हो जाते हैं, परमेश्वर के प्रकाश की मौजूदगी से पूरी तरह दूर जाते हैं। जब लोग ऐसी स्थिति में जीते हैं, तो वे मजबूरन अपनी भावनाओं के सहारे ही जीते हैं। कोई छोटा-सा विचार तुम्हें इतना परेशान कर सकता है कि तुम खा या सो नहीं पाते, कोई लापरवाही से भरी टिप्पणी तुम्हें संदेह और भ्रम में डुबा सकती है, एक बुरा सपना भी नकारात्मक बनाकर तुम्हें परमेश्वर को गलत समझने के लिए उकसा सकता है। एक बार जब इस तरह का दुष्चक्र बन जाता है, तो लोगों को लगता है कि उनके लिए सब खत्म हो गया है, कोई उम्मीद नहीं बची है, परमेश्वर उनसे प्रेम नहीं करता, उन्हें परमेश्वर ने छोड़ दिया है और अब परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। वे जितना अधिक इस तरह सोचते हैं और जितनी अधिक उनमें ऐसी भावनाएँ पैदा होती हैं, उतना ही वे नकारात्मकता में डूबते चले जाते हैं। लोगों में इस तरह की भावनाएँ पैदा होने का असली कारण यह है कि वे सत्य नहीं खोजते या सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते। और चूँकि, जब लोगों के साथ कुछ घट जाता है, तो वे सत्य नहीं खोजते और सत्य का अभ्यास नहीं करते, क्योंकि वे हमेशा अपने रास्ते जाते हैं, अपने ही तुच्छ षड्यंत्रों के बीच जीते हैं, हर दिन अपनी तुलना दूसरों से करते रहते हैं, उनसे प्रतिस्पर्धा करते हैं और जो भी उनसे बेहतर होता है, उससे ईर्ष्या और घृणा करते हैं, जिन्हें वे अपने से नीचा समझते हैं, उनका उपहास करते हैं, उन्हें ताना मारते हैं, शैतानी स्वभाव में जीते हैं, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, इससे तरह-तरह के भ्रम, अटकलें, आलोचनाएँ उत्पन्न होती हैं, वे खुद को निरंतर व्याकुल बना लेते हैं और किसी की सलाह नहीं मानते। क्या यह उनकी अपनी गलती नहीं है? केवल लोग ही खुद को ऐसे कड़वे फलों से लाद सकते हैं—और वे इसी लायक होते हैं। इन सब कारण क्या है? लोग सत्य की तलाश नहीं करते हैं, वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही काम करते हैं, वे हमेशा दिखावा करते हैं और दूसरों से अपनी तुलना करते हैं, परमेश्वर से अनुचित अपेक्षा करते हैं, खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं, वगैरह-वगैरह—और इन्हीं बातों के कारण लोग बार-बार परमेश्वर से दूर चले जाते हैं, उसका विरोध कर बार-बार सत्य की उपेक्षा करते हैं। अंतत:, वे खुद को अंधकार और नकारात्मकता में डुबा लेते हैं। और ऐसे में, लोगों के लिए उन चीजों को समझना असंभव हो जाता है जो उनके साथ घटित होती हैं, उनके लिए ऐसी चीजों के प्रति सही दृष्टिकोण रखना असंभव हो जाता है; उल्टे, वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हैं, परमेश्वर को गलत समझते हैं, परमेश्वर के बारे में अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं। जब ऐसा होता है, तो लोगों को एहसास होता है कि वे मुसीबत में हैं, वे समझ जाते हैं कि वे परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, उनके पास नकारात्मकता में डूब जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता, वे उससे खुद को बाहर नहीं निकाल पाते। वे यह मानते हैं, 'परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, वह मुझसे प्रेम नहीं करता, मैं बहुत विद्रोही हूँ, मैं खुद ही इसके लिए जिम्मेदार हूँ, अब परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा।' वे मान लेते हैं कि उनकी आशंकाएँ सच हैं, अब चाहे कोई भी उनके साथ संगति करे, उन्हें समझाने की कोशिश करे, यह बेकार होता है। वे मानते हैं, 'ये सब तथ्य हैं, सब सच है, परमेश्वर मुझे आशीष नहीं देगा, वह मुझे नहीं बचाएगा, तो फिर परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या फायदा?' जब परमेश्वर में उनके विश्वास का मार्ग इस मुकाम पर आ जाता है, तो क्या लोग अब भी विश्वास कायम रख पाएँगे? नहीं, क्यों नहीं रख पाएँगे? यहाँ एक तथ्य है। जब लोगों की नकारात्मकता एक बिंदु-विशेष पर पहुँच जाती है, जब उनके दिल में विरोध और शिकायतें भरी होती हैं और वे परमेश्वर से पूरी तरह संबंध तोड़ना चाहते हैं, तो