चुप्पी के पीछे
मैं ज़्यादा बातूनी नहीं हूँ, और ऐसा अकसर नहीं होता कि मैं दिल खोलकर बात करूँ। मैंने हमेशा सोचा कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि मेरा व्यक्तित्व अंतर्मुखी है, लेकिन फिर जब मैंने कुछ चीज़ों का अनुभव किया और देखा कि परमेश्वर के वचनों में क्या प्रकट किया गया है, तो मुझे एहसास हुआ कि हमेशा अपने तक सीमित रहना और कभी भी अपनी राय साझा न करना अंतर्मुखी होना नहीं था, और यह विवेक के साथ काम करना भी नहीं था। इसके भीतर कुटिलता का शैतानी स्वभाव छिपा था।
कुछ समय पहले मैंने संपादन-कार्य करना शुरू किया। मैंने देखा कि जिन भाई-बहनों के साथ मैं संपादन-कार्य कर रही थी, वे काफी अनुभवी थे; वे सिद्धांतों को समझते थे और बहुत अच्छी क्षमता वाले थे। हरेक को इस बात की कुछ समझ थी कि कौन सत्य को समझता है और किसके पास सच्ची प्रतिभा और ठोस शिक्षा है। इसने मुझे थोड़ा परेशान कर दिया। मैं औसत क्षमता की थी और मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं थी, इसलिए अगर मैं अपनी चर्चाओं में यूँ ही अपनी राय व्यक्त करूँ, तो क्या यह मछली को तैरना सिखाने की कोशिश करने जैसा न होगा? अगर मैं सही निकली तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर गलत हुई तो हर कोई सोचेगा कि सत्य की उथली समझ के बावजूद मैं खुद का दिखावा कर रही हूँ। मुझे यह वाकई शर्मनाक लगा। मैं अपने आप को लगातार याद दिलाती रहती थी कि बोलने से ज़्यादा सुनूँ और किसी का ध्यान न खींचूँ। इसलिए, जब हम सभी मिलकर समस्याओं पर मनन कर रहे होते थे, तो मैं शायद ही कभी अपनी सोच साझा करती थी। एक बार जब मैंने सुझाव दिया भी तो सबने कहा कि यह सही दृष्टिकोण नहीं है—मुझे बहुत अपमान महसूस हुआ, और लगा कि मुझे इस तरह उतावलेपन से अपनी बात नहीं कहनी चाहिए, वरना मेरे मुँह से कुछ गलत निकल सकता है, और मैं सबके सामने बेवकूफ नज़र आऊँगी। मुझे लगा कि मुझे सावधानी से आगे बढ़ने और अपने विचारों को खुद तक सीमित रखने की ज़रूरत है। इसके बाद की चर्चाओं में मैंने यह सुनिश्चित किया कि अपने विचार प्रकट न करूँ और पहले दूसरों को उनकी बात कहने दूँ।
बाद में एक बहन हमारी टीम में शामिल हुई, जो बहुत क्षमतावान और वास्तव में अंतर्दृष्टि-संपन्न थी, और उसे मेरे साथ काम करने के लिए नियुक्त किया गया था। एक बार जब हम एक मुद्दे पर बात कर रहे थे, तो मेरे पास कुछ विचार थे जिन्हें मैं साझा करना चाहता थी, लेकिन फिर मुझे चिंता हुई कि अगर मेरी सोच गलत हुई और मैंने जो कहा, वह जाँच की कसौटी पर खरा नहीं उतरा, तो यह नई बहन सोच सकती है कि मैं सरल और नासमझ हूँ, और मेरी असलियत उजागर हो जाएगी। फिर अगर उसने मुझे तुच्छ समझना शुरू कर दिया, तो मैं क्या करूँगी? मैंने उस विचार को छोड़ने और सिर्फ यह सुनने का फैसला किया कि वह क्या कहती है। अगले कुछ दिनों तक इस समस्या पर काम करते हुए मैंने मुश्किल से अपना कोई दृष्टिकोण साझा किया। मैंने यह सोचते हुए सिर्फ उसके दृष्टिकोण के साथ चलने का विकल्प चुना कि इससे मैं किसी संभावित शर्मिंदगी से बच जाऊँगी और चीज़ें आसान हो जाएँगी। चूँकि मैं ज़्यादा बात नहीं करती थी, इसलिए हमारा सहयोगी परिवेश काफी नीरस महसूस होता था। कभी-कभी जब उसके सामने कोई समस्या आती और मैं अपनी राय साझा न करती, तो हम बस उस पर अटक जाते। हमारी उत्पादकता बहुत ही कम थी और हमारी सामान्य कार्य-प्रगति रुक गई थी। जैसे-जैसे समय बीता, मैं कम-से-कम बात करने लगी, और अगर मेरी कोई राय होती भी थी, तो भी मैं अपना मुँह खोलने से पहले लंबे समय तक और कड़ाई से विचार करते हुए उस पर बार-बार सोच-विचार करती रहती। मैं बहुत