वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं? (भाग एक)
तुम लोग आज सत्य का कौन-सा पहलू सबसे अधिक सुनना चाहते हो? मैं तुम लोगों को चुनने के लिए कुछ विषय दूँगा, और तुम लोग जिस भी विषय पर चाहो, हम उस पर संगति कर सकते हैं। पहला प्रश्न है : तुम स्वयं को कैसे जानते हो? स्वयं को जानने का तरीका क्या है? तुम्हें स्वयं को क्यों जानना चाहिए? दूसरा प्रश्न है : परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं? क्या तुम परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार जिए हो, या तुम शैतानी स्वभावों और फलसफों के अनुसार जिए हो? कौन-सा व्यवहार दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार जीते हो? यदि तुम शैतानी स्वभावों और फलसफों के अनुसार जीते हो, तो तुम्हारी भ्रष्टता कैसे अभिव्यक्त और प्रकट होगी? तीसरा प्रश्न है : भ्रष्ट स्वभाव क्या होता है? हमने पहले भ्रष्ट स्वभाव के छह पहलुओं पर चर्चा की थी, इसलिए मैं इस बारे में बात करूँगा कि कौन-सी दशाएँ इन भ्रष्ट स्वभावों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होती हैं। अब यह तुम लोगों को चुनना है। तुम लोग कौन-सा प्रश्न सबसे कम समझते हो, लेकिन सबसे अधिक समझना चाहते हो, और समझने में सबसे कठिन पाते हो? (हम दूसरा प्रश्न चुनते हैं।) तो हम इस विषय पर संगति करेंगे। एक पल के लिए मनन करो। परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं, और इस विषय में कौन-सी चीजें शामिल हैं? इस वाक्य का मुख्य बिंदु “किसके” शब्द है। इस “किसके” के दायरे में क्या शामिल है? तुम लोग इसमें से क्या समझ सकते हो? जो चीजें तुम लोग सोचते हो कि सबसे महत्वपूर्ण हैं, परमेश्वर में विश्वास रखते समय जिन चीजों का अभ्यास किया जाना चाहिए, और जो चीजें मनुष्यों के पास होनी चाहिए, वे इस शब्द “किसके” के दायरे में आती हैं। तुम लोग अपने दैनिक जीवन में जिन चीजों के संपर्क में आते हो, तुम्हारी काबिलियत और बोध क्षमता जिन चीजों को समझने की तुम्हें अनुमति देती है, जिन चीजों को तुम लोग सकारात्मक मानते हो, जिन चीजों के बारे में तुम सोचते हो कि सत्य के करीब हैं और उससे मेल खाती हैं, जो भी चीजें तुम सोचते हो कि सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, और जो भी चीजें तुम सोचते हो कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं, ये सब वो चीजें हैं जिनके सहारे तुम लोग इन वर्षों में परमेश्वर का अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निभाते हुए जी रहे हो, इसलिए हम उन्हें सामने लाकर उन पर संगति कर सकते हैं। वे कौन-सी चीजें हैं जिनके बारे में तुम लोग सोच सकते हो? (मुझे लगता है कि परमेश्वर में अपने विश्वास में, मुझे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के लिए बस कष्ट सहना होगा, कीमत चुकानी होगी और अपने कर्तव्य के परिणाम प्राप्त करने होंगे।) इस दृष्टिकोण को तुम सकारात्मक दृष्टिकोण मानते हो। तो फिर इस दृष्टिकोण और पौलुस के दृष्टिकोण में क्या अंतर है? क्या सार वही नहीं है? (वही है।) सार एक ही है। क्या इस दृष्टिकोण का सार, मात्र एक कल्पना नहीं है? (हाँ, है।) वर्षों से तुम इस कल्पना और जो तुम सोचते हो वही सही है, के सहारे जी रहे हो। परमेश्वर में विश्वास करने, अपना कर्तव्य निभाने और कलीसियाई जीवन जीने के लिए भी तुमने इसी पर भरोसा किया है। यह एक स्थिति है। सबसे पहले तुम्हें यह पुष्टि करने की आवश्यकता है कि क्या तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण सही हैं और क्या परमेश्वर के वचन में उनका कोई आधार है। यदि तुम सोचते हो कि वे सही हैं, कि उनका कोई आधार है, और तुम जो करते हो वह सत्य का अभ्यास करना है, लेकिन तुम वास्तव में गलत हो, तो आज हम अपनी संगति में इसी पर चर्चा करेंगे।
लोग ठीक जिसके अनुसार जिए हैं उसके सत्य का पहलू पर संगति करने का सबसे सरल तरीका एक ऐसे विषय से शुरू करना है जिसे हर कोई समझ सकता है, जैसे पौलुस का मामला, और फिर तुम लोग इसका अपनी दशा से मिलान करो। पौलुस के बारे में बात क्यों करें? ज्यादातर लोग पौलुस की कहानी जानते हैं। बाइबल में पौलुस के बारे में कौन-सी कहानियाँ या प्रकरण हैं? उदाहरण के लिए पौलुस के प्रसिद्ध कथन कौन-से हैं, या उसकी विशेषताएँ, व्यक्तित्व और क्षमताएँ क्या हैं? मुझे बताओ। (पौलुस को गम्लीएल ने शिक्षित किया था जो कानून का प्रखर विद्वान था और पौलुस के लिए यह एक अच्छा ब्रांड था, यह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बराबर था।) आधुनिक शब्दों में कहें तो, पौलुस धर्मशास्त्र का छात्र था जिसने धर्मशास्त्र के एक प्रतिष्ठित स्कूल से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। यह पौलुस के बारे में पहला अपेक्षाकृत प्रतिनिधिक विषय है, जो उसकी पृष्ठभूमि, शिक्षा के स्तर और सामाजिक स्थिति के संबंध में है। जहाँ तक दूसरे विषय की बात है, पौलुस का सबसे प्रसिद्ध कथन क्या है? (“मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)।) उसकी भागदौड़ की प्रेरणा यही है। आधुनिक शब्दों में कहें तो, पौलुस ने कष्ट उठाया और कीमत चुकाई, काम किया और सुसमाचार का प्रचार किया, लेकिन उसकी प्रेरणा मुकुट हासिल करने की थी। यह दूसरा विषय है। तुम जारी रख सकते हो। (पौलुस ने कहा, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) यह भी पौलुस के अति चिरप्रतिष्ठित कथनों में से एक है। यह तीसरा विषय है। हमने अभी तीन विषयों का उल्लेख किया। पहला यह था कि पौलुस कानून के प्रखर विद्वान गम्लीएल का छात्र था, जो वर्तमान सेमिनेरी स्कूल से स्नातक करने के समकक्ष है। सामान्य लोगों की तुलना में वह निश्चित रूप से बाइबल का अधिक ज्ञाता था। ऐसे स्कूल से स्नातक होने के कारण पौलुस को पुराने नियम का ज्ञान था। यह पौलुस की शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी। इसने उसके भविष्य के प्रचार और कलीसियाओं के प्रावधान को कैसे प्रभावित किया? हो सकता है कि इससे कुछ फायदा हुआ हो—लेकिन क्या इससे कोई नुकसान हुआ? (हाँ, हुआ।) क्या धार्मिक शिक्षा सत्य से मेल खाती है? (नहीं, मेल नहीं खाती।) धार्मिक शिक्षा पूरी तरह से सत्याभासी चीज है, पूरी तरह से खोखला सिद्धांत है। यह व्यावहारिक नहीं है। दूसरा विषय क्या था? (पौलुस ने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।”) पौलुस इन वचनों के अनुसार जिया; उसने उनके अनुसार अनुसरण किया। तो फिर क्या हम कह सकते हैं कि पौलुस के कष्ट सहने, कीमत चुकाने के पीछे ये ही इरादे और उद्देश्य थे? (हाँ।) स्पष्ट रूप से कहें तो उसका इरादा पुरस्कार प्राप्त करना था, जिसका अर्थ है कि उसने अपनी दौड़ पूरी की, अपनी कीमत चुकाई, और अच्छी कुश्ती लड़ी ताकि इन चीजों के बदले में धार्मिकता के मुकुट का सौदा कर सके। इससे पता चलता है कि पौलुस के अनुसरण के वर्ष पुरस्कार प्राप्त करने और धार्मिकता का मुकुट हासिल करने से जुड़े थे। यदि उसका इरादा और उद्देश्य यह नहीं होता, तो क्या वह ऐसा कष्ट सहने और इतनी कीमत चुकाने में सक्षम होता? क्या वह अपनी नैतिक गुणवत्ता, महत्वाकांक्षा और इच्छाओं के आधार पर वह काम कर पाता जो उसने किया और जो कीमत उसने चुकाई, वह चुका पाता? (नहीं।) मान लो कि प्रभु यीशु ने उससे पहले ही कह दिया होता, “जब मैंने पृथ्वी पर काम किया, तो तुमने मुझे सताया। तुम जैसे लोगों को दंडित और शापित किया जाता है। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम ऐसी गलतियों की भरपाई नहीं कर सकते; चाहे तुम कितना भी पश्चात्ताप करो, मैं तुम्हें नहीं बचाऊँगा।” तो, पौलुस का रवैया किस प्रकार का होता? (उसने परमेश्वर को त्याग दिया होता और उसमें विश्वास करना बंद कर दिया होता।) न केवल उसने परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया होता, बल्कि उसने परमेश्वर को नकार भी दिया होता, इस बात से इनकार कर दिया होता कि प्रभु यीशु मसीह था, और स्वर्ग में परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकार दिया होता। तो पौलुस किसके अनुसार जिया? उसने परमेश्वर से ईमानदारी से प्रेम नहीं किया, और वह ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उसके प्रति समर्पण करता था, तो फिर वह इतने सारे क्लेशों के बावजूद सुसमाचार का प्रचार करने में सक्षम क्यों रहा? यह कहना उचित है कि उसका मुख्य सहारा आशीष की इच्छा थी; इसी से उसे ताकत मिली। इसके अलावा जब पौलुस ने अतीत में दमिश्क की सड़क पर परमेश्वर की महान रोशनी देखी थी, तो वह अंधा हो गया था। वह जमीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा था और काँपने लगा था। उसने परमेश्वर की महानता और श्रद्धा-मिश्रित भय को महसूस किया था, और उसे डर था कि परमेश्वर उस पर प्रहार करेगा, इसलिए उसने परमेश्वर का आदेश नकारने का साहस नहीं किया। चाहे कठिनाइयाँ कितनी भी बड़ी हों, उसे सुसमाचार का प्रचार करते रहना था। वह ढिलाई बरतने का जोखिम नहीं उठा सकता था। वह इसका हिस्सा था। हालाँकि इसका सबसे बड़ा हिस्सा आशीष पाने की उसकी तीव्र इच्छा थी। उसने जो काम किए, क्या वह आशीष पाने की इच्छा, उस आशा की किरण के बिना भी उन्हें करता? हरगिज नहीं। तीसरा विषय यह था कि पौलुस ने गवाही दी कि उसके लिए जीवित रहना ही मसीह है। आओ सबसे पहले पौलुस के किए गए कार्य पर एक नजर डालें। पौलुस के पास धर्म का प्रचुर ज्ञान था; उसकी अच्छी खासी प्रतिष्ठा और काफी विशिष्ट शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी। तुम कह सकते हो कि वह आम लोगों से अधिक विद्वान था। तो उसने अपना काम करने के लिए किस पर भरोसा किया? (अपने गुणों और क्षमताओं पर और बाइबल के अपने ज्ञान पर।) देखने में तो वह सुसमाचार का प्रचार कर रहा होगा और प्रभु यीशु की गवाही दे रहा होगा, लेकिन उसने केवल प्रभु यीशु के नाम की गवाही दी; उसने वास्तव में इस बात की गवाही नहीं दी थी कि प्रभु यीशु प्रत्यक्ष परमेश्वर था और कार्य कर रहा था, कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर था। तो फिर पौलुस वास्तव में किसकी गवाही दे रहा था? (उसने स्वयं की गवाही दी। उसने कहा, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।”) उसके शब्दों का क्या अर्थ है? यही कि प्रभु यीशु स्वयं मसीह, प्रभु और परमेश्वर नहीं था बल्कि वह था। पौलुस अपने इरादों और महत्वाकांक्षाओं के कारण इस तरह भाग-दौड़कर प्रचार कर पाया। उसकी महत्वाकांक्षा क्या थी? यह कि जिन लोगों को उसने उपदेश दिया था या जिन्होंने उसके बारे में सुना था, वे सभी लोग यह सोचने पर मजबूर हो जाएँ कि वह मसीह और परमेश्वर के रूप में जिया। यह एक पहलू है, वह अपनी इच्छाओं के अनुसार जिया। साथ ही, पौलुस का कार्य उसके बाइबल के ज्ञान पर आधारित था। उसके उपदेश और शब्दों से यह प्रदर्शित होता था कि उसे बाइबल का ज्ञान था। उसने पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबुद्धता या सत्य वास्तविकताओं के बारे में बात नहीं की। ये विषय उसके पत्रों में कहीं नहीं मिलते और निश्चित रूप से उसे इस प्रकार का अनुभव नहीं था। पौलुस ने अपने काम में कहीं भी प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचनों की गवाही नहीं दी। उदाहरण के लिए, लोगों को पाप-स्वीकार और पश्चात्ताप का अभ्यास कैसे करना चाहिए इसके लिए प्रभु यीशु ने जो शिक्षा दी या शिक्षाओं के कई वचन जो प्रभु यीशु ने लोगों से कहे—पौलुस ने कभी उनका प्रचार नहीं किया। पौलुस द्वारा किए गए किसी भी कार्य का प्रभु यीशु के वचनों से कोई लेना-देना नहीं था, और उसने जो कुछ भी प्रचार किया वह उस धार्मिक शिक्षा और सिद्धांत से संबंधित चीज थी जिसका उसने अध्ययन किया था। धार्मिक शिक्षा और सिद्धांत की उन चीजों में क्या शामिल है? मानवीय धारणाएँ, कल्पनाएँ, फलसफे और निष्कर्ष, अनुभव और सबक, जिनका लोग सारांश निकालते हैं, इत्यादि। संक्षेप में, वे सभी चीजें मानवीय सोच से उत्पन्न होती हैं और मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों को प्रतिबिंबित करती हैं; इनमें से कोई भी सत्य नहीं है, सत्य के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं है। यह सब सत्य के बिल्कुल विपरीत है।
पौलुस का उदाहरण सुनने के बाद उससे अपनी तुलना करें। जिस विषय पर हम आज बात कर रहे हैं, “परमेश्वर में विश्वास के अपने वर्षों के दौरान लोग किसके सहारे जिए हैं” उसके संबंध में क्या तुम लोगों को अपनी कुछ दशाओं और व्यवहारों की याद आती है? (यह मुझे यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर मेरे पास कभी परिवार न हो, अगर मैं कभी भी परमेश्वर के आदेश के साथ विश्वासघात न करूँ, बड़ी परीक्षाएँ आने पर अगर मैं परमेश्वर से कोई शिकायत न करूँ, तो अंत में परमेश्वर मुझे मरने नहीं देगा, ऐसा मेरा मानना है।) यह खयाली पुलाव पकाना है, जो आज की संगति के विषय के करीब है और वास्तविक स्थिति को छूता है। यह वास्तविक जीवन में व्यावहारिक काम-काज को लेकर एक दृष्टिकोण है। और कुछ? (मेरा एक दृष्टिकोण है : मुझे लगता है कि जब तक मैं अपनी आस्था में अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करती हूँ, मुझे अवश्य ही आशीष मिलेगा और एक अद्भुत परिणाम और गंतव्य प्राप्त होगा।) बहुत-से लोगों का ऐसा दृष्टिकोण है, क्या ऐसा नहीं है? यह मूल रूप से एक ऐसा दृष्टिकोण है जिस पर हर कोई सहमत हो सकता है। क्या किसी का दृष्टिकोण अलग है? चलो इसके बारे में जानते हैं। मैं तुम लोगों को कुछ बताना चाहता हूँ : कुछ लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अपने व्यक्तिगत अनुभवों, कल्पनाओं, या आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ने से उन्होंने जो किसी तरह के अनुभव और जो कुछ उदाहरण प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वे अभ्यास से संबंधित कुछ तरीके संक्षेप में बताते हैं, जैसे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को आध्यात्मिक बनने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए, सत्य का अभ्यास करने के लिए उन्हें कैसे कार्य करना चाहिए, इत्यादि। वे सोचते हैं कि वे जो करते हैं वह सत्य का अभ्यास करना है, और ऐसा करके वे परमेश्वर के इरादे पूरे कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग बीमार होते हैं, तो इस मामले में परमेश्वर के इरादे और सत्य की तलाश करने की आवश्यकता होती है। यह उन सबसे बुनियादी बातों में से एक है, जिन्हें परमेश्वर में विश्वास करने वालों को जानना चाहिए। लेकिन वे अभ्यास कैसे करते हैं? वे कहते हैं, “यह बीमारी परमेश्वर का आयोजन है, और मुझे आस्था के सहारे जीना है, तो मैं दवा नहीं लूँगा, इंजेक्शन नहीं लगवाऊँगा, या अस्पताल नहीं जाऊँगा। तुम मेरी आस्था के बारे में क्या सोचते हो? मजबूत है, है न?” क्या इस प्रकार का व्यक्ति आस्था रखता है? (हाँ।) तुम लोग इस दृष्टिकोण से सहमत हो, और तुम लोग भी इसी प्रकार अभ्यास करते हो। तुम सोचते हो कि यदि तुम बीमार हो, तो इंजेक्शन न लगवाना, दवा न लेना, या डॉक्टर के पास न जाना परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सत्य का अभ्यास करने के बराबर है। तो तुम लोग किस