क्या मिलनसार होना अच्छी मानवता के लिए सही मापदंड है?

21 अप्रैल, 2023

फ्रैंक, फ़िलीपीन्स

लोग मुझे बचपन में हमेशा समझदार और व्यवहार-कुशल बताते; संक्षेप में कहें तो अच्छा बच्चा। मैं शायद ही कभी दूसरों से नाराज होता था, किसी को तंग नहीं करता था। आस्था रखने के बाद भी मैं दूसरे भाई-बहनों के साथ काफी मिलनसार रहा। मैं सहनशील, धैर्यवान और स्नेही था। मुझे याद है, एक समय जब मैं बुजुर्ग सदस्यों को कंप्यूटर इस्तेमाल करना सिखा रहा था, तो मैंने उन्हें धैर्य के साथ बार-बार सिखाया। भले ही वे कभी-कभी धीरे सीख पाते थे और मैं खीझने लगता था, लेकिन मैं इस डर से बड़े जतन से आपा बनाए रखता था कि कहीं वे यह न कह दें कि मुझमें कोई दया भाव नहीं है। लिहाजा, भाई-बहन अक्सर कहते कि मुझमें अच्छी मानवता है और मेरे अगुआ ने मुझे नए सदस्यों का सिंचन सौंपते हुए कहा कि जिनमें दया और धैर्य हो, वही इस कर्तव्य को अच्छे से निभा सकता है। यह सुनकर मैं निहाल हो जाता था, मुझे और भी इत्मीनान हो जाता कि मिलनसार और दयालु होना अच्छी मानवता का लक्षण है।

बाद में भाई ली मिंग और मैं साथ मिलकर कलीसिया में अगुआ रहा। कुछ समय साथ काम करने के बाद मैंने देखा कि ली मिंग अपने ढंग से काम करना चाहता था और थोड़ा तुनक-मिजाज भी था। अगर चीजें उसके अनुसार न होतीं तो वह नाराज हो जाता। वह साफगोई से काम नहीं करता था, अक्सर छल-कपट करता था। वह न तो सिद्धांतों के अनुरूप चलता था, न ही कलीसिया का काम हिफाजत से करता था। कुछ समय तक वह भाई-बहनों से बातचीत के लिए अपना सेल फोन इस्तेमाल करता रहा। मैं जानता था, इससे पुलिस उसकी निगरानी कर सकती थी और कलीसिया के लिए संकट खड़ा हो सकता था, मैंने कई बार उसे रोकने की सोची, लेकिन खुलकर कहने का वक्त आता तो मैं ठिठक जाता था। मुझे लगा कि अगर मुँह पर उसकी समस्या बताता हूँ तो उसे लगेगा कि वैसे तो मैं भला दिखता हूँ, लेकिन अपनी कथनी और करनी में निर्दयी हूँ, और इस तरह हमारा साथ काम करना कठिन है। इस पर सोच-विचार के बाद मैंने समझौता किया और बस पूछा कि वह अन्य भाई-बहनों से संपर्क करने के लिए अपने निजी फोन का इस्तेमाल कर रहा है या नहीं। जब उसने यह स्वीकार नहीं किया, तो उसका झूठ जानकर भी मैंने न तो उसे उजागर किया, न ही रोका, डरता था कि इससे हमारे बीच टकराव होगा और वह मुझे हिकारत से देखने लगेगा। बाद में मैंने देखा कि ली मिंग की समस्याएँ और गंभीर होती जा रही हैं। एक बार कुछ भाई-बहनों ने मुझसे कहा कि उसकी पत्नी सभाओं में हमेशा दिखावे के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बघारती है, असल मसले हल नहीं करती और दूसरों को बताता फिरती है कि उसने अपने कर्तव्य में कितनी पीड़ा झेली है, कितना त्याग किया है, ताकि वे उसकी तारीफ करें। इसकी जाँच के बाद मैंने तय किया कि वह अगुआ रहने लायक नहीं है और उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। मैंने ली मिंग को बताया तो वह बहुत चिढ़ गया, उसने कहा कि भाई-बहनों ने उसकी पत्नी का गलत और पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन किया है। उसने तो यह सवाल भी उठा दिया कि हमने उसकी पत्नी की ही जाँच क्यों कराई, और उनकी क्यों नहीं जिन्होंने यह सवाल उठाया। यह सुनकर मुझे झटका लगा—मैंने कभी नहीं सोचा था कि ली मिंग ऐसा खराब रवैया दिखाएगागा। हालात को संभालने के लिए मैंने उससे कहा : “अपने मन को शांत करो और इस बारे में परमेश्वर का इरादा खोजो। भावनाओं में बहने से बचो।” लेकिन मुझे अनसुना कर वह बिल्कुल भी शांत नहीं हुआ। ली मिंग की मनमानी दखलंदाजी के कारण उसकी पत्नी की समस्या हल होने से रह गई। उसके बाद ली मिंग ने एक सभा में भाई-बहनों को भी डाँट लगाई और अपने भाषण से एक बहन को रोने पर मजबूर कर दिया। ली मिंग की समस्या बहुत गंभीर होती जा रही थी। दूसरे लोगों ने उसकी पत्नी का तथ्यपरक और निष्पक्ष मूल्यांकन किया था, सिर्फ तथ्य सामने रखे थे, लेकिन अपने हितों को खतरा