अगुआ प्रतिभाओं को न रोकें

19 जुलाई, 2022

क्षीय क्षीण, स्पेन

अगस्त 2020 में, मुझे अगुआ चुना गया और मैंने कलीसिया का वीडियो-संबंधी काम संभाला। काम में नई होने के कारण मुझे इसके कई सिद्धांतों की जानकारी नहीं थी, मेरे सामने अक्सर समस्याएँ और मुश्किलें आती थीं। इसलिए मैं टीम अगुआ बहन झांग से सलाह-मशविरा किया करती थी। बहन झांग सिद्धांत और काम अच्छी तरह जानती थी। वह मेरी बड़ी मददगार थी। मैंने देखा, बहन झांग बारीकियों पर ध्यान देती थी, अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेती थी, और उसे जिम्मेदारी का एहसास था। कभी-कभी, जब मुझ पर काम का बोझ बढ़ जाता, तो अपना थोड़ा काम मैं उसे दे दिया करती। हम दोनों मिल-जुल कर काम करते थे।

फिर, धीरे-धीरे मुझे पता चला कि भाई-बहन अपनी समस्याएँ लेकर बहन झांग के पास ही जाते हैं, उससे मिलने के बाद सीधे फैसले तक कर लेते हैं। इन हालात से मैं बड़ी नाखुश रहती। मन-ही-मन सोचती : "यूँ ही चलता रहा, तो क्या मैं अगुआ का अपना पद नहीं खो दूँगी? यह नहीं चलेगा। भविष्य में मुझे सौंपा गया सारा काम खुद ही संभालूँगी, बहन झांग से मदद नहीं माँगूंगी। वरना, दूसरे सब लोग समझेंगे कि वह बहुत बढ़िया, प्रतिभाशाली कार्यकर्ता है।" एक बार, बहन झांग को पता चला कि एक भाई वीडियो निर्माण कार्य में बहुत धीमा है। जांच करने पर पता चला कि उसका कौशल सही स्तर का नहीं था, वह सिद्धांत खोजे बिना अपना कर्तव्य निभाता, जिसके कारण अक्सर काम दोबारा करना पड़ता। इसलिए बहन झांग ने उस परियोजना में दूसरे अधिक प्रतिभाशाली भाई को लगा दिया। मुझे बहुत समय तक इस बारे में पता नहीं चला। बहन झांग का फैसला सही था, फिर भी मुझे उस हालात से थोड़ी परेशानी हुई। मुझे लगा कि ऐसे बिना बताए इतना बड़ा फैसला ले लेना, मेरा निरादर करने जैसा था। अगर वो ही फैसले करती रहेगी, तो मेरा अधिकार क्या रहा? बाद में, मैंने उससे पूछा कि उसने मुझे इसकी सूचना क्यों नहीं दी। मैं तो हैरान रह गई जब उसने कहा : "व्यस्त हो गई थी, तुम्हें बताना भूल गई।" उसकी बात सुनकर मैं अपना आपा खो बैठी : तुम ज्यादा-से-ज्यादा अधिकार लेकर मेरी स्वीकृति के बिना फैसले करती हो। तुम मेरा आदर नहीं करती। क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि कलीसिया को मेरी जरूरत नहीं? अगर यूँ ही चलता रहा, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? जाहिर है, वे मुझे बेकार समझेंगे। फिर मैं अगुआ का कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? इसका एहसास होने पर मैं और ज्यादा घबरा गई।