ही खिन्न महसूस कर रही थी और अपने काम में ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर रही थी; मैं बस उस स्थिति में फँस गई थी और अजीब तरह की उदासी और परेशानी महसूस कर रही थी। इसी दौरान मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई और बोली, "परमेश्वर, मैं इन दिनों अपने कर्तव्य में पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता महसूस नहीं कर पा रही हूँ और काम में शायद ही कोई प्रगति कर रही हूँ। मैं नहीं जानती कि मैं भीतर कौन-से भ्रष्ट स्वभाव जी रही हूँ, जो तुम्हें अप्रसन्न करते हैं—कृपया मेरा मार्गदर्शन करो कि मैं खुद को जान सकूँ।” एक दिन जब मैं अपने भक्ति-कार्य में कुछ आत्म-चिंतन कर रही थी, तो सहसा मेरे दिमाग में "कपटी" शब्द उभरा। इसे मैंने परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की अपनी खोज में पाया : "कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो कभी खुलकर बात न करें, और जो वे सोचते हैं, उसे दूसरों के साथ साझा न करें। और जो कुछ भी वे करते हैं, उसमें कभी दूसरों के साथ परामर्श नहीं करते, बल्कि प्रकट रूप में हर मोड़ पर दूसरों के प्रति सतर्क रहते हुए अलग-थलग रहते हैं। वे खुद को जितना हो सकता है, उतना ज्यादा ढककर रखते हैं। क्या यह शातिर व्यक्ति नहीं है? उदाहरण के लिए, उनके पास एक विचार है जो उन्हें शानदार लगता है, और वे सोचते हैं, 'मैं अभी इसे अपने तक ही रखूँगा। अगर मैं इसे साझा करूँगा, तो तुम लोग इसका इस्तेमाल कर सकते हो और मेरी सफलता हथिया सकते हो। मैं इसे गुप्त रखूँगा।' या अगर कुछ ऐसा हुआ, जिसे वे पूरी तरह से नहीं समझते, तो वे सोचेंगे : 'मैं अभी नहीं बोलूँगा। अगर मैं बोला और किसी ने कोई और ऊँची बात कह दी तो क्या होगा, क्या मैं मूर्ख जैसा नहीं दिखूँगा? हर कोई मेरी असलियत जान लेगा, इसमें मेरी कमज़ोरी देखेगा। मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।' इसलिए चाहे जो भी परिप्रेक्ष्य या कारण हो, चाहे जो भी अंतर्निहित उद्देश्य हो, वे डरते हैं कि हर कोई उनकी वास्तविकता जान जाएगा। वे अपने कर्तव्य और लोगों, चीज़ों और घटनाओं को हमेशा इस तरह के परिप्रेक्ष्य और रवैये के साथ लेते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? कुटिल, कपटी और दुष्ट स्वभाव" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। यह पढ़कर मेरा दिल भारी हो गया। परमेश्वर के वचनों ने पूरी तरह से मेरी वास्तविक स्थिति उजागर कर दी और "कुटिल, कपटी और दुष्ट स्वभाव" शब्द तो मेरे लिए वाकई तीखे और शर्मिंदा करने वाले थे। मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे सीधे बात न करके या अपनी राय व्यक्त न करके मुझे भले ही ऐसा लगता हो कि मैं बहुत समझदारी बरत रही थी, लेकिन वास्तव में मैं पूरी तरह से षड्यंत्रों से भरी थी। जो मुद्दे हमारे सामने आए थे, उनके बारे में मेरे अपने दृष्टिकोण और मत थे, लेकिन जब मुझे नहीं लगता था कि मैं बात पूरी तरह से समझती हूँ, तो मुझे डर लगा रहता था कि मैं जो कहूँगी, उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा, या मेरी नाक कट जाएगी और दूसरों के द्वारा मेरा तिरस्कार किया जाएगा। इसलिए मैं खुद को रोक लेती और पहले यह जान लेती थी कि दूसरे क्या सोचते हैं और फिर वहाँ से आगे बढ़ती थी। क्या वह कपटी और चालाक होना नहीं था? मैं हमेशा सोचती थी कि यह केवल समाज में उन लोगों पर लागू होता है, जो लगातार षड्यंत्र करते रहते हैं, जो विश्वासघाती और शातिर हैं। बाहर मेरे सभी दोस्त और सहकर्मी इस बात से सहमत थे कि मैं एक निष्कपट व्यक्ति हूँ, कि मैं अपने कार्यों