पैदा होने से वह नाराज होकर उन पर टूट पड़ा। उसमें बुरी मानवता थी! मैं उसकी समस्या के बारे में बड़े अगुआ को बताना चाहता था, लेकिन फिर मैंने सोचा : “क्या यह उसकी चुगली करने और पीठ में छुरा घोंपने जैसा नहीं होगा? और, अगर उसकी रिपोर्ट करती हूँ तो अगुआ उसे संगति के लिए तलब करेगा—अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी रिपोर्ट की है, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या यह नहीं कहेगा कि मैं उसकी पीठ पीछे निंदा कर रहा हूँ और मुझमें अच्छी मानवता नहीं है?” इस एहसास ने मुझे उसकी रिपोर्ट करने से रोक दिया, लेकिन मुझे थोड़ी-सी घुटन और व्याकुलता महसूस हुई।

बाद में दूसरे लोगों ने ली मिंग की रिपोर्ट की इसलिए आखिरकार उसे बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद बड़े अगुआ ने मुझे उजागर करते हुए कहा : “भले ही ऊपर से ऐसा लगता है कि तुम्हारी सबसे छनती है, लेकिन परमेश्वर के प्रति तुम वफादार नहीं हो। ली मिंग की समस्या देखकर भी तुमने उसे उजागर कर रोका क्यों नहीं? तुमने इतने अहम मसले की रिपोर्ट क्यों नहीं की? तुम कलीसिया के कार्य की रक्षा करना भी चाहते हो या नहीं?” अगुआ द्वारा कट-छाँट किए जाने के बाद ही मुझे होश आया और मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर आत्म-चिंतन करने लगा। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी कोभी नाराज नकरने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की जाँच-पड़ताल करता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे दुष्ट लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है। ऐसे व्यक्तियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वे किसके अनुसार जीते हैं, क्या प्रकट करते हैं, और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कैसा होता है, साथ ही उनकी अंदरूनी दशा कैसी है और उन्हें किससे प्रेम है। अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, या अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वे परमेश्वर के प्रति दर्शाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों में मानवता है? वे मानवता वाले लोग नहीं हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि किसी व्यक्ति की मानवता के मूल्यांकन का आधार यह नहीं हो सकता कि उसका बाहरी चरित्र, जैसे कि मिजाज अच्छा है या नहीं, या उसकी दूसरों के साथ ठीक से बनती है या नहीं, बल्कि मूल्यांकन का आधार यह है कि परमेश्वर और सत्य के प्रति उसका रवैया क्या है, वह अपने काम में जिम्मेदार है या नहीं, और समस्याएँ आने पर परमेश्वर के साथ खड़े होकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करता है या नहीं। पहले मैं सोचता था कि मुझमें अच्छी मानवता है। मैं दयालु और अच्छे व्यक्तित्व वाला दिखता था, लेकिन जब मैंने भाई-बहनों से बातचीत में ली मिंग को अपना सेल फोन इस्तेमाल करते देखा, जिसने कलीसिया की सुरक्षा खतरे में डाली, तो मैं सोच में पड़ गया कि उस पर सीधे दोषारोपण से हमारे संबंध बिगड़ जाएँगे, इसलिए मैंने उसे सिर्फ हल्के-फुलके ढंग से सचेत कर चालाकी दिखाई। जब उसने अपनी गलती नहीं मानी, तब भी मैंने उसे न तो उजागर किया, न ही रोका। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर कुछ गलत हुआ भी तो, वह यह नहीं कह सकता कि मैंने उसे याद नहीं दिलाया।” मैंने सोचा ऐसे अभ्यास करने से छवि भी खराब नहीं होगी और अगर कुछ गड़बड़ हुई तो मैं जिम्मेदारी से भी बच जाऊँगा। मैं सिर्फ अपने हित, अपनी प्रतिष्ठा और छवि के बारे में सोच रहा था, कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों की सुरक्षा पर मेरा ध्यान नहीं था। मैं बहुत स्वार्थी और धोखेबाज था! जब मैंने देखा कि ली मिंग ने अपनी पत्नी के पति स्नेह के चलते भावुक होकर कैसे दूसरों पर गुस्सा उतारा, तो मुझे फौरन बड़े अगुआ को बताना चाहिए था, लेकिन मैं