आधार पर कहते हो कि यह सत्य का अभ्यास है? क्या इस तरह से अभ्यास करना सही है? इसका आधार क्या है? क्या तुमने इसे सत्यापित होते हुए देखा है? तुम लोग निश्चित नहीं हो। चूँकि तुम लोग नहीं जानते कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, तो इस तरह से अभ्यास करने पर जोर क्यों देते हो? यदि तुम बीमार हो, तुम केवल परमेश्वर से प्रार्थना करते रहते हो, इंजेक्शन नहीं लगवाते, दवा नहीं लेते, डॉक्टर के पास नहीं जाते, और तुम बस मन ही मन परमेश्वर पर भरोसा करते हो और प्रार्थना करते हो, परमेश्वर से इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करते हो या अपने आप को उसके आयोजन की दया पर छोड़ देते हो—क्या इस प्रकार अभ्यास करना सही है? (नहीं।) क्या तुम लोग केवल यही सोचते हो कि यह अब गलत है, या क्या तुम्हें एहसास हुआ था कि यह पहले भी गलत था? (अतीत में जब मैं बीमार हुआ, तो मुझे लगा कि डॉक्टर को दिखाना या दवा लेना एक बाहरी तरीका था, और यह अविश्वास की अभिव्यक्ति थी, इसलिए मैं मामला सँभालने के लिए प्रार्थना या दूसरे तरीकों पर भरोसा कर रहा था।) क्या इसका अर्थ यह है कि यदि परमेश्वर ने तुम्हें कोई बीमारी दी है और तुमने उसे ठीक करा लिया है, तो क्या तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुम्हारे लिए परमेश्वर द्वारा की गई व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर रहे हो? (वह मेरा दृष्टिकोण था।) तो तुम्हें क्या लगता है कि यह दृष्टिकोण सही है या गलत? या, क्या तुम अभी भी भ्रमित हो और नहीं जानते कि यह सही है या गलत, और सोचते हो कि आखिरकार तुमने हमेशा इसी तरह व्यवहार किया है, और किसी और ने नहीं कहा कि यह गलत है, और तुम इसके बारे में दोषी महसूस नहीं करते, तो तुम बस इसी तरह अभ्यास करते रहते हो? (मैंने हमेशा इसी तरह से अभ्यास किया है, और मुझे कुछ भी विशेष महसूस नहीं हुआ।) तो क्या तुम लोग ऐसा करने में थोड़ा भ्रमित महसूस करते हो? चलो इसे छोड़ देते हैं कि तुम सही हो या गलत, लेकिन हम कम से कम एक बात के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं, वह यह है कि इस तरह अभ्यास करना सत्य के अनुरूप नहीं है। क्योंकि, यदि यह सत्य के अनुरूप होता, तो तुम्हें कम से कम यह पता होता कि तुम किस सिद्धांत का पालन कर रहे हो, और ऐसा अभ्यास किस सिद्धांत के दायरे में आता है। लेकिन अब जब हम इस पर गौर करते हैं, तो देखते हैं कि लोग अपनी कल्पनाओं के आधार पर इस तरह से कार्य करते हैं। यह एक अंकुश है जो उन्होंने स्वयं पर लगाया है। इसके अलावा, लोग यह सोचते हुए कि जब वे बीमार हों तो उन्हें ऐसा करना चाहिए, अपनी कल्पनाओं के आधार पर इसे अपने लिए एक मानक के रूप में निर्धारित कर लेते हैं, फिर भी वे ठीक से नहीं जानते कि परमेश्वर की अपेक्षा या मंशा क्या है। वे बस एक तरीके के अनुसार कार्य करते हैं जिसकी कल्पना और निर्धारण वे स्वयं ही करते हैं, बिना यह जाने कि इस तरह से कार्य करने से क्या परिणाम मिलेगा। लोग जब इस अवस्था में होते हैं तो वे किसके सहारे जीते हैं? (अपनी-अपनी कल्पनाओं के सहारे जीते हैं।) क्या इन कल्पनाओं के भीतर कोई धारणा होती है? उनकी धारणा क्या होती है? (कि वे इस तरह से अभ्यास करके परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं।) यह एक धारणा है। क्या यह मामले की सही समझ है? (नहीं।) इसकी एक परिभाषा और एक परिणाम है : जब तुम ऐसी धारणा और ऐसी कल्पनाओं के साथ जीते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे होते हो।
इस बिंदु तक तुम लोगों ने “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं,” इस विषय पर काफी हद तक विचार कर लिया होगा, और तुम कमोबेश जानते हो कि इस विषय पर किस बारे में संगति की जाएगी। तो चलो स्थितियों के कुछ प्रकारों के बारे में बात करते हैं। तुम लोग ध्यान से सुनो और सुनते समय मनन करो। इस मनन का उद्देश्य क्या है? इस मनन का उद्देश्य है मैं जिन स्थितियों के बारे में बात कर रहा हूँ, उनकी तुलना अपनी स्थितियों से करना, उन्हें समझना, और जानना कि तुम्हारे पास उस प्रकार की स्थितियाँ और समस्याएँ हैं, और फिर, सत्य से पूर्णतः असंबंधित विभिन्न चीजों के अनुसार जीने के बजाय सत्य के अनुसार जीने का प्रयास करते हुए, उन स्थितियों और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश करना। “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं” यह ऐसा विषय है जो बहुत-सी चीजों को छूता है, तो चलो गुणों से शुरुआत करते हैं। कुछ लोग स्पष्ट और वाक्पटुता से बोल सकते हैं। वे लोगों से चिकनी-चुपड़ी, मीठी जुबान में बात करते हैं और वे विशेषकर जल्दी सोचने वाले होते हैं। वे हर स्थिति में ठीक-ठीक जानते हैं कि क्या कहना है। परमेश्वर के घर में वे अपनी मीठी जुबान और त्वरित बुद्धि के साथ अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं। उनकी झूठी, मीठी बातें सामान्य समस्याओं को गैर-मुद्दों में बदल देती हैं। वे बहुत-सी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम प्रतीत होते हैं। अपने तेज दिमाग, समाज में अपने अनुभव और अपनी अंतर्दृष्टि से वे देख सकते हैं कि उनके साथ होने वाली किसी भी सामान्य चीज के साथ क्या चल रहा है; समस्या हल करने के लिए उन्हें बस कुछ शब्द बोलने की जरूरत होती है। दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, सोचते हैं, “वे चीजों से इतनी आसानी से निपट सकते हैं। मैं क्यों नहीं निपट सकता?” वे भी अपने आप से बहुत मुदित महसूस करते हैं, और सोचते हैं, “देखो, परमेश्वर ने मुझे यह वाक्पटुता और मीठी जुबान, यह चतुर दिमाग, यह अंतर्दृष्टि और तुरंत प्रतिक्रिया देने की क्षमता दी है, इसलिए ऐसा कुछ नहीं है जिसे मैं नहीं सँभाल सकता!” और यहीं से समस्या उत्पन्न होती है। चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाला तेज-तर्रार व्यक्ति कुछ कर्तव्य निभाने के लिए अपनी क्षमताओं और योग्यताओं का उपयोग कर सकता है, और अपने कर्तव्य को पूरा करने के दौरान वह कुछ समस्याओं का समाधान करता है या परमेश्वर के घर के लिए कुछ चीजें कर देता है, लेकिन अगर तुम उसके हर काम की विस्तार से जाँच करो तो, तुम केवल एक सवाल ही लेकर लौटोगे कि क्या वह जो कुछ भी करता है वह सत्य के अनुरूप है, क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, और क्या यह परमेश्वर के इरादे पूरे करता है। ऐसे लोग अक्सर सत्य नहीं समझते या यह नहीं समझते कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है, फिर भी वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। लेकिन चाहे वे अपने कर्तव्यों को कितनी भी अच्छी तरह निभाएँ, ऐसा क्या है जिस पर वे भरोसा करते हैं? उनके कर्तव्यों के पालन का मूल बिंदु क्या होता है? उनकी सोच, अंतर्दृष्टि, और उनकी मीठी जुबान। क्या तुम लोगों के बीच भी कोई ऐसा है? (हाँ।) वह व्यक्ति जो अपने दिमाग, उच्च आईक्यू, या मीठी जुबान के आधार पर जीता है, क्या वह जानता है कि वह जो करता है वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं? (नहीं।) जब तुम लोग कार्य करते हो तो क्या तुम्हारे पास सिद्धांत होते हैं? या इसे दूसरे तरीके से कहें तो जब तुम लोग कार्य करते हो, तो क्या तुम ऐसा शैतानी फलसफों से, अपने चातुर्य से, अपनी बुद्धिमत्ता और प्रज्ञा से ऐसा करते हो—या तुम ऐसा परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार करते हो? यदि तुम लोग हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार, अपनी प्राथमिकताओं और विचारों के