एक बार बहन झांग ने बताया कि उसने कुछ अध्ययन सामग्री जमा की थी, और कुछ कौशल सीखने के लिए सबको इकट्ठा करना चाहती थी। मैंने सोचा, "मैं ही तुम्हें याद दिलाती हूँ कि इस पर काम करना है, फिर भी, हमारी बातचीत के बाद तुम जाकर दूसरों के साथ संगति करती हो, उन्हें मार्गदर्शन देती हो। इसके पीछे मैंने क्या काम किया, ये कोई नहीं जानता, सभी सोचते होंगे कि मुझसे ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी तुम उठाती हो। अगर सब कुछ यूँ ही चलता रहा, तो मैं अगुआ कैसे बनी रह पाऊँगी?" दरअसल, मैं जानती थी कि अध्ययन में भाई-बहनों की अगुआई की जिम्मेदारी बहन झांग की थी, और इस काम में देर नहीं की जा सकती, इसलिए मुझे हंगामा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी कि बहन झांग यह कर्तव्य संभाले। मैंने सोचा : "बहन झांग ज्यादा-से-ज्यादा परियोजनाओं से जुड़ती जा रही है, इनमें से कुछ काम ऐसे भी हैं, जिनकी जिम्मेदारी मुझ पर है। दूसरे लोग समस्याएँ होने पर उसके पास जाना पसंद करते हैं। क्या जल्द ही वह मेरा स्थान ले लेगी?" ये सब ख्याल आने पर मैं बहुत दुखी हो जाती। इसलिए मैंने उसके काम में कमियाँ और समस्याएँ निकालना शुरू कर दिया। मैं दूसरों को दिखाना चाहती थी कि वह अपने काम में उतनी कुशल नहीं थी, मैं उससे ज्यादा प्रतिभाशाली थी।

एक दिन, एक उच्चतर अगुआ से हमारे काम के बारे में चर्चा के दौरान, उन्होंने यूँ ही जिक्र किया कि बहन झांग की एक वीडियो परियोजना बहुत धीमी चल रही थी। मैं तो बस यही सुनना चाहती थी, मैंने तुरंत जवाब दिया : "सही है। उसे बहुत-सी परियोजनाएँ सौंपी गईं, लेकिन वह इन सबको नहीं संभाल सकती। उसकी कुछ परियोजनाएँ ज्यादा प्रभावी भी नहीं रही हैं। मेरे खयाल से उसे बहुत ज्यादा काम न देना ही ठीक रहेगा। उसे इतना अधिकार नहीं देना चाहिए...।" तब मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया : मैं ऐसा कैसे कह सकती थी? भाई-बहनों के कर्तव्य परमेश्वर से आते हैं, ये उसी के आदेश हैं। मैं यूँ बोल रही थी मानो ये कर्तव्य मैंने उसे सौंपे हों, मानो ये चीजें करने का अधिकार मैंने उसे दिया हो, और अब मैं ही वापस ले रही हूँ। क्या मैं गलत स्थान पर नहीं थी? मुझे यकीन नहीं हुआ कि मैंने ऐसा कुछ कहा, मुझे खुद से थोड़ा डर लगने लगा। यही नहीं, उसमें से कुछ काम सच में बहन झांग के कर्तव्य का हिस्सा था, लेकिन मैं उसे इन्हें निभाने से रोकने की कोशिश करती रही, उसके काम में कमियाँ निकालती रही। मैं चाहती थी कि सब देखें कि वह एक अच्छी कार्यकर्ता नहीं है, मुझसे कमतर है। अपने व्यवहार पर चिंतन करते हुए मैंने सोचा, "मैं इतनी घिनौनी कैसे हो सकती हूँ?"