घबरा गया कि वह मुझे पीठ पर छुरा घोंपने वाला मान लेगा, इसलिए मैं खामोश रहा। मैं चुप खड़ा रहा और ली मिंग को उसके मन का करने दिया, जिससे कलीसिया के कार्य पर नकारात्मक असर पड़ा और इससे भाई-बहनों को भी हमलों और नुकसान का सामना करना पड़ा। मेरी मानवता कहाँ थी? न्याय और उजागर करने को लेकर परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने कदमों के बारे में सोच-विचारकर मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मैं हमेशा सोचता था कि मुझमें अच्छी मानवता है, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और तथ्यों के जरिए उजागर होने पर मेरी सोच पूरी तरह बदल गई। बाहर से मैं दयालु था लेकिन उसके पीछे घिनौना इरादा छिपा था। मैंने सिर्फ अपने निजी हितों का ख्याल रखा, कलीसिया के कार्य की रक्षा बिल्कुल नहीं की। मुझमें नकली दया थी, मैं सबको खुश रखने में लगा रहता था। मेरी पवित्रता झूठी थी, मैं धोखेबाज इंसान था। अब से मैंने खुद को अच्छी मानवता वाला इंसान दिखाने की हिमाकत नहीं की। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “‘अच्छे’ व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा ‘अच्छा’ व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन ‘अच्छे’ व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएंगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार की नहीं होती, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रकृति क्या है? वह भ्रमित और अबोध होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—इन्हीं चीजों ने सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने, विनम्र होने, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से कई कपटों से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत होना चुना, कुछ ने विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे ‘अच्छे’ व्यवहारों वाले लोगों को एक शब्द-युग्म से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द-युग्म क्या है? ‘चिकने पत्थर।’ चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के वे चिकने पत्थर होते हैं, जिनका नुकीलापन लंबे समय से बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—‘चिकना पत्थर’ यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते। अगर तुम उनके साथ सत्य और सिद्धांतों पर संगति करते हो, तो वे तुमसे सौम्य और परिष्कृत, और विनम्र होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में बात करते हो, तो वे तुमसे बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने, और सुशिक्षित और समझदार होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे कहते हो कि व्यक्ति के आचरण में सिद्धांत होने चाहिए, कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए और हठधर्मिता से कार्य नहीं करना चाहिए, तो उनका रवैया क्या होगा? वे कहेंगे, ‘सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना दूसरी बात है। मैं बस सुशिक्षित और समझदार बनना चाहता हूँ, और दूसरों से अपने कार्यों की स्वीकृति पाना चाहता हूँ। अगर मैं बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता हूँ, और मुझे दूसरे लोगों की स्वीकृति मिलती है, तो यह काफी है।’ वे केवल अच्छे व्यवहारों की परवाह करते हैं, सत्य पर ध्यान नहीं देते(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सरल और मिलनसार होना पारंपरिक संस्कृति में सद्व्यवहार माना जाता है, लेकिन सार रूप में यह सिर्फ दिखावा है। इस तरह पेश आने वाले सिर्फ खुद का दिखावा करते हैं, एक मुखौटा लगाए रहते हैं ताकि वे लोगों की सराहना पा सकें और उन्हें धोखा देकर सम्मान और प्रशंसा हासिल कर सकें। यह सब साजिश और छल-कपट है, इस तरह पेश आकर ही लोग धोखेबाज बनते हैं। मुझे यह एहसास भी हुआ कि इतने साल अच्छा व्यवहार करने की कोशिशों