आस्था : शक्ति का स्रोत

19 मार्च, 2022

ऐ शान, म्यांमार

पिछले साल की गर्मियों में। मैं ऑनलाइन इसकी छानबीन कर रहा था, दूसरों ने भी मेरे साथ सत्य पर बहुत सी सहभागिता की, जैसे, प्रभु कैसे वापस आता है, परमेश्वर की वाणी सुनकर प्रभु का स्वागत कैसे करें, झूठे मसीहों में सच्चे मसीह को कैसे पहचानें, परमेश्वर की 6,000 साल की योजना और सत्य के कई अन्य पहलू। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बहुत से वचन भी पढ़े। करीब दो महीनों तक छानबीन करने के बाद मुझे यकीन हो गया सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है। रोमांचित होकर मैंने उसके अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। फौरन अपने परिवार को प्रभु की वापसी का सुसमाचार सुनाने की सोची, ताकि उन्हें परमेश्वर के सामने ला सकूँ। पर उनके साथ सुसमाचार साझा करने का मौका मिलने से पहले ही, मेरे बटालियन कमांडर ने मुझे वापस बुला लिया।

बाद में, मैंने फोन पर उनके साथ सुसमाचार साझा किया। एक बार, मैं और मेरी पत्नी प्रभु के स्वागत पर बात कर रहे थे, तभी उसने पूछा कि मैं चमकती पूर्वी बिजली में विश्वास तो नहीं करता। पादरी ने बताया था कि उसके विश्वासी परिवार त्याग देते हैं, तो मुझे आस्था छोड़ देनी चाहिए। ये सुनकर मुझे बुरा लगा, गुस्सा भी आया। मैंने कहा, "बेवकूफ मत बनो। बिना सोचे-समझे पादरी पर यकीन कैसे कर सकती हो? उनके ऐसा कहने का कोई आधार है? मैं चार महीनों से इसमें विश्वास कर रहा हूँ। क्या मैंने तुम्हें त्याग दिया? क्या मैं परिवार की परवाह नहीं करता? ये तो सीसीपी है जो विश्वासियों को गिरफ्तार करके सताती है, उसने कई विश्वासियों के परिवार बिखेर दिये। वे सच को कैसे तोड़-मरोड़ सकते हैं कि हम परिवारों को नहीं चाहते? ये सब झूठ है। तुम उनकी अफवाहों और झूठों पर ध्यान नहीं दे सकती।" फिर मैंने कहा, "एक समझदार इंसान को प्रभु के आगमन के विषय पर थोड़ी छानबीन करनी चाहिए कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन परमेश्वर की वाणी हैं या नहीं। रोमियों 10:17 में कहा गया है, 'अत: विश्‍वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है।' प्रभु यीशु ने ये भी कहा, 'मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं' (यूहन्ना 10:27)। परमेश्वर की भेड़ उसकी वाणी सुनती है, हमें प्रभु के आगमन से जुड़ी हर बात की जाँच करनी चाहिए और परमेश्वर की वाणी सुननी चाहिए। परमेश्वर के वचन सत्य हैं—ये सामर्थ्य और अधिकार से परिपूर्ण हैं। ये किसी इंसान से नहीं आ सकते। मुझे पक्का यकीन है सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है, मैंने देखा है उसके सभी वचन सत्य हैं, परमेश्वर की वाणी हैं।" उसने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। मैंने बात ख़त्म करते हुए फ़ोन काट दिया। कुछ हफ़्तों बाद मैंने दोबारा फ़ोन किया, पर उसने फ़ोन बंद कर दिया। फिर शाम की सभा के समय वो मुझे बार-बार कॉल करने लगी। सभा में मेरा मन बिल्कुल नहीं लगा, परमेश्वर के वचनों का कोई प्रबोधन नहीं मिला। मुझे नहीं पता था अब क्या करूं, तो इन हालात से निकलने में मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद, सोचा भले ही मैं अभी परमेश्वर की इच्छा नहीं समझा, पर मुझे आस्था रखनी होगी। इसके आगे बेबस न होकर मुझे सभा पर ध्यान लगाना होगा। तब थोड़ा सुकून महसूस हुआ।

