परमेश्वर के दैनिक वचन : इंसान की भ्रष्टता का खुलासा | अंश 336
26 नवम्बर, 2020
तुम कहते हो कि तुम देहधारी परमेश्वर को स्वीकार करते हो, और तुम स्वीकार करते हो कि वचन देह में प्रकट हुआ है, फिर भी उसकी पीठ पीछे तुम कुछ चीज़ें करते हो, ऐसी चीज़ें जो उसकी अपेक्षा के ख़िलाफ़ जाती हैं, और तुम्हारे हृदय में उसका कोई भय नहीं है। क्या यह परमेश्वर को स्वीकार करना है? तुम उस चीज़ को स्वीकार करते हो, जो वह कहता है, पर उन बातों का अभ्यास नहीं करते, जिनका कर सकते हो, न ही तुम उसके मार्ग पर चलते हो। क्या यह परमेश्वर को स्वीकार करना है? और हालाँकि तुम उसे स्वीकार करते हो, परंतु तुम्हारी मानसिकता उससे सतर्क रहने की है, उसका सम्मान करने की नहीं। यदि तुमने उसके कार्य को देखा और स्वीकार किया है और तुम जानते हो कि वह परमेश्वर है, और फिर भी तुम निरुत्साह और पूर्णतः अपरिवर्तित रहते हो, तो तुम उस तरह के व्यक्ति हो जिसे अभी जीता नहीं गया है। जिन्हें जीत लिया गया है, उन्हें वह सब करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं; और हालाँकि वे उच्चतर सत्यों में प्रवेश करने में सक्षम नहीं हैं, और ये सत्य उनकी पहुँच से परे हो सकते हैं, फिर भी वे ऐसे लोग हैं, जो अपने हृदय में इन्हें प्राप्त करने के इच्छुक हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे जो स्वीकार कर सकते हैं, उसकी सीमाएँ हैं, और जिसका वे अभ्यास करने में सक्षम हैं, उसकी भी सीमाएँ हैं। फिर भी उन्हें कम से कम वह सब करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं, और यदि तुम यह हासिल कर सकते हो, तो यह वह प्रभाव है, जो विजय के कार्य के कारण हासिल किया गया है। मान लो, तुम कहते हो, "यह देखते हुए कि वह ऐसे अनेक वचन सामने रख सकता है जिन्हें मनुष्य नहीं रख सकता, यदि वह परमेश्वर नहीं है, तो फिर कौन है?" इस प्रकार की सोच का यह अर्थ नहीं कि तुम परमेश्वर को स्वीकार करते हो। यदि तुम परमेश्वर को स्वीकार करते हो, तो यह तुम्हें अपने वास्तविक कार्यों के द्वारा प्रदर्शित करना चाहिए। यदि तुम किसी कलीसिया की अगुआई करते हो, परंतु धार्मिकता का अभ्यास नहीं करते, और धन और संपदा की लालसा रखते हो, और हमेशा कलीसिया का पैसा हड़प लेते हो, तो क्या यह, यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर है? परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और श्रद्धा के योग्य है। तुम भयभीत कैसे नहीं होगे, यदि तुम वास्तव में स्वीकार करते हो कि परमेश्वर है? अगर तुम ऐसे घृणित कार्य करने में सक्षम हो, तो क्या तुम वास्तव में उसे स्वीकार करते हो? क्या वह परमेश्वर ही है, जिसमें तुम विश्वास करते हो? जिसमें तुम विश्वास करते हो, वह एक अज्ञात परमेश्वर है; इसीलिए तुम भयभीत नहीं हो! जो लोग वास्तव में परमेश्वर को स्वीकार करते और उसे जानते हैं, वे सभी उसका भय मानते हैं और ऐसा कुछ भी करने से डरते हैं, जो उसके विरोध में हो या जो उनके विवेक के विरुद्ध जाता हो; वे विशेषतः ऐसा कुछ भी करने से डरते हैं, जिसके बारे में वे जानते हैं कि वह परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध है। केवल इसे ही परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना माना जा सकता है। तुम्हें क्या करना चाहिए, जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने की कोशिश करते हैं? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए, जब तुम्हारा अविश्वासी पति तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है? और तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए, जब भाई और बहन तुमसे घृणा करते हैं? यदि तुम उसे स्वीकार करते हो, तो इन मामलों में तुम उचित रूप से व्यवहार करोगे और वास्तविकता को जियोगे। यदि तुम ठोस कार्य करने में असफल रहते हो, परंतु मात्र कहते हो कि तुम परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हो, तब तुम मात्र एक बकवादी व्यक्ति हो! तुम कहते हो कि तुम उसमें विश्वास करते और उसे स्वीकार करते हो, पर तुम किस तरह से उसे स्वीकार करते हो? तुम किस तरह से उसमें विश्वास करते हो? क्या तुम उसका भय मानते हो? क्या तुम उसका सम्मान करते हो? क्या तुम उसे आंतरिक गहराई से प्रेम करते हो? जब तुम व्यथित होते हो और तुम्हारे पास सहारे के लिए कोई नहीं होता, तो तुम परमेश्वर की मनोहरता का अनुभव करते हो, पर बाद में तुम इसके बारे में सब-कुछ भूल जाते हो। यह परमेश्वर से प्रेम करना नहीं है, और न ही यह उसमें विश्वास करना है! अंततः परमेश्वर मनुष्य से क्या प्राप्त करवाना चाहता है? वे सब स्थितियाँ, जिनका मैंने उल्लेख किया, जैसे कि अपने स्वयं के महत्व से अत्यधिक प्रभावित महसूस करना, यह अनुभव करना कि तुम नई चीज़ों को अतिशीघ्र पकड़ और समझ लेते हो, अन्य लोगों को नियंत्रित करना, दूसरों को नीची निगाह से देखना, लोगों को उनकी दिखावट से आँकना, ईमानदार लोगों को धौंस देना, कलीसिया के धन की लालसा रखना, आदि-आदि—जब ये सभी भ्रष्ट स्वभाव तुममें से अंशत: हटा दिए गए हों, केवल तभी तुम पर पाई गई जीत अभिव्यक्त होगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (4)
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