"विशेषज्ञ" न रहकर मिली बड़ी आज़ादी
जांग वे, चीन मैं एक अस्पताल में डिप्टी चीफ़ ऑर्थोपेडिस्ट के रूप में काम किया करती थी, चालीस साल तक मैंने पूरी लगन से यह काम किया, हड्डियों...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
किन लीन, चीन
अक्तूबर 2018 में एक दिन, मैं अपनी बाइक से एक सभा में जा रही थी, तभी एक स्टील पाइप घसीटती हुई एक कार अचानक मेरे पीछे आई, और ठोकर मारकर मेरी बाइक और मुझे ज़मीन पर गिरा दिया। गिरते ही मैं बेहोश हो गयी। होश आने पर मुझे सीने की बायीं ओर दर्द महसूस हुआ, सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। कसूरवार ड्राइवर मुझे जांच के लिए अस्पताल ले गया, डॉक्टर ने मुझे बताया कि मेरी बायीं ओर की छठी पसली में फ्रैक्चर हो गया है, लेकिन उसने मुस्कराकर मुझसे कहा, "यह दुर्घटना देखने में बुरी लग रही है, लेकिन दरअसल यह सौभाग्य की बात है।" उसने बताया, "आपके बायें फेफड़े में एक ट्यूमर है। अगर दुर्घटना नहीं हुई होती, तो इसका पता ही नहीं चलता। मेरा सुझाव है कि आप तुरंत किसी बड़े अस्पताल में सर्जरी करवायें। इंतज़ार करेंगी तो कैंसर फ़ैल जाएगा, फिर बहुत देर हो जाएगी।" यह सुनकर मुझे झटका लगा। मैं कमज़ोर पड़कर कुर्सी पर ही निढाल पड़ गयी। डॉक्टर ने बड़ी तसल्ली देते हुए कहा, "आप ठीक हो जाएंगी। शायद यह ट्यूमर मामूली हो। अब हमारे पास ऐसी बीमारियों के इलाज के लिए बहुत उन्नत दवाएं हैं।" मैंने सोचा, "यकीनन, यह घातक नहीं होगा। इतने वर्षों की अपनी आस्था में, मैं अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ। परमेश्वर मेरी देखभाल करेगा।" यह ख़याल आते ही मैंने थोड़ी शांति महसूस की। फिर मेरे पति ने भी मुझे सांत्वना दी : "घबराओ मत। उस अस्पताल में जांच के बढ़िया उपकरण नहीं थे, हो सकता है उनकी बात गलत हो। चलो, एक बड़े अस्पताल में चलकर जांच करवाते हैं। शायद कुछ भी न हो। और तुम परमेश्वर में भी तो विश्वास रखती हो न? अगर तुम्हें कुछ हुआ भी तो परमेश्वर तुम्हारी देखभाल करेगा।" उस वक्त, मुझे लगा कि शायद डॉक्टर ने गलत कहा था, परमेश्वर मुझे कैंसर नहीं होने देगा।
दो दिन बाद, मेरा छोटा भाई और बहन मुझे एक बड़े अस्पताल ले गये, लेकिन यह जानकर मुझे बड़ा झटका लगा कि जांच से इसके कैंसर ट्यूमर होने की पुष्टि हुई है, और कैंसर दूसरे चरण में पहुँच चुका है। डॉक्टर ने सुझाया कि मैं सर्जरी और फिर कीमोथेरेपी के लिए अस्पताल में ही रहूँ। उसने कहा कि अगर मैंने इंतज़ार किया तो यह आख़िरी चरण में पहुँच जाएगा, फिर वे कुछ भी नहीं कर पायेंगे। उस वक्त मैं उस सच को स्वीकार नहीं कर पायी। अपनी आस्था के वर्षों में मैं अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ, बहुत कष्ट होने पर भी कभी किसी चीज़ को अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने दिया, मैं मुश्किलों में भाई-बहनों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। मैं दिल लगाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाया, फिर मुझे ऐसा गंभीर रोग कैसे हो गया? परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा था? इस बारे में सोचकर मैं बहुत ज़्यादा दुखी हो गयी। फिर मैंने एक साथी मरीज़ को यह कहते हुए सुना, "मेरी सर्जरी साल भर पहले हुई थी, लेकिन