यह उनके परमेश्वर का भय न मानने, परमेश्वर की आज्ञा न मानने, सत्य से प्रेम न करने और उसे स्वीकार न करने जितना सरल नहीं रह जाता। वास्तव में क्या चल रहा होता है? वे अपने मन में, परमेश्वर में अपनी आस्था त्यागने का फैसला कर चुके होते हैं। उन्हें लगता है कि बैठे-बैठे निकाले जाने का इंतजार करना शर्मनाक है, हार मान लेना अधिक गरिमामय होगा, तो वे पहल करके खुद ही सारे संबंध तोड़ लेते हैं। वे परमेश्वर में आस्था को बुरा कहकर उसकी निंदा करते हैं, वे यह कहकर सत्य की निंदा करते हैं कि वह लोगों को बदल नहीं सकता, परमेश्वर को अधार्मिक बताकर उसकी निंदा करते हैं और दुखी होकर पूछते हैं—परमेश्वर ने उन्हें बचाया क्यों नहीं : 'मैंने कितने त्याग किए, मैं कितना ईमानदार था, मैंने कितनी मेहनत की, मैंने दूसरों की तुलना में कितने अधिक कष्ट सहे, बाकी लोगों से ज्यादा कठोर प्रयास किए, लेकिन फिर भी परमेश्वर ने मुझे आशीर्वाद नहीं दिया। अब मुझे समझ में आया कि परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता, परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है।' उनकी इतनी जुर्रत हो जाती है कि वे परमेश्वर के बारे में अपने शक को परमेश्वर के तिरस्कार और निंदा में बदल देते हैं। जब ऐसी बातें होने लगती हैं, तो क्या वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चल सकते हैं? चूँकि वे परमेश्वर से विद्रोह करते हैं, उसका विरोध करते हैं, सत्य नहीं स्वीकारते, और जरा भी आत्मचिंतन नहीं करते, इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता है" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर का हर वचन मुझे कुछ याद दिलाने, विश्लेषण करने या चेतावनी देने वाला था। खासकर जब परमेश्वर ने कहा, "लोगों में इस तरह की भावनाएँ पैदा होने का असली कारण यह है कि वे सत्य नहीं खोजते या सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं करते।" इन वचनों के बारे में सोचते हुए मैं आत्मचिंतन करने लगी, और इतने बरस बाद आखिर मुझे पता चला कि इन हालात का सामना करते हुए मैंने कभी भी सत्य की खोज नहीं की थी, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। मैं पूरी तरह से अपनी कल्पनाओं और अनुमानों के भीतर जी रही थी। मुझे याद आया कि जब मैं वीडियो बनाने में बार-बार असफल हो रही थी, और मैंने भाई-बहनों को कहते सुना था कि मैं भ्रमित थी, तो मैंने अपनी समस्याओं पर चिंतन-मनन नहीं किया; इसके बजाय मैं पलायन करके नकारात्मकता और गलतफहमी में जीने लगी। जब मैंने दोबारा वीडियो बनाने शुरू किए, तो मैंने अपनी पिछली असफलताओं से सबक नहीं लिया। मैं निष्क्रियता और सुरक्षात्मक मानसिकता से अपना कर्तव्य निभाने लगी। जब मैंने समूह अगुआ को दूसरों की तारीफ करते और मेरी समस्याएँ बताते सुना तो मैं और भी नकारात्मक हो गई। मुझे लगा मैं कम काबिल और भ्रमित हूँ। मुझे शंका थी कि भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखते हैं, मैंने परमेश्वर को और भी ज्यादा गलत समझा, जिससे मेरा दिल पीड़ा और अंधकार से भर गया, मैं अपने कर्तव्य में बेअसर हो गई। मैं हरेक मामले में खुद को पीछे रोके रखती और बेबस महसूस करती। तभी मुझे साफ-साफ समझ में आया कि मेरे आसपास के लोगों और चीजों में कोई समस्या नहीं थी, और परमेश्वर मेरे साथ पक्षपात नहीं कर रहा था। मैं सत्य नहीं खोज रही थी, हमेशा प्रतिरोध करती थी, इससे दूर भागती थी, और परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, निपटान और काट-छांट से चिढ़ती थी। परमेश्वर के प्रति मेरी अवज्ञा और प्रतिरोध की कोई सीमा नहीं थी, जिसके कारण मैं अंधकार और पीड़ा में जा गिरी थी, परमेश्वर से मेरे संबंध और भी बिगड़ गए थे। अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा रही थी तो क्या यह सिर्फ मेरा दोष नहीं था? आखिर मेरी समझ में आया कि "खुद पर लगाम लगाना" किसे कहते हैं। मुझे एक और बात साफ समझ में आई, भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास करती, त्याग करती और खुद को खपाती थी, पर मैं सचमुच सत्य को स्वीकार