अनुसार कार्य कर रहे हो, तो तुम्हारे कार्यों में कोई सिद्धांत नहीं हैं। लेकिन यदि तुम सत्य की खोज करने में सक्षम हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो—तो यह सिद्धांतों के साथ कार्य करना है। क्या अब तुम लोगों के बोलने और कार्य करने के तरीके में कुछ ऐसा है जो सत्य के विरुद्ध है? क्या तुम सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हो? जब तुम ऐसा करते हो, तो क्या तुम इसे जानते हो? (कभी-कभी जानते हैं।) तुम उस समय क्या करते हो? (हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, पश्चात्ताप करने के अपने संकल्प को मजबूत करते हैं, और परमेश्वर की कसम खाते हैं कि हम फिर कभी इस तरह कार्य नहीं करेंगे।) और अगली बार जब तुम्हारे साथ कुछ ऐसा ही होता है, तो क्या तुम फिर से उसी तरह से कार्य करते हो, और अपने संकल्प को फिर से मजबूत करते हो? (हाँ।) जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है तो तुम हमेशा अपने संकल्प को मजबूत करने का सहारा लेते हो—ठीक है, एक बार जब तुम्हारा संकल्प मजबूत हो जाता है, तो क्या तुम वास्तव में सत्य अभ्यास में लाते हो? क्या तुम वास्तव में सिद्धांतों के मुताबिक कार्य करते हो? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? बहुत-से लोग जब उनके साथ कुछ घटित होता है तब सत्य नहीं खोजते, बल्कि वे अपनी क्षुद्र युक्तियों, अपने गुणों के आधार पर जीते रहते हैं। क्या तेज दिमाग और मीठी जुबान होना ही गुण का एकमात्र प्रकार है? गुणों के सहारे जीना और कैसे अभिव्यक्त होता है? उदाहरण के लिए कुछ लोगों को गाना गाना बहुत पसंद होता है और वे दो-तीन बार सुनने के बाद पूरा गाना गा सकते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में उनके कर्तव्य होते हैं, और वे सोचते हैं कि यह कर्तव्य उन्हें परमेश्वर ने दिया है। यह भावना सही और सटीक है। वर्षों के दौरान वे कई भजन सीख जाते हैं, और जितना अधिक वे गाते हैं, उतना ही बेहतर होते जाते हैं। हालाँकि एक समस्या है जिसके बारे में उन्हें जानकारी नहीं होती है। यह क्या है? उनका गायन उत्तरोत्तर बेहतर होता जाता है और वे इस गुण को अपना जीवन मानने लगते हैं। क्या यह गलत नहीं है? वे हर दिन अपने गुण के सहारे जीते हैं, और जब वे हर दिन भजन गाते हैं, तो वे मानने लगते हैं कि उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है, लेकिन क्या यह सिर्फ एक भ्रम नहीं है? यदि तुम गायन से प्रभावित हो भी जाओ, दूसरे इसका आनंद भी लें और इससे दूसरों को लाभ भी हो, तब भी क्या इससे यह साबित हो सकता है कि तुमने जीवन प्राप्त कर लिया है? कहना मुश्किल है। यह इस पर निर्भर है कि तुम सत्य को कितना समझते हो, क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, क्या तुम्हारे कार्यों और कर्तव्य में सिद्धांत होते हैं, और क्या तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवात्मक गवाही है। केवल इन पहलुओं से ही तुम निर्णय ले सकते हो कि लोगों के पास सत्य वास्तविकताएँ हैं या नहीं। यदि उनके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, तो वे ऐसे लोग हैं जिनके पास जीवन है, विशेष रूप से वे लोग जो परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकते हैं, और वे लोग जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम कर उसको समर्पित हो पाते हैं। यदि किसी व्यक्ति के पास गुण और क्षमताएँ हैं, और उन्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम भी मिलते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और केवल अपने गुणों के आधार पर जीते हैं, अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हैं और कभी किसी का आज्ञापालन नहीं करते, तो क्या ऐसे व्यक्ति में जीवन हो सकता है? किसी के पास जीवन है या नहीं, इसकी कुंजी यह है कि क्या उनके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं। क्षमतावान और गुणी लोग सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वे गुणों पर भरोसा किए बिना कैसे रह सकते हैं? वे इस तरह जीने से कैसे बच सकते हैं? उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। सबसे पहले उन्हें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि गुण क्या होते हैं और जीवन क्या होता है। जब किसी व्यक्ति के पास गुण होता है या कोई क्षमता होती है, तो इसका मतलब है कि वह किसी चीज में स्वाभाविक रूप से बेहतर है या दूसरों की तुलना में किसी न किसी तरह से उत्कृष्ट है। उदाहरण के लिए, हो सकता है तुम दूसरों की तुलना में थोड़ी तेजी से प्रतिक्रिया देते हो, हो सकता है तुम चीजों को दूसरों की तुलना में थोड़ा तेजी से समझते हो, हो सकता है तुमने किसी पेशेवर कौशल में महारत हासिल कर ली हो, या तुम एक शानदार वक्ता हो, इत्यादि। ये ऐसे गुण और क्षमताएँ हैं जो किसी व्यक्ति के पास हो सकती हैं। यदि तुममें कुछ क्षमताएँ और खूबियाँ हैं, तो तुम इन गुणों और क्षमताओं को कैसे समझते हो और कैसे सँभालते हो, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता क्योंकि तुम्हारे जैसे गुण और क्षमताएँ किसी और के पास नहीं हैं, और यदि तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने गुणों और क्षमताओं का उपयोग करते हो तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो यह दृष्टिकोण सही है या गलत? (गलत है।) तुम क्यों कहते हो कि यह गलत है? क्षमताएँ और गुण वास्तव में क्या होते हैं? तुम्हें उन्हें कैसे समझना चाहिए, कैसे उनका उपयोग करना चाहिए और कैसे उनसे निपटना चाहिए? सच तो यह है कि तुम्हारे पास चाहे जो भी गुण या क्षमता हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य और जीवन है। यदि लोगों के पास कुछ निश्चित गुण और क्षमताएँ हैं, तो उनके लिए ऐसा कर्तव्य निभाना उचित होता है जिसमें इन गुणों और क्षमताओं का उपयोग होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, न ही इसका मतलब यह है कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम गायन का गुण लेकर पैदा हुए हो, तो क्या तुम्हारी गायन क्षमता सत्य के अभ्यास का प्रतिनिधित्व करती है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम सिद्धांतों के अनुसार गाते हो? ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लें कि तुम में शब्दों के प्रति स्वाभाविक प्रतिभा है और तुम लिखने में अच्छे हो। यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या तुम्हारा लेखन सत्य के अनुरूप हो सकता है? क्या यह जरूरी है कि इसका मतलब यही हो कि तुम्हारे पास अनुभवात्मक गवाही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) इसलिए गुण और क्षमताएँ सत्य से भिन्न हैं और उनकी तुलना सत्य से नहीं की जा सकती। चाहे तुम्हारे पास जो भी गुण हो, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाओगे। कुछ लोग अक्सर अपने गुणों का दिखावा करते हैं और आमतौर पर महसूस करते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, इसलिए वे अन्य लोगों को तुच्छ समझते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय दूसरों के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होते। वे हमेशा प्रभारी बने रहना चाहते हैं, और परिणामस्वरूप वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, और उनकी कार्यकुशलता भी बहुत कम होती है। गुणों ने उन्हें अहंकारी और आत्म-तुष्ट बना दिया है, दूसरों को नीचा दिखाने पर मजबूर किया है, और उन्हें हमेशा यह महसूस कराया है