फिर, मैं अपनी हालत ठीक करने के लिए, परमेश्वर के अंश खोजने लगी। मुझे अपनी हालत से मेल खाता एक अंश मिला जिसमें परमेश्वर मसीह-विरोधियों को उजागर करता है। "एक मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी तानाशाही चलाने वाले किसी तानाशाह की तरह होते हैं : वे किसी की नहीं सुनते, वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं, और लोगों की क्षमता की परवाह किए बिना, या वे क्या कहते हैं और क्या करते हैं, या उनके पास क्या अंतर्दृष्टि और राय है, वे कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ काम करने, या उनके किसी भी काम में भागीदारी के योग्य न हो। यह एक मसीह-विरोधी की तरह का स्वभाव है। कुछ लोग कहते हैं कि यह खराब मानवता वाला होना है—यह सिर्फ सामान्य खराब मानवता कैसे हो सकती है? यह पूर्णत: एक शैतानी स्वभाव है; इस तरह का स्वभाव अत्यंत उग्र होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत उग्र होता है? मसीह-विरोधी कलीसिया और परमेश्वर के घर के हितों को पूरी तरह से अपना मानते हैं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह, जिसका प्रबंधन पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना चाहिए, उसमें किसी और का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। कलीसिया के घर का कार्य करते समय वे केवल अपने ही हितों, अपनी ही हैसियत और अपनी छवि के बारे में सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुंचाने देते, जिसमें क्षमता है और जो अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करने में सक्षम है, उसे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को जोखिम में डालने देने की तो बात ही छोड़ दें। ... जब थोड़ा कार्य करके कोई अलग दिखने लगता है, जब कोई चुने हुए लोगों को लाभान्वित करने, उन्हें सिखाने और उन्हें सहारा देने के लिए सच्चे अनुभवों और गवाही की बात करने में सक्षम होता है, और सभी से बड़ी प्रशंसा अर्जित करता है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत बढ़ जाती है, वे उन्हें अलग-थलग करने और कमजोर करने की कोशिश करते हैं, और किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते ताकि वे उन्हें उनके रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। ... मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, 'मेरा इसे सहना संभव नहीं है। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र के भीतर एक भूमिका चाहते हो। यह असंभव है, इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक सक्षम हो, मुझसे अधिक मुखर हो, मुझसे अधिक शिक्षित हो और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो। तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ? यदि तुमने मेरी सफलता चुरा ली, तो मैं क्या करूँगा?' क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कर रहे हैं? नहीं। वे किस बारे में सोच रहे हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपनी हैसियत को कैसे बनाए रखें। हालाँकि वे जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने और अच्छी योग्यता वाले लोगों को पोषण या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की पूजा करने को तत्पर हैं, जो अपने दिलों में उनकी प्रशंसा और सराहना करते हैं, वे लोग जो सहज संचालक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं है और जो अंतर करने में असमर्थ हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। पहले मैं सोचा करती थी कि यह अंश मसीह-विरोधियों को उजागर करता है, मुझ पर लागू नहीं होता, लेकिन फिर, मुझे एहसास हुआ कि मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव बहुत गंभीर था। पहले-पहल जब मैंने देखा कि बहन झांग बहुत जिम्मेदार और मेहनती थी, तो मैंने अपना कुछ काम खुशी-खुशी उसे सौंप दिया। लेकिन जब मुझे एहसास हुआ कि दूसरे उसकी सराहना करते, अपने सवाल लेकर उसके पास जाते हैं, और वह मुझसे पूछे बिना परियोजनाओं को आगे बढ़ाती है, तो मुझे फ़िक्र होने लगी कि वह मेरी चमक छीन कर मेरे रुतबे के लिए खतरा बन रही थी, मैंने और ज्यादा परियोजनाओं में भाग लेने से उसे रोकने की कोशिश की, कुछ ऐसी परियोजनाओं से भी, जो उसके कर्तव्य