फिर दूसरे दिन, मेरी पत्नी ने अचानक कॉल करके कहा, "हमारी बेटी बीमार है, उसके इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, पर तुमने चमकती पूर्वी बिजली का उपदेश सुनने के लिए फ़ोन खरीदा। आस्था के कारण ही तुम अपनी बेटी का ध्यान नहीं रख रहे।" मैं जानता था उसके ऐसा कहने की वजह उसकी ये इच्छा थी कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास न करूं। पैसों की ज़रूरत होती तो हम उधार ले सकते थे, बच्चों का बीमार होना तो आम बात है। मैं विश्वासी होता या न होता, वो बीमार हो ही सकती थी। मैं भी उसकी भलाई चाहता था। मेरी पत्नी मुझे गलत कैसे समझ सकती है? वो हमारी बच्ची की बीमारी का बहाना बनाकर मुझे आस्था से दूर रखना चाहती थी, इस बात से मैं बहुत परेशान हो गया। मेरे कुछ कहने से पहले, उसने कहा, "तुम विश्वास करने पर अड़े रहे, तो आगे हम परिवार की तरह नहीं रह पाएंगे।" यह बात मेरे दिल को चीर गई। मैं सोचने लगा, हमारी बेटी इतनी छोटी है फिर भी क्या मेरी पत्नी को तलाक चाहिये। मुझे बुरा लगा, तो कुछ भी कहे बिना फ़ोन काट दिया। उसकी बात लगातार मुझे बुरी तरह परेशान करती रही, फिर मैं परमेश्वर को दोष देने लगा। मैं सोच रहा था, उसने हमारे परिवार की सुख-शांति और बेटी की सेहत की रक्षा क्यों नहीं की।

कुछ दिन तक, सभाओं में मैं खुद को शांत नहीं कर पाया, सहभागिता के लिए कोई प्रबोधन भी नहीं मिला। मैंने घुटने टेककर कहा, "परमेश्वर, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है। मेरी पत्नी ने जो बातें कहीं, उससे मैं निराश और कमज़ोर हो गया हूँ। मेरा साथ दो, अपनी इच्छा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।" शाम को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा या अपने अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य है। परंतु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, फिर भी उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई हैं, और यहोवा ही उन्हें वापस लेने वाला है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने यह विश्वास बनाए रखा। अपने अनुभव में, तुम चाहे परमेश्वर के वचनों के द्वारा जिस भी शोधन से गुजरो, परमेश्वर को मानवजाति से जिस चीज की अपेक्षा है, संक्षेप में, वह है परमेश्वर पर उनका विश्वास और प्रेम। इस तरह से कार्य करके जिस चीज को वह पूर्ण बनाता है, वह है लोगों का विश्वास, प्रेम और अभिलाषाएँ। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो आवश्यक होता है कि तुम विश्वास बनाए रखो, रवैया दृढ़ रखो और गवाह बनो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँचा, तो परमेश्वर उसे दिखाई दिया और उससे बोला। अर्थात्, केवल अपने विश्वास के भीतर से ही तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे, और जब तुम्हारे पास विश्वास होगा तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा। विश्वास के बिना वह ऐसा नहीं कर सकता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। उसके वचनों से पता चला कि उसके राज्य में जाने का मार्ग इतना आसान नहीं है। इसमें कई मुश्किलों और परीक्षणों का सामना करना पड़ता है, ऐसी चीज़ें होंगी जो हमें पसंद नहीं। यह जानने को इन सबसे गुजरना होगा कि हमें परमेश्वर में सच्ची आस्था है या नहीं, हम उसके लिए ज़ोरदार गवाही दे सकते हैं या नहीं। मेरी पत्नी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में मेरी आस्था की विरोधी थी, पहले तो मुझमें उसके सामने गवाही देने की आस्था थी। पर तलाक की धमकी पाकर और हमारी बच्ची के बीमार होने पर मैं शिकायत करने लगा। परिवार की कुशलता और बच्ची की रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोष दिया। समझ आ गया कि मुझमें सच्ची आस्था नहीं थी। एक-दो बुरी चीज़ें हुईं, तो परमेश्वर को दोष देने लगा—ये कैसी गवाही थी? फिर सोचने लगा : परिवार में कुछ बुरा होते ही परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म क्यों होने लगी? मैं परमेश्वर को दोष क्यों देने लगा?

मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिससे मुझे आस्था पर मेरी गलत सोच की कुछ समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! ... तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। यहां मुझे जवाब मिल गया। आस्था में मेरा लक्ष्य और मेरी सोच गलत थी। मेरी आस्था सत्य पाने के लिए नहीं, परिवार की सुरक्षा और एक आसान जिंदगी पाने के लिए थी। मैं बस परमेश्वर की गोद में अनुग्रह का आनंद लेना चाहता था। जब तक उसकी आशीषें मिलती रहीं, मैंने आस्था से अनुसरण किया, पर जब घर में समस्याएं हुईं, मेरी बच्ची बीमार हुई, तो परिवार की रक्षा न करने पर परमेश्वर को दोष दिया। मुझमें सचमुच आस्था नहीं थी। मुझे तो ये भी लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है, आस्था के लिए परमेश्वर को मुझे आशीष देनी चाहिए, मेरे साथ ऐसी घटनाएँ नहीं होनी चाहिए। फिर एहसास हुआ कि मेरी आस्था पूरी तरह से आशीष पाने पर टिकी थी, मैं इस परीक्षा में खरा नहीं उतर पाया। आस्था रखना, आराधना करना सही है। ये वैसा ही है जैसे बच्चे माता-पिता की सेवा करते हैं—हम परमेश्वर से लेनदेन नहीं कर सकते। पर मैं परमेश्वर का अनुग्रह, उसकी आशीष, और बहुत कुछ पाना चाहता था। मुझमें विवेक या समझ नहीं थी। मैं वैसा ही इंसान था जिसकी बात परमेश्वर कर रहा था—बिल्कुल हृदयहीन, भावनाहीन। ऐसी आस्था उसकी इच्छा के अनुरूप कैसे हो सकती है? तब समझ आया कि ये कष्टकर चीज़ें परमेश्वर की आज्ञा से हुई थीं। मैं इन सबसे इसलिए गुजरा ताकि आस्था पर मेरी गलत सोच उजागर हो, और मैं परमेश्वर के वचनों पर आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूँ, अपनी गलत सोच बदलूँ, परमेश्वर में सच्ची आस्था पा सकूँ। यह परमेश्वर का शुद्धिकरण और उद्धार था। परमेश्वर की इच्छा समझकर मेरी आस्था मजबूत होगी। मैं परिवार की शांति और सुकून के पीछे नहीं भागना चाहता था। मुझे सही समय पर सभाओं में होना चाहिए। मैंने परमेश्वर के आगे संकल्प लिया कि अब आगे चाहे जो भी हो, मैं सत्य का अनुसरण करता रहूँगा।