कि वे अन्य लोगों से बेहतर हैं और कोई भी उनके जितना अच्छा नहीं है, और इस वजह से वे आत्मसंतुष्ट हो गए हैं। क्या ये लोग अपने गुणों के कारण बर्बाद नहीं हुए हैं? वास्तव में बर्बाद हुए हैं। जिन लोगों में गुण होते हैं और क्षमताएँ होती हैं, उनके अहंकारी और आत्म-तुष्ट होने की संभावना सबसे अधिक होती है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और हमेशा अपने गुणों के सहारे जीते हैं, तो यह बहुत खतरनाक बात होती है। चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य निभाए, चाहे उसके पास किसी भी प्रकार की क्षमता हो, यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता तो वह निश्चित रूप से अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहेगा। व्यक्ति के पास जो भी गुण और क्षमताएँ हैं, उसे उसी से संबंधित कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। यदि वह सत्य भी समझ सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है, तो उसके गुणों और क्षमताओं की उस कर्तव्य के प्रदर्शन में भूमिका होगी। जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, और चीजों को करने के लिए केवल अपने गुणों पर भरोसा करते हैं, वे अपने कर्तव्य पूरा करके कोई परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे, और उनके हटा दिए जाने का जोखिम बना रहेगा। यहाँ एक उदाहरण दिया गया है : कुछ लोग लिखने में प्रतिभाशाली होते हैं, लेकिन सत्य नहीं समझते, और जो वे लिखते हैं उसमें बिल्कुल भी सत्य वास्तविकता नहीं होती। इससे दूसरों को कैसे शिक्षा मिलेगी? इसका प्रभाव उस व्यक्ति की तुलना में कम होता है जो अशिक्षित है लेकिन अपनी गवाही के बारे में बात करते हुए सत्य समझता है। बहुत-से लोग गुणों के बीच रहते हैं और सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर में उपयोगी व्यक्ति हैं। लेकिन मुझे बताओ, अगर वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर पाते, तो क्या वे अभी भी मूल्यवान हैं? यदि किसी के पास गुण और क्षमताएँ हैं लेकिन सत्य सिद्धांतों का अभाव है, तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है? जो कोई भी वास्तव में इस मुद्दे को देखेगा और समझेगा, उसे पता चल जाएगा कि गुणों और क्षमताओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। यदि तुम्हारी दशा ऐसी है जिसमें तुम हमेशा अपने गुणों के बारे में शेखी बघारते हो और सोचते हो कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, कि तुम दूसरों से बेहतर हो, जबकि निजी तौर पर उन्हें तुच्छ समझते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए; तुम्हें गुणों की शेखी बघारने के सार की असलियत जाननी होगी। क्या गुणों पर घमंड करना मूर्खता और अज्ञानता की पराकाष्ठा नहीं है? यदि कोई चिकनी-चुपड़ी बातें करने में सक्षम है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है? क्या गुण होने का मतलब यह है कि उसके पास सत्य और जीवन है? क्या ऐसा व्यक्ति जो बिल्कुल भी वास्तविकता न होने के बावजूद अपने गुणों का दिखावा करता है, बेशर्म नहीं है? यदि वे इन चीजों की असलियत जान जाएँ तो वे डींगें नहीं हाँकेंगे। यहाँ एक और सवाल है : इन कुछ हद तक गुणी और क्षमतावान लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या होती है? क्या तुम लोगों के पास ऐसी किसी चीज का अनुभव है? (उनकी सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि वे हर तरह से अच्छे हैं। वे बहुत अहंकारी और दंभी होते हैं; वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं। ऐसे लोगों के लिए सत्य स्वीकारना और सत्य का अभ्यास करना आसान नहीं होता।) वह इसका हिस्सा है। और कुछ? (उनके लिए अपने गुणों और क्षमताओं को छोड़ना कठिन होता है। वे हमेशा सोचते हैं कि वे अपने गुणों और क्षमताओं का उपयोग करके बहुत सारी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। वे बस इतना नहीं जानते कि चीजों को सत्य के अनुसार कैसे देखा जाए।) (गुणी लोग हमेशा सोचते हैं कि वे चीजों को स्वयं सँभाल सकते हैं, इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है, तो उनके लिए परमेश्वर पर भरोसा करना कठिन होता है, और वे सत्य खोजने के लिए तैयार नहीं होते।) तुम लोग जो कह रहे हो वे तथ्य हैं, और तथ्यों के अलावा कुछ नहीं हैं। जो लोग गुणी और क्षमतावान होते हैं, वे खुद को बहुत चतुर समझते हैं, उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं—लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि गुण और क्षमताएँ सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, इन चीजों का सत्य से कोई संबंध नहीं होता। जब लोग अपने कार्यों में गुणों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, तो उनके विचार और राय अक्सर सत्य के विपरीत चलते हैं—लेकिन उन्हें यह दिखता ही नहीं, वे फिर भी सोचते हैं, “देखो मैं कितना होशियार हूँ; मैंने इतने चतुराई भरे विकल्प चुने! इतने बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिए! तुम लोगों में से कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।” वे सदैव आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की मनःस्थिति में रहते हैं। उनके लिए अपने हृदय को शांत कर पाना और यह सोच पाना कठिन होता है कि परमेश्वर उनसे क्या चाहता है, सत्य क्या है और सत्य सिद्धांत क्या हैं। इसलिए उनके लिए सत्य समझना कठिन होता है, भले ही वे कर्तव्य निभाते हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, और इसलिए उनका सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाना भी बहुत मुश्किल होता है। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर सकता और सत्य स्वीकार नहीं कर सकता, तो चाहे कितना भी गुणी या क्षमतावान हो, वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाएगा—इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं हो सकता।
गुणों और क्षमताओं को एक ही तरह की चीज माना जा सकता है। क्षमताएँ कौन-सी होती हैं? कुछ लोग खास किस्म की टेक्नोलॉजी में विशेष रूप से दक्ष होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ पुरुषों को गैजेट्स के साथ छेड़छाड़ करना पसंद होता है और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इलेक्ट्रॉनिक्स में काफी कुशल होते हैं, जो अंदरूनी कंप्यूटर कोड या सॉफ्टवेयर प्रोग्राम के इस्तेमाल में काफी निपुण होते हैं। वे इन चीजों में महारत हासिल कर सकते हैं और उन्हें बहुत जल्दी याद कर सकते हैं—यानी इन चीजों को समझने और याद रखने की उनकी क्षमता असाधारण होती है। यह एक क्षमता है। कुछ लोग भाषाएँ सीखने में अच्छे होते हैं। चाहे वे कोई भी भाषा सीखें, वे बहुत तेजी से सीखते हैं और उनकी याददाश्त सामान्य लोगों से अधिक होती है। कुछ लोग गायन, नृत्य या कला में अच्छे होते हैं, कुछ मेकअप और अभिनय में अच्छे होते हैं, कुछ निर्देशक हो सकते हैं, इत्यादि। चाहे कोई भी क्षमता हो, अगर कोई व्यक्ति किसी प्रकार के काम में संलग्न रहता है, तो यह “वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं,” विषय से जुड़ा है। हमें मानवीय गुणों और क्षमताओं का विश्लेषण करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्योंकि लोगों को अपने गुणों और क्षमताओं के अनुसार जीने में आनंद आता है, और लोग उन्हें पूँजी के रूप में, अपनी आजीविका के स्रोत, जीवन, और अपने जीवन के मूल्य, अनुसरण के लक्ष्य और महत्व के रूप में मानते