नहीं करती थी, न ही यह मानती थी कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य लोगों को बचा सकता है। जब अपने कर्तव्य में मैंने झटकों और असफलताओं का सामना किया, तो मैंने प्रतिरोध और अनुचित व्यवहार किया, खुद को कम काबिल माना। मुझे ऐसा भी लगा कि परमेश्वर मेरे जैसे लोगों को नहीं बचाता। मैं अक्सर असंतुष्ट रहती थी, सोचती थी मैं अपने कर्तव्य में कष्ट उठा सकती हूँ और त्याग कर सकती हूँ; मैंने दूसरों से कम कष्ट नहीं झेले। तो फिर मुझे इतना बुरा दिखाकर क्यों उजागर किया जाता है? परमेश्वर मुझ पर कृपालु क्यों नहीं था? क्या मैं परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं झुठला रही थी? यह ईशनिंदा थी! मैंने जितना आत्मचिंतन किया उतना ही डर लगा। मुझे लगा मेरी हालत बेहद खतरनाक थी। अगर मैंने खुद को नहीं बदला और सच्चा प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर निश्चित ही मुझे निकाल देगा! परमेश्वर के विश्लेषण की हर बात मेरे मन को छू गई। अपनी समस्या की गंभीरता देखकर मैं बिलख उठी। सत्य का अनुसरण न करने, परमेश्वर के वचनों को न स्वीकारने, और खुद को नुकसान पहुंचाने पर मुझे खुद से नफरत हो गई। मुझे गहरा पछतावा हो रहा था, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "परमेश्वर, अब मैं इतनी विद्रोही और जिद्दी बने रहना नहीं चाहती, मैं किसी गलतफहमी में रहना या फिर से तुम्हारा दिल तोड़ना भी नहीं चाहती। मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ!"

इसके बाद, अगुआ और समूह अगुआ मेरे साथ संगति करने आए। उन्होंने नकारात्मकता की मेरी प्रवृत्ति को उजागर किया और मुझे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए। मैं भाव-विभोर हो उठी। "प्रत्येक चरण में—जब परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या ताड़ना दे रहा हो, या जब वह तुम्हें याद दिला रहा हो और तुम्हें उपदेश दे रहा हो—अगर तुम्हारे और परमेश्वर के बीच टकराव हुआ है, फिर भी तुम अ‍पने आप में बदलाव नहीं लाते और अपने विचारों, दृष्टिकोण और प्रवृत्ति से चिपके रहते हो, उस समय भले ही तुम्हारे कदम आगे बढ़ रहे हों, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच संघर्ष, उसके प्रति तुम्हारी गलतफहमी, नाराजगी और विद्रोह में कोई सुधार नहीं आएगा और यदि तुम्हारे अंदर बदलाव नहीं आया, तो परमेश्वर अपने स्तर पर तुम्हें बाहर निकाल देगा। हालाँकि तुमने हाथ लिया हुआ काम छोड़ा नहीं है, तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हो और तुम्हारे अंदर परमेश्वर के आदेश के प्रति थोड़ी-बहुत निष्ठा बची है, लोग इसे संतोषजनक मान लेते हैं, लेकिन तुम्हारे और परमेश्वर के बीच के विवाद ने स्थायी गाँठ बना दी है। तुमने उस विवाद को सुलझाने और परमेश्वर की इच्छा की समझ हासिल करने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारी गलतफहमी और बढ़ रही है। तुम्हें हमेशा परमेश्वर ही गलत लगता है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ नाइंसाफी की जा रही है, इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे अंदर बदलाव नहीं आया है। तुममें अभी भी विद्रोह का भाव है, धारणाएँ हैं और अभी भी परमेश्वर के प्रति गलतफहमी बनी हुई है जिसकी वजह से तुम्हारा रवैया अवज्ञाकारी है, तुम हमेशा विद्रोही रवैया अपनाए रहते हो और परमेश्वर का विरोध करते हो। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विद्रोह नहीं करता है, उसका विरोध नहीं करता है और अड़ियल बनकर प्रायश्चित करने से इंकार नहीं करता है? परमेश्वर लोगों के बदलाव लाने को इतना महत्व क्यों देता है? एक सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता को किस प्रवृत्ति से देखे? उसे इस प्रवृत्ति से देखना चाहिए कि सृष्टिकर्ता चाहे कुछ भी करे, वह सही है। यदि तुम इस बात को स्वीकार नहीं करते हो कि सृष्टिकर्ता सत्य, मार्ग और जीवन है, तो फिर तुम्हारे लिए ये शब्द खोखले हैं, और यदि ये शब्द तुम्हारे लिए खोखले हैं, तो क्या तुम उसके बावजूद उद्धार पा सकोगे? नहीं, तुम उद्धार नहीं