उसके बाद सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "यह 'विश्वास' शब्द किस चीज को संदर्भित करता है? विश्वास सच्चा भरोसा और ईमानदार हृदय है, जो मनुष्यों के पास तब होना चाहिए जब वे किसी चीज को देख या छू न सकते हों, जब परमेश्वर का कार्य मनुष्यों की धारणाओं के अनुरूप न होता हो, जब वह मनुष्यों की पहुँच से बाहर हो। मैं इसी विश्वास की बात करता हूँ। कठिनाई और शोधन के समय लोगों को विश्वास की आवश्यकता होती है, और विश्वास वह चीज है जिसके बाद शोधन होता है; शोधन और विश्वास को अलग नहीं किया जा सकता। परमेश्वर चाहे कैसे भी कार्य करे और तुम्हारा परिवेश कैसा भी हो, तुम जीवन का अनुसरण करने, सत्य की खोज करने, परमेश्वर के कार्य के ज्ञान को तलाशने, उसके क्रियाकलापों की समझ रखने और सत्य के अनुसार कार्य करने में समर्थ होते हो। ऐसा करना ही सच्चा विश्वास रखना है, ऐसा करना यह दिखाता है कि तुमने परमेश्वर में अपना विश्वास नहीं खोया है। तुम केवल तभी परमेश्वर में सच्चा विश्वास रख सकते हो, जब तुम शोधन द्वारा सत्य का अनुसरण करते रहने में समर्थ होते हो, जब तुम सच में परमेश्वर से प्रेम करने में समर्थ होते हो और उसके बारे में संदेह विकसित नहीं करते, जब तुम उसे संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करते हो चाहे वह कुछ भी करे, और जब तुम गहराई में उसकी इच्छा का पता लगाने में समर्थ होते हो और उसकी इच्छा के प्रति विचारशील होते हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। इन वचनों से मैंने जाना, हालात अच्छे हों या बुरे, हम परमेश्वर पर संदेह कर, उसे दोष नहीं दे सकते। हम कितने भी कष्ट झेलें, हमें परमेश्वर की इच्छा खोजनी होगी, उसके साथ खड़े होकर वचनों के अनुसार काम करके उसे संतुष्ट करना होगा। यही सच्ची आस्था है। इस समझ से मुझे अभ्यास का मार्ग और परमेश्वर के अनुसरण की आस्था मिली।

मैंने अपनी माँ को कॉल करके पूछा कि मेरी पत्नी कैसी है। माँ ने बताया, वो हमारे घर की देखभाल करने के बजाय अपने मायके में बैठी है, लगता है जैसे वो बिल्कुल बदल गई है। माँ ने यह भी कहा कि पादरी के मुताबिक मैं गलत मार्ग हूँ मेरी आस्था तो प्रभु यीशु से विश्वासघात है। पादरी ने मेरी माँ से कहा कि चमकती पूर्वी बिजली को छुड़वाकर मुझे कलीसिया वापस भेजे। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं सोचने लगा कि याजक-वर्ग ऐसे झूठ क्यों फैलाएगा। उनकी भ्रामक अफवाहों की वजह से ही पत्नी ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर मेरी आस्था का विरोध किया। मैं उन्हें अपना रास्ता रोकने नहीं दे सकता था। वो चाहे जो भी कहें, मुझे उनकी बात नहीं सुननी। ठीक से सोचने के बाद, मैंने अपनी माँ से कहा, "माँ, याजक-वर्ग की उन बातों पर ध्यान मत दो। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने बहुत से सत्य व्यक्ति किये हैं, यह परमेश्वर की वाणी है। वह लौटकर आया प्रभु यीशु है। वो और प्रभु यीशु एक ही परमेश्वर हैं, उसमें मेरी आस्था प्रभु यीशु से धोखा नहीं है। यह मेमने के पदचिह्नों पर चलना और प्रभु का स्वागत करना है।" उस वक्त उसने कोई जवाब नहीं दिया।