चीरे के घाव में अभी भी दर्द होता है। न सिर्फ काफी पैसे लगे, ये काफी दुखदायी भी था।" उसने यह भी कहा कि उसके वार्ड में एक बुज़ुर्ग हैं, जो सर्जरी के तीन दिन बाद बिस्तर से उठकर चल-फिर रहे थे कि अचानक गिर पड़े, और खत्म हो गए। उसकी यह बात सुनकर मैं सचमुच निराश हो गयी, मुझे लगा मेरी सारी उम्मीद की चूर-चूर हो गयी है। अगर मेरी सर्जरी कामयाब नहीं हुई, मैं मर गयी, और हमारा सारा पैसा खर्च हो गया, तो मेरा परिवार गुज़ारा कैसे करेगा? दुखी होकर मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, उसकी इच्छा समझने के लिए मार्गदर्शन माँगा। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद किया : "अगर मनुष्य कायरता और भय के विचार रखते हैं तो ऐसा इसलिए है कि शैतान ने उन्हें मूर्ख बनाया है क्योंकि उसे इस बात का डर है कि हम विश्वास का पुल पार कर परमेश्वर में प्रवेश कर जायेंगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 6')। सच है। जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथ में हैं, इसलिए सर्जरी का जो भी परिणाम निकले, मुझे परमेश्वर में आस्था रखनी होगी और उसके सहारे इसका मुकाबला करना होगा। मुझे सर्जरी के लिए अस्पताल में दाखिल कर दिया गया, सर्जरी पूरी करने में चार घंटे लगे। जब मुझे होश आया, तो नर्स ने खुश होकर कहा, "आपकी सर्जरी बहुत कामयाब रही।" मैं जान गयी कि बेशक परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा था, मैंने मन-ही-मन उसका धन्यवाद किया। करीब 20 दिन बाद, मुझे डिस्चार्ज कर दिया गया।
घर पहुँचकर मुझे हैरत हुई कि इतनी जल्दी ऑक्सीजन हटा दिये जाने के बाद मुझे सांस लेने में मुश्किल हो रही है। लगा मैं सिर्फ सांस बाहर छोड़ सकती हूँ, अंदर नहीं ले सकती, चीरे में से पीले रंग का द्रव निकलने लगा। मुझे बहुत दर्द हो रहा था। खाने-पीने के बाद मुझे खांसी होती, तो घर के लोगों को मेरे चीरे को संभालने में मदद करनी पड़ती। अगर मैं पीठ के बल लेटती, तो सांस नहीं ले पाती, इसलिए मुझे बैठे-बैठे सोना पड़ता। एक-एक दिन भारी पड़ रहा था। मैं सोच रही थी, ये दुखदायी दिन कब तक चलेंगे, परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा है, मुझे इतना कष्ट क्यों हो रहा है। फिर ये भी लगा कि अगर मुझे कीमोथेरेपी लेनी पड़ी, तो शायद हालत और भी बदतर होगी। मैं इतनी कमज़ोर हो गयी कि परमेश्वर में मेरी आस्था थोड़ी कम हो गयी। उसके वचन पढ़ते समय, मैं उसके सामने शांत नहीं बैठ पाती, मेरे पास उससे प्रार्थना करने के लिए कुछ भी नहीं था।
एक दिन, कलीसिया की एक अगुआ मुझसे मिलने आई, उन्होंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे पढ़कर सुनाया। "केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है" के अंतिम पैराग्राफ में यह अंश है, "सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शुद्धिकरण मनुष्य की वास्तविक परीक्षा और वास्तविक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शुद्धिकरण के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य को पूरा कर सकता है" (वचन देह में प्रकट होता है)। अगुआ ने यह संगति साझा की : "परमेश्वर की अनुमति से ही किसी गंभीर रोग का सामना करते हैं। वह हमें शुद्ध कर हमारे भ्रष्ट स्वभाव, हमारे