पा सकते। तुम पात्र नहीं होगे; परमेश्वर तुम जैसे लोगों को नहीं बचाता। ... तुम्हें बदलाव लाकर अपने विचारों और इरादों को अलग रखना चाहिए। जब तुम्हारा यह इरादा होगा, तो सहज ही तुम्हारी प्रवृत्ति भी समर्पण की होगी। हालाँकि, थोड़ा और अधिक सटीक रूप से बात करें तो, यह ऐसे लोगों से संबंधित है जो परमेश्वर, यानी सृष्टिकर्ता के प्रति अपनी प्रवृत्ति में बदलाव लाते हैं; यह इस तथ्य की मान्यता और पुष्टि है कि सृष्टिकर्ता सत्य, मार्ग और जीवन है। यदि तुम अपने अंदर बदलाव ले आते हो, तो इससे ज़ाहिर होता है कि तुम उन चीजों को अलग रख सकते हो जिन्हें तुम सही समझते हो, या जिन चीजों को भ्रष्ट मानवजाति सामूहिक रूप से सही समझती है; जबकि तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और सकारात्मक बातें हैं। यदि तुम ऐसी प्रवृत्ति रख सको, तो इससे यह सिद्ध होता है कि तुम सृष्टिकर्ता की पहचान को मान्यता देते हो। परमेश्वर मामले को इसी ढंग से देखता है और इसलिए वह इसे विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए, मेरी समझ में आया कि परमेश्वर लोगों में बदलाव लाने को इतना महत्वपूर्ण क्यों समझता है। लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य में, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई व्यक्ति कितना काम कर सकता है या कितने कष्ट उठा सकता है, परमेश्वर लोगों के दिलों में देखता है। वह देखता है कि क्या लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर जो करता है वह सही होता है, क्या वे यह मानते हैं कि परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है, और क्या वे परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं। अगर किसी व्यक्ति में बहुत-सी भ्रष्टता उजागर होती है और वह सत्य के खिलाफ जाने वाले काम करता है, पर अपनी समस्याओं पर कभी चिंतन नहीं करता, सत्य को नहीं स्वीकारता, और परमेश्वर के बारे में हमेशा गलतफहमी में रहता है, भले ही ऊपरी तौर पर वह कष्ट सहने और त्याग करने वाला व्यक्ति हो, परमेश्वर के लिए वह प्रतिरोध और विश्वासघात करने वाला व्यक्ति है। आखिर में, ऐसे सब लोग निकाल दिए जाएंगे और बचाए नहीं जा सकेंगे। मैंने ध्यान दिया कि इन तमाम वर्षों में मैं परमेश्वर को समझने में हमेशा गलती करती रही और उससे उखड़ी रही थी, पर मैंने कभी भी इन मसलों को सुलझाया नहीं था। मैंने बस खुद को कर्तव्य में व्यस्त रखा था। जब मेरे कर्तव्य में समस्याएँ उजागर हुईं, और मेरी कई कमियाँ सामने आईं, तो मेरे अहं को चोट पहुंची, और मैंने खुद को नकारात्मक शब्दों से मढ़ दिया, परमेश्वर के बारे में भी शिकायती या गलतफहमी भरे शब्द इस्तेमाल किए। समय के साथ मेरे दिल में गिले-शिकवे बढ़ते रहे परमेश्वर के साथ मेरा अलगाव और गहरा हो गया, मेरी हालत निरंतर खराब होती चली गई। मैं खुद से यह पूछे बिना न रह सकी, "हालांकि मैं खुद को हर रोज अपने काम में व्यस्त रखती थी, और मैंने कभी भी कोई बड़ा कुकर्म नहीं किया था, पर मेरा दिल परमेश्वर से बहुत दूर था, मैं हमेशा उसे दूर रखती और उसके बारे में गलतफहमियाँ पाले रहती थी। मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने वाली कैसे कहा जा सकता था? क्या परमेश्वर ऐसी आस्था को स्वीकारेगा? मैं अक्सर गलतफहमी और नकारात्मकता में रहती थी, और कोई राहत महसूस नहीं करती थी। अपना कर्तव्य निभाते हुए भी, मैं पवित्र आत्मा के कार्य को ग्रहण नहीं कर पाई थी। मैं सिर्फ अपने पिछले अनुभव के बल पर किसी तरह घिसट रही थी। मैं इस तरह कैसे आगे बढ़ सकती थी? इस तरह विश्वास करके मैं क्या हासिल कर सकती थी?" तभी मुझे साफ-साफ यह एहसास हुआ कि परमेश्वर के बारे में किसी गलतफहमी को दूर करना और एक प्रायश्चित करने वाला दिल होना कितना जरूरी है! तीन साल पहले, मैं यह बात भूल नहीं पाती थी भाई-बहनों ने कैसे यह कहा था कि मेरी सोच स्पष्ट नहीं थी। मैंने इस बारे में सत्य की खोज कभी नहीं की, न ही परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्मचिंतन किया। पर अब मैं जान गई कि इस समस्या को सुलझाने के लिए सत्य खोजना जरूरी था।

