क्या मिलनसार होना अच्छी मानवता के लिए सही मापदंड है?
लोग मुझे बचपन में हमेशा समझदार और व्यवहार-कुशल बताते; संक्षेप में कहें तो अच्छी बच्ची। मैं शायद ही कभी दूसरों से नाराज होती थी, किसी को तंग नहीं करती थी। आस्था रखने के बाद भी मैं दूसरे भाई-बहनों के साथ काफी मिलनसार रही। मैं सहनशील, धैर्यवान और स्नेही थी। मुझे याद है, एक बार जब मैं बुजुर्ग सदस्यों को कंप्यूटर इस्तेमाल करना सिखा रही थी, तो मैंने उन्हें धैर्य के साथ बार-बार सिखाया। भले ही वे कभी-कभी धीरे सीख पाते थे और मैं खीझने लगती थी, लेकिन मैं इस डर से बड़े जतन से आपा बनाए रखती थी कि कहीं वे यह न कह दें कि मुझमें कोई दया भाव नहीं है। लिहाजा, भाई-बहन अक्सर कहते कि मुझमें अच्छी मानवता है और मेरे अगुआ ने मुझे नए सदस्यों का सिंचन सौंपते हुए कहा कि जिनमें दया और धैर्य हो, वही इस कर्तव्य को अच्छे से निभा सकता है। यह सुनकर मैं निहाल हो जाती थी, मुझे और भी इत्मीनान हो जाता कि मिलनसार और दयालु होना अच्छी मानवता का लक्षण है।
बाद में बहन ली मिंग और मैं साथ मिलकर कलीसिया में अगुआ रही। कुछ समय साथ काम करने के बाद मैंने देखा कि ली मिंग अपने ढंग से काम करना चाहती थी और थोड़ी तुनक-मिजाज भी थी। अगर चीजें उसके अनुसार न होतीं तो वह नाराज हो जाती। वह साफगोई से काम नहीं करती थी, अक्सर छल-कपट करती थी। वह न तो सिद्धांतों के अनुरूप चलती थी, न ही कलीसिया का काम हिफाजत से करती थी। कुछ समय तक वह भाई-बहनों से बातचीत के लिए अपना सेल फोन इस्तेमाल करती रही। मैं जानती थी, इससे पुलिस उसकी निगरानी कर सकती थी और कलीसिया के लिए संकट खड़ा हो सकता था, मैंने कई बार उसे रोकने की सोची, लेकिन खुलकर कहने का वक्त आता तो मैं ठिठक जाती थी। मुझे लगा कि अगर मुँह पर उसकी समस्या बताती हूँ तो उसे लगेगा कि वैसे तो मैं भली दिखती हूँ, लेकिन अपनी कथनी और करनी में निर्दयी हूँ, और इस तरह हमारा साथ काम करना कठिन है। इस पर सोच-विचार के बाद मैंने समझौता किया और बस पूछा कि वह अपने निजी फोन का इस्तेमाल कर रही है या नहीं। जब उसने यह स्वीकार नहीं किया, तो उसका झूठ जानकर भी मैंने न तो उसे उजागर किया, न ही रोका, डरती थी कि इससे हमारे बीच टकराव होगा और वह मुझे हिकारत से देखने लगेगी। बाद में मैंने देखा कि ली मिंग की समस्याएँ और गंभीर होती जा रही हैं। एक बार कुछ भाई-बहनों ने मुझसे कहा कि उसका पति सभाओं में हमेशा दिखावे के लिए सिद्धांत बघारता है, व्यावहारिक मसले हल नहीं करता और दूसरों को बताता फिरता है कि उसने अपने कर्तव्य में कितनी पीड़ा झेली है, कितना त्याग किया है, ताकि वे उसकी तारीफ करें। इसकी जाँच के बाद मैंने तय किया कि वह अगुआ रहने लायक नहीं है और उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। मैंने ली मिंग को बताया तो वह बहुत चिढ़ गई, उसने कहा कि भाई-बहनों ने उसके पति का गलत और पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन किया है। उसने तो यह सवाल भी उठा दिया कि हमने उसके पति की ही जाँच क्यों कराई, और उनकी क्यों नहीं जिन्होंने यह सवाल उठाया। यह सुनकर मुझे झटका लगा—मैंने कभी नहीं सोचा था कि ली मिंग ऐसा खराब रवैया दिखाएगी। हालात को संभालने के लिए मैंने उससे कहा : “अपने मन को शांत करो और इस बारे में परमेश्वर की इच्छा खोजो। भावनाओं में बहने से बचो।” लेकिन मुझे अनसुना कर वह बिल्कुल भी शांत नहीं हुई। ली मिंग की मनमानी दखलंदाजी के कारण उसके पति की समस्या हल होने से रह गई। उसके बाद ली मिंग ने एक सभा में भाई-बहनों को डाँट लगाई और एक बहन को रोने पर