का हिस्सा थीं। मुझे फ़िक्र थी कि अगर उसने अच्छा काम किया तो भाई-बहन उसकी और सराहना करेंगे, तुलना में मैं बदतर लगूँगी, शायद अगुआ का अपना रुतबा भी गँवा बैठूँ। मैंने उच्चतर अगुआ को भी गुमराह किया ताकि वह बहन झांग को और काम न सौंपें...। ऐसे सारे व्यवहार पर चिंतन करके मैं समझ गई कि मुझमें सचमुच इंसानियत नहीं थी, मैं अपना रुतबा बनाए रखने के लिए साफ तौर पर दूसरों को बाहर रख रही थी। मसीह-विरोधी अधिकार को सबसे ज्यादा मूल्यवान मानते हैं, कभी भी परमेश्वर के घर के कार्य या कलीसिया के हितों का ध्यान नहीं रखते। वे जो भी काम करते हैं, उसमें सिर्फ अपने रुतबे की परवाह करते हैं, जब कोई उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली उभरता है, और उनके रुतबे के लिए खतरा बनता है, तो वे उसे दबाने और अलग करने की भरसक कोशिश करते हैं, अपनी जिम्मेदारी के किसी भी कर्तव्य में उन्हें कोई अहम भूमिका नहीं निभाने देते। क्या मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी से थोड़ा-भी अलग था? मैं यूँ करती मानो कलीसिया का कार्य मेरी निजी जायदाद हो। कर्तव्य किन्हें सौंपने हैं, किन्हें कितना काम सौंपना है, इस पर विचार करते समय, मुझे हमेशा इसकी फ़िक्र होती कि क्या उनसे मेरे रुतबे और शोहरत को खतरा था। मैं जरा भी नहीं सोचती कि कलीसिया के कार्य पर इसका क्या असर पड़ेगा। मैं अपना रुतबा बनाए रखने के लिए लोगों को दबाकर उन्हें अलग-थलग कर रही थी। मेरा स्वभाव इतना दुष्ट और बुरा था।

फिर, मेरी नजर इस अंश पर पड़ी : "जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ खास तरीकों का इस्तेमाल करता है-—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार नहीं है, यह दुष्टों का स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और बुरा है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकर्म नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से अधिक मजबूत व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, बुराई करे। यहाँ मुद्दा क्या है? ऐसे लोगों में क्या अच्छा है? क्या यह ऐसा व्यक्ति नहीं जो कभी भी बुराई कर सकता है? और ऐसा करके क्या वह अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर रहा? क्या वह परमेश्वर के घर के हितों पर कोई ध्यान देता है? वह केवल अपनी भावनाओं के बारे में सोचता है, वह केवल दूसरों के मन में अपने रुतबे और प्रतिष्ठा का खयाल करता है, और केवल अपने लक्ष्य पाना चाहता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता कि वह परमेश्वर के घर के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाता है, और वह लोगों के मन में अपने रुतबे और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेगा। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं, बल्कि वो बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। उन्हें परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर का कोई डर है? उन्हें परमेश्वर का जरा-सा भी भय नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के लोग कैसे परिणाम भुगतते हैं? वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, ठीक है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्‍वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। क्‍या वो लोग सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्‍वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्‍यत: मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए खपाने की ख़ातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों को कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किनमें परमेश्वर का भय सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, दुष्टों, मसीह-विरोधियों, दानवों और शैतान में। उनमें परमेश्वर से लड़ने की धृष्टता होती है; वे परमेश्वर के भय से रहित होते हैं। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु और उसके चुने हुओं के शत्रु हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा मानो वह वहीं है, मेरा न्याय कर रहा है, और मेरे घमंडी और कपटी प्रकृति को उजागर कर रहा है। बहन झांग जो कार्य संभाल रही थी, उसमें कोई बड़ी समस्याएँ नहीं थीं, लेकिन वह मेरे रुतबे के लिए खतरा थी, इसलिए मैंने उसे दबाने का तरीका ढूँढ़ा, बहन झांग को उच्चतर अगुआ के सामने उसे नीचा दिखाया इस उम्मीद में कि वे उसे कम काम देंगी, फिर उसे दूसरों से ज्यादा सराहना नहीं मिलेगी, न ही वो मेरी जगह ले सकेगी। मैं अपना रुतबा मजबूत करने के लिए कोई भी दुष्कर्म करने को तैयार थी, मेरे दिल में परमेश्वर का जरा भी डर नहीं था। "हर व्यक्ति अपनी सोचे, बाकियों को शैतान ले जाये," "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है," "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ," जैसे शैतानी जहर के साथ मैं जी रही थी। मेरी प्रकृति सही मायनों में स्वार्थी, घिनौनी, घमंडी और दुष्ट थी। मैंने बिल्कुल अत्याचारी और तानाशाह सीसीपी जैसे कर्म किए, मेरे अधिकार और रुतबे के लिए खतरा बनने वाले इंसान को दबाया और अलग-थलग कर दिया। मैं खास तौर से उन भाई-बहनों को दबाती थी, जो प्रतिभाशाली थे, अपने काम में प्रभावी थे। मैंने कलीसिया में अपना अधिकार जमाने, भाई-बहनों से सिर्फ अपनी सराहना करवाने और उनके दिल में रहने की कोशिश की। क्या मैं अपना राज्य स्थापित कर परमेश्वर से होड़ नहीं कर रही थी? मैं दुराचार और परमेश्वर का प्रतिरोध करके, मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी! मैंने उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जो अपना रुतबा बनाए रखने के लिए लोगों को दंड देने और उन पर अत्याचार करने के हर संभव तरीके का इस्तेमाल करते, रुतबे के लिए खतरा बनने वालों के साथ पाँव में लगे कांटे की तरह पेश आते, उन पर गलत आरोप लगाते, दंड देते, और निष्कासित होने तक उन्हें नहीं छोड़ते, और हर प्रकार का दुराचार करने के बाद, आखिरकार परमेश्वर के घर से निकाल बाहर किए जाते। अगर मैं ऐसा ही करती रही, प्रायश्चित न किया, तो क्या आखिर में मेरा हश्र भी उन जैसा ही नहीं होगा? पिछले दो सालों में, परमेश्वर ने संगति की है कि मसीह-विरोधियों को कैसे पहचानें, मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से कैसे बचें। सत्य के इस पहलू पर परमेश्वर ने बड़े स्पष्ट रूप से संगति की है, ताकि हम मसीह-विरोधियों को पहचान सकें, अपने मसीह-विरोधी व्यवहार के बारे में आत्मचिंतन कर सकें, और सत्य, प्रायश्चित और बदलाव का अनुसरण कर सकें। लेकिन मैंने काम में अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान नहीं दिया, ये नहीं सोचा कि अपने कर्तव्य सही ढंग से कैसे निभाऊँ, कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे करूँ। इसके बजाय, मैं रुतबे के लिए होड़ लगाती रही, अपने कर्तव्य से निजी उद्यम जैसे पेश आई, मानो यह रुतबा हासिल करने और भाई-बहनों की सराहना पाने का जरिया हो, अपने कर्तव्य में मुझे संपूर्ण अधिकार चाहिए थे। मैं अपनी आकांक्षाओं में बह गई।

एक बार धार्मिक कार्यों के दौरान, मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के दो अंशों पर पड़ी, जिनसे बड़ी मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर, अगर तुम हर समय अपने आपको दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि, धन-दौलत, रुतबे के चिंतन और आनंद में डूबे रहोगे, हमेशा अपना ही कार्य करते रहोगे, हमेशा ऊँचा रुतबा पाने की इच्छा रखोगे, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करना चाहोगे और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने की इच्छा रखोगे, यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को, एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह का व्यवहार करते हो, दूसरों के साथ काम करने की इच्छा नहीं रखते, अपनी सत्ता को कम नहीं करना चाहते और इसे किसी और के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि किसी और की चले, चाहते हो कि सबका ध्यान तुम पर रहे, यदि तुम अकेले सत्ता का आनंद लेना चाहते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य की तलाश करते हो, देह को दरकिनार करते हो, अपनी प्रेरणाओं और योजनाओं को त्याग देते हो, और स्वेच्छा से दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, दूसरों के साथ परामर्श करने और तलाश करने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, अगर वह सही है और सत्य के अनुरूप