फिर मैंने पत्नी को कॉल किया। उसे नाराज पाकर हैरान रह गया। उसने कहा, "मुझे कॉल क्यों कर रहे हो? तुम्हें हमारी बिल्कुल परवाह नहीं। अभी के अभी, अपनी पसंद चुनो। चमकती पूर्वी बिजली या हमारा परिवार? मेरे बारे में नहीं सोचते तो मत सोचो, हमारी बच्ची की तो सोचो, वो बस आठ महीने की है।" मैं परेशान हो गया। कुछ समझ नहीं आया। मैं बस सभाओं में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़ता था। सही मार्ग पर चल रहा था। मैंने कभी नहीं कहा कि मुझे अपनी बेटी या परिवार की परवाह नहीं है। वो इस तरह मुझे चुनने को मजबूर क्यों कर रही है? फिर मुझे लगा, उसे पता नहीं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में आस्था क्या है, वो मेरी नहीं सुनेगी। अपनी आस्था छोड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है, मैं उसका अनुसरण करता रहूँगा, चाहे मेरी पत्नी जो भी कहे। जब उसने देखा मैं जवाब नहीं दे रहा हूँ, तो फ़ोन रख दिया। मेरी पत्नी की बातें मुझे परेशान कर रही थीं, पर मुझे पता था कि मैं पहले की तरह परमेश्वर को दोष नहीं दे सकता। मुझे आस्था रखनी होगी, परमेश्वर पर भरोसा करना होगा। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का ये भजन सुना, "सत्य के लिए तुम्हें सब कुछ त्याग देना चाहिए।" "तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए समर्पित होना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा, और अधिक सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अधिक कष्ट उठाने होंगे। यही तुम्हें करना चाहिए। एक शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए, और क्षणिक आनन्द के लिए तुम्हें अपने जीवन की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है, और तुम्हें अपने जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम एक घिनौना जीवन जीते हो और किसी भी उद्देश्य को पाने की कोशिश नहीं करते हो तो क्या तुम अपने जीवन को बर्बाद नहीं कर रहे हो? ऐसे जीवन से तुम क्या हासिल कर पाओगे? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों को छोड़ देना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। परमेश्वर के वचनों से मेरी आस्था मजबूत हुई। मैं जानता था, एक विश्वासी के रूप में, सत्य खोजना ही जीने का एकमात्र सार्थक तरीका है। घर की थोड़ी सी समस्या या दैहिक परेशानियों के कारण मैं अपनी आस्था नहीं छोड़ सकता। परमेश्वर में आस्था और उसकी आराधना के बिना जीवन का कोई अर्थ या मूल्य नहीं होगा। मेरा परिवार मुझे नहीं रोक सकता। मेरे परिवार और बच्चे की सेहत परमेश्वर के हाथों में है, तो उसे ही सौंपकर मुझे उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। मुझे हर हाल में सत्य खोजना और कर्तव्य निभाना था।

