परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप | अंश 263
28 जून, 2020
जब सबसे पहले मनुष्य को सामाजिक विज्ञान मिला, तब से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान में व्यस्त था। फिर विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं था, और परमेश्वर की आराधना के लिए अब और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थी। मनुष्यों के हृदय में परमेश्वर की स्थिति और भी नीचे हो गई थी। मनुष्य के हृदय का संसार, जिसमें परमेश्वर के लिये जगह न हो, अंधकारमय, और आशारहित है। और इसलिए, मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए, सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांतों को व्यक्त करने के लिए कई सामाजिक वैज्ञानिक, इतिहासकार और राजनीतिज्ञ उत्पन्न हो गए जिन्होंने इस सच्चाई की अवहेलना की कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की। इस तरह, जो यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने सब कुछ बनाया है वे बहुत ही कम रह गए, और वे जो विकास के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं उनकी संख्या और भी अधिक बढ़ गई। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथकों और पौराणिक कथाओं के रूप में मानते हैं। लोग, अपने हृदयों में, परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति कि परमेश्वर का अस्तित्व है और सभी चीज़ों पर प्रभुत्व धारण करता है, उदासीन बन जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रह जाते हैं। मनुष्य केवल खाने, पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ...कुछ लोग स्वयं इस बात की खोज करने का उत्तरदायित्व ले लेते हैं कि आज परमेश्वर अपना कार्य कहाँ करता है, या यह तलाशने का उत्तरदायित्व ले लेते हैं कि वह किस प्रकार मनुष्य के गंतव्य पर नियंत्रण करता और उसे सँवारता है। और इस तरह, मानव सभ्यता मनुष्यों की इच्छाओं को पूर्ण करने में अनजाने में और भी अधिक अक्षम बन जाती है, और कई ऐसे लोग भी हैं जो यह महसूस करते हैं कि इस प्रकार के संसार में रह कर वे, उन लोगों के बजाय जो चले गए हैं, कम खुश हैं। यहाँ तक की उन देशों के लोग भी जो अत्यधिक सभ्य हुआ करते थे इस तरह की शिकायतों को हवा देते हैं। क्योंकि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि मानवजाति की सभ्यता को सुरक्षित रखने के लिए शासक और समाजशास्त्री अपना कितना दिमाग ख़पाते हैं, परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, यह किसी लाभ का नहीं है। मनुष्य के हृदय का खालीपन कोई नहीं भर सकता है, क्योंकि मनुष्य का जीवन कोई नहीं बन सकता है, और कोई भी सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को उस खालीपन से मुक्ति नहीं दिला सकता है जिससे वह व्यथित है। विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम ये सब मात्र अस्थायी चैन हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ भी, मनुष्य अपरिहार्य रूप से पाप करेगा और समाज के अन्याय पर विलाप करेगा। ये वस्तुएँ मनुष्य की लालसा और अन्वेषण की इच्छा को शांत नहीं कर सकती हैं। क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर के द्वारा बनाया गया है और मनुष्यों के बेहूदे बलिदान और अन्वेषण केवल और भी अधिक कष्ट की ओर लेकर जा सकते हैं। मनुष्य एक निरंतर भय की स्थिति में रहेगा, और नहीं जान सकेगा कि मानवजाति के भविष्य का किस प्रकार से सामना किया जाए, या आगे आने वाले मार्ग पर कैसे चला जाए। मनुष्य यहाँ तक कि विज्ञान और ज्ञान के भय से भी डरने लगेगा, और स्वयं के भीतर के खालीपन से और भी अधिक डरने लगेगा। इस संसार में, इस बात की परवाह किए बिना कि क्या तुम एक स्वंतत्र देश में या बिना मानव अधिकार वाले देश में रहतें हो, तुम मानवजाति के भाग्य से बचकर भागने में सर्वथा अयोग्य हो। चाहे तुम एक शासक हो या शासित, तुम भाग्य, रहस्यों और मानवजाति के गंतव्य की खोज की इच्छा से बच कर भागने में सर्वथा अक्षम हो। खालीपन के व्याकुल करने वाले अनुभव से बचकर भागने में तो बिल्कुल भी सक्षम नहीं हो। इस प्रकार की घटनाएँ जो समस्त मानवजाति के लिए साधारण हैं, समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक घटनाएँ कही जाती हैं, फिर भी कोई महान व्यक्ति इस समस्या का समाधान करने के लिए सामने नहीं आ सकता है। मनुष्य, आखिरकार, मनुष्य ही है। परमेश्वर का स्थान और जीवन किसी भी मनुष्य के द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है। मानवजाति को न केवल एक निष्पक्ष समाज की, जिसमें हर एक परिपुष्ट हो, और सभी एक समान और स्वतंत्र हों, बल्कि परमेश्वर द्वारा उद्धार और उनके लिए जीवन की उपलब्धता की भी आवश्यकता है। केवल जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा उद्धार और अपने जीवन के लिए खाद्य सामग्री प्राप्त कर लेता है तभी मनुष्य की आवश्यकताएँ, अन्वेषण की लालसा और आध्यात्मिक रिक्तता का समाधान हो सकता है। यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर द्वारा उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो इस प्रकार का देश या राष्ट्र विनाश के मार्ग पर, अंधकार की ओर, चला जाएगा, और परमेश्वर के द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा।