है, तो उसे स्वीकार करते हो, तो तुम बुद्धिमानी से और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। "तुम चाहे जो काम करो, वह महत्वपूर्ण हो या न हो, वहां हमेशा तुम्हारी मदद करने वाले लोग होने चाहिए, तुम्हें सुझाव और सलाह देनेवाले, काम में तुम्हारी सहायता करने वाले लोग होने चाहिए। इस प्रकार तुम काम को ज़्यादा सही ढंग से कर पाओगे, ग़लतियाँ करना मुश्किल होगा, और तुम कम भटकोगे—जो सब अच्छे के लिए होता है। विशेष रूप से परमेश्वर की सेवा करना बड़ी बात है औरअपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करना तुम्हें खतरे में डाल सकता है! जिन लोगों का स्वभाव शैतानी होता है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं। शैतानी स्वभाव के सहारे जीने वाले लोग कभी भी परमेश्वर को नकार सकते हैं, उसका विरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं। मसीह-विरोधी मूर्ख हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं है, वे सोचते हैं, 'मुझे अपना सामर्थ्य कायम करने में काफी परेशानी हुई, तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? इसे दूसरों को देने का मतलब है कि मेरे पास अपने लिए कुछ नहीं होगा, है न? बिना सामर्थ्य के मैं अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का प्रदर्शन कैसे कर पाऊँगा?' वे नहीं जानते कि परमेश्वर ने लोगों को जो सौंपा है वह सत्ता या रुतबा नहीं बल्कि कर्तव्य है। वे केवल सत्ता और हैसियत स्वीकारते हैं, वे अपने कर्तव्यों को एक तरफ रख देते हैं, व्यावहारिक कार्य नहीं करते। बल्कि प्रसिद्धि, धन-दौलत और रुतबे के पीछे भागते हैं और रुतबे के लाभों का आनंद लेते हैं। इस तरह से काम करना बहुत खतरनाक होता है—यह परमेश्वर का विरोध करना है! जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, धन-दौलत और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं, अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं। आज अगुआ या कर्मी के तौर पर तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, जो कोई सामान्य बात नहीं है। तुम किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रहे हो, और बिलों का भुगतान करने और रोजी-रोटी कमाने के लिए काम तो बिल्कुल नहीं कर रहे; इसके बजाय, तुम कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। खासकर यह देखते हुए कि यह कर्तव्य तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपा गया था, इसे करने का क्या अर्थ है? तुम अपने कर्तव्य के लिए परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो, चाहे तुम इसे अच्छी तरह से करो या न करो; अंत में, परमेश्वर को हिसाब देना ही होगा, एक परिणाम होना ही चाहिए। तुमने जिसे स्वीकारा है वह परमेश्वर का आदेश है, एक पवित्र जिम्मेदारी है, इसलिए वह कितना भी अहम या छोटा क्यों न हो, यह एक गंभीर मामला है। यह कितना गंभीर है? यह सीधे तुम्हारे भविष्य और किस्मत से, तुम्हारे अंत से जुड़ा है; यदि तुम बुराई करते हो और परमेश्वर का विरोध करते हो, तो तुम्हें निंदित और दंडित किया जाएगा। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम जो कुछ भी करते हो, उसे परमेश्वर दर्ज करता है, और इसकी गणना और मूल्यांकन के परमेश्वर के अपने सिद्धांत और मानक हैं; जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम जो भी प्रकट करते हो, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारे अंत का निर्धारण करता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। पहले, मैं अगुआ के अपने पद को रुतबे की निशानी मानती थी। परमेश्वर के वचन पढ़कर ही मुझे एहसास हुआ कि मेरा कर्तव्य उसका दिया हुआ आदेश है जो मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में मिला है। यह परमेश्वर द्वारा दी हुई एक जिम्मेदारी है, रुतबे और अधिकार से इसका कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना, बाहरी दुनिया में करियर होने जैसा नहीं है। यहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं है। सभी लोग अपनी-अपनी जगह अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। परमेश्वर ने मुझे कलीसिया का कार्य संभालने के लिए उठाया था और मुझे अभ्यास करने और ये सीखने का मौका