हैं। लोगों को लगता है कि उनका जीने के लिए इन चीजों पर भरोसा करना स्वाभाविक है, और वे उन्हें मानव जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मानते हैं। आज लगभग हर कोई अपने गुणों और क्षमताओं के सहारे जीता है। तुम लोगों में से प्रत्येक किस प्रकार के गुणों के सहारे जीता है? (मुझे लगता है कि मुझे भाषा का गुण मिला है। इसलिए मैं उस गुण के साथ सुसमाचार का प्रचार करता हूँ—जब मैं किसी ऐसे व्यक्ति से बात कर रहा होता हूँ जो सच्चे मार्ग की जाँच कर रहा है, तो मैं उन्हें करीब ला सकता हूँ और जो मैं कहता हूँ, उसे वे सुनना चाहते हैं।) अच्छा, क्या यह अच्छा है या नहीं कि तुम्हारे पास यह गुण है? (अब जब मैंने परमेश्वर की संगति के बारे में सुना है, तो मुझे लगता है कि यह गुण मेरे सत्य सिद्धांतों की खोज में बाधा बनेगा।) तुम कह रहे हो कि भाषा का गुण होना अच्छा नहीं है, और तुम इस गुण का उपयोग अब और नहीं करना चाहोगे, क्या यह सही है? (नहीं।) तो फिर तुम क्या कह रहे हो? अब तुम लोगों को यह समझने की जरूरत है कि आज की चर्चा का केंद्र बिंदु क्या है, यह तुम लोगों की किस समस्या का समाधान करेगी, इन गुणों के सहारे जीने में क्या गलत है और इसमें क्या सही है। तुम्हें इन चीजों पर स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम इन बातों को नहीं समझते, और यदि अंत में इतनी बातचीत के बाद, तुम्हें लगता है कि सही चीजें गलत हैं, और गलत चीजें भी गलत हैं, और तुम जो कुछ भी करते हो वह गलत है, तो क्या तुम अपने गुणों के सहारे जीने की समस्या का समाधान कर सकते हो? (नहीं। सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भाषा के अपने गुण पर भरोसा करके मुझे लगता है कि मेरा इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना नहीं है, इसके बजाय दिखावा करना, खुद की प्रशंसा करना और अपने बारे में अच्छा महसूस करना है।) तुमने अभी-अभी कारण बताया है कि अपने गुणों के आधार पर जीना गलत क्यों होता है। तुम सोचते हो कि यह गुण तुम्हारी पूँजी है, तुम्हारे आत्म-मूल्य का बोध है और ये विचार और उद्गम बिंदु गलत हैं। तुम इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? (मुझे यह जानना चाहिए कि मेरा गुण केवल मेरा कर्तव्य निभाने का एक साधन है। मेरे गुण का उपयोग करने का उद्देश्य अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना है।) इस तरह सोचने के बाद क्या तुम अचानक सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होगे? (नहीं।) तो तुम इन गुणों के सहारे न जीकर सत्य का अभ्यास कैसे करते रह सकते हो? जब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तब यदि तुम अपने गुणों का उपयोग अपने व्यक्तिगत कौशल और क्षमताओं को दिखाने के लिए कर रहे हो, तो तुम अपने गुणों के सहारे जी रहे हो। हालाँकि यदि तुम अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और समर्पित होने के लिए अपने गुणों और ज्ञान का उपयोग करते हो, और तब तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने और उन परिणामों को प्राप्त करने में सक्षम होते हो जिनकी परमेश्वर को अपेक्षा है, और यदि तुम इस बात पर विचार करते हो कि कैसे बोलो और क्या कहो कि बेहतर ढंग से परमेश्वर की गवाही दे सको, और लोगों को यह समझने और स्पष्ट होने में बेहतर ढंग से मदद कर सको कि परमेश्वर क्या कार्य कर रहा है, और अंततः परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में लोगों की मदद कर पाओ, तो फिर तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। क्या यहाँ कोई अंतर है? (हाँ।) क्या तुम लोग कभी अपने गुणों, क्षमताओं या योग्यताओं का प्रदर्शन करते समय बहक जाते हो और भूल जाते हो कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे थे, और इसके बजाय तुमने एक गैर-विश्वासी की ही तरह दूसरों के सामने दिखावा किया? क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है? (हाँ।) तो इन स्थितियों में किसी व्यक्ति की आंतरिक स्थिति कैसी होती है? यह भोग की स्थिति है, जहाँ उनमें परमेश्वर से डरने वाला हृदय, संयम या अपराध-बोध नहीं होता, जहाँ कुछ करते समय उनके दिमाग में कोई लक्ष्य या सिद्धांत नहीं होते, और जहाँ वे पहले ही वो बुनियादी गरिमा और शालीनता खो चुके होते हैं जो एक ईसाई में होनी चाहिए। यह क्या बन जाता है? यह उनके लिए अपने कौशल का दिखावा और अपनी सत्यनिष्ठा से समझौता बन जाता है। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान क्या तुम अक्सर ऐसी स्थिति का अनुभव करते हो, जहाँ तुम केवल अपनी क्षमताओं और गुणों का प्रदर्शन करने की परवाह करते हो, और जहाँ तुम सत्य की खोज नहीं करते? जब तुम ऐसी स्थिति में होते हो, तो क्या तुम स्वयं इसका एहसास कर पाते हो? क्या तुम अपना रास्ता बदल पाते हो? यदि तुम इसे महसूस कर सकते हो और अपना रास्ता बदल सकते हो, तो तुम सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होगे। लेकिन यदि तुम हमेशा ऐसे ही रहते हो, और लंबे समय तक बार-बार इस स्थिति का अनुभव करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो पूरी तरह से अपने गुणों के सहारे जीता है और जो बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करता। तुम लोगों को क्या लगता है कि तुम्हारा संयम कहाँ से आता है? तुम्हारे संयम की शक्ति किससे तय होती है? यह इस बात से निर्धारित होती है कि तुम सत्य से कितना प्रेम करते हो और तुम बुरी या नकारात्मक चीजों से कितनी घृणा करते हो। जब तुम सत्य को समझ लोगे तो तुम बुरा नहीं करना चाहोगे, और जब तुम नकारात्मक चीजों से नफरत करोगे तो भी तुम बुरा नहीं करना चाहोगे—और ठीक इसी तरह संयम की भावना आती है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते उनके लिए बुरी चीजों से घृणा करना असंभव होता है। इसीलिए उनमें संयम की कोई भावना नहीं होती और इसके बिना वे बेरोक-टोक अनैतिकता के लिए उत्तरदायी होते हैं। वे मनमाने और लापरवाह होते हैं और उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं होती कि वे कितनी बुराई करते हैं।
एक और स्थिति होती है जिसका अनुभव अपने गुणों पर भरोसा करके जीने वाले लोग करते हैं। चाहे लोगों के पास जो भी क्षमताएँ, गुण या कौशल हों, अगर वे केवल काम करते हैं और मेहनत करते हैं, और उन्होंने कभी भी सत्य की खोज नहीं की है, न ही परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश की है, मानो सत्य के अभ्यास करने की अवधारणा उनके दिमाग में मौजूद ही न हो, और उनका एकमात्र प्रोत्साहन काम खत्म करके इसे पूरा करना हो, तो क्या यह पूरी तरह से अपने गुणों और क्षमताओं, और उनकी अपनी क्षमताओं और कौशल के सहारे जीना नहीं है? परमेश्वर में अपने विश्वास में वे बस मेहनत करना चाहते हैं ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें, और परमेश्वर के आशीष के लिए अपने स्वयं के गुणों और कौशलों से लेन-देन कर सकें। अधिकांश लोग इसी स्थिति में होते हैं। अधिकांश लोग इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं, विशेषकर तब जब परमेश्वर का घर उन्हें किसी प्रकार का नियमित कार्य सौंपता है—वे केवल मेहनत करते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मेहनत पर निर्भर रहना चाहते हैं। कभी-कभी वे बात करते या किसी चीज पर नजर डालते हुए ऐसा करते हैं; कभी-कभी अपने हाथों से काम करते या इधर-उधर दौड़ते हुए ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। किसी का अपने गुण पर भरोसा करके जीने का यही मतलब होता है। हम ऐसा क्यों कहते हैं कि अपने गुणों और क्षमताओं के सहारे जीना अपना कर्तव्य निभाने के बजाय मेहनत करना होता है, सत्य का अभ्यास करने की तो बात ही दूर है? एक अंतर है। उदाहरण के लिए मान लो कि परमेश्वर का घर तुम्हें एक कार्य देता है, और जब तुम इसे ले लेते हो, तुम सोचते हो कि कार्य को जल्द से जल्द कैसे पूरा किया जाए, ताकि तुम अपने अगुआ को रिपोर्ट कर सको और उनकी प्रशंसा प्राप्त कर सको। हो सकता है कि तुम्हारा रवैया काफी कर्तव्यनिष्ठ हो और तुम चरण-दर-चरण योजना बनाओ, पर तुम केवल कार्य पूरा करने और दूसरों को दिखाने के लिए इसे करने पर ध्यान केंद्रित करते हो। या तुम इसे करते समय अपने लिए एक मानक निर्धारित कर सकते हो, यह सोचकर कि कार्य को इस तरीके से कैसे किया जाए जो तुम्हें संतुष्ट और खुश करे और जो तुम्हारे अपनाए गए पूर्णता के मानक को पूरा करता हो। चाहे तुम जैसे भी मानक निर्धारित करो, यदि तुम जो करते हो उसका सत्य से कोई संबंध नहीं है, यदि यह सत्य की खोज करने, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझने और पुष्टि करने के बाद नहीं किया जाता, और यदि इसके बजाय यह आँख बंद करके किया जाता है और उलझे हुए मन से किया जाता है, तो यह मेहनत करना है। यह खयाली पुलाव की मानसिकता बनाए रखते हुए अपने दिमाग, गुणों, क्षमताओं और कौशल पर भरोसा करके काम करना है। इस तरह से काम करने का परिणाम क्या होता है? हो सकता है कि तुम कार्य पूरा कर लो, और कोई समस्या न बताए। तुम बहुत खुश होते हो, लेकिन कार्य करने की प्रक्रिया में पहले तो तुम परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाए। दूसरा, तुमने इसे अपने पूरे हृदय, मन और शक्ति से नहीं किया; तुम्हारे हृदय ने सत्य की खोज नहीं की। यदि तुमने सत्य सिद्धांतों की खोज की होती और परमेश्वर के इरादे को तलाशा होता, तो कार्य का तुम्हारा प्रदर्शन मानक के अनुरूप होता। तुम भी सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम हो गए होते, और सटीक रूप से यह समझने में सक्षम हो गए होते कि तुमने जो किया वह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप था। हालाँकि यदि तुम इसमें अपना मन नहीं लगाते, और काम को उलझे हुए मन से करते हो, तो भले ही यह पूरा हो जाए और काम खत्म हो जाए, तुम अपने मन में यह नहीं जान पाओगे कि तुमने इसे कितना अच्छा किया, तुम्हारे पास कोई मानक नहीं होगा, और तुम नहीं जान पाओगे कि कार्य परमेश्वर के इरादे के अनुरूप किया गया था या सत्य के अनुरूप। उस स्थिति में तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होते, तुम श्रम कर रहे होते हो।
हर कोई जो परमेश्वर में विश्वास करता है उसे उसके इरादे समझने चाहिए। केवल वे ही जो अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, और केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करके ही किसी का कर्तव्य-निर्वहन मानक स्तर का हो सकता है। परमेश्वर के आदेश की पूर्ति के लिए एक मानक होता है। प्रभु यीशु ने कहा था : “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।” “परमेश्वर से प्रेम करना” उसका एक पहलू है जो परमेश्वर लोगों से अपेक्षा रखता है। यह अपेक्षा स्वयं कहाँ अभिव्यक्त होनी चाहिए? उसमें तुम्हें परमेश्वर का आदेश पूरा करना होगा। व्यावहारिक दृष्टि से यह एक इंसान के तौर पर अपना कर्तव्य बखूबी निभाना है। तो अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का मानक क्या है? यह परमेश्वर की अपेक्षा है कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम अपना कर्तव्य अपने पूरे मन, प्राण, बुद्धि और शक्ति से अच्छे से निभाओ। यह आसानी से समझ आना चाहिए। परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के लिए तुम्हें मुख्य रूप से अपना मन अपने कर्तव्य में लगाने की आवश्यकता होती है। यदि तुम इसमें अपना मन लगा सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपना पूरा प्राण, पूरी बुद्धि और अपनी पूरी शक्ति से कार्य करना आसान हो जाएगा। यदि तुम केवल अपने मन की कल्पनाओं पर भरोसा करके, और अपने गुणों पर भरोसा करके अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हो? बिल्कुल नहीं। तो वह कौन-सा मानक है जिस पर परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए और अपना कर्तव्य समर्पित रूप से और अच्छी तरह से निभाने के लिए खरा उतरना चाहिए? यह अपने पूरे मन से, अपने पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाना है। यदि तुम परमेश्वर-प्रेमी हृदय के बिना अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने का प्रयास करते हो, तो यह काम नहीं करेगा। यदि तुम्हारा परमेश्वर-प्रेमी हृदय निरंतर मजबूत और अधिक सच्चा होता जाता है, तो तुम स्वाभाविक रूप से अपने कर्तव्य को अपने पूरे मन से, अपने पूरे प्राण से, अपनी पूरी बुद्धि से और अपनी पूरी शक्ति से अच्छे ढंग से करने में सक्षम होगे। तुम्हारा सारा मन, तुम्हारा सारा प्राण, तुम्हारी सारी बुद्धि, तुम्हारी सारी शक्ति—जो सबसे अंत में आती है वह है “तुम्हारी सारी शक्ति”; “तुम्हारा सारा मन” पहले आता है। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं कर रहे हो, तो तुम इसे अपनी पूरी शक्ति से कैसे कर सकते हो? इसीलिए केवल अपनी पूरी शक्ति से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करने से कोई परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता—न ही सिद्धांतों पर खरा उतरा जा सकता है। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? (पूरे मन से।) चाहे परमेश्वर तुम्हें कोई भी कर्तव्य या चीज सौंपे, यदि तुम केवल मेहनत करते हो, इधर-उधर भागते हो और जोर लगाकर प्रयास करते हो, तो क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य कर सकते हो? (नहीं।) तो फिर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कैसे हो सकते हो? (अपने पूरे मन से।) “पूरे मन से” शब्द कहना आसान है और लोग अक्सर इसे कहते हैं, तो तुम इसे पूरे मन से कैसे कर सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “यह तब होता है जब तुम चीजों को थोड़े अधिक प्रयास और ईमानदारी से करते हो, अधिक सोचते हो, किसी और चीज को अपने दिमाग पर हावी नहीं होने देते, और केवल इस पर ध्यान केंद्रित करते हो कि हाथ में जो काम है उसे कैसे करना है, है न?” क्या यह इतना आसान है? (नहीं।) तो आओ अभ्यास के कुछ बुनियादी सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। उन सिद्धांतों के अनुसार जिनका तुम लोग आमतौर पर अभ्यास करते हो या पालन करते हो, पूरे मन से काम करने के लिए तुम्हें सबसे पहले क्या करना चाहिए? तुम्हें अपनी पूरी बुद्धि का उपयोग करना चाहिए, अपनी ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, और चीजों को करने में अपना मन लगाना चाहिए, और अनमना नहीं होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी काम को पूरे हृदय से नहीं कर पाता, तो उसका उत्साह मर जाता है, जो कि अपनी आत्मा खो देने के समान है। बोलते समय उनके विचार भटकते रहेंगे, वे कभी भी काम करने में अपना मन नहीं लगाएँगे और चाहे वे कुछ भी करें, उसमें सोचेंगे नहीं। नतीजतन, वे चीजों को अच्छी तरह से सँभाल नहीं पाएँगे। यदि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से नहीं निभाते और अपना पूरा मन उसमें नहीं लगाते, तो तुम अपना कर्तव्य बुरे ढंग से निभाओगे। भले ही तुम कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तो भी तुम इसे मानक स्तर के ढंग से नहीं कर पाओगे। यदि तुम उसमें अपना मन नहीं लगाते तो तुम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते। कुछ लोग मेहनती कर्मचारी नहीं होते, वे हमेशा अस्थिर और मनमौजी होते हैं, उनका लक्ष्य बहुत ऊँचा होता है, और वे नहीं जानते कि उन्होंने अपना मन कहाँ रख छोड़ा है। क्या ऐसे लोगों के पास मन होता है? तुम लोग कैसे बता सकते हो कि किसी व्यक्ति के पास मन है या नहीं? यदि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास रखता है वह शायद ही कभी परमेश्वर के वचन पढ़ता है, तो क्या उसके पास मन होता है? चाहे कुछ भी हो जाए, यदि वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? चाहे उन्हें जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, यदि वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, तो क्या उनके पास मन है? कुछ लोग बिना कोई स्पष्ट परिणाम प्राप्त किए वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, क्या उनके पास मन होता है? (नहीं।) क्या जिन लोगों के पास मन नहीं होता, वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें जिम्मेदारी के बारे में सोचना चाहिए। “यह मेरी जिम्मेदारी है, मुझे इसे अपने कंधे लेना होगा। अब जब मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है तो मैं भाग नहीं सकता। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है और इसका हिसाब परमेश्वर को देना है।” इसका मतलब है कि तुम्हारे पास एक सैद्धांतिक आधार है। लेकिन क्या केवल सैद्धांतिक आधार होने का मतलब यह होता है कि तुम अपना कर्तव्य पूरे मन से कर रहे हो? (नहीं।) तुम अभी भी परमेश्वर की उन अपेक्षाओं को पूरा करने से दूर हो, जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और पूरे हृदय से कर्तव्य निभाने की हैं। तो अपना कर्तव्य पूरे मन से करने का क्या मतलब होता है? लोग अपने कर्तव्यों को पूरे मन से कैसे निभा सकते हैं? सबसे पहले तुम्हें यह सोचना होगा, “मैं यह कर्तव्य किसके लिए निभा रहा हूँ? क्या मैं यह परमेश्वर, या कलीसिया, या किसी व्यक्ति के लिए कर रहा हूँ?” इसे स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। साथ ही : “मुझे यह कर्तव्य किसने सौंपा? क्या यह परमेश्वर था, या यह कोई अगुआ या कलीसिया थी?” इसे भी साफ करना होगा। यह छोटी-सी बात लग सकती है, लेकिन फिर भी इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। मुझे बताओ, क्या यह कोई अगुआ या कार्यकर्ता था, या कोई कलीसिया थी, जिसने तुम लोगों को तुम्हारा कर्तव्य सौंपा था? (नहीं।) अगर तुम इसके बारे में दिल से आश्वस्त हो, तो यह ठीक है। तुम्हें पुष्टि करनी होगी कि यह परमेश्वर ही था जिसने तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य सौंपा है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यह किसी कलीसिया के अगुआ द्वारा दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह सब परमेश्वर की व्यवस्था से आता है। ऐसे समय हो सकते हैं जब यह स्पष्ट रूप से मानवीय इच्छा से आया हो, लेकिन फिर भी तुम्हें पहले इसे परमेश्वर से स्वीकार करना होगा। इसे अनुभव करने का यही सही तरीका है। यदि तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार करते हो, और जानबूझकर उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित होते हो, और उसके आदेश को स्वीकार करने के लिए आगे बढ़ते हो—यदि तुम इसे इस तरह से अनुभव करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और कार्य मिलेगा। यदि तुम लगातार विश्वास करते हो कि सब कुछ मनुष्य द्वारा किया जाता है और मनुष्य से आता है, यदि तुम इस तरह से चीजों का अनुभव करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का आशीष या उसका कार्य नहीं मिलेगा, क्योंकि तुम बहुत अधिक तिकड़मी हो, तुममें आध्यात्मिक समझ की भारी कमी है। तुम्हारी मानसिकता सही नहीं है। यदि तुम सभी मामलों के साथ मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार पेश आते हो, तो तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होगा, क्योंकि यह परमेश्वर है जो सभी मामलों पर शासन करता है। किसी के लिए परमेश्वर का घर चाहे जिस भी प्रकार के कार्य करने की व्यवस्था करे, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था से आता है, और इसमें परमेश्वर के नेक इरादे हैं। तुम्हें पहले यह जानना होगा। इसे स्पष्ट रूप से देखना बहुत महत्वपूर्ण है; केवल धर्म-सिद्धांत समझने से काम नहीं चलेगा। तुम्हें अपने हृदय में पुष्टि करनी होगी, “यह कर्तव्य मुझे परमेश्वर द्वारा सौंपा गया था। मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभा रहा हूँ, अपने लिए नहीं, किसी और के लिए नहीं। एक सृजित प्राणी के नाते यह मेरा कर्तव्य है, और यह परमेश्वर ने मुझे सौंपा है।” चूँकि यह कर्तव्य परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा था, तो परमेश्वर ने इसे तुम्हें कैसे सौंपा? क्या इसमें पूरे मन से काम करना शामिल है? क्या सत्य की खोज करना आवश्यक है? तुम्हें सत्य, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कर्तव्य की अपेक्षाओं, मानकों और सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए, और खोजना चाहिए कि परमेश्वर का वचन क्या कहता है। यदि उसके वचनों को बिल्कुल स्पष्ट रूप से रखा गया है, तो तुम्हारे लिए यह विचार करने का समय है कि उनका अभ्यास कैसे करें और उन्हें वास्तविक कैसे बनाएँ। तुम्हें उन लोगों के साथ भी संगति करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं, और फिर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए। इसका यही मतलब है, इसे पूरे मन से करना। इसके अलावा मान लो कि अपना कर्तव्य निभाने से पहले तुम परमेश्वर का इरादा खोजते हो, सत्य समझ जाते हो, और जान जाते हो कि क्या करना है, लेकिन जब कार्य करने का समय आता है, तो तुम्हारे अपने विचारों और सत्य सिद्धांतों के बीच विसंगतियाँ और विरोधाभास आ जाते हैं। जब ऐसा हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य करने के सिद्धांत पर पूरे मन से कायम रहना चाहिए, और बिना किसी व्यक्तिगत मिलावट और निश्चित रूप से अपनी इच्छा के मुताबिक काम किए बिना, अपना पूरा मन परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसे संतुष्ट करने में लगाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे उन चीजों की परवाह नहीं है। आखिरकार यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया था, इसलिए अंतिम निर्णय मेरा ही होना चाहिए। मुझे अपने हिसाब से कार्य करने का अधिकार है, मैं वही करूँगा जो मुझे लगता है कि किया जाना चाहिए। मैं अभी भी पूरे मन से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, तो तुम्हारी नजर में यहाँ क्या दोष हैं?” और फिर वे यह पता लगाने में कुछ प्रयास करते हैं कि क्या करना है। यद्यपि अंत में कार्य हो ही जाता है, क्या अभ्यास का यह तरीका और यह अवस्था सही है? क्या यह अपने कर्तव्य पूरे मन से निभाना है? (नहीं।) यहाँ समस्या क्या है? यह अहंकार है, स्वयं में कानून बन जाना, मनमाना और लापरवाह हो जाना है। क्या यह अपना कर्तव्य निभाना है? (नहीं।) यह अपने कर्तव्यों का पालन न करके व्यक्तिगत उद्यम में संलग्न होना है। यह केवल अपनी इच्छा के आधार पर वही करना है जिससे उन्हें संतुष्टि मिलती है और जो उन्हें पसंद आता है, यह पूरे मन से अपने कर्तव्यों को निभाना नहीं है।
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