गलत मंसूबों और मिलावटों को बदलना चाहता है। जब बतौर विश्वासी हम शारीरिक रूप से स्वस्थ महसूस करते हैं, तो हम जोश के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। लेकिन जब हम बीमार होकर कष्ट झेलते हैं, तो परमेश्वर को गलत समझ कर उसे दोष देते हैं। क्या यह परमेश्वर के प्रति सौदे का रवैया नहीं है? यह उसके सामने समर्पण कैसे है?" परमेश्वर के वचन और अगुआ की संगति सुनकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मैं यह रोग इसलिए नहीं झेल रही थी कि परमेश्वर चाहता था कि मैं कष्ट झेलूँ, बल्कि यह मेरे शुद्धिकरण और बदलाव के लिए था। मैं न कोई सबक सीख रही थी, न आत्मचिंतन कर रही थी, बल्कि रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोष दे रही थी। मैं समझ गयी कि ये बेतुकी बात थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर मनुष्य को परिवार के एक सदस्य के रूप में देखता था, फिर भी मनुष्य परमेश्वर से एक अजनबी-सा व्यवहार करता था। परन्तु परमेश्वर के कार्य की एक समयावधि के पश्चात्, मनुष्य की समझ में आ गया कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। लोग जानने लगे थे कि वही सच्चा परमेश्वर है; वे यह भी जान गए थे कि वे परमेश्वर से क्या प्राप्त कर सकते हैं। उस समय मनुष्य परमेश्वर को किस रूप में देखता था? मनुष्य अनुग्रह, आशीष एवं प्रतिज्ञाएँ पाने की आशा करते हुए परमेश्वर को जीवनरेखा के रूप में देखता था। उस समय परमेश्वर मनुष्य को किस रूप में देखता था? परमेश्वर मनुष्य को अपने विजय के एक लक्ष्य के रूप में देखता था। परमेश्वर मनुष्य का न्याय करने, उसकी परीक्षा लेने, उसका परीक्षण करने के लिए वचनों का उपयोग करना चाहता था। किन्तु उस समय जहाँ तक मनुष्य का संबंध था, परमेश्वर एक वस्तु था जिसे वह अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोग कर सकता था। लोगों ने देखा कि परमेश्वर द्वारा जारी सत्य उन पर विजय पा सकता है, उन्हें बचा सकता है, उनके पास उन चीज़ों को जिन्हें वे परमेश्वर से चाहते थे और उस मंज़िल को जिसे वे चाहते थे, प्राप्त करने का एक अवसर है। इस कारण, उनके हृदय में थोड़ी सी ईमानदारी आ गयी, और वे इस परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार हो गए। ... मनुष्य की वर्तमान अवस्था के संबंध में, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर की एकमात्र इच्छा है कि वह मनुष्य को ये सत्य प्रदान करे, उसके मन में अपना मार्ग बैठा दे, और फिर भिन्न-भिन्न तरीकों से मनुष्य को जाँचने के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करे। उसका लक्ष्य इन वचनों, इन सत्यों, और अपने कार्य को लेकर ऐसा परिणाम उत्पन्न करना है जहाँ मनुष्य परमेश्वर का भय मान सके और बुराई से दूर रह सके। मैंने देखा है कि अधिकांश लोग बस परमेश्वर के वचन को लेते हैं और उसे सिद्धांत मान लेते हैं, उसे कागज़ पर लिखे शब्दों के रूप में मानते हैं, और पालन किए जाने वाले विनियमों के रूप में मानते हैं। जब वे कार्य करते हैं और बोलते हैं, या परीक्षणों का सामना करते हैं, तब वे परमेश्वर के मार्ग को उस मार्ग के रूप में नहीं मानते जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। यह बात विशेष रूप से तब लागू होती है जब लोगों का बड़े परीक्षणों से सामना होता है; मैंने किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की दिशा में अभ्यास करते नहीं देखा। इस वजह से, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति अत्यधिक घृणा एवं अरुचि से भरी हुई है!