में कोई गुप्त प्रयोजन नहीं रखती। मुझे हमेशा से मछली के समान फिसलकर निकल जाने वाले लोगों से बहुत नफरत थी, जो लगातार यह देखने की कोशिश करते रहते थे कि हवा किस तरफ बह रही है। मैंने अपने को कभी उनकी तरह नहीं समझा था। लेकिन फिर मैंने देखा कि भले ही मैंने सीधे कोई झूठ नहीं बोला और मैंने ठीक उन लोगों की तरह काम नहीं किया, फिर भी मेरी कपटी प्रकृति मेरा संचालन करती थी। मैं जो कुछ भी कहती या करती थी, उसमें लोगों की भावनाओं और विचारों को सावधानी से पढ़ लेती थी, और अक्षम दिखने और लोगों के सामने मेरी असलियत के आ जाने के डर से बस धारा के साथ बहती रहती थी। मैं अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए हर मोड़ पर खुद को छिपाते हुए कपटी बनी रहती थी। अपने काम में कोई भी कठिनाई आने पर मैंने कभी भी अपने विचार साझा नहीं किए, बल्कि मैं शातिर और धोखेबाज थी, अपनी राय छिपाती थी और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में शायद ही विचार करती थी। अंतत: मैंने महसूस किया कि मैं वास्तव में एक कपटी, चालाक व्यक्ति हूँ। मैं हमेशा सोचती थी कि बहुत बातूनी न होना बस मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा है—मैंने वाकई उसके पीछे के शैतानी स्वभाव का विश्लेषण नहीं किया था। अब जाकर मैंने देखा कि मैं खुद को कितना कम जानती हूँ।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश और पढ़ा जिसने वास्तव में मेरे लिए चीज़ें स्पष्ट करने में मदद की। परमेश्वर कहता है : "शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन-प्रकृति बन गए हैं। 'स्वर्ग उन लोगों को नष्ट कर देता है जो स्वयं के लिए नहीं हैं' एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश की उत्तम पारंपरिक संस्कृति के माध्यम से लोगों को शिक्षित करता है और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। ... अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं। ... शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति दूषित, बुरी और प्रतिक्रियावादी है, शैतान के दर्शन से भरी हुई और उसमें डूबी हुई है—अपनी समग्रता में यह प्रकृति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों ने ठीक मेरे दिल के कोने-कोने से बात की। मैंने देखा कि मैं प्रारंभ से ही इन शैतानी दर्शनों को कायम रखे हुए थी : "अपने कान खोलो और अपना मुँह बंद करो" और "चुप्पी सोना है और जो ज्यादा बोलता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है।" दूसरों के साथ "मेगाफोन" के बजाय "रिसीवर" बने रहने से मैं अपनी कमज़ोरियों का प्रदर्शन करने या मूर्ख दिखने से बच जाती थी। जो मैं कहना चाहता थी, उसे दबाए रखने से मेरे कई गलत विचार कभी सामने नहीं आए थे, इसलिए कोई मेरे दोष नहीं बता सकता था या मेरे साथ असहमत नहीं हो सकता था। इस तरह मैं अपनी लाज बचा सकी, और इसने मुझे और ज़्यादा आश्वस्त किया कि "चुप्पी सोना है" और "अपने कान खोलो और अपना मुँह बंद करो" के विचारों का पालन करना इस दुनिया में निर्वाह करने का सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण तरीका है। अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने के बाद भी मैं इन चीज़ों को भाई-बहनों के साथ अपनी पारस्परिक क्रियाओं को निर्देशित करने दिए बिना नहीं रह सकी। मुझे लगा कि जब तक मैं ज़्यादा कुछ नहीं कहती या अपना मुँह बंद रखती हूँ, तब तक किसी को मेरी व्यक्तिगत असफलताओं और कमियों के बारे में पता नहीं चलेगा, और मैं अपनी छवि बचाए रख सकूँगी। मैं इन शैतानी दर्शनों के अनुसार जीती थी, और जब भी मैं अपना दृष्टिकोण