मैंने इससे जुड़े परमेश्वर के वचनों के हिस्से देखे। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब परमेश्वर तुम्हें मूर्ख कहता है, तो वह यह नहीं कह रहा है कि तुम किसी कथन, वचन या परिभाषा को स्वीकार कर लो—वह कहता है कि तुम उसके भीतर के सत्य को समझो। तो जब परमेश्वर किसी को मूर्ख कहता है, तो उसके अंदर क्या सच्चाई है? 'मूर्ख' शब्द का सतही अर्थ तो हर कोई समझता है। लेकिन मूर्ख की अभिव्यक्तियाँ और स्वभाव क्या होता है, लोग जो करते हैं, उनमें से कौन-सी चीजें मूर्खताएँ हैं, और कौन-सी नहीं, परमेश्वर लोगों को इस तरह क्यों उजागर करता है, मूर्ख लोग परमेश्वर के सामने आ सकते हैं या नहीं, मूर्ख सिद्धांत के अनुसार कार्य कर सकते हैं या नहीं, सही-गलत क्या है, इसे समझ सकते हैं या नहीं, परमेश्वर को क्या प्रिय है और क्या अप्रिय है, उन्हें इसकी पहचान है या नहीं—अधिकांश समय, लोग इन बातों को लेकर स्पष्ट नहीं होते; उनके लिए ये चीजें दुविधापूर्ण, गलत तरीके से परिभाषित और पूरी तरह से अस्पष्ट होती हैं। उदाहरण के लिए, ज्यादातर समय लोगों को पता नहीं होता—उन्हें इसकी साफ समझ नहीं होती—क्या किसी एक तरीके से काम करना केवल नियमों का पालन करना है या सत्य का अभ्यास करना है। न तो उन्हें पता होता है—न ही उन्हें यह स्पष्ट होता है—कि परमेश्वर को फ्लाँ चीज प्रिय है या अप्रिय। वे नहीं जानते कि क्या एक निश्चित तरीके से अभ्यास करना लोगों की कटु आलोचना करना है या सामान्य रूप से सत्य पर संगति करना और लोगों की मदद करना है। वे नहीं जानते कि लोगों के प्रति उनके व्यवहार के पीछे के सिद्धांत सही हैं या नहीं, वे मित्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं या लोगों की मदद करने की। वे यह नहीं जानते कि किसी विशेष तरीके से बर्ताव करना सिद्धांतों का पालन करना और अपनी बात पर कायम रहना है या दिखावा करना। जब कुछ लोगों के पास करने को और कुछ नहीं होता, तो उन्हें आईना देखना अच्छा लगता है; उन्हें पता ही नहीं होता कि यह आत्म-मोह और अभिमान है या यह सामान्य चीज है। कुछ लोग गर्म-मिजाज और थोड़े अजीब होते हैं; क्या वे बता सकते हैं कि यह बात उनका बुरा स्वभाव होने से जुड़ी हुई है या नहीं? लोग इन आम तौर पर देखी जाने वाली, आम तौर पर सामने आने वाली चीजों तक में अंतर नहीं कर पाते—और फिर भी कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर बहुत कुछ हासिल किया है। क्या यह मूर्खता नहीं है? तो क्या तुम लोगों को मूर्ख कहलाना स्वीकार है? (हाँ।) ... और क्या तुम लोग आजीवन मूर्ख बने रहना चाहते हो? (नहीं।) कोई भी मूर्ख नहीं बनना चाहता। वास्तव में, इस तरह से संगति और विश्लेषण करने का प्रयोजन तुम्हें मूर्ख की श्रेणी में डालना नहीं है; परमेश्वर तुम्हें जैसे चाहे परिभाषित करे, तुम्हारे बारे में कुछ भी प्रकट करे, चाहे जैसे तुम्हारा न्याय करे और ताड़ना दे, तुमसे निपटे और तुम्हारी काट-छाँट करे, अंतत: उद्देश्य यह है कि तुम्हें उन स्थितियों से बचाया जाए, तुम सत्य की समझ हासिल करो, सत्य प्राप्त करो और मूर्ख न बनो। अगर मूर्ख नहीं बनना चाहते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम किन मामलों में मूर्ख हो, किन मामलों में तुम हमेशा सिद्धांतों का प्रचार करते रहते हो, सिद्धांतों और मतों के शब्दजाल में भटकते रहते हो, तथ्य सामने होने पर शून्य में ताकते रहते हो। जब तुम इन समस्याओं का समाधान कर लोगे और सत्य के हर पहलू के बारे में स्पष्ट हो जाओगे, तब तुम्हारे मूर्ख होने के अवसर कम हो जाएंगे। जब तुम्हें हर सत्य की स्पष्ट समझ होगी, जब कार्य करते हुए तुम्हारे हाथ-पैर बंधे नहीं होंगे, जब तुम नियंत्रित या बाध्य नहीं होगे—जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाए, तब तुम अभ्यास के लिए सही सिद्धांत खोज पाओ और परमेश्वर से प्रार्थना कर, सच में सिद्धांत के अनुसार पेश आ सको, सत्य खोज सको या संगति करने के लिए किसी को खोज सको, तब तुम मूर्ख नहीं रहोगे। यदि तुम किसी चीज को लेकर स्पष्ट हो और तुम सत्य का सही ढंग से अभ्यास कर पा रहे