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत सटीक रूप से उजागर की। मैं सत्य का अनुसरण करने या परमेश्वर का भय और आज्ञा मानने के लिए विश्वासी नहीं बनी, बल्कि मैं अपने कष्टों और कड़ी मेहनत के बदले उसकी कृपा और आशीष चाहती थी। बीते समय के बारे में सोचूँ तो विश्वासी बनने के बाद से मैं परमेश्वर को एक तरह का जादुई ताबीज़ मान रही थी, यह सोचकर कि अगर मैं परमेश्वर के लिएखुद को खपाउंगी, तो वह मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देगा। जब मैं स्वस्थ थी, मेरा परिवार खुशहाल था, तो मैं कलीसिया द्वारा सौंपे हर काम को स्वीकारने के लिए तैयार रहती थी। मैं कुछ भी सह सकती थी, मैं आस्था से सराबोर थी। लेकिन फेफड़े में कैंसर का पता चलने पर, मैं नकारात्मक हो गयी, यह सोचकर कि मेरी कड़ी मेहनत के कारण, परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए, मुझे कोई गंभीर रोग नहीं होना चाहिए, मैंने परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष दिया। मैंने देखा कि मैं अपने त्याग का प्रयोग परमेश्वर से सौदा करने और उसके विरुद्ध लड़ने के लिए पूंजी की तरह कर रही थी। यह किसी भी तरह का सम्मान कैसे हो सकता है? परमेश्वर ने मुझे अपने परिवार में शामिल किया, उसके उद्धार का लक्ष्य बनाया, लेकिन मैं उसे जीवनरक्षक नैया समझ बैठी, बस उससे फायदा लेना चाहा। ये किस तरह की विश्वासी थी मैं? यह परमेश्वर के साथ सौदा करने, उसका फायदा उठाने और उसे धोखा देने के सिवाय कुछ नहीं था। मैं बहुत खुदगर्ज़ और घिनौनी थी! आस्था के इतने वर्षों में, मैंने इतना सुकून पाया, उससे इतने आशीष पाये, उसके वचनों का सिंचन और पोषण पाया। उसने मुझे इतना कुछ दिया। मैं उसके प्रेम का मूल्य चुकाना तो दूर रहा, हर मोड़ पर उससे मांग कर रही थी। जब मुझे मेरी माँगी चीज़ नहीं मिली, तो मैंने उसे गलत समझकर शिकायत की। मुझमें सच में ज़मीर और समझ नहीं थी। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं बीमार इसलिए पड़ी कि परमेश्वर, आस्था में आशीषों के पीछे भागने के मेरे गलत नज़रिये को सुधार सके, मैं इस लायक बन सकूँ कि सत्य का अनुसरण कर सकूँ, इन भ्रष्टताओं और अशुद्धियों को छोड़ सकूँ। यह परमेश्वर का प्रेम था! मैंने बहुत दोषी महसूस किया, और परमेश्वर के मुश्किल प्रयासों को विफल नहीं होने देना चाहती थी। मुझे लगा कि अब मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करने को तैयार हूँ। एक बार सब समझ लेने के बाद, मुझे बहुत सुकून मिला, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए हृदय को शांत कर पाई। धीरे-धीरे मेरा दर्द कम हो गया।