मुझे अपना आईडी कार्ड रिन्यू करवाने के लिए घर जाना पड़ा। लगा उनके साथ सुसमाचार साझा करने का ये अच्छा मौका है। मैं बहुत खुश था। थोड़ा फ़िक्रमंद भी था, क्योंकि मेरी माँ और पत्नी मेरी आस्था के ख़िलाफ़ थे, वहां सभी जानते थे मैं किसमें विश्वास करता हूँ। स्थानीय याजक-वर्ग को मेरे आने का पता चला, तो वे मेरा रास्ता जरूर रोकेंगे। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था वहां क्या हो सकता है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा, "हे परमेश्वर! मैं घर जाकर अपने परिवार को सुसमाचार सुनाना चाहता हूँ, पर वे मेरा विरोध करते रहे हैं, याजक-वर्ग रुकावट डालता रहा है। मुझे डर है वे लोग मेरी सहभागिता नहीं सुनेंगे। परमेश्वर, तुम पर भरोसा करके मैं अपने परिवार को तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ। मेरा साथ दो, कोई रास्ता दिखाओ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और भजन सुना : "किसी भी व्यक्ति, विषय और चीज़ का सामना होने पर, परमेश्वर के वचन किसी भी समय तुम्हारे सामने प्रकट होंगे, उसकी इच्छा के अनुरूप कार्य करने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अपना हर काम परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करो और परमेश्वर तुम्हारे हर कार्य में तुम्हारी अगुवाई करेगा; तुम कभी भी रास्ते से नहीं भटकोगे और तुम एक नई रोशनी में रहने के काबिल होगे, तुम्हें कहीं अधिक और नया प्रबोधन मिलेगा। क्या करना है, इस पर विचार करने के लिये तुम इंसानी धारणाओं का इस्तेमाल नहीं कर सकते; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के लिये समर्पित होना चाहिये, एक स्वच्छ हृदय रखना चाहिये, परमेश्वर के सामने शांत रहना चाहिए और गहराई से विचार करना चाहिये। जिसे तुम नहीं समझ पाते हो, उस बात के लिये नाराज़ मत हो; ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर जाओ और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करो। विश्वास करो कि तुम्हारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान है! तुम्हारे पास परमेश्वर के लिये काफ़ी महत्वाकांक्षाएं होनी चाहिये, तुम्हें शैतान के बहानों, इरादों और चालों को अस्वीकार करते हुए तत्परता से खोज करनी चाहिये। निराश मत हो। कमज़ोर मत बनो। दिल की गहराइयों से खोज करो; पूरे लगन से इंतज़ार करो। परमेश्वर के साथ सक्रिय सहयोग करो और अपनी आंतरिक बाधाओं से छुटकारा पाओ" ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर के वचनों का पालन करो तो तुम कभी राह से नहीं भटकोगे')। भजन सुनकर पता चला कि परमेश्वर की इच्छा से ही मुझे घर जाने का मौका मिला। दरअसल, मेरी आस्था कमज़ोर थी, मुझे परमेश्वर की इच्छा की समझ नहीं थी। पर इससे निकलने के लिए उस पर भरोसा करना ही था, "विश्वास करो कि तुम्हारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान है" – यह हिस्सा मन में बस गया। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था दी। मैं सोच रहा था मेरे साथ जो भी होता है, उसकी अनुमति परमेश्वर देता है। अगर मुझे सचमुच परमेश्वर पर भरोसा है, तो वो इन हालात का सामना करने के लिए राह दिखाएगा।

घर पहुंचा, तो पत्नी ने पहले मुझे अनदेखा कर दिया, पर मैं जानता था, ऐसा सिर्फ पादरी के प्रभाव की वजह से था। मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य पर बात करनी ही थी, ताकि उसे सच पता चले, वो पादरी की बातों से गुमराह न हो। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा। फिर सब्र के साथ पत्नी से कुछ दिल से निकली बातें कही, "तुम्हें और माँ को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को जाँचना चाहिए, उसके वचन पढ़ने चाहिए। फिर तुम्हें पता चलेगा यह परमेश्वर की वाणी है, मानवजाति के लिए उसके वचन हैं, वो लौटकर आया प्रभु यीशु है। अगर तुम जांचने या परमेश्वर की वाणी सुनने के बजाय, याजक-वर्ग की अफवाहों और झूठों पर ध्यान दोगी, तो प्रभु का स्वागत कैसे करोगी? प्रभु यीशु ने कहा था, 'माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा' (मत्ती 7:7)। प्रभु भरोसेमंद है। अगर हम सचमुच खोजें, तो परमेश्वर की वाणी सुनकर प्रभु का स्वागत कर सकते हैं।" मुझे हैरानी हुई। उसने मेरी बातें ध्यान से सुनी, पहले की तरह विरोध या बहस नहीं की। इसे परमेश्वर का मार्गदर्शन मान मैंने दिल से उसका धन्यवाद किया, इससे, परमेश्वर के कार्य के बारे में और बताने का आत्मविश्वास जगा।