मजबूर कर दिया। ली मिंग की समस्या बहुत गंभीर होती जा रही थी। दूसरे लोगों ने उसके पति का तथ्यपरक और निष्पक्ष मूल्यांकन किया था, सिर्फ तथ्य सामने रखे थे, लेकिन अपने हितों को खतरा पैदा होने से वह नाराज होकर उन पर टूट पड़ी। उसमें बुरी मानवता थी! मैं उसकी समस्या के बारे में बड़े अगुआ को बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा : “क्या यह उसकी चुगली करने और पीठ में छुरा घोंपने जैसा नहीं होगा? और, अगर उसकी रिपोर्ट करती हूँ तो अगुआ उसे संगति के लिए तलब करेगा—अगर उसे पता चला कि मैंने उसकी रिपोर्ट की है, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या यह नहीं कहेगी कि मैं उसकी पीठ पीछे निंदा कर रही हूँ और मुझमें अच्छी मानवता नहीं है?” इस एहसास ने मुझे उसकी रिपोर्ट करने से रोक दिया, लेकिन मुझे थोड़ी-सी घुटन और बेचैनी महसूस हुई, मानो मैं किसी की दबंगई की शिकार हो गई हूँ।
बाद में दूसरे लोगों की रिपोर्ट पर ली मिंग को आखिरकार बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद बड़े अगुआ ने मुझे उजागर करते हुए कहा : “भले ही ऊपर से ऐसा लगता है कि तुम्हारी सबसे छनती है, लेकिन परमेश्वर के प्रति तुम वफादार नहीं हो। ली मिंग की समस्या देखकर भी तुमने उसे उजागर कर रोका क्यों नहीं? तुमने इतने अहम मसले की रिपोर्ट क्यों नहीं की? तुम कलीसिया के कार्य की रक्षा करना भी चाहती हो या नहीं?” अगुआ द्वारा निपटे जाने के बाद ही मुझे होश आया और मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर आत्म-चिंतन करने लगी। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को नाराज़ नहीं करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी तुम जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी तुम मिलो सभी से चिकनी-चुपड़ी बातें करना, और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदय को टटोलता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुक़सान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे कुकर्मियों को बुरा करते देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है। ऐसे व्यक्तियों की बातों पर बिलकुल ध्यान न दो; तुम्हें देखना चाहिए कि वे किसके अनुसार जीते हैं, क्या प्रकट करते हैं, और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कैसा होता है, साथ ही उनकी अंदरूनी दशा कैसी है और उन्हें किससे प्रेम है। अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा से बढ़कर है, अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम परमेश्वर के घर के हितों से बढ़कर है, या अगर अपनी शोहरत और फायदे के प्रति उनका प्रेम उस विचारशीलता से बढ़कर है जो वे परमेश्वर के प्रति दर्शाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों में मानवता है? वे मानवता वाले लोग नहीं हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि किसी व्यक्ति की मानवता के मूल्यांकन का आधार यह नहीं हो सकता कि उसका बाहरी चरित्र, जैसे कि मिजाज अच्छा है या नहीं, क्या वह पीठ पीछे लोगों की बुराई करता है या नहीं, या उसकी दूसरों के साथ ठीक से बनती है या नहीं, बल्कि मूल्यांकन का आधार यह है कि परमेश्वर और सत्य के प्रति उसका रवैया क्या है, वह अपने काम में जिम्मेदार है या नहीं, और समस्याएँ आने पर परमेश्वर के साथ खड़े होकर सत्य और सिद्धांतों के अनुसार काम करता है या नहीं। पहले मैं सोचती थी कि मुझमें अच्छी मानवता है। मैं दयालु और अच्छे व्यक्तित्व वाली दिखती थी, लेकिन जब मैंने भाई-बहनों