साझा करना चाहती, तब मैं हमेशा अपने हानि-लाभ और इस बात की गणना कर रही होती थी कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे। अगर मुझे लगता कि मेरे शर्मिंदा होने की संभावना है, तो मैं कुछ न कहते या करते हुए सुरक्षित मार्ग पर जाने का चुनाव करती। इन शैतानी विषों ने मुझे और अधिक कपटी और शातिर बना दिया, और मुझे हर समय दूसरे लोगों के बारे में अनुमान लगाने और उनसे सतर्क रहने वाली बना दिया। मैं संवाद करने और खुलकर बोलने की पहल न करती, और दूसरों के साथ मेरा काम बहुत ही निराशाजनक और उबाऊ था। इस तरह मैं अपने कर्तव्य में अच्छा काम कर ही नहीं सकती थी।
इसे पहचानते हुए, मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई और उससे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के इस पहलू का समाधान करने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा। इसके बाद, भाई-बहनों के साथ चर्चाओं के दौरान, मैंने अपने व्यक्तिगत उद्देश्यों से मुँह मोड़ने के लिए एक सचेत प्रयास करती और मैंने अपने विचार प्रस्तुत करने शुरू कर दिए, इस बात की परवाह न की कि इससे मैं कैसी लगूँगी। ऐसे विचारों को, जो बहुत अच्छी तरह से विकसित नहीं थे, मैं बहस और संवाद के लिए भाई-बहनों के सामने प्रस्तुत कर देती; जब अपने कर्तव्य में कठिनाइयों से हमारा सामना होता, तो सभी एक-दूसरे से बातचीत करते हुए एक-साथ प्रार्थना और खोज करते। इस तरह हम आगे का रास्ता ढूँढ़ सकते थे। लेकिन चूँकि मैं शैतान द्वारा बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दी गई थी, इसलिए बहुत बार मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम किए बिना न रह पाती। एक बार हमारे कर्तव्य में आए एक मुद्दे के बारे में हुई चर्चा के दौरान, कुछ निरीक्षक शामिल थे। मैंने मन में सोचा, "भाई-बहनों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करना तो ठीक है, लेकिन यहाँ निरीक्षक भी मौजूद हैं, अगर मेरी सोच गलत हुई, अगर मेरी समझ गलत निकली, तो वे मेरी काबिलीयत के बारे में क्या सोचेंगे? अगर इन्हें लगा कि मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, और इन्होंने मुझे टीम से बाहर निकाल दिया, तो क्या होगा—दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं फिर कभी अपना सिर ऊँचा नहीं कर पाऊँगी।" इन चिंताओं से व्याकुल होकर मैंने पूरी चर्चा में एक भी शब्द नहीं कहा। चर्चा के समापन पर निरीक्षकों में से एक ने मुझसे पूछा कि मैंने कुछ भी क्यों नहीं कहा। मैंने भी वाकई बहुत असहज और दोषी महसूस किया, और मेरी समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दूँ। आखिर में मैंने कहा, "यह मेरे शातिर स्वभाव का एक और प्रदर्शन था। मुझे डर था कि अगर मैंने बहुत ज़्यादा बोला, तो मुझसे ज़रूर चूक होगी, इसलिए मैंने अपना मुँह खोलने की हिम्मत नहीं की।" लेकिन इस तथ्य के बाद भी मैं असहज महसूस कर रही थी। हालाँकि मैंने स्वयं द्वारा प्रदर्शित भ्रष्टता स्वीकार कर ली थी, लेकिन क्या मैं अगली बार भी खुद को इस तरह की स्थिति में पाकर ऐसा ही करूँगी? इस पर चिंतन करते हुए मैंने देखा कि भले ही मुझे कुछ आत्म-ज्ञान था और मैंने स्वयं को इस समस्या को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के सामने रखा था, फिर भी मैं चुनौती को सामने पाकर इस भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार ही जीने लगी। मैंने वास्तव में पश्चात्ताप नहीं किया था और बदली नहीं थी। मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई और उससे कहा कि वह मेरा मार्गदर्शन करे कि मैं वास्तव में खुद