अगले दिन, मैंने पत्नी और माँ, दोनों को सुसमाचार सुनाया। कहा, "आपको पता है मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को क्यों स्वीकारा? क्योंकि मैंने उसके वचन पढ़े हैं, जाना है कि ये सब सत्य है, परमेश्वर की वाणी है, मुझे यकीन हो गया वो लौटकर आया प्रभु यीशु है। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने लाखों वचन बोले हैं, उसने अपनी 6,000 साल की प्रबंधन योजना और बाइबल के सभी रहस्यों से परदा हटाया है, बताया है कि कैसे मानवजाति मौजूदा समय तक पहुँची, कैसे शैतान ने हमें भ्रष्ट किया, कैसे परमेश्वर मानवजाति को बचाने का काम करता है, कैसे वह हमारे परिणाम और अंतिम मंज़िल तय करता है, कैसे लोग पूरी तरह बचाये जा सकते हैं, कौन राज्य में प्रवेश करेगा और किसे दंड मिलेगा। उसने सब कुछ बताया है। उसने हमें यह सत्य भी बताया है कि कैसे शैतान ने इंसान को भ्रष्ट किया, परमेश्वर के प्रति हमारे विरोध की जड़ क्या है। इतना ही नहीं, उसने वो मार्ग भी दिखाया है जिससे हमारे पाप पूरी तरह स्वच्छ हो जाएंगे। एक-एक शब्द सत्य है, सामर्थ्य और अधिकार से परिपूर्ण है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने यह सब हमें शुद्ध करके बदलने के लिए बताया है, ताकि हमें शैतान की वश से पूरी तरह बचा सके।" फिर मैंने पूछा, "क्या लगता है, कौन सत्य व्यक्त करके लोगों को बचा सकता है? सिर्फ परमेश्वर! लोगों के पास सत्य नहीं होता। सिर्फ मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है।" फिर मैंने आगे कहा, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन अच्छी तरह पढ़ो, तब पता चलेगा कि यह सब सत्य है, परमेश्वर की वाणी है, वही लौटकर आया प्रभु यीशु है! अगर तुम किसी से प्रभु के लौटने की गवाही सुनती हो, फिर भी उसकी छानबीन न करके, पादरी की बातों में आकर उसकी निंदा करती हो, तो प्रभु का स्वागत करने का मौका गँवा दोगी। ये बड़े शर्म की बात होगी।" यह सुनकर, मेरी माँ ने कहा, "हाँ, तुमने सही कहा। परमेश्वर ने-इंसान को बनाया, तो हमें उसकी सुननी चाहिए, लोगों की नहीं।" यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को धन्यवाद दिया। फिर उसने आगे कहा, "जब मैंने पादरी से हमारे परिवार के लिए प्रार्थना करने को कहा, तो उसने कहा, 'तेरा बेटा हमारी बात बिल्कुल नहीं सुनता। बिना हमसे पूछे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण किया। तुम लोग हमारा सम्मान नहीं करते, तो परिवार के मामलों में हमसे मदद मत मांगो, उन्हें खुद ही सुलझाओ।'" ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया! मैंने माँ से कहा, "याजक-वर्ग के सदस्य के नाते, प्रभु की वापसी की हर खबर की छानबीन करने में उन्हें विश्वासियों की अगुआई करनी चाहिए। वे सिर्फ मना नहीं करते, बल्कि विश्वासियों को धमकाते हैं, परमेश्वर की वाणी सुनकर प्रभु का स्वागत करने से रोकते हैं। उनकी असली मंशाएं क्या हैं? क्या वे सभी को अपने चंगुल में जकड़ना नहीं चाहते? प्रभु यीशु ने फ़रीसियों को धिक्कारा था : 'हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो' (मत्ती 23:13)। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, फ़रीसियों ने पागलों की तरह उसका विरोध किया, निंदा की, ताकि वे यहूदी लोगों को अपने पंजों में जकड़ सकें। अंत में उन्होंने प्रभु यीशु को सलीब पर लटका दिया, जिसके कारण परमेश्वर ने उन्हें शाप देकर दंडित किया। आज का याजक-वर्ग उन फ़रीसियों जैसा ही है। वे सत्य खोजने और छानबीन करने से मना कर विश्वासियों को सच्चे मार्ग से दूर रखते हैं। वे परमेश्वर के शत्रुओं जैसा काम कर रहे हैं! अंत में उन्हें भी शाप देकर दंडित किया जाएगा।"