से बातचीत में ली मिंग को अपना सेल फोन इस्तेमाल करते देखा, जिसने कलीसिया की सुरक्षा खतरे में डाली, तो मैं सोच में पड़ गई कि उस पर सीधे दोषारोपण से हमारे संबंध बिगड़ जाएँगे, इसलिए मैंने उसे सिर्फ हल्के-फुलके ढंग से सचेत कर चालाकी दिखाई। जब उसने अपनी गलती नहीं मानी, तब भी मैंने उसे न तो उजागर किया, न ही रोका। मैंने मन ही मन सोचा : “अगर कुछ गलत हुआ भी तो, वह यह नहीं कह सकती कि मैंने उसे याद नहीं दिलाया।” इस रवैये से मेरी छवि भी खराब नहीं होगी और अगर कुछ गड़बड़ हुई तो मैं जिम्मेदारी से भी बच जाऊँगी। मैं सिर्फ अपने हित, अपनी प्रतिष्ठा और छवि के बारे में सोच रही थी, कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों की सुरक्षा पर मेरा ध्यान नहीं था। मैं बहुत स्वार्थी और कपटी थी! जब मैंने देखा कि ली मिंग ने अपने पति के मामले में भावुक होकर कैसे दूसरों पर गुस्सा उतारा, तो मुझे फौरन बड़े अगुआ को बताना चाहिए था, लेकिन मैं घबरा गई कि वह मुझे पीठ पर छुरा घोंपने वाली मान लेगी, इसलिए मैं खामोश रही। इससे कलीसिया के कार्य पर बुरा असर पड़ा और यह भाई-बहनों के लिए नुकसानदायक रहा। मेरी मानवता कहाँ चली गई थी? न्याय और उजागर करने को लेकर परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने कदमों के बारे में सोच-विचारकर मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मैं हमेशा सोचती थी कि मुझमें अच्छी मानवता है, लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और तथ्यों के जरिए उजागर होने पर मेरी सोच पूरी तरह बदल गई। बाहर से मैं दयालु थी लेकिन उसके पीछे घिनौना इरादा छिपा था। मैंने सिर्फ अपने निजी हितों का ख्याल रखा, कलीसिया के कार्य की रक्षा बिल्कुल नहीं की। मुझमें नकली दया थी, मैं सबको खुश रखने में लगी रहती थी। मेरी पवित्रता झूठी थी, मैं कपटी थी। उसके बाद मैंने खुद को अच्छी मानवता वाली इंसान दिखाने की हिमाकत भी नहीं की।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “‘अच्छा’ व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा ‘अच्छा’ व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन ‘अच्छे’ व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएंगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार का नहीं होती, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रकृति क्या है? वह भ्रमित और अबोध होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—इन्हीं चीजों ने परिष्कृत और समझदार होने, मृदु आचरण करने, विनम्र होने, बुजुर्गों का सम्मान करने, युवाओं की देखभाल करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से एक-दो कपट से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने परिष्कृत और समझदार होना चुना, कुछ ने सौम्यता चुनी, कुछ ने विनम्र होना, बुजुर्गों का सम्मान करना और युवाओं की देखभाल करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे ‘अच्छे’ व्यवहार वाले लोगों को एक शब्द से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द क्या है? ‘चिकना पत्थर।’ चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के किनारे के वे चिकने पत्थर होते हैं जिनका नुकीलापन बरसों बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—‘चिकना पत्थर’ यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते। अगर तुम उनके साथ सत्य और सिद्धांतों पर संगति करते हो, तो वे तुमसे सज्जन और विनम्र होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में बात करते हो, तो वे तुमसे बड़ों का सम्मान करने और छोटों की देखभाल करने, और सुसंस्कृत और समझदार होने के बारे में बोलते हैं। अगर तुम उनसे कहते हो कि व्यक्ति के आचरण में सिद्धांत होने चाहिए, कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए और हठधर्मिता से कार्य नहीं करना चाहिए, तो उनका रवैया क्या होगा? वे कहेंगे, ‘सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना दूसरी बात है। मैं बस सुसंस्कृत और समझदार बनना चाहता हूँ, और दूसरों से अपने कार्यों की स्वीकृति पाना चाहता हूँ। अगर मैं बुज़ुर्गों का सम्मान और छोटों की देखभाल करता हूँ, और मुझे दूसरे लोगों की स्वीकृति मिलती है, तो यह काफी है।’ वे केवल अच्छे व्यवहारों की परवाह करते हैं, सत्य पर ध्यान नहीं देते” (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सरल और मिलनसार होना पारंपरिक संस्कृति में सद्व्यवहार माना जाता है, लेकिन सार रूप में यह सिर्फ दिखावा है। इस तरह पेश आने वाले सिर्फ एक मुखौटा लगाए रहते हैं ताकि वे लोगों की सराहना पा सकें और उन्हें धोखा देकर सम्मान और प्रशंसा हासिल कर सकें। यह सब साजिश और छल-कपट है, इस तरह पेश आकर आप धोखेबाज ही बनते हैं। मुझे यह एहसास भी हुआ कि इतने साल अच्छी इंसान बनने की कोशिशों के बावजूद मेरे अब तक स्वार्थी और कपटी होने की वजह यह थी कि इन सब के पीछे बुरे मंसूबे छिपे थे। मैं लोगों पर अच्छी छाप छोड़ना चाहती थी ताकि वे मेरा मान-सम्मान और तारीफ करें। सद्व्यवहार को महत्व देते हुए, मुझे बचपन से ही पारंपरिक संस्कृति के अनुसार सिखाकर ढाला गया था। मुझे लगता था कि सद्व्यवहार से मैं अपने आसपास के लोगों से तारीफें बटोर लूँगी। आस्था रखने के बाद भी मैंने मिलनसार और सरल इंसान बने रहने और भाई-बहनों के बीच अच्छी छवि और प्रतिष्ठा हासिल करने की कोशिश की, खासकर तब जबकि मैं ली मिंग के साथ काम करती थी। मैंने देखा कि उसने कई बार अपने सेल फोन का इस्तेमाल कर सिद्धांतों का उल्लंघन किया, भाई-बहनों की जिंदगी जोखिम में डालकर कलीसिया के हितों की अनदेखी की, इसलिए मुझे चाहिए था कि उसे उजागर करके रोकूँ, लेकिन इस डर से कुछ नहीं किया कि वह मेरे बारे में गलत राय बना लेगी। मैंने साफ देखा कि ली मिंग अपने पति को बचा रही थी और उसने भाई-बहनों को भी दबाया, और यह भ्रष्टता का साधारण मामला नहीं था। उसकी मानवता बुरी थी, वह लायक अगुआ नहीं थी और उसके बारे में फौरन रिपोर्ट की जानी चाहिए थी। लेकिन मैं अपनी छवि और प्रतिष्ठा बचाने के लिए एक बार फिर खामोश रही। अपनी छवि बचाने के लिए मैंने जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर दिया। मैंने कलीसिया के हित बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं रखे। मुझे इस बात की गहरी समझ आ गई कि मिलनसार और सरल होने की कोशिश में मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलने में मदद तो मिली नहीं, इसने उलटने मुझे और भी कपटी बना दिया। मैंने सत्य के अभ्यास की जगह सद्व्यवहार को लक्ष्य बना लिया, अपने घिनौने इरादे छिपाने के लिए झूठी छवि पेश की और सबको यह सोचने पर मजबूर किया कि मुझमें सत्य की वास्तविकता है, मैं स्नेही और दयालु हूँ, मैंने उनको मूर्ख बनाकर उनका विश्वास, मान-सम्मान और स्वीकृति हासिल की। मैं नकली पवित्र फरीसियों के रास्ते पर चलकर परमेश्वर का विरोध कर रही थी। अगर मैं ऐसी ही रहती तो परमेश्वर मुझे दंडित कर त्याग देता।