शायद तुम्हारा देश वर्तमान में समृद्ध हो रहा हो, किंतु यदि तुम लोगों को परमेश्वर से भटकने देते हो, तो तुम्हारा देश स्वयं को उत्तरोत्तर परमेश्वर की आशीषों से वंचित होता हुआ पाएगा। तुम्हारे देश की सभ्यता उत्तरोत्तर पैरों के नीचे कुचल दी जाएगी, और ज़्यादा समय नहीं लगेगा कि लोग परमेश्वर के विरूद्ध उठकर स्वर्ग को कोसने लगेंगे। और इसलिए देश का भाग्य का अनजाने में ही विनाश कर दिया जाएगा। परमेश्वर शक्तिशाली देशों को उन देशों से निपटने के लिए अधिक ऊपर उठाएगा जिन्हें परमेश्वर द्वारा श्राप दिया गया है, यहाँ तक कि पृथ्वी से उनका अस्तित्व भी मिटा सकता है। किसी देश का उत्थान और पतन इस बात पर आधारित होता है कि क्या इसके शासक परमेश्वर की आराधना करते हैं, और क्या वे अपने लोगों को परमेश्वर के निकट लाने और आराधना करने में उनकी अगुआई करते हैं। और फिर भी, इस अंतिम युग में, क्योंकि वे जो वास्तव में परमेश्वर को खोजते और आराधना करते हैं वे तेजी से दुर्लभ हो रहे हैं, इसलिए परमेश्वर उन देशों पर अपना विशेष अनुग्रह प्रदान करता है जिनमें ईसाईयत एक राज्य धर्म है। वह संसार में एक अपेक्षाकृत धार्मिक शिविर बनाने के लिए उन्हें एक साथ एकत्रित करता है, जबकि नास्तिक देश या जो देश सच्चे परमेश्वर की आराधना नहीं करते हैं वे धार्मिक शिविर के विरोधी बन जाते हैं। इस तरह, परमेश्वर का मानवजाति के बीच न केवल एक स्थान होता है जिससे वह अपना कार्य कर करता है, बल्कि उन देशों को भी प्राप्त करता है जो धर्मी अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, ताकि उन देशों पर शास्तियाँ और प्रतिबंध लगाए जाएँ जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। मगर, इसके बावजूद, अभी तक ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो परमेश्वर की आराधना करने के लिए आगे आते हैं, क्योंकि मनुष्य उससे बहुत दूर भटक गया है, और परमेश्वर बहुत लंबे समय से मनुष्यों के विचारों से अनुपस्थित रहा है। पृथ्वी पर ऐसे देश रह जाते हैं जो धार्मिकता का अभ्यास करते हैं और अधार्मिकता का विरोध करते हैं। किन्तु यह परमेश्वर की इच्छा से अत्यंत दूर है, क्योंकि किसी भी देश का शासक अपने लोगों के ऊपर परमेश्वर को नियंत्रण नहीं करने देगा, और कोई राजनीतिक दल परमेश्वर की आराधना करने के लिए अपने लोगों को एक साथ इकट्ठा नहीं करेगा; परमेश्वर ने प्रत्येक देश, राष्ट्र, सत्तारूढ़ दल, और यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में अपना न्यायसंगत स्थान खो दिया है। यद्यपि धर्मी ताक़तें इस दुनिया में मौजूद हैं, किन्तु वह शासन जिसमें मनुष्य के हृदय में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं हो नाज़ुक होता है। परमेश्वर के आशीष के बिना, राजनीतिक क्षेत्र अव्यवस्था में पड़ जाएँगे और हमले के लिए असुरक्षित हो जाएँगे। मानवजाति के लिए, परमेश्वर के आशीष के बिना होना धूप के न होने के समान है। इस बात की परवाह किए बिना कि शासक अपने लोगों के लिए कितने अधिक परिश्रम से योगदान करते हैं, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि मानवजाति कितने धर्मी सम्मेलन आयोजित करती है, इनमें से कोई भी चीज़ों की कायापलट नहीं करेगा या मानवजाति के भाग्य को नहीं बदलेगा। मनुष्य का मानना है कि ऐसा देश जिसमें लोगों को खिलाया जाता है और पहनने के कपड़े दिए जाते हैं, जिसमें वे एक साथ शान्ति से रहते हैं, एक अच्छा देश है, और एक अच्छे नेतृत्व वाला देश है। किन्तु परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। उसका मानना है कि कोई देश जिसमें कोई भी व्यक्ति उसकी आराधना नहीं करता है एक ऐसा देश है जिसे वह जड़ से मिटा देगा। मनुष्य के सोचने का तरीका परमेश्वर के सोचने के तरीकों से पूरी तरह भिन्न है। यदि किसी देश का मुखिया परमेश्वर की आराधना नहीं करता है, तो उस देश का भाग्य बहुत ही दुःखदायक होगा, और उस देश का कोई गंतव्य नहीं होगा।
परमेश्वर मनुष्य की राजनीति में भाग नहीं लेता है, फिर भी देश या राष्ट्र का भाग्य परमेश्वर के द्वारा नियंत्रित होता है। परमेश्वर इस संसार को और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करता है। मनुष्य का भाग्य और परमेश्वर की योजना बहुत ही घनिष्ठता से जुड़ी हुई हैं, और कोई भी मनुष्य, देश या राष्ट्र परमेश्वर की सम्प्रभुता से मुक्त नहीं है। यदि मनुष्य अपने भाग्य को जानना चाहता है, तो उसे अवश्य परमेश्वर के सामने आना चाहिए। परमेश्वर उन लोगों को समृद्ध करवाएगा है जो उसका अनुसरण करते और उसकी आराधना करते हैं, और उनका पतन और विनाश करेगा जो उसका विरोध करते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है
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