मेरे पहले कीमो इलाज का वक्त जल्द आ गया। मेरे वार्ड के दूसरे मरीज़ों को मतली हो रही थी, वे उल्टी कर रहे थे, लेकिन थोड़ी उल्टी जैसा लगने के बावजूद मेरी हालत उनके जितनी खराब नहीं थी। वे सब ईर्ष्या करते हुए बोले कि मैं भाग्यशाली हूँ। मेरा दिल जानता था कि परमेश्वर मेरी देखभाल कर रहा है। लेकिन तीन कीमो के बाद, मैं बहुत कमज़ोर होती जा रही थी, सीधे चल भी नहीं पा रही थी। मेरी भूख मर गयी, खाते ही मुझे उल्टी हो जाती। चौथी बार, दवा शुरू होते ही, मुझे बहुत कष्ट हुआ, पूरे शरीर में कमज़ोरी छा गयी, मेरा पेट मथने लगा, मुझे लगातार पित्त की उल्टी होने लगी। मेरी दृष्टि धुंधली हो गयी, मुझे हर चीज़ दो नज़र आने लगी। लगा जैसे दुनिया घूम रही है। मैं अपना कष्ट बयान भी नहीं कर सकती। न लेटने पर ठीक लगता, न बैठने पर| बेहोशी की हालत में मैंने सुई बाहर निकाल दी। प्रधान नर्स आयी और मेरे पति पर चिल्ला पड़ी, "दवा दूषित नहीं होनी चाहिए। नहीं तो अब तक का किया धरा मिट्टी में मिल जाएगा, इससे जान भी जा सकती है। इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा?" यह सुनकर कि इस चीज़ को छेड़ने से सब खराब हो सकता है, मैंने सोचा, "देखो, हमने पैसे खर्च दिये लेकिन मैं अब भी बेहतर नहीं हुई हूँ। हर एक दिन मेरे परिवार को मेरी देखभाल करनी पड़ती है—मैं उनके लिए एक बोझ बन गयी हूँ, मैं यह भी नहीं जानती कि यह इलाज कारगर होगा या नहीं। इस तरह जीना बहुत दुखदायी है।" उस वक्त मैं बहुत मायूस हो गयी थी, सोच रही थी, क्या इन सबसे छूटकर मर जाना बेहतर नहीं होगा। अपने पति की नज़र बचाकर मैं वार्ड से बाहर निकल गयी, और 12वीं मंजिल की खिड़की के पास बैठकर सोचने लगी, "इस तरह दुख सहते रहने से अच्छा होगा कि मैं कहीं से कूद जाऊँ, छुटकारा पा लूँ।" यह ख़याल आते ही मैं रोने लगी। उसी पल, मेरे पति ने आकर मुझे बाँहों में भर लिया, मुझे खिड़की से नीचे उतारा। बिना कुछ कहे मुझे शांत कराया, "किसी की बात पर क्यों यकीन करती हो? क्या तुम्हें उस परमेश्वर पर भरोसा नहीं है जिसमें तुम्हारी आस्था है?" उनकी बातों से मैंने शर्मिंदा महसूस किया। सच है—बतौर विश्वासी, मैंने क्यों नहीं जाना कि परमेश्वर का सहारा लेना चाहिए? मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को याद किया : "हर व्यक्ति का जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। यदि कोई बीमारी ऊपरी तौर पर प्राणांतक दिखाई देती है, लेकिन परमेश्वर के नज़रिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है')। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर ने बहुत पहले तय कर रखा था कि मेरी आयु कितनी होगी, मैं कब मरूँगी। कैंसर होने के बावजूद, अगर परमेश्वर का मेरे लिए जो उद्देश्य है, वो पूरा न हुआ हो, तो वह मुझे मरने नहीं देगा। अगर उद्देश्य पूरा हो गया हो, तो बिना किसी बीमारी के भी, मैं तय समय पर मर जाऊंगी। यह परमेश्वर का लिखा भाग्य है। लेकिन मैं परमेश्वर के नियम और पूर्वनियति को नहीं समझ पायी थी, इसलिए बीमार हो जाने पर मैं बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं रही। फायदा न करने वाले इलाज पर पैसा बरबाद करने से भी डरती थी, मैं मौत को गले लगाकर उस हालत से दूर भागना चाहती थी। मैं बहुत विद्रोही थी! ये समझने के बाद मैंने बहुत बेहतर महसूस किया, सोचा, "कुछ भी हो जाए, मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के लिए तैयार हूँ।" फिर कुछ कीमो इलाज के बाद, मैं बहुत बेहतर हो गयी, फिर अस्पताल से छूटने पर डॉक्टर ने कहा, "तीन महीने बाद जांच के लिए आइए, अगर सब-कुछ ठीक रहा, तो आपको