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। “और जब लोग हमेशा अपने स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, जब वे हमेशा अपने गौरव और अहंकार की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन उसे ठीक करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते, तो इसका क्या परिणाम होता है? यही कि वे जीवन में प्रवेश नहीं कर पाते हैं, और उनके पास सच्चे अनुभवों और गवाही की कमी है। और यह खतरनाक है, है न? अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे पास कोई अनुभव और गवाही नहीं है, तो समय आने पर तुम्हें उजागर कर बाहर कर दिया जाएगा। अनुभवों और गवाही से रहित लोगों का परमेश्वर के घर में क्या उपयोग है? वे कोई भी कर्तव्य खराब तरीके से निभाने के लिए बाध्य हैं; वे कुछ भी ठीक से नहीं कर सकते। क्या वे सिर्फ कचरा नहीं हैं? वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे गैर-विश्वासियों में से एक हैं, वे दुष्ट हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा अंत निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा अंत यह है कि तुम नरक में जाओगे, तुम्हें दंडित किया जाएगा। क्या तुम लोग सोचते हो कि यह कोई साधारण मामला है? अगर तुम्हें दंडित नहीं किया गया है, तो तुम्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं होगा कि यह कितना भयानक है। जब वह दिन आएगा और तुम वास्तव में विपदा का सामना करोगे, और तुम्हारा सामना मृत्यु से होगा, तो पछताने में बहुत देर हो चुकी होगी। अगर परमेश्वर पर अपनी आस्था में तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन तुममें कोई बदलाव नहीं आया, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा, तुम्हें त्याग दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिलकुल नहीं। अच्छा व्यवहार लोगों का सार नहीं बदल सकता। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों का स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। ... लोगों के बोलने का और उनके कार्यों का आधार क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचन। तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) यह सही है। सबसे बुनियादी तौर पर, तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका अपमान और उपहास न करे, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। ... साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनसे निपटना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न?” (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (3))। मैं परमेश्वर के वचनों से चौंक उठी। अगर कोई हर बार बदलते हालात में अपने ही हित ऊपर रखे और कभी सत्य का अभ्यास न करे, तो उसके अपराधों की गठरी बढ़ती जाएगी और आखिर में परमेश्वर उसे उजागर कर त्याग देगा। जब मैंने देखा कि भाई-बहनों की सुरक्षा खतरे में है और कलीसिया का कार्य प्रभावित हो रहा है, तब भी मैंने सिद्धांतों को तरजीह देकर कलीसिया के कार्य के हिफाजत नहीं की, बल्कि तथाकथित भली इंसान बनने की कोशिश करती रही। भले ही मैंने दूसरों से मान-सम्मान और स्वीकृति पा ली, मगर परमेश्वर की नजर में मैं कुकर्मी थी और आखिर में वह मुझे घृणा कर दंडित करता। इन नतीजों के एहसास से काँपकर मैं अपनी गलत सोच सुधारने के लिए तैयार थी। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का सही मार्ग भी दिखा दिया। परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलकर और बोलकर ही हम दूसरों को शिक्षित करते हुए लाभ पहुँचा सकते हैं। मायने यह नहीं रखता कि हम कैसे बोलते हैं, अपनी बोली में कितनी कठोरता या कोमलता रखते हैं, चतुराई से बात करते हैं या नहीं। सबसे अहम यह है कि हम इस ढंग से बात करें कि भाई-बहनों शिक्षा मिल सके। जब तक कोई सही इंसान है, सत्य स्वीकार सकता है, तब तक उसकी प्रेम पूर्वक मदद करनी चाहिए। अगर वह सत्य नहीं समझता, काम को नुकसान पहुँचाता है, तो हम संगति करके उसे मार्गदर्शन और सहारा दे सकते हैं। अगर संगति के बाद भी असल में कोई सुधार नहीं होता, तो हम उससे निपटकर काट-छाँट कर सकते हैं और उसकी समस्या का सार उजागर कर सकते हैं। भले ही यह सुनने में बुरा लगे या उसकी भावनाओं को आहत करे, यह तरीका उसे वाकई लाभ और सहारा दे सकता है। अगर ऐसे लोग मसीह-विरोधी हैं या कलीसिया का कार्य बिगाड़ने वाले कुकर्मी हैं, तो हमें उन्हें उजागर कर रोकने या बड़े अगुआ को रिपोर्ट करने का फैसला करना चाहिए ताकि कलीसिया का कार्य सर्वोपरि रहे और भाई-बहन परेशानी और धोखे से बचे रहें। सिर्फ इसी तरह काम करके हम वाकई सत्य का अभ्यास कर सच्ची मानवता और दया दिखा सकते हैं। मैंने भी अपना गलत नजरिया सुधारा। मुझे लगता था कि सिद्धांतों का उल्लंघन करने पर किसी की रिपोर्ट करना चुगलखोरी, विश्वासघात या गद्दारी है। यह गलत नजरिया था। ऐसा करके हम वाकई कलीसिया के कार्य की सुरक्षा करते हैं और यह नेक कर्म है। हकीकत में जब मैंने देखा कि ली मिंग की समस्या गंभीर है और इससे बेबस होकर भाई-बहनों का नुकसान हो रहा है, तो यह कलीसिया के कार्य से संबंधित सिद्धांतों का मसला था और मुझे इस बारे में फौरन बड़े अगुआ को बताना चाहिए था या फिर उसकी रिपोर्ट करनी चाहिए थी। यह दगाबाजी नहीं होती; बल्कि यह कलीसिया के कार्य की सुरक्षा होती। यह एहसास होने के बाद मेरी कई चिंताएं खत्म हो गईं और मुझे काफी सुकून मिला।
बाद में किसी ने रिपोर्ट की कि एक भाई लगातार आलसी होकर कड़ी मेहनत से बच रहा था, दूसरों के बताने और कई बार निपटे जाने के बावजूद वह इसे स्वीकार नहीं रहा था। सिद्धांतों के आधार पर हमने फैसला किया कि उसे बर्खास्त करना और उसके मसलों का विश्लेषण करना जरूरी है ताकि वह आत्म-चिंतन कर सके। उस समय मैंने सोचा : “किसी की समस्याओं का विश्लेषण करना उसके लिए बुरा हो सकता है। क्यों न खुद अलग रहकर अपने सहयोगी को उससे संगति करने दूँ। वरना उसके मन में मेरी गलत छवि बन जाएगी।” लेकिन मुझे तुरंत एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और छवि बचाने की कोशिश कर रही हूँ। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। समस्याओं का सामना होने पर हमें अपनी इच्छाओं और प्रतिष्ठा को परे रखकर और कलीसिया के हितों को तरजीह देकर परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देना चाहिए। यही एक उचित रास्ता है, इसे ही परमेश्वर सराहेगा। परमेश्वर की इच्छाओं को समझने के बाद मैं उत्साहित हो गई, लिहाजा मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार उस भाई के व्यवहार का विश्लेषण किया। इस तरह अभ्यास कर मुझे काफी सुकून मिला। मुझे लगा कि सत्य का अभ्यास करके ही हमें सच्ची शांति और खुशी मिल सकती है।
इस एहसास के बाद मेरा मन परमेश्वर के प्रति आभार से भर उठा। ये परमेश्वर के ही वचन थे जिन्होंने मुझे दिखाया कि पारंपरिक संस्कृति के अनुसार मिलनसार और सरल होने पर जोर देना कितना बेतुका है और लोगों को यह कितना नुकसान पहुँचाता है। इसने मुझे उस आजादी और सुकून का अनुभव भी कराया जो पारंपरिक संस्कृति के बंधनों से मुक्त होने पर मिलता है। परमेश्वर के उद्धार के लिए उसका धन्यवाद!
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।