दिया था कि अपने काम के जरिए सिद्धांतों के अनुसार काम कैसे करें, और सत्य को कैसे समझें। परमेश्वर ने सिद्धांत समझने वाले प्रतिभाशाली भाई-बहनों को मेरे साथ काम करने के लिए नियुक्त किया, ताकि मैं अपना कर्तव्य बखूबी कर सकूँ, और कलीसिया का कार्य बढ़िया ढंग से करूँ। लेकिन मैं परमेश्वर की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, मैंने सत्य का अनुसरण करने और दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम करने पर ध्यान नहीं दिया इसके बजाय, मैंने रुतबे को संजोया, अपना रुतबा बचाए रखने के लिए दूसरों का दमन किया, उन्हें अलग कर दिया, भाई-बहनों से अभ्यास का मौका तक छीन लिया। मैंने न सिर्फ भाई-बहनों को नुकसान पहुंचाया, बल्कि परमेश्वर के घर का कार्य भी बिगाड़ा। अपने बर्ताव के आधार पर, मैं एक अगुआ बनने लायक नहीं थी .... मैं इस गलत राह पर चलते नहीं रहना चाहती थी। बस, ईमानदार और व्यावहारिक ढंग से अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने कर्तव्य निभाना चाहती थी। फिर, मैं अपने कर्तव्य में और ज्यादा लगन दिखाने लगी, जब मैं दूसरों को अपने सवाल लेकर बहन झांग के पास जाते देखती, तो अब मुझे उतना बुरा नहीं लगता, उतनी फिक्र नहीं होती कि वे मेरे बजाय उसे आदर से देखेंगे। बस यही सोचती कि अपने कर्तव्य निभाने के लिए बहन झांग के साथ कैसे बढ़िया काम करूँ। जब मैं बहन झांग को अपने काम में समस्याओं से जूझते देखती, तो उससे बात कर सही रास्ते पर आने में उसकी मदद करती। जब कुछ परियोजनाएँ धीमी गति से आगे बढ़तीं, तो मैं क्षमता बढ़ाने के तरीकों पर उससे चर्चा करती। अगर किसी मसले पर मेरे पास अंतर्दृष्टि न होती, या उससे निपटना न आता, तो मैं संगति के लिए उसे ढूँढ़ती। समय के साथ, हम साथ मिलकर बेहतर काम करने लगे, मैं जमीन से बहुत जुड़ी हुई और आजाद महसूस करने लगी।

मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी याद आया, मैं आपको पढ़कर सुनाती हूँ। "कलीसिया का अगुआ होने का अर्थ केवल समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करना सीखना नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाकर उन्हें विकसित करना भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह तुम लोगों के लिए अपना काम अच्छी तरह से करना आसान हो जाता है। अगर तुम अपने सभी कार्यों में सहयोग करने के लिए सत्य के कुछ अनुयायी तैयार कर सको, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवात्मक गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ होगे। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे। कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की संस्तुति करते हो और उसका पोषण कर उसे सक्षम बनाते हो, और एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर से जोड़ते हो, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इनसे मैंने जाना कि प्रतिभाओं का पोषण करना अगुआ की जिम्मेदारी और परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरत है। इस अनुभव से मैं यह समझ सकी कि यह कार्य कितना सार्थक है। एक तरह से, यह परमेश्वर के घर के संपूर्ण कार्य के लिए फायदेमंद है, यह ज्यादा लोगों को, कर्तव्य निर्वाह में अपनी प्रतिभा दिखाने, और परमेश्वर के घर के कार्य को और आगे बढ़ाने का मौका देता है। दूसरी ओर, यह भाई-बहनों को अभ्यास करने का मौका देता है, जिससे उनके जीवन-प्रवेश को लाभ होता है। ये सब सत्कर्म हैं, और परमेश्वर इन्हें याद रखेगा। साथ काम करते समय बहन झांग मेरे लिए बहुत मददगार थी। उसने कुछ सिद्धांत समझने और थोड़ा आगे बढ़ने में मेरी मदद की, और हमारा काम बहुत आसानी से होने लगा। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर की अपेक्षाओं का अनुसरण करना, और कर्तव्य निभाने के लिए दूसरों के साथ काम करना सीखना कितना अहम है। सिर्फ इसी तरह से हम कलीसिया का कार्य कर सकते हैं और अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हैं।

इस अनुभव के जरिए, मैंने अपने शैतानी स्वभाव और बेतुके नजरिए की थोड़ी समझ हासिल की, और धीरे-धीरे रुतबे की परवाह छोड़कर अपना कर्तव्य निभा सकी। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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