को जान सकूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "मसीह-विरोधियों का मानना है कि अगर वे हमेशा बात करने और दूसरों के सामने अपना दिल खोलने के लिए उत्सुक होंगे, तो सब उनकी असलियत जान जाएँगे और यह देख लेंगे कि उनमें कोई गहराई नहीं है, बल्कि वे सिर्फ आम लोग हैं, और फिर उनका सम्मान नहीं करेंगे। जब दूसरे उनका सम्मान नहीं करते, तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि अब दूसरों के दिलों में उनका स्थान ऊँचा नहीं है, और वे काफी सामान्य, काफी सरल, काफी साधारण लगते हैं। यही चीज़ मसीह-विरोधी देखना नहीं चाहते। इसीलिए जब वे समूह में किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को देखते हैं, जो हमेशा खुद को उजागर करता है और कहता है कि वह परमेश्वर के प्रति नकारात्मक और विद्रोही रहा है, और कल उसने किन मामलों में गलती की थी, और आज वह ईमानदार व्यक्ति न होने के कारण पीड़ा भोग रहा है और दर्द में है, मसीह-विरोधी कभी ऐसी बातें नहीं कहते, बल्कि उन्हें भीतर गहराई में छिपाए रखते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो इसलिए कम बोलते हैं, क्योंकि वे कम योग्यता वाले हैं और सरल मन के हैं, और उनके पास बहुत ज़्यादा विचार नहीं हैं, इसलिए वे जो शब्द कहते हैं, वे बहुत कम हैं। मसीह-विरोधियों का वर्ग भी कम बोलता है, लेकिन इस कारण से नहीं—बल्कि यह उनके स्वभाव की समस्या है। जब वे दूसरों को देखते हैं, तो वे कम बोलते हैं, और जब दूसरे किसी मामले में बात करते हैं, तो वे बिना सोचे विचारे राय नहीं देते। वे अपनी राय क्यों नहीं देते? सर्वप्रथम, उनके पास निश्चित रूप से सत्य नहीं होता और वे किसी भी मामले के मर्म को नहीं समझ सकते; जैसे ही वे बोलते हैं, वे गलतियाँ करते हैं, और अन्य लोग उनका असली रूप देख लेते हैं। इसलिए, वे मौन और गंभीरता का स्वांग करते हैं, जिससे दूसरे उन्हें सटीकता से मापने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि वे यहाँ तक सोच लेते हैं कि वे मेधावी और असाधारण हैं। इस तरह, कोई भी उन्हें तुच्छ नहीं समझता; उनकी शांत, स्थिर भाव-भंगिमा देखकर लोग उनके बारे में ज़्यादा सोचते हैं, और उनका अपमान करने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों की धूर्तता और बुराई है; उनका आसानी से राय न देना उनके इस स्वभाव का अनिवार्य अंग है। वे आसानी से राय नहीं देते, इसका कारण यह नहीं कि वह उनके पास राय नहीं है—उनके पास कुछ गलत और विकृत राय होती हैं, राय जो सत्य से बिलकुल भी मेल नहीं खातीं, यहाँ तक कि कुछ राय तो लोगों के सामने भी नहीं आ सकतीं—फिर भी, उनके पास कैसी भी राय हों, वे उन्हें मुक्त रूप से नहीं देते। वे उन्हें मुक्त रूप से नहीं देते, इसका कारण यह नहीं कि दूसरे उनका श्रेय ले सकते हैं, बल्कि इसलिए कि वे उन्हें छिपाना चाहते हैं; वे अपनी राय स्पष्ट रूप से रखने की हिम्मत नहीं करते, क्योंकि वे अपना असली रूप देख लिए जाने से डरते हैं। ... वे अपना माप जानते हैं, और उनका एक और उद्देश्य होता है, जो सबसे शर्मनाक है : वे उच्च सम्मान पाने की इच्छा रखते हैं। क्या यह सबसे अधिक घृणास्पद नहीं है?" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (4)')। परमेश्वर के प्रत्येक वचन ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया। मैं हमेशा इन विचारों से चिपकी रहती थी कि "चुप्पी सोना है" और "जो ज्यादा बोलता है, वह ज्यादा गलतियाँ करता है।" ऐसा लगा कि मैं केवल अपनी छवि की रक्षा कर रही थी, मैं गलत बात कहने, हँसी का पात्र बनने और अपमानित होने से डरती थी, लेकिन इस समस्या की जड़ यह थी कि मैं दूसरों की आँखों में हैसियत हासिल करना चाहता थी। मैं चाहती थी कि जो कुछ मैं कहूँ, जो राय मैं व्यक्त करूँ, उसे दूसरों की प्रशंसा और अनुमोदन प्राप्त हो, उसे उनकी "वाहवाही" मिले। इसलिए मैं कपटी थी और खुद को छिपाए रहती थी, हमेशा अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाती रहती, अपनी कही या की गई हर बात पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देती थी, ताकि मैं एक विचारशील, अंतर्दृष्टि-संपन्न व्यक्ति की तरह दिखूँ। निरीक्षकों के साथ चर्चा के दौरान मैं अपनी छवि और हैसियत की रक्षा करने में विशेष रूप से लगी हुई थी, इसलिए मैंने यह सोचकर अपनी राय साझा करने की हिम्मत नहीं की, कि अगर मैं सही हुई तो कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन अगर मैं सही न हुई, तो मैं अपनी समझ की कमी ज़ाहिर कर बैठूँगी। फिर अगर निरीक्षक अप्रभावित रहे और मेरा काम छूट गया, तो बाकी सबके बीच मेरी हैसियत पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी। ये भयावह इरादे मन में रखते हुए, मैंने बस अपना मुँह बंद रखा, अपने विचारों और मतों के बारे में खुलकर बोलने से डरते हुए, "मैं ठीक से नहीं कह सकती कि मैं इसे समझती हूँ", ऐसा सरल वाक्य कहने की भी हिम्मत नहीं कर पाई। यह घृणित था, बहुत शर्मनाक! मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में दूसरों के साथ अपने सहयोग और भाई-बहनों के साथ दिन-प्रतिदिन की पारस्परिक क्रियाओं में मैं शांत थी और बाहर से ईमानदार दिखाई देती थी, लेकिन अंदर मैं कुटिलता पाले हुए थी। मैं अपनी कुरूपता छिपा रही थी, छद्मवेश धारण किए हुए दूसरों को गुमराह कर रही थी। यहाँ तक कि सभाओं में जब हम सत्य पर सहभागिता और समस्याओं पर बात करते थे, तब भी मैं दूसरों की आँखों में अपनी हैसियत और छवि सुरक्षित रखने की उम्मीद में प्रवाह के साथ बहने की कोशिश करती थी। मैं सत्य और धार्मिकता की तुलना में अपनी छवि और प्रतिष्ठा से कहीं ज्यादा प्यार करती थी—यह पूरी तरह से एक मसीह-विरोधी का शातिर और दुष्ट स्वभाव था, जिसे मैं प्रकट कर रही थी। अपने चिंतन के इस बिंदु पर मैंने देखा कि मेरी दशा कितनी खतरनाक थी। मैंने सोचा कि कैसे अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने उसकी इच्छा पूरी करने में विफल रहे लोगों से कहा : "तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:23)। मुझमें आस्था थी, लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों पर अमल नहीं किया, और मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए व्यावहारिक कार्रवाई नहीं कर रही थी; मैं सहभागिता में भाई-बहनों के सामने खुलने और ईमानदार होने में सक्षम नहीं थी। इसके बजाय, मैं हमेशा अपने अवांछनीय पक्ष को छिपाने में लगी रहती थी, अपनी छवि की रक्षा करने के लिए हर चीज़ आजमाती थी और दूसरों को गुमराह करती थी, ताकि वे मेरा सम्मान करें। मैं हैसियत के लिए परमेश्वर से संघर्ष कर रही थी और मसीह-विरोधियों के परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चल रही थी। मैं जानती थी कि अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो अंतत: मैं परमेश्वर द्वारा हटा दी जाऊँगी। इसे समझकर आखिरकार मैं अपनी भ्रष्ट प्रकृति के प्रति घृणा से भर गई और यह भी देख पाई कि इस तरह की खोज जारी रखना कितना खतरनाक होगा। मुझे जितनी जल्दी हो सके, परमेश्वर के सामने आना और पश्चात्ताप करना था, देह-सुख का त्याग करना था, और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना था।