रेडियोथेरेपी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।" घर पहुंचकर मैं दिन-ब-दिन बेहतर होती गयी और फिर से एक काम संभाल सकी। मेरी पहली जांच में, डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मेरी सेहत तेज़ी से सुधर रही है, सब-कुछ ठीक लग रहा है। मैं खुशी से रो पड़ी, दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया। मुझे पता था, परमेश्वर के प्रेम की कीमत चुकाने के लिए मुझे ठीक से काम करना होगा, शायद वह मेरा कैंसर दूर कर दे, फिर मैं कष्ट से मुक्त हो जाऊँ। इसके बाद अपने काम में मुझे बहुत जोश आया, मेरी आस्था भी बढ़ गयी।
मेरी दूसरी जाँच में, डॉक्टर ने मुझे बताया कि हालत ठीक नहीं लग रही है, कैंसर मेरे सिर के पीछे तक फ़ैल चुका है। मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह सच है। मैं निढाल हो गयी, मेरी आँखों से लगातार आँसू बहने लगे। कैंसर भला कैसे फ़ैल गया? उस बीमारी के जरिये मैं खुद को समझ चुकी थी, मैंने अपने अनुसरण के नज़रिये को सुधार लिया था, दिल लगाकर अपना काम कर रही थी। परमेश्वर ने मेरा कैंसर दूर क्यों नहीं किया? मेरे मन में ये ख़याल आने पर मैंने सचमुच दोषी महसूस किया। क्या यह परमेश्वर को दोष देना नहीं था? इसलिए मैंने मन को शांत कर सोच-विचार किया कि डॉक्टर से कैंसर के लौटने की बात सुनकर, मैं परमेश्वर को दोष दिये बिना क्यों नहीं रह पायी। समस्या के मूल में क्या है? एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "पहला, जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास स्वयं अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति और सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II')। मैं ठीक वैसी ही इंसान थी जैसा परमेश्वर ने बताया, मुझे आशीष पाकर ही अपनी आस्था में प्रेरणा मिलती, ये हिसाब लगाती रहती कि परमेश्वर का आशीर्वाद और शांति कैसे मिलेगी। मैंने कभी नहीं सोचा कि कैसे सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर की आज्ञा मानूँ। मेरे विश्वासी बनने के बाद से मेरे परिवार पर परमेश्वर की कृपा बनी रही, मैं बस इस बात से खुश थी कि मुझे एक सहारा मिल गया है। परमेश्वर से और अधिक आशीष पाने की आशा में मैंने खुद को काम में झोंक दिया। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद मैं शिकायतों से भर गयी, सोचने लगी कि मैंने बहुत ध्यान से काम किया है, इसलिए परमेश्वर को मुझे अच्छी सेहत का आशीर्वाद देना चाहिए। जब डॉक्टर ने कैंसर के किसी दूसरे अंग में फ़ैल जाने की बात कही, तो मैं फिर से परमेश्वर से अनुचित मांगें करने लगी। मुझे लगा कि मैं बीमार होकर भी काम कर रही थी, तो परमेश्वर को मेरी बीमारी दूर कर देनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर से ऐसे पेश आ रही थी मानो वह परमेश्वर नहीं बल्कि मेरा ऋणी हो। मैं उससे लगातार मांग रही थी। मैंने काम किया, कुछ त्याग किये, लेकिन मैंने सच्चे मन से उसे संतुष्ट करने की कोशिश नहीं की। मैं परमेश्वर को मूर्ख बनाने, उसकी कृपा पाने के लिए नाटक कर रही थी, ताकि वह मेरे मन का करे। शैतान का ज़हर जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "अगर कोई लाभ न हो, तो उंगली भी न उठाओ," मेरे जीवन के उसूल थे। मैंने छोटे-से योगदान के लिए बहुत बड़े