हो, जब वह मामला आएगा, तो तुम मूर्ख नहीं होगे। लोगों का हृदय सहज रूप से प्रबुद्ध हो सके इसके लिए उन्हें बस सत्य समझना है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर ने भ्रमित लोगों के व्यवहार को समझाया है। ऐसे लोग अपने हर काम में भ्रमित और अस्पष्ट होते हैं। उनका कोई मत या सिद्धांत नहीं होता, वे नहीं जानते परमेश्वर को क्या पसंद है क्या नहीं, उनमें लोगों और हालात को पहचानने की समझ-बूझ नहीं होती। वे खुद में उजागर होने वाली कमियों या भ्रष्टता को साफ-साफ नहीं देख पाते। कुछ घटने पर वे सही-गलत की पहचान नहीं कर पाते, और उनका कोई सिद्धांत या अभ्यास का रास्ता नहीं होता। मैंने परमेश्वर के वचनों को खुद पर परखा तो मेरे काम के कई दृश्य मेरे ख्यालों में आने लगे। मैं सिर्फ मेहनत करने पर ध्यान दे रही थी, न कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या सत्य के सिद्धांतों को जानने पर। जब भाई-बहन वीडियो की एडिटिंग को लेकर मुझे अपने सुझाव देते थे, तो मैं इन पर कोई ध्यान नहीं देती थी। कई बार तो मुझे उनकी बात समझ में ही नहीं आती थी, और बस आँख मूंदकर काम करती रहती थी, यह सोचते हुए कि कष्ट झेलने का मतलब परमेश्वर के प्रति निष्ठा थी। अपने कर्तव्य में मैंने इतनी भ्रष्टता और कमियाँ उजागर की थीं, पर मैंने परमेश्वर के सामने आकर सत्य की खोज और समस्या को हल नहीं किया। इसके बजाय मैं सालों तक नकारात्मक हालत में जीती रही और मुंह पर ताला लगाए रही। मैं यह देख ही नहीं पाई कि मेरी समस्या कितनी गंभीर थी और इस तरह जीना कितना खतरनाक था। मैं हर रोज भ्रमित-सी रहती थी और किसी तरह काम निपटा देती थी। क्या ये सब एक भ्रमित इंसान के लक्षण नहीं हैं? तभी मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों ने मेरे बारे में जो कहा था, वह सच ही था। पर मैं इसे मानने से इनकार करती रही। मैं यह शक करती रही कि हर कोई मुझे नीची नजर से देखता है और अपने मन में उनके लिए पूर्वाग्रह और नाराजगी पाले रही। मुझे सचमुच ऐसा नहीं करना चाहिए था! इन तमाम वर्षों में, भाई-बहन अक्सर मेरा साथ देते रहे और मेरी मदद करते रहे, और कभी भी मुझे नीची नजर से नहीं देखा। मैं खुद ही संयमहीन, नासमझ और सत्य को नकारती रहने वाली इंसान थी। यह सब सोचते हुए, मैं आखिर अतीत को पीछे छोड़ने में सफल रही। इतनी भ्रमित रहने और सत्य की खोज न करने के लिए मुझे खुद पर कोफ्त हो रही थी। मुझे अपनी संयमहीनता और बेतुकेपन पर भी खीज हो रही थी।

यह एहसास होने पर कि मैं भ्रमित थी, मुझे ख्याल आया कि मैं अक्सर खुद को कम काबिल भी कहती थी। यह एक दूसरी समस्या थी जिसे हल करने के लिए मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है, तो तुम्हारी मूर्खता में अर्थ है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है, तो तुम्हारे तेज होने में अर्थ है। परमेश्वर तुम्हें जो भी निपुणता दे, तुम्हारे जो भी गुण हों, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका निभाते हो और जो कर्तव्य तुम पूरा करते हो—वे परमेश्वर द्वारा बहुत पहले ही नियत कर दिए गए थे। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास विशेषज्ञता है जो उनके पास नहीं है और वे असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, बेकार है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के उपयुक्त हो, वही वो कर्तव्य है जो तुम्हें करना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या न करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। बात अगर ऐसी है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो व्यावहारिक रूप से सुने और आज्ञापालन करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा। हमेशा सभी से आगे निकलने, सब-कुछ दूसरों से बेहतर करने और हर तरह से भीड़ से अलग दिखने की मत सोचो। यह किस तरह का स्वभाव है? (अहंकारी स्वभाव।) लोगों का स्वभाव हमेशा अहंकारी होता है, यदि वे सत्य के लिए प्रयास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना भी चाहें, तो कर नहीं पाते। वे अपने