इसके बाद जब मैंने अपनी स्थिति के बारे में भाई-बहनों से खुलकर बात की, तो एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : "जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई काम करते हैं, तो उनका दिल पानी के कटोरे की तरह शुद्ध—एकदम साफ—होना चाहिए, उनका रवैया सही होना चाहिए। किस तरह का रवैया सही है? प्रत्येक काम करते हुए तुम्हारे दिल में जो कुछ भी होता है, तुम्हारे जो भी विचार होते हैं, उन्हें तुम दूसरों के साथ साझा करने में सक्षम होते हो। अगर वे कहते हैं कि तुम्हारा विचार काम नहीं करेगा, और कोई अलग सुझाव देते हैं, तो तुम उसे सुनते हो और कहते हो, 'यह विचार अच्छा है, चलो इस पर अमल करते हैं। मेरा विचार अच्छा नहीं था, उसमें अंतर्दृष्टि की कमी थी, वह अविकसित था।' तुम्हारे शब्दों और कर्मों से हर कोई यह देखेगा कि तुम्हारे आचरण में एकदम स्पष्ट सिद्धांत हैं, तुम्हारे दिल में कोई अँधेरा नहीं है, और तुम ईमानदारी के दृष्टिकोण पर भरोसा करते हुए, ईमानदारी से काम करते और बोलते हो। तुम खरी बात करते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज़ नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? यह लोगों, घटनाओं और चीज़ों के प्रति एक रवैया है, जो इस व्यक्ति के स्वभाव का द्योतक है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी पढ़ा : "परमेश्वर लोगों से धोखेबाज न बनने के लिए कहता है, उनसे ईमानदार बनने, ईमानदारी से बात करने और ईमानदार चीज़ें करने के लिए कहता है। परमेश्वर के यह कहने का अर्थ लोगों को एक सच्ची मानवीय समानता रखने देना है, ताकि उनमें शैतान की समानता न हो, जो जमीन पर रेंगते साँप की तरह बोलता है, मामले की सच्चाई को ढकते हुए हमेशा गोलमोल बातें करता है। अर्थात्, ऐसा इसलिए कहा गया है, ताकि लोग बिना किसी अंधकारमय पहलू के, बिना किसी शर्मनाक बात के, साफ दिल के साथ, वचन और कर्म दोनों से गरिमापूर्ण और ईमानदार जीवन जी सकें, जहाँ बाहर-भीतर की बातों में तारतम्य हो; वे वही कहते हैं जो वे अपने दिल में सोचते हैं, और वे न तो किसी व्यक्ति को, न ही परमेश्वर को धोखा देते हैं, कुछ भी छिपाकर नहीं रखते, और उनका दिल शुद्ध भूमि के टुकड़े की तरह होता है। लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करने के पीछे परमेश्वर का यही उद्देश्य है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है')। इन अंशों में मैंने देखा कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। ईमानदार लोग परमेश्वर के प्रति बिना किसी धोखे या कुटिलता के होते हैं, सरल और निष्कपट होते हैं, और वे दूसरों के साथ निश्छल व्यवहार करते हैं। वे अपने दिल में जो होता है, उसे तोड़े-मरोड़े बिना बोलते हैं, ताकि परमेश्वर और मनुष्य दोनों उनके सच्चे दिल को देख सकें। व्यक्ति को खुद को इसी तरह प्रस्तुत करना चाहिए—सीधा और स्पष्ट। ईमानदार लोग सत्य और सकारात्मक चीज़ों से प्यार करते हैं, इसलिए वे सत्य को ज़्यादा आसानी से प्राप्त कर लेते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं। दूसरी ओर, मैं दूसरों के साथ अपनी पारस्परिक क्रियाओं और सहयोग में दिल से एक भी सच्चा शब्द नहीं कह पाती थी। मेरे कथन और कार्यों में कोई पारदर्शिता नहीं थी—मैं संदेहास्पद और धूर्त थी, और मेरे लिए सत्य को समझने और प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं था। वास्तव में, परमेश्वर मेरी क्षमता पूरी तरह से जानता है, और यह भी कि सत्य के बारे में मेरी समझ कितनी गहरी है। भेष बदलने से दूसरे लोगों को बेवकूफ बनाया जा सकता है, लेकिन इससे परमेश्वर को कभी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। परमेश्वर देख