फिर मैंने यह गवाही दी कि कैसे हमें प्रभु का स्वागत करने के लिए परमेश्वर की वाणी सुननी चाहिए, यही बुद्धिमान कुँवारी बनकर प्रभु का अभिवादन करने का तरीका है। मैंने यह भी कहा, "मुझे पूरी उम्मीद है तुम दोनों सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की छानबीन करोगे, उसके वचन पढ़ोगे, ताकि जान सको कि वह परमेश्वर की वाणी है। मैं तुम्हें याजक-वर्ग द्वारा गुमराह होकर, उनके काबू में आते नहीं देख सकता। तुम्हारे पास समझ होनी चाहिए।" मेरी माँ ने मेरी बात सुनकर कहा, "तुम सही कहते हो। मैंने हमेशा याजक-वर्ग की सुनी, इस डर से कि तुम गलत मार्ग पर चल रहे हो। तुम्हें सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करने से रोकती रही। पर तुम्हारी सहभागिता बाइबल के अनुसार है, चीज़ें दरअसल वैसी नहीं हैं जैसा याजक-वर्ग उन्हें दिखाता है। मैं इस पर गौर करूंगी।" वो पूरे समय ध्यान से सारी बातें सुनती रही। फिर, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़े, फिर परमेश्वर के अनुसरण और इंसान के अनुसरण के बीच अंतर, और परमेश्वर के देह में न्याय कार्य करने के कारण, और उसके अंत के दिनों के कार्य के अर्थ पर संगति की। कुछ बार सहभागिता करने के बाद, दोनों ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। दोनों को परमेश्वर के सामने आते देखना मेरे लिये बेहद रोमांचक था, मैंने दिल से परमेश्वर को धन्यवाद दिया। यह सब परमेश्वर का प्रेम था।

बाद में, मेरी पत्नी ने सब खुलकर बताया। उसने कहा, "मेरा तुम पर दबाव बनाना, तलाक के लिए मजबूर करना, पादरी की बातों का असर था। जब भी मैं कलीसिया जाती, वे कहते कि तुम गलत मार्ग पर हो, तुम्हें वापस लाने को कहते। मुझे लगा उनकी बात सही है, तो मैं लगातार तुमसे झगड़ती रही, तुम्हारी बातें बिल्कुल नहीं सुनी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर और तुम्हारी सहभागिता सुनकर, मैंने जाना कि यह सब मेरी सोच से बिल्कुल अलग है।" फिर उसने कहा, "परमेश्वर के नए कार्य के प्रति अपने रवैये की सोचती हूँ तो डर लगता है। मैं उसके ख़िलाफ़ लड़ रही थी, प्रभु के आगमन के स्वागत का मौका भी गँवा दिया था।" उसने मुझसे माफी मांगते हुए कहा, "तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव करना ठीक नहीं था। मुझे माफ कर दो।" जब मैंने पत्नी के मुँह से "माफी" शब्द सुना, तो मेरा दिल भर आया। मैं तो रोने ही लगा। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था।

पर उस अनुभव से, मैं इंसान को बचाने के परमेश्वर के प्रयासों को महसूस कर सका। वो हमारी भ्रष्टता और कमियों को उजागर कर, हमारी आस्था को पूर्ण करने के लिए मुश्किल हालात पैदा करता है। कभी-कभी मैं कष्ट उठाकर कमज़ोर और दुखी महसूस करता हूँ, लेकिन परमेश्वर मेरा साथ नहीं छोड़ता, अपने वचनों से राह दिखाता है। इससे मैं आस्था पर अपनी गलत सोच को समझता और कुछ सत्य जान पाता हूँ, इससे परमेश्वर में आस्था मजबूत होती है। यह सब उसका मार्गदर्शन है! परमेश्वर का धन्यवाद!

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