अहंकारी स्वभाव के नियंत्रण में होते हैं जिसकी वजह से वे आसानी से भटक जाते हैं। जैसे, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परमेश्वर की अपेक्षाओं के बजाय अपने नेक इरादे जताकर दिखावा करना चाहते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे नेक इरादों की अभिव्यक्ति की प्रशंसा करेगा? परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहने के लिए, तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। नेक इरादे व्यक्त करने वाले लोग, परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत नहीं रहते, बल्कि नई-नई चालें चलने और ऊँची लगने वाली बातें बोलने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम इस तरह विचारशील बनो। कुछ लोग कहते हैं कि यह उनका प्रतिस्पर्धी होना है। प्रतिस्पर्धी होना अपने आप में एक नकारात्मक बात है। यह शैतान के अभिमानी स्वभाव का एक प्रकटन—एक अभिव्यक्ति है। जब तुम्हारा ऐसा स्वभाव होता है, तो तुम हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करते हो, हमेशा उनसे आगे निकलने की कोशिश करते हो, हमेशा मुकाबला करते हो, हमेशा लोगों से लेने की कोशिश करते हो। तुम अत्यधिक ईर्ष्यालु होते हो, तुम किसी का आज्ञापालन नहीं करते, और तुम हमेशा खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हो। यह समस्या है; ऐसे तो शैतान काम करता है। यदि तुम वाकई परमेश्वर के स्वीकार्य प्राणी बनना चाहते हो, तो अपने सपनों के पीछे मत भागो। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जो तुम हो, उससे श्रेष्ठ और अधिक सक्षम दिखने का प्रयास करना बुरी बात है; तुम्हें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए और अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर नहीं जाना चाहिए; इसी को समझदारी कहते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन कितने स्पष्ट हैं! मैं खुद को कम काबिल क्यों कहती रही? क्योंकि, दरअसल मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी। मुझमें हमेशा से महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ थीं, मैं दूसरों से ऊंची होना चाहती थी। जब ऐसा नहीं हुआ तो मैं नकारात्मक होकर अपना संयम खो बैठी और खुद को कमतर मान लिया। नाम और रुतबे के लिए मेरी चाहत बहुत प्रबल थी। मुझे किसी भी समूह में कमतर समझे जाने से डर लगता था, मैं चाहती थी लोग मेरा मान करें। पर दरअसल मेरी कई समस्याएँ और कमियाँ उजागर होने लगी थीं। जब मैंने निपटान, काट-छांट, झटकों और असफलताओं का अनुभव किया, तो मुझे लगा मेरी छवि और शोहरत खराब हो गई है। मैं इसका सही तरीके से सामना नहीं कर पाई, सोचने लगी कि मेरी काबिलियत कम थी और मैं बहुत ज्यादा भ्रमित थी। मैं अक्सर दूसरों के साथ अपनी तुलना करती। जब मैंने देखा कि समूह के दूसरे लोगों में कई खूबियाँ थीं, और उनमें मुझसे ज्यादा काबिलियत थी, तो मैं खुद अयोग्य और मामूली महसूस करने लगी। मैं इस सच्चाई को नहीं स्वीकार पाई, इसलिए हताश और कमतर महसूस करने लगी। तभी मुझे यह एहसास हुआ कि मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे की चाह थी, इसलिए मैं दूसरों से अपनी काबिलियत और खूबियों की तुलना करती और हमेशा दूसरों से तारीफ पाना चाहती थी। मेरा शैतानी स्वभाव बहुत गंभीर था। खूबियाँ या काबिलियत यह तय नहीं करते कि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है या नहीं। दूसरों का आदर पाना और उनके द्वारा पूजा जाना उद्धार की गारंटी नहीं है। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा। परमेश्वर चाहता है कि हममें इंसानियत हो और हम तर्कसंगत हों, हम व्यावहारिक तरीके से सत्य खोजें और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करें। और एक इंसान की तरह जीवन जिएं। परमेश्वर लोगों से यही चाहता है। मैं परमेश्वर की बातों के बारे में सोचने लगी, "यह मायने नहीं रखता कि मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिलकुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं, हालांकि परमेश्वर लोगों को कम काबिल और भ्रमित कहता है, पर यह सिर्फ उन्हें उनकी समस्याएँ बताने और कमियाँ दिखाने के लिए किया जाता है, ताकि वे अच्छी तरह सत्य का अनुसरण कर सकें, खुद को बदल सकें और जीवन में आगे बढ़ सकें। मुमकिन है हममें कम काबिलियत हो, पर अगर हम सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करते हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं, तो परमेश्वर कृपालु होकर हमें आशीष देगा। पर अगर हमारी काबिलियत अच्छी होने पर भी हम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो हमें उजागर करके त्याग दिया जाएगा। यह एक तथ्य था कि मुझमें काबिलियत कम थी और मैं अक्सर भ्रमित रहती थी। पर परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह मुझे नहीं बचाएगा या मुझे त्याग देगा। वह मुझे अपना कर्तव्य निभाने के अवसर देता रहा, मुझे सत्य का अनुसरण करते हुए प्रगतिशील रहना चाहिए, अपनी कमियों की भरपाई करके अपनी काबिलियत में सुधार लाना चाहिए।

इसके बाद, जब भी कुछ होता तो मैं सत्य की खोज पर ध्यान देती, और चाहे जैसे भी हालात हों, चाहे निपटान और काट-छांट किया गया हो, या झटके और असफलताएँ मिली हों, मैं आज्ञापालन कर सत्य के सिद्धांतों खोज सकती थी। जब मैंने इस तरह से अनुभव किया, तो पता चलने से पहले ही मुझे परमेश्वर की मौजूदगी का एहसास हुआ, और मुझे अपनी सोच ज्यादा स्पष्ट महसूस हुई। जब भाई-बहन वीडियो पर विचार के लिए कोई चर्चा करते, तो अब मैं चुप न रहती। कभी-कभी मेरे विचार गलत होते, या भाई-बहन मुझे कोई सुझाव देते, तो मैं सही तरीके से इसका सामना कर पाती और शांत रहती। उस दौरान मैं परमेश्वर के बहुत करीब महसूस करती रही। मुझे लगता था परमेश्वर मेरे साथ खड़ा है, और मुझे आत्मविश्वास और शक्ति दे रहा है। हालांकि मेरे कर्तव्य में बहुत-सी मुश्किलें थीं, पर प्रार्थना से परमेश्वर की इच्छा जानकर, उस पर भरोसा करके, और भाई-बहनों के सहयोग से, आखिर कुछ समस्याएँ हल होने लगीं, और मेरे काम का असर भी बढ़ने लगा। मुझे बचाने के लिए दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।

आज जब मैं परमेश्वर को लेकर अपनी गलतफहमियों और नाराजगी के बारे में सोचती हूँ, तो मुझे गहरा पछतावा होता है। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, और भाव-विभोर हो उठी। "मैं किसी को ऐसा महसूस करते हुए नहीं देखना चाहता, मानो परमेश्वर ने उन्हें बाहर ठंड में छोड़ दिया हो, या परमेश्वर ने उन्हें त्याग दिया हो या उनसे मुँह फेर लिया हो। मैं बस हर एक व्यक्ति को बिना किसी गलतफहमी या बोझ के, केवल सत्य की खोज करने और परमेश्वर को समझने का प्रयास करने के मार्ग पर साहसपूर्वक दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ते देखना चाहता हूँ। चाहे तुमने जो भी गलतियाँ की हों, चाहे तुम कितनी भी दूर तक भटक गए हो या तुमने कितने भी गंभीर अपराध किए हों, इन्हें वह बोझ या फालतू सामान मत बनने दो, जिसे तुम्हें परमेश्वर को समझने की अपनी खोज में ढोना पड़े। आगे बढ़ते रहो। हर वक्त, परमेश्वर मनुष्य के उद्धार को अपने हृदय में रखता है; यह कभी नहीं बदलता। यह परमेश्वर के सार का सबसे कीमती हिस्सा है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर में अपने विश्वास के इन वर्षों में, मैं कहती थी परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, पर मुझे परमेश्वर के प्रेम की कोई सच्ची समझ नहीं थी। इन अनुभव ने मुझे परमेश्वर के प्रेम की सच्ची समझ और अनुभूति दी। हालांकि मेरा दिल सख्त और विद्रोही था, परमेश्वर ने मेरे अनुभव के लिए हालात बनाये। उसने मेरे बदलने की प्रतीक्षा की, उसने अपने वचनों से मुझे जगाया मुझे नकारात्मकता और गलतफहमी की हालत से निकलने का रास्ता दिखाया। लोगों को बचाने की परमेश्वर की इच्छा कितनी सच्ची और सुंदर है! मैं परमेश्वर की अत्यंत आभारी हूँ, और अच्छी तरह से सत्य खोजने, अपना कर्तव्य निभाने, और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल देने के अलावा और कुछ नहीं चाहती।

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