के बावजूद मेरे अब तक स्वार्थी और धोखेबाज होने की वजह यह थी कि इन सब के पीछे बुरे मंसूबे छिपे थे। मैं लोगों पर अच्छी छाप छोड़ना चाहता था ताकि वे मेरा मान-सम्मान और तारीफ करें। सद्व्यवहार को महत्व देते हुए, मुझे बचपन से ही पारंपरिक संस्कृति के अनुसार सिखाकर ढाला गया था। मुझे लगता था कि सद्व्यवहार से मैं अपने आसपास के लोगों से तारीफें बटोर लूँगा। आस्था रखने के बाद भी मैंने मिलनसार और सरल इंसान बने रहने और भाई-बहनों के बीच अच्छी छवि और प्रतिष्ठा हासिल करने की कोशिश की, खासकर तब जबकि मैं ली मिंग के साथ काम करता था। मैंने देखा कि उसने कई बार भाई-बहनों से संपर्क करने के लिए अपने सेल फोन का इस्तेमाल कर सिद्धांतों का उल्लंघन किया, भाई-बहनों की जिंदगी जोखिम में डालकर कलीसिया के हितों की अनदेखी की, और मुझे चाहिए था कि उसे उजागर करके रोकूँ, लेकिन इस डर से कुछ नहीं किया कि वह मेरे बारे में गलत राय बना लेगा। मैंने साफ देखा कि ली मिंग अपनी पत्नी को बचा रहा था और उसने भाई-बहनों को भी दबाया, और यह भ्रष्टता का साधारण मामला नहीं था। उसकी मानवता बुरी थी, वह लायक अगुआ नहीं था और उसके बारे में फौरन रिपोर्ट की जानी चाहिए थी। लेकिन मैं अपनी छवि और प्रतिष्ठा बचाने के लिए एक बार फिर खामोश रहा। अपनी छवि बचाने के लिए मैंने जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर दिया। मैंने कलीसिया के हित बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं रखे। मुझे इस बात की गहरी समझ आ गई कि मिलनसार और सरल होने की कोशिश में मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने में मदद तो मिली नहीं, उल्टे इसने मुझे अधिक से अधिक स्वार्थी और धोखेबाज बना दिया। मैंने सत्य के अभ्यास की जगह सद्व्यवहार को लक्ष्य बना लिया, अपने घिनौने इरादे छिपाने के लिए झूठी छवि पेश की और सबको यह सोचने पर मजबूर किया कि मुझमें सत्य वास्तविकता है, मैं स्नेही और दयालु हूँ, मैंने उनको मूर्ख बनाकर उनका विश्वास, मान-सम्मान और स्वीकृति हासिल की। मैं नकली पवित्र फरीसियों के रास्ते पर चलकर परमेश्वर का विरोध कर रहा था। अगर मैं ऐसा ही रहता तो परमेश्वर मुझे दंडित कर हटा देता।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े जो कहते हैं : “और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन-प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभवजन्य गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। अनुभवजन्य गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने और कुछ भी ठीक से न कर पाने के लिए बाध्य हैं। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं; वे बुरे लोग हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा जब तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने में बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें निकालकर त्याग दिया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। ... लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। ... साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। मैं परमेश्वर के वचनों से घबरा गया और मुझे डर भी लगा। अगर कोई हर बार बदलते हालात में अपने ही हित ऊपर रखे और कभी सत्य का अभ्यास न करे, तो उसके अपराधों की गठरी बढ़ती जाएगी और आखिर में परमेश्वर उसे उजागर कर हटा देगा। मैंने मन ही मन सोचा—जब मैंने देखा कि भाई-बहनों की सुरक्षा खतरे में है और कलीसिया का कार्य प्रभावित हो रहा है, तब भी मैंने सिद्धांतों को तरजीह देकर कलीसिया के कार्य के हिफाजत नहीं की, बल्कि तथाकथित भला इंसान बनने की कोशिश करता रहा। भले ही मैंने दूसरों से मान-सम्मान और स्वीकृति पा ली, मगर परमेश्वर की नजर में मैं कुकर्मी था और आखिर में वह मुझे ठुकरा कर दंडित करता। इन नतीजों के एहसास से काँपकर मैं अपनी गलत सोच सुधारने के लिए तैयार था। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का सही मार्ग भी दिखा दिया। परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलकर और बोलकर ही हम दूसरों को शिक्षित करते हुए लाभ पहुँचा सकते हैं। मायने यह नहीं रखता कि हम कैसे बोलते हैं, अपनी बोली में कितनी कठोरता या कोमलता रखते हैं, चतुराई से बात करते हैं या नहीं। सबसे अहम यह है कि हम इस ढंग से बात करें कि भाई-बहनों शिक्षा मिल सके। जब तक कोई सही इंसान है, सत्य स्वीकार सकता है, तब तक उसकी प्रेम पूर्वक मदद करनी चाहिए। अगर वह सत्य नहीं समझता, काम को नष्ट करता है, तो हम संगति करके उसे मार्गदर्शन और सहारा दे सकते हैं। अगर संगति के बाद भी असल में कोई सुधार नहीं होता, तो हम उसकी काट-छाँट कर सकते हैं और उसकी समस्या का सार उजागर कर सकते हैं। भले ही यह सुनने में बुरा लगे या उसकी भावनाओं को आहत करे, यह तरीका उसे वाकई लाभ और सहारा दे सकता है। अगर ऐसे लोग एक मसीह-विरोधी हैं या कलीसिया का कार्य बिगाड़ने वाले बुरे व्यक्ति हैं, तो हमें उन्हें उजागर कर रोकने या बड़े अगुआ को रिपोर्ट करने का फैसला करना चाहिए ताकि कलीसिया का कार्य सर्वोपरि रहे और भाई-बहन बाधित और गुमराह होने से बचे रहें। सिर्फ इसी तरह काम करके हम वाकई सत्य का अभ्यास कर सच्ची मानवता और दया दिखा सकते हैं। परमेश्वर के वचनों ने भी मेरा एक गलत नजरिया सुधारा। मुझे लगता था कि सिद्धांतों का उल्लंघन करने पर किसी की रिपोर्ट करना चुगलखोरी, विश्वासघात या गद्दारी है। यह गलत नजरिया था। ऐसा करके हम वाकई कलीसिया के कार्य की सुरक्षा करते हैं और यह नेक कर्म है। ली मिंग की समस्या गंभीर थी और इससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ रहा था और यह भाई-बहनों को बेबस कर नुकसान पहुंचा रहा था, और यह कलीसिया के कार्य से संबंधित सिद्धांतों का मसला था, मुझे इस बारे में फौरन बड़े अगुआ को बताना चाहिए था या फिर उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए थी। यह दगाबाजी नहीं होती; बल्कि यह कलीसिया के कार्य की सुरक्षा होती। यह एहसास होने के बाद मेरी कई चिंताएं खत्म हो गईं और मुझे काफी सुकून मिला।

एक बार किसी ने रिपोर्ट की कि एक भाई लगातार आलसी होकर अपने कर्तव्य में कठिनाइयों से बच रहा था, दूसरों के बताने और कई बार काट-छाँट किए जाने के बावजूद वह इसे स्वीकार नहीं रहा था। सिद्धांतों के आधार पर हमने फैसला किया कि उसे बर्खास्त करना और उसके मसलों का विश्लेषण करना जरूरी है ताकि वह आत्म-चिंतन कर सके। उस समय मैंने सोचा, “किसी की समस्याओं का विश्लेषण करना उसके लिए बुरा हो सकता है। क्यों न खुद अलग रहकर अपने सहयोगी को उससे संगति करने दूँ। वरना उसके मन में मेरी गलत छवि बन जाएगी।” लेकिन मुझे तुरंत एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और छवि बचाने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। समस्याओं का सामना होने पर हमें अपनी इच्छाओं और प्रतिष्ठा को परे रखकर और कलीसिया के हितों को तरजीह देकर परमेश्वर के इरादों पर मनन करना चाहिए। यही एक उचित रास्ता है, इसे ही परमेश्वर सराहेगा। परमेश्वर की माँगों को समझने के बाद मैं उत्साहित हो गया, लिहाजा मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार उस भाई के व्यवहार का विश्लेषण किया। इस तरह अभ्यास कर मुझे काफी सुकून मिला। मुझे लगा कि सत्य का अभ्यास करके ही हमें सच्ची शांति और खुशी मिल सकती है।

इस एहसास के बाद मेरा मन परमेश्वर के प्रति आभार से भर उठा। ये परमेश्वर के ही वचन थे जिन्होंने मुझे दिखाया कि मिलनसार और सरल होना, जिसका पारंपरिक संस्कृति समर्थन करती है, कितना बेतुका है और लोगों को यह कितना नुकसान पहुँचाता है। इसने मुझे उस आजादी और सुकून का अनुभव भी कराया जो पारंपरिक संस्कृति की बाध्यताओं और बंधनों से मुक्त होने पर मिलता है। परमेश्वर के उद्धार के लिए उसका धन्यवाद!

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