आशीष चाहे। मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा, मगर सच में उसको अपना दिल नहीं दिया। मैं सहज रूप से स्वार्थी और धूर्त थी। बेशर्म, लालची और तुच्छ इंसान थी! मैंने याद किया कि कम्युनिस्ट पार्टी के पीछा करने और सताने, हम जैसे विश्वासियों की ग़लतफ़हमियों, शिकायतों, विद्रोह और विरोध को सहते हुए, परमेश्वर हमें बचाने के लिए कैसे देहधारी हुआ। उसने हमें शुद्ध करने और बचाने के लिए शांतिपूर्वक सत्य व्यक्त करते हुए असीम अपमान सहा, और हमसे कुछ नहीं माँगा। परमेश्वर का प्रेम बहुत स्वार्थहीन है! मैं जानती थी कि उस बीमारी के पूरे दौर में परमेश्वर मेरे साथ था। जब कभी मैं मायूस और दुखी होती, परमेश्वर मुझे रास्ता दिखाने और मेरी अगुआई करने के लिए वचनों का प्रयोग करता। परमेश्वर का सार बहुत सुंदर और अच्छा है, मेरे लिए उसका प्रेम अद्भुत है। फिर मुझे लगा कि सच में मुझमें ज़मीर नहीं है, मैंने जो कुछ किया उससे परमेश्वर का दिल दुखा। मैंने पौलुस के बारे में भी सोचा, कि उसने सुसमाचार फैलाने के लिए कितने कष्ट सहे, बड़ी कीमत चुकायी, लेकिन वह बस ताज पहनना चाहता था, पुरस्कार पाना चाहता था। उसने यह भी कहा कि धार्मिकता का ताज उसके लिए आरक्षित रखा जाना चाहिए। उसका असली अर्थ यह था कि अगर उसे आशीष नहीं दिये गये, तो इसका मतलब है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। पौलुस के पास आस्था थी, मगर उसने खुद को कभी नहीं जाना, उसका स्वभाव कभी नहीं बदला। अंत में परमेश्वर ने उस दंड दिया। अनुसरण को लेकर मेरा नज़रिया ठीक पौलुस जैसा ही था। मुझे लगा कि आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना स्वाभाविक है, आशीष न मिलने पर मैंने परमेश्वर को दोष दिया। मैं परमेश्वर के विरोध के रास्ते पर थी। मैं जान गयी कि मुझे अपना अनुसरण सुधारना है, वरना परमेश्वर, पौलुस की तरह मुझे भी हटा देगा। मैंने उसी समय परमेश्वर के सामने घुटने टेके और प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं अनुसरण के अपने गलत नज़रिये को छोड़ने के लिए तैयार हूँ, मेरा कैंसर ठीक हो या न हो, मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के सामने समर्पण करूंगी।" इसके बाद से, मैंने हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़े, और उसके सामने मन शांत किया। धीरे-धीरे मेरी हालत सुधर गयी।
फिर दिसंबर 2019 में एक दिन, अस्पताल ने मुझे रेडियोथेरेपी के लिए आने की सूचना दी। दूसरे मरीज़ों ने कहा, रेडिएशन तो बदतर है, यह आपके शरीर को जला देता है, आपके बाल झड़ जाते हैं, यही नहीं, उल्टियाँ होती हैं, चक्कर आता है, भूख मर जाती है। यह सुनकर मैं बहुत डर गयी। दोबारा इन सबसे नहीं गुज़रना चाहती थी। मैंने सोचा कि अगर परमेश्वर मेरा कैंसर दूर कर दे, तो मुझे रेडियोथेरेपी का कष्ट नहीं झेलना पड़ेगा। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से परमेश्वर से कुछ माँग रही हूँ, इसलिए मैंने अपने इरादे छोड़कर, परमेश्वर से प्रार्थना की। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II" का एक अंश, "अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करने से सच में मुझे प्रेरणा मिली। अय्यूब के दिल में परमेश्वर के लिए सच्चा सम्मान था। परमेश्वर से उसे आशीष मिलें या विपत्तियाँ, उसने बिना किसी माँग और अपेक्षा के परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन किया। यह उसका परीक्षण था—उसके पूरे शरीर पर फोड़े हो गये थे, उसे भयानक दर्द था, लेकिन उसने परमेश्वर को दोष देने के बजाय अपनी जन्म के दिन को कोसा, परमेश्वर की गवाही दी और शैतान को नीचा दिखाया। मैं अय्यूब के कदमों पर चलना चाहती थी, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए गवाही देना चाहती थी। रेडिएशन से मुझे जितना भी कष्ट हो, मेरी हालत सुधरे या बिगड़े, मैं परमेश्वर की व्यवस्था के सामने समर्पण करने को तैयार थी, मुझे मरना भी पड़े तो मैं शिकायत नहीं करूँगी।
पहले इलाज के बाद, मुझे थोड़ी उल्टी-सी लगी, मगर मैं हमेशा की तरह अपने काम कर सकी, खा-पी और चल-फिर सकी। दूसरे मरीज़ों को थोड़ा अचरज हुआ, एक ने कहा, "यकीन नहीं होता। हम सबका भी वही इलाज चल रहा है, मगर आप पर कोई असर नहीं दिख रहा है?" यह सुनकर मैंने मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद किया। 45 दिन की रेडियोथेरेपी के बाद, मेरे डॉक्टर ने जांच के नतीजों को देखा तो चौंक गया, "लगता है, आपका कैंसर पूरी तरह गायब हो गया है। कहीं मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रहीं?" उसने रिपोर्ट देखने के लिए विभाग प्रमुख को कॉल किया। कुछ दूसरे डॉक्टरों ने भी इसकी समीक्षा की, सभी चकित हो गये। कैंसर का कोई नामोनिशान नहीं था, कोई सूजन भी नहीं थी। उन्होंने मुझसे कहा कि अगले दिन मुझे डिस्चार्ज दिया जा सकता है। मेरा दिल भर आया, मेरी आँखों से आंसू छलकने लगे, मैं मुश्किल से देख पा रही थी। स्पष्ट हो गया कि यह परमेश्वर का एक चमत्कार था। मैंने यह भी समझ लिया कि मेरा जीवन और मृत्यु सच में परमेश्वर के हाथ में है।
मैं बीमारी के शोधन के दौर से होकर गुज़री, बहुत कष्ट सहे, आंसुओं की धारा बहायी, मुझे परमेश्वर को लेकर कुछ गलतफहमियाँ और शिकायतें थीं। लेकिन इस बीमारी के जरिये ही मैं समझ पायी कि आशीष का अनुसरण करना मेरी आस्था को कलंकित कर रहा था, फिर मैं कुछ हद तक परमेश्वर की आज्ञा मानना सीख पाई। परमेश्वर द्वारा मेरे लिए किये गये अद्भुत कार्य और उद्धार भी देख सकी, अपनी बीमारी के जरिये ही मैंने परमेश्वर के प्रेम और आशीषों का अनुभव किया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ! आगे चाहे आशीष हों या विपत्तियाँ, मैं खुद को परमेश्वर के हाथों सौंपने और उसकी व्यवस्था के साथ चलने को तैयार हूँ, ताकि मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम की कीमत चुका सकूँ।
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जांग वे, चीन मैं एक अस्पताल में डिप्टी चीफ़ ऑर्थोपेडिस्ट के रूप में काम किया करती थी, चालीस साल तक मैंने पूरी लगन से यह काम किया, हड्डियों...
कलीसिया के प्रशासन को उसके मूल रूप में बदलने के बाद, परमेश्वर के घर में अगुआ के हर स्तर के लिए साझेदारी स्थापित की गई थी।
हू किंग सुज़ोउ शहह, अन्हुई प्रांत जब मैंने परमेश्वर के वचनों को यह कहते हुए देखा: "जो अगुवाओं के रूप में सेवा करते हैं वे हमेशा अधिक...
जब मैं छोटी थी, तो मेरी माँ अक्सर मुझसे कहती थी : "एक औरत के लिए अच्छा पति पाने और सामंजस्यपूर्ण परिवार होने से बेहतर कुछ नहीं है। केवल...