सकता था कि मेरा हमेशा खेल खेलना और बेईमान होना कितना बुरा और घृणित था, इसलिए सवाल ही नहीं उठता था कि वो मेरा मार्गदर्शन करने के लिए काम करेगा। हालाँकि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सत्य को अभ्यास में लाना और एक ईमानदार व्यक्ति होना, दूसरों के सामने खुलना, फिर चाहे मैं अपने दृष्टिकोण में गलत समझी जाऊँ या सही, मेरे लिए इतना थकाऊ नहीं होगा, और यह परमेश्वर को भी खुशी देता है। इसके अतिरिक्त, केवल अपना मुँह खोलकर ही मैं सीख सकती हूँ कि मैं कहाँ गलत हूँ; तब अन्य लोग मुझे सलाह दे सकते हैं और मेरी मदद कर सकते हैं, जो मेरे लिए प्रगति करने का एकमात्र तरीका है। भले ही इसका मतलब यह हो कि दूसरों की नज़र में मेरी इज्ज़त थोड़ी कम हो जाएगी, किंतु यह सत्य की मेरी समझ और जीवन में मेरे विकास के लिए बहुत फायदेमंद है।
पहले, मुझे बिलकुल नहीं पता था कि मुझे किस तरह आचरण करना चाहिए। लेकिन एक बार जब परमेश्वर ने हमारा हाथ पकड़कर हमें बोलना और कार्य करना सिखा दिया, तो हम मानव के समान जीने में सक्षम हो सके। मुझे परमेश्वर के ईमानदार इरादे समझ में आ गए और मैंने वास्तव में प्रोत्साहित अनुभव किया, और मुझे अभ्यास का मार्ग भी मिल गया। इसके बाद, भाई-बहनों के साथ काम करते हुए या अपने कर्तव्य में निरीक्षकों के साथ संवाद करते हुए मैंने अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा करना बंद करने, खुलकर बोलने और संकोची न रहने के लिए काम करना शुरू कर दिया। भाई-बहनों के साथ स्पष्टवादी होने के लिए मैंने वही साझा करने की कोशिश की, जो मैं वास्तव में सोचती थी। मैं भाइयों और बहनों को खुलकर बता सकती थी कि मेरे विचार बहुत सुविचारित नहीं हैं, कि मेरी समझ उथली है या मेरी सोच सरल है, और मेरी गलती ठीक करने के लिए उनका स्वागत है। ऐसा अभ्यास करना मेरे लिए बहुत ही मुक्ति दायक था। इसके अतिरिक्त, कुछ गलत कह देना अपमानजनक नहीं था; बल्कि दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाने के लिए लगातार झूठे भेष में रहना और मुखौटा लगाना पाखंड और बेशर्मी थी। जल्दी ही मैंने उस बहन के साथ काम करना शुरू कर दिया, जो टीम में सबसे लंबे समय से थी। उसने हमारे काम और सत्य पर सहभागिता में बहुत अच्छा योगदान किया, इसलिए मुझे उसके साथ काम करते हुए अपने विचार व्यक्त करने की इच्छा नहीं हुई, ताकि मैं अपनी कमियाँ प्रकट न कर बैठूँ, और अधिक समझदार दिखाई दूँ। जब इस विचार ने सिर उठाया, तो मुझे तुरंत एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर से खुद को छिपाना चाहती हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद को त्याग दिया। उसके बाद से उस बहन के साथ अपनी कार्य-चर्चाओं में मैंने खुद को नहीं रोका, बल्कि अपना दृष्टिकोण साझा करने के लिए खुद ही आगे आई। इन पारस्परिक चर्चाओं ने मुझे यह देखने में मदद की कि मेरा दृष्टिकोण वास्तव में सही है या नहीं, और उसमें कहाँ त्रुटि हो सकती है। वह मेरी कमज़ोरियाँ देख और उसके अनुसार मुझे सुझाव दे पाती थी। इस तरह के सहयोग ने मुझे अपने काम में और सिद्धांतों को समझने के क्षत्र में प्रगति करने दी। मेरा अनुभव यह रहा कि दूसरों के साथ स्वेच्छा से संवाद और चर्चा करने, एक ईमानदार व्यक्ति होने और सीधे परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य करने से मेरे दिल का अँधेरा काफी कम हो गया, और मैंने बहुत अधिक सुकून महसूस किया। मैं अपने कर्तव्य का निर्वहन भी